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मंगलाचार : आशीष बिहानी

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आशीष बिहानी की कविताएँ आपके समक्ष हैं. उजाड़ अवसाद, अप्रवास और यूटोपिया के अनेक धूसर रंगों से लिखी इन कविताओं में संभावनाओं के मुलायम किसलय आप को दिख जायेंगे.



आशीष बिहानीकी कविताएँ                                      




अवसाद
हम बहुत पुराने, कली पुते घरों में
किराये पर रहते थे
जिनकी दीवारों से उम्र का अवसाद
पपड़ी बनकर झड़ता रहता था

हम कुरेदते थे
भुरभुरे, असमतल चूने को
नाखून-पेन्सिल-खुरपे से
कुछ रोमांचक पाने की आशा में.





समस्या
अनगढ़ कोटा स्टोन टाइल्स
कोनों-कोचरों, ताकों-पट्टियों-खिडकियों
पर मम्मी सधे हाथों से झाड़ू लगाती थी
कूड़े-कचरे, धूल को
लकड़ी की देहरी के पार फेंक देती थी

पर धूल अवसाद की तरह होती है
उसे लोग चुग-चुग कर फेंक आते हैं बाहर
पर लकीरें रह जातीं हैं
पुनः अधिकार जमा लेती है उस साम्राज्य पर
जिससे उसे धकेलकर बाहर किया गया.




उपाय
तब मम्मी ने धूल को देहरी की दरारों में ही
ठूंस देना शुरू किया
अपनी समस्याओं और जरूरतों की तरह.




स्थानान्तरण
हमारा परिवार घुमंतू पेड़ों का परिवार है
हमें अपने घरों से
उखाड़-उखाड़कर नयी जगहों पर छोड़ा दिया गया
हम बड़े जतन से वहाँ जड़ें जमाते
चिड़ियों-बंदरों-कबूतरों को अपने साथ बसाते
और दो ही बारिश बाद फ़रमान आ जाता
किसी भी हालत में
एक महीने के भीतर-भीतर
सब आवश्यक सामान समेटकर
नयी जगह जड़ें जमाने का
तब हम बड़े असमंजस में होते (हर बार)

चिड़ियाँ-बन्दर-कबूतर-कुत्ते-बिल्लियाँ
खेखरे के दिन रंगे गए सींगो वाली गाएँ 
(जिन्हें हमारे चूल्हे की रोटी और दादी माँ की झिडकियों की आदत हो गयी थी)
कंकड़-पत्थर-पपड़ियाँ-ताकें
दरवाज़े-खिड़कियाँ-गर्डर-देहरियाँ

संभव-असंभव की क्रूर सीमाएं बना
हम नेह के टुकडे झाड़ते हुए
अपने आप को ४०८ गाडी में
लाद लेते.





नींद
रात में शहर पसर जाता है
गन्दगी, मिट्टी, सड़क किनारे के थूक के ऊपर
ट्रकों की आवाजों में डकारें भरता, कै करता नालों में
सुबह-सुबह सिल्वर फीते वाली नारंगी जाकेट पहन
औरतें उसे झाड़-पौंछकर खड़ा करतीं हैं
उन्हें नहीं पता कि
उसके फेफड़ों में जमा है
धुआं, टार और हिंसा.






जूतम पैजार
पसीने से तरबतर
दढ़ियल दद्दा ने
अपने घिसे फ्रेम और मोटे लेंस वाले चश्मे को
नीले- सलेटी चैक्स छपी लुंगी पर साफ़ किया
और नए-नवेले अंधड़ में से
सड़क के पार देखा
इमारतों पर जमी धूल की चद्दरें बदल दी गयीं हैं
झाड़ दिए गए हैं पेड़ों के लिबास
हवाएं फटे गले से घोषणा करती हैं
वर्षा के आगमन की
 
वर्षों से जारी हानिकारक ज़र्दे के सेवन से
भूरे-कत्थई पड़े दांतों पर उन्होंने
जीभ फिराई और
नमक, पानी और धूल का मिश्रण
सड़क के किनारे थूक दिया

बारिश की जूतमपैजार के समक्ष उन्होंने अपना
झुर्रियों भरा चेहरा पेश कर दिया;
किसी कारण से उन्होंने
अपनी नवजात पोती को याद किया
जिसने चलाये थे उनके चेहरे पर
नन्ही लातें और घूंसे
और मूत्र की गर्म धार.





रामराज्य
सलेटी आँखों वाले एक बुढऊ
सर्पिलाकार यातायात के
बगल में
लम्बे-लम्बे डग भरते,
लोगों से टकराते
सर हिलाते भागे जा रहे हैं
बदहवास
यातायात के अंत की ओर
जहाँ ख़त्म होता है
कोलाहल, प्रदूषण और इंसानों का सैलाब;

जहाँ मिलते हैं
निर्वाण और सठियाहट,
कच्ची ईमलियाँ और नकली दाँत,
साफ़ कीचड़ और हथकढ़ वाले गेडिये,
अख़बार और पाटे,
मसालों की गन्ध और मुल्ला की अजान
टेढ़े-मेढ़े संकरे रास्ते और
स्वस्थ गायों के छोड़े पोठे.

काले बादलों की आड़ में
कहीं छुपा रामराज्य
जिसकी खोज में बिता दिए
ऋषि-मुनियों ने
युग और कल्प.
________________________________

आशीष बिहानी 
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
पद: जीव विज्ञान शोधार्थी, कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद .

कविता संग्रह: "अन्धकार के धागे"2015 में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
ईमेल: ashishbihani1992@gmail.com

मेघ - दूत : उसकी पहली उड़ान (लायम ओ'फ़्लैहर्टी)

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पेंटिग : Fenumon Joseph







‘उसकी पहली उड़ान’ मशहूर आयरिश लेखक ‘Liam O'Flaherty’ (28 August 18967 September 1984) की चर्चित कहानी ‘His First Flight’ का हिंदी अनुवाद है. यह कहानी एक पक्षी  की है जो अपनी पहली उड़ान को लेकर न केवल संशकित है बल्कि डरा हुआ भी है. अन्तत: वह उड़ता है. यह परिवार के बीच एक किशोर के अर्जित स्वावलम्बन, व्यक्तिगत स्वतन्त्रता और आत्मविश्वास की भी कहानी है. इस कहानी का शानदार  अनुवाद लेखक-कवि सुशांत सुप्रिय ने किया है.  



लायम ओफ़्लैहर्टी
उसकी पहली उड़ान                                                        

अनुवाद : सुशांत सुप्रिय




मुद्री चिड़िया का बड़ा हो चुका बच्चा पत्थर के उठे हुए किनारे पर अकेला था. उसकी बहन और उसके दो भाई कल ही उड़ कर जा चुके थे. वह डर जाने की वजह से उनके साथ नहीं उड़ पाया था. जब वह पत्थर के उठे हुए किनारे की ओर दौड़ा था और उसने अपने पंखों को फड़फड़ाने का प्रयास किया था, तब पता नहीं क्यों वह डर गया था. नीचे समुद्र का अनंत विस्तार था, और उठे हुए पत्थर के कगार से नीचे की गहराई मीलों की थी. उसे ऐसा पक्का लगा था कि उसके पंख उसे नहीं सम्भाल पाएँगे, इसलिए अपना सिर झुका कर वह वापस पीछे उठे हुए पत्थर के नीचे मौजूद उस जगह की ओर भाग गया था, जहाँ वह रात में सोया करता था. जबकि उससे छोटे पंखों वाली उसकी बहन और उसके दोनों भाई कगार पर जा कर अपने पंख फड़फड़ा कर हवा में उड़ गए थे, वह उस किनारे के बाद की गहराई से डर गया था और वहाँ से कूद कर उड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाया था. इतनी ऊँचाई से कूदने का विचार ही उसे हताश कर दे रहा था. उसकी माँ और उसके पिता तीखे स्वर में उसे डाँट रहे थे. वे तो उसे धमकी भी दे रहे थे कि यदि उसने जल्दी उड़ान नहीं भरी तो पत्थर के उस उठे हुए किनारे पर उसे अकेले भूखा रहना पड़ेगा. लेकिन बेहद डर जाने की वजह से वह अब हिल भी नहीं पा रहा था.

यह सब चौबीस घंटे पहले की बात थी. तब से अब तक उसके पास कोई नहीं आया था. कल उसने अपने माता-पिता को पूरे दिन अपने भाई-बहनों के साथ उड़ते हुए देखा था. वे दोनों उसके भाई-बहनों को उड़ान की कला में माहिर बनने, और लहरों को छूते हुए उड़ने का प्रशिक्षण दे रहे थे. साथ ही वे उन्हें पानी के अंदर मछलियों का शिकार करने के लिए गोता लगाने की कला में पारंगत होना भी सिखा रहे थे. दरअसल उसने अपने बड़े भाई को चट्टान पर बैठ कर अपनी पहली पकड़ी हुई मछली खाते हुए भी देखा था, जबकि उसके माता-पिता उसके बड़े भाई के चारो ओर उड़ते हुए गर्व से शोर मचा रहे थे. सारी सुबह समुद्री चिड़िया का पूरा परिवार उस बड़े पठार के ऊपर हवाई-गश्त लगाता रहा था. पत्थर के दूसरे उठे हुए किनारे पर पहुँच कर उन सब ने उसकी बुज़दिली पर उसे बहुत ताने मारे थे.

सूरज अब आसमान में ऊपर चढ़ रहा था. दक्षिण की ओर उठे हुए पत्थर के नीचे मौजूद उसकी बैठने की जगह पर भी तेज धूप पड़ने लगी थी. चूँकि उसे पिछली रात के बाद से खाने के लिए कुछ नहीं मिला था, धूप की गरमी उसे विचलित करने लगी. पिछली रात उसे कगार के पास मछली की पूँछ का एक सूखा टुकड़ा पड़ा हुआ मिल गया था. किंतु अब खाने का कोई क़तरा उसके आस-पास नहीं था. उसने चारो ओर ध्यान से देख लिया था. यहाँ तक कि अब गंदगी में लिपटे, घास के सूखे तिनकों से बने उस घोंसले के आस-पास भी कुछ नहीं था जहाँ उसका और उसके भाई-बहनों का जन्म हुआ था. भूख से व्याकुल हो कर उसने अंडे के टूटे पड़े सूखे छिलकों को भी चबाया था. यह अपने ही एक हिस्से को खाने जैसा था. परेशान हो कर वह उस छोटी-सी जगह में लगातार चहलक़दमी करता रहा था. बिना उड़ान भरे वह अपने माता-पिता तक कैसे पहुँच सकता है, इस प्रश्न पर वह लगातार विचार कर रहा था, किंतु उसे कोई राह नहीं सूझी. उसके दोनों ओर कगार के बाद मीलों लम्बी गहराई थी, और बहुत नीचे गहरा समुद्र था. उसके और उसके माता-पिता के बीच में एक गहरी, चौड़ी खाई थी. यदि वह कगार से उत्तर की ओर चल कर जा पाता, तो वह अपने माता-पिता तक पहुँच सकता था. लेकिन वह चलता किस पर ? वहाँ तो पत्थर थे ही नहीं, केवल गहरी खाई थी! और उसे उड़ना आता ही नहीं था. अपने ऊपर भी वह कुछ नहीं देख पा रहा था क्योंकि उसके ऊपर की चट्टान आगे की ओर निकली हुई थी जिसने दृश्य को ढँक लिया था. और पत्थर के उठे हुए किनारे के नीचे तो अनंत गहराई थी ही, जहाँ बहुत नीचे था -- हहराता समुद्र.

वह आगे बढ़ कर कगार तक पहुँचा. अपनी दूसरी टाँग पंखों में छिपा कर वह किनारे पर एक टाँग पर खड़ा हो गया. फिर उसने एक-एक करके अपनी दोनों आँखें भी बंद कर लीं और नींद आने का बहाना करने लगा. लेकिन इस सब के बावजूद उसके माता-पिता और भाई-बहनों ने उसकी ओर कोई ध्यान नहीं दिया. उसने अपने दोनों भाइयों और बहन को पठार पर अपना सिर अपने पंखों में धँसा कर ऊँघते हुए पाया. उसके पिता अपनी सफ़ेद पीठ पर मौजूद पंखों को सजा-सँवार रहे थे. उन सब में केवल उसकी माँ ही उसकी ओर देख रही थी. वह अपनी छाती फुला कर पठार के उठे हुए भाग पर खड़ी थी. बीच-बीच में वह अपने पैरों के पास पड़े मछली के टुकड़े की चीर-फाड़ करती, और फिर पास पड़े पत्थर पर अपनी चोंच के दोनों हिस्सों को रगड़ती. खाना देखते ही वह भूख से व्याकुल हो उठा. ओह, उसे भी मछली की इसी तरह चीर-फाड़ करने में कितना मज़ा आता था. अपनी चोंच को धारदार बनाने के लिए वह भी तो रह-रह कर उसे पत्थर पर घिसता था. उसने एक धीमी आवाज़ की. उसकी माँ ने उसकी आवाज़ का उत्तर दिया, और उसकी ओर देखा.

उसने "ओ माँ, थोड़ा खाना मुझ भूखे को भी दे दो"की गुहार लगाई.

लेकिन उसकी माँ ने उसका मज़ाक उड़ाते हुए चिल्ला कर पूछा , "क्या तुम्हें उड़ना आता है? "पर वह दारुण स्वर में माँ से गुहार लगाता रहा, और एक-दो मिनट के बाद उसने ख़ुश हो कर किलकारी मारी. उसकी माँ ने मछली का एक टुकड़ा उठा लिया था  और वह उड़ते हुए उसी की ओर आ रही थी. चट्टान को पैरों से थपथपाते हुए वह आतुर हो कर आगे की ओर झुका, ताकि वह उड़ कर उसके पास आ रही माँ की चोंच में दबी मछली के नज़दीक पहुँच सके. लेकिन जैसे ही उसकी माँ उसके ठीक सामने आई, वह कगार से ज़रा-सा दूर हवा में वहीं रुक गई. उसके पंखों ने फड़फड़ाना बंद कर दिया और उसकी टाँगें बेजान हो कर हवा में झूलने लगीं.

अब उसकी माँ की चोंच में दबा मछली का टुकड़ा उसकी चोंच से बस ज़रा-सा दूर रह गया था. वह हैरान हो कर एक पल के लिए रुका -- आख़िर माँ उसके और क़रीब क्यों नहीं आ रही थी ? फिर भूख से व्याकुल हो कर उसने माँ की चोंच में दबी मछली की ओर छलाँग लगा दी.
             
एक ज़ोर की चीख़ के साथ वह तेज़ी से हवा में आगे और नीचे की ओर गिरने लगा. उसकी माँ ऊपर की ओर उड़ गई. हवा में अपनी माँ के नीचे से गुज़रते हुए उसने माँ के पंखों के फड़फड़ाने की आवाज़ सुनी. तभी एक दानवी भय ने जैसे उसे जकड़ लिया, और उसके हृदय ने जैसे धड़कना बंद कर दिया. उसे कुछ भी सुनाई नहीं दे रहा था. पर यह सारा अहसास केवल पल भर के लिए हुआ. अगले ही पल उसने अपने पंखों का बाहर की ओर फैलना महसूस किया. तेज़ हवा उसकी छाती, पेट और पंखों से टकरा कर गुज़रने लगी. उसके पंखों के किनारे जैसे हवा को चीर रहे थे. अब वह सिर के बल नीचे नहीं गिर रहा था, बल्कि हवा में तैरते हुए धीरे-धीरे नीचे और बाहर की ओर उतर रहा था. अब वह भयभीत नहीं था. बस उसे ज़रा अलग-सा लग रहा था. फिर उसने अपने पंखों को एक बार फड़फड़ाया और वह ऊपर की ओर उठने लगा. खुश हो कर उसने ज़ोर से किलकारी मारी और अपने पंखों को दोबारा फड़फड़ाया. वह हवा में और ऊपर उठने लगा. उसने अपनी छाती फुला ली और हवा का उससे टकराना महसूस करता रहा. खुश हो कर वह गाना गाने लगा. उसकी माँ ने उसके ठीक बगल से हो कर गोता लगाया . उसे हवा से टकराते माँ के पंखों की तेज़ आवाज़ अच्छी लगी. उसने फिर एक किलकारी मारी.

उसे उड़ता हुआ देख कर उसके प्रसन्न पिता भी शोर मचाते हुए उसके पास पहुँच गए. फिर उसने अपने दोनों भाइयों और अपनी बहन को ख़ुशी से उसके चारो ओर चक्कर लगाते हुए देखा. वे सब प्रसन्न हो कर हवा में तैर रहे थे, गोते लगा रहे थे और कलाबाज़ियाँ खा रहे थे.
             
यह सब देखकर वह पूरी तरह भूल गया कि उसे हमेशा से उड़ना नहीं आता था. मारे ख़ुशी के वह भी चीख़ते-चिल्लाते हुए हवा में तैरने और बेतहाशा गोते लगाने लगा.

             
अब वह समुद्र की अथाह जल-राशि के पास पहुँच गया था, बल्कि उसके ठीक ऊपर उड़ रहा था. उसके नीचे हरे रंग के पानी वाला गहरा समुद्र था जो अनंत तक फैला जान पड़ता था. उसे यह उड़ान मज़ेदार लगी और उसने अपनी चोंच टेढ़ी करके एक तीखी आवाज़ निकाली. उसने देखा कि उसके माता-पिता और भाई-बहन उसके सामने ही समुद्र के इस हरे फ़र्श-से जल पर नीचे उतर आए थे. वे सब ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला कर उसे भी अपने पास बुला रहे थे. यह देखकर उसने भी अपने पैरों को समुद्र के पानी पर उतार लिया. उसके पैर पानी में डूबने लगे. यह देखकर वह डर के मारे चीख़ा और उसने दोबारा हवा में उड़ जाने की कोशिश की. लेकिन वह थका हुआ था और खाना न मिलने के कारण कमज़ोर हो चुका था. इसलिए चाह कर भी वह उड़ न सका. उसके पैर अब पूरी तरह पानी में डूब गए और फिर उसके पेट ने समुद्र के पानी का स्पर्श किया. इसके साथ ही उसकी देह का पानी में डूबना रुक गया. 

अब वह पानी पर तैर रहा था. और उसके चारों ओर ख़ुशी से चीख़ता-चिल्लाता हुआ उसका पूरा परिवार जुट आया था. वे सब उसकी प्रशंसा कर रहे थे, और अपनी चोंचों में ला-ला कर उसे खाने के लिए मछलियों के टुकड़े दे रहे थे.
             
उसने अपनी पहली उड़ान भर ली थी.

____________________
सुशांत सुप्रिय
A-5001, गौड़ ग्रीन सिटी, वैभव खंड
इंदिरापुरम/ ग़ाज़ियाबाद - 201014  उ. प्र. 
मो: 8512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com    

विष्णु खरे : प्रत्यूषा बनर्जी

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प्रत्यूषा बनर्जी की ‘आत्महत्या/हत्या’ ने चमक दमक से भरे सिने संसार के अँधेरे को फिर से बेपर्दा कर दिया है. इस अँधेरे में तमाम तरह की सामाजिक – आर्थिक संस्थाएं अपने नग्न और क्रूर रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं.
विष्णु खरे जब इस तरह की किसी मानवीय क्राइसिस पर लिखते हैं तब अजब एक काव्यात्मक ट्रेजिडी लिए हुए उसका विस्तार संस्कृति तक चला जाता है, वह मनुष्यता और मानवीयता के पक्ष में एक जिंदा बयाँ बन जाता है.
आप पढिये.     



चरम सफलता का ऐसा ग़ैर-आनंदी अंत                                    
विष्णु खरे 



भी छः वर्ष पहले वह झारखण्ड के औद्योगिक नगर जमशेदपुर में सिर्फ एक सुसंस्कृत बंगाली परिवार की इकलौती मेये थी. किन्तु होनी को मंज़ूर यह था कि उसका चुनाव एक ऐसे टेलीविज़न सीरियल के शीर्षक रोल के लिए हो जाए जिस नाम पर बरसों पहले दो कमोबेश कामयाब फ़िल्में बन चुकी थीं - बाँग्ला में 1967 में और हिंदी में 1976 में. किन्तु नाम को छोड़कर फ़िल्मों और सीरियल ‘’बालिका ब(व)धू’’में कोई समानता न थी. टेलीविज़न की सारी संस्कृति और नैतिकता पिछले 50-40 वर्षों में बदल चुकी थीं. धारावाहिक में यौनाकर्षण का सांकेतिक पुट उसे और उत्तेजक बनाता था. यह अकारण नहीं है कि हमारे टप्पों, दादरों, ठुमरियों, लोकगीतों और लोकप्रथाओं में अदालती जुर्म होते हुए भी बाल-विवाह तथा –सुहागरात अब भी पर्याप्त लोकप्रिय हैं.

प्रत्यूषा बनर्जी को सुंदर, भोली-भाली, उद्दीपक, अक्षतयोना आनंदी की भूमिका में जो ख्याति मिली वह बहुत कम छोटे और बड़े पर्दे की अभिनेत्रियों को नसीब होती है. हम यहाँ धारावाहिक ‘’बालिका वधू’’ की नैतिकता और कामोद्दीपन पर बहस नहीं कर रहे लेकिन प्रत्यूषा की ऐन्द्रिक उपस्थिति ने उसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वही उसका केंद्र थी. वह करोड़ों दर्शकों की चहेती बहू-बाला बन गई. मीडिया और विज्ञापनों  में उसे लाखों बार दिखाया गया, उसके बारे में असंख्य शब्द लिखे गए. कोई भी दर-दिल-दिमाग़ उसके लिए बंद न था. वह करोड़ों किशोरियों और भावी वधुओं का आदर्श बन गई. वैसे प्रियंका चोपड़ा, सिमोन सिंह, ईषिता दत्ता और तनुश्री दत्ता भी जमशेदपुर से हैं.

भारत में जो आस्था-अनास्था, भक्ति-एवं-घृणा-भाव सिनेमा और टी वी के अभिनेता-अभिनेत्रियों को लेकर है वह संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है. इसके जो मानसिक, मनोवैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक. कलात्मक, राजनीतिक, बौद्धिक  परिणाम हो रहे हैं इसका अहसास और चिंता और इसे लेकर कोई समुचित कार्रवाई कहीं दृष्टिगोचर नहीं है.

जब तक प्रत्यूषा बनर्जी आनंदी मानी जाती रही तब तक समाज में उसका स्थान किसी कुमारी किशोरी देवी से कम न था. वह कुछ भी शर्मनाक़ या आपत्तिजनक कर ही नहीं सकती थी. हिन्दू समाज का फ़ॉर्मूला मानवीय-दैवीय-दानवीय का है. उसे मनुष्य को देवदूत और देवदूत को राक्षस बनाने में न केवल देर नहीं लगती बल्कि उसे शायद ऐसा करते रहने में एक बीमार-सा आनंद मिलता प्रतीत होता है. लेकिन प्रत्यूषा और उसकी नियति ने जो आनंदी के साथ किया, उससे हिन्दू समाज थर्रा गया. क्षिप्रा के पोखर में कितने ही पाखंडी साधुओं-अखाड़ों  के करोड़ों की लागत के कौआ-स्नान भारतीय समाज की आत्मा पर लगे ऐसे दाग़ों को धो नहीं सकते.

अचानक मालूम पड़ता है कि आनंदी के जीवन में कोई आनंद न था. शायद उसका पेशेवर जीवन उतार पर था या/और  उसकी निजी ज़िंदगी सर्वनाश के गर्त में जा रही थी. पुरुषों से उसके सम्बन्ध बने और बिगड़े. हम नहीं जानते कि वह कारण क्या थे कि उसे ‘’बालिका वधू’’ जैसा लम्बा, अच्छे मुआवज़े वाला काम क्यों नहीं मिला. लेकिन आप इस बीच अपनी सीरियल के बाहर की ‘लाइफ़-स्टाइल’ के शिकार हो चुके होते हैं. आपको खुद को अपने सुनहरे दिनों की तरह ‘मेन्टेन’ करना पड़ता है. अभी आप सिर्फ 24-25 बरस की हैं. आपके नित नए फ्रेंड बनते-बिछड़ते जाते हैं. हर शाम आप लेट-नाइट पार्टियों में अपने प्रेमियों द्वारा ले जाई जाती हैं. आपको ड्रग्स और भारी ड्रिंकिंग की आदत हो जाती है या डाल दी जाती है. आप ‘थर्ड पेज’ पर आने के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार रहती हैं. आपके क्रेडिट कार्ड पर लाखों ड्यू हो जाते हैं जिनकी वसूली के लिए आपको गन्दी-से-गन्दी भाषा में घर आकर धमकियाँ दी जाती हैं. आपके प्रेमी आपके बैंक से लाखों रुपये खुर्दबुर्द कर देते हैं. वह आपके माँ-बाप को आपके घर से निकलवा देते हैं. यह भी मालूम पड़ता है कि आपके पिता ने जाने किसके हवाले से लाखों रुपया क़र्ज़ ले डाला है.

आपके जीवन का भयावहतम क्षण तब आता है जब आपको यह मालूम पड़ता है कि आप अपने उस नवीनतम प्रेमी के बच्चे की माँ बनने वाली हैं जो अभी आपको अपनी वधू नहीं बनाना चाहता. फिर आपको गर्भपात के लिए अस्पताल ले जाया जाता है. मालूम नहीं होता कि बाद में हमल डॉक्टर गिराती है या दवाओं के ज़रिए खुद आप और आपका प्रेमी. कहाँ ? यह खतरनाक कार्रवाई क़ानूनी है या ग़ैरक़ानूनी पता नहीं चलता. क्या वह आपकी पहली भ्रूणहत्या थी ? उसके कुछ दिन बाद आपके फ्लैट में एक पार्टी होती है जिसमें कहते हैं  कि आप ख़ूब शराब पी लेती हैं. आपको बेहोश छोड़कर जब आपका प्रेमी दवाएँ लेकर लौटता है तो बगल के घर से एक परिचित नौकर को आपकी खुली बालकनी से चढ़ाकर आपके बैडरूम में दाखिल करवाया जाता है क्योंकि फ्लैट का दरवाज़ा अन्दर से बंद होता है  जहाँ आपकी लाश सीलिंग-फैन से बंधी लटकी मिलती है और दरवाज़ा तोड़कर ही आपके प्रेमी को अन्दर आने दिया जाता है. सबसे पहली अफ़वाह तो यही फैलती है कि आपके इस प्रेमी ने ही आपकी हत्या की है. आपके माता-पिता भी कई पुरानी कहानियाँ सुनाते हुए इस इल्ज़ाम की ताईद करते हैं. अभी आपके बहुत सारे कागज़ात,फ़ोन-कॉल्स और ई-मेल वगैरह की जाँच बाक़ी है. लेकिन यदि गर्भपात अवैध है तो आप भी तो मुजरिम हैं न ?

कभी-कभी आरुषि तलवार हत्याकांड झलक जाता है. कल से अदालत में सुनवाई है और प्रत्यूषा ‘’आनंदी’’ बनर्जी ने ख़ुदकुशी की है या उसका क़त्ल हुआ है यह जानने में वक़्त लगेगा. लेकिन यह ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ का युग है क्योंकि आज लोगों का विश्वास सरकार, पुलिस, डॉक्टरों और अदालतों से उठ चुका है. इसमें कोई शक़ नहीं कि कई सनसनीखेज़ तथ्य सामने आएँगे जिनसे दुर्भाग्यवश प्रत्यूषा की  चाही-अनचाही  चरित्र-हत्या हो सकती है. यह तीसरी हत्या होगी क्योंकि एक अबोध भ्रूण को मारा जा चुका है और यदि प्रत्यूषा के जीवन में ऐसे हालात पैदा कर दिए गए थे कि उसे आत्महत्या के अलावा कोई मुक्ति दिखाई न दी तो वह भी हत्या ही कही जाएगी. मृत्यु के समय आनंदी न तो बालिका थी न वधू, वह बहू और माँ दोनों बनना चाहती थी. उसने अपने त्रासद जीवन में ऐसी स्थितियां निर्मित कर दीं कि वह कुछ न बन सकी – प्रत्यूषा बनर्जी भी नहीं.

आज से ढाई सौ वर्ष पहले,जब इंग्लैंड में भी यौन-संबंधों को लेकर वह लोक-लाज-कुल-की- मर्यादा-नियंत्रित नैतिकता थी जो आज भारत में हैं, सुविख्यात कवि ऑलिवर गोल्डस्मिथ ने यह अमर आठ पंक्तियाँ लिखी थीं (बाद में जिनका अद्भुत आधुनिक संशोधन टी एस एलियट ने ‘’दि वेस्ट लैंड’’में किया है) :

When lovely woman stoops to folly
And finds too late that men betray,
What charm can soothe her melancholy,
What art can wash her guilt away ?
The only art her guilt to cover
To hide her shame from every eye,
To give repentance to her lover,
And wring his bosom – is to die

(‘’जब सुन्दर स्त्री पतित हो जाती है अपनी नादानी से
और देर बाद पाती है कि देते हैं दगा पुरुष
तब कौन सा मंतर-गंडा उसकी मायूसी को मरहम दे,
कौन-सी कला धो पाए उसके पाप का कलुष ?
अपना गुनाह ढँकने का है बस एक हुनर –
अपनी रुसवाई को हर निगाह से छिपाना
अपने प्रेमी को पशेमानी देकर
उसका मन मसोस डालना – खुद मर जाना’’.)



भारत में आज भी प्रति वर्ष सैकड़ों बालिकाएँ-वधुएँ यही करती हैं. जमशेदपुर की आनंदी को इसके लिए मुंबई की इस हत्यारी विश्वासघाती अँधेरी दुनिया में आकर खुद मर जाना पड़ा.
______________________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

कथा - गाथा : अहिल्या : जयश्री रॉय

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पेंटिग : Pradeep Kanik





अहिल्या के मिथ का अगर आप पुर्नपाठ करें तो वह पति, प्रेमी और अपने खुद के ‘अपराध बोध’ से बाहर निकलने में मदद करते विचारक मित्र के बीच की कथा बन सकती है. क्या अहिल्या पति के पुरुष वर्चस्व के प्रतिरोध में अपने में लौट गयी थी? प्रेमी के छल ने उसे नि: शब्द कर दिया था? और फिर किसी मित्र की वैचारिकी से वह  अपने नारीवाद को समझ जीवित हो उठी थी? और यह ‘अपराध बोध’ क्या वह कंडीशनिग है जो कोई भी समाज अपने हित में निर्मित करता है जिसे अंतत: अहिल्या ने अपने मन से उतार दिया.  आदि आदि ऐसे तमाम आयाम हो सकते हैं इस पुरा कथा के.

पर जयश्री रॉय  की नवीनतम कहानी अहिल्याएक ऐसे स्त्री की कथा है जो पति और प्रेमी के बीच  फंसी किसी तीसरे ‘मेंटर’ की तलाश नहीं करती वह अपने अपाहिज और लगभग पत्थर हो गए ज़िस्म में खुद जान भरने की कोशिश करती है. मनुष्य शरीर से दयनीय हो सकता है पर मन  से नहीं खासकर जब उसे ‘खुद’ को पहचानना हो. स्ट्रोक के बाद के इलाज का दारुण उपक्रम दहला देता है. 

कहानी आपके समक्ष है .

अहिल्या                                            


जयश्री रॉय 




लेटी-लेटी सुनने की कोशिश करती है,कहीं कोई आवाज़ नहीं.चारों तरफ ठहरा हुआ सन्नाटा और अंधेरा.क्या बजा होगा! अरूप इतनी जल्दी सो गया... वह करवट बदलने की कोशिश करती है.शरीर में कोई हरकत नहीं होती.बायाँ पैर लकड़ी के टुकड़े की तरह बेजान पड़ा है.  उसे अनायास याद आता है,एक महीना हुआ,उसका आधा शरीर पक्षाघात का शिकार हो गया है! इस अहसास के साथ ही उसके बायें हाथ की झनझनाहट तेज़ हो जाती है,कनपटी के ठीक नीचे से शुरू हो कर बांह से उतरते हुये उंगली के पोरों तक.जैसे चींटियों की कतार चल रही हो.डॉक्टर कह रहे थे, ‘यहअच्छा संकेत है.आपके हाथ-पैर में जान है.डैमेज अधिक नहीं हुआ.रिकवरी के चांसेस अच्छे हैं.सुन कर तसल्ली हुई थी मगर ये चौबीस घंटे की झनझनाहट! लगता है आग लगी हुई है.आधा चेहरा भी शून्य-सा.जीभ बायीं तरफ बेस्वाद,ठंड में जमी हुई हो जैसे.पाँव मे इतना नहीं यही गनीमत है.डॉक्टर को भी पता नहीं ऐसा कब तक चलेगा.वह हर बात में मुस्कराता है.यह दवा काम करती है- उसकी यह मुस्कुराहट! आश्वस्ति से भरी हुई.

पड़ोसी का कुत्ता अचानक से भौंकने लगा है.शायद उस शराबी को देख कर जो गाते हुये इस वक्त गली से गुज़र रहा है.दूर चर्च के घड़ियाल ने रात के बारह बजाए.वह एक बार फिर दरवाजे की तरफ देखती है.डायनिंग रूम मे रखे टीवी के पावर बटन की हल्की नीली रोशनी अब कुछ स्पष्ट दिख रही है.फ्रिज़ इन दिनों कुछ ज़्यादा ही आवाज़ करने लगा है.कमरे में घूमते पंखे के शोर पर हाबी होते हुये.दस साल पुराना है.उसी दिन अरूप से बात कर रही थी,इंस्टालमेंट पर नया फ्रिज़ ले आते हैं,तीन सौ साठ लीटर का! दशहरा के अवसर पर बहुत सारे अच्छे ऑफर आएंगे... जिस घर को कुछ दिनों में छोड़ देना था उसी को सजाने-सँवारने की धुन! ये आदत छूट कर भी नहीं छूटती- शादी एक आदत भी तो होती है! वह फिर दरवाजे की ओर देखती है,नहीं,अरूप का कोई आता-पता नहीं.उसे देर से बाथरूम जाने की तलब हो रही है.

पिछले कई महीनों से वह युरीन इन्फेक्शन से परेशान है.गुर्दे में पथरी के साथ बढ़ा हुआ सुगर.रात को लगभग हर घंटे उसे बाथरूम जाना पड़ता था.ठीक से सो नहीं पाती थी.स्ट्रोक के बाद तो हालत और भी बिगड़ गई है.किसी दवाई की वजह से शुरू में उसे आई सी यू में हर दस मिनट में बेड पैन की ज़रूरत पड़ रही थी.अपने पैरों को एक-दूसरे से भींचते हुये उसे अस्पताल में दाइयों की घृणा से भरी ठंडी आंखें याद आती हैं.किस अवज्ञा से देखती थींवे उसे.जैसे वह कोई घिनौना जानवर हो! पास आते हुये उनका नाक-भौं सिकोड़ना... वह निर्लिप्त बने रहने की कोशिश करती.अंदर कुछ डबडबा उठता.बेजान हो गए आधे चेहरे की बायीं आँख से कब आंसू बह निकलते,उसे पता नहीं चलता.अवश हो गए होंठों के कोन से बहती लार का भी उसे पता नहीं चलता था.एक बात जो उसे बहुत अजीब लगी थी शुरू-शुरू में,आँसू अब आँख की कोर से ना बह कर कहीं से भी टपक पड़ते थे,उसके अनजाने ही! जैसे उसकी आँख जीवित ना हो कर किसी पत्थर की मूर्ति की हो! अंदर से जीवित,देह से नीर्जिव! कितना तोड़ देनेवाला अनुभव है यह सब! डरावना भी! कई बार वह चीखना चाहती है- कोई उसे इस जिस्म कीजिंदा कब्र से बाहर निकाले.ईंट-पत्थर की तरह भारी और प्राणहीन हो गया है उसका शरीर जिसे वह ढो भी नहीं सकती.बस दबी पड़ी है इसके नीचे... एक-एक सांस के लिए लड़ते हुये! इन सबसे मुक्ति कब मिलेगी?मिलेगी भी! हर पत्थर की किस्मत अहिल्या जैसी नहीं होती...जाने कहाँ पढ़ी ये पंक्ति आज कल बार-बार याद आती है.क्या थी अहिल्या की किस्मत? ...किसी की पद-धूलि में मुक्ति! क्या किसी ऐसी ही मुक्ति की कामना में वह भी आज कल जी रही है! वह अपना सर झटकती है.तो फिर यह पथराया हुआ मौन इस मुक्ति का कोई बुरा विकल्प भी नहीं... चकराता हुआ दिमाग कुछ और ज़्यादा तेज़ी से चकराने लगता है.कुछ भी सोच लेना आसान है मगर जीवन इतना आसान नहीं.

बारिश फिर शुरू हो गई थी.बीच में कई दिन रुकी रही थी,हफ्ता भर धुआंसार बरस कर.जुलाई खत्म होने को है और मानसून अब तक ठीक से नहीं आया.इस बार बरसात आँख भर देखी भी नहीं! कितना इंतज़ार रहता था उसे बारिश का!

दायाँ हाथ बिस्तर के नीचे डाल कर वह बेड पैन के लिए टटोलती है.उसका हाथ लग कर बेड पैन आवाज़ करते हुये दूर सरक जाता है.एक गहरी निराशा बवंडर की तरह उसके अंदर घुमड़ कर उठती है.वह थोड़ी देर के लिए फिर स्तब्ध हो जाती है.दो उंगली भर की दूरी भी कितनी बड़ी दूरी हो जाती है अब उसके लिए! एक गहरी सांस खींच कर वह फिर हाथ बढ़ाती है,उँगलियों को फैलाते हुये.थोड़ा,बस थोड़ा और... वह अपने बाएँ हिस्से के जिस्म को सरकाने की कोशिश करती है.जिस्म टस से मस नहीं होता.जाने क्यों बिस्तर पर यह और भारी,बोझिल हो उठता है! उसकी सोच भी अब उसके अंगों तक नहीं पहुँचती.एक मृत देह में इस तरह जीवित रहना... ताकत लगाते हुये उसके गले की नसें फूलल गईं हैं.जो हरकतें अनायास हो जाती थीं,अब हर कोशिश के बाद भी नहीं होतीं.एक करवट लेने में वह थक कर चूर हो जाती है.

