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मति का धीर : कावालम नारायण पणिक्कर

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Kavalam Narayan Panikkar






प्रसिद्ध रंगकर्मी और कवि कावालम नारायण पणिक्कर(28 April 1928 − 26 June 2016)को 1983 में ‘संगीत नाटक एकेडमी अवार्ड’, 2002 में ‘संगीत नाटक एकडेमी फेलोशिप’ तथा 2007 में ‘पद्मभूषण’ से सम्मानित किया गया था. उन्हें संस्कृत के शास्त्रीय रंगमंच के लिये ख़ास तौर से जाना जाता है. भास के रूपकों के उनके मंचन ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्रदान की थी. तिरूवनन्तपुरम्‌ में स्थित सोपानम्‌ रंगमण्डली के वे संस्थापक - निर्देशक रहे. उनके निधन से भारतीय रंग – मंच उदास है.

आलोचक ज्योतिष जोशी का यह आलेख उनकी स्मृति में है और उनके विशिष्ट नाट्य-प्रयोगों पर केन्द्रित है.


पणिक्कर का रंग-वैशिष्ट्य                                         
ज्योतिष जोशी


धुनिक भारतीय रंगमंच को जिन रंग निर्देशकों ने भारतीय कलादृष्टि के सातत्य में अपनी कल्पनाशील रंगदृष्टि से समृद्ध किया है, उनमें कावालम नारायण पणिक्करका नाम प्रथम पंक्ति में आता है. श्री पणिक्करमलयालम के प्रसिद्ध नाटककार हैं जिन्होंने बीस से अधिक नाटक लिखे हैं, तो महत्वपूर्ण कवि भी हैं जिनके सात कविता संग्रह प्रकाशित हैं उन्होंने भास और शेक्सपीअरके नाटकों का मलयालम में अनुवाद किया है तो 30 से अधिक नाटकों की बतौर निर्देशक, सैकड़ों प्रस्तुतियां  की हैं. संस्कृत और मलयालम भाषा में क्लासिक संस्कृत नाटकों की प्रस्तुति से उन्होंने जिस भारतीय रंग दृष्टिको प्रस्तावित किया है,  वह अनुकरणीय है. श्री पणिक्कर ने नाट्य शास्त्रको समकालीन सन्दर्भों में व्याख्यायित कर उसे नव्यतम स्तरों पर प्रतिष्ठित किया है और उससे शुद्ध भारतीय रंग-व्याकरण बनाया है.

भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, जयशंकर प्रसाद और उनके बाद रवीन्द्रनाथ ठाकुरने जिस भावप्रवणता तथा कल्पनाशील मन्चीय युक्तियों की बात कहकर यथार्थवादी नाट्य प्रवृत्तियों  का विरोध किया है, उसे आप सहज ही श्री पणिक्कर की प्रस्तुतियों में पा सकते हैं. पणिक्कर ने काव्य को सौन्दर्यमूलक बनाकर उसे नाटक के रूप में प्रतिष्ठित किया. पणिक्कर ने नाट्य शास्त्रके मानकों को अपनी स्थानीय नाट्य युक्तियों के सहारे एक निजी पद्धति के तौर पर विकसित किया जो एक स्तर पर भारतीय नाट्य का सर्वथा मौलिक मुहावरा बनकर सामने आया. पणिक्कर की विशेषता यह है कि उन्होंने केरल की पारम्परिक नाट्य और नृत्य- पद्धतियों  से एक ऐसी मानक रंग-पद्धति विकसित की, जो एक तरफ संस्कृत की गौरवशाली परम्परा का निर्वाह सिद्ध हुई तो दूसरी तरफ उसका सृजनात्मक विकास. कोई भी शास्त्र अन्तिम नहीं  होता. नाट्य शास्त्रने भी अपनी समाप्ति पर विचारकों को इसके आगे बढ़कर सोचने की छूट दी  है.


