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संजय कुंदन की कविताएं



कविता कवि और उसके परिवेश के बीच आकार लेती है. समर्थ कविताएँ अपने समय से टकराती हैं, बहुस्तरीय, दृश्य-अदृश्य, और जटिल सत्ताओं को समझने का प्रयास करती हैं. सत्ता ही राजनीति है. सभी कविताएँ इस अर्थ में राजनितिक कविताएँ ही हैं. प्रेम कविताएँ भी. आज प्रेम से बड़ी राजनीति क्या है ? और मृत्यु अगर स्वाभाविक नहीं है तो वह भी किसी न किसी प्रकार की राजनीति की ही देन है.

संजय कुंदन हमारे समय के ऐसे ही कवि हैं जिनकी कविताएँ अलंकारविहीन गद्य में भाषा की सच्चाई के सहारे सर्वव्यापी सत्तामूलक समय को प्रत्यक्ष करती चलती हैं. उनकी कुछ नई कविताएँ आपके लिए.





संजय कुंदन की कविताएं               



मॉब लिंचिंग के मृतक का बयान 
(मंगलेश डबराल से क्षमायाचना सहित) 

उस दिन जिसने मेरी कुंडी खटखटाई थी
वह मेरा पड़ोसी था जो मेरे लिए
हर समय थोड़ी सुरती बचाकर रखता था
और जिसने मां की गाली देते हुए मुझे बाहर घसीटा था
वह मेरे दोस्त का भतीजा था
जिसकी बहती नाक मेरी मां कई बार पोंछा करती थी
उसके छुटपन में

मुझे लगा सब मिलकर मजाक कर रहे हैं
पर मैंने जब बाहर और लोगों को खड़े देखा
तब मुझे थोड़ा ताज्जुब हुआ

उस शख्स के हाथ में सरिया था
जो कभी मुझे अपना दाहिना हाथ बताता था
जिसके कंधे पर लाठी थी
वह मेरे कंधे पर कई बार सिर रखकर रोया था

जो साइकिल की चेन लिए था
वह कई बार मुझे साइकिल पर बिठा
मेला घुमाने ले गया था
जिसके हाथ में चप्पल थी
वह आए दिन मेरी चप्पल मांगकर ले जाता था

वह भी खड़ा था    
जो कबूतरों को बिला नागा दाना-पानी दिया करता था
वह भी था
जो अकसर भिखारियों के लिए भंडारा करता था

जब मेरे ऊपर पहली लाठी पड़ी
तो मेरी आंखें अपने आप बंद हो गईं
आंख मुंदने से पहले मैंने उनकी आंखों में झांका था   
उन आंखों में उस दिन जो दिखा उसे बता सकना मुश्किल है
वे किसी आदमजात की नजरें नहीं हो सकती थीं

मैं चिल्लाकर भी क्या करता
अब तक हर मुश्किल में इन्हीं को आवाज दिया करता था
अब जबकि यही लोग मेरी जान लेने पर उतारू थे
मै किसको बुलाता
सो मैं आखिरी इबादत में लग गया

मुझे सड़क पर पड़ा छोड़
वे इस तरह लौटे 
जैसे उन्होंने मुझे अपने भूगोल और इतिहास
से बाहर फेंक दिया हो
मैं उनकी संस्कृति में एक गांठ की तरह था 
जिसे काटकर निकाल दिया गया
मैं अंतरिक्ष से टपका एक
खतरनाक उल्कापिंड था
जिसे चूर-चूर कर दिया गया 

इधर वे लौट रहे थे
उधर मैं मशहूर हो रहा था
कई अजनबी जुबानों पर मेरा नाम था
लोग वाट्सऐप पर मेरी हत्या का विडियो देख रहे थे
मेरी मौत एक तमाशा बन गई थी
एक हॉरर फिल्म की तरह उसे देखा जा रहा था

कुछ लोग मुग्ध थे हत्यारों के हुनर पर
कुछ ऐसे भी थे जिनका
गला रुंध गया था मुझे तड़पता देखकर
वे बेहद डर गए थे
उन्होंने बाहर खेल रहे अपने बच्चों को अंदर बुलाया
और जल्दी से दरवाजे और खिड़कियां बंद कर लीं
कि कहीं मेरे जैसा कोई और
भीड़ से बचकर भागता हुआ
पहुंच न जाए उनके पास
और हाथ जोड़कर कहे
मुझे छुपा लो अपने घर में.




कवि और कारिंदा

कवि ही कविता नहीं गढ़ता
कविता भी गढ़ती है कवि को 

कवि जब शब्दों को काट-छांट रहा होता है 
शब्द भी तराश रहे होते हैं उसकी आत्मा
हर कविता के बाद 
थोड़ा बदल जाता है कवि
   
वह दुनियादारी की एक सीढ़ी और
फिसल जाता है
बाजार से गुजरता हुआ
थोड़ा और कम खरीदार नजर आता है 

इतना मीठा बोलने लगता है 
कि पक्षी उसके कंधे पर चले आते हैं

इतना तीखा बोलने लगता है  
कि व्यवस्था के कान छिल जाते हैं 

जो गढ़े जाने से इनकार करता है 
वह कवि नहीं कारिंदा होता है.