शुरू-शुरू मे कभी बायाँ हाथ शरीर के नीचे दब जाता था तो कभी एक पैर दूसरे पैर के नीचे.वह देर तक पड़ी-पड़ी इंतज़ार करती रहती थी कि कोई आए और पीठ के नीचे दबा उसका झनझनाता हुआ हाथ बाहर निकाल दे या चादर ओढा दे.इंतज़ार कितना त्रासद हुआ करता है! हर बात के लिए इंतज़ार- कोई मुंह धुला दे,कोई पानी पिला दे.आई सी यू में वह एक घूंट पानी के लिए तीन-तीन घंटे इंतज़ार करती पड़ी रहती थी.एक तो हर दस मिनट में पेशाब करने की तलब,ऊपर से बदमिजाज दाइयों का आतंक.उनका बड़बड़ाना,हिकारत से घूरना,बेरहमी से कमर के नीचे बेड पैन घुसेना... बिस्तर गीला कर देने के भय से वह भीतर ही भीतर आतंकित होती रहती.

आई सी यू के वे सात दिन उसे किसी यातना गृह में गुजारने जैसे लगे थे.ढेर सारी तारों,नलियों में उलझी,देह से अवश और बेहाल! जिस्म पके फोड़े-सा दुखता.इंजेक्शन और आई वी की वजह से हाथ की जोड़ और कलाई की शिराएँ रस्सी की तरह सख्त और काली पड़ गई थी.रोज देह में नस ढूँढने के लिए नर्सों को बहुत देर तक मशक्कत करनी पड़ती.रबर की नली से बांध कर नस उभारने के लिए हाथ पर लगातार थप्पड़ मारे जाते,सुई इस-उस नस में चुभोई जाती,मगर खून नहीं निकलता.पैर में भी नस ढूँढने की कोशिश होती.हार कर एनेस्थिस्ट को बुलाया जाता.बार-बार चुभोई गई सुइयों से बने ज़ख़्मों से खून बह-बह कर बिस्तर,जमीन पर फैल जाता,हाथ सूज कर काला.सुगर जाँचने के लिए उंगली के पोरों पर किए गए अनगिनत छेद,दोनों जांघों पर खून पतला करने के लिए सुबह-शाम दिये जाने वाले इंजेक्शन.... पूरी देह में नीले,जामुनी धब्बे! जैसे गोदना गोद दिया गया हो!




(दो)
दर्द उसके जीवन का अभिन्न हिस्सा हो गया है एक अरसे से.इतना कि अब वह उसे महसूस कर भी महसूस नहीं पाती.आदत-सी हो गई है.ये आदत भी अजीब होती है.किसी भी चीज़ की पड़ सकती है.दर्द की भी,तकलीफ की भी! कभी एक रात अच्छी नींद आ जाये या जिस्म में दर्द ना हो तो अजीब-सा लगता है.शायद वह सेडिस्ट हो गई है.पीड़ा में आनंद आने लगा है उसे.

जो वह बदल नहीं पाती,एक अरसा हुये,स्वीकार लेती थी.इससे सहना आसान हो जाता था... यही करती आई थी वह अब तक के जीवन में.मगर ना जाने कहाँ से आ कर असीम ने अचानक उसके जीवन में सब कुछ उलट-पुलट कर दिया था.बताया था उसे,उसके जीवन में उसका भी हिस्सा है! मांगो अपनी हंसी,सांसें... यह सब तुम्हारा है!  अपनी आँखों के सितारों को यूं बुझने ना दो... सुनते हुये उसके भीतर अनायास कोई खींची हुई तार तड़क कर टूटी थी.वह एक लंबी नींद से औचक जागी थी जैसे.खुद को टटोल कर देखा था- नहीं,सब कुछ खत्म नहीं हो गया है.वह जिंदा है अभी.राख़ के भीतर आंच है,आग की हल्की धधक भी.एक बार फिर से उसने जीवन से खुद को जोड़ा था.टूटे हुये धागे,उनके खोये हुये सिरे तलाशे थे.सब कुछ इतना आसान नहीं था,गुंजल बन गए जीवन को धागा-धागा सुलझाना... भीतर चाह के बीज अँखुआये थे,हरियाई थी सूखी,उलंग डालियाँ- जीवन,प्रेम,ख़ुशी- उसे चाहिए यह सब,थोड़ा नहीं,आधा नहीं,पूरा-पूरा! तटबंध टूटी नदी की तरह पिछले कई महीनों से वह बेतहाशा बहती रही है,उस दिशा में जिधर असीम उसे ले चला है.जाने कहाँ जा कर इस अदम्य नदी का बहाव ठहरता कि.... वह सोच कर भीतर ही भीतर ठिठुरती है...

इसी जुलाई मेंवे तलाक के पेपर साइन करने वाले थे! उसने अपनी महिला वकील के सामने बहुत गर्व के साथ कहा था,उसे कुछ नहीं,बस अरूप से मुक्ति चाहिए.वह भीख मांग कर गुज़ारा कर लेगी,मगर आत्मसम्मान के साथ जिएगी.अरूप उसे देखता रह गया था.एक नई नज़र से,चकित-सा.बाद में वकील के वहाँ से लौटते हुये रास्ते में कहा था- बहुत ऊंचा उड़ रही हो किसी की सह पर,मैं भी देखूंगा,कब तक...  लौट कर इसी ज़मीन पर आना पड़ेगा! वह मुंह भींचे चुपचाप बैठी रही थी.उसकी बातों का कोई जवाब नहीं दिया था.वह जानती थी,इस बार उसके पाँव फिर कभी वापस लौटने के लिए नहीं उठे थे.वह हमेशा के लिए चली जाएगी- इस अपमान,अवज्ञा के त्रासद जीवन से- दूर,बहुत दूर! बहुत कठिन था यह निर्णय फिर भी लिया था उसने.मगर... अब तो वे पाँव ही नहीं रहे जिनके भरोसे यात्रा की तैयारी की थी.सब धरे के धरे रह गए- सपने,मंसूबे... उसे अरूप की आँखें याद आती हैं- ठंडी और ठहरी हुईं... क्या था उन आँखों में?विद्रुप,करुणा या गहरी घृणा?शब्दों से परे जा कर किस तरह अर्थ में छिपा तंज़ दूर तक छेद सकता हैं... एक अमूर्त यातना में थरथराती वह निर्वाक रह गई थी.किसी की हत्या क्या सिर्फ शरीर को आघात पहुंचा कर ही की जा सकती है! कुछ हथियार बिना वार किए गहरे जख्म देते हैं...

उस दिन वह अस्पताल के कैजुअल्टीरूम मे बेजान गठरी की तरह पड़ी थी.एक दम स्तब्ध! गहरे शॉक में! उसके हाथ-पाँव में अभी-अभी फालिज मार गया था.कुछ ही देर पहले वह अपने पैरों पर चल कर यहाँ तक आई थी.उस दिन शाम को वह घर में अकेली थी और अपने वकील से फोन पर बात करते हुये अचानक लड़खड़ाई थी.उसे लगा था उसके पाँव एकदम से कट कर उसके जिस्म से अलग होने लगे हैं.डर कर वह भाग कर बिस्तर पर जा बैठी थी.फोन पर दूसरी तरफ वकील लगातार हलो-हलोकिए जा रहा था मगर वह जवाब नहीं दे पा रही थी.बस पसीने में डूबी हाँफती बैठी रह गई थी.उसके बाद बहुत मुश्किल से ही फिर वह इमर्जेनसी कालसे अरूप को फोन लगा पाई थी.अरूप उसे अस्पताल ले आया था.डाक्टर ने उसका मुआयना किया था.हर तरह से उसके हाथ-पैरों की जांच की थी.उस समय तक उसके शरीर में ताकत थी.डाक्टर के निर्देश पर वह अपने हाथ-पाँव हिला-हिला कर दिखाती रही थी.थोड़ी देर बाद डॉक्टर अरूप को एक तरफ ले गया था.वह पर्दे के दूसरी तरफ डाक्टर की बातें सुनती रही थी- शी इज़ हाविंग अ स्ट्रोक! अभी कुछ कहा नहीं जा सकता. नुकसान किस हद तक हुआ है यह कुछ समय बाद ही पता चल पाएगा.फिलहाल अड़तालीस घंटे क्रूशियल हैं.एक ब्रेन स्कैनिंग कराते हैं.हालांकि इतनी जल्दी कुछ साफ हो भी नहीं पाएगा.ब्लड प्रेशर टूसिकस्टी बाय वन फॉर्टी फाइव है.बहुत ज़्यादा! अरूप ने सुन कर धीरे से कहा था- तो प्रेशर कम कीजिये... डाक्टर ने कहा था,अचानक से नहीं कर सकते.यह खतरनाक हो सकता है.हमें इंतज़ार करना पड़ेगा.

सुन कर उसने धीरे से अपना बायां हाथ उठाने की कोशिश की थी.उठा नहीं पाई थी.उसके बाएँ हाथ और पैर जैसे अचानक-से मर गए थे.एकदम बेजान! जाने क्यों उसे कोई हैरत नहीं हुई थी.बहुत सहज उसने स्वीकार कर लिया था,उसने अपना आधा जिस्म खो दिया है... उसे आज भी पता नहीं यह क्या था- उसका साहस या एक तरह का पलायन! डिफेंस मेकेनिज़्म! इंसान जब किसी शॉक को बर्दास्त नहीं कर पाता,वह या तो होश खो बैठता है या सच को मानने से इंकार कर देता है.

थोड़ी देर बाद अरूप सामने आ कर खड़ा हो गया था.उस समय उसकी आंखों में जाने क्या था.वह समझ नहीं पाई थी,समझना चाहती भी नहीं थी.अब क्या फर्क पड़ता है.वह एकदम से वलनरेवल है,डिफेंसलेस! टेबल पर  निर्जीवपड़ी है,किसी शकी तरह.जल्दी में घर के कपड़ों में चली आई थी.गाउन ऊपर तक सरक आया था,लंबे बाल चेहरे और कंधे पर बिखरे थे.सूखे आंसुओं से पूरा चेहरा चिटचिटा रहा था... अरूप ने धीरे से उसके चेहरे से बाल हटाये थे और शांत,निर्लिप्त आवाज़ में कहा था- कुछ नहीं! सब ठीक हो जाएगा... उसने कोई जवाब नहीं दिया था.उसके बाद उसे स्ट्रेचर पर डाल कर एंबुलेंस में ले जाया गया था.अचानक वह एक जिंदा इंसान से बेजान सामान में तब्दील हो गई थी.चार-पाँच लोग उसे ढो रहे थे.उसे डर लग रहा था कि कहीं वह उस पतले-से स्ट्रेचर से गिर ना जाये.उसने स्ट्रेचर की रेलिंग्स चढ़ा देने के लिए कहा था.अरूप हल्के से मुस्कराया था- यस मैम! ऐज़ यु से...वह फिर चुप रह गई थी.उसके पास कोई जवाब नहीं था.अब बोलने की बारी अरूप की थी.

एंबुलेंस में डाले जाने से पहले उसने देखा था,मटमैले नीले बादलों को हटा कर मौसम का नया चाँद निकल आया है.कितने दिनों के बाद! पिछले कई दिनों से लगातार बारिश होती रही थी.एंबुलेंस में लेटी तेज़ सायरन के बीच वह अरूप कोनर्स और कमउम्र डाक्टर के साथ फ़्लर्ट के अंदाज़ में हँसते-बतियाते देखती रही थी.उस दिन उसने अपने शहर को पहली बार एक दूसरे ही कोण से देखा था.जिन सड़कों,गलियों से रात-दिन गुजरती रही थी,उसे पता नहीं था,उनमें दुकानों,जगमगाते शो रूम्स के ऊपर कितने फलैट्स हैं,कितने खूबसूरत नज़ारे... बाल्कनी में गमलों में झूमते फूल,रेलिंग थामे बच्चे,रोशनी से भरी खिड़कियों पर उड़ते पर्दे... ये गुलमोहर!... झड़ते फूलों और नर्म हरे पत्तों से भरी हुई लंबी,नाज़ुक डालियाँ... पहले कभी देखा हो याद नहीं.भीड़ भरी सड़कों के ऊपर भी इस तरह बादल घिरते हैं,नया चाँद उगता है... यह वही शहर है जिसके धूल-धुयेँ से वह हमेशा दूर भाग जाना चाहती थी!

इसके बाद के कई दिन जैसे कुहासे से ढके हुये थे.आई सी यू का दमघोंटूँ माहौल- ठंडा और तरह-तरह के मशीनों से भरा.मॉनिटर स्क्रीन पर दौड़ती-काँपती रोशनी की लाल-नीली लकीरें,वीप-वीप की निरंतर आती आवाज़,दवाई की गंध और इसके साथ रह-रह कर मरीजों की कराह के साथ गूँजती नर्सों की हंसी... फोन की घंटी लगातार बजती रहती है,नर्सें सफ़ेद परछाइयों की तरह भावहीन फिरती हैं,नलियों-तारों मे उलझे मरीजों की लंबी कतारें- उनके फीके,रंग उतरे चेहरे-ऑक्सीजन मास्क के पीछे हाँफते हुये... उसका आधा जिस्म सो गया था मगर दिमाग पूरी तरह से जागा हुआ था.वह सब देख-समझ-सोच सकती थी.

राउंड पर आए डॉक्टर ने उसके हाथ-पैर का मुआयना किया था,उससे तरह-तरह के सवाल किए थे.कहा था, थैंक्स गॉड! नुकसान अधिक नहीं हुआ है.वह समय रहते अस्पताल चली आई.अगर अकेली देर तक पड़ी रह जाती,स्थिति कठिन हो सकती थी.दिमाग में रुके हुए रक्त प्रवाह की वजह से हुई ऑक्सीजन की कमी से नुकसान तो हुआ है,शरीर का बायाँ अंग सुन्न पड़ गया है,मगर यदि नस फट कर अधिक रक्त श्राव हो जाता...डॉक्टर के रुक जाने पर उसने निर्लिप्त भाव से पूछा था- तो?क्या होता?डॉक्टर ने भी उसी अंदाज़ में जवाब दिया था- तो बोलने-समझने की शक्ति का ह्रास,दुनिया घूमती हुई प्रतीत होना,एक या दोनों आँखों की रोशनी चली जाना, जीभ से स्वाद भी... ये सब कुछ हो सकता था! स्ट्रोक से अक्सर बड़ी मांस-पेशियाँ जैसे हैमस्ट्रींग मसल,कुयाड्रिसेप मसल,एंकल डोरसिफ्लेक्सोर,साथ ही ग्लुटील मसल्सयुवा डॉक्टर अपने उत्साह में देर तक न समझ आने वाली भाषा में जाने क्या-क्या बोलता रहा था जिसका आधिकतर वह समझ नहीं पाई थी और जो समझी थी उसे सुन कर उसके भीतर कोई प्रतिक्रिया उत्पन्न नहीं हुई थी.कैसी तो हो गई है वह इन दिनों! देह के साथ संवेदनाएं भी शून्य पड़ गईं हों जैसे.

लोग मिलने के संक्षिप्त-से समय में तरह-तरह की कहानियाँ सुना जाते- यह तो आज कल होता रहता है.कोई बड़ी बात नहीं! फलां-फलां को हुआ था,सात दिन के भीतर ठीक हो कर अपने पैरों पर घर लौटे.या ऐसे में उस तरह की मालिश बहुत कारगर होती है,जड़ी-बूटियों का लेप,बाबा रामदेव के आश्रम में चली जाओ,हीं,हरिद्वार में! एकदम वर्ल्ड क्लास बंदोबस्त! कुछ दिन पहले ही मेरीबूआजी एक महीना रह कर आईं,एकदम फिट...’कुछ इतने पॉज़िटिव भी नहीं होते.आँसू बहाते हुये डरावनी कहानियाँ सुनाते हैं- ओह क्या बताएं! मेरीमौसी... पिछले महीने ही... स्ट्रोक के बाद पंद्रह दिन कोमा में रह कर गई... और मुंबई वाले अंकुर काका... निमुनिया ले कर पड़े हैं,ब्लैडर भी खराब... हर समय पेशाब... सच! देखा नहीं जाता! भगवान तो बस उन को अब...नर्स आ कर उन्हें चुप कराती- क्या रोना-धोना लगा रखा है! पेसेंट को आराम करने दो!वे सेब,केला का पैकेट थमा कर मुंह बनाते हुये चले जाते.

वह सब सुनती मगर अधिकतर बातें उस तक जैसे पहुँचतीं ही नहीं.उसे तो हर घड़ी अपने बच्चों का इंतज़ार रहता था.वो बच्चे जिनके लिए वह अब तक ज़िंदगी से हर हाल में निभाती रही थी.उन्हें बड़ा करना था,इतना कि वे खुद ज़िंदगी का सामना कर सकें,सम्मान के साथ जी सकें.बेटी सोलह की है.बेटा उन्नीस का.बस कुछ साल और... वह आँख बंद करके जाने किससे कहती है.जीवन भर पूजा-पाठ नहीं किया.किसी तरह का कर्म-कांड भी नहीं.सब उसे नास्तिक समझते हैं.मगर वह जानती है,उसकी आस्था इन बातों से परे है.वह अपने धर्म को अपने जीवन में हर पल जीती रही है.उसका हर क़दम अपनी आस्था,अपने ईश्वर की राह पर रहा है.उस समय भी जब वह मृत्यु के ठीक सामने खड़ी थी.कुछ ही पलों में पूरा जीवन उसकी आँखों के सामने किसी फ़िल्म के दृश्य की तरह गुज़र गया था.बचपन,जवानी के दिन,शादी के बीस साल... कितनी सारी खुशियाँ,कितनी सारी उपलब्धियां... जाने क्यों उसे दुख के एक पल याद नहीं आए थे.उसने सारे मौसम जीये- शीत,गृष्म,बारिश... ठंड के गुलाबी दिन,गर्मी की अलस,ऊँघती दुपहरें,आषाढ़ की नीली,साँवली संध्यायेँ... टूट कर प्यार किया,आँचल भर कर पाया भी! आँखों के सामने घिरती धुंध के बीच असीम की भूरी आँखें याद हो आई थी,उसकी देह की मादक गंध भी.बस एक बार तो इतने करीब आने का अवसर मिला था,स्पर्श के दायरे मे- तुमसे प्यार करता हूँ,करता रहूँगा,जीवन में भी,जीवन के बाद भी!
प्रेम के एक पल में कितनी सदियाँ होती हैं!... अब वह जानती है.असीम ने बताया है उसे.बीच में बच्चों ने आ कर एक बार ज़रूर रास्ता रोका था.उसने धीरे से उनकी उँगलियाँ छुड़ाई थी...छवि अब खुद से अपनी चोटियाँ गूँथ लेती है,नूडुल्स भी बना लेती है.आलोक को इसी वर्ष ड्राइविंग लाइसेन्स मिला है.देखो तो,छह फुट का जवान मर्द हो कर बच्चों की तरह रोता है...

पहले गिर जाता था या कहीं चोट लग जाती थी तो जब तक उससे आश्वासन नहीं मिल जाता था,उसे तसल्ली नहीं होती थी. बार-बार आ कर पूछता था,कुछ नहीं होगा ना माँ?आज भी उसकी आँखें वैसी ही दिख रही हैं- काँच-सी चमकीली,गीली-गीली... वह उससे एक बार फिर आश्वासन चाहता है- तुम्हें कुछ नहीं होगा ना माँ?मर तो नहीं जाओगी...वह बस मुस्कुराती है.क्या जवाब देती! उसके भोले विश्वास को ठगा भी तो नहीं जाता.माँ हो कर इस तरह विवश हो गई... एक आँख के आँसू उसने किसी तरह जब्त कर लिए थे,बाईं आँख बहती रही थी- अब उसे कभी कुछ नहीं हो सकता... वह इन सब से परे चली गई है... वह यकायक एकदम शांत हो गई थी,कहीं गहरे भीतर से तैयार भी- मृत्यु के लिए.अगर यही उसका आखिरी समय है तो वह इसके लिए हर तरह से तैयार है! कोई मलाल नहीं,शिकायत नहीं... इतना शांत और निर्लिप्त उसने स्वयं को पहले कभी महसूस नहीं किया था.उसकी सांस गहरी और सम पर थीं,लगातार! भीतर कोई उद्वेग नहीं,कोलाहल नहीं.मृत्यु! आओ... आना है तो!

मगर वह रात बहुत शांति से बीती थी.सुनामी की तरह,सतह पर शांत,भीतर ही भीतर ऐंठता-घुमड़ता हुआ...




(तीन)
इसके बाद जाने कितने दिन बीते थे,कितना समय... रात-दिन के अहसास के बिना.दवाओं की गंध और बीमारों की कराहों के बीच हर सुबह छवि चाय का थर्मस लिए सामने आ खड़ी होती,किसी लिली के सुंदर फूल की तरह- ताज़ाऔर चमकीली! खुशी और उत्साह से जगमगाती हुई.अभी-अभी कॉलेज में दाखिला मिला है उसे.दिन-दिन भर लंबी कतारों में खड़ी रह कर और हजारों फार्म्स भर कर उसने ही तो हाल में उसका दाख़िला करवाया था.नए जीवन का उमंग भरा है भीतर.कितना कुछ है उसके पास कहने के लिए.बात-बात पर चहक रही है.उसमें आलोक की तरह समझदारी नहीं आई है अभी.उस दिन जेब से निकाल कर च्युंगम दे रही थी उसे.वह एक गाल से मुस्करायी थी.आधा चेहरा अवश था तब,कुछ ज़्यादा ही.छवि देख कर चहकी थी- वाउ! तुम्हारे एक गाल का डिम्पल तो अभी भी बचा हुआ है! छवि को देख कर लगता था,जीवन अब भी खूबसूरत है... स्तब्ध पड़ गई धमनियों में मधु-सा कुछ मीठा उतर आता था जो देर तक उसके भीतर घुलता रहता.जीवन एकदम व्यर्थ नहीं गया.उसने रचे हैंदो व्यक्तित्व,दो मनुष्य- उनमें संस्कार भरे हैं,जीवन-जगत के प्रति संवेदना,आस्था और ढेर सारा ममत्व... छवि बता रही थी उस दिन,क्लास में टीचर के पूछने पर उसने मनुष्यता पर अपने विचार बताए थे.टीचर ने उसके जवाब पर पूरे क्लास से उसके लिए तालियाँ बजवाई थी.तब छवि ने कहा था,ये बातें उसने अपनी माँ से सीखी हैं.उसकी माँ उसे हमेशा ऐसी ही अच्छी-अच्छी बातें सिखाती हैं.छवि की बात ने उसे भीतर तक नम कर दिया था.नहीं,वह अभी खत्म नहीं हुई है,हो नहीं सकती! जीवित रहेगी अपने बच्चों मे,उनकी सोच और रूप मे भी.छवि की बड़ी-बड़ी आँखें,सुंदर भौंहें... कोई पुराना परिचित उसे देख कर कहता है,तुम मृदुल की बेटी हो ना! आलोक के होंठ,खूब चमकीले,रेशमी,घने बाल... लड़कियां रश्क से अक्सर उसे छेड़ती हैं,हमारे ऐसे बाल ना हुये! यह सब देख,महसूस कर इतने अभाव में भी मन भरा-भरा रहता है.अपने होने का आश्वासन,अपनों में,वह भी इस तरह...

दूसरी तरफ असीम के शब्द- तुम हो मुझमें,हर तरह से,सम्पूर्ण,सुरक्षित!सुख की एक छोटी-सी बूंद उसकी पूरी देह में अमृत की तरह घुलती रहती है.भीतर का घना अंधकार फीका हो आता है क्षणांश के लिए.

इन्हीं स्याह-सफेद अनुभूतियों के बीच वह घंटों पड़ी रहती,दवाई निगलती.हर कुछ घंटे में नर्सें उसका सुगर,ब्लड प्रेशर चेक करतीं,इंजेक्शन देतीं,पानी पिलातीं और इन सबके बीच वह चुपचाप इंतज़ार करती- इंतज़ार- इस समय के बीत जाने का,तकलीफों के खत्म होने का, अपनेघर लौटने का... जिस घर को वह एक अरसे से छोड़ देना चाहती थी,आज वही किस शिद्दत से लौटना चाहती है! उसे पता नहीं था,उसकी दुनिया बस उतनी-सी है,उतनी ही! इस कठिन समय में उसे जाने क्या याद आता- रसोई की खिड़की पर रखेएलोवेरा और मनी प्लांट के पौधे,किचन गार्डन की मचिया पर खिले तरोई के पीले फूल... तुलसी चौरे पर जलते दीये की लौ... जाने कब से बुझा पड़ा होगा.साँझ के अंधेरे में डूबा हुआ तुलसी चौरा कितना बुरा लगता है! माँ कहती थी,गृहस्थ के घर सरेशाम आँगन का अंधेरे में डूबे रहना शुभ नहीं होता! उसे इन बातों में यकीन नहीं,मगर लगता उसे भी ऐसा ही है.इस लगने को वह नकार नहीं सकती.संस्कार कुछ ऐसा ही होता है.सोच में नहीं,अनुभूतियों में... हार-मज्जा में बसे समूह मन की युगों से संचित आस्थाएं,अनुकूलन...

दिमाग की दुनिया की हद बहुत सीमित होती है.यह तो मन होता है जो आकाश-सा असीम होता है.इसी मन की अथाह संभावनाओं के बीच वह आजकल जीती है.दिमाग तो कहता है,अब कुछ नहीं रहा जीने के लिए.स्ट्रोक के बारे में जितना जान रही है,अंदर आतंक भर रहा है॰ आंकड़े बताते हैं,कुछ साल पहले तक दस मे से नौ स्ट्रोक के मरीज़ मर जाते थे.अब तीन में से एक.आधे स्ट्रोक होने के एक साल के अंदर... दुनिया की चौथी सबसे घातक बीमारी! ब्लड प्रेशर,सुगर,दिल के मरीज के लिए यह और भी घातक.यह सब बीमारियों तो उसे कब से है.अगले महीने एंजिओग्राफी होनी है,दिल बांस के पत्ते-सा काँपता रहता है! जाने उसमें कितनी नसें बंद पड़ी हैं,सालों की घुटन झेली है...

इन बातों को परे हटा कर असीम कहता है- देखना तुम एक महीने के भीतर चलने लगोगी.जिस दिल में मैं रहता हूँ वहाँ किस बीमारी की मजाल है कि पास भी फटके! तुम्हारा दिल कभी धड़कना नहीं छोड़ सकता मृदुल! तुम जानती हो,इन्हीं में मैं जिंदा हूँ,मरने को खुद मर जाओगी मगर मुझे मरने नहीं दोगी इतना विश्वास है...जाने इतना यकीन कहाँ से लाता है वह! पूछने पर बस मुस्कुराता है- प्यार यकीन ही तो है! फोन के एक सिरे पर बैठी वह उसकी आवाज़ से उम्मीद बटोरती है,हौसला भी.ऐसा नहीं कि वह नहीं जानती.वह भी सब जानती है.यही तो विडम्बना है! काश वह कुछ नहीं जानती,कुछ भी नहीं!... नहीं जानती अपने अधिकार,नहीं समझती खुद को किसी काबिल... जी लेती हर किसी की तरह.खुश हो लेती कपड़े,गहनों से... जिस्म की गर्माहट को प्यार मान लेती... मगर यह सब उससे नहीं हो सका.उसने सवाल किए,पूछा कुछ बातों के माने.वह वर्जित प्रश्न करती थी,सीमाओं का उल्लंघनकरती थी,अपने हिस्से का आकाश-ज़मीन मांगती थी... यह सब बर्दास्त के काबिल नहीं था,कम से कम अरूप जैसे व्यक्ति के लिए.

अपनी वह माँ उसके लिए एक आदर्श स्त्री थी जिसने कभी ऊंची आवाज़ में अपने पति से बात नहीं की,सत्तर साल की उम्र तक करवा चौथ का व्रत रखती रही... हर बात में कहता,मेरी माँ से कुछ सीखो! उसे अब भी कभी-कभी लगता है,अरूप की माँ को वह अरूप से ज़्यादा जानती थी. खास कर उनके अंतिम दिनों में.एक बार उसके पूछने पर कि वह इतनी उम्र में भी इतने व्रत-उपवास क्यों रखती हैं,उनकी सेहत के लिए ठीक नहीं,डॉक्टर ने मना किया है तो उन्होने जाने कैसी आवाज़ में कहा था- करना पड़ता है मृदुल! तुम नहीं समझोगी...अपने पति की मृत्यु पर एकांत मिलते ही उससे इतना ही कहा था- मैं बस सोना चाहती हूँ,बहुत नींद आ रही है...उसे पता था,अपने बीमार पति की सेवा में वे एक लंबे समय से रात-दिन एक किए हुथीं.अरूप के लिए उसकी माँ एक देवी थींजिसके दुख-दर्द वह कभी देख नहीं पाया.उसका हिसाब बहुत सीधा है.औरत या तो देवी होती है या छिनाल! बस मनुष्य ही नहीं होती.और उसकी सब से बड़ी त्रासदी यही है कि वह एक साधारण मनुष्य है.अपनी भूख-प्यास के साथ कुछ सपनों और प्रश्नों के लिए वह हमेशा कठघरे में खड़ी की जाती रही,दग्ध होती रही.मगर वह अब तैयार थी- अपने सपनों की कीमत चुकाने के लिए.असीम ने ही कहा था उससे,आत्म सम्मान और आज़ादी के लिए चुकाई गई कोई भी कीमत बड़ी नहीं!

अस्पताल से लौट कर वह खुद को स्वाभाविक दिखाने की भरपूर कोशिश करती है.हँसती है,बोलती है.जहां तक संभव हो अपने काम खुद करने की कोशिश करती है.समझती है,एक बीमार के साथ रहना सब के लिए आसान नहीं.घर वालों के लिए यह मुश्किल समय है.रो-धो कर वह घर के माहौल को और अधिक उदास नहीं करना चाहती.अंदर रह-रह कर निराशा के बादल घुमड़ उठते हैं.एक छोटा से छोटा काम कितना मुश्किल हो गया है.वह धैर्य रखती है मगर कभी-कभी सब कुछ बहुत असहनीय हो उठता है.

अस्पताल से लौटने के पहले दिन जब छवि अपना तकिया सीने से लगाए उसके पास आ खड़ी हुई थी,वह खूब रोई थी.छवि सालों से उसके साथ सोती रही थी.ऊपर की मंजिल में उनका कमरा था.अरूप नीचे के कमरे में सोता था.स्ट्रोक के बाद ऊसके सोने की व्यवस्था नीचे अरूप के कमरे में की गई थी.  अरूप सीटिंग रूम में सोने लगा था जो उसके कमरे के करीब था.उसे यही लगा था,अब उसे अकेले ही सोना पड़ेगा.छवि के आने से वह बेतरह भर आई थी.इस बच्ची में उसकी जान बसी थी.

परीक्षा पास आने से इन दिनों दोनों बच्चे अधिकतर ऊपर के कमरे में ही रहते थे.वह अपने कमरे में पड़ी-पड़ी उनकी आवाज़ सुनती रहती.लगता,जीवन में जो कुछ भी सुंदर था,उससे दूर चला गया है- उसके बच्चे,उसके घर की खुली छत,दूर तक फैला आकाश,बाल्कनी के गमलों में खिले फूल... इस घर के हर कोने में उसकी उँगलियों के निशान हैं,अंतरंग स्पर्श हैं... क्या वे उसे याद करते हैं! दुनिया हिमालय की चोटी पर पहुँचना चाहती होगी मगर एक आम औरत की जान तो घर,रसोई,आटा के कनस्तर में बसतीहै,अपने बच्चों में बसती है... उसे यह सब छोड़ कर स्वर्ग जाने की भी फुर्सत नहीं.अभी तोबेटे से एम बी ए की तैयारी करवानी है,छवि को मेडिकल की.पाँच-छह साल में वह शादी के योग्य हो जाएगी.ये बेटियाँ कितनी जल्दी बड़ी हो जाती हैं... व्हील चेयर को धकेलती वह एकदम से थक जाती.वह इतना कुछ कैसे कर पाएगी...!

इन दिनों सालों बाद शाम के समय सोफे पर बैठी टीवी की तरफ खाली आँखों से तकती रहती.अरूप ही डायनिंग रूम में रखे सोफे पर उसे तकिये के सहारे बैठा जाता- बैठो मेम साहब और ख़ादिम को हुक्म दो! ऐसा कहते हुये अरूप की आँखें अजीब ढंग से चमकतीं.इन दिनों वह खाना बना रहा था.उससे पूछ-पूछ कर.जिसने कभी अपनी ज़िंदगी में एक कप चाय तक नहीं बनाई. अरूप उससे बहुत अच्छा व्यवहार कर रहा है.कुछ ज़्यादा ही.इतनी की उम्मीद उसने कभी नहीं की थी.और यही उसकी तकलीफ का सबसे बड़ा कारण है आजकल.काश अरूप ऐसा ना करके उसे मर जाने के लिए अकेली छोड़ देता! वह शायद कहीं ज़्यादा बेहतर होता उसके लिए.इस तरह हर पल उसे छोटी,असहाय,आश्रित महसूस करवाना... बताना कि उसके सिवा उसका कोई नहीं,उसका जीना-मरना- सब उस पर निर्भर... कई बार उसने कहा था- मुझे मर जाने देते... सुन कर अरूप उसके होंठों पर उंगली रख देता- इतनी जल्दी नहीं मेरी जान! इतनी जल्दी नहीं...उसके सामने खुली देह वह बेबस पड़ी रहती.इन दिनों अरूप ही उसे बाथरूम ले जाता है,नहलाता है,कपड़े पहनाता है... जिससे दस साल उसके कोई संबंध नहीं रहे,जो कल तक एक अजनबी की तरह ही था! अपने पत्थर बन गए शरीर के भीतर वह बेआवाज चिल्लाती रहती और अरूप बहुत आराम और तबीयत से उसके एक-एक कपड़े उतारता- इजाज़त है मैम! नहीं,पूछ रहा हूँ.वरना कहीं बिना पूछे हाथ लगाने की गुस्ताखी के लिए पिछली बार की तरह थप्पड़ ना पड़ जाय... अब तो तुम झांसी की रानियों के प्रताप से मर्रीटल रेप का भी कानून बन रहा है!... कहीं अब तो तुम्हें मेरे शरीर से पराई औरत की गंध नहीं आती? आती हो तो भी ज़रा बर्दास्त कर लो,क्या करोगी...वह किसी तरह अपने आंसूँ जब्त करती.अरूप हल्के-हल्के सीटी बजाता- स्वीट रिवेंज...ओ स्वीट रिवेंज...

रविवार को टीवी पर फिल्म लंच बॉक्सदिखाई जा रही थी.वह बीच से देखती है,अनमनी! अरूप किचन में खाना बना रहा है.फिल्म में नायिका के पिता का सालों बिस्तर में पड़े रहने के बाद देहांत हो गया है.नायिका जब अपनी माँ को सांत्वना देने पहुँचती है,वह रोने के बजाय आँखों में दीवानगी भरी चमक ले कर कहती है- सालों से इनके लिए नाश्ता बनाती रही! नाश्ता,फिर नहलाना, फिर नाश्ता... कभी-कभी इनसे घिन आती थी...देख कर वह भीतर से कुछ और जम आती है.सहमी आँखों से किचन की ओर देखती है- अरूप हाथ में करछुल लिए बर्तन से उठते भाप की तरएकटक देख रहा है.दायाँ हाथ कमर पर रख दोनों पैर फैला कर खड़ा है.बगल से उसका दायाँ भींचा हुआ जबड़ा चमक रहा है,एकदम स्थिर...

वह बढ़ कर हर काम करने की कोशिश करती है.वरना बिस्तर में पड़ी-पड़ी खुद को परित्यक्त महसूस करती है.चाहती है कि वह अपने परिवार के लिए एकदम से निरर्थक और बोझ ना बन जाये.वह खुद के होने को महसूसना चाहती है.यह ज़रूरी है उसके लिए.मगर ऐसा करते हुये अपने बेतरह काँपते हाथ से अक्सर चीज़ें उलट-पुलट कर के रख देतीहै.सालों से घर सम्हाल रही है,अब ठीक से एक थाली भी परोस नहीं पाती.व्हील चेयर पर बैठते ही बच्चे सतर्क हो जाते.अरूप उपहास के स्वर में कहता- देखो मैडम गड़बड़ कहाँ चली!छवि कभी चिढ़ कर कहती- तुम रहने दो माँ,सब बिगाड़ कर रख दोगी...

अरूप उस दिन एक पत्र खोलते हुये उसके पास आ बैठा था- तुम्हारे वकील का पत्र है.तुमसे पूछा है,तलाकनामे पर साइन करने कब जाना चाहोगी... मसौदा तैयार है.वह बिना कुछ कहे व्हील चेयर के हत्थे को सख़्ती से पकड़े बैठी रही थी.क्या कहती!... कह सकती थी! अरूप भी उससे कुछ पूछ कहाँ रहा था.उसे उससे किसी जवाब की अपेक्षा भी नहीं थी.कुछ देर बाद फिर खुद ही बोला था- बता देता हूँ कि जब मैडम खुद अपने पैरों पर दो कदम चलने के काबिल हो जाएंगी,तलाक लेने पहुँच जाएंगी.क्यों,ठीक है ना?फिलहाल तो...कहते हुये उसने उसका व्हील चेयर पीछे से धकेलना शुरू कर दिया था- अभी कहाँ चलना है?बाथरूम?जल्दी बताओ वरना उस दिन की तरह कपड़ा गीला कर दोगी!बाथरूम में बैठी-बैठी उस दिन वह चुपचाप रोती रही थी.उसके अंदर अब कोई आग नहीं,बस राख़ है- ढेर की ढेर,ठंडी... ठीक उसके शरीर की तरह...

