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सहजि सहजि गुन रमैं : सुजाता

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कृति : Rina Banerjee
सुजाता की कविताएँ पढ़ते हुए ‘कवियों के कवि’ शमशेर बहादुर सिंह  की कुछ कविताएँ  याद आती हैं.  सघन संवेदना और तन्वंगी शिल्प, शब्दों को बरतने की वैसे ही  मितव्ययी शैली और सचेत राजनीतिक चेतना,  स्त्री के अस्तित्व, अहसास और उसके आस-पास निर्मित अमानुष परिवेश की परखती देखती दृष्टि.

 समालोचन में प्रकाशित इन कविताओं में  क्षत-विक्षत  बचपन  है जहाँ स्पर्श में भी काले सर्प अपना विष लिए घूमते हैं, जगह-जगह डसने के नीले निशान हैं.  इन से उलझती जिंदगी है और जिंदगी है तो प्यार भी है. 


सुजाता की कविताएँ                                        







क्षत-विक्षत अलाप



1.
बस्ते से निकाल रबड़
रगड़ती है पेट पर
मिटाती है गर्भ
बच्ची दस साल की.
खेलती है भीतर,खेलती है बाहर
दो नन्हीं जान.

2.
पजामा पहनते दोनों पैर
एक ही जगह फँसा लिए हैं
हँसती है माँ ...


रोती है
आँखें मूँद

देखना था यह भी...
देखूँ कैसे !
क्षत-विक्षत कोमलांग
रक्त से लथ-पथ
जल गईं कलियाँ कराहते स्निग्ध कोंपल
सिसकती उन पर ओस की बूंद
रक्तिम  

खाने का डब्बा छूटता था बस में
आज छूट गया बचपन !



3.

क्या भूली है रत्ती !
सुन्न क्यों है ?
व्यर्थ हुआ पाठ ?
गुड टच / बैड टच ?



4.
बिस्तर में गुड़िया अब क्या कहती होगी
सपनों में परियाँ अब क्या गाती होंगी
तेरा जो साथी होगा
सबसे निराला होगा
नोचेगा नहीं छाती
दूर से करेगा बातें मदमाती
पूछेगा तेरी राज़ी
देखना –
एकदम गुड्डा होगा !

5.
सोचती क्या हो शकुंतले !
प्रेम विहग उड़ रहा डाली से डाली
यौवन ने जीवन कमान ज्यों सम्भाली
धधकती श्वास अग्नि
थिरकती हैं अँगुलियाँ
काँख के ताल में
क्रीड़ारत मीन .
हास
      छलक गए मदिरा के प्याले हज़ार
      बावरी है हवा ,चुम्बनों से देती है
      लटों को सँवार

होगा क्या प्रथम यौवन उन्मत्त स्पर्श ऐसा ही ?
गाएगा क्या
कभी मन ?







अनर्गल

एक नदी मिली जिसे कहीं नहीं जाना था
आखिर मेरा दिल उसी नदी में डूबेगा
जहाँ सबसे तेज़ धड़कती होगी धरती
वहीं पड़ेगा मेरा पाँव

वह पेड़ मिला मुझे जो अब और उगना नही चाहता था 
एक गहरे प्यार में मैंने उसे चूमते हुए कहा --
उगने के अलावा कितना कुछ है करने को
मेरी जड़ें मुझे कबका छोड़ चुकी हैं
टिकने के लिए कम नहीं होता एक भ्रम भी
विश्वास सच्चा हो तो

घोंसले से मैंने कहा -
एक बहुत खूबसूरत प्यार में
धकिया दो चिड़िया को

ज़मीन तक आते-आते हवा के समुद्र में
कितनी लहरें बनीं होंगी...
मुझे उसकी घबराहट मिली 
जिसे मैंने बालों में खोंस लिया है
मेरे सुंदर बाल 
मैं कभी नहीँ हूँगी बौद्ध भिक्षुणी !







दु:ख


(1)
फिसलता है 
बाहों से दुःख 
बार बार
नवजात जैसे कम उम्र माँ की गोद से
पैरों पर खड़े हो जाने तक इसके 
फुरसत नहीं मिलेगी अब

जागती हूँ
मूर्त मुस्कान 
अमूर्त करती हूँ पीड़ा
डालती हूँ गीले की आदत
अबीर करती हूँ एकांत 
उड़ाती हूँ हवा में ...

(2)
सब पहाड़ी नदियाँ एक सी थीं
मैं ढूंढ रही थी एक पत्थर 
झरे कोनों वाला 
चिकना चमकीला

सब पत्थर एक से थे...



