जॉर्ज ऑरवेल (George Orwell) की किताब ‘एनीमल फार्म’ (Animal Farm) १७ अगस्त १९४५ को अंग्रेजी में प्रकाशित हुई थी. ७२ साल बाद हिंदी में इसका मंगलमूर्ति द्वारा किया गया एक और अनुवाद प्रकाशित हुआ है. जॉर्ज ऑरवेल का जन्म मोतिहारी बिहार में २५ जून, १९०३ को हुआ था, उनके पिता वहां सरकारी (अंग्रेजी शासन) सेवा में थे.
इस रूपक कथा का विश्व की सभी भाषाओँ में अनुवाद हुआ है और माना जाता है कि अब तक इसकी एक करोड़ प्रतियाँ बिक चुकी हैं. विश्व साहित्य में ‘एनीमल फार्म’ जैसी सशक्त राजनीतिक रूपक कथा शायद ही कोई और हो.
आज जब शीत युद्ध का दौर खत्म हो गया है. पूंजीवादी शासन व्यवस्था ने सभी वैकल्पिक शासन व्यवस्थाओं को ध्वस्त कर दिया है तब इस ‘जानवर फार्म’ की क्या प्रासंगिकता रह जाती है ?
दरअसल यह किताब सत्ता के चरित्र और बागी विचारों का सत्ता द्वारा धीरे- धीरे अनुकूलन की दमदार कथा की किताब है. जो आज शिकार हैं कल वही शिकारी बन जाता है. शासन का कोई भी तरीका हो शासक लगभग एक जैसे बन जाते हैं. राजनीतिक दुरभिसंधियों, चापलूस प्रशस्तियों और नियंत्रित अफवाहों द्वारा असहमतियों को अपने लिए इस्तेमाल करने की बर्बर कुटिल तौर-तरीकों को यह जिस तरह बयां करती है लगता है हम समकालीन भारतीय रजनीति को देख रहे हों.
इस लिहाज़ से यह किताब प्रासंगिक थी, है और रहेगी.
मंगलमूर्ति ने अनुवाद की जगह रूपान्तर शब्द का प्रयोग किया है. इस व्यंग्य कथा को जिस तरह उन्होंने पुनर्सृजित किया है ऐसा लगता है कि जॉर्ज ऑरवेल ने इसे हिंदी में लिखा था. यह अनुवादक की बड़ी सफलता है. हरिपाल त्यागी के रेखांकन ने इसे और भी सुंदर बना दिया है. मंगलमूर्ति ने इसकी प्रबुद्ध भूमिका लिखी है. उसका एक अंश
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ALL ANIMALS ARE EQUAL,
BUT
SOME ANIMALS
ARE
MORE EQUAL THAN OTHERS’
‘जानवर फ़ार्म’ की भूमिका का अंश
स्पेन-युद्ध (१९३६) से लौटने के बाद से ही ऑरवेल का स्तालिन-युगीन प्रतिगामी सोवियत साम्यवादी व्यवस्था से पूरी तरहं मोह-भंग हो चुका था, और अपने लेखन में वह इस मोह-भंग को एक लघु-उपन्यास का रूप देने की सोचता रहा था. अंततः १९४३-’४४ में द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान यही कृति ‘एनिमल फार्म’ के रूप में लिखी गई, यद्यपि उन दिनों ब्रिटेन और सोवियत संघ मित्र-राष्ट्र थे. इसके युक्रेनियन अनुवाद के प्रकाशित संस्करण (१९४७) की भूमिका में ऑरवेल ने लिखा :
“मैं बहुत दिनों तक सोचता रहा था कि मेरी इस रचना का स्वरुप क्या हो. अचानक एक दिन एक गाँव में रहते हुए मुझे एक लड़का – लगभग दस साल का – एक पतली सड़क पर एक बड़ा-सा छकड़ा हांकते हुए दीखा. वह बार-बार अपने घोड़े को ठीक चलने के लिए चाबुक से मारता जाता था. तभी मुझे लगा कि ये मज़बूत जानवर यदि अपनी ताकत को सचमुच पहचान लें तो आदमी कभी उनपर इस तरह ज़ुल्म नहीं कर सकेगा, और इस दृश्य को देख कर ही मुझे अचानक लगा कि वास्तव में तो आदमी जानवरों का शोषण उतनी ही क्रूरता से करता है जितना धनी-वर्ग गरीबों– किसान-मजदूरों का शोषण करते हैं.”