असीम के कहने पर पिछले साल से ही उसने एक अरसे बाद अनुवाद का काम करना शुरू किया था. ‘कितनी भी कम हो,अपनी मेहनत की कमाई हमेशा खैरात से बेहतर होती है! बिल्ड योर लाइफ,एक-एक तिनके से सही...अपनी कमाई के थोड़े-से रुपये हाथ में ले कर उसे पहली बार असीम की बात की सच्चाई का अहसास हुआ था.अब तक अरूप के अवज्ञा,उपेक्षा से दिये हुये कपड़े-गहने उसके शरीर पर जलते थे.उसके भीतर रह-रह कर घुमे-सा उठता- उसकी कीमत,वह भी यह चीज़े,कभी हो नहीं सकतीं! असीम ने भी कहा था कभी,तुम्हें मैं क्या दे सकता हूँ भला,यह बस मेरा प्यार है... उस दिन अपनी किताब की रॉयल्टी से उसने उसे ढेर सारी किताबें खरीद कर भिजवाई थी- उसके प्रिय लेखकों की किताबें.असीम की अधिकतर किताबें उसके पास पहले से थीं.सालों से वह उसे पढ़ती आई थी.आगे चल कर उनके बीच हुये पत्रों के आदान-प्रदान ने उन्हें ना जाने कब एक अनाम संबंध से जोड़ दिया था.असीम ने ही उसे समझाया था,सफर के लिए पाँव से ज़्यादा हौसले की ज़रूरत होती है... अपने बेजान पैरों की तरफ देखते हुये उसे इन दिनों अक्सर असीम की वह बात याद हो आती है. ‘उम्मीद को कभी अपाहिज होने मत देना! अंधी आँखें भी सपने देख सकती हैं...

असीम एक पत्रिका निकालता था,बाज़ार के तमाम दवाबों को नकारते हुये.उससे किसी तरह के आर्थिक लाभ की गुंजाइश नहीं थी.मगर असीम से उसे जो मिला था,वह मूल्यजैसे बाजारू शब्द से कहीं बहुत आगे की चीज़ थी,यह बात सिर्फ वही समझ सकती थी.उसी ने कहा था, अपनी संभावनाओं को पहचानो.इतनी मजबूर क्यों हो! जानती हो,तुम्हारी भीरुता ही उस आदमी की ताकत है.जिस दिन तुम इंकार कर दोगी,उसकी सत्ता खत्म हो जाएगी...

ओह अब रुका नहीं जा रहा... वह अंधेरे में इधर-उधर हाथ फैलाती है.बेड पैन सरक-सरक कर दूर जा पड़ा है.आज छवि भी पास नहीं.परीक्षा की तैयारी में ऊपर के कमरे में सोई है.सुबह चार बजे का अलार्म लगा कर सोती है.अरूप ने कहा था,वह तो है ही पास के कमरे में.अब कहाँ गया! वह दायें हाथ से बिस्तर के सरहाने पर ठकठकाती है.घुटी-घटी आवाज़ में पुकारती है- अरूप....पंखे की आवाज़,फ्रीज़ की घर्र-घर्र,ध्वनि के रास्ते में खड़े कई दरवाजें और दीवारें... वह अंधेरे में चारों ओर आँख फाड़-फाड़ कर देखती है.किसी ने नाइट बल्ब भी नहीं जलाया.वह दायीं कुहनी के सहारे उठने की कोशिश करती है और जरा उठ कर तकिये पर गिर पड़ती है.इतनी-सी मेहनत से ही माथे पर पसीना छलछला आया है,सांसेंफूल रही हैं,दिल जैसे गले में धडक रहा है!

बिस्तर पर पड़े-पड़े उसे आई सी यू के वे त्रासद दिन याद हो आए थे जब कभी-कभी तेज़ रोशनी के नीचे उसे घंटों शोर-गुल के बीच अपनी प्यास और पेशाब की तलब को दबा कर पड़े रहना पड़ा था.सुबह के समय नर्सिंग की ट्रेनिंग लेती लड़कियों की भीड़ होती.उनकी चुहल,बातें,ज़ोर-ज़ोर से हँसना... आई सी यू में मोबाईल रखने की मनाही थी,मगर सब धड़ल्ले से उनका इस्तेमाल करते.साथ ही किसी खराब हो गए मशीन की तेज़ घरघराहट... बेड पैन के इंतज़ार में वह सख्ती से अपने दोनों पाँव भींचे पड़ी रहती.उसे देख कर हैरत होती थी,किसी मरीज का एक्स-रे बिना किसी एहतियात के निकाला जाता.एक्स-रे लेने वाला टेकनीशियन तो अपना सुरक्षा कवच पहन लेता और नर्स,डॉक्टर कमरे से निकल जाते,मगर सख्त बीमार मरीज रेडिएशन की जद में असहाय पड़े रहते.दिन में कई-कई बार! इंसान की जान की कीमत कितनी होती है यह बात वह उन्हीं दिनों जान पाई थी.

अब वह खुद को और जब्त नहीं कर पाएगी... उसे कुछ करना पड़ेगा वरना वह बिस्तर गीला कर देगी.इस सोच ने उसमें तेज़ घबराहट भर दी थी.कुछ जल्द करना पड़ेगा... मगर क्या! इन दिनों सुविधा के लिए घर मे वह मात्र एक ढीले गाउन में रहती है.दूसरे कपड़ों को सम्हालना उसके लिए असंभव है.लंबे बाल भी छांट कर एकदम छोटे कर दिये गए थे.पहले के कुछ दिन अस्पताल के बिस्तर में पड़े-पड़े उसके बाल जटाओं में तब्दील हो गए थे.छवि उसे देख कर हँसती- अरे माँ! दुबली हो कर,बाल काट कर तो तुम बिलकुल स्कूल की लड़की लग रही हो!असीम उससे मिलने किसी तरह आ नहीं पाया था.अरूप ने निर्ममता से कह दिया था- अगर तुम्हारा वह बूढ़ा लेखक इस घर में कदम भी रखा तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा.यह सारी आग उसी की लगाई हुई है.खुद तो जीवन भर कलम घिसता रहा,दूसरों के हाथ में तलवार थमाने चला है!हार कर असीम ने कहा था, मैं तो चल कर भी तुम तक नहीं पहुँच सकता मृदुल! अब तुम्हें ही मुझ तक आना पड़ेगा- पैर के,बिना पैर के,जिस दिन आ सको

पैर... वह अंधकार में अपने पैरों की तरफ देखती रहती है.आलोक ने उस दिन उसे सहारा देते हुये कहा था, माँ,मैं हूँ ना तुम्हारे हाथ-पैर!छवि भी... जिधर कहोगी,चलेंगे...सुन कर उसकी आँखें फट कर आँसू निकले थे.उसका छोटा-सा बच्चा कितना बड़ा हो गया था! कुछ देर चुपचाप बैठ वह हाँफती हुई खुद को एक बार फिर ऊपर की ओर खींचती है.आधा शरीर रेत के भीगे बोरे की तरह भारी और बेजान है.वह दायीं कोहनी कमर के पास बिस्तर में गाकर अपने धर के ऊपरी हिस्से को एक बार फिर उठाने की कोशिश करती है.गले की शिराएँ सूज कर तन जाती हैं,कनपटियाँ धपधपाने लगती हैं.वह आँखेंबंद करके अपने सुन्न पड़े हुये शरीर के बाएँ हिस्से पर ध्यान केन्द्रित करती है और मन ही मन कहती है- उठो!उठो...जांघ में तनाव पैदा होता है,घुटना हल्के-हल्के काँपता है... फिजियोथेरेपिस्ट कह रही थी- नितंब,घुटने जैसी बड़ी मांस पेशियाँ स्ट्रोक से ज़्यादा प्रभावित होती हैं.इन पर हमें अधिक मेहनत करनी पड़ेगी.वह रोज़ घर में आ कर उसे एक घंटा फिजियोथेरेपी करवाती है.कहती है,उसे थोड़ा धैर्य रखना पड़ेगा...

धैर्य! और कितना धैर्य! इसकी कोई सीमा भी है?थोड़ी देर बैठ-बैठ कर हाँफने के बाद वह घिसटते हुये बिस्तर के किनारे तक आती है और अपना निचला जिस्म बिस्तर से नीचे उतारने की कोशिश करती है.दायाँ पैर उतर जाता है.बायाँ पैर चादर से उलझा हुआ है.हिल तक नहीं रहा.किसी तरह दायें हाथ को बाईं तरफ ले जा कर वह पैर से चादर हटाती है.दायें हाथ का सहारा हटते ही वह एक बार फिर लुक जाती है और फिर धीरे-धीरे उठ बैठती है.पीठ में तेज़ दर्द हो रहा है.दायाँ पैर ठंडी फर्श परथरथरा रहा है.वह एक बार फिर दायें हाथ से बाएँ पैर को पकड़ती है और बिस्तर के नीचे घसीट लेटी है.पैर बेजान लकड़ी की तरह धड़ाम-से फर्श पर गिरता है और इसके साथ ही संतुलन खो कर वह बिस्तर से गिर पड़ती है.गिरते हुये वह बचने के लिए अपना दायाँ हाथ हवा में लहराती है और जो भी आसपास मिलता है उसे पकड़ने की कोशिश करती है.एक साथ बिस्तर के बगल में रखी हुई दवाई की ट्रे,पानी का जग,ग्लूको मीटर कि...ज़मीन पर तेज़ आवाज़ करते हुये सब बिखर जातेहैं.उसका सर फर्श से टकराता है और मुंह से बेखास्ता चीख निकलती चली जाती है.शोर सुन कर अरूप भाग कर कमरे में आता है और लाईट जला कर हैरान खड़ा रह जाता है.उसके हाथ में मोबाईल का स्क्रीन अब तक ऑन है.

वह फर्श पर पीठ के बल पड़ी है,उसका भीगा हुआ गाउन ऊपर तक सरक गया है.बायाँ पैर बेतरह काँपता हुआ और हाथ पीठ के नीचे.चेहरे पर बायीं भौं के पास से खून रिस कर पूरे चेहरे पर फैल रहा था.आँखें आंसुओं से भरी थीं.मुआयना करते हुये अरूप के चेहरे पर विरक्ति और झुंझलाहट के भाव फैल गए थे- अब यह क्या कर लिया तुमने! ज़रा धैर्य नहीं रख सकती.मैं तो यही था,कुछ चाहिए था तो बुला लिया होता!

उसकी बात का उसने कोई जवाब नहीं दिया था.पड़ी-पड़ी गहरी साँसे लेती रही थी.थोड़ी ही देर में उसकी बाईं आँख सूज कर आधी बंद हो गई थी.  अरूप ने झुक कर उसे कमर से पकड़ कर उठाने की कोशिश की थी- तुम्हें कहा था न,तुम बहुत ज़्यादा उड़ रही हो! एक दिन ज़मीन पर बहुत बुरी तरह गिरोगी...बात के अंत तक आते-आते अरूप की आवाज़ में गहरा व्यंग्य घुल आया था.उसके होंठों के कोने भी mmudमुड़ गए थे.उसकी बात सुन कर उसकी बहती आँखें एक दीवानगी भरी चमक से अचानक भर उठी थीं.अरूप के हाथ को झटकते हुये उसने खींच कर अपने धर को थोड़ा ऊपर उठाया था और हिसहिसाती आवाज़ में कहा था, तुमने एक बात पर ध्यान नहीं दिया अरूप! मेरा इस तरह ज़मीन पर गिर जाना यह बताता है कि मैं उठी थी,खड़े होने की कोशिश की थी... और यह कोशिश तो मैं बार-बार करती रहूँगी अरूप! फिर चाहे जितनी बार भी गिरती रहूँ...   

ओह फिर वही बातें!अरूप ने सीधा खड़ा होते हुये अपने कंधे उचकाए थे- अब अपनी खुशफहमी से बाहर आओ  और हकीकत को स्वीकारो- तुम्हारा उद्धार बस मैं कर सकता हूँ- मैं...!.तो उछल-कूद मचाना छोड़ कर चुपचाप पड़ी-पड़ी मेरी पद-धूलि का इंतज़ार किया करो मेरी पाषाण अहिल्या! तुम्हारे राम आएंगे...बात के अंत तक आते-आते अरूप खुल कर हंस पड़ा था.कितना उल्लास था उसकी हँसी में! एक तरह का उन्माद,पाशविकता भी! यह वही अरूप था- हमेशा का- ठंडा,क्रूर,हृदयहीन... जाने उस क्षण क्या तड़का था उसके भीतर! स्तब्ध धमनियों में आग-सी धधकी थी.नागिन की तरह फर्श से कमर तक ऊपर उठ कर एक बार फिर बिफरी थी- खुशफहमी से तो तुम बाहर आओ अरूप! इस अहिल्या को किसी राम की नहीं,सिर्फ अपनी प्रतीक्षा है! मेरा जिस्म मिट्टी हुआ है,रूह नहीं! इसमें अब भी वही आग है...उसकी बात सुनते हुये अरूप एकदम से चुप हो कर उसे देखने लगा था.उस समय उसके चेहरे से हंसी पूरी तरह गायब हो चुकी थी.फर्श पर पड़ी मृदुल धीरे-धीरे खुद को सहेज कर एक बार फिर उठने की कोशिश करने लगी थी.उसका पूरा जिस्म अजीब-सी थरथराहट से भरा हुआ था. 

दूर रात के सन्नाटे में चर्च का घंटा रह-रह कर बज रहा था.अंधकार के दूसरे छोर पर जाने कब सुबह दबे पाँव आ खड़ी हुई थी.    
_______________________  

जयश्री रॉय
18 मई, हजारीबाग (बिहार)
अनकही, ...तुम्हें छू लूं जरा, खारा पानी (कहानी संग्रह), औरत जो नदी है, साथ चलते हुये, इक़बाल (उपन्यास), तुम्हारे लिये (कविता संग्रह) प्रकाशित
युवा कथा सम्मान (सोनभद्र), 2012 प्राप्त
पता : तीन माड, मायना, शिवोली, गोवा - 403 517
09822581137/jaishreeroykathakar@rediffmail.com                

रंग - राग : एक उत्तल दर्पण पर आत्म चित्र : अशोक भौमिक

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इटली  के मशहूर पेंटर Girolamo Francesco Maria Mazzola अपने शहर parmaके नाम पर पर्मिजियनिनोके नाम  से जाने जाते हैं. उनके आत्म चित्र 'Self-portrait in a Convex Mirror'पर इसी शीर्षक से अमेरिका के कवि John Lawrence Ashberyने एक लम्बी कविता लिखी है जिसे २० सदी का एक काव्यतामक करामात समझा जाता है इस कविता पर उन्हें Pulitzer Prize,the National Book Award, और the National Book Critics Circle Awardभी मिले.

मशहूर चित्रकार और लेखक अशोक भौमिक ने चित्र और कविता की इस जुगलबंदी पर यह सहेजने लायक लेख  लिखा है जो ख़ास समालोचन के पाठकों के लिए है.


पर्मिजियनिनो का चित्र और जॉन एशबेरी की कविता                      
('सेल्फ पोर्ट्रेट इन अ कॉन्वेक्स मिरर'या 'एक उत्तल दर्पण पर आत्म चित्र')       


अशोक भौमिक



विश्व चित्रकला के बहुवर्णी इतिहास में कई ऐसे पढ़ाव देखने को मिलते हैं, जहाँ हम चित्रकार की रचनाशीलता को देख कर चमत्कृत होते हैं. अपने परिवेश को, किसी व्यक्ति या वस्तु को अपने चित्र में हू-ब-हू बना देना कलाकार की निपुणता को तो  निश्चय ही दिखती है, पर यह 'कला'नहीं हैं! 'रचनाशीलता'का अर्थ किसी वस्तु या व्यक्ति का, अपने चित्र में 'पुनर्रचना'या अनुकरण नहीं है.  पश्चिम के चित्रकारों ने कला में 'सृजन'की अनिवार्यता को बार-बार रेखांकित किया है. इस सन्दर्भ में फ्रांसेस्को मारिया माज़ोला, (जो इतिहास में पर्मिजियनिनो के नाम से ही ज्यादा जाने जाते है) का बनाया हुआ 'सेल्फ पोर्ट्रेट इन अ कन्वेक्स मिरर'या 'उत्तल दर्पण पर आत्म चित्र', निस्संदेह एक महत्वपूर्ण उदहारण है.

पर्मिजियनिनो का जन्म 11जनवरी 1503में हुआ था (केवल 37वर्ष की आयु में उनका निधन 24अगस्त 1540में हुआ था). पर्मिजियनिनो द्वारा बनाये गए चित्रों में हमें बार-बार एक ऐसे चित्रकार को पाते हैं जो 'कला'को एक अलग नज़रिये से देखना-जानना चाहता था. पर्मिजियनिनो द्वारा बनाया गया 'उत्तल दर्पण पर आत्म चित्र'पर बात करने से पहले दो बातों को समझ लेना जरूरी होगा!

आधुनिक युग में दर्पण हमारे दैनन्दिन जीवन का एक ऐसा अभिन्न अंग है, जिसके बारे में हम ज्यादा ध्यान नहीं देते. घरों में प्रयोग होने वाला दर्पण, सपाट सतह वाला 'समतल'दर्पण होता है, जहाँ हम अपना चेहरा ठीक वैसा ही देख पाते है जैसा की हम हैं. पर इसके अलावा दो और तरह के दर्पणों से भी हममें से कई शायद परिचित हैं. पहला एक ऐसा दर्पण जिसका बीच का हिस्सा अंदर की ओर धँसा होता है, हम कोनकेव मिरर या अवतल दर्पण कहते हैं.  दूसरे प्रकार का दर्पण, जिसका बीच का हिस्सा उभरा हुआ होता है, उसे कॉन्वेक्स मिरर या उत्तल दर्पण कहते हैं. दर्पणों के इस भिन्नता के चलते, उन पर बनने वाला अक्स भी अलग अलग होता हैं.

यह तथ्य एक ओर वैज्ञानिक है तो दूसरी ओर यह कला के एक महत्वपूर्ण पक्ष की ओर हमारा ध्यान आकर्षित कराता है. हम जो भी अपने आस पास देखते है या अनुभव करते हैं उसका अक्स हमारे दिलों दिमाग़ या ज़हन या ह्रदय या मानस पटल पर बनता है. कला के सृजन में हर कलाकार, एक ही विषय को अपने व्यक्तिगत और दूसरे कलाकारों से भिन्न तरीके से व्यक्त करता है. ऐसा क्यों करता है ? यह निस्संदेह एक जटिल प्रश्न है, पर्मिजियनिनो शायद इस चित्र के जरिये इस प्रश्न का एक उत्तर हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं. वास्तव में, जिस ज़हन या मानस पटल का उल्लेख यहाँ किया गया है, उसकी समानता सहज ही एक दर्पण से की जा सकती है, जो एक ही रूप का, दर्पण की भिन्नता के चलते दर्पण में भिन्न भिन्न बिम्ब या अक्स तैयार करता है. मनुष्य का 'मानस पटल', वह स्वयं अपने अनुभवों, सरोकारों और रुचियों, विचारधाराओं, प्राथमिकताओं आदि के अनुरूप तैयार करता है और इसीलिये कला कृतियों के पीछे सृजन के इस मनोविज्ञान की सबसे बड़ी भूमिका होती है.

पर्मिजियनिनो ने 'सेल्फ पोर्ट्रेट इन अ कॉन्वेक्स मिरर 'या'उत्तल दर्पण पर आत्म-चित्र' 1524में बनाया था, यानि जब वे केवल इक्कीस वर्ष के थे !  इस मेधावी चित्रकार के बारे में तत्कालीन कला इतिहासकार जिओर्जिओ वसारी (1511-1574) ने लिखा था, "रोम में पर्मिजियनिनो को रफाएल (1483 -1520, सुप्रसिद्ध इतालवी चित्रकार) का अवतार माना जाता है ".

पर्मिजियनिनो का   'सेल्फ पोर्ट्रेट इन अ कॉन्वेक्स मिरर'या 'उत्तल दर्पण पर आत्म-चित्र'एक गोलाकार चित्र है जिसका व्यास 6.4इंच है. इटली में नाई की दुकानों में प्रायः उत्तल दर्पण का प्रयोग होता था. पर्मिजियनिनो ने अपना आत्म चित्र ऐसे ही एक दर्पण में देख कर बनाया था. चित्र में कलाकार का दाहिना हाथ काफी बड़ा दिखाया गया है साथ ही खिड़की और खम्भे का आकार भी अलग हैं. यह विकृति या विरूपण उत्तल दर्पण के चलते हुआ है, यह समझने में कठिनाई नहीं होती.




इस चित्र पर अमरीकी कवि जॉन एशबेरी(जन्म:1928) ने इसी शीर्षक से एक अत्यन्त महत्वपूर्ण लम्बी कविता लिखी है, जिसमे वे इस चित्र को सामने रख कर कला, समाज, परिवेश और कलाकार के बीच के रिश्तों की पड़ताल करते हैं. कविता में अपनी बात को कहने के लिए उन्होंने इस चित्र और चित्रकार पर्मिजियनिनो पर इतालवी इतिहासकार वसारी के एक वाक्य को उद्धृत किया है, "जो तुम दर्पण में देखते हो उन सब को महान शिल्प के साथ नक़ल करना होगा".जॉन एशबेरी, वसारी के इस पंक्ति के साथ अपनी बात जोड़ते हुए कहते हैं –

"जो तुम दर्पण में देखते हो,उन सब को
महान शिल्प के साथ नक़ल करना होगा"
मुख्य रूप से उसका प्रतिबिम्ब, आत्म चित्र
जिसका प्रतिबिम्ब है, उसका आत्म चित्र
प्रतिबिम्ब का है, जिसे हटा लिया गया है.
दर्पण ने केवल वही चुना, जिसे उसने देखा था
और जो उसके काम के लिए पर्याप्त था ......

जॉन एशबेरी, अपनी कविता के एक और अंश में लिखते हैं -

..... आत्मा को वहीं बने रहना है जहाँ वह है,
बावजूद इसके कि चंचल है वह, खिड़की की कांच पर बारिश के बूँदों की आवाज़.
पतझर की आहें भरती पत्तियाँ, हवा के थपेड़ों को झेलती,
मुक्त होने की चाहत लिये, बाहर, पर इसे रुकना है
वहाँ, जहाँ वह है. इसे चलना ही है
कम से कम जितना संभव हो. वह जो यह आत्मचित्र कहता है .....


जॉन एशबेरी, अपनी कविता में कहीं भी अपना ध्यान इस चित्र से नहीं हटाते. यह चित्र एक गोलार्ध की सतह पर बना चित्र है और चित्र में एक कमरे के अंदर, एक उत्तल दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देखता स्वयं चित्रकार है. कमरे का भीतरी हिस्से में काँच की खिड़की और खम्भा दिख रहा है. अपनी बात कहने के लिए जॉन एशबेरी बार बार इस चित्र पर लौटते हैं. चित्र के आकार (आधे गोले की सतह पर) को ध्यान में रख कर वे अपने कविता में 'पृथ्वी के गोले से बाहर आने कोशिश करते हाथ 'की बात करते हैं. वे कमरे के अंदर घूमते शब्द और उनके अर्थ पर बात करते समय चित्र के कमरे के अंदर व्याप्त रौशन-अंधेरे स्पेस का सन्दर्भ लेते हैं.

एक फुसफुसाता शब्द कमरे में घूमता हुआ
रुकता हैं बिलकुल एक नए अर्थ पर.

यह वह सिद्धांत है जो एक कलाकृति को
कलाकार के इरादे से भिन्न बनाता है. वह प्रायः पाता है
कि  उससे वह ही छूट गया है, जिसे व्यक्त करने के उद्देश्य से
उसने रचना शुरू की थी......  

किसी कला कृति के रचना प्रक्रिया पर, इस चित्र को आधार बना कर, जॉन एशबेरी अत्यन्त सार्थक टिप्पणी करते हैं.

वे चित्र को 'समझने'के स्थान पर उसे अनुभव करने पर जोर देते हुए कहते है -

एक फुसफुसाते शब्द को नहीं समझा जा सकता
पर उसे महसूस किया जा सकता है  ......

इस कविता के एक और स्थान पर जॉन एशबेरी कहते हैं -

..... वह एक धुन है पर कोई शब्द नहीं है
शब्द केवल अनुमान (speculation) ही तो होते है
(लैटिन में दर्पण को स्पेकुलम कहते हैं)
वे जो माँग करते हैं,पर उन्हें संगीत का अर्थ नहीं मिलता,
हम केवल स्वप्नों की मुद्राएँ/भंगिमाएँ देखते हैं.....



चित्रकला से लेकर कविता, शास्त्रीय संगीत, मूर्तिकला आदि कलाओं के बारे में जॉन एशबेरी चर्चा तो करते हैं, पर 'कलाओं के अन्तर्सम्बन्ध'पर सतही अवधारणाओं से दूर रहते हुए, वे विभिन्न कला कर्म से जुड़े कलाकारों का उनके समय और परिवेश के साथ उनके रिश्ते पर ध्यान केंद्रित कर अपनी बात कहते हैं. उनकी कविता हमें जहाँ एक और मुक्तिबोध के लम्बी कविताओं के सर्पिल संरचना की याद दिलाता हैं, वहीं कला के बारे में उनके विचारों का रबीन्द्रनाथ ठाकुर के विचारों के बीच हमें अद्भुत साम्य दिखता है.
______________
अशोक भौमिक 
31 जुलाई 1953 (नागपुर) 
अशोक भौमिक देश के मशहूर चित्रकारों में से एक हैं. पिछले चार दशकों में अनेक एकल प्रदर्शनियाँ देश विदेश में लगीं और सराही गयी हैं.
इसके अलावा आईस-पाईस (कहानी संग्रह), बादल सरकार : व्यक्ति और रंगमंच (जीवनी), समकालीन भारतीय कला : हुसैन के बहाने (लेखों का संग्रह), मोनालिसा हंस रही थी (उपन्यास), शिप्रा एक नदी का नाम है (उपन्यास) और अकाल की कला और जैनुल आबेदिन  (जीवनी ) आदि कृतियाँ प्रकाशित हैं.
सामाजिक सरोकारों के कारण  अलग से भी जाने जाते हैं.  दिल्ली में रहते हैं.
bhowmick.ashok@googlemail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : मलखान सिंह

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फोटो द्वारा अरुण देव










आखिर कविता है क्या ? अगर वह बेचैन न करे, सोचने पर विवश न करे, कम से कम आपकी भाषा में वह कुछ जोड़े नहीं, आपके सौन्दर्यबोध में इज़ाफा न करे तो काहें की कविता ? और कैसी कविता?

न विचार शून्य कविता कविता है न भाषाई सृजनात्मकता के बिना कविता कविता है.  उसमें शाइस्तगी और साहस साथ-साथ जरूरी है. इसी के अनुपात से कविता प्रभाव छोडती है और टिकती है. अंतत: कविता सुनाई जाती है. तो सम्प्रेषित भी होनी चाहिए.

मलखान सिंह को दलित कविता के चौखटे में कैद कर लिया गया है. परिणाम न उनकी कविताए इस साइबर स्पेस में कहीं आपको मिलेगी न उनका कोई फोटो जबकि १९९७ में प्रकाशित अपने पहले संग्रह ‘सुनो ब्राहमण’ के द्वारा उन्होंने हिंदी कविता में एक मजबूत दस्तक दी थी. अपमान, वंचना, हिंसा और शोषण को जिस तरह से उन्होंने दहकते अंगारों में बदला है वह तो अप्रतिम है. उनके कविता संग्रह का नाम ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ ठीक ही है.

उनकी कविताएँ, उनका फोटो और उनपर बजरंग बिहारी तिवारी का आलेख, मई दिवस की याद दिलाते हुए.   





मलखान सिंह की कविताएँ                    





एक पूरी उम्र

यकीन मानिए
इस आदमखोर गाँव में
मुझे डर लगता है
बहुत डर लगता है.

लगता है कि बस अभी
ठकुराइसी मेंढ़ चीखेगी
मैं अधसौंच ही
खेत से उठ जाऊँगा

कि अभी बस अभी
हवेली घुडकेगी
मैं बेगार में पकड़ा जाऊँगा

कि अभी बस अभी
महाजन आएगा
मेरी गाड़ी सी भैंस
उधारी में खोल ले जाएगा

कि अभी बस अभी
बुलावा आएगा
खुलकर खांसने के
अपराध में प्रधान
मुश्क बांधकर मारेगा
लदवाएगा डकैती में
सीखचों के भीतर
उम्र भर सड़ाएगा.





पूस का एक दिन

सामने अलाव पर
मेरे लोग देह सेक रहे हैं.

पास ही घुटनों तक कोट
हाथ में छड़ी,
मुँह में चुरट लगाए खड़ीं
मूंछें बतिया रही हैं.

मूंछें गुर्रा रही हैं
मूंछें मुस्किया रही हैं
मूंछें मार रही हैं डींग
हमारी टूटी हुई किवाडों से
लुच्चई कर रही हैं.

पेंटिग : Sunil Abhiman Awachar
शीत ढह रहा है
मेरी कनपटियाँ
आग–सी तप रही हैं.






सफेद हाथी

गाँव के दक्खिन में
पोखर की पार से सटा,
यह डोम पाड़ा है
जो दूर से देखने में
ठेठ मेंढ़क लगता है
और अन्दर घुसते ही
सूअर की खुडारों में बदल जाता है.

यहाँ की कीच भरी गलियों में पसरी
पीली अलसाई धूप देख
मुझे हर बार लगा है कि
सूरज बीमार है या
यहाँ का प्रत्येक बाशिन्दा
पीलिया से ग्रस्त है
इसलिए उनके जवान चेहरों पर
मौत से पहले का पीलापन
और आँखों में
ऊसर धरती का बौनापन
हर पल पसरा रहता है.

इस बदबूदार
छत के नीचे जागते हुए
मुझे कई बार लगा है कि
मेरी बस्ती के सभी लोग
अजगर के जबड़े में फंसे
जि़न्दा रहने को छटपटा रहे है
और मै नगर की सड़कों पर
कनकौए उड़ा रहा हूँ.

कभी - कभी
ऐसा भी लगा है कि
गाँव के चन्द चालाक लोगों ने
लठैतों के बल पर
बस्ती के स्त्री पुरुष और
बच्चों के पैरों के साथ
मेरे पैर भी
सफेद हाथी की पूँछ से
कस कर बाँध दिए हैं.

मदान्ध हाथी
लदमद भाग रहा है
हमारे बदन
गाँव की कंकरीली
गलियों में घिसटते हुए
लहूलूहान हो रहे हैं.

हम रो रहे हैं
गिड़गिड़ा रहे है
जिन्दा रहने की भीख माँग रहे हैं
गाँव तमाशा देख रहा है
और हाथी
अपने खम्भे जैसे पैरों से
हमारी पसलियाँ कुचल रहा है
मवेशियों को रौद रहा है
झोपडि़याँ जला रहा है
गर्भवती स्त्रियों की नाभि पर
बन्दूक दाग रहा है और हमारे
दूध-मुँहे बच्चों को
लाल-लपलपाती लपटों में
उछाल रहा है.

इससे पूर्व कि यह उत्सव
कोई नया मोड़ ले
शाम थक चुकी है,
हाथी देवालय के
अहाते में आ पहुँचा है
साधक शंख फूंक रहा है
साधक मजीरा बजा रहा है
पुजारी मानस गा रहा है
और वेदी की रज
हाथी के मस्तक पर लगा रहा है
देवगण प्रसन्न हो रहे हैं
कलियर भैंसे की पीठ चढ़ यमराज
लाशों का निरीक्षण कर रहे हैं
शब्बीरा नमाज पढ़ रहा है
देवताओं का प्रिय राजा
मौत से बचे हम
स्त्री-पुरूष और बच्चों को
रियायतें बाँट रहा है
मरे हुओं को
मुआवजा दे रहा है
लोकराज अमर रहे का निनाद
दिशाओं में गूंज रहा है...
अधेरा बढ़ता जा रहा है
और हम अपनी लाशें
अपने कन्धों पर टांगे
संकरी बदबूदार गलियों में
भागे जा रहे हैं
हाँफे जा रहे हैं
अँधेरा इतना गाढ़ा है कि
अपना हाथ
अपने ही हाथ को पहचानने में
बार-बार गच्चा खा रहा है.
______________

मलखान सिंह
३० सितम्बर १९४८ (हाथरस, उत्तर प्रदेश)
सुनो ब्राहमण (१९९७), ज्वालामुखी के मुहाने (२०१६) कविता संग्रह प्रकाशित 
मजदूर हितों के लिए दो बार तिहाड़ जेल की यात्रा

सम्पर्क : १९ एफ, गंगा विहार कालोनी, पोस्ट धांधूपुरा
आगरा - २८२००६
मोब. 09457324232




रुधिर का तापमान                              
(दलित कविता और मलखान सिंह)
बजरंग बिहारी तिवारी


सा कोई सर्वेक्षण शायद नहीं हुआ है पर यह कहना गलत नहीं होगा कि इधर बीच दलित साहित्य के पाठकों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई है. इस संख्या वृद्धि में दलित समुदाय के पाठकों का मुख्य योगदान है. एक तो जागरूकता में बढ़ोत्तरी, दूसरे विश्वविद्यालयी शिक्षा में दलित विद्यार्थियों का आरक्षण नियमों के किंचित कड़ाई से लागू होने के कारण पहले से कहीं अधिक प्रवेश, तीसरे मानविकी के तमाम पाठ्यक्रमों में दलित साहित्य की उपस्थिति, और चौथे इन सब कारणों के सम्मिलित असर से प्रकाशन बाज़ार में दलित लेखन के प्रति चयनित-सीमित मगर विशेष झुकाव जाति-वर्ण से ग्रस्त अकादमिक दुनिया में उल्लेखनीय बदलाव ला रहे हैं. इस परिवर्तित माहौल के मद्देनजर दलित रचनाकारों की पहली पीढ़ी के संघर्ष का कृतज्ञता के साथ स्मरण करना उचित है और जरूरी भी. मलखान सिंह उसी पीढ़ी से ताल्लुक रखते हैं. पिछली शताब्दी के अंतिम दशक में उनकी कविताएं प्रकाशित होनी शुरू हुईं. पहला कविता संग्रह 1997 में आया. इस संग्रह ने अपने प्रकाशन के साथ जैसी लोकप्रियता अर्जित की वैसी किसी अन्य समकालीन कवि या कविता पुस्तक को नहीं मिली. एकबारगी सोचकर आश्चर्य होता है कि अत्यंत चुभने वाली भाषा, तिलमिला देने वाले तेवर और बेचैन कर देने वाले कथ्य को कैसे स्वीकार कर लिया गया!

मलखान सिंह की कविताओं में व्याप्त तल्खी दायित्वबोध से उपजी है. वे जानते हैं कि उनकी आवाज उत्पीड़ित समाज की वाणी है. उनके व्यथापूरित अनुभव निरे वैयक्तिक नहीं हैं. वे दलित समाज की संचित पूँजी हैं. इतिहास के लंबे दौर में हिंसक व्यवस्था का ‘प्रदेय’. ‘स्वानुभव’ के प्रति उनकी भिन्न दृष्टि का यही कारण है. वे इसके प्रति खासे चौकन्ने हैं कि स्वानुभव का दावा उनकी वैयक्तिक छवि को चमकाने का जरिया न बन जाए. समूचे उत्पीड़ित समुदाय से ‘स्व’ की अकृत्रिम सम्बद्धता उनके स्वत्व का निर्माण करती है. उनका अस्मिताबोध इसीलिए अनुदार और संकीर्ण नहीं हो सकता. वह ‘अस्मि’ का विस्तार करता चलता है. अस्मितावाद में ढल जाने का रास्ता नहीं अपनाता. यह विशेषता ही उनकी कविताओं को स्वीकार्य बनाती है. ‘औषधीय’ गुणों के चलते ही उनकी कड़वी अभिव्यक्तियां गैर दलितों के लिए भी वांछित और सह्य हो जाती हैं. दलित पाठक वर्ग के निर्माण की पूर्वपीठिका में इस साहित्य की सामान्य चर्चा से लेकर सभा-संगोष्ठियों, विद्यापीठों आदि में मलखान सिंह का अनिवार्य संदर्भ इसी परिप्रेक्ष्य में समझा जा सकता है. इससे यह भरोसा भी मजबूत होता है व्यापक पाठक समुदाय वास्तविक और मौसमी प्रतिबद्धता के बीच अंतर करना जानता है. ग्रेशम का नियम साहित्य पर भी लागू होता है. अस्मितावादी लेखन पर विशेष रूप से. मलखान सिंह को नेपथ्य में डालने, विस्मृत करने की कोशिशें होती रही हैं. मुद्राओं का कारोबार करने वाले कलदार कविताओं को चलन में क्यों रहने देंगे!