“एवं नाटके प्रयोगे बहु-बहुविहितम
कर्मशास्त्रम् प्रणीतम्.
न प्रोक्त यच्च लोकादनुकृतिकरम्
तच्च कार्यम् विधिज्ञै: .

अर्थात् नाट्य के प्रयोग पक्ष के अनेकानेक निर्दिष्ट कर्मों के शास्त्रीय तत्वों का उल्लेख कर दिया गया है. जो पक्ष रह गये हों,  अथवा जिनका उल्लेख नहीं  हुआ हो, उन पक्षों को नाट्य के सुविज्ञ जन अपने  समय को लोक में प्रचलित या विद्यमान विषयों को करणीय समझने के उपरान्त समाविष्ट कर लें.

पणिक्कर जी ने अपनी स्थानीय रंग शैलियों के मिश्रण से एक लोकधर्मीशैली विकसित की जिसमें परम्परा और समकालीनता का समन्वय दिखता है. भारतीय पारम्परिक नाट्यशैलियांअभिनय के लिए जिन सांकेतिक मुद्राओं  का अवलम्ब लेती हैं और उनमें जिस तरह, संगीत, नृत्य आदि का आश्रय लिया जाता है, वे सब पणिक्कर जी की नाट्य प्रस्तुतियों में जीवन्त हो उठते हैं.  सांकेतिक मुद्राओं का अवलम्ब तो उनके नाट्य का जीवन ही है. उनके वैशिष्ट्य का दूसरा पक्ष, जिससे नाटक क्षणविशेष के सृजन में सफल होता है- वाचिक तत्वों का पुनराविष्कार है. सम्वादों का उच्चारण, स्वरों का घात-बलाघात, गति-प्रगति,लय जैसे प्रयोगों का कौशल इस रंगदृष्टि को मानक बनाता है.

इन प्रस्तुतियों में आहार्य के अन्तर्गत स्थानीय प्रकृति समग्रता में प्रकट हो जाती है. केरल के प्राकृतिक उपादान, जैसे-नारियल, सुपारी, बाँस, ताड़ न जाने किन-किन रूपों में पणिक्कर जी की प्रस्तुतियों के अभिधान बनते हैं,कहा नहीं जा  सकता. पणिक्कर जी की प्रस्तुतियों की सबसे बड़ी विशेषता उनके कथ्य की प्रतीकात्मकता है. कविता की तरह नाट्य को साधकर उसकी सम्पूर्ण सम्भावनाओं के साथ दृश्य करना अद्भुत प्रभाव की सृष्टि करता है. नाट्य शास्त्रको अपनी स्थानीय रंग परम्पराओं में अवस्थित कर उसे नये समय में प्रतिष्ठित करना और उसे विशुद्ध भारतीय रंग शैली में विन्यस्त करना नाट्य को नये सौन्दर्य शास्त्र से जोड़ने जैसा बड़ा उद्यम है.

श्री पणिक्कर की जिन प्रस्तुतियों में हम नाट्य की दृश्यता और कल्पनाशील भाव-व्यंजकता में सौन्दर्य का दर्शन कर पाते हैं,उनमें- उत्तररामचरित’, ‘मालविकाग्नि मित्र’, ‘मत्तविलास’, ‘स्वप्नवासवदत्ता’, ‘प्रतिज्ञा यौगन्धरायण’, ‘विक्रोमोर्वशीय’, ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’, ‘कर्णभार’, ‘सूर्यस्थानकी प्रस्तुतियां मुख्य हैं. श्री पणिक्कर द्वारा विक्रोमोर्वशीयके चैथे अंक के प्रदर्शन पर विख्यात नाट्यालोचक नेमीचन्द्र जैनने लिखा है ; (यहाँ  यह याद कर लें कि कालिदास अकादेमी,  उज्जैन के आमन्त्रण पर इस नाटक की प्रस्तुति तीन निर्देशकों ने की थी- श्री के.एन. पणिक्कर, श्री रतन थियम और स्वयं अकादेमी के निदेशक श्री कमलेश दत्त त्रिपाठीने) 