ऑरवेल का यही अनुभव ‘जानवर फ़ार्म’ की इस कृति का मूल उत्स था. विश्व-युद्ध के पूर्व और उसके दौरान प्रतिगामी साम्यवादी व्यवस्था के प्रति निराशा और अमर्ष की जो भावना उसके मानस में उपजी थी उसका निरूपण उसने अंततः इसी कटु अनुभव के आधार पर एक पशु-कथा के रूप में किया. मनुष्यता और पशुता का यह परस्पर प्रतिरोध मानव-संवेदना का एक गंभीर संकट था जिसका विस्फोट एक बार फिर विश्व-युद्ध की शकल में अपने सबसे विकराल और क्रूरतम रूप में हुआ था जिसमें एक ओर, शुरू के दौर में, साम्राज्यवाद और साम्यवाद एक शामिल पाले में थे, और दूसरी ओर था नाजीवादी फासीवाद - और दोनों युद्ध की विश्व-विनाशी मुद्रा में आमने-सामने खड़े थे. युद्ध के बाद यह समीकरण बदल गया और साम्राज्यवादी पूंजीवाद का सीधा टकराव रूस और चीन के साम्यवाद से हुआ जो ‘शीत युद्ध’ का सफ़र तय करते हुए आज दोनों महाशक्तियों के बीच एक भयावह आणवीय प्रतिरोध का रूप ले चुका है.
‘एनिमल फ़ार्म’ एक राजनीतिक व्यंग्य-रूपक-कथा है जिसकी पृष्ठभूमि में साम्राज्यवादी पूंजीवाद और फासीवादी साम्यवाद का सीधा टकराव बराबर दिखाई देता है. और इस रूपक-पशु-कथा का दुहरा व्यंग्य-सन्देश यह है कि पहले एक दूसरे का प्रतिरोध करने वाली ये दोनों राजनीतिक विचारधाराएँ – साम्राज्यवाद और साम्यवाद - अंततः घुल-मिल कर एक हो जाती हैं, और दोनों के चेहरे बिलकुल एक जैसे लगने लगते हैं . ध्यातव्य है कि ऑरवेल साम्राज्यवादी पूंजीवाद का उतना ही बड़ा विरोधी था जितना वह साम्यवाद और फासीवाद का विरोधी था. क्योंकि उसकी दृष्टि में साम्राज्यवाद और साम्यवाद - ये दोनों विचारधाराएँ अलग-अलग एक दूसरे का सीधा प्रतिरोध करती हुई भी अंततः पूर्णतः एकमेक हो जाती हैं, और अधिनायकवादी फासीवाद के रूप में परिवर्तित हो जाती हैं . और इसी अर्थ में जॉर्ज ऑरवेल की इस कृति को हम स्पेन-युद्ध अथवा द्वितीय विश्व युद्ध के परिप्रेक्ष्य में केवल स्तालिनवादी या माओवादी साम्यवाद की कठोर व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में ही नहीं देख सकते, बल्कि विश्व-युद्ध के बाद भी विश्व-स्तर पर उभरने वाले ऐसे सारे राजनीतिक उपाख्यानों की व्यंग्यात्मक आलोचना के रूप में भी देख सकते हैं, जहाँ-जहाँ इस तरह के प्रतिरोध और विलयन एक अधिनायकवादी व्यवस्था के रूप में स्थापित होते दिखाई देते हैं.
एक पूंजीवाद-आधारित भ्रष्ट शोषणवादी व्यवस्था को एक जनांदोलन के बहाने विस्थापित कर एक नई तथाकथित जनतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना और फिर कुछ ही समय में उस व्यवस्था का एक अधिनायकवादी स्वरूप धारण कर लेना समकालीन वैश्विक परिदृश्य में भी
एक भयकारी यथार्थ बन चुका है. स्तालिन-युगीन रूस और माओवादी चीन के बाद उन देशों में, तथा अन्य बहुत से साम्यवादी देशों में, और बहुत सारे तथाकथित लोकतांत्रिक देशों में भी - यही नक्शा बनता-बिगड़ता दिखाई दे रहा है. और इसी अर्थ में ऑरवेल की इस कृति की प्रासंगिकता आज की दुनिया में भी उतनी ही, या शायद उससे कुछ ज्यादा ही, बनी हुई दिखाई देती है. आज इस कृति के पुनर्पाठ में इसकी इसी समकालीन प्रासंगिकता को रेखांकित करना इस हिंदी रूपांतर के प्रकाशन का मुख्य उद्देश्य है, जब कि प्रायः हर राजनीतिक परिदृश्य में लोकतंत्र के छद्म में उत्तरोत्तर अधिनायकवादी व्यवस्था की बुनावट दिखाई देने लगी है..
(प्रकाशक : आकृति प्रकाशन
F - 29, सादतपुर एक्स्टेंशन, दिल्ली - 110090)
F - 29, सादतपुर एक्स्टेंशन, दिल्ली - 110090)