मलखान सिंह संवादी कवि हैं. एकालाप या आत्मालाप में उनका यकीन नहीं. उनकी कविताएं बातचीत के लिए आमंत्रित करती हैं. बेशक, अपने अंदाज़ में. यह अंदाज़ धमकाने वाला तो नहीं, पर चुनौती देने वाला है. उनके संग्रह का शीर्षक ‘सुनो ब्राह्मण’ इसकी ताईद करता है. यह शीर्षक एकबारगी हमें कबीर शैली की याद दिलाता है- ‘सुनो भाई साधो’ या ‘सुनो हो संतो’. लेकिन थोड़ा और ध्यान दें तो पाएंगे यह शैली बुद्ध की है. महात्मा बुद्ध के कई उपदेश ‘भो ब्राह्मण’ –हे ब्राह्मण से प्रारंभ होते है. जो सबका शिक्षक होने का दंभ पाले हुए है उसे समझाना, रास्ता दिखाना और मार्गदर्शक की भूमिका से उतारकर हमराही या अनुयायी की स्थिति में ले आना. मलखान सिंह की संबोधन शैली बुद्ध और कबीर की याद कराकर भी उनसे अलग है. उनके संबोधन में विनम्रता नहीं, तंज नहीं, ललकार है. इस ललकार में उठते-उमड़ते, आत्मगौरव के भाव को रेखांकित करते दलित समुदाय की तेजस्विता है. यह तेजस्विता वर्णवाद को हतप्रभ करती है, जातिवाद का सत्व सुखाती है और अवमानना के भारवाहकों को चौंधियाती है. जाति के प्रपंच से अवगत कवि ‘देव विधान’ को बेपर्दा करता चलता है- ‘उफ़! तुम्हारा न्याय/ महाछल महाघात/ ज्ञात को अज्ञात के/ पेट में घुसेड़कर/ रचता महाभाष्य/ ठगता पसीने को/ हमारी फटेहाली को नियति ठहराता है.’ जाहिर है कि मलखान सिंह के संबोधन में उद्बोधन मुख्य है. यह उद्बोधन उनके लिए है जो अज्ञात और नियति के व्यूह से बाहर आना चाहते हैं. व्यूह के निर्माताओं को कवि पहचानता है. वह चाहता है कि बाकी लोग भी इसे पहचानें. यह बोधन ही उद्बोधन का आधार है. संबोधन की प्रक्रिया भिन्न धरातल पर घटित होती है. जिसे संबोधित किया जा रहा है वह तल के उस बिंदु पर अवस्थित है जहां से दासता का सोता फूटता है. स्रोत को निःशेष करना कवि का अभीष्ट है- ‘इस विष वृक्ष को/ जड़ से उखाड़ फेंकने में/ हमारी आज़ादी है.’ जाति एक शृंखला है. इस शृंखला से सब आबद्ध हैं. समान रूप से. कोई एक जाति समूह अलग से मुक्त नहीं हो सकता. सबकी मुक्ति साथ-साथ होनी है. कवि इसमें एक पूर्वापर संबंध बनाता है. दलितत्व के विलोप की पूर्वशर्त है ब्राह्मणत्व का विलय. ब्राह्मण का अंत ही दलितपन का समापन संभव करेगा. यह बात कहने-सुनने में भले ही क्रूर लगती हो लेकिन है सौ फीसद सच- ‘सुनो ब्राह्मण!/ हमारी दासता का सफ़र/ तुम्हारे जन्म से शुरू होता है/ और इसका अंत भी/ तुम्हारे अंत के साथ होगा.’

दलित कवि कथाकाव्य रचने में बहुत कम रूचि लेते हैं. उनकी कविता में कथातत्व मुख्यतः आत्मकथा के संदर्भों से आता है. हो सकता है अनुभव की प्रामाणिकता के अतिरिक्त आग्रह से ऐसा होता हो. मलखान सिंह ने भी कथा-कविता में प्रयोग लगभग नहीं किए हैं. हाँ, उनकी ‘यह कैसा महा आख्यान’ कविता कथाकाव्य के उदाहरण के रूप में देखी जा सकती है. इस कविता में झीना-सा कथा तत्व है. सर्दी की एक सुबह के दृश्य को प्लाट के तौर पर रखा गया है. यहाँ ठंड समाज-निरपेक्ष प्राकृतिक अवस्था नहीं है. वह जाति और वर्ग के आधार पर असर करती है. खेत में अलसुबह ‘कमीन कौम’ से काम कराती ‘ठकुराइसी मूंछें’ ठंड की पहुँच से बाहर हैं, वहीं फावड़ा चलाता दलित पात्र पहले अपनी अन्यमनस्कता से और फिर दूर नीले आकाश में लहराते झंडे में बने धम्मचक्र से हाड़-तोड़ ठंड का मुकाबला करता है. कविता में आया दलित बस्ती का ब्योरा सर्दी के समाजशास्त्रीय भाष्य की जमीन तैयार करता है. मंदिर से उठती आवाज प्रकृति पर धर्म-संस्कृति की पकड़ का प्रमाण प्रस्तुत करती है. मनुष्य की आद्य स्मृतियों में से एक है शीत की स्मृति. मलखान सिंह उसके आधार पर कथातत्व बुनते हैं. कविता की अपील इस तरह सार्वजनीन होती है. मौसम उनकी कविताओं को बार-बार रूपाकार देता दिखता है. इसी स्रोत से उन्होंने कुछ आद्य बिंबों का चयन किया है. ‘अंधड़’ उनमें से एक है. यह आद्य स्मृति है और आद्य बिंब भी. एक घोर नास्तिक कवि का ईश्वर के विभिन्न संबोधनों/नामों का सार्थक विनियोग रचना कौशल का उत्कृष्ट नमूना पेश करता है.

मलखान सिंह अपने सरोकारों की व्यापकता के लिए ख्यात हैं. शुद्ध अस्मितावादी धारा बेहद चयनधर्मी है. वह मुद्दों को फ़ैलाने से बचती है. मसलन अगर दलित मुक्ति का आशय वर्ण-जाति से निजात पाना है तो आर्थिक प्रश्नों पर ध्यान देना गैर जरूरी माना जाता है. इसी मुद्दे पर दलित पैंथर में फूट पड़ी थी. मलखान सिंह दलितों की सांस्कृतिक गुलामी को आर्थिक पराधीनता या शोषण से अलग नहीं करते. समकालीन राष्ट्रवाद की छानबीन करते हुए वे वैश्वीकरण की जकड़न तक पहुँचते है. उस उलटबांसी को वे अपनी कविता का विषय बनाते हैं जहां एक तरफ श्वेत कपोत उड़ाया जा रहा होता है दूसरी तरफ हथियारों की खेप भेजी या मंगाई जाती है. हिंसक निर्ममीकरण की शक्तियां खुद को उदारीकरण के पैरोकार के रूप में सफलतापूर्वक प्रचारित कर देती हैं.

अठारह बरस बाद कवि के दूसरे संग्रह ‘ज्वालामुखी के मुहाने’ का प्रकाशन इस अर्थ में ‘सुखद’ नहीं है कि हिंसाग्रस्त समाज सचमुच ज्वालामुखी के मुहाने पर है.
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bajrangbihari@gmail.com  

कथा - गाथा : पत्नी (जैनेन्द्र कुमार )

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पेंटिग : अमृता शेरगिल






कालजयीस्तम्भ में आप प्रेमचंद की कहानी, ‘कफनपर रोहिणी अग्रवाल का आलेख पढ़ चुके हैं, इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज जैनेन्द्र कुमार की कहानी पत्नीऔर उसकी विवेचना प्रस्तुत है.



भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कालजयी कहानी भारतीय स्त्री के गुम वजूद  की खोज तो करती ही है आज के आतंकवादी बनाम क्रान्तिकारी विवाद को भी देखने की एक विवेकसम्मत दृष्टि प्रदान करती है.  


कहानी
पत्नी                                                                    
जैनेन्द्र कुमार (१९०५-१९८८)
____________________


हर के एक ओर तिरस्कृत मकान. दूसरा तल्ला, वहां चौके में एक स्त्री अंगीठी सामने लिए बैठी है. अंगीठी की आग राख हुई जा रही है. वह जाने क्या सोच रही है. उसकी अवस्था बीस-बाईस के लगभग होगी. देह से कुछ दुबली है और संभ्रांत कुल की मालूम होती है.

एकाएक अंगीठी में राख होती आग की ओर स्त्री का ध्यान गया. घुटनों पर हाथ देकर वह उठी. उठकर कुछ कोयले लाई. कोयले अंगीठी में डालकर फिर किनारे ऐसे बैठ गई मानो याद करना चाहती है कि अब क्या करुँ? घर में और कोई नहीं और समय बारह से ऊपर हो गया है.
दो प्राणी घर में रहते हैं-पति और पत्नी. पति सवेरे से गए हैं कि लौटे नहीं और पत्नी चौके में बैठी है.
सुनन्दा सोचती है- नहीं, सोचती कहां है? असल-भाव से वह तो वहां बैठी ही है. सोचने को है तो यही कि कोयले न बुझ जाएं.

...वे जाने कब आ जाएंगे? एक बज गया है. कुछ हो, आदमी को अपनी देह की फिक्र करनी चाहिए. ...और सुनन्दा बैठी है. वह कुछ कर नहीं रही है. जब वे आएंगे तब रोटी बना देगी. वे जाने कहां-कहां देर लगा देते है. और कब तक बैठूंमुझसे नहीं बैठा जाता. कोयले भी लहक आए हैं. और उसने झल्लाकर तवा अंगीठी पर रख दिया. नहीं, अब वह रोटी बना ही देगी. उसने खीझकर जोर से आटे की थाली सामने खींच ली और रोटी बेलने लगी. थोड़ी देर बाद उसने जीने पर पैरों की आहट सुनी. उसके मुख पर कुछ तल्लीनता आई. क्षण-भर वह आभा उसके चेहरे पर रहकर चली गई और वह फिर उसी भांति काम में लग गई.

कालिंदीचरण आए. उनके पीछे-पीछे तीन और उनके मित्र भी आए. ये आपस में बातें करते आ रहे थे और खूब गर्म थे. कालिंदीचरण अपने मित्रों के साथ सीधे अपने कमरे में चले गए. उनमें बहस छिड़ी थी. कमरे में पहुंचकर रुकी बहस फिर छिड़ गई. ये चारों व्यक्ति देशोद्धार के संबंध में कटिबद्ध हैं. चर्चा उसी सिलसिले में चल रही है. भारतमाता को स्वतंत्र कराना होगा- और नीति-अनीति हिंसा-अहिंसा को देखने का यह समय नहीं है. मीठी बातों का परिणाम बहुत देखा. मीठी बातों से बाघ के मुंह से अपना सिर नहीं निकाला जा सकता. उस वक्त बाघ मारना ही एक इलाज है. आतंक! हां, आतंक. हमें क्या आतंकवाद से डरना होगा? लोग हैं, जो कहते हैं! आतंकवादी मूर्ख हैं, वे बच्चे हैं. हां, वे हैं बच्चे और मूर्ख. उन्हें बुजर्गी और बुद्धिमानी नहीं चाहिए. हमें नहीं अभिलाषा अपने जीने की. हमें नहीं मोह अपने बाल-बच्चों का. हमें नहीं गर्ज धन-दौलत की. तब हम मरने के लिए आजाद क्यों नहीं हैं? जुल्म को मिटाने के लिए कुछ जुल्म होगा ही. उससे वे डरें जो डरते हैं. डर हम जवानों के लिए नहीं है.

फिर वे चारों आदमी निश्चय करने लगे कि उन्हें खुद क्या करना चाहिए.

इतने में कालिंदीचरण को ध्यान आया कि न उसने खाना खाया है, न मित्रों को खाने के लिए पूछा है. उसने अपने मित्रों से माफी मांगकर छुट्टी ली और सुनन्दा की तरफ चला.

सुनन्दा जहां थी, वहां है. वह रोटी बना चुकी है. अंगीठी के कोयले उलटे तवे से दबे हैं. माथे को उंगलियों पर टिकाकर वह बैठी है. बैठी-बैठी सूनी-सी देख रही है. सुन रही है कि उसके पति कालिंदीचरण अपने मित्रों के साथ क्यों और क्या बातें कर रहे हैं. उसे जोश का कारण नहीं समझ में आता. उत्साह उसके लिए अपरिचित है. वह उसके लिए कुछ दूर की वस्तु है, स्पृहणीय, मनोरम और हरियाली. वह भारतमाता की स्वतंत्रता को समझना चाहती है, पर उसको न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है. उसे इन लोगों की इस जोरों की बातचीत का मतलब ही नहीं समझ में आता. फिर भी, सच उत्साह की उसमें बड़ी भूख है. जीवन की हौंस उसमें बुझती-सी जा रही है, पर वह जीना चाहती है. उसने बहुत चाहा कि पति उससे भी कुछ देश की बात करें. उसमें बुद्धि तो जरा कम है, पर फिर धीरे-धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी. सोचती है, कम पढ़ी  हूं, तो इसमें मेरा क्या कसूर है? अब तो पढ़ने को तैयार हूं. लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है. खैर, उसने सोचा उसका काम तो सेवा है. बस यह मानकर उसने कुछ समझने की चाह ही छोड़ रखी है.

वह अनायास भाव से पति के साथ रहती है और कभी उनकी राह के बीच में आने की नहीं सोचती! वह एक बात जानती है कि उसके पति ने अगर आराम छोड़ दिया है, घर का मकान छोड़ दिया है, जान-बूझकर उखड़े-उखड़े और मारे-मारे जो फिरते हैं, इसमें वे कुछ भला ही सोचते होगें. इसी बात को पकड़कर वह आपत्तिशून्य भाव से पति के साथ विपदा-पर-विपदा उठाती रही है. पति ने कहा भी है कि तुम मेरे साथ दुख क्यों उठाती हो, पर यह सुनकर वह चुप रह गई है. सोचती रह गई कि देखो, कैसी बातें करते हैं. वह जानती है कि जिसे सरकार कहते हैं, वह सरकार उनके इस तरह के कामों से बहुत नाराज है. सरकार सरकार है. उसके मन में कोई स्पष्ट भावना नहीं है कि सरकार क्या  होती है, पर यह जितने हाकिम लोग हैं, वे बड़े जबरदस्त होते हैं और उनके पास बड़ी-बड़ी ताकते हैं. इतनी फौज, पुलिस के सिपाही और मजिस्ट्रेट और मुंश और चपरासी और थानेदार और वायसराय - ये सब सरकार ही हैं. इन सबसे कैसे लड़ा जा सकता है? हाकिम से लड़ना ठीक बात नहीं है, पर यह उसी लड़ने में तन-मन बिसार बैठे हैं. खैर, लेकिन ये सब-के-सब इतने जोर से क्यों बोलते हैं? उसको यही बहुत बुरा लगता है. सीधे-सादे कपड़े में एक खुफिया पुलिस का आदमी हरदम उनके घर के बाहर रहता है. ये लोग इस बात को क्यों भूल जाते हैं? इतने जोर से क्यों बोलते हैं?

बैठे-बैठे वह इसी तरह की बातें सोच रही हैं. देखो, अब दो बजेगें. उन्हें न खाने की फिक्र, न मेरी फिक्र. मेरी तो खैर कुछ नहीं, पर अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए. ऐसी ही बेपरवाही से तो वह बच्चा चला गया. उसका मन कितना भी भी इधर-उधर डोले, पर अकेली जब होती है तब भटक-भटकाकर वह मन अंत में उसी बच्चे के अभाव पर आ पहुंचता है. तब उसे बच्चे की वही-वही बातें याद आती हैं- वे बड़ी प्यारी आँखें, छोटी-छोटी उंगलियां और नन्हें-नन्हें ओंठ याद आते है. अठखेलियां याद आती हैं. सबसे ज्यादा उसका मरना याद आता है. ओह! यह मरना क्या है? इस मरने की तरफ तो उससे देखा नहीं जाता. यद्यपि वह जानती है कि मरना सबको है- उसको मरना है, उसके पति को मरना है. पर उस तरफ भूल से छनभर देखती है तो भय से भर जाती है. यह उससे सहा नहीं जाता. बच्चे की याद उसे मथ देती है. तब वह विह्वल होकर आँखें पोंछती है और हठात इधर-उधर की किसी काम की बात में अपने को उलझा लेना चाहती है. पर अकेले में, वह कुछ करे, रह-रहकर वहीं याद-वही, वह मरने की बात उसके सामने हो रहती है और उसका चित्त बेबस हो जाता है.

वह उठी. अब उठकर बरतनों को मांज डालेगी, चौका भी साफ करना है. ओह! खाली बैठी मैं क्या सोचती रहा करती हूं.

इतने में कालिंदीचरण चौके में आए.
सुनन्दा कठोरतापूर्वक शून्य को देखती रही. उसने पति की ओर नहीं देखा.
कालिंदी ने कहा, "सुनन्दा खाने वाले हम चार हैं. खाना हो गया!"
सुनन्दा चून की थाली और चकला-बेलन और बटलोई, खाली बरतन वगैरह उठाकर चल दी, कुछ भी नहीं बोली.
कालिंदी ने कहा, "सुनती हो, तीन आदमी मेरे साथ और हैं. खाना बन सके तो कहो, नहीं तो इतने में ही काम चला लेंगें."

सुनन्दा कुछ भी नहीं बोली. उसके मन में बेहद गुस्सा उठने लगा. यह उससे क्षमा-प्रार्थी से क्यों बात कर रहे हैं, हँसकर क्यों नहीं कह देते कि कुछ और खाना बना दो. जैसे मैं गैर हूं. अच्छी बात है, तो मैं भी गुलाम नहीं हूं कि इनके ही काम में लगी रहूं. मैं कुछ नहीं जानती 

खाना-वाना और वह चुप रही.
कालिंदीचरण ने जरा जोर से कहा, "सुनन्दा!"

सुनन्दा के जी में ऐसा हुआ कि हाथ की बटलोई को खूब जोर से फेंक दें. किसी का गुस्सा सहने के लिए वह नहीं हैं. उसे तनिक भी सुध न रही कि अभी बैठे-बैठे इन्हीं अपने पति के बारे में कैसी प्रीति की और भलाई की बातें सोच रही थी. इस वक्त भीतर-ही-भीतर गुस्से से 
घुटकर रह गई.
"क्योंबोल भी नहीं सकती!"
सुनन्दा नहीं बोली.
"तो अच्छी बात है. खाना कोई भी नहीं खाएगा."
यह कहकर कालिंदी तैश में पैर पटकते लौटकर चले गए.

कालिंदीचरण अपने दल में उग्र नहीं समझे जाते, किसी कदर उदार समझे जाते हैं. सदस्य अधिकतर विवाहित हैं, कालिंदीचरण विवाहित ही नहीं हैं, वह एक बच्चा खो चुके हैं. उनकी बात का दल में आदर हैं. कुछ लोग उनके धीमेपन से रुष्ट भी हैं. वह दल में विवेक के प्रतिनिधि है और उत्पात पर अंकुश का काम करते हैं.

बहस इतनी बात पर थी कि कालिंदी का मत था कि हमें आतंक को छोड़ने की ओर बढ़ना चाहिए. आतंक से विवेक कुठिंत होता है और या तो मनुष्य उससे उत्तेजित ही रहता है या उसके भय से दबा रहता है. दोनों ही स्थितियां श्रेष्ठ नहीं हैं. हमारा लक्ष्य बुद्धि को चारों ओर से जगाना है, उसे आतंकित करना नहीं. सरकार व्यक्ति और राष्ट्र के विकास के ऊपर बैठकर उसे दबाना चाहती है. हम इसी विकास के अवरोध को हटाना चाहतें हैं- इसी को मुक्त करना चाहतें हैं. आतंक से वह काम नहीं होगा. जो शक्ति के मद में उन्मत हैं, असली काम तो उनका मद उताराने और उनमें कर्तव्यभावना का प्रकाश जगाने का है. हम स्वीकार करें कि उसका मद टक्कर खाकर, चोट पाकर ही उतरेगा. यह चोट देने के लिए हमें अवश्य तैयार रहना चाहिए, पर यह नोचा-नाची उपयुक्त नहीं. इससे सत्ता का कुछ बिगड़ता तो नहीं, उलटे उसे अपने औचित्य पर संतोष हो जाता है.

पर जब सुनन्दा के पास से लौटकर आया, तब देखा गया कि कालिंदी अपने पक्ष पर दृढ़ नहीं है. वह सहमत हो सकता है कि हां, आतंक जरूरी भी है. "हां"उसने कहा,  "यह ठीक है कि हम लोग कुछ काम शुरू कर दें". इसके साथ ही कहा, "आप लोगों को भूख नहीं लगी है क्या? उनकी तबीयत खराब है, इससे यहां तो खाना बना नहीं. बताओं, क्या किया जाए? कही होटल चलें!"
एक ने कहा कि कुछ बाजार से यही मंगा लेना चाहिए. दूसरे की राय हुई कि होटल ही चलना चाहिए. इसी तरह की बातों में लगे थे कि सुनन्दा ने एक बड़ी से थाली में खाना परोसकर उनके बीच ला रखा. रखकर वह चुपचाप चली गई.

फिर आकर पास ही चार गिलास पानी के रख दिए और फिर उसी भांति चुपचाप चली गई.
कालिंदी को जैसे किसी ने काट लिया.

तीनों मित्र चुप रहे. उन्हें अनुभव हो रहा था कि पत्नी-पत्नी के बीच स्थिति में कही कुछ तनाव पड़ा हुआ है. अंत में एक ने कहा, "कालिंदी, तुम तो कहते थे, खाना बना नहीं हैं."
कालिंदी ने झेंपकर कहा, "मेरा मतलब था, काफी नहीं हैं."
दूसरे ने कहा, "काफी है. सब चल जाएगा."
"देखूं, कुछ और हो तो"- कहकर कालिंदी उठ गया.
आकर सुनन्दा से बोला, "यह तुमसे किसने कहा था कि खाना वहां ले आओ! मैंने क्या कहा था?
"चलो, उठा लाओ थाली. हमें किसी को यहां नहीं खाना है. हम होटल जाएंगे."
सुनन्दा नहीं बोली. कालिंदी भी कुछ देर गुम खड़ा रहा. तरह-तरह की बातें उनके मन में और कंठ में आती थीं. उसे अपना अपमान मालूम हो रहा था और अपमान असह्य था.
उसने कहा, "सुनती नहीं हो कि कोई क्या कह रहा है? क्यों?"
सुनन्दा ने मुंह फेर लिया.
"क्या मै बकते रहने के लिए हूं?"
सुनन्दा भीतर-ही-भीतर घुट गई.

"मै पूछता हूं कि जब मैं कह गया था तब खाना ले जाने की क्या जरूरत थीं? सुनन्दा ने मुड़कर और अपने को दबाकर धीमें से कहा- "खाओगे नहीं! एक तो बज गया."
कालिंदी निरस्त्र होने लगा. यह उसे बुरा मालूम हुआ. उसने मानों धमकी के साथ पूछा,  "खाना और है!"

सुनन्दा ने धीमे से कहा, "अचार लेते जाओ."
"खाना और नहीं है! अच्छा, लाओ अचार."
सुनन्दा ने अचार ला दिया और कालिंदी भी चला गया.

सुनन्दा ने अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा था. उसे यह सूझा ही न था कि उसे भी खाना है. अब कालिंदी के लौटने पर ही जैसे उसे मालूम हुआ कि उसने अपने लिए कुछ भी बचाकर नहीं रखा है. वह अपने से रुष्ट हई. उसका मन कठोर हुआ. इसलिए  नहीं कि क्यों उसने खाना नहीं बचाया. इस पर तो उसमें स्वाभिमान का भाव जागता था. मन कठोर यों हुआ कि वह इस तरह की बात सोचती ही क्यों है? छिः! यह भी सोचने की बात हैऔर उसमें कड़वाहट भी फैली. हठात यह उसके मन को लगता ही है कि देखो उनन्होंने एक बार भी नहीं पूछा कि तुम क्या खाओगी. क्या मैं यह सह सकती थी कि मैं तो खाऊं और उनके मित्र भूखें रहें! पर पूछ लेते तो क्या था? इस बात पर उसका मन टूटता-सा है. मानों उसका जो तनिक-सा मान था वह भी कुचल गया हो. वह रह-रहकर अपने को स्वयं तिरस्कृत कर लेती हुई कहती है कि 'छिःछिः सुनन्दा, तुझे ऐसी जरा बात का अब तक ख्याल होता है. तुझे तो खुश होना चाहिए कि उनके लिए एक रोज भूखे रहने का पुण्य तुझे मिला है. में क्यों उन्हें नाराज करती हूं? अब से नाराज न करूंगी. पर वह अपने तन की भी सुध तो नहीं रखते. यह ठीक नहीं है. मैं क्या करुँ?

और वह अपने बरतन मांजने में लग गई. उसे सुन पड़ा कि वे लोग फिर जोर-शोर से बहस करने में लग गए हैं. बीच-बीच में हँसी के कहकहे भी उसे सुनाई दिए. ओह! सहसा उसे ख्याल हुआ, बरतन तो पीछे भी मल सकती हूं. लेकिन उन्हें कुछ जरूरत हुई तो, यह सोंचकर झटपट हाथ धो वह कमरे के दरवाजे के बाहर दीवार से लगकर खड़ी हो गई.
एक मित्र ने कहा, "अचार और है! अचार और मंगाओं, यार!"

कालिंदी ने अभ्यासवश जोर से पुकारा,"अचार लाना भाई, अचार."मानो सुनन्दा कहीं बहुत दूर हो. पर वह तो बाहर लगी खड़ी ही थी. उसने चुपचाप अचार लाकर रख दिया.
जाने जगी तो कालिंदी ने तनिक स्निग्ध वाणी से कहा, "थोडा पानी भी लाना."

और सुनन्दा ने पानी ला दिया. देकर लौटी फिर बाहर द्वार से लगकर ओट में खड़ी हो गई जिससे कालिंदी कुछ मांगें तो जल्दी से ला दे.

कालजयी : पत्नी : रोहिणी अग्रवाल

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पेंटिग : अमृता शेरगिल





कालजयीस्तम्भ में आप प्रेमचंद की कहानी, ‘कफनपर रोहिणी अग्रवाल का आलेख पढ़ चुके हैं, इस क्रम को आगे बढ़ाते हुए आज जैनेन्द्र कुमार की कहानी पत्नीऔर उसकी विवेचना प्रस्तुत है.

भारतीय स्वाधीनता संघर्ष की पृष्ठभूमि पर लिखी यह कालजयी कहानी भारतीय स्त्री के गुम वजूद  की खोज तो करती ही है आज के आतंकवादी बनाम क्रांतिकारी विवाद को भी देखने की एक विवेकसम्मत दृष्टि प्रदान करती है. 




पत्नी                                                  

रोहिणी अग्रवाल


सुनीताऔर त्यागपत्रउपन्यासों की तरह पत्नीकहानी भी जैनेंद्रकुमार की कालजयी रचना मानी जाती है. मौन और मितव्ययिता के धनी जैनेंद्रकुमार स्त्री-मन के चितेरे हैं. दबे पांव स्त्री के अंतस् में गहरी पैठ बनाते हुए वे न केवल उसकी दमित आकांक्षाओं और क्षत-विक्षत सपनों को सतह पर लाते हैंबल्कि बेहद अनायास भाव से स्त्री को स्त्री (हीन एवं शून्य) बनाने वाली पितृसत्तात्मक व्यवस्था के हृदयहीन चरित्र को भी प्रकाश में ले आते हैं. जैनेंद्रकुमार प्रेमचंद का विलोम हैं.वे स्त्री के जीवन को यातनापूर्ण बनाने वाली सामाजिक कुरीतियों पर प्रहार नहीं करते, स्त्री की मानसिकता को कुंठित करने वाली संस्कारग्रस्तता पर चोट करते हैं. इसलिए वे प्रेमचंद और प्रसाद की तरह स्त्री को पुरुष के प्रभामंडल में घेर कर स्त्री-मुक्ति की बात नहीं करते, वरन् पहले एक परतंत्र लैंगिक इकाई के रूप में स्त्री की व्यक्तित्वहीनता को उभारते हैं, और फिर तदनुरूप यथास्थितिवाद से जूझने का आक्रोश पाठक के भीतर भरते हैं.

पत्नीकहानी पति के भोजन की प्रतीक्षा में अस्त-व्यस्त सामान्य स्त्री की सामान्य दिनचर्या का आख्यान नहीं है, व्यवस्था द्वारा एक भरी-पूरी शख्सियत को प्रतीक्षा और जड़ता के दो खूंटों से बांध कर बधिया कर दिए जाने की पड़ताल है. उल्लेखनीय है कि बधिया कर दिए जाने का क्षोभ मौन हाहाकार बन कर कहानी की नायिका सुनंदा को जब-तब जकड़ लेता है. तब वह भीतर ही भीतर गुस्से से घुट कर रहजाती है, या पति का जी दुखाने के लिए उसकी उपस्थिति का नोटिस न लेकर कठोरतापूर्वक शून्य को ही देखती रहतीहै;  या हाथ की बटलोई को खूब जोर से फेंकदेना चाहती है ताकि बता सके कि किसी का गुस्सा सहने के लिए वह नहींहै. लेकिन इस सारे मानसिक ऊहापोह के बाद अपने में लौटने पर पाती है कि वह जहां थी, वहांअब भी है - गीली लकड़ी की तरह धुंआती हुई या अंगीठी की आग की तरह राख हुई जाती हुई.

घटनाओं की न्यूनता, स्थितियों की गतिहीनता एवं पात्रों के विकास की संभावनाओं का अभाव जैनेंद्र कुमार की कहानी-कला की कुछ विशेषताएं हैं जो कहानी में स्फूर्ति, उत्साह और आशा जैसी सकारात्मक चटखदार रेखाओं को उभरने नहीं देतीं. लेखक व्यक्ति की मनःस्थितियों के जरिए सामाजिक विडंबनाओं और पाखंड का उद्घाटन करते हैं और इस प्रक्रिया में पात्र के अन्तर्द्वन्द्वों  या दो पात्रों को आमने-सामने रख कर कहानी को खुद अपनी यात्रा तय करने का अवसर देते हैं. पत्नी’  कहानी में जैनेन्द्र  कुमार एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्विता में तन कर खड़े दो विरोधी पात्रों या स्थितियों को नहीं गढ़ते, बल्कि उनकी संवादहीनता के भीतर बोलती चुप्पियों के जरिए उनके मानसिक गठन को उद्भासित करते हैं. अपनी नित्यक्रमिकता को यांत्रिक भाव से जीती सुनंदा कहानी में शुरु से अंत तक अवरुद्ध कर दी गई लहर के बिंब की सृष्टि करती है, मानो लेखक कहना चाह रहा हो कि जीवन की गत्यात्मकता के भीतर जीवन का क्षरण करने वाली स्थितियों को चीन्हने के लिए हमें स्वयं उनके भीतर उतरना होगा. 

इस अवरुद्ध लहर के ध्रुवांत पर है कालिंदीचरण जो मित्र-मंडली के साथ हवा के झोंके की मानिंद घर और समाज में बेरोक-टोक मनचाही गति और समय के साथ घूमता है. उसके पास संवारने को संघर्ष-संकुल वर्तमान है, और विचरण के लिए भविष्य का आसमान. सुनंदा के पास न वर्तमान है, न भविष्य. बस, उसकी थाती है अतीत - पुत्र की अकाल मृत्यु के कारण चोट खाया, बिलबिलाती स्मृतियों से भरा अतीत. यह अतीत उसे खाली देखते ही गहरे सख्य भाव से बतियाने हेतु उसके पास आ पहुंचता है. लेकिन दोनों जैसे ही मिल-बैठ कर साझा भाव से अपने-अपने जख्म चाटने लगते हैंसुनंदा अश्रुपूरित नेत्र लिए उसे जहां का तहां छोड़ वर्तमान में लौट आती है. वह जानती है वर्तमान का स्वामी उसका पति कालिंदीचरण है और वह स्वयं उसकी छाया या अनुगूंज. वर्तमान उसे पलायन की जमीन देता है क्योंकि यहां उसे विचारशून्य सेवादारिन की भूमिका निभानी है.

सुनंदा पाठक के भीतर गहरे भावोद्वेलन की सृष्टि करती है, लेकिन लेखक उसके चरित्र की बारीक परतों को एक निश्चित अंतराल में उठने वाली परस्पर विरोधी विचार-लहरियों के जरिए बुनता-उकेरता है. एक ओर किसी भी सामान्य स्त्री की तरह सतीत्व उसकी पूंजी है और पति-सेवा उसका सौभाग्य. यही उसके दायित्व की जमीन है और सपनों का आसमान भी. मन में उठती टीस और हुलसते अरमान - दोनों की भू्रण हत्याकरने के लिए वह किसी न किसी व्यस्तताकी तलाश में अपने स्वत्व और ऊर्जा को क्षरित करती चलती है. लेकिन इसके बावजूद पढ़-लिख कर भारतमाता को स्वतंत्र कराने जैसे बड़ेऔर पुरुषेचितमुद्दों को समझने की ललक सुनंदा को निरी छाया या अनुगूंज नहीं रहने देती. उसमें अपनी कमतरी पर ग्लानि है तो उसी सांस में कमतर बनाए रखने वाले घटकों की शिनाख्त की तमीज भी. ’’उसने बहुत चाहा है कि पति उससे भी कुछ देश की बात करें. उसमें बुद्धि तो जरा कम है, फिर धीरे-धीरे क्या वह भी समझने नहीं लगेगी? सोचती है, कम पढ़ी हूं तो इसमें मेरा ऐसा कसूर क्या है? अब तो प़ढ़ने को मैं तैयार हूं, लेकिन पत्नी के साथ पति का धीरज खो जाता है.’’ 

आत्मविस्मरण से आत्मान्वेषण की उत्कंठा के बीच निरंतर दोलायमान सुनंदा की विचार-यात्रा दरअसल यथास्थितिवाद के अभिशाप से उबरने के लिए स्पेस पाने की चाहत है जिसे पितृसत्तात्मक व्यवस्था के प्रतिनिधि पुरुष/पति कालिंदीचरण पे पूरी तरह घेर लिया है. माथे को उंगलियों पर टिका कर’, बैठी-बैठी सूनी सीअदृश्य को ताकती सुनंदा ऊपरी तौर पर लकड़ी के कुंदे सी ठस्स भले ही दीखती हो, वक्त से पिछड़ने की पराजय ने उसके भीतर क्षीणकाय संघर्ष-चेतना अवश्य भरी है. बेशक ’’उत्साह उसके लिए अपरिचित है’’और जीवन की हौंस उसमें बुझती जा रही है’’, पर फिर भी वह जीना चाहती है - रेंग-रेंग कर नहीं, पति के साथ कंधे से कंधा मिला कर भारतमाता की स्वतंत्रता के यज्ञ में आहुति डाल कर.

जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि आत्मसंकोच और दीनता में दुबकी-सिमटी सुनंदा को दयनीयता में ढाल कर विघटित नहीं करते, उसमें सेवा, त्याग, नैतिकता का बल गूंध कर आक्रांता सरीखे कालिंदीचरण के सामने खड़ा कर देते हैं. निश्चय ही यह शेर और मेमने की लड़ाई है. सुनंदा के पास आत्म-बलिदान के तेज से परिपूर्ण आत्मबल है तो कालिंदीचरण के पास पुरुष होने के दंभ से उपजा अहं भाव. एक ओर अपने मान की रक्षा की मूक मिन्नतें हैं, दूसरी ओर सब कोमल चकनाचूर कर देने की उद्धत लापरवाही. दोनों ओर बिना कहे अपने को समझे जाने की चाहतें हैं, और दोनों ओर समझबूझ कर भी अनजान बने रहने की भंगिमाएं हैं. संभवतया इसलिए कि बरसों से पसरी संवादहीनता संबंध को कुतरते-कुतरते दो व्यक्तियों को परस्पर अजनबी बना देती है. पति के पास यदि क्रुद्ध होकर बाहरी दुनिया में जा रमने का विकल्प है तो पत्नी के पास और अधिक कड़ाई से अपने दायित्व को निभाए चलने की विकल्पहीनता. अलबत्ता खाना न परोसने के हुक्म का उल्लंघन करते हुए वह खाना परोसने के साथ-साथ अपने आहत अभिमान को भी अनबोले ठसके के साथ परोस आती है. 

लेकिन यह क्षणिक उत्तेजना की तात्कालिक प्रतिक्रिया भर है. अपने-अपने खांचों में बंधे सुनंदा और कालिंदीचरण जानते हैं कि स्त्री की कमजोरी ही पुरुष की ताकत है. इसलिए आंख में आंख डाल कर पंजा लड़ाने की यह क्षणिक प्रक्रिया अंततः पति-पत्नी की समाजानुमोदित भूमिकाओं की पारंपरिक लय-ताल में विलीन हो जाती है, जहां अपनी छोटी से छोटी जरूरत की पूर्ति के लिए हांक लगा कर पत्नी को हड़का देने के विशेषाधिकार हैं तो दूसरी ओर अपनी भूख और जरूरतों को मुल्तवी कर पति के लिए जान की बाजी लगा देने की दीनता.

लेकिन जैनेंद्रकुमार का लक्ष्य ऊबड़खाबड़ जमीन पर स्थित दांपत्य संबंध की कथा कहना नहीं है. वे इस तथ्य की ओर पाठक का ध्यान आकृष्ट करना चाहते हैं कि सृष्टि के विकास- क्रम को निरंतर बनाए रखने के लिए स्त्री और पुरुष की दो पूरक इकाइयां कैसे समाज व्यवस्था के हत्थे चढ़ कर एक-दूसरे की प्रतिद्वंद्विता में तनी दो लैंगिक इकाइयां बन जाती हैं. चूंकि एक पक्ष को श्रेष्ठ अथवा कत्र्ता मानते ही अपने आप दूसरा पक्ष हीन और अनुकत्र्ता की भूमिका में आ विराजता है, इसलिए दमनकारी तंत्र में सहभागिता की बात बेमानी हो जाती है. यह व्यवस्था के आंतरिकीकरण की मनोवृत्ति ही है कि सुबह के उपासे पति की प्रतीक्षा में अंगीठी की आग लहका कर बैठी सुनंदा की चिंता और चेतना में पति की भूख ही जब-तब आ विराजती है, अपनी नहीं. ’’कुछ हो, आदमी को अपनी देह की फिक्र तो करनी चाहिए’’ - खीझ में वात्सल्य भर कर सुनंदा सोचती है तो उसकी सोच में आदमीयानी कालिंदीचरण ही है, अपनी आदमियत नहीं. यह स्त्री द्वारा अपनी देह (अस्तित्व) को नकार कर स्वत्वहीन हो उठने का संस्कार है जो देह के भीतर स्थित दिमाग और देह पर आच्छादित व्यक्तित्व दोनों से पिंड छुड़ाने के अभ्यास में उभरता है.

लेखक ने एकाधिक बार सुनंदा को अपनी देह के प्रति असावधान दिखाया है और कालिंदीचरण की देह के प्रति ममत्वपूर्ण, मानो देह जैविक संरचना न होकर ठोस व्यक्तित्व हो. ’’उन्हें न खाने की फिक्र है, न मेरी फिक्र. मेरी तो खैर कुछ नहीं, पर अपने तन का ध्यान तो रखना चाहिए’ - सुनंदा की यह आत्म-दीनता एक ऐसी स्त्री-छवि की रचना करती है जो चोट खाकर आत्माभिमान में फुफकार उठती है और फिर आत्मपीड़न में ढल जाती है. इसके विपरीत देह के स्वीकार के साथ अनिवार्य रूप से व्यक्तित्व के स्वीकार और संवार का भाव व्यक्ति में पनपता है जो स्वाभिमान के सहारे अपनी परिधि का विस्तार करता चलता है.

जैनेंद्रकुमार अपने पात्रों का एकरेखीय विकास नहीं करते. पहले वे प्रयासपूर्वक अपने पात्रों को एक खास गढ़त देते हैं और जैसे ही अपनी विशिष्ट पहचान के साथ वे पाठक के मस्तिष्क में अंकित होने लगते हैं, लेखक तुरंत उन्हें ही उनका विलोम बना कर प्रस्तुत कर देता है. उल्लेखनीय है कि अपनी ही पूर्व-मान्यता के विपरीत आकर ये पात्र अपने को झुठलाते नहीं, बल्कि अंतर्विरोधों के जरिए व्यवस्था के साथ अपने द्वंद्वात्मक संबंध के सत्य का बखान कर जाते हैं. सुनंदा द्वारा पति की भूख की चिंता, देर दोपहर मित्रों के साथ घर पहुंचे पति को खाना खिलाने की तत्परता में अपने लिए कुछ भी बचा कर न रखना, फिर मान से भर आना कि उन्होंने एक बार झूठे भी उसकी भूख की फिक्र नहीं की और अंत में आत्मधिक्कार के जरिए आत्मोद्बोधन की जुगत - छिः! सुनंदा, तुझे ऐसी जरा सी बात का अब तक ख्याल होता है. तुझे खुश होना चाहिए कि उनके लिए एक रोज भूखे रहने का तुझे पुण्य मिला.’’यह वह स्थल है जहां पुण्य लूटने के फुसलावे भूखऔर उससे अविच्छिन्न भाव से जुड़े स्वाभिमान की तीव्रता को ढांप नहीं पाते. यह जैनेंद्रकुमार द्वारा सुनंदा की चुप्पियों से बुना गया मांग-पत्र है जो सुनंदा (रूढ़ स्त्री छवि) के भीतर अंकुआती नई स्त्री के जन्म लेने की पूर्व-घोषणा है.

पितृसत्तात्मक व्यवस्था की बुनियादी संरचना को मूर्त रूप देने के लिए जैनेंद्रकुमार स्त्री और पुरुष को विलोम-द्वित्व (अपोजिट बाइनरी) में चित्रित करते हैं. सुनंदा के चरित्र की गढ़त जहां उन्होंने स्त्री की चुप्पियों के महीन रेशमी तंतुओं से की है, वहीं कालिंदीचरण के व्यक्तित्व की रचना में पुरुष का बड़बोलापन अपनी खोखली अनुगूंजों के साथ सक्रिय हुआ है. जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि वे अपने दोनों पात्रों को स्वतंत्र रूप से रचते भी हैं और एक-दूसरे के संदर्भ में उनका उपयोग करते हुए उन्हें स्टीरियोटाइप (रूढ़ छवि) में बांधते भी हैं. सुनंदा की चुप्पी, दीनता और तरलता जितना सुनंदा के व्यक्तित्व को रचती है, उतना ही कालिंदीचरण की हिंसक आक्रामकता और अहम्मन्यता को उभारती है. सुनंदा को लेखक ने करुणा की जमीन पर खड़ा कर सहानुभूति से रचा है, जबकि कालिंदीचरण के लिए उनके पास व्यंग्य और उपहास है. कालिंदीचरण अपने ’’दल में विवेक के प्रतिनिधि हैं और उत्ताप पर अंकुश का काम करते हैं’’ - यों कालिंदीचरण  का प्रथम परिचय देकर जैनेंद्रकुमार उसे जरा ऊँचे धरातल पर प्रतिष्ठित करते हैं ताकि उसकी कमजोरियों को उतने ही मैग्नीट्यूडके साथ अभिव्यक्त किया जा सके. बड़ी-बड़ी रणनीतियां बनाना, सिद्धांत और आदर्श की बातें करना, राष्ट्र के लिए आत्मोत्सर्ग के दावे करना कालिंदीचरण सरीखे हर पुरुष का वास्तविक परिचय है जो घर को क्षुद्र समझ कर हर गार्हस्थिक दायित्वों की हेठी करता है.

कथनी और करनी के बीच की खाई में आत्मप्रवंचित पुरुष की मरीचिकाएं छुपी हैं. लेखक ने कालिंदीचरण के मिशन (संकल्प) और कार्यशैली दोनों पर तंज कसते हुए उसे आड़े हाथों लिया है. कालिंदीचरण का मिशन है भारतमाता को स्वतंत्र कराना. बेशक जैनेंद्रकुमार के युग में स्वतंत्रता-सेनानी देश को भारतमाताके प्रतीक में अभिव्यक्त कर सिर-धड़ की बाजी लगाते थे, लेकिन राष्ट्र और कालिंदीचरण के बीच सुनंदा को खड़ा कर मानो लेखक जंजीरों से जकड़े भारतमाता के चित्र में अर्गलाओं से बंधी औसत स्त्री की विभीषिका को आरोपित कर देते हैं. तब बिटविन द लाइंसउठने वाले सवालों को अनसुना करना सरल नहीं रह जाता कि क्या घर-घर में सुनंदा सरीखी श्रृंखलाबद्ध स्त्री को स्वतंत्र किए बिना राष्ट्रीय मुक्ति संभव होगी? या कि अंग्रेज हाकिमों को खदेड़ दिए जाने से ही क्या स्वतंत्रता हासिल की जा सकती है

सरकार बदलने से राजनीतिक स्वतंत्रता भले ही पा ली जाए, मानसिक-सामाजिक-सांस्कृतिक स्वतंत्रता के बिना क्या उसे एक नई शुरुआत का बिंदु माना जा सकता है? सुनंदा धाराप्रवाह भाषण के दौरान पति के मुंह से निकले शब्दों - भारतमाता, स्वतंत्रता, सरकार, हाकिम - के अर्थ को गुनना चाहती है, लेकिन पाती है कि उसे ’’न भारतमाता समझ में आती है, न स्वतंत्रता समझ में आती है.’’ जहां तक कालिंदीचरण का सवाल है, उसके पास  इन शब्दों के भीतर स्थित अर्थगर्भी संकल्पनाओं पर विचार करने का अवकाश नहीं. यदि अवकाश होता तो पहले वह भारतमाता की बेटियों को स्वतंत्र कराने का सामूहिक अभियान चलाता, और फिर स्वतंत्रता की आभा से दीप्त भारतमाता की वे बेटियां एक प्रगाढ़ जिम्मेदारी के भाव से अपनी मां को स्वतंत्र कराने के संयुक्त अभियान में निकलतीं. सामने खड़े अवरोधों से बच कर किन्हीं अमूर्त महत्तर उद्देश्यों के लिए जान कुर्बान कर देने की बदहवासी कालिंदीचरण और उसके युग की पहचान है. ठीक इसी स्थल पर सुनंदा की खाली-खालीव्यस्तताओं के समानांतर लेखक कालिंदीचरण की कागजी व्यस्तताओं की पोल भी खोल देते हैं.

चूंकि लेखक स्वयं स्वतंत्रता-सेनानी रहे हैं और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के इस महा आंदोलन में स्त्रियों की स्वाधीनता को भी समान महत्व देते रहे हैं, इसलिए घर की स्त्री को बंदी बनाए रख कर बाहर की महत्तर अमूर्तताओं के पीछे भागते कालिंदीचरण को श्रद्धा और सहानुभूति नहीं दे पाते. वे कालिंदीचरण के मुंह से जिन शब्दों को कहलवाते हैं, वे बूमरैंग की तरह पलटवार कर उसी को कठघरे में खड़ा कर जाते हैं. बहस के दौरान कालिंदीचरण दृढ़ शब्दों में कहता है, ’’सरकार व्यक्ति के और राष्ट्र के विकास के ऊपर बैठ कर उसे दबाना चाहती है. हम इसी विकास के अवरोध को हटाना चाहते हैं. जो शक्ति के मद में उन्मत्त है, असली काम तो उसका मद उतारने उसमें कत्र्तव्य भावना का प्रकाश जगाने का है.’’ सुनंदा नही जानती सरकार क्या होती है’, लेकिन पाठक तुरंत जान जाता है कि सरकार सत्ता का वह तंत्र है जो चित और पट के खेल में हमेशा हर तिकड़म के साथ जीतने का मूलमंत्र अपने पास सुरक्षित रखता है. भारतमाता के संदर्भ में सरकार का अर्थ यदि अंग्रेज हाकिमों का वर्चस्व है तो सुनंदा के संदर्भ में पितृसत्तात्मक व्यवस्था सरकार का रूप धर लेती है जिसने कालिंदीचरण को हाकिम बना कर अपनी ताकत उसके भीतर भर दी है. जाहिर है शक्ति का मद उतारनेऔर उसमें कर्तव्य भावना का प्रकाश जगानेका दायित्व सुनंदा सरीखे व्यवस्था के उत्पीडि़तों को ही लेना होगा जो न मानवीय इकाई के रूप में अपनी अस्मिता और ताकत को पहचानते हैं, और न ही राजनीतिक चेतना से संपन्न होकर किसी लक्ष्योन्मुख लड़ाई की रणनीतियां बना सकते हैं.

कालिंदीचरण की कार्यशैली पर लेखक ने प्रत्यक्षतया कोई टिप्पणी नहीं की है, लेकिन टकराव (सुनंदा का सत्याग्रह) की अप्रत्याशित स्थिति में पड़ कर वह जिस प्रकार अपने पूर्ववर्ती स्टैंड से बिल्कुल उलट नई दिशा ग्रहण करता है, वह उसकी संयमहीनता, विवेकश्ीलता के अभाव, अहम्मन्यता और अपरिपक्व दृष्टि का ही सूचक है. कालिंदीचरण गर्म दल की राजनीति का प्रशंसक नहीं है. कार्य सिद्धि हेतु हिंसा के जरिए आतंक फैलाना उसकी दृष्टि में बुद्धिहीनता और विवेकशून्यता का ही निदर्शन करता है. वह मानता है कि ’’आतंक से विवेक कुंठित होता है और या तो मनुष्य उससे उत्तेजित ही रहता है या उसके भय से दबा रहता है. दोनों ही स्थितियां श्रेष्ठ नहीं हैं.’’ इससे जान पड़ता है आतंक की अपेक्षा धैर्यपूर्वक बुद्धि को जाग्रत एवं विकसित करना उसकी कार्यशैली का अहम हिस्सा है. लेकिन तभी लेखक पाठक की स्मृति में सुनंदा की आत्मस्वीकृति और आत्म-ग्लानि को ठेल देता है जब वह खेदपूर्वक स्वीकार करती है कि इस उम्र में भी पढ़-लिख कर वह देशको जानना चाहती है, लेकिन इतनी मूढ़मती है कि उसकी बुद्धि का विकास करने में पति का धीरज खो जाता है.पाठक की स्मृति को चमकाते हुए लेखक कालिंदीचरण पर घड़ों पानी उंडेल कर ही संतुष्ट नहीं है, बल्कि उसे पूरी तरह से आतंकवादी गतिविधयों का हिमायती बना देता है. सुनंदा की बींधती हुई मुखर चुप्पी ने उसे आहत कर दिया है क्योंकि अपने गार्हस्थिक दायित्वों की अवहेलना और पत्नी की निरंतर उपेक्षा करते रहने की प्रवृत्ति ने उसके भीतर सोए अपराध-बोध को जगा दिया है. 

वह चाहता तो संयम, धीरज, विवेक और सदय दृष्टि के साथ अपनी दुर्बलताओं पर विजय पाकर पत्नी-वत्सल स्नेही पति की भूमिका में आ सकता था, लेकिन उसकी विस्तीर्ण अहम्मन्यता अपने दोषों का परिहार करने की अपेक्षा दोष दिखा देने वाले व्यक्ति के विरुद्ध ग्रंथि पालने लगती है. ’’हां, आतंक जरूरी भी है’’ - यह उसकी कार्य-योजना का एक चरण भर नहीं है, उसके चरित्र की मूलभूत प्रवृत्ति भी है जो सुनंदा के अस्तित्व के साथ-साथ स्वयं उसकी मनुष्यता को भी जकड़े हुए है. ठीक यहीं समझ आने लगता है कि क्यों सुनंदा के लिए उत्साह ’’दूर की वस्तु है, स्पृहणीय और मनोरम और हरियाली’’, और क्यों वह पति की ’’राह के बीच आने की नहीं सोचती.’’

जैनेंद्रकुमार की विशेषता है कि कामधेनु गाय की तरह एक पुकार की दूरी पर ’’कमरे के बाहर दीवार से लग कर खड़ी’’ इस स्त्री की घुटन और आकांक्षा के जरिए उन्होंने घर-घर अदृश्य कर दी गई सुनंदाओंको न केवल दृश्यमान किया है, बल्कि पाठक के भीतर यह समझने का बोध भी पैदा किया है कि राष्ट्रोद्धार के कार्यक्रम घर की चैखट से बाहर नहीं, घर के भीतर ही सबसे पहले क्रियान्वित किए जाने चाहिए. प्रेमचंद अपनी रचनाओं में जिन स्त्रियोचित गुणों - प्रेम, त्याग, दया, ममता, संयम, सहिष्णुता, क्षमा, औदार्यविश्वास आदि आदि  - का बखान कर स्त्री को अभिषिक्त करते हैं, वे सब गुण सुनंदा में भी हैं, लेकिन जैनेंद्रकुमार इन गुणों की धारक स्त्री को श्रद्धा का अर्ध्य नहीं देते, उसकी दारुण दशा का प्रामाणिक चित्रण भर करते हैं. 

अलबत्ता इन गुणों से न्यून कालिंदीचरण की परिकल्पना कर मानो वे कह देना चाहते हैं कि उद्धत पुरुष तब तक मनुष्यनहीं बन पाएगा, जब तक मनुष्योचित कहे जाने वाले इन गुणों को लैंगिक विभाजन से मुक्त कर अपने व्यक्तित्व में समाविष्ट नहीं कर लेगा.
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रोहिणी अग्रवाल
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष
हिंदी विभागमहर्षि दयानंद विश्व विद्यालयरोहतकहरियाणा

हस्तक्षेप : श्री श्री रविशंकर और नोबेल पुरस्कार : संजय जोठे

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श्री श्री रविशंकर फिर चर्चा में हैं कि उनके अनुसार मलाला नोबल की हकदार नहीं थी और उन्होंने तो इसे ठुकरा ही दिया था.  धार्मिक गुरुओं के साथ तमाम समस्याएँ रहती हैं पर एक सबमें उभयनिष्ठ है कि वे अपने को महान या भगवान या फिर दोनों से कम मानने को तैयार नहीं रहते. आस्था के सैलाब में जब उनके भक्त गण जयजयकार करते हैं तब यह स्वाभाविक हो जाता है.  आज जरूरत है कि सहज भाषा में तर्क की महत्ता को समझा जाए.  

संजय जोठे ने यही किया है. उन्होंने छोटे छोटे सवाल पूछे हैं ज़ाहिर है इसका उत्तर किसी के पास नहीं है.






श्री श्री रविशंकर और नोबेल पुरस्कार                       
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संजय जोठे


भी अभी श्री श्री रविशंकर का एक वक्तव्य डेक्कन क्रानिकल के हवाले से आया है जिसमे उन्होंने ऐसा कहा है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार नहीं चाहिए, पहले उन्हें नोबेल देने की पेशकश भी की गयी है लेकिन उन्होंने ठुकरा दियाf.डेक्कन हेराल्ड के मुताबिक उन्होंने ये भी कहा कि मलाला नोबेल की हकदार नहीं है उसने किया ही क्या है?उनके प्रश्न से जो तर्क उभरता है उसके अनुसार मलाला ने कुछ नहीं किया और जिस तरह की समाजसेवा या अध्यात्म का जागरण रविशंकर खुद करते आये हैं उस अर्थ में तो मलाला एकदम शून्य है, उसने उस दिशा में कुछ भी नहीं किया. इस बात को गंभीरता से समझने की जरूरत है. मलाला और रविशंकर की तुलना से बहुत सारे राज खुल सकते हैं और इसी से हम ये भी समझ सकते हैं कि भारत की असली बीमारी क्या है. भारत में सेवा, समाज कल्याण और विश्व शान्ति की मूल कल्पना और उसे हासिल करने का ढंग-ढोल क्या है? सीधा सीधा सन्देश जो श्री रविशंकर के वक्तव्य से मिल रहा है वो है कि मलाला ने गरीबों और खासकर लड़कियों की शिक्षा का जो अभियान अपनी जान  पर खेलकर छेड़ा है उसका कोई मूल्य नहीं है. इससे यह भी अर्थ निकलता है कि बाबा स्टाइल आत्मा परमात्मा और पुनर्जन्म का प्रचार और योगसाधना ही असली समाजसेवा है. भारतीय बाबा लोग आत्मा परमात्मा के मिलन को आसान बनाने को ही असली समाज सेवा या मानव सेवा मानते हैं और उनके हर एक दावे और सलाह में बस यही मिलन – जिसे योग कहा गया है- छुपा होता है.

भारतीय बाबा और गुरुओं के बडबोले दावों को हम अक्सर हम हल्के में उड़ा देते हैं. हम उन्हें  गंभीरता से नहीं लेते इसीलिये वे अपना साम्राज्य और व्यापार बढ़ाते जाते हैं और बड़े से बड़े हवा हवाई दावे करते जाते हैं. चूँकि इन बाबाओं के चारों तरफ सिर्फ समर्पित भक्तों की भीड़ होती है इसलिए इनसे आँख मिलाकर तर्कपूर्ण सवाल करने वालों से बात करने का कोई अनुभव नहीं होता. यह अनुभव न होने से ये बाबा लोग खुद को विश्वगुरु समझने लगते हैं और न जाने क्या क्या दावे करने लगते हैं. छह सात साल पहले श्री श्री रविशंकर ने हिन्दू मुस्लिम एकता पर एक छोटी सी पुस्तिका बनाई थी. उसमे दावा किया कि “रमजान”का अर्थ “राम-ध्यान” है अर्थात राम का ध्यान करना ही रमजान है. इस दावे पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करते हुए हजारों की भीड़ के सामने मुस्लिम प्रतिनिधि जाकिर नाइकने मूल अरबी भाषा के व्याकरण को उधृत करते हुए सरे आम रविशंकर के दावे की हवा निकाल दी और रविशंकर बगलें झांकते रह गए. उसी मंच से श्री रविशंकर को अपनी किताब के बारे में माफ़ी मांगनी पड़ी और वो किताब मार्केट से हटानी पड़ी. इसी तरह सद्गुरु जग्गी वासुदेवको जावेद अख्तर ने आइना दिखाया और आध्यात्म के पाखण्ड को उन्ही के सामने नंगा करके छोड़ा. लेकिन अन्य बाबा कभी पब्लिक में आकर चर्चा या संवाद नहीं करते सिर्फ एकल प्रवचन करते हैं, इन बाबाओं को पब्लिक में “संवाद” में घसीटने की भारी जरूरत है. 

अभी अभी श्री रविशंकर ने विश्व में समरसता और शांति के लिए यमुना किनारे अरबों खर्च करके संगीतमय कार्यक्रम किया. उसका क्या परिणाम हुआ? विश्व को तो छोड़िये इस आयोजन के बाद खुद यमुना तट का पर्यावरण नष्ट हो गया है, दिल्ली में ही भीषण अग्निकांड हुए और अभी उत्तराखण्ड में हज़ारों एकड़ में जंगल जल रहे हैं. क्या यही विश्व मे समरसता का  परिणाम है? इस बात पर अंधभक्त कहेंगे कि इन आयोजनों का संबन्ध पर्यावरण या जंगल की आग से या शहरों की आग या दंगों से नहीं होता. लेकिन उनसे कहना पड़ेगा कि आपके गुरु तो यही सब दावा करते हैं कि इन आयोजनों से विश्व में शांति होगी प्राणियों का कल्याण होगा. प्राणियों में पेड़ पौधे भी शामिल हैं फिर जंगल और जंगली पशु पक्षी भी बाबाजी के दावों के घेरे में आ जाते हैं. लेकिन हमारा समाज इस तरह क्यों नहीं सोचता? विश्व कल्याण के लिए यज्ञ हवन और पूजा में अरबों खरबों फूंक देते हैं और कई बार तो यज्ञ पंडाल में ही अग्निकांड हो जाता है, अभी कर्नाटक में हुआ है दो महीने पहले. दुर्भाग्य ये है कि इन दावों पर आँख मूंदकर भरोसा करके भक्तों की भीड़, शासन, प्रशासन और व्यापारी इत्यादि इन्हें करोड़ों का चंदा देते हैं फिर भी इनसे एक बार भी नहीं पूछते कि महाराज आपके इस यज्ञ का परिणाम कब आएगा?

इस बिंदु को ठीक से समझिये. ऐसा नहीं है कि व्यापारी, शासक और प्रशासक ये प्रश्न पूछने के लिए पर्याप्त बुद्धिमान नहीं हैं. बल्कि सच्चाई ये है कि वे बहुत ज्यादा बुद्धिमान और शातिर हैं. उनके लिए यज्ञों का परिणाम यज्ञ आरम्भ होने से पहले ही मिल जाता है. जिन नेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों का नाम इस आयोजन में जुड़ जाता है उनका बेडा पार पहले ही हो चुका होता है. दीगर समाज में उनकी अच्छी साख बन जाती है उन्हें धार्मिक या परोपकारी होने का सर्टिफिकेट मिल जाता है और फिर उनकी दूकान, व्यवसाय और राजनीति को एक वैधता मिल जाती है. अब वे दोगुनी रफ्तार से अपने इस “इन्वेस्टमेंट” से हजार गुना माल खींचने में लग जाते हैं. व्यापारी धन खींचता है और राजनेता वोट खींचता है. अधिकारी इन दोनों के बीच में जो लेनदेन होता है उसमे से मलाई काटता है. वैसे भी अधिकारी की स्वयं की कोई आत्मा या स्वतन्त्रता होती नहीं सो उसे माफ़ किया जा सकता है. लेकिन अब असल मुद्दा है आम और गरीब जनता का. उसे क्या मिलता है?


यह प्रश्न सबसे भयानक और सबसे बहुरंगी प्रश्न है जो कोई नहीं उठाता. तथाकथित क्रांतिकारी और विद्रोही किस्म के बाबा जो स्वयं को भगवान् घोषित करते आये हैं वे भी इस भीड़ को मूर्ख बनाने का ही धंधा करते रहे हैं. अस्सी के दशक में भगवान रजनीशने यह खेल इतनी तेजी और चतुरता से खेला कि आजकल के फाइव स्टार बाबाओं के लिए वे रोल माडल बन गये हैं. आजकल के सभी बाबा उनकी लाइफ स्टाइल और प्रवचन शैली अपनाकर जनता को मूर्ख बना रहे हैं. यही भगवान रजनीश उर्फ़ ओशो का भारत को दिया गया सबसे बड़ा योगदान है. न तो उनसे किसी ने पूछा कि आपके ध्यान समाधि से समाज पर क्या परिणाम हो रहा है न उनसे प्रेरित दूसरे बाबाओं से कोई पूछता है कि क्या परिणाम हो रहा हैखुद ओशो का आश्रम आपसी फूट और धन लिप्सा के कारण बर्बाद हुआ उनके प्रमुख शिष्य जो दूसरों को अध्यात्म सिखाते थे वे एकदूसरे के जानी दुश्मन बने आज भी घूम रहे हैं और आश्रम की संपत्ति सहित साहित्य के कापीराईट की लड़ाई लड़ रहे हैं. जब कभी इस लड़ाई से फुर्सत मिलती है तो लोगों को ध्यान समाधि भी सिखाते रहते हैं.कुछ सालों पहले मध्य प्रदेश के इंदौर में विश्वशांति महायज्ञ हुआ था. यज्ञ के दौरान ही शहर में तनाव फ़ैल गया और गोलीबारी हो गयी थी. विश्वशांति का अपने ही गर्भस्थान में गर्भपात हो गया. लेकिन किसी ने सवाल नहीं उठाया कि ये क्या मूर्खता है.

फिर से उस सवाल पर लौटते हैं कि गरीब जनता को इस सारे तामझाम में क्या मिलता है? क्या जनता जान बूझकर मूर्ख बनती है या उसे कोई मजबूर करता है? बाबाओं, राजनेताओं, व्यापारियों और अधिकारियों को तो मलाई मिल जाती है, जनता को क्या मिलता है? ये समझना मुश्किल है लेकिन इसे समझने का एक प्रयास किया जा सकता है. इस आत्मघाती जनता को जो मिलता है वो है सांत्वनाऔर आश्वासन. भारतीय गरीबों के मन को सबसे बड़ी कोई चीज चाहिए तो वो है“वर्तमान की बीमारी और फटेहाली के लिए सांत्वनाऔर “भविष्य के इलाज के लिए अच्छी व्याख्या (आश्वासन)”. हालाँकि दोनों का अर्थ एक ही है लेकिन फिर भी चर्चा के निमित्त इन्हें दो करके देखना उचित होगा. और मजे की बात ये कि ये सांत्वना और आश्वासन पुनर्जन्म के दर्शन के गर्भ से ही आती है. इसीलिये हर पाखंडी बाबा जो किसी न किसी तरह से गरीबों का खून चूसना चाहता है वो पुनर्जन्म की बात जरुर करेगा. ओशो रजनीश ने तो अपने खुद के पिछले जन्म की लंबी कथाएं कहीं हैं. अन्य सभी बाबा भी इसी तरह भौकाल बनाते हैं और धीरे धीरे भक्तों को सम्मोहित कर लेते हैं.

अब आम जनता के मनोविज्ञान पर गहरे से गौर कीजिये. रविशंकर हों या ओशो रजनीश सब के सब इसी मनोविज्ञान और मनोवैज्ञानिक असुरक्षा पर चोट करके लूट और पाखण्ड का व्यापार करते हैं. इस व्यापार में उनके सबसे बड़े प्रोडक्ट हैं आत्मा परमात्मा और अगला जन्म” आत्मा परमात्मा की किसी को कोई चिंता नहीं लेकिन अगले जन्म से सब घबराते हैं, वो अगला जन्म  जो कि इन बाबाओं के आशीर्वाद से सुधर जाएगा और आज के गरीब परिवार या “नीच जातिकी बजाय अगले जन्म में इन्हें श्रीमंतों या बेहतर साधकों के परिवार में जन्म मिलेगा. पतंजली के योगसूत्र में भी इस आशय से यह बात आती है कि शक्ति केअतिरेक से अच्छे जन्म और वर्ण मिलते हैं. यह शक्ति प्राण है जो योगसाधना से हासिल की जाति है. इस सूत्र को ओशो रजनीश ने बहुत महत्वपूर्ण सूत्र बताया है. ओशो रजनीश ने अपने पिछले जन्मों सहित शिष्यों के पिछले जन्मों के दावे अपने कई लेक्चर्स में किये हैं.उनका दावा था कि तीसरी आँख से पिछले जन्मों सहित भूत भविष्य सब देखा जा सकता है. हालाँकि जब उनके आश्रम में शीला नामक शिष्य षड्यंत्र कर रही थी या जब (उनके अनुसार) अमेरिकी सरकार उन्हें जहर देने का प्लान कर रही थी तब उन्हें तीसरी आँख से कुछ नहीं नजर आया और प्रेस कांफेरेंस में उन्होंने खुद को निर्दोष बताया – यह कहते हुए कि उन्हें नहीं पता उनके शिष्य क्या कर रहे थे. लेकिन जनता इतनी भोली है कि इतनी बड़ी बड़ी असफलताओं से मुंह की खा चुके बाबाओं के पुनर्जन्म के दावों पर भी भरोसा करके कीर्तन करती रहती है.

आम जनता इसी तरह के दावों पर भरोसा करती है और इस जन्म में या इस लोक में सुख पर फोकस नहीं करती बल्कि अगले जन्म या परलोक में उसका ध्यान अटका रहता है. यही वो राज की बात है जिसका शोषण पाखण्ड की चौकड़ी बाबा, नेता, व्यापारी और अधिकारी मिलकर करते हैं. अब मजा ये कि इन चारों की नजर इसी लोक में इसी जन्म में मिलने वाली मलाई पर रहती है इसीलिये ये सब मिलकर ऐसा इन्तेजाम करते हैं कि इनके घरों में सुख शान्ति यज्ञ या पूजा श्हुरु होने से पहले ही आ बसती है. जनता चूँकि अगले जन्म की जुगाड़ में है तो उसके सामने लटक रही गाजर क्षितिज तक बढती जाती है और उसपर सवार ये चार धूर्त मजे मारते रहते हैं.

फिर भी यह बात समझ में नहीं आती कि जनता इनसे सवाल क्यों नहीं करती? एक नए ढंग से सोचा जा सकता है और प्रश्न उठाया जा सकता है. हजारों साल से हजार तरह के यज्ञ हवन पूजा इत्यादि हो रहे हैं पिछली शताब्दियों में किये गए हवनों का कोई लाभ तो मिलना चाहिए न इस समाज को? यह सीधी सी बात है. इतने कुंभ महाकुंभ स्नान ध्यान आदि से और इतने आयोजनों से थोडा भी पुण्य संचित हुआ होगा तो उसका परिणाम क्या है? किधर है? क्या भारत की गरीबी अनपढ़ता बेरोजगारी और सबसे बढ़कर ये दो हजार सालों की गुलामी क्या यही परिणाम है? ये सब क्या बतलाता है? क्या धार्मिक कर्मकांडों के संचित पुण्य प्रताप का यही फल है? क्या इसी सब के लिए धर्म में निवेश किया था?

ये प्रश्न कुतर्कपूर्ण या अवैध नहीं हैं. हर बाबा से ये प्रश्न पूछे जा सकते हैं, पूछने होंगे. इन बाबाओं के दावे और भविष्यवाणियों की खाल उतारनी चाहिए. सत्तर के दशक में ओशो रजनीश ने भविष्यवाणी की थी कि पिछली सदी के अंत तक दुनिया की आबादी का बड़ा हिस्सा एड्स की बीमारी से मर जाएगा. इसी तरह उन्होंने तीसरे विश्वयुद्ध की संभावना भी जताई थी. अब हम जानते हैं कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. ऐसा हो भी नहीं सकता. बाबाओं के बाद जो व्यापारी और राजनेता इस गोरखधंधे में शामिल हैं उनका अपना वैश्विक नेटवर्क है, वे तीसरा विश्वयुद्ध होने ही नहीं देंगे. अब युद्ध, शान्ति, संधि और क्रान्ति तक व्यापारियों की कृपा से ही होती हैं. वे क्यों अपने जमे जमाये खेल पर मिट्टी डालेंगे?

लेकिन ये तो हुई शोषकों की बात, शोषित लोग आवाज क्यों नहीं उठाते? क्या परलोक और पुनर्जन्म का आश्वासन इतना बड़ा है कि उसकी कीमत आज की गरीबी से चुकाना बेहतर सौदा है? क्या हम ये मानें कि भारतीय जनता इतनी मूर्ख है जो बेहतर जन्म की आशा में इस जन्म में जानवरों का जीवन जीने को तैयार हो जाती है? यह बात आधी सच है और आधी गलत है. गलत इस अर्थ में है कि जिस तरह के विभाजन और उंच नीच समाज में बनाए गये हैं उसमे जनता के अन्दर ही धार्मिक और स्वीकृत होने की एक प्रतियोगिता चलती है. आपकी छोटी सी नौकरी, छोटी सी खेती, मजदूरी या दूकान को इस पहचान से फायदा या नुक्सान हो सकता है. इस भयानक रूप से विभाजित और अमानवीय समाज में धार्मिक पहचान बनाकर अपने छोटे से रोजगार परिवार या जाति को सुरक्षित बनाने का भारी दबाव होता है. कभी गाँवों में जाकर देखिये किसी तीर्थ की परिक्रमा, दर्शन या पूजा करने के बाद सामाजिक हैसियत में बढ़ोतरी होती है.

इस जन्म में या इस लोक में आपने क्या कमाया उसकी बात कोई नहीं करता. बाबाओं तीर्थों और कुम्भ मेलों के चक्कर में आपने क्या किया है उससे आपकी महानता सिद्ध होती है. गरीब आदमी भी जो अपनी गरीबी और छोटी जाति के दंश से पीड़ित है वो इस सूत्र को पहचान लेता है और आर्थिक रूप से ऊपर उठना भूलकर सामाजिक धार्मिक तरीके से सम्मान पाकर ऊपर उठने में लग जाता है. यह बीमारी इतनी गहरी बैठ जाती है कि छींक आने पर डकार आने पर या उबासी आने पर भी भगवान का ही नाम मुंह से बिकलने लगता है. ऐसा वे प्रयासपूर्वक करते हैं और बतलाते जाते हैं कि वे कितने धार्मिक हैं. इसी से उन्हें व्यापारियों और जमींदारों के लोकल नेटवर्क में मजदूरी और काम करने में आसानी होती है. कुछ हद तक इस मूर्खता से उन्होंने इस लोक का लाभ भी मिलता है लेकिन इसकी कीमत वे अपनी सैकड़ों पीढ़ियों को गुलाम रखकर चुकाते हैं.

अब बड़ा प्रश्न ये है कि क्या इस पूरे चक्रव्यूह में से भारते की गरीब जनता बाहर निकल सकती है? और उससे भी बड़ा सवाल ये कि कैसे निकल सकती है? इस प्रश्न का उत्तर एक दूसरे प्रश्न से होकर गुजरता है और वो ये कि इन गरीबों को गुलाम कैसे बनाया जाता है? इन्हें जिस तरीके से गुलाम बनाया जाता है उस तरीके का पर्दाफ़ाश कर दिया जाए और उसकी प्रणाली में गरीबों को फंसने से रोका जाए तो वे इस चक्रव्यूह से आजाद हो सकते हैं. 


हालाँकि यह काम धर्मों और पाखंडों के जन्म के समय से ही चल रहा है फिर भी इसे हर पीढ़ी को बार बार अपने ढंग से बुनना होता है. जिस तरह पाखण्ड नए अवतार लेता है उसी तरह पाखण्ड खंडन को भी नए रूप और कलेवर धरने होंगे.
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संजय जोठे  university of sussex से अंतराष्ट्रीय विकास में स्नातक हैं. संप्रति टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंस से पीएचडी कर रहे हैं.
sanjayjothe@gmail.com

मेघ - दूत : हारुकी मुराकामी

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हारुकीमुराकामीअपनी पीढ़ी के सबसे ज़्यादा पढ़े जाने वाले जापानी भाषा के लोकप्रिय उपन्यासकार हैं.उनका जन्म 1949 में क्योटो में हुआ था. उनकी किताबें बेस्टसेलर रहती हैं. 1987 में उनके यथार्थवादी उपन्यास ‘नार्वेजियन वुड’की अकेले जापान में 20 लाख से ज़्यादा प्रतियां बिकीं, इस उपन्यास पर एक फ़िल्म भी बनी है. 50 भाषाओँ में उनके अनुवाद प्रकाशित हैं. 

A Wild Sheep Chase (1982), Norwegian Wood (1987), The Wind-Up Bird Chronicle (199495), Kafka on the Shore (2002) और  1Q84 (200910).आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं. उनपर पश्चिमी लेखकों का इतना असर देखा गया है कि उन्हें ‘गैर जापनी’ कहकर उनकी आलोचना की जाती है. 

उन्हें World Fantasy Award (2006), the Frank O'Connor International Short Story Award (2006),  the Franz Kafka Prize (2006),  the Jerusalem Prize (2009).आदि सम्मान  प्राप्त है. उनके उपन्यासों में यथार्थ, गल्प, जासूसी और विज्ञान फंतासियों का संसार पाया जाता है. 


इस कहानी का अंग्रेजी से अनुवाद सरिता शर्मा ने किया है.



हारुकी मुराकामी 
अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह बिल्कुल सही लड़की को देखने के बाद       



प्रैल की एक खूबसूरत सुबह मैं टोक्यो के आधुनिक  पड़ोस हाराजुकू में एक संकरी सड़क पर, बिल्कुल सही लड़की के सामने से गुजरा.

दरअसल बात यह है कि वह सुन्दर नहीं है. वह किसी भी तरह से औरों से  अलग नहीं दिखती है. उसके कपड़े कुछ खास नहीं हैं. उसकी बाल भी सो कर उठने के कारण बिखरे हुए हैं. वह जवान भी नहीं है - तीस के करीब होगी, बल्कि सही तरीके से उसे ‘लड़की’ भी नहीं कहा जा सकता है. मगर फिर भी, मैं पचास गज की दूरी से जानता हूँ: वह मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की है. मैंने जिस पल उसे देखा, तब से मेरे सीने में शोर मचा हुआ है, और मेरा मुंह रेगिस्तान की तरह सूख रहा है.

हो सकता है कि तुम्हारी खुद की पसंदीदा लड़की विशेष प्रकार की हो – जो पतले टखनों, या बड़ी आँखोंया सुंदर उंगलियों वाली हो, या तुम अकारण ही ऐसी  लड़कियों के प्रति आकर्षित होते होगे, जो खाना खाने में ज्यादा समय लेती हैं. निश्चित रूप से मेरी अपनी पसन्द है. कभी-कभी किसी रेस्त्रां में मैं अपनी बगल की मेज पर बैठी लड़की को इसलिए घूर रहा होता हूँ क्योंकि मुझे उसकी नाक पसंद है.