Sanskrit Play Bhasa'S Karnbharam :Director: Kavalam Narayan Panikkar
(3rd April, 199,9 Kmani Auditorium, Delhi)
“दूसरी प्रस्तुति भी संसंस्कृत में थी. इसे त्रिवेन्द्रम की मण्डली सोपानम ने विख्यात नाटककार-निर्देशक-अभिनेता कावालम नारायण पणिक्कर के निर्देशन में प्रस्तुत किया था. जैसा कि अपेक्षित था, इस प्रस्तुति में केरल के नृत्य, संगीत या नाट्य-रूपों का प्रयोग तो था ही, उसमें अभिनेता और अभिनय के ऊपर बल था. इसमें सारे ध्रुव-गान प्रस्तुत नहीं  किए गए, और जो किए गए वे केवल संस्कृत में थे. बहुत-से सम्वादों को भी अभिनय की आवश्यकता के अनुसार संक्षिप्त कर दिया गया था.

किन्तु पुरूरवा की भूमिका करनेवाले अभिनेता ने अपनी सूक्ष्म कल्पनाशीलता, सटीक और अभिव्यंजनापूर्ण अभिनटन, शैलीबद्ध वाक्-संयोजन और नृत्यवत् गतियों द्वारा पूरे नाट्यांश को अद्भुत रूप से जीवन्त और मनोहारी बना दिया था. एक ही अभिनेता को बारी-बारी से पक्षी, पशु, बादल, वृक्ष और नदी इत्यादि का रूप लेते और फिर वापस पुरूरवा बनते देखना एक अविस्मरणीय अनुभव था. इस बात में कोई अतिशयोक्ति न होगी कि यह लगभग एक ही अभिनेता के एकल प्रदर्शन-जैसा था, जिसकी उपज और निपुणता से एक अत्यन्त जटिल एवं बहुस्तरीय नाट्य-व्यापार इतना प्रभावशाली नाट्यानुभव बन सका था.

इस प्रदर्शन में भी पटी का बड़ी कलात्मकता से उपयोग किया गया, विशेषकर उर्वशी के लोप होने और पुरूरवा द्वारा नदी से उर्वशी का पता पूछने के दृश्यों में. प्रस्तुति की एक नवीनता यह भी थी कि इसमें उर्वशी के लता बनने के दृश्य को उसकी दोनों सखियों के बीच पूर्वावलोकन के रूप में प्रस्तुत किया गया. निस्सन्देह, पूरे प्रदर्शन पर एक अनुभवी पेशेवर नाट्य-दल के कौशल, परिश्रम और कसाव की पूरी छाप थी.’’(तीसरा पाठ’, पृ.30-31)

इसी तरह पणिक्कर जी ने अपने द्वारा प्रस्तुत सभी नाटकों में अपनी मौलिक दृष्टि तथा सृजनशीलता का परिचय दिया है. उनकी कलात्मकता का असल केंद्र उनकी प्रस्तुति ही है जिसमें वे पाठकी रक्षा करते हुए भी उसके अंतर्निहित भावों को कल्पनाशीलता के साथ दृश्य करते हैं.  नेमिचन्द्र जैन ठीक ही लक्ष्य करते हैं कि “कावालम नारायण पणिक्कर की पद्धतियों की विशिष्टता इस दृश्यात्मक रंगभाषा की खोज और रचना में है जो शब्दों को तो अधिक सार्थकता प्रदान करती ही है, उनसे स्वतन्त्र भी सम्प्रेषण करती है.” (तीसरा पाठ’,पृ. 49)