(3)
दर्द के बह जाने की प्रतीक्षा में
तट पर अवस्थित ...
        अंधेरा है कि घिर आया
        नदी है
        कि थमती ही नहीं
एक खाली घड़े से
इसे भर सकती हूँ
पार कर सकती हूँ इसे.


(4)
पुरखिन है
दुख
बाल सहलाती चुपचाप
बैठी है मेरे पीछे   
    
      चार दिन निकलूंगी नहीं बाहर
          एक वस्त्र में रहूंगी
          इसी कविता के भीतर.



(5)
हिलाओ मत
न छेड़ो
बख्शो

लेती हूँ वक़्त
टूटी हुई हड्डी सा
जुड़ती हूँ .






बेघर रात

स्थगित होती हूँ
ओ रात !
हमारे बीच अभी जो वक़्त है
फँसा
चट्टान की तहों में जीवाश्म
उसे छू
सहला



यह जो हमारे बीच चटक उजला दिन है
अपराधी सा
बस के बोनट पर सफर करता
पसीने में भीगता
मुँह लटका उतरता
गलत स्टॉप पर
पछताता
इसे छाया दे !



रक्त और धड़कन हो जा
दाँत दिखा मुँह खोल
मैले नाखून देख
लेट जा बेधड़क
फूला पेट ककड़ी टांगे फैला क्षितिज में
ओ रात !
खुल जा
मत हिचक
चहक बहक महक
आदिम नाच की थिरकन सी
लहक


चुप्पी हमारे बीच
भूख की लत से परेशान
दवाओं से नहीं टूटती
नहीं  आती वापस जंगली हँसी
अड़ियल है अड़ियल
जिनके दिन नहीं होते घर जैसे
चाहती क्या उनसे हो
ओ बेघर रात !    






नींद के बाहर


(1)
अनमनी आँखों में मुँद जाती तस्वीर तुम्हारी
दूर तक कानों में गूँजती हवा की गुदगुदी
तुमने पुकारा हो जैसे मेरा नाम...
आज नहीं सुनती कोई बात
तुम्हें सुनती हूँ
ऐसी ही होगी सृष्टि के पहले पुरुष की आवाज़ ...
आखेटक !
                
सधी हुई
माहिर
लयबद्ध
कलकल
सृष्टि का पहला झरना ...
पहले प्रेम में खिली लता सी
झूल गई हूँ इसे थाम ...



(2)

दिन सन्नाटा है
भटकती रही हूँ तुम्हारी आवाज़ में देर तक
अपने ही भीतर अपनी ही बात कहता उलझ जाए कोई जैसे
कुँआ है अतल...वह स्वर
भागती रस्सी दिगंत तक...उठती-गिरती
गहराती आवाज़
मनस्विनी पृथ्वी के भीतर से
फूटता अनहद नाद...
डूबती हूँ , थामती हूँ रस्सी
पिघलती है इंद्रधनुषी आवाज़
भीगती हूँ
भीगी होगी जैसे
सृष्टि की पहली स्त्री !


(3)

हवा के पर्दे में छिपी उदासी
आवाज़ जैसे गुफा अंधेरी ठण्डी और गहरी
चट्टानी और गीली
अतीत से बोझिल पुरानी अकेली
कोई शब्द रहस्यलोक
पाताल का वासी
नतसिर भीतर जाती मैं संकरे मुहाने आवाज़-गुफा के
अलाप है विरही सा कम्पन प्रलाप है
थरथर और मरमर
मंत्रों से बाधित प्रवेश
दुराती है करती निषेध

नतसिर जाती मैं भीतर धारण कर मौन की देह ...


 (4)
और अभी
जैसे अभी खिला सहस्र दल कमल
बरसता कम्बल और भीगता पानी
भीगती तरंगायित         
कण्ठ में तुम्हारे कमलिनी
कुँलाचें भरता प्यारा मृगछौना
गरमी उसांस की ...महमह
प्रेम के अक्षर उछलते लुढकते पहाड़ी से घाटी
पुकार
अथक
बकबक 
सशब्द

नि:शब्द ! 

___________


सुजाता
(9 फरवरी 1978,दिल्ली)

दिल्ली विश्विद्यालय से पीएच. डी. स्त्री मुद्दों पर पत्र पत्रिकाओं में निरंतर लेखन.  
कविता संकलन अनंतिम मौन के बीचभारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित.
कविता के लिए लक्ष्मण प्रसाद मण्डलोई स्मृति सम्मान 2015 और वेणु गोपाल स्मृति सम्मान 2016.
एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य.


ई मेल-  Cokherbali78@gmail.com

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