लेकिन कोई भी इस बात पर जोर नहीं दे सकता है कि उसकी बिल्कुल सही लड़की किसी पूर्वकल्पित धारणा के अनुरूप है. मुझे नाक कितनी भी पसंद क्यों न हों, मुझे उसकी नाक का आकार याद नहीं है - या यह तक याद नहीं कि वह थी भी या नहीं. मैं यकीन के साथ बस यह याद कर सकता हूँ कि वह बहुत सुंदर नहीं थी. अजीब बात है.

"मैं कल सड़क पर बिल्कुल सही लड़की के सामने से गुजरा,"मैं किसी को बताता हूँ.
"अच्छा?" वह कहता है. "क्या वह सुंदर थी?"

"ज़रुरी नहीं."

"तुम्हारी मनचाही लड़की  तो होगी न?"

"पता नहीं. लगता है मुझे उसके बारे में कुछ भी याद नहीं है. उसकी आँखों की बनावट या उसके वक्ष का आकार."

"हैरानी की बात है."

"हाँ. सच में."

"अच्छा, ठीक है,"वह पहले से ही ऊब कर कहता है , "तुमने क्या किया? उससे बात की? उसका पीछा किया?"

"नहीं. मैं बस सड़क पर उसके सामने से गुजरा था."

वह पूर्व से पश्चिम की ओर जा रही है और मैं पश्चिम से पूर्व की ओर. यह अप्रैल की बहुत प्यारी सुबह है.

काश मैं उससे बात कर पाता. आधा घंटा काफी होता: मैं उससे बस उसके बारे में पूछता, उसे अपने बारे में बताता, और यह भी कहता कि मैं वास्तव में क्या करना चाहता था- उसे भाग्य की जटिलताओं के बारे में समझाता जिनके चलते हम 1981 में अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह हाराजुकू की सड़क पर एक-दूसरे  के सामने से गुजरे थे. यकीनन ये बातें आवेशपूर्ण रहस्यों से भरी होती, मानो जब दुनिया में शांति छाई हुई थी, तब प्राचीन घड़ी का निर्माण किया गया हो.

बातें करने के बाद, हम कहीं खाने के लिए जाते, शायद वुडी एलेन की कोई फिल्म देखते, कॉकटेल के लिए किसी होटल के बार में रुकते. किस्मत साथ देती, तो हम रात साथ बिता सकते थे.

मेरे दिल के दरवाजे पर संभावना दस्तक देती है.
अब हम दोनों के बीच की दूरी घट कर पन्द्रह गज रह गयी है.
मैं उसके करीब कैसे जा सकता हूँ? मुझे क्या कहना चाहिए?

"नमस्ते जी. क्या आप मेरे साथ बातचीत के लिए आधे घंटे का वक्त निकाल पायेंगी? "

बकवास. मेरी बात बीमा विक्रेता की तरह लगेगी.

"क्षमा कीजिये, लेकिन क्या आपको पड़ोस में रात भर कपड़े धोने वालों के बारे में पता है?"

नहीं, यह भी उतना ही अटपटा है. पहली बात, मेरे पास धुलवाने के लिए कपड़े नहीं है. ऐसी बात पर कौन विश्वास करेगा?

शायद सीधी सच्ची बात कहना ठीक होगा. "शुभ प्रभात. तुम मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की हो."

नहीं, वह इस पर विश्वास नहीं करेगी. या अगर वह विश्वास करेगी भी, तो हो सकता है वह मुझसे बात करना नहीं चाहे. वह कह सकती है, क्षमा करें, मैं तुम्हारे लिए बिल्कुल सही लड़की हो सकती हूँ, लेकिन तुम मेरे लिए बिल्कुल सही लड़के  नहीं हो. ऐसा हो सकता था. और अगर मैं खुद को उस स्थिति में पाता,तो शायद मेरा दिल टूट जाता. मैं सदमे से कभी नहीं उबर पाता. मैं बत्तीस साल का हो गया हूँ,और बड़ा हो जाना इसी को कहते हैं.

हम फूलों की दुकान के सामने से गुजरते हैं. गर्म हवा का झोंका मेरी त्वचा को छू जाता है. डामर गीला है, और मुझे गुलाबों की खुशबू आती है. मैं उससे बात करने की हिम्मत नहीं जुटा पाता हूँ. उसने सफेद स्वेटर पहना हुआ है, और उसके दाहिने हाथ में एक नया सफेद लिफाफा है जिस पर केवल डाक टिकट की कमी है. तो: उसने किसी को एक पत्र लिखा है, शायद उसने पूरी रात पत्र लिखने में बितायी हो, उसकी उनींदी आँखों से ऐसा लगता है. हो सकता है लिफाफे में वह हर रहस्य छुपा हुआ हो जिसके बारे में उसने कभी सुना होगा.

मैं कुछ और कदम बढ़ा कर मुड़ जाता हूँ: वह भीड़ में खो जाती है.

ज़ाहिर है, अब  मैं जानता हूं कि मुझे वास्तव में उससे क्या कहना चाहिए था. हालांकि वह इतना लंबा भाषण हो जाता, जो मेरे लिए ठीक से बोल पाना  मुश्किल हो जाता. मेरे मन में जो विचार आते हैं, वे बहुत व्यावहारिक नहीं हैं.

अच्छा, तो. तब यह बात इस तरह शुरू होती "एक समय की बात है"और बात ऐसे खत्म होती "क्या आपको नहीं लगता कि यह दुखद कहानी है?"

एक समय की बात है, एक लड़का और एक लड़की थे. लड़का अठारह साल का और लड़की सोलह साल की थी. वह बहुत सुंदर नहीं था, और लड़की  भी विशेष सुंदर नहीं थी. वे औरों की तरह बस साधारण से अकेले लड़का और लड़की  थे. लेकिन वे तहेदिल से मानते थे कि उनके लिए दुनिया में कहीं न कहीं बिल्कुल सही लड़का और लड़की जरूर होंगे. हाँ, वे चमत्कार में विश्वास करते थे. और वह चमत्कार सच में हो गया.

एक दिन वे दोनों सड़क के नुक्कड़ पर अचानक मिल गये.

"हैरानी की बात है,"लडके ने कहा. "मैं हमेशा से तुम्हें तलाश करता रहा हूँ. शायद तुम्हें इस पर विश्वास न हो, मगर तुम मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की हो."

"और तुम,"लडकी ने उससे कहा, "मेरे लिए बिल्कुल सही लड़के हैं, हूबहू वैसे जिस  रूप में मैंने तुम्हारे बारे में कल्पना की थी. यह सपने जैसे है. "

वे पार्क की बेंच पर बैठ कर, एक-दूसरे के हाथ थामे घंटों तक अपनी कहानियां सुनाते रहे थे. अब वे अकेले नहीं थे. उन्होंने एक-दूसरे  में अपना बिल्कुल सही साथी तलाश कर लिया था. कितनी अद्भुत बात है कि आप अपने बिल्कुल सही प्रेमी को पा लें और वह भी आपको अपने लिए बिल्कुल सही पाये. यह चमत्कारहै, बहुत बड़ा चमत्कार.

फिर भी, जब वे बैठ कर बातें कर रहे थे,  तो उनके मन में कुछ संदेह पैदा हुआ: क्या किसी के सपनों का इतनी आसानी से साकार हो जाना सच में ठीक था?

और फिर, जब उनकी बातचीत में क्षणिक खामोशी आई, तो लड़के ने लड़की से कहा

"हम अपनी- अपनी परीक्षा लेते हैं - सिर्फ एक बार. अगर हम वास्तव में एक-दूसरे के बिल्कुल सच्चे प्रेमी हैं, तो एक बार फिर से, कहीं न कहीं, जरूर मिलेंगे. और जब ऐसा होगा, और हमें यकीन हो जायेगा कि हम बिल्कुल सही प्रेमी हैं, तो हम तभी के तभी शादी कर लेंगे. तुम क्या सोचती हो?"

"हाँ,"उसने कहा, "हमें वास्तव में यही करना चाहिए."

और इस तरह वे जुदा हो गये, लड़की पूर्व की ओर चली गयी और लड़का पश्चिम दिशा में चल दिया.

वे इस परीक्षा के लिए मान गये थे, हालांकि, इसकी कोई जरूरत नहीं थी. उन्हें यह शुरू ही नहीं करना चाहिए था, क्योंकि वे सच में एक-दूसरे के बिल्कुल सही प्रेमी थे, और यह एक चमत्कार था कि उनकी मुलाकात हुई थी. लेकिन वे इतनी कच्ची उम्र के थे कि उनके लिए इस बात को समझ पाना असंभव था. किस्मत के कठोर और उदासीन थपेड़े उन्हें निर्दयता से पटकने के लिए आगे बढ़ गये थे.

एक बार सर्दियों में, लड़का और लड़की दोनों, भयानक मौसमी बुखार की चपेट में आ गये और कई सप्ताह तक जीवन- मृत्यु के बीच झूलने के बाद उनकी स्मृति का लोप हो गया. जब उन्होंने आंखें खोलीं, तो उनके दिमाग छुटपन में गरीब डी.एच. लॉरेंस के गुल्लक की तरह खाली थे.

तो भी, वे दोनों बुद्धिमान और पक्के इरादों वाले  जवान लोग थे, और लगातार कोशिश करके उन्होंने एक बार फिर से वह बोध और भावना प्राप्त कर लिए जिनसे वे समाज के पूर्ण विकसित सदस्य होने के लायक हो गये थे. सौभाग्यवश, वे सही मायने में सच्चे नागरिक बन गये थे, जिन्हें पता था कि एक भूमिगत मेट्रो लाइन से दूसरी तक कैसे जाएँ, डाक घर में विशेष वितरण सेवा पत्र भेजने में पूरी तरह से सक्षम हो गये थे. दरअसल, उन्हें फिर से प्रेम का भी अनुभव हुआ, उन्हें कभी- कभी 75% या 85% तक भी प्यार मिला.

समय बहुत तेज़ी से गुजर गया, और देखते ही देखते लड़का बत्तीस साल का और लडकी तीस साल की हो गयी.

अप्रैल की एक खूबसूरत सुबह, दिन शुरू करने के लिए एक कप कॉफी की तलाश में, लड़का पश्चिम से पूर्व की ओर चल रहा था, जबकि लड़की विशेष वितरण सेवा पत्र भेजने के इरादे से पूर्व से पश्चिम की तरफ बढ़ रही थी, लेकिन वे दोनों एक ही साथ टोक्यो के पड़ोस हाराजुकू में संकरी गली में थे. वे सड़क के बीच में एक-दूसरे  के सामने से गुजरे. उनके दिलों में खो चुकी यादों की हल्की सी लौ  पल भर झिलमिलाई. दोनों ने सीने में गड़गड़ाहट महसूस की. और उन्हें पता चल गया था:

यह मेरे लिए बिल्कुल सही लड़की है.

यह मेरे लिए बिल्कुल सही लड़का है.

लेकिन उनकी यादों की चमक बहुत ही फीकी पड़ चुकी थी, और उनकी सोच चौदह वर्ष पहले जितनी साफ नहीं रह गयी थी.वे कुछ भी बोले बिना एक-दूसरे के सामने से गुजर गये, भीड़ में खो गये. हमेशा के लिए.

क्या आपको नहीं लगता है कि दुखद कहानी है?

हाँ, यही सब है, जो मुझे उससे कह देना चाहिए था.
_______________________________
सरिता शर्मा
1975, सेक्टर-4/अर्बन एस्टेट/गुडगाँव-122001
मोबाइल9871948430                                                                                        

विष्णु खरे : सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि

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विष्णु खरे ने अपने इसी स्तम्भ में राजनेताओं और सिने-जगत के सम्बन्धों पर पहले भी लिखा है. सलमान खान के रियो ओलंपिक 2016 में भारत की ओर से गुडविल एंबेसडर बनाए जाने पर यह मुद्दा फिर मौजूं हो गया है ख़ासकर ऐसे में जबकि वह अभी भी तमाम तरह के आरोपों से बे-गुनाहगार साबित नहीं हुए हैं.

सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि                                  
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विष्णु खरे 



पिछले दिनों देश के अखबारों में एक दिलचस्प फ़ोटोग्राफ़ देखा गया था – शायद वह भारतीय टेलीविज़न पर जीवंत भी प्रसारित हुआ हो.एक राष्ट्रीय महत्व के समारोह में देश के कतिपय सर्वोच्च नेता एक अत्यंत लोकप्रिय अभिनेत्री की प्रतीक्षा कर रहे थे.उसे पाबंदी से आना ही था और जब वह आई तो नज़ारा बेहद दिलचस्प हो गया.सभागार में उपस्थित सारे नेताओं  के चेहरे मंत्रमुग्ध हो गए.भारतीय राजनेताओं के मुखमंडलों पर ऐसी कोमलता और लगभग दासता-जैसी मुस्कान पहले कभी देखी नहीं गई.दृश्य ऐसा था कि रियाया या प्रजा मलिका-ए-आलिया या पट्टमहिषी के दीदार या दर्शन कर रही हो.लेकिन चूँकि रिश्ते ऐसे नहीं थे तो होठों से नहीं,चक्षुओं से लार टपकाई गई. वह सुंदरी अपने और उस अवसर के महत्व से वाक़िफ थी इसलिए उसने अपने मुरीदों पर मेहरबानी की लम्बी-गहरी नज़र डाली.फोटो से ऐसा ही लगता था.हमें नहीं मालूम कि नेताओं और उनके परिवारों में से कितनों ने उसके साथ सैल्फ़ी खिंचवा कर अपना जीवन धन्य किया.

नेताओं और अभिनेताओं के बीच भावनात्मक सम्बन्ध पहले भी थे, लेकिन वह धीरे-धीरे विकसित हुए हैं.महात्मा गाँधी या जवाहरलाल नेहरु अपने ज़माने के शायद ही किसी एक्टर-एक्ट्रेस को खुद होकर जानते रहे हों.उस युग के नेताओं का व्यक्तित्व ऐसा था कि उनके सामने फ़िल्मवाले बहुत अदने और निरर्थक मालूम होते थे.उन नेताओं के पास सिनेमा जैसी छिछोरी गतिविधि के लिए वक़्त न था – हाँ,वह कुछ महान अभिनेताओं को जानते रहे होंगे,फ़िल्में तो शायद उनकी भी न देखी होंगी – किसी को चाहे बुरा लगा हो या भला.

लेकिन जब ‘बड़े’ नेता मंच पर न रहे और 1960 के दशक के बाद एक राष्ट्रीय व्यसन के रूप में सिनेमा अभूतपूर्व लतियलों को खींचने लगा तो राजनीति और सिनेमा ने परस्पर ध्यान आकर्षित किया.राजनीति में यदि वास्तविक शक्ति और सत्ता थी तो फिल्मों और अभिनेताओं में करोड़ों के दिल-ओ-दिमाग पर छा जाने की रहस्यमय ताक़त थी.विलक्षण यह था कि राजनीति को अपनी शक्ति का अहसास हमेशा से था लेकिन सिनेमा का मामला हनुमानजी जैसा था,जब उसे अपनी सार्वजनिक सत्ता और ‘अपील’ के बारे में बताया गया तब वह जागा.

अमिताभ बच्चन ने सपरिवार राजनीति में जाकर सफलता और असफलता दोनों अर्जित कीं.  बीच में उन्होंने सियासत को नाबदान कहा.फिर अमरसिंह जैसे राजनीतिक रूप से संदिग्ध ‘’नेता’’ से जुड़े.एक विचित्र पलटी या कुलाटी खाकर आज वह प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी के साथ हैं.लेकिन वह उस तरह ‘’युवा ह्रदय सम्राट’’ नहीं हैं जैसे कि हिन्दू-मुस्लिम दर्शकों के बीच सलमान खान हैं.नरेन्द्र मोदी इन दोनों ‘’भाइयों’’ का इस्तेमाल बखूबी जानते हैं.कभी वह बच्चन तुरुप चलते हैं तो कभी सलमान तुरुप.सिनेमा और राजनीति के वर्तमान जटिल संबंधों पर शोध की दरकार है.


उन्हें मालूम है कि अमिताभ बच्चन कभी भी भारत की ओलिम्पिक टीम के प्रतीक नहीं बन सकते.बन तो सलमान खान भी नहीं सकते लेकिन जो करोड़ों दक्षिण एशियाई युवा खेल-प्रेमी ओलिंपिक खेल देखेंगे भी वह अमिताभ बच्चन की इज्ज़त करते हुए भी उन्हें ओलिंपिक-प्रसारणों के बीच देखना नहीं चाहेंगे.सलमान अपनी ऊलजलूल हिट फिल्मों के कारण ओलिंपिक-आकर्षण बन सकते हैं – भले ही उनके अब तक के सफल खेल सिर्फ सोते हुए आदमियों और कुलांचे भरते हिरणों की निशानेबाज़ी  ही क्यों न रहे हों.हाँ,Being Human टी-शर्ट सिलवाने और बेचने का उनका अनुभव भारत सरकार को ख़फ़ीफ़ भारतीय दस्ते के लिए रेडीमेड ड्रैस सप्लाइ करने के काम आ सकता है.

सलमान को ओलंपिक्स के साथ जोड़ने पर कुछ असली और पदक-विजेता खिलाड़ियों ने असंतोष प्रकट किया है.सच तो यही है कि इस हरकत से खेल-भावना और खिलाड़ियों का निर्लज्ज अपमान हुआ है.लेकिन वह लेखकों द्वारा अपने पुरस्कार लौटाए जाने जैसे राष्ट्रीय-वैश्विक साहित्यिक-बौद्धिक-राजनीतिक आयाम प्राप्त न कर सका.अव्वल तो सलमान को ओलिंपिक टीम का आकर्षण बनाना  दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गी की हत्याओं जैसा जघन्य अपराध नहीं है और एक्टरों-खिलाड़ियों में अपनी राष्ट्रीय टीम को लेकर उतना गर्व और प्रतिबद्धता नहीं हैं.सभी जानते हैं कि भारतीय खेलों की कितनी दुर्दशा है.अमेरिका,रूस,चीन आदि बिना किसीघटिया एक्टर के हर चौथे वर्ष कई किलो मैडल ले जाते हैं.वहाँ कोई आत्म-सम्मानी अभिनेता करोड़ों डॉलरों की लालच में ऐसी अनधिकार चेष्टा करेगा भी नहीं.अगर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने किसी विश्वविख्यात एक्टर को ओलिंपिक टीम के साथ भेजता तो सारे देश में दोनों पर अकल्पनीय लानतें भेजी जातीं.लेकिन भारत में यह लेखकों,बुद्धिजीवियों,पत्रकारों का विषय नहीं.रही बात हमारे अंतर्राष्ट्रीय स्टार के खिलाड़ियों तो उनकी घिग्घी इसी पर बंधी हुई है अभी जो मौके मिलते हैं वह कहीं सलमान-सरकार निंदा से हाथ से न निकल जाएँ.इस देश में हर ईमानदार achiever एक आतंक और कई तरह के blackmail के तहत भी जिंदा रहता है.जो स्वयं प्रधानमंत्री का चहेता हो वह बाक़ी सब के लिए Untouchable – अस्पृश्य – हो जाता है – उसे कोई हाथ नहीं लगा सकता.

संसार के पतिततम देश में यह संभव नहीं कि एक मुलजिम-मुजरिम को ओलिंपिक सरीखी वैश्विक महत्व की प्रतियोगिता की परेड में अपने खिलाड़ियों का नेतृत्व करने दिया जाए.यह ऐसा ही है जैसे सनी लेओने को अखिल भारतीय कॉलेज-सुंदरी प्रतियोगिता की निर्णायक बना दिया जाए.ओलंपिक्स में सर्वोच्च खेल और नैतिक मानदंड निबाहे जाते हैं.क्या प्रधानमन्त्री यह सोचते हैं कि कोई भी विदेशी पत्रकार सलमान से उन पर चल रहे मुक़द्दमों के बारे में नहीं पूछ सकता ? क्या आप सारे अख़बारों-चैनलों के मुँह बंद कर देंगे ?

लेकिन सलमान की नामजदगी देश के लिए एक और भयानक पैगाम लिए हुए है.यदि आपके बंगले पर देश के सर्वोच्च नेता आते हों,आपके साथ कनकौएबाज़ी करते हों,सपरिवार फोटो खींचते-खिंचाते हों, तो सुबकती हुई न्यायपालिका को यह स्पष्ट सन्देश है कि वह सोच-समझकर ऐसे रसूखदार जन-नायकों पर फैसले दे क्योंकि कोई भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता

स्वयं ऐसे लोग समझ चुके होते हैं कि सब धर्मों को छोड़ कर केवल एक की शरण में जाना होता है और वह उन्हें सारे पापों से मुक्त करवा देता है.प्रशासन और पुलिस तो यह पहले से ही समझे हुए होते हैं, न्यायपालिका कब तक बिसूरेगी.
___________________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

परख : वसु का कुटुम (मृदुला गर्ग)

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वसु का कुटुम
 मृदुला गर्ग 
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि. 
मूल्य-125 रुपए 
पृष्ठ-119 





समीक्षा

वसु का कुटुम-21वीं सदी का कच्चा-चिट्ठा                         
सुधा उपाध्याय 




मेरे हाथ पिछले दिनों मृदुला गर्ग का नया सृजन वसु का कुटुमलगा. पढ़ने बैठी तो एक सांस में ही पूरा कर डाला. असल में लंबी कहानी की शक्ल में वसु का कुटुमकहानी से लेकर शिल्प, हर लिहाज़ से ऐतिहासिक है. देवेन्द्र राज अंकुरने फ्लैप पर इस रचना के बारे में लिखा है- दो शब्द में कहा जाए तो यह कहानी आज के यथार्थ के अति-यथार्थ का जीवन्त दस्तावेज है जो इतिहास न होकर भी इतिहास बन जाता है.” 

किसी साहित्य का इतिहास उसके राष्ट्र के इतिहास से अलग नहीं होता. इतिहास के आधारभूत तथ्य नहीं बदलते, लेकिन इतिहासकारों द्वारा उनपर दिया जाने वाला बलाघात बदल सकता है. इसलिए इतिहास का पुनर्गठन और उसकी नई व्याख्याएं होती हैं. अतीत के सभी तथ्य ऐतिहासिक नहीं होते. तथ्यों का ऐतिहासिक महत्व उनके संदर्भों पर निर्भर करता है. तथ्य सामान्यतया स्पष्ट होते हैं लेकिन उनके संदर्भ अकसर पेचीदे होते हैं. इतिहासकार इन्हीं पेचों को खोलते हुए तथ्यों के ऐतिहासिक महत्व का निर्धारण करता है. (आधुनिक साहित्य और इतिहास बोध-नित्यानंद तिवारी) 


असल में वसु का कुटुमऐतिहासिक है, जिसमें तथ्य सामान्यतया स्पष्ट हैं पर उसका संदर्भ पेचीदा है और इन्हीं पेचों को खोलने और तथ्यों के ऐतिहासिक महत्व का निर्धारण किया है मृदुला गर्ग ने. जिसके केंद्र में बी के सपोत्राका निर्माणाधीन आलीशान बहुमंजिला मकान है और उसकी धुरी में है दामिनी’. दामिनी इतिहास का वो अध्याय है जिसको याद करने में कष्ट होता है फिर भी यह कहानी दामिनी के जीने और उसके मरने के बाद पैदा हुए हालात की जीवंत विधान है. 


कहानी और शिल्प को लेकर तो वसु का कुटुमअलग है ही, एक ख़ास बात और है जिसकी वजह से इसकी प्रासंगिकता हमेशा बनी रहेगी. महिला विमर्श और महिला सशक्तिकरण के दौर में महिलाओं के अलग-अलग चरित्र और अलग-अलग परिस्थितियों में एक ही महिला के बदलते चेहरे ने इस रचना को और भी महत्वपूर्ण बना दिया है. इसमें सबसे ज्यादा महिला पात्र हैं- दामिनी, रत्नाबाईनजमा, मीरा राव, नीलमऔर अर्चना. इन सब चरित्रों का जो अति यथार्थ रूप है, समय के साथ इनकी बनती-बिगड़ती जो तस्वीर सामने आई है वो इस दौर की असलियत है. इन महिलाओं के हिसाब से पुरुषों का चरित्र भी लगातार पलटी खाता रहता है और समाज को नए सिरे से सोचने पर मजबूर करता है. पढ़ने के दौरान कई बार ऐसा लगता है कि हर चरित्र देखा और पहचाना है. वो आपके आस-पास है. इन चरित्रों और कहानी के ताने-बाने ने सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक प्रपंचों का पूरा कच्चा-चिट्ठा और इक्कीसवीं सदी की असलियत को नए सिरे से उजागर किया है, जिसमें एनजीओ और मीडिया की अहम भूमिका भी बाज़ारवाद की लिप्सा में खुलकर दुनिया के सामने आती है. वसु का कुटुममें स्वार्थ के लिए रिश्तों की ढंकती-खुलती परतों ने यह साफ कर दिया कि संवेदना महज दिखावा है. उसकी आड़ में जो भी अपने लिए जितनी टीआरपी बटोर ले, वही सफल है. 

पुराने मकान की ढेर पर बनाए जा रहे सपोत्रा के मकान से किसी को कोई आपत्ति नहीं है. आपत्ति होनी भी नहीं चाहिए. पर जिस नंग-धड़ंग तरीके से मकान को बनाया जा रहा है, आपत्ति उससे है. एमसीडी (म्यूनिस्पिल कॉरपोरेशन ऑफ दिल्ली) का नियम है कि जो भी दुमंजिला, तिमंजिला या चार मंजिला मकान बनाया जाए, उसके चारों तरफ बाड़ा बनाया जाए, जिससे अंदर से धूल धक्कड़ बाहर न आए. चूंकि धूल-धक्कड़ को रोकने के लिए कोई बाड़ा नहीं लगाया गया, इसलिए आस-पड़ोस में रहने वाले लोगों की शामत थी. शिकायत करने के बाद पुलिस आई. रिश्वत के पैसे लिए और चले गए. फिर से शिकायत की गई, पहले वाले से थोड़े सीनियर अफसर आए पहले से ज्यादा रिश्वत लेकर चले गए. फिर से दरख्वास्त दी गई, उससे भी सीनियर अफसर आए तगड़ी से तगड़ी रिश्वत वसूल की और चले गए. 


कहानी की शुरूआत भले ही नियमों को ताक पर रखकर मकान बनाने से हो रही है पर जब तस्वीर में दामिनी आती है तो उसमें एकदम से तेजी आ जाती है. वजह है दामिनी का ग़लत को ग़लत और सही को सही बोलने की हिम्मत और उसके लिए आवाज़ उठाने की ताक़त रखना. दामिनी हर उस बात पर सवाल उठाती है जिसमें भ्रष्टाचार दिखता है, हर उस बात के लिए बहस करती है जिसमें लगता है कि उसे ठगा जा रहा है, हर उस बात के लिए जी जान लगा देती है जो बनाए गए सरकारी नियमों के खिलाफ है. इसलिए दामिनी लगातार सवाल उठाती है सपोत्रा के मकान बनाने के तौर तरीके पर. उसे जवाब मिलता है कि मकान बनवाने के लिए एमसीडी से सर्टिफिकेट मिल चुका है. लेकिन सर्टिफिकेट दिखाने के लिए कोई राजी नहीं. दामिनी जान चुकी है कि एमसीडी की तरफ से हरी झंडी मिली ही नहीं. जब समाज में बनी बनाई लीक से हटकर कोई भी खड़ा होता है, ग़लत को ग़लत कहने के लिए कोई भी आवाज़ उठाता हो तो तय है कि यथास्थिति में जीने के आदि लोग उसे शक की निगाह से देखने लगते हैं. उसके बारे में तरह-तरह की बातें बनाने लगते हैं. यही हुआ दामिनी के साथ. सुनने में आया है था कि उस औरत के साथ बलात्कार हुआ था पर कॉलोनी के भद्र जन मानने को तैयार नहीं थे. वे जानते थे, या कम-से-कम सोचते थे कि बलात्कृत औरत डरी सहमी रहती है. इस तरह झगड़ा करती नहीं घूमती. वह भी रौबदार मर्दों से. कुछ लोग कहते थे, झगड़ालू नहीं, जांबाज़ है. मगर जांबाज़ भी नहीं हुआ करतीं ज्यादतीशुदा औरतें. यह मानना था सभी का, मर्द हों या औरतें.” 


धूल-धक्कड़ ने दामिनी का जीना मुहाल कर दिया था. सांस उखड़ने लगीं और बीमारी गंभीर होने लगी. समाज में सिर्फ बलात्कार ही अभिशाप है ऐसा मानना सरासर ग़लत है. बाड़ा बनवाने की तमाम कोशिशों के बावजूद सपोत्रा के बन रहे मकान से उड़ने वाली धूल से दामिनी की बीमारी का गंभीर रूप लेना भी उसी अभिशाप का हिस्सा है. पीड़ा चाहे जिस भी वजह से बढ़ रही हो उसका असर शरीर पर ख़तरनाक होता जाता है.और लगातार एक बात के लिए शिकायत करना, फिर भी रसूख की वजह से उसका बदस्तूर जारी रखना, रोज़ बलात्कार की तरह ही तो है. मृदुला गर्ग ने अपनी भूमिका में लिखा है- आँख के ऑपरेशन की तारीख़ तय होने से पहले मैंने उनसे गुज़ारिश की कि आप नियम-क़ायदा मानते नहीं, सब काम रिश्वत से चलाते हैं, तो कम-से-कम मानवीयता का तकाज़ा तो मानिए.कृपया इसके चारों तरफ आड़ बनवा दें, क़ानूनन जो ज़रूरी है, बस उतनी, जिससे धूल-मिट्टी आकर हमारी आँख में न गिरे. उनका जवाब काबिले क़िस्सा था. बोले- सिर्फ हमारे मकान की धूल-मिट्टी वजह नहीं होगी आपकी आँख ख़राब होने की.इस बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हम जिस दौर में जी रहे हैं दरअसल वहां नियम-क़ानून पैसे वालों के पैरों के नीचे दबा है और यही वजह है कि अकसर पैसे वालों को मानवीयता छूकर नहीं जाती है. हालत यह है कि सामने कोई दर्द से कराह रहा हो, वो मदद की गुहार लगा रहा हो पर मजाल है कि पैसे वाले नज़र उठाकर भी देख ले. जो पुराने पैसे वाले हैं उन्होंने कभी मानवीयता की परवाह नहीं की लेकिन जो नए-नए पैसे वाले बने हैं, उन्होंने पुराने पैसे वालों की देखा-देखी अपनी आदत में इसे शुमार कर लिया. 

जैसे-जैसे मकान की दीवारें मजबूत होती जाती हैं दामिनी सरीखे की ज़िंदगी की साँसें कम होने लगती हैं. कम होती साँसों में दामिनी सपोत्रा के खिलाफ आरटीआई डालने की कोशिश करती रही. लेकिन अपनी गाड़ी की तरह चलती-फिरती ताबूत दामिनी की तबीयत खराब हुई. मानवीयता भले ही पैसों वालों में न हो पर कम पैसे वाले, गरीबी में जीवन बसर करने वालों में अब भी ज़िंदा है. उसके यहां काम करने वाली रत्नाबाई और कॉलोनी में किराने की दुकान चलाने वाले राघवन ने दामिनी को अस्पताल में भर्ती कराया. चूंकि दामिनी की बीमारी बलात्कार पीड़िता निर्भयासे मिलती जुलती है इसलिए बीमारी भी गंभीर है. और बीमारी गंभीर है तो इलाज में काफी पैसे लगेंगे ही. ज़ाहिर है इतना पैसा कोई दामिनी पर क्यों लगाए, जो सपोत्रा सरीखे पैसे वाले की आँखों की किरकिरी बन सकती है. इसलिए चंदा इकट्ठा करने की योजना बनाई गई. लेकिन इससे बुरा क्या होगा कि जिस एनजीओ में दामिनी काम करती थी इलाज के लिए चंदा से इकट्ठा किए गए पैसे उसी एनजीओ की प्रमुख मीरा रावने डकार लिए. कहा जाता था कि एक औरत दूसरी औरतों का दर्द सबसे ज्यादा समझती है, पर इक्कीसवीं में यह कहावत बहुत पीछे छूट गई है. चूंकि गुर्दे के ऑपरेशन से पहले ही दामिनी चल बसी, इसलिए उसकी मौत को गुप्त रख गया और मीरा राव ने चंदा लेना बदस्तूर जारी रखा. इस बात का खुलासा तो तब हुआ जब इलाज के लिए राघवन ने जो सोने की गिन्नी दी थी उसे मांगना शुरू कर दिया. वसुधैव कुटम्बकमका हवाला देने वाली संभ्रांत महिला मीरा राव आज की नारी हैं, जिसके लिए पैसा ज्यादा अहम है और साथ में काम करने वाली की मौत कोई मायने नहीं रखती.   


दामिनी जबतक जीवित रहती है तबतक हम उस समाज में जी रहे होते हैं जहां आवाज़ उठाने वाला सवालों के घेरे में हैं, संभ्रांत लोगों के निशाने पर है और तिल-तिलकर मर रहा है. विरोध की उसकी तमाम कोशिशें विफल हो रही हैं.और दामिनी जब मर जाती है तो उसी समाज में एक और नया समाज दिखाई देता है, जिसमें संवेदनाशून्यता चरम पर है, स्वार्थ की जड़ें और गहरी हो गई हैं और पैसे वालों की सांठगांठ की असलियत का पर्दाफाश होता है. दामिनी की मौत के बाद यह विश्वास और दृढ़ हो जाता है कि असल में सही को सही कहने वाले कुछ भी कहें, होगा तो वही जो ऊपर वाले चाहते हैं. हालांकि कहानी को रोचक बनाने के लिए रत्नाबाई और सपोत्रा की अचानक मौत ने कई सवालों को अधूरा छोड़ दिया. इससे हुआ यह कि उनके चरित्र का संघर्ष अधूरा रह गया. 

खैर, दामिनी की मौत और राघवन के गिन्नी वापस मांगने के प्रकरण ने कहानी को नया और रोचक मोड़ दे दिया. दामिनी के यहां झाड़ू-पोछा और खाना बनाने वाली और राघवन की परिचित बुजुर्ग महिला रत्नाबाई झांसी की रानी बनकर उभरी. आब देखा न ताब और सीधे मीरा राव से टकराने चली गई. गिन्नी तो वापस नहीं ला पाई, जान भी गवां बैठी. रत्नाबाई का मीरा राव से भिड़ना और जान गंवाने का फुटेज न्यूज़ चैनल तक पहुंच गया. इसके बाद टीआरपी के लिए लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की भूमिका से बेक़बर होकर न्यूज़ चैनल ने मीडिया ट्रायल शुरू कर दिया. सही तरीके से ख़बरें दिखाते तब भी गनीमत थी. लेकिन वहां तो खोजी पत्रकार और चैनल के संपादक हिन्दीश जी का पूरा ध्यान इस बात पर था कि कौन सा टॉपिक उठाया जाए जिससे उनके चैनल की व्ह्यूयरशिप बढ़े, जिसका सीधा मतलब चैनल पर चलने वाले कॉमर्शियल ऐड से होता है और ऐड ही तो पैसे कमाने का एक सीधा ज़रिया है. हालांकि न्यूज़ चैनलों में बहुत सी बातें जो पर्दे के पीछे होती हैं पैसे की उगाही उससे कहीं ज्यादा होती है. सनसनीख़ेज और चटपटा बनाने की कोशिश में जितने तत्पर हिन्दीश जी है उससे कम तत्पर कैमरे के सामने आने वाले भी नहीं रहते. यही तो कारण है कि दामिनी को रत्नाबाई और राघवन के साथ अस्पताल ले जाने वाली नजमा का चरित्र इसी तत्परता में खुलकर सामने आ गया. दामिनी की मौत से किसी को कुछ लेना देना नहीं. न्यूज़ चैनल पर होने वाली बहस में दामिनी का जिक्र बमुश्किल लिया जाता है पर लोग अपना उल्लू सीधा करने में ज़रूर लगे हैं. 

इस लंबी कहानी को पढ़ते समय लगातार महसूस होता है कि आँखों के सामने फिल्म चल रही है, जिससे आप बार-बार विचलित होते हैं. एक तरफ तस्वीरों का सिलसिला है और दूसरी तरफ आप हैं. जैसे आप उससे जुड़ने लगते हैं तो आपका साक्षात्कार दम तोड़ रही संवेदना से होने लगता है. आप घबराते हैं पर एक समय ऐसा महसूस होता है कि ऊपर से सभी बड़े लोग आपस में इतने घुले-मिले कैसे हैं. मीरा राव और सपोत्रा कैसे दो होकर भी एक हैं, जो आवाज़ उठाने वाले को मिलकर मारने में जुटे हैं. आवाज उठाने वाले मरे तो मरे, उसपर आँसू बहाने वालों से पैसे भी ऐंठ लेते हैं. आप जीते जी खुद की लाश पर चलने लगते हैं और समाज के अति यथार्थ से टकराकर चकनाचूर हो जाते हैं. आख़िर में लगता हैआपकी सुनने वाला कोई नहीं. हर किसी को अपने स्वार्थ से मतलब है. वक्त रेत की तरह फिसल रहा है और हम मूक बनकर खड़े हैं. 


कहानी का अंत करते-करते जो आप सोच रहे होते हैं मृदुला जी ने उसी को बड़े सटीक और झकझोर देने वाले अंदाज में जबरदस्त कटाक्ष के साथ मीरा राव के दफ्तर में चपरासी का काम करने वाले रामलखन से कहलवाया-यह समझिए पूरी कहानी हम कह तो गए, मगर सभी जानते हैं कि सब कुछ रहेगा वही का वही. हम जानते हैं, आप जानते हैं, हिन्दीश जी जानते हैं, सब जानते हैं. तो जब सब जानते हैं तो हम बार-बार उसे क्यों दोहराएँ?” 

पूरी कहानी पढ़ लेने के बाद जो बेचैनी मन में उभरती है, बार-बार कहे जाने के बावजूद जो सच मन- मस्तिष्क को कचोटने लगता है वही वसु का कुटुमकी सार्थकता है. ज़ाहिर है ऐसे में कवि रघुवीर सहाय की कविता रामदासऔर ज्यादा समझ में आने लगती है. 
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सुधा उपाध्याय 
बी-३, टीचर्स फ्लैट 
जानकी देवी मेमोरियल कॉलेज(दि.वि.वि) 
सर गंगाराम अस्पताल मार्ग 

मंगलाचार : संदीप तिवारी

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पेंटिग : bijay-biswal






कविता के साथ लय का रिश्ता पुराना है, अक्सर छंद च्युत कविताओं में भी आंतरिक संगति रहती है. हर कविता की अपनी लय होती है.

संभव है संदीप तिवारीसे यह आपकी पहली मुलकात हो, अलग आस्वाद की इन कविताओं में वह ध्यान खींचते हैं.  





संदीप तिवारी की कविताएँ               
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पसिंजरनामा

काठ की सीट पर बैठ के जाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद
बिना टिकस के रायबरेली
बिना टिकस के फ़ैज़ाबाद
हम लोगों की चढ़ी ग़रीबी को सहलाना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

हाथ में पपेरबैक किताब
हिला-हिलाकर चाय बुलाना
रगड़ -रगड़ के सुरती मलना
ठोंक -पीटकर खाते जाना
गंवई औरत के गंवारपन को निहारना
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

तुम भी अपनी तरह ही धीरे
चलती जाती हाय पसिन्जर
लेट-लपेट भले हो कितना
पहुंचाती तो तुम्ही पसिन्जर
पता नहीं कितने जनकवि से
हमको तुम्हीं मिलाती हो
पता नहीं कितनों को जनकवि
तुम्हीं बनाते चली पसिन्जर
बुलेट उड़ी  चली दुरन्तो
क्योंकि तुम हो खड़ी पसिन्जर
बढ़े टिकस के दाम तुम्हारा क्या कर लेगी ?
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

छोटे बड़े किसान सभी
साधूसंत और सन्यासी
एक ही सीट पे पंडित बाबा
उसी सीट पर चढ़े शराबी
चढ़े जुआड़ी और गजेंड़ी
पागल और भिखारी
सबको ढोते चली पसिन्जर
यार पसिन्जर तुम तो पूरा लोकतंत्र हो !!!!!
सही कहूँ ग़र तुम  होती
कैसे हम सब आते जाते
बिना किसी झिकझिक के सोचो
कैसे रोटीसब्जी खाते
कौन ख़रीदे पैसा दे कर 'बिसलरी'
उतरे दादा लोटा लेकर
भर के लाये तजा पानी
वाह पसिन्जर ...................
तुम्हरी सीटी बहुत मधुर है
सुन के अम्मा बर्तन मांजे
सुन के काका उठे सबेरे
इस छलिया युग में भी तुम
हम लोगों की घड़ी पसिन्जर
सच में अपनी छड़ी पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

भले कहें सब रेलिया बैरनि
तुम तो अपनी जान पसिन्जर
हम जैसे चिरकुट लोगों का
तुम ही असली शान पसिन्जर
वाह पसिन्जर जिंदाबाद.

      





मकड़जाल 

भिनसार हुआ, उससे पहले
दादा का सीताराम शुरू
कितने खेतों में कहाँ-कहाँ
गिनना वो सारा काम शुरू
'धानेपुर'में कितना ओझास,
पूरे खेतों में पसरी है
अनगिनत घास
है बहुत... काम,

हरमुनिया सा पत्थर पकड़े
सरगम जैसा वो पंहट रहे
फरुहा, कुदार, हंसिया, खुरपा
सब चमक गए
दादा अनमुन्है निकल पड़े
दाना-पानी, खाना-पीना
सब वहीं हुआ,
बैलों के माफ़िक जुटे रहे
दुपहरिया तक,
घर लौटे तो कुछ परेशान
सारी थकान.....
गुनगुनी धूप में सेंक लिए,
अगले पाली में कौन खेत
अगले पाली में कौन मेड़
सोते सोते ही सोच लिए

खेती-बारी में जिसका देखो यही हाल
खटते रहते हैं, साल-साल
फिर भी बेहाल,
बचवा की फीस, रजाई भी
अम्मा का तेल, दवाई भी
जुट न पाया,
कट गई ज़िंदगी
दाल-भात तरकारी में...!
ये ढोल दूर से देख रहे हैं
लोग-बाग़,
नज़दीक पहुंचकर सूँघे तो
कुछ पता चले,
खुशियों का कितना है अकाल...
ये मकड़जाल,
जिसमें फंसकर सब नाच रहे
चाँदनी रात को दिन समझे
कितने किसान.....
करते प्रयास
फ़िर भी निराश
ऐसी खेती में लगे आग!
भूखे मरते थे पहले भी
भूखे मरते हैं सभी आज
क्या और कहूँ ?


   


समय का मारा

बुरे समय में रोये कोयल
कौवा छेड़े तान
बुरे समय में बोए गेहूँ
निकले बढियाँ धान
बुरे समय में छोड़ दिए हैं आना-जाना
उसके सब मेहमान
बुरे समय में क्यों लगता है, बुरा ही बुरा
उसको सकल जहान
बुरे समय में खो जाती है
रात-रात की नींद
औ बुरे समय में बच जाती है
थोड़ी सी उम्मीद
उम्मीदों की पूँछ पकड़कर 'समय का मारा'
चलता जाए
उम्मीदों को गले लगाकर
लड़ता जाए बढ़ता जाए
बुरे समय में बहुत कुछ नया
गढ़ता जाए,
उम्मीदों का दिया जलाए
पर्वत चोटी व पहाड़ पर चढ़ता जाए.......

  


 माँगना आसान नहीं होता ....

'माँगना'कितना भयानक शब्द है 
कि माँगने से पहले का डर
माँगने से मना करता है
लेकिन न माँगना भी 
मुश्किलों का हल नहीं होता,
जो लोग माँगने के नुस्खों से परिचित हैं,
जरा उनसे पूछिए कि
मांगने से पहले
उनका हाथ कलेजे पर नहीं रहता ..?
पूछिए कि
उनका मुंह किस गति से काँपता है..?
पूछिए कि
अपनी ही नज़रों में कितना धंसते हैं..?
पूछिए कि
रोते हैं या फ़िर हँसते हैं ...?
बस इतना समझिये कि
यहाँ एक आग है,
जो भभककर जलती रहती है
और देने वाले के इनकार के बाद भी
बुझती नहीं है
सुलगती रहती है ...................
और इस सुलगती आग से निकले धुएं,
यह लिखा करते हैं कि
न माँगना बड़े लोगों की बात है
न माँगना चोरों की जात है
लेकिन ये माँगने वाले
अलग दुनिया के होते हैं,
मुंहफट, मुंहजोर...
जो लगभग हर दरवाजे पर दुरदुराए जाते हैं
फ़िर भी माँगते हैं ,
मुंह खोल के माँगते हैं
निगाहें मोड़ के माँगते हैं
हथेली जोड़ के माँगते हैं
माँगना इतना आसान भी नहीं
है कि नहीं !



 
 जाँत और दीपावली

हर जगह जले थे दीप
बचा था 'जाँत'अकेले खपरैले में,
जब वहाँ अँधेरा
अम्मा ने देखा होगा,
तब वे ज़रूर रोई होंगी
स्मृतियों में उलझी होंगी
खोयी होंगी.....
उनकी यादों में तब ज़रूर
आए होंगे ..वे बीते दिन
जब इसी जाँत को घुमा-घुमा
ढेरों अनाज पीसा होगा
खाया होगा,
उन लोक गीत,
उन लोक धुनों.

जिनको अम्मा ने उठते ही
धीरे-धीरे गाया होगा,
उनका अब कोई एक सिरा
खपरैले के अँधेरे में
अपने करीब पाया होगा,

भीगी आँखों की कोरों को
पल्लू से अपने पोंछ-पोंछ
अम्मा धीरे से बोली थीं........
भइया! एक दिया उधर रख दो,
उस चकिया पर....! 

_______________________________

संदीप तिवारी
कक्ष संख्या- १२७, अमरनाथ झा छात्रावास
इलाहाबाद विश्वविद्यालय, इलाहाबाद- २११००२ 
मो.न. 9026107672

sandeepmuir93@gmail.com

सबद भेद : रीतिकाल : मिथक और यथार्थ : मैनेजर पांडेय

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हिंदी में आलोचना को सेवाटहलमें बदलने का जो (कु) कर्म पहले हाशिये पर था ऐसा लगता है आज वह मुख्य धारा है. इसकी शुरुआत समकालीन प्रभावशाली रचनाकारों की लगभग प्रशस्ति को छूती आडम्बरी शब्दावली में लिखित गद्य से हुआ था. ऐसी कथित आलोचना पुस्तकों को कुछ गैरजिम्मेदार प्रकाशनों से  मुद्रित करा पुस्तकालयों में सड़ने के लिए भेज दिया जाता है. लोचन विहीन लोचकइसके बदले में कुछ पुरस्कार ऐंठ लेते हैं. आत्म- हीन पिछलग्गुओं का गुट बनाये इतराए वमन और बिष्टा करते हिंदी जगत में ऐसे पतित प्रवृति के प्रतीक (का) पुरुष आपको मिल जायेंगे. यह साहित्य के लिए लगभग आत्महत्या की तरह है.


आज यह भुला दिया गया है कि आलोचना  के लिए पहले एक साहित्य सिद्धांत की जरूरत होती है कई बार बड़े आलोचक इसे खुद विकसित करते हैं. आलोचना केवल समकालीनता का भाष्य नहीं है वह अतीत को समकालीन के चश्में और सोच से पढने का एक सलीका भी है. यह संतोष का विषय है कि वरिष्ठ आलोचकों में से कुछ आलोचक आज भी अपने कठिन आत्म संघर्ष में इस आत्म-बोधऔर सहित्यशोधको जिंदा रखे हुए हैं. प्रो. मैनेजर पाण्डेय ऐसे ही आलोचक हैं.  हिंदी में रीतिकाल को लेकर अज्ञानता और धिक्कार का जो प्रचार कुछ कुढ़ मगज रचनाकारों ने किया था यह व्याख्यान उसका सबल प्रतिपक्ष प्रस्तुत करता है और इस युग को न केवल देखने का बल्कि खुद इस काल में उसका समकाल किस तरह स्पन्दित है इसे भी दिखाता है.    


रीतिकाल : मिथक और यथार्थ                                      
मैनेजर पांडेय  





ध्यकाल जिसे कहते हैं उसको दो संदर्भों में देखना चाहिए. साहित्य के इतिहास का काल विभाजन प्रायः समाज के इतिहास के काल विभाजन के आधार पर ही होता है. इसमें कभी-कभी विडंबनापूर्ण स्थितियाँ भी होती हैं. जो स्वाभाविक है उसकी चर्चा बाद में और जो विडंबना है उसकी चर्चा पहले. हिंदी साहित्य में एक काल आदिकाल है. आदिकाल कहने से समाज के इतिहास के प्रसंग में ऐसा अर्थ निकलता है कि जैसे यह तब का काल होगा जब हम लोग यानी भारत का समाज जंगलों में रहता होगा. ऐसा नहीं है. यहाँ आदिकाल शुद्ध साहित्य से जुड़ा हुआ आदिकाल है. लेकिन हिंदी साहित्य का जो मध्यकाल है वह भारतीय समाज का भी मध्यकाल है. मतलब, मध्यकाल जो हिंदी साहित्य का है उसके दो हिस्से हैं. पहला हिस्सा भक्तिकाल का है और दूसरा हिस्सा रीतिकाल का है. समाज के इतिहास के हिसाब से देखिए, हिंदी वालों के लिए मैं कह रहा हूँ देश भर के नहीं, तो एक तरह से जो भक्तिकाल का साहित्य है वह लगभग विद्यापति से शुरू होता है, और यह बहुत लोगों को भ्रम है न जानने के कारण कि भक्ति कविता एक तरह से मुगल काल के साथ खत्म हो गई. ऐसा नहीं है. वैसे स्वयं मुगल काल भी उन्नीसवीं सदी तक आता है. आप लोगों में से सबको यह तो मालूम ही होगा कि अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर थे, 1857ई. के विद्रोह के समय जिनको अंग्रेजों ने गिरफ्तार किया, उनके सारे परिवार को मार डाला और स्वयं बहादुर शाह जफर को रंगून भेज दिया.

यह ऐसा प्रसंग है जिसको याद करते ही थोड़ी भी देश के प्रति प्रेम-भक्ति का भाव होगा तो खून खौलने लगता है. हम जब इस समय आपसे बात कर रहे हैं उस समय उसी देश का प्रधानमंत्री हमारे देश के महान नेताओं से वार्ता के लिए आया हुआ है. ब्रिटेन का प्रधानमंत्री आया हुआ है. खैर, मैं जो मूल बात आपसे कह रहा था वह यह कि रामचंद्र शुक्ल ने एक बात लिखी है और ठीक लिखी है, उन्होंने कहा है कि हिंदी साहित्य की एक विशेषता यह है कि इसमें साहित्य की जो एक परंपरा शुरू हो जाती है वह कभी मरती नहीं है. पर नामकरण तो प्रधानता के आधार पर होता है कि जो प्रवृत्ति प्रधान होती है उसके आधार पर उस काल का नाम रख दिया जाता है. जाहिर है कि भक्तिकाल विद्यापति से ले कर और लगभग समझिए कि मुगल काल के मध्य तक, शाहजहाँ तक, भक्तिकाल के सारे बड़े कवि समाप्त हो चुके थे पर भक्ति कविता हिंदी साहित्य के रीतिकाल में भी मौजूद थी और उन्नीसवीं सदी तक आती है. अब भी हिंदी में कुछ कवि मिल जाएँगे आपको वृंदावन में, अयोध्या में जो उसी ढाँचे-खाके में कविता लिखते हैं. मेरे पास अभी कुछ दिन पहले आगरा विश्वविद्यालय से डी.लिट. का एक शोध-प्रबंध आया था, आज के किसी भक्त कवि की कविता का इतना बड़ा पोथा था, जाहिर है कि मैं न उस कवि को जानता था न उसकी कविता को जानता था इसलिए मैंने थीसिस लौटा दी, कि मैं जिसको जानता नहीं उस पर लिखी हुई थीसिस का मूल्यांकन नहीं करूँगा.

खैर, यह जो मध्यकाल है उसकी अनेक विशेषताएँ हैं. मैं उसकी विस्तार से बात नहीं करूँगा, विस्तार से बात आपके सामने मैं थोड़ी देर में इसी के एक हिस्से रीतिकाल की करूँगा. वैसे ही आपका विश्वविद्यालय रीतिकाल का गढ़ माना जाता है. मुझे नहीं मालूम कि रीतिकाल की बाकी विशेषताएँ बाकी विश्वविद्यालय में हैं कि नहीं पर रीतिकालीन कविता को पढ़ने-पढ़ाने और उसी को कविता मानने की परंपरा नगेंद्र जी से शुरू होकर अब तक मौजूद है, उनके जो भी शिष्य और शिष्य के शिष्य हैं वे सब उसी रीतिकाल में ही घूमते हैं. इसलिए उस पर बात करना मुझे ठीक लगा और मैने वही विषय चुना है. पर व्यापक रूप से मध्यकाल जिसमें भक्तिकाल और रीतिकाल दोनों आते हैं, उसकी दो-एक विशेषताओं की चर्चा करके मैं रीतिकाल पर आऊँगा.

पहली विशेषता यह है, पता नहीं आप लोगों ने कभी इस बात पर ध्यान दिया है कि नहीं कि भक्तिकाल की और भक्ति काव्य की अखिल भारतीय स्तर पर पहली और बुनियादी विशेषता यह है कि प्रत्येक भक्त कवि अपनी मातृभाषा का कवि है. प्रत्येक भक्त कवि कह रहा हूँ, मुझे आज तक कोई अपवाद मिला नहीं है. एक तरह के अपवाद तो हैं जो अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषा में भी कविता लिखते हैं. जैसे स्वयं विद्यापति. विद्यापति तीन भाषाओं में कविता लिखते थे, संस्कृत में, अवहट्ट या अपभ्रंश में और अपनी मातृभाषा मैथिली में. पर महाकवि किसके हैं, संस्कृतके महाकवि नहीं हैं, अपभ्रंश के भी महाकवि नहीं है, महाकवि वो मैथिली के ही हैं. उसी तरह तुलसीदास अवधी में कविता लिखते थे और ब्रजभाषा में भी, पर ब्रजभाषा के महाकवि वो नहीं हैं. ब्रजभाषा के महाकवि सूरदास हैं. तुलसीदास अवधी के ही महाकवि हैं. इसलिए मैने कहा कि कुछ प्रतिभाशाली कवि अपनी मातृभाषा के अलावा दूसरी भाषाओं में भी कविता लिखते हैं पर बुनियादी महत्व तो उनकी मातृभाषा वाली कविता का है.

दूसरी विशेषता मध्यकाल की यह है कि जो मातृभाषाओं में कविता लिखी गई तो संस्कृत के पंडितों और फारसी के मुल्लाओं ने इसका बहुत विरोध किया. पता नहीं आपको मालूम है कि नहीं, अपना देश दो चीजों के लिए बहुत प्रसिद्ध है, पहली बात तो यही है कि यहाँ अश्लीलता को रेशमी चादर से ढँक कर उसको शालीनता कहते हैं और संस्कृति भी.इस दिल्ली शहर में कैसे अश्लीलता को रेशमी चादर से ढँकते हैं इसका प्रमाण इस दिल्ली शहर में औरतों के साथ हुई एक हजार ज्यादतियाँ हैं. एक साथ दोनों काम करते हैं, मंत्र भी जपते हैं - 'यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवता: ...'और स्त्रियों की पूजा करने के नाम पर उनके साथ जो-जो करते हैं उनमें से अधिकांश तो कहने लायक नहीं है. इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि अश्लीलता को शालीनता की रेशमी चादर में ढँक कर उसे संस्कृति कहते हैं. दूसरा क्या है, सच को छुपाना और झूठ को मुलम्मा लगा कर पेश करना, यह एक पुरानी आदत है. यह जो विरोध हुआ वह कितनी दूर तक गया, उसके दो प्रमाण मैं दूँगा, ज्यादे नहीं. पचासों मेरे पास हैं. मराठी के एक भक्त कवि थे, संतकवि ज्ञानदेव. उनकी प्रसिद्ध रचना है, ज्ञानेश्वरी. मराठी का महान काव्य माना जाता है उसे. असल में ज्ञानेश्वरी ओबी छंद में है. इस ओबी छंद का ईजाद किया था ज्ञानेश्वरने. ओबी छंद इसके पहले मराठी में नहीं था, देश में भी नहीं था. उन्होंने इस छंद को गढ़ा. उन्होंने ओबी छंद में और मराठी भाषा में गीता का अनुवाद किया है और व्याख्या भी की है. उसके तीसरे अध्याय की सत्रहवीं ओबी में ज्ञानेश्वर ने एक ऐसी बात लिखी है जिसे भारतीय समाज, संस्कृति और भाषाओं के इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वाक्य मैं मानता हूँ. 

यह मैं आपसे पहले ही कह चुका हूँ कि वह गीता का अनुवाद है तो यह भी आप जानते ही हैं कि गीता अर्जुन और कृष्ण के बीच संवाद है. उस तीसरे अध्याय में अर्जुन कृष्ण से कहते हैं, ध्यान रखिए ज्ञानेश्वर के अर्जुन संस्कृत के अर्जुन नहीं, कि आप जो कुछ कह रहे हैं वह बहुत महत्वपूर्ण है लेकिन बहुत गूढ़ है. मेरी समझ में नहीं आ रहा है. इसलिए इसको सरल मराठी में समझा कर कहिए. पहली बार एक मनुष्य ने, अर्जुन कुल मिलाकर एक मनुष्य ही तो थे, ईश्वर तो कृष्ण थे, ईश्वर से कहा कि मेरी भाषा बोलो.आप जिस भाषा में कह रहे हो वह बहुत मुश्किल है इनलिए मेरी भाषा बोलो. तो इसका परिणाम क्या हुआ जानते हैं? यह जो काम उन्होंने किया यानी कि संस्कृत से महत्वपूर्ण अपनी मातृभाषा को बनाया, परिणाम यह हुआ कि पंडितों ने इक्कीस वर्ष की आयु में ज्ञानेश्वर को जीवित समाधि लेने के लिए मजबूर किया.यह तो हत्या करना है और बुरी तरह हत्या करना है. हत्या तो एक मिनट में हो सकती है, पर जीवित समाधि में जो आदमी होगा वह तो दो-एक दिन में मरेगा.

उसी तरह से मराठी के संत तुकारामके साथ हुआ. मराठी संत तुकाराम जाति के मालीथे. ब्राह्मण तो थे नहीं. इनसे कहा गया कि ये माली-वाली को अधिकार नहीं है कि ज्ञान का उपदेश दे इसलिए अपना यह लिखा-पढ़ा फेंको. एक कवि अपनी बात कह रहा है, वह चाहे जुलाहा कवि कबीर हो या माली कवि तुकाराम, वह फेंक काहे दे. तो पंडितों ने एक चाल चली और कहा कि तुम इसको नदी में डुबो दो और ईश्वर की कृपा होगी तो यह ऊपर आ जाएगा, नहीं तो हम मान लेंगे कि यह डूबने लायक थी. अब आपसे अलग से क्या यह बताने की जरूरत है कि ऋग्वेद से ले कर भगवत्‌ गीता तक की किताबें नदी में डुबोई जाएँ तो सब डूब जाएँगी. कौन नहीं डूबेगी! उसमें तो स्वयं भगवान ही मौजूद हैं. वो भी डूब जाएँगे उसी में. यह चाल चली उन्होंने. कहा जाता है कि, बाकी तो कथा है, तुकाराम ने पंडितों के कहने पर फेंका - मुझे तो हमेशा लगता है कि पंडितों ने तुकाराम से जबर्दस्ती छीन कर नदी में फेंक दिया - लेकिन डूबा नहीं वह. जो भी हुआ, बाद में तुकाराम घर में रहने के बदले जंगलों में घूमने लगे और कभी घर लौटे ही नहीं. मेरा अपना अनुमान यह है कि उनको मार दिया जंगल में. मराठी में जानते हैं कथा क्या चलती है, फिल्म बनी है तुकाराम पर जो हर साल दिखायी जाती है जिसमें दिखाया जाता है, सीधे स्वर्ग से विमान आया और तुकाराम को सशरीर स्वर्ग ले गया. जिन लोगों ने मारा वे सभी क्यों नहीं गए, स्वर्ग तो सब लोग जाना चाहते हैं! यह जो प्रवृत्ति है यह भी आपके यहाँ की ही प्रवृत्ति है.

मैं एक घटना आपको सुनाऊँ चलते-चलते. मैं जब कोई काम करता हूँ तो काफी गहरी खुदाई करता हूँ. जब मैंने ज्ञानेश्वरी पढ़ीऔर जब यह वाक्य, अर्जुन का कृष्ण से कथन, दिखाई पड़ा तो मुझे यह वाक्य बहुत ही महत्वपूर्ण लगा, अभी थोड़ी देर पहले आपसे मैंने कहा था कि मेरी जानकारी में भारतीय समाज में भाषाओं के इतिहास का सबसे क्रांतिकारी वाक्य है. मैंने इसका हिंदी अनुवाद खरीदा जो साहित्य अकादमीसे छपा है और अंग्रेजी अनुवाद खरीदा जो भारतीय विद्या भवन, बंबई से छपा है. दोनों में दो काम एक साथ हुए हैं. दोनों अनुवाद करने वाले मराठीलोग हैं. दोनों की भूमिकाओं में ज्ञानेश्वर को लगभग ईश्वर जैसा दर्जा दिया गया है पर दोनों अनुवादों में यह वाक्य बदल दिया गया है कि 'सरल मराठी में समझा कर कहिए'.इसके बदले लिखा हुआ है कि 'सरल भाषामें समझा कर कहिए'. माने, संस्कृत से जो प्रेम है वह भारी पड़ा ज्ञानेश्वर से प्रेम पर. यह अपने यहाँ की जानी-पहचानी प्रवृत्ति है. पर ऐसी इतनी प्रवृत्तियाँ हैं कि मैं उसी पर ध्यान दूँ तो आज का भाषण उसी पर हो जाएगा. पर वह मैं नहीं करूँगा.

यह जो मध्यकाल है, उसका जो रीतिकाल है, उसके बारे में जो कहना है उसे मैं आपके सामने रखना चाहता हूँ. पहली बात तो यह कि हिंदी आलोचना में महावीर प्रसाद द्विवेदी और बाद में रामचंद्र शुक्ल ने रीतिकाल के विरोध में बहुत सारा लिखा और दृष्टिकोण बनाया. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'हिंदी नवरत्न'कीसमीक्षा लिखी थी. बाकी उनका छोड़ भी दीजिए, उसको देखिए तो उनका जो रीतिकाल विरोधी दृष्टिकोण है वह दिखाई देगा. यही काम आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने किया. ये दो हिंदी के इतने बड़े आलोचक थे कि बाद के लोगों ने उन्हीं की बातों को मिर्च-मसाला लगा कर कभी थोड़ा घटा कर कभी थोड़ा बढ़ा कर पेश किया. नया किसी ने लिखा हो, नगेंद्र जी समेत, ऐसा नहीं है. रामचंद्र शुक्ल का आरोप क्या था? पहला आरोप यह था कि इस कविता में श्रृंगारिकता बहुत है. यद्यपि आचार्य शुक्ल मन से स्वयं श्रृंगारिक व्यक्ति थे. एक महिला से प्रेम भी करते थे. इसलिए, ठाकुर का एक छंद उनको बहुत प्रिय था, मुझे लगता है उनके मन से मिलता होगा, बार बार उसको दुहराया है. मैं अपको सुना रहा हूँ :

वा निरमोहिनि रूप की रासि जऊ उर हेतु न मानति होइहैं.
आवत जात घरी घरी मेरो सूरति तो पहिचानति होइहैं.
ठाकुर या मन की परतीति है, जो पै सनेह न मानति होइहैं.
आवत हैं नित मेरे लिए इतना तो विशेष के जानति होइहैं..

इसको आचार्य शुक्लने अपने चार लेखों में उद्धृत किया है, इतिहास के साथ. इससे उनकी मानसिकता का पता चलता है. लेकिन यही काम जब रीतिकाल के कवि कर रहे थे तो शुक्ल जी को पसंद नहीं था.

आचार्य शुक्ल को दो और बातें पसंद नहीं थीं. उनके नापसंद करने का आधार है, ऐसा नहीं कि उन्होंने निराधार कहा लेकिन जो है वही मैं कह रहा हूँ. एक बात उनको पसंद नहीं थी और यह रीतिकाल की कमजोरी है; नायिका-भेद का विस्तार. अपार है वह. सात बरस की बच्चियों से ले कर सत्तर बरस की बुढ़ियाओं तक सब नायिकाएँ हैं. अरे कोई स्त्री भी होगी! जो नायिका के अलावा हो. आचार्य शुक्ल को सबसे अधिक नाराजगी इसी बात से थी इसीलिए आचार्य शुक्ल ने बहुत कड़ा वाक्य रीतिकाल के बारे में लिखा है. लिखा है, रीतिकाल में कविता बँधी नालियों में बहने लगी. लेकिन इसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि हिंदी के बाद के आलोचकों ने रीतिकाल की कविता को समग्रता में पढ़ने-समझने और मूल्यांकन करने के बदले रामचंद्र शुक्ल की बातों को दुहराना शुरू किया. अब कह गए हैं आचार्य शुक्ल, अरे आचार्य शुक्ल ने पढ़-वढ़ के कहा था. बाद के बहुत लोगों ने बिना पढ़े ही कहा, क्योंकि पढ़ते तो कुछ और ऐसा दिखाई देता जो मैं आपके सामने अभी रखने वाला हूँ.

रीतिकाल के बारे में मेरी पहली बात यह है कि अपने समय के समाज और इतिहास से जैसा संबंध रीतिकाल की कविता का है वैसा संबंध भक्तिकाल में भी नहीं है. प्रमाण क्या है? मैं कोई रीतिकाल का प्रेमी नहीं हूँ. अभी ठीक बताया गया कि मैने पूरी किताब लिखी है, 'भक्ति आंदोलन और सूरदास का काव्य'. मैं स्वयं भक्तिकाल का प्रेमी हूँ. पर जो जहाँ है उसके बारे में बात की जाएगी न, जो वास्तविकता है, सच्चाई है.

देखिए, रीतिकाल के सबसे बड़े कवि माने जाते हैं केशवदास. अपने समय और समाज के इतिहास से केशव दास की कविता का क्या संबंध है? केशवदास की दो रचनाएँ हैं, जो सीधे इतिहास से जुड़ी हुई हैं मित्रो! मैं बाकी रामचंद्रिकाआदि की बात नहीं कर रहा हूँ. एक उनका प्रबंध काव्य है, 'वीर सिंह देव चरित'. मैं दावे के साथ आपसे कह रहा हूँ कि रीतिकाल के बहुत सारे प्रेमियों ने इसे देखा ही नहीं है, बस नाम गिना देंगे. क्या है उसमें, उसमें मध्यकाल के इतिहास की जटिल समस्याएँ हैं. मुगल काल के इतिहास की खास तौर से. आप में से जो इतिहास के छात्र होंगे, उनको यह मालूम होगा कि अकबर के समय से और उनके राज्य-काल से संबंधित दो बड़ी घटनाएँ हुईं. पहली घटना यह हुई कि उनके पुत्र सलीम ने, जो बाद में जहाँगीर बना, विद्रोह कर दिया. यह विद्रोह की घटना 'वीर सिंह देव चरित'में है. उसी विद्रोह का एक और नतीजा हुआ कि सलीम ने वीर सिंह, जो ओरछा का राजा था - बहुत शक्तिशाली और प्रभावशाली, की मदद से अबुल फजलकी हत्या करवाई. यह सब वीर सिंह देव चरित में है. आप बताइए, हमारा हिंदी साहित्य का स्वर्णयुग माना जाता है भक्तिकाल, केशवदास और तुलसीदास बहुत दूर तक समकालीन थे, मतलब दोनों अकबर के जमाने में जीवित थे, भक्तिकाल के किस कवि ने मुगल शासन के बारे में लिखा है. किस कवि ने? हमारे जो परम आदरणीय बाबा तुलसीदास हैं, उन्होंने तो यह घोषित कर दिया - कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना / सिर धुनि गिरा लागि पछिताना. यानि, अपने समय के किसी मनुष्य की कविता में चर्चा करना सरस्वती का अपमान है, तो राम का गुणगान करेंगे. सारा भक्तिकाव्य परलोकवाद की चिंता से लिखा गया है.

सारा रीतिकाल अपने समय और अपने समाज की चिंता से लिखा गया है. उसमें कोई परलोकवाद नहीं है. और जो परलोकवादी हैं उनके बारे में रीतिकाल के ही एक कवि ने कहा कि 'राधा कन्हाई सुमिरन को बहानो है', वास्तविक भक्ति नहीं है, बहाना है वह. कहना तो है किसी स्त्री और पुरुष के बारे में कुछ, तो डर लगता है कि ज्यादा कहेंगे तो पिटाई-विटाई होने लगेगी. परसाई जी ने एक व्यंग्य लिखा था कि कविता में सर्वनामों का प्रयोग क्यों होता है. अधिकांश कविताएँ 'वह'में लिखी जाती हैं. परसाई जी ने कहा कि वह में न लिखा जाय, संज्ञा में नाम ले कर लिखा जाय तो कोई चप्पल ले कर पहुँच जाएगी न घर पर! इसलिए सर्वनाम ही बचाता है. वही हाल है, अपने समय और समाज की चिंता नहीं है. खैर, हिंदी में केवल एक आलोचक ने, आप लोगों में जो छात्र हैं उनकी मदद के लिए कह रहा हूँ, केशवदास के इस काव्य के ऐतिहासिक महत्व पर विचार किया है. मिल जाए किताब कहीं तो पढ़िए. किताब मैं ले कर आया हूँ आपको दिखाने के लिए. यह किताब है चंद्रबली पांडेयकी 'केशव दास'नाम से. कोई हिंदी का आलोचक इसका नाम नहीं लेता. जानते भी नहीं हैं लोग. उसके बाद केशवदास की दूसरी किताब है, यह थोड़ी छोटी है, 'जहाँगीर जस चंद्रिका'. मुझे लगता है कि इसके बारे में बिना बताए भी आप सीधे समझ जाएँगे कि सीधे मुगल इतिहास से जुड़ी है. मैं केशवदास के बारे में बहुत कुछ सोच कर आया था, मेरे पास नोट्‌स हैं, वह भी आपसे कहना चाहता था पर अब समय नहीं है. दूसरी एकाध बातें और कहूँगा.

केशवदास ने इसी 'वीर सिंह देव चरित'में राजनीति की विस्तार से चर्चा की है. रूपक में. यानी, केशवदास एक राजनीतिक कवि भी हैं. केशवदास ने एक ऐसे शब्द का उपयोग अपनी कविता में किया है जिसका उपयोग आज के कवि करते हैं, 'जनपद'. मैंने भक्ति काव्य बहुत पढ़ा है लेकिन मेरी जानकारी में किसी ने जनपद शब्द का उपयोग किया हो, मुझे नहीं मालूम. उसका संदर्भ ले कर आया हूँ आपके सामने लेकिन पढ़ूँगा नहीं. उसी 'वीर सिंह देव चरित'में. जनपद एकदम आधुनिक शब्द है, कोई नहीं जानता कि यह वहीं से आया है. आप लोगों को मालूम है कि आजकल जिला को या सब-डिवीजन को जनपद भी कहा जाता है. जनपद वैसे बहुत पुराना शब्द है. हिंदी के एक कवि हैं त्रिलोचन, उनकी कविता की किताब ही है, 'उस जनपद का कवि हूँ जो भूखा दूखा है!'इसलिए केशवदास पर ठीक से पुनर्विचार करने की जरूरत है. उनकी ऐतिहासिक दृष्टि, उनकी राजनीतिक चेतना पर नए सिरे से काम करने की जरूरत है पर उसके लिए मेहनत करनी पड़ेगी. आजकल लड़के-लड़कियाँ रिसर्च के नाम पर यात्रा कहाँ से कहाँ तक करते हैं, 'एक होस्टल से दूसरे होस्टल तक'. माने, लड़के लड़कियों के होस्टल तक और लड़कियाँ लड़कों के होस्टल तक, बस. इससे 'वीर सिंह देव चरित'नहीं मिलेगा. 'वीर सिंह देव चरित'या चंद्रबली पांडेय की किताब किसी पुरानी लाइब्रेरी में मिलेगी.

दूसरे इस काल के कवि जिनका सीधे इतिहास से संबंध है वे हैं भूषण.भूषण औरंगजेब के जमाने के कवि हैं. भूषण शिवाजी के समय के कवि हैं. मेरा ख्याल है यह तो आप लोगों को मालूम होगा कि उनके तीन ग्रंथ हैं और तीनों का संबंध इतिहास से है. 'शिवराजभूषण',यह शिवाजी पर है. 'शिवाबावनी', यह भी शिवा जी पर है. और उस समय ही मध्य प्रदेश के एक बहादुर राजा थे छत्रसाल,उन पर उनकी एक काव्य पुस्तक है, 'छत्रसाल प्रकाश'. इसका सीधे संबंध इतिहास से है. इस बात को और भी कम लोग जानते हैं, मित्रो, थोड़ी देर में उसकी और चर्चा करूँगा मैं, कि जिस समय औरंगजेब शासन कर रहा था (आप लोगों को मालूम है कि 1707ई. में मरा वह) तब तक इस देश में अंग्रेज आ गए थे. रीतिकाल के चार कवि ऐसे हैं जो अंग्रेजों के आने से चिंतित थे. रामचंद्र शुक्ल ने भारतेंदु के प्रसंग में लिखा है कि जीवन दूसरी ओर जा रहा था और कविता दूसरी ओर जा रही थी यानी कि छाती पर अंग्रेजी साम्राज्यवाद चढ़ रहा था और कवि नायिका भेदकी कविता कर रहे थे, यह पूरा सच नहीं है मित्रो. आप लोगों में से जिसको फुरसत हो, मैं किताब का नाम और छंद का नाम बता रहा हूँ भूषण के, उनकी किताब है 'शिवराज भूषण', उसमें छंद संख्या 116और 261इन दोनों में अंग्रेजों की चिंता है. 'शिवाबावनी'में छंद नं. 15में अंग्रेजों की चिंता मौजूद है.

रीतिकाल के आखिरी महत्वपूर्ण कवि थे पद्माकर.मैं आपको पद्माकर का एक पूरा छंद पढ़ कर सुना रहा हूँ और तब आपको मालूम होगा कि रीतिकाल के कवि किस तरह से अंग्रेजों के आने से चिंतित थे. उस समय ग्वालियर का राजा था सिंधिया, बहुत प्रसिद्ध, माना जाता था बहादुर भी था, (माना जाता था इसलिए कह रहा हूँ कि मध्यकाल में बहादुर होने का एक ही अर्थ था कि कौन कहाँ से कितनी औरतों को भगा कर ले गया है, यही बहादुरी का एक प्रमाण था, वहाँ हर लड़ाई में यही होता था, मुझे नहीं मालूम सिंधिया ने यह भी किया था या नहीं, खैर) पद्माकर ने उनको एक चिट्ठी लिखी कविता में, मैं वही चिट्ठी या कविता पढ़ रहा हूँ (कविता से मालूम होगा कि पद्माकर को मालूम था कि अंग्रेज कहाँ-कहाँ अपनी जड़ जमा रहे हैं धीरे-धीरे) :

मीनागढ़, बंबई, सुमंद, मंदराज, बंग,
बंदर को बंद कर बंदर बसाओगे.