वैसे तो पणिक्कर जी ने संस्कृत नाटकों के अलावा मलयालम और हिन्दी में भी नाटकों की प्रस्तुतियां की और उनमें भी उनकी वही सूक्ष्म दृष्टि और कुशलता दिखाई देती है. पर कुछ खास संस्कृत नाटकों में उनकी अद्वितीय नाट्य युक्तियों ने विलक्षण प्रभावों की सृष्टि की है जैसा कि हम विक्रोमोर्वशीयके चौथेथे अंक की प्रस्तुति में देख चुके हैं. भास के नाटक उरुभंगम्की प्रस्तुति में श्री पणिक्कर ने एक अपूर्व प्रयोग किया. मालूम हो कि यह नाटक दुर्योधन की अन्तिम अवस्था पर आधारित है जिसकी दोनों जंघाएँ  भंग हैं.  इस प्रस्तुति का विवेचन करते हुए श्री भारतरत्न भार्गवलिखते हैं -"भास का यह नाटक दुर्योधन की मृत्यु कथा का नाटक है, किन्तु यह दुर्योधन की मृत्यु के शोक की नहीं, उसकी मृत्यु के उत्सव की कथा है. शोकाकुल माता की गोद में पड़ा दुर्योधन जब गान्धारी से कहता है कि यदि मेरा पुनर्जन्म हो तो मैं तुम्हारा ही पुत्र बनू, माँ को शोकाल्हादित कर देता है. वह धराशायी होते हुए भी स्वर्ग में अपने पितरों को देखता है और काल द्वारा प्रेषित वीरों को ले जाने वाले विमान को अपने निकट आता हुआ देखता है.

यहाँ  पणिक्कर जी तैयम से प्रेरणा लेते हुए दो दुर्योधनों की रचना करते हैं. एक दुर्योधन तो पूर्ववत् है ही, दूसरा दुर्योधन, दुर्योधन का तैयम है. दुर्योधन अपने ही तैयम को देखकर उससे बातें करता है. वह तैयम  दुर्योधन को बताता है कि उसमें श्रेष्ठ क्या है? वह सही मायने में स्वर्ग का अधिकारी है, जहाँउसके अनेक पितर हैं. जैसे जैसे दुर्योधन गिरता है, वैसे-वैसे उसका तैयम उठता है. दुर्योधन और दुर्योधन का तैयम उसे पश्चाताप की अग्नि से गुजरते हुए एक पवित्रात्मा बनाता और अन्त में उसे आत्मसात् कर लेता है. भूलुण्ठित दुर्योधन की देह अन्ततः तैयम में विलीन हो जाती है.

महत्वपूर्ण बात यह है कि भास के पाठ से पणिक्कर जी तनिक-सी भी छूट नहीं  लेते. वही श्लोक हैं, वही पाठ है किन्तु उसका अन्तर्पाठ (ध्वनिपाठ) एक अन्य अर्थ सम्प्रेषित करने में समर्थ हो जाता है. यह उदाहरण है कि किस तरह केरल का एक लोक अनुष्ठान तैयम पणिक्कर जी के हाथों से संवर  कर नयी रंग भाषा बनने और बनाने का सामर्थ्य जुटा लेता है.(समावर्तन’, मई, 2008,पृ.64-65)

 ‘अभिज्ञान शाकुन्तलम्की प्रस्तुति में दुष्यन्त मृग का पीछा करता हुआ कण्व के आश्रम में आता है. मृग का अचानक शकुन्तला बन जाना और फिर मृग को देखने का भ्रम एक विलक्षण अनुभव बन जाता है. इस भ्रम में मृग के बहाने शकुन्तला का शिकार करना एक ऐसी नाट्य युक्ति का प्रदर्शन है जिसमें हम परोक्ष और प्रत्यक्ष के भाव को देख पाते हैं, यह पणिक्कर जी की नाट्य प्रस्तुति और उनकी मौलिक सृजनशीलता का उदाहरण ही तो है. इसमें कोई सन्देह नहीं  कि भारतीय नाट्य की जड़ें उसकी परम्पराओं में निहित है जिसका आधार है-नाट्यशास्त्र और उसकी पृष्ठभूमि पर स्थित रंग-चिन्तन की श्रृंखलाएं  उसका उपजीव्य हैं. संस्कृत रंगमंच के पराभव के बाद केरल जैसे राज्य में जो स्फूट प्रदर्शनधर्मी कलाएं  जीवित हैं. उनका आधार संस्कृत की परम्परा ही है. कुटियाट्टम जैसी शास्त्रीय नाट्य विधा से प्रेरित होकर श्री पणिक्कर ने कथकलि, मोहिनी अट्टम तथा सोपानम् संगीत जैसे कलारूपों से अपनी रंगदृष्टि को विकसित किया, वहीँ  मुडियेट्ट, तैयम,पडयानी, कलरियाट्ट जैसे लोकसंगीत तथा लोकनृत्यों से अभिनय के नये रूप की खोज की.