मेरा शरीर

काश! इसे पटरी पर रख निकल लेता
या किसी बस की सीट पर छोड़ आता

मेरा शरीर मुझे डराने लगा है 
जब मैं किसी स्वप्न की सीढ़ियां 
चढ़ रहा होता 
मेरे कान में फुसफुसाता
मुझे अभी इसी वक्त 
थोड़ा लोहा चाहिए और चूना भी

कभी कहता
मेरा नमक कम हो रहा है 
मैं भहराकर गिर जाऊंगा

यकीन नहीं होता यह वही है
जिसे जूते की तरह पहन 
मैं भटकता रहा हूं 
पथरीली राहों पर

जिसने मेरे साथ खाक छानी 
वही अब मेरी सारी उड़ानें 
छीन लेना चाहता है.


  

सड़क 

एक बीमार या नजरबंद आदमी ही जानता है 
सड़क पर न निकल पाने का दर्द 

सड़कों से दूर रहना हवा, पानी, धूप 
और चिड़ियों से अलग 
रहना नहीं है,
यह मनुष्यता से भी कट जाना है

सड़कें कोलतार की चादरें नहीं हैं
वे सभ्यता का बायस्कोप भी हैं 

कोई इंसान आखिर एक मशीन से 
कब तक दिल बहलाए 
कब तक तस्वीरों में खुद को फंसाए

जिंदगी की हरकतें देखे बगैर 
हमारी रगों में लहू थकने लगता है
सूखने लगता है आंखों का पानी

मनुष्य को मनुष्य की तरह जीते 
देखने के लिए 
ललकता है मन 
इसलिए हम उतरते हैं सड़क पर
सिर्फ परिचितों के लिेए नहीं 
अपरिचितों के लिए भी 

अच्छा लगता है 
सड़क पर लोगों को देखना 
किसी को कहीं से आते हुए
किसी को दूर जाते हुए
कोई थका-हारा. 
कोई हरा-हरा
कोई प्रतीक्षा की आंच में पकता 
कोई किसी से मिल चहकता
 कोई खरीदारी करते हुए
कोई बाजार को चिढ़ाते हुए  

घर से सड़क और सड़क से घर आना 
पृथ्वी के घूर्णन की तरह 
हमारी गति है   



अल्पमत 

मैं अल्पमत में उसी दिन आ गया था
जिस दिन सुलग उठा था 
प्रेम की आंच में 

बहुमत को पसंद नहीं था 
कि मेरे हाथ डैनों की तरह लहराएं 
और मेरे होंठों से शब्द 
सीटियां बजाते हुए आएं 

मैंने उनके लिए भी सपने देखे 
जिन्होंने मेरे लिए फंदे बुने

जो मेरे देश निकाले पर था अड़ा हुआ
मैं उसके भी अधिकारों के पक्ष में खड़ा हुआ

मैं थोड़ा और ज्यादा अल्पमत में आ गया
जिस दिन कविता की पहली सीढ़ी चढ़ गया

जब मैंने सच-सच लिखा
तो झूठ के नशे में डूबे बहुमत ने कहा
कवियों को कुछ नहीं पता

मुझे षडयंत्रकारी, तरक्की के रास्ते का रोड़ा 
और व्यवस्था का फोड़ा बताया गया

बहुमत ने कहा
इस देश में रहना है 
तो हमारे नायक के गुण गाओ
तुम भी हमारे साथ आ जाओ 

पर मैंने सच का साथ नहीं छोड़ा 
जिन घरों से दुत्कारा गया
वहां भी मातमपुर्सी में जरूर गया

चुनाव नतीजों के बाद
मैं भारी अल्पमत में हूं 

मैं आज भी कविताएं लिखता हूं
मैं आज भी प्रेम करता हूं. 




शरणार्थी 

ऐसा नहीं कि
मेरे इलाके की जमीन बंजर हो गई
ऐसा भी नहीं कि
नदियां बंधक बना ली गईं
फिर भी मैं हो रहा विस्थापित

विस्थापन एक जगह से उजड़ना भर नहीं है
किसी के मन से निकाल दिया जाना भी है विस्थापन

जो कभी रोये मेरे कंधे पर सिर रख
जिनके कंधे पर मैं सिर रख रोया
वही मुझे फिर से पहचानने में लगे हैं 
मुझे दोबारा-तिबारा पहचाना जा रहा है 

कितना अजीब है 
जो मेरे रोयें की गंध भी पहचानते हैं 
वे बार-बार मेरा परिचय पूछ रहे हैं 

वे हमें रोज अपने मन से 
थोड़ा-थोड़ा बाहर कर रहे

धीरे-धीरे धकियाया जाता हुआ मैं गिर जाऊंगा
संबधों के सीमान के बाहर
तब यहां मेरा कोई परिचित नहीं रह जाएगा
सिवाय कुछ आवारा कुत्तों के

मैं भी खतरनाक माना जाऊंगा
जैसे खतरनाक माने जा रहे हैं
दुनिया भर के शरणार्थी 

ऐसे समय जब शरणार्थियों के लिए 
दुनिया भर में ऊंची की जा रही दीवारें 
मैं कहां लूंगा शरण  
मुझे कौन गाड़ने देगा तंबू 
अपनी आत्मा के प्रदेश में?

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संपर्कसी-301, जनसत्ता अपार्टमेंटसेक्टर-9, वसुंधरागाजियाबाद-201012(उप्र)
मोबाइल: 09910257915
ईमेलsanjaykundan2@gmail.com

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