कहैं पद्माकर कसक कश्मीर हूँ को ,
पिंजर सो घेरि के कलिंजर छुड़ाओगे.

बाका नृप दौलत अलीजा महराज कभौ,
साजि दल पकड़ फिरंगिन भगाओगे.

दिल्ली दहपट्टि , पटना हू को झपटि कर,
कबहूँ लत्ता कलकत्ता की उड़ाओगे॥

यह ललकारा था उन्होंने. पर कवि ललकार ही सकते हैं न. आजकल बहुत सारे कवि मनमोहन सिंह को ललकार रहे हैं. पर उन पर किसी चीज का फर्क नहीं पड़ता. पता नहीं सिंधिया पर कुछ फर्क पड़ा कि नहीं, कुछ किया तो नहीं उन्होंने पर कवि ने अपना काम किया. मैं आपसे यह कह रहा था कि क्या साबित होता है इससे! और भी मेरे पास कविताएँ हैं जो सीधे मुगल काल के इतिहास से जुड़ी हुई हैं. मैं उन सब को पढ़ नहीं रहा हूँ.

यह जो प्रवृत्ति है उससे लगता है कि रीतिकाल के कवि अपने समय के इतिहास से दो तरह से जुड़े थे, पहला तो यह कि सीधे उनका काल मुगल काल था उससे जुड़े हुए थे, उसका चित्रण-वर्णन अपने साहित्य में कर रहे थे और दूसरे आने वाली आफत अंग्रेजी राज की भी आपत्तियों-विपत्तियों को पहचानते थे, उसकी भी चर्चा कर रहे थे. घासीरामनाम के उस जमाने के एक कवि थे, आप लोगों में से कुछ को मालूम होगा कि उन्हीं के नाम पर विलासपुर में एक विश्वविद्यालय है, घासीराम ने लिखा सो पढ़ रहा हूँ आपसे, छंद का हिस्सा, उनकी किताब है - पथ्यापथ्य. 1834ई. की. इसमें लिखा उन्होंने :

छाँड़ि के फिरंगिन को राज में सुधर्म काज
जहाँ पुण्य होत आज चलो उस देश को.

यानी, फिरंगियों के राज को छोड़ कर वहाँ चलो जहाँ पुण्य का काम होता हो, यहाँ तो सब पाप का काम होता है.

एक और कवि हैं रीतिकाल के, बहुत लोकप्रिय कवि हैं, आप लोग उन्हें जानते होंगे - दीनदयाल गिरि.बाबा दीनदयाल भी उनको कहा जाता है, उन्होंने लिखा है :

पराधीनता दुख महा , सुखी जगत स्वाघीन.
सुखी रमत सुक बन बिसय , कनक पींजरा दीन.

यह जो दोहा है, यह आधुनिककाल का लगता है. इस तरह की बात आज का कोई कवि कहेगा. जो तोता है, वह बन में तो सुख से रहता है लेकिन सोने के पिंजरे में भी रख दीजिए तो वह दीन हो जाता है. जंगल में स्वतंत्र रहता है. इससे ज्यादा चिंता मैथिलीशरण गुप्त के पास भी नहीं थी. स्वाधीनता के महत्व का गान कर रहे थे दीनदयाल गिरि. ऐसी कविता और ऐसे काल को रामचंद्र शुक्ल के कह देने से गरियाने का काम पिछले सौ साल से हो रहा है. ये कवि तो अपने समय के अंग्रेजी राज की पहचान कर रहे हैं, विरोध कर रहे हैं और रीतिकाल पर लिखी हुई एक किताब में भी क्या मजाल कि यह कहीं मिले. इसलिए मैं यह कह रहा हूँ. अभी दो एक उदाहरण और दूँगा. सीधे इतिहास से संबद्ध.

एक राजस्थान के कवि हैं, बूँदी में राज कवि थे, सूर्जबल मीसणनाम है. 'वंश भाष्कर'नाम का उनका महान ग्रंथ है. आठ खंडों में साहित्य अकादमी से छपा हुआ है. उसकी भाषा थोड़ी मुश्किल है, उसमें प्राकृत और राजस्थानी मिली-जुली है इसलिए प्रायः आज के छात्रों को समझ में नहीं आएगी. हम लोगों को ही कम ही समझ में आती है. मेहनत करके उसमें से कुछ निकालते हैं. उसमें एक तो बूँदी राजघराने का पूरा इतिहास है. दूसरा औरंगजेब और दाराशिकोह के बीच जो बादशाहत के लिए सारी लड़ाई हुई, उसका इतिहास है उसमें. दाराशिकोह मध्यकाल के बड़े ही ट्रैजिक और महान पात्र थे, उनका संदर्भ रीतिकाल की अनेक कविताओं में है. भूषण की अनेक कविताओं में है. इसके साथ ही यह इतनी महत्वपूर्ण किताब है कि, एक इतिहासकार हैं कानूनगो, पूरा नाम उनका भूल रहा हू, कानूनगो अंत में आता है, वे दाराशिकोह के इतिहासकार हैं, यदुनाथ सरकारके शिष्य थे, ढाका में प्रोफेसर थे इतिहास के, उन्होंने दाराशिकोह पर एक किताब लिखी है और 'वंश भाष्कर'का उल्लेख किया है. हिंदी क्षेत्र में क्या है कि साहित्य और इतिहास के सारे संबंध खत्म हो गए हैं. इतिहास वाले साहित्य नहीं जानते. वीर सिंह देव चरित के संबंध में चंद्रबली पांडेय ने लिखा है कि अकबर के शासन के बारे में और सलीम के विद्रोह के बारे में बहुत सारी ऐसी बातें केशवदास ने लिखी हैं जो बहुत सारे इतिहासकारों को नहीं मालूम. क्योंकि उनके समय के कवि थे. जानते थे, क्योंकि राज दरबारों में रहते थे. पुराने और जो महत्वपूर्ण इतिहासकार थे वे साहित्य भी पढ़ते थे. हिंदुस्तान में क्या है, साहित्य पढ़ते तो हैं लेकिन केवल वही साहित्य पढ़ते हैं जिस समय का कोई इतिहास नहीं मालूम है. मान लीजिए कि आप वैदिक काल के समाज का इतिहास खोजने चलिए तो ऋगवेद के अलावा कुछ नहीं मिलेगा आपको. ऋगवेद ही पढ़कर काम करेंगे. रोमिला थापरभी यही करती हैं और उनके विरोधी भी यही करते हैं. जब एक जगह आप साहित्य का उपयोग करते हैं तो बाद के दिनों में क्यों नहीं करते. मध्यकाल का इतिहास लिखने वालों को केशवदास को पढ़ना चाहिए. पर कौन समझाए उनको, जब हिंदी वाले नहीं पढ़ते तो इतिहासकार क्यों पढ़ें. इसलिए मित्रो, रीतिकाल पर नए ढंग से सोचने, समझने और विचार करने की जरूरत है. तब आपको मालूम होगा कि रीतिकाल की कविता के बारे में जो प्रायः धारणाएँ बनाई गई हैं उनमें से अनेक गलत हैं. इस कविता का एक गहरा ऐतिहासिक पक्ष है और एक गहरा राजनीतिक पक्ष भी है.
प्रो. मैनेजर पाण्डेय
 बी-डी/8 ए
डी.डी.ए. फ्लैट्समुनिरका, नई दिल्ली-110067
मो॰ 9868511770
_____ 
(दिल्ली के वेंकटेश्वर कॉलेज में 19फरवरी 2013को 'मध्यकालीन हिंदी कविता 'पर व्याख्यान.)
प्रस्तुति : अमरेंद्र नाथ त्रिपाठी

सहजि सहजि गुन रमैं : नीलोत्पल (२)

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Abdullah M. I. Syed







कविता में ईमान बचा रहे और कवियों में लज्जा
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हिंदी कविता के वर्तमान  में विषय की बहुलता और शिल्प की विविधता को उसका विकास ही समझना चाहिए. एक साथ कई पीढियां न केवल सक्रिय हैं बल्कि सार्थक भी बनी हुई हैं. चेतना, इति-कथाएं, नैतिकता, भावनाएं, प्रयोग, सरोकार, वंचना की पीड़ा, आक्रोश,   स्मृतिहीनता, प्रेम, व्यर्थताबोध,  आदि   की धाराएँ - उपधाराएं आपको दिख जाएँगी.

बहुत से  अलहदा कवि आपको परिदृश्य पर नहीं भी दीखते हैं, यह  उनकी नहीं हमारी समस्या है. कहा जाता है - खोटे सिक्के खरे को बाहर कर देते हैं पर कविता सिक्का नहीं है, हर कविता की अपनी अलग पहचान है. एक सजग पाठक उन्हें खोजता है और  एक सार्थक आलोचक उसकी ख़ासियत  तय करता है.

नीलोत्पल जैसे कवि अपने ईमान के साथ जब सामने आते हैं तो ख़ुशी और उम्मीद का सबब बनते हैं. वह कविता पर मिहनत करते हैं और कहते हैं

‘जो नहीं जानता स्वीकारोक्तियाँ
समय को छोटा करता है.’.


नीलोत्पल की कविताएँ                                            






कुछ संगीत सुनाई नहीं देते

संगीत कुछ नहीं
सिवाए तुम्हारे ख़्याल के

एक भरा समुद्र अपने सितार की
तसदीक़ करता है
ख़ाली समय हम समुद्र का एकांतिक संगीत
सुनते हैं

मृत्यु का संगीत
उस पतझड़ की तरह
जो चारों ओर फैल जाता है

कुछ संगीत सुनाई नहीं देते
वे बजते है कई उम्र तलक
उन चीज़ों की भी आँखें निकल आती हैं
जो पत्थरों के भीतर रहते हैं

समय की कटोरियाँ छोटी हैं
पानी की एक बूँद
सूखने से ठीक पहले आँखों में उतर जाती हैं

मैं गुनगुनाता हूँ
सारा कुछ शब्दों में क़ैद
धीरे-धीरे पिघलने लगता है

एक रास्ता कई रास्तों की नींव है
तुम अपने घर में नहीं रहती
मैं नहीं जानता तुम्हारा घर किधर है


हर बार भूलते हुए
मैं लौट आना चाहता हूँ
जैसे बीती रात की बारिश
अपना चेहरा नहीं देखती

सुबह कई तरह के फूल
तुम्हारे नाम का अंतिम अक्षर लिखते हैं.



जीवन का द्रव

कई चीज़ें समय को छोड़ देती है
कई रिश्ते अधूरे छूट जाते हैं

कोई है जो पत्थरों को
अधिक सख़्त बनाता है
कोई है जो अंत तलक नज़र नहीं आता

कोई गीत अनसुना रह जाता है
सदियों की प्रतीक्षा उसे
गीली जगहों पर रोप देती हैं

किसी चिट्ठी में क़ैद
वह आवारा प्यार
प्यानों के ऊँचे टीले पर गाता है
अंतिम मिठास कानों में घुली रह जाती है

ख़ाली वक़्त उन चीज़ों के लिए
जो अपनी ज़ेबों में जीवन का द्रव ले गए

कोई है जो ज़रूरतों के बाहर
वहाँ क़रीब जाने की कोशिश करता है

जीवन एक बच्चे का गुम खिलौना
जो अंत तक नहीं मिलता.

 


स्खलित विचार जीवन से बाहर नहीं

एक साथ कहीं नहीं पहुँचा जा सकता....

जिन्हें विश्वास नहीं
वे अंधरे में अपनी सूचक पट्टियाँ बदलते हैं
बड़े सवेरे आईने से ख़िज़ाब उतारते है

समूह जिसकी पर्देदारी में
एक असंभव चीज़ को ढोना होता है
आगे चलकर बिखर जाती है

हम एक हैं
एक नहीं होने की तरफ़ आगे बढ़ते है

स्खलित विचार जीवन से बाहर नहीं
वे नहीं गिरने की बुनियाद है
उन्हें कचराघर मत दो
समय उन्हें बाहर निकाल लेगा


कई सुविधाएँ जीवन को असम्भव बनाती हैं
छोटे प्रलाप जीवन को उघाड़ देते है

कई हैं जिनके कंधे अमरता के बोझ से दबे हैं
वे भी अपना ढोना सह नहीं पाते

एक साथ आसमान को रंगना चल जाता है
धरती पर कई उपमाएँ गढ़ी जा सकती हैं
जिन्हें प्रेम हैं वे पूरी पृथ्वी को एक कर देते है

कई व्यक्तियों का एक जगह पहुँचना
आदर्श या दर्शन नहीं
अपना-अपना अवसाद है




जो शुरू हुआ नहीं, वही अंत है
  

हम अंत से शुरू करेंगे

शुरुआती रास्तों के बीच
बने असंयत जंगलों में घूमते हुए
शिकार हो जाना आसान है

ख़ुद को शिकार होते देखने की तरह
हम शुरू करेंगे

कई भरे पन्नों की जगह
एक ख़ाली पन्ना
वही अंतिम संभावना है
जिसे पहली बार लिखते हुए
छोड़ गए थे
तुम्हें उसी जगह से शुरू करना है

रास्ते के सारे अनुभव बंद किताब है
खुली क़ब्रगाहे आकर्षित करती है
वही चीज़ें अस्पष्ट है
जिसे जीवन ने धुंधला कर दिया है

खुलना और बंद होना अंत नहीं
जीवन और मृत्यु भी अंत नहीं

जो शुरू हुआ नहीं, वही अंत है
इसरार करती तमाम चीज़ों के बीच.




निर्वासित सूचियाँ

जो तैरना नहीं जानता
वह डूबना भी नहीं जानता

वह गेंद मैदान से बाहर है
जिसे आजमाया नहीं गया

सारे चूहे धरती के एक ओर
बचे हुए कागज़ कुतर रहे है
बहुत कम कवियों के पास
बचे हैं कोरे पन्नें

इतिहास की आख़री बेंच पर
ढेर सारी आँखें नींद में पढ़ती हैं
कई सारे मतलब बेमतलब के लिए
ख़ाली रह जाते हैं

जैकेट पहना आदमी ठंड से ज़्यादा बाहर नहीं
सड़कों पर भीड़ ख़त्म नहीं होती
हर चेहरा दूसरे का प्रतिकार करता है
समावेशित होता है
अंत में कोई चेहरा नहीं बनता

जिन्हें अंत तक दफ़नाया नहीं गया
वे अपनी कथा रोज़ लिखते हैं

युद्ध और रक्त से नहीं बनता विचार
मृत्यु तफ़रीह करती है
एक बड़ा-सा पत्ता झर जाने के कई दिनों बाद भी
निर्वासित सूचियाँ बनाता है
समय उसका अनंतिम हिस्सा है
अन्य पेड़ उसे जीते हैं


सड़क पर छाया पसरी है
लोग गुज़रते हैं
छाया और गहराती है

जो नहीं जानता स्वीकारोक्तियाँ

समय को छोटा करता है.
____________________________

नीलोत्पल

जन्म: 23 जून 1975, रतलाम, मध्यप्रदेश.
शिक्षा: विज्ञान स्नातक, उज्जैन.

प्रकाशन:  पहला कविता संकलन अनाज पकने का समयभारतीय ज्ञानपीठ से वर्ष 2009 में प्रकाशित.दूसरा संग्रह  पृथ्वी को हमने जड़ें दीं’बोधि प्रकाशन से  वर्ष 2014 में.पत्रिका समावर्तन के युवा द्वादशमें कविताएं संकलित

पुरस्कार: वर्ष 2009 में विनय दुबे स्मृति सम्मान/ वर्ष 2014 में वागीश्वरी सम्मान.

सम्प्रति: दवा व्यवसाय
सम्पर्क: 173/1, अलखधाम नगर
उज्जैन, 456 010, मध्यप्रदेश
मो.:     0-94248-50594/ 0-98267-32121    

परिप्रेक्ष्य : मैन बुकर इंटरनेशनल और ‘द वेजिटेरियन’ : सरिता शर्मा

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हान कांग (Han Kang, जन्म November 27, 1970, साउथ कोरिया)को उनके उपन्यास ‘The Vegetarian’के लिए 2016 के मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइज के लिए चुना गया है.  

लेखिका ‘हान कांग’ और  ‘द वेजिटेरियन’ परसरिता शर्मा का समय से लिखा यह आलेख ख़ास आपके लिए. 




मैन बुकर इंटरनेशनल और  ‘द वेजिटेरियन’                             
सरिता शर्मा      



क्षिण कोरियाई लेखिका हान कांग को उनके उपन्यास “द वेजिटेरियन” के लिए वर्ष 2016के प्रतिष्ठित मैन बुकर इंटरनेशनल प्राइजके लिए चुना गया है. उनका यह उपन्यास एक महिला द्वारा मांस का सेवन छोड़ देने और इसके विनाशकारी परिणामों के बारे में है.द वेजिटेरियन’उनका पहला उपन्यास है, जिसे स्मिथ ने अंगे्रेजी में अनुवाद किया है. अनुवाद से पहले ही यह पुस्तक मशहूर चुकी थी. यह पहला अवसर है जब पुस्तक की लेखिका और अनुवादक, दोनों कोसंयुक्त रूप से यह पुरस्कार दिया गया है. मैन बुकर इंटरनेशनल की 50 हज़ार पाउंड की पुरस्कार राशि हान कांग और देब्रह स्मिथ में बंटेगीहान कांग इस पुरस्कार के लिए नामित की जाने वाली और इसे जीतने वाली दक्षिण कोरिया की पहली लेखिका हैं.बुकर प्राइज में अन्य भाषाओँ की अनूदित पुस्तकों को 2005से शामिल किया जाने लगा था. मगर इसमें लेखक की सब पुस्तकों को सम्पूर्णता में देखा जाता था. इस साल से हर बार यह पुरस्कार लेखक की किसी एक विशेष कृति को दिया जायेगा. हान कांगकी एक और पुस्तक"ह्यूमन एक्ट्स"भी अंग्रेजी में उपलब्ध है. पुरस्कार चयन समिति के अध्यक्ष बोएड टॉनकिनने कहा कि हान कांग का काम अविस्मरणीय, सशक्त और मौलिक था. हान के इस उपन्यास के साथ-साथ इटली की लेखिका एलेना फेरांटे, अंगोला के जोसे एडुराडो अगुआलुसा, चीन के यान लियांके, तुर्की के ओर्हान पमुक एवं आस्ट्रिया के रॉबर्ट सीथेलरको भी नांमांकित किया गया था.

हान कांग का जन्म 27 नवंबर, 1970को क्वांग्जूमें हुआ था.वह 10साल की उम्र में सियोल चली गयी थी. उन्होंने योंसे  विश्वविद्यालय में कोरियाई साहित्य का अध्ययन किया. उसके पिता उपन्यासकार हैं और भाई हान दांग रिमभी एक लेखक है. सबसे पहले 1993में हान कांग की पांच कविताएं ‘लिटरेचर एंड सोसाइटी’में प्रकाशित हुई थीं. हान की पहली पुस्तक ”ए कंविक्ट्स लव”1995में प्रकाशित हुई थी जिसके यथार्थवादी और गूढ़ आख्यान ने विश्व भर में लोगों का ध्यान आकर्षित किया था. कोरियाई भाषा में प्रकाशित उनकी पुस्तकों में कहानी संकलन  द फ्रूट ऑफ़ माई वुमेन (2000); और ब्लैक डियर (1998), योअर कोल्ड हैंड (2002),द वेजीटेरियन(2007), ब्रेथ फाइटिंग(2010) और ग्रीक लेसंस(2011) जैसे उपन्यास शामिल हैं. हान ने द वेजिटेरियनऔर “मंगोलियन मार्कको हाथ सेलिखा था क्योंकि कंप्यूटर कीबोर्ड के बहुत ज्यादा इस्तेमाल करने से उनकी कलाई क्षतिग्रस्त हो गयी थी. वह सियोलइंस्टीट्यूट ऑफ आर्ट्स में रचनात्मक लेखनपढ़ाती हैं.

हान कांग कॉलेज के समय से यी जेंग की कविता की एक पंक्ति -"मेरे विचार से मनुष्यों को पौधे बन जाना चाहिए"से अभिभूत हो गयी थीं. कांग ने इसकी व्याख्या औपनिवेशिक काल की हिंसा के खिलाफ रक्षात्मक रवैये के रूप में की और इससे प्रेरित हो कर सबसे सफल उपन्यास द वेजिटेरियन” लिखा.यह उपन्यास तीन भागों में विभक्त है जिसमें कथा को अलग-अलग पात्रों के दृष्टिकोण से आगे बढाया गया है.ईजन हाय और उसके पति आम लोग हैं. पति मामूली महत्वाकांक्षा वाला और शरीफ कर्मचारी है; पत्नी उदासीन लेकिन आज्ञाकारी पत्नी है. उनकी सपाट शादीशुदा जिन्दगी में बाधा तब आती है जबईजनहाय, लगातार दिखने वाले भयानक दुस्वप्नो  के चलते शाकाहारी बनने का फैसला करती है क्योंकि वह पेड़ पौधों की तरह जीना चाहती है. दक्षिण कोरियामें शाकाहारी होना असामान्य बात है और सामाजिक रीति-रिवाजों का सख्ती से पालन किया जाता हैं.वहाँ ईजनहाय के फैसले को घिनौना विध्वंसक कार्य माना जाता है. उसका निष्क्रिय विद्रोह विचित्र और भयावह रूपों में प्रकट होता है, क्योंकि वह खाना बिल्कुल छोड़ देती है, जिनके कारण उसका अपने पति यौन परपीड़न के कृत्यों को जायज ठहराता है. उसकी क्रूरताओं से तंग आ कर वह आत्महत्या करने का प्रयास करती है और अस्पताल में भर्ती हो जाती है. वह अनजाने में अपने जीजा, जो वीडियो कलाकार है, को मोहित कर लेती है. वह उसकी कामुक और अव्यस्थित कलाकृतियों की केंद्र बिंदु बन जाती है, जबकि वह अपनी कल्पनाओं में शरीर के बंदी गृह को त्याग कर एक पेड़ बन जाने की दिशा में असंभव हर्षोन्माद से आगे बढ़ती जाती है.व्याकुल करने वाला, परेशानी भरा और सुंदरउपन्यासद वेजिटेरियन” आज के दक्षिण कोरिया के बारे में तो है ही, लेकिन यह उपन्यास शर्म, इच्छा और हमारे द्वारा किसी दूसरे बंदी शरीर कोसमझने के कमजोर प्रयासों के बारे में भी है.

हान कांग एक संगीतकार हैं और उनकी कला में रुचि है. "योअर कोल्ड हैंड"की कहानी एक मूर्तिकार और उसकी मॉडल के इर्दगिर्द घूमती है. हान कांग ने अपने लिखे दस गानों की एक सीडी जारी की है जिसके सभी गानों को उन्होंने खुद गाया था. हान कांग के उपन्यास "रेड एंकर"को सियोल सिंमुनस्प्रिंग लिटरेचरी कंटेस्टमें पुरस्कृत किया गया था.उन्हें1999 में उनके उपन्यास "बेबी बुद्ध"के लिए 25वां कोरियन लिटरेचर नोवल अवार्ड और 2000 में टुडेज यंग आर्टिस्ट अवार्ड से सम्मानित किया गया था.हान कांग 2005में "मंगोलियाई मार्क"के लिए यी जेंगलिटरेरी प्राइज, और 2010 में ब्रेथ फाइटिंग के लिए दांग-नी लिटरेरी अवार्ड जीत चुकी हैं. "बेबी बुद्ध"और द वेजिटेरियनपरफिल्में बनायी गयी हैं. द वेजिटेरियन” फिल्म प्रतिष्ठित नार्थ अमेरिकन फिल्म फेस्ट के वर्ल्ड नैरेटिव कम्पटीशन में शामिल होने वाली 1,022 प्रस्तुतियों में से चुनी गयी 14फिल्मों  में से एक थी. इस फिल्म को सियोल इंटर नेशनल फिल्म फेस्टीवल में भी महत्वपूर्ण सफलता मिली थी. 

2013 में 32वर्षीय किम एरन से पहले तक यी जेंगलिटरेरी प्राइजजीतने वाली सबसे कम उम्र की लेखिका थी. 2016 में छपी हान कांग की पुस्तक "ह्यूमन एक्ट्स"को टेलीग्राफ से पांच सितारों की और गुडरीड्स पर 4.37 की संचयी रेटिंग प्राप्त हुई थी.
_____________ 
सरिता शर्मा
1975, सेक्टर-4/अर्बन एस्टेट/गुडगाँव-122001
मोबाइल: 9871948430                                              

विष्णु खरे : एक ‘सफल’ ख़ूनी पलायन से छिटकते प्रश्न

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मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की व्यावसायिक सफलता के कई  अर्थ निकाले जा रहे हैं. नागराज मंजुलेके निर्देशन में बनी इस फ़िल्म की अभिनेत्री रिंकू राजगुरुऔर अभिनेता आकाश ठोसर की जम कर प्रशंसा हो रही है. रिंकू को तो  'सैराट'में एक्टिंग के लिए हाल ही में 63वें नेशनल अवॉर्ड से नवाजा भी जा चुका है. फ़िल्म में उनका नाम आर्ची है. इस फ़िल्म के संगीत निदेशक अजय–अतुल हैं.
प्रख्यात सिने मीमांसक विष्णु खरे का क्या कहना है? आइये पढ़ते हैं.






एक सफलख़ूनी पलायन से छिटकते प्रश्न                             

विष्णु खरे 
बीच में निर्देशक नागराज मंजुले


राठी शब्द ‘’सैराट’’का संक्षिप्त अर्थ हिंदी में संभव नहीं है.उसे शायद ‘तितर-बितर’ होने या ‘भगदड़’ से ही समझाया जा सकता है.मैंने ‘पलायन’ चुनना सकारण बेहतर समझा है.कलात्मक या व्यापारिक दृष्टि से सफल फिल्मों के शीर्षक किस तरह अन्य भाषाओँ में जज़्ब हो जाते हैं,यह पड़ताल भी सार्थक और दिलचस्प हो सकती है.बहरहाल,उसे लगे एक महीना नहीं हुआ है कि मराठी फिल्म ‘’सैराट’’का नाम करोड़ों ग़ैर-मराठी ज़ुबानों पर भी है.अभी उसने नाना पाटेकर अभिनीत कामयाब ताज़ा फिल्म ‘’नटसम्राट’’ को पीछे छोड़ा है और अब वह मराठी सिनेमा के इतिहास की सफलतम फ़िल्म मानी जा रही है.उसने शहर और देहात के मल्टीप्लेक्स और सिंगल-स्क्रीन सिनेमा के अर्थशास्त्र को प्रभावित किया है.यह कल्पनातीत था कि कोई मराठी फ़िल्म सिर्फ़ थिएटरों में पहले तीन हफ़्तों में 50 करोड़ का आँकड़ा छू ले.

महाराष्ट्र में सिनेमा अपने आदिकाल से बन रहा है,वह उसकी मातृभूमि है.स्वाभाविक है कि ‘कलात्मक’ या व्यावसायिक रूप से कुछ मराठी फ़िल्में सफल होती आई हैं.महाराष्ट्र के बहुभाषी निर्माता-निदेशकों,लेखकों,संगीतकर्मियों और अभिनेताओं-अभिनेत्रियों आदि द्वारा  प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से हिंदी और भारतीय सिनेमा के विकास में जो लगातार बेमिसाल योगदान दिया जा रहा है उसके ब्यौरों का  बखान असंभव है.बेशक़,कई कारणों से बीच में मराठी फिल्म पिछड़ी,सिनेमा के इतिहास में ऐसा होता रहता है,लेकिन इधर पिछले कुछ ही वर्षों में अनेक नए,युवतर मराठी फ़िल्मकार उसे राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मंच पर हिंदी के समकक्ष ही नहीं,आगे ले जाते दीखते हैं.मराठी सिनेमा की बहु-आयामीय अस्मिता का एक नया ‘’टोटल स्कूल’’ विकसित होता लग रहा है.

‘’सैराट’’ के अधिकांश अभिनेता या तो अज्ञात हैं या अल्पज्ञात.उसका कथा-स्थल सैलानियों में लोकप्रिय नहीं है.क़स्बा देश-भर के सैकड़ों ऐसे क़स्बों की तरह सामान्य है - न सुन्दर,न कुरूप.किशोरों-युवकों के पास आपसी क्रिकेट-मैच,कूएँ की तैराकी और कभी नाव की सैर के अलावा मनोरंजन के  कोई साधन नहीं हैं. बस-अड्डा है लेकिन ट्रेन यहाँ से नहीं जाती.फिल्म के नृत्य-संगीत आकर्षक हैं लेकिन वह शेष तत्वों को दबाने की कोशिश नहीं करते.कोई डांस-आइटम-गर्ल नहीं है.’प्रेम’ की हसरत है,कभी-कभी वह हासिल भी हो जाता है,लेकिन ‘’सेक्स’’उतना नहीं है.समाज निम्न और अन्य वर्गों में यथावत् बँटा हुआ है. बस्ती के बाहर दलित पिंजरापोल जैसे हालात में रह रहे हैं.चीनी मिल है जो सत्ता और राजनीति  के केंद्र और हर तरह के शोषण-पेरण का प्रतीक है.गन्ने और केले के घने हरे आदमक़द खेत कोई राहत या सुकून नहीं देते – एस.यू.वी. पर सवार मौत वहाँ भी अपने शिकारों के लिए गश्त लगाती है.  क़स्बे पर क़ाबिज़ ताक़तवर खानदानी शरीफ़ लोगों के पास बेशुमार दौलत,रसूख़और ताबेदार क़ातिल माफ़िआएँ हैं.प्रशासन और पुलिस उनके गुलाम हैं.उनसे कोई जीत नहीं सकता,उनके ख़िलाफ़ कोई सुनवाई हो नहीं सकती.न वह कुछ भूलते हैं और न कुछ मुआफ़ करते हैं.जब कोई दलित किशोर-युवा किसी सर्वोच्च सवर्ण लड़की से प्रेम करने लगता है और यह जात-बिरादरी-समाज  की इज़्ज़त का सवाल बन जाता है तभी उस और उसके परिवार पर भयावहतम प्रतिहिंसा बरपा की जाती है.यदि खुद अपनी बेटी उसके प्रेम में ज़िद्दी और कुलघातिनी है तो उसे भी किसी क़ीमत पर बख्शा नहीं जा सकता.

मुसलमानों की मुसलमान जानें,ऐसी कहानियाँ अखिल भारतीय हिन्दू समाज में हम आजीवन सुनते-पढ़ते-देखते आए हैं.किसी भी बहु-संस्करण क़स्बाई दैनिक को देखते रहें,यह घटनाएँ  मनमानी  उबाऊ नियमितता से लौटती आती हैं.उनके प्रस्तार-समुच्चय (permutations-combinations)अपने पल-पल परिवर्तित ख़ूनी कैलाइडोस्कोप में लगभग अनंत हैं.विडम्बनावश,एक कलाकृति के रूप में ’’सैराट’’ अब ख़ुद उनमें शामिल हो गई है. ऐसी हर कृति की एक त्रासद नियति ऐसी भी होती है.फिर यह भी है कि ऐसी ‘सम्मान-हत्याएँ‘’ (ऑनर किलिंग्ज़) भले ही बहुत लोकप्रिय न हों,दलित या विजाति-घृणा और हत्यारी  मानसिकता चहुँओर बनी हुई हैं. 

यहाँ ध्यान रखना होगा कि विजातीय प्रेम/विवाह तथा दलित-स्वीकृति के मामले में मराठी संस्कृति तब भी कुछ पीढ़ियों से अपेक्षाकृत शायद कुछ कम असहिष्णु हुई प्रतीत होती है.राष्ट्रीय स्तर पर कई अन्य ऐसे विवाह परिवारों द्वारा स्वीकारे भी जाते रहे हैं,मेरे कुछ अनुभव भी ऐसे हैं.आज से 55 वर्ष पहले खंडवा में मेरे घनघोर दलित मित्र कालूराम निमाड़े ने अपनी नारमदेव ब्राह्मण प्रेमिका दमयंती से कमोबेश निरापद विवाह किया था.लेकिन इस समस्या से सम्बद्ध कोई ठोस विश्लेषण और आँकड़े उपलब्ध नहीं हैं. दम्पतियों की सर-कटी लाशों और उनके बेसहारा शिशुओं को इस सब से कुछ तसल्ली और राहत नहीं मिलतीं.

किसी कम-लागत फ़िल्म को ‘’सैराट’’ जितनी बेपनाह सानुपातिक व्यावसायिक सफलता मिले तो कुछ दुर्निवार प्रश्न खड़े होते हैं.पहला एक घंटा ‘’आती क्या खण्डाला’’-टाइप है और वह प्रचलित homo-erotic (समलिंग–स्नेहिल) भले ही न हो,अधिकांश भारतीय फिल्मों की तरह नाच-गाने और मेल-बॉन्डिंग (पुरुष-मैत्री) पर टिका हुआ है.लेकिन उसमें शराफ़त से किसी एक लड़की से सम्बन्ध बना लेने की जोखिम-भरी हसरत-ओ-तड़प भी है.हमारे किशोर और युवा वर्ग में नारी के लिए दीवानगी तक ललक है.यहाँ एक विचित्र तथ्य है कि फिल्म की नायिका वास्तविक जीवन में अब भी नाबालिग़ है और शायद नायक भी.यह एक घंटा self-indulgent है क्योंकि वह ऐसा कुछ भी स्थापित नहीं करता जो बीस मिनट में establish नहीं हो सकता था.वह क्लिशे (पिष्ट-पेषण) के साठ मिनट हैं और शायद निदेशक वैसा ही वातावरण निर्मित करना चाहता था.लेकिन होश में लानेवाला पहला तमाचा नायिका के भाई के हाथ से उसके पिता के इंटर कॉलेज में मराठी कविता पढ़ानेवाले दलित शिक्षक के मुँह पर नहीं,हमारे गाल पर पड़ता है और पिछला सारा शीराज़ा बिखर जाता है.लेकिन यह तो होना ही था. 

अपना संभावित जाति-विवाह तोड़ना,माता-पिता-भाई को समाज और कस्बे में बदनाम कर भयानक जोखिम उठा अपने दलित प्रेमी के साथ पलायन,अत्यंत कठिन परिस्थितियों के बीच सीमावर्ती  आंध्रप्रदेश में डोसा बनाते हुए और पीने के पानी की मशीनी बोतलें भरते हुए टीन की दीवारों-छतों वाली एक गन्दी बस्ती में अज्ञातवास,बीच में एक लगभग आत्मघाती ग़लतफ़हमी और अनबन और पुनर्मिलन,फिर वह दो बरस जिनमें एक बेटे,एक स्कूटी और एक छोटे से फ़्लैट का जीवन में आना,और इस सब बदलाव में नायिका आर्ची का अपने माता-पिता,भाई-बहनों और घर को सहसा याद करना.सर्वनाश मायके से कई भेंटें लेकर आता है.


क्या दर्शकों ने सिर्फ़ उस सुपरिचित,लगभग टपोरी पहले घंटे को चाहा? क्या उन्हें बीच का ‘’दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’’-स्पर्श अच्छा लगा ? क्या उन्हें क़स्बाई माफिया द्वारा नायक-नायिका को चेज़ करने और उस पलायन में  पराजित होने में आनंद  आया? क्या वह आँध्रप्रदेश में अपने आदर्शवादी,’पवित्र’ नायक-नायिका के सफल संघर्ष से खुश हुए? क्या उन्हें यह हीरो अच्छा लगा जो एक एंटी-हीरो,अ-नायक है ? क्या उन्हें बीच में उन दोनों के मनमुटाव के  सस्पेंस ने रोमांचित किया ? क्या वह जानते या चाहते थे कि बाद की सुख-स्वप्न जैसी ज़िन्दगी न चले? फिर यह दर्शक हैं कौन? इनके पैसे कैसे वसूल हुए? कितने दलित,कितने सवर्ण,किन जातियों के ? कितने किशोर/युवा ? कितने वयस्क,बुद्धिजीवी ? क्या सब सवर्णवाद के आजीवन शत्रु रहेंगे ? क्या वाक़ई ‘’सैराट’’ कोई जातीय,सामाजिक और राजनीतिक प्रश्न उठाती है ? यदि वह त्रासदी को ही उनका एकमात्र हल बनाकर पेश कर रही है तो उसमें कहाँ मनोरंजन हो रहा है कि फिल्म सुपर-हिट है? 

क्या यह फिल्म दर्शकों को और मनोरंजन की उनकी अवधारणाओं को बदल रही है ? क्या दर्शकों ने इसे एक समूची ज़िन्दगी की फाँक की तरह देखा,टुकड़ों-टुकड़ों में नहीं? क्या इसमें कहीं कोई सैडो-मैसोकिस्ट, परपीड़क-आत्मपीड़क तत्व,किशोर-प्रेम का नेत्र-सुख,prurience और voyeurism भी सक्रिय हैं? क्या यह फिल्म सिर्फ़ मराठी संस्कृति में वैध फिल्म है? हिंदी में बनी तो नतीज़े क्या होंगे?''सैराट''की अपूर्व सफलता गले से तो उतरती है,दिमाग़ में अटक कर रह जाती है.
_______
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

सैराट : संवाद (२): आर. बी. तायडे

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फ़िल्म मीमांसक विष्णु खरे की  मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ की विवेचना ने अब एक बहस का रूप ले लिया है. ‘सैराट’ के हिंदी ‘मायने’ से शुरू हुआ यह विवाद अब फ़िल्म के मंतव्य तक पहुंच गया है. इसका एक दलित एंगल भी है. इस बहस को आगे बढ़ाते हुए श्री आर. बी. तायडेका आलेख जो मूल अंग्रेजी में है दिया जा रहा