सही मायनों में यह प्रस्थान नाटक को दृश्यकाव्य के रूप में प्रतिष्ठित करने तथा उससे एक नये सौन्दर्यबोध को विकसित करने का भगीरथ उद्यम था जो कावालम नारायण पणिक्कर ने अपनी मौलिक सूझबूझ, सृजनशील कल्पना तथा भावाभिव्यंजक भारतीय कलादृष्टि के गहन चिन्तन से सम्भव किया है. उनकी दृष्टि का यह कौशल केवल संस्कृत नाटकों के प्रदर्शन तक सीमित नहीं  है बल्कि उनके मौलिक नाटकों की प्रस्तुति में भी देखा जा सकता है. इन प्रस्तुतियों से एक समग्र रंगदृष्टि सामने आती है जिसमें परम्परा का सृजनात्मक विकास दिखाई देता है आधुनिकता का परम्परा में पर्यवसान. यह रंगकार्य भरत के नाट्य शास्त्रमें वर्णित नाट्य रसको अपना पाथेय बनाता है तो धियालंबनके सहारे चित्त में विन्यस्त रूप को, भाव को और जाग्रत अनुभूति को प्रत्यक्ष करता है. यह विशुद्ध भारतीय रंगदृष्टि का आविष्कार है जो पश्चिम द्वारा हम पर लाद दी गई यथार्थवादी परम्परा के प्रतिरोध में खड़ी है. अंग्रेजी शासन की पराधीनता ने जिस तरह हमारी मानसिकता को औपनिवेशिक बनाया और हमारा सब कुछ पश्चिम प्रेरित हो गया, उसी तरह कलाएं  भी बदल गईं और हमारा रंग संस्कार भी. पश्चिम के जिस रंगमंच से हमारा साबका पड़ा,  उसमें न तो हमारी जीवन दृष्टि थी और न ही हमारा सौन्दर्य बोध. पश्चिम के यथार्थवाद ने हमारे नाट्य को द्वैत और संघर्ष के इकहरे संयोजन में बदल दिया और जहाँ  हमारी नाट्य परम्परा मनुष्य के चित्त का प्रसादन कर आनन्द और रस की सृष्टि करती थी, वहां  निरा संघर्ष काम्य रह गया. 
ज्योतिष जोशी 

शम्भु मित्र, हबीब तनवीर, ब.व. कारंत तथा कावालम नारायण पणिक्करने अपने-अपने स्तर पर जो भारतीय रंगदृष्टि प्रस्तावित की है, उसका बहुत महत्व है. रतन थियम ने भी अपनी परम्परा के बीज तत्व को आत्मसात् कर उसे नई भारतीय भूमि दी है. पर पणिक्कर जी की देन का विशेष महत्व इस कारण भी है कि उन्होंने संस्कृत रंग-चिन्तन और रंग-परम्परा को उसके वर्तमान अवयवों के साथ पुनर्परिभाषित की है. दृश्यकाव्य के रूप में नाटक कैसे नये सौन्दर्यबोध के साथ प्रकट होता है और कैसे वह अपनी परम्परा के उद्गम में है, यह देखना हो तो निश्चय ही पणिक्कर जी को ही देखना होगा.
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4/37,एम.आई.जी.फ्लैट (दूसरी मंजिल) सेक्टर-15, रोहिणी, दिल्ली-110089
jyotishjoshi@gmail.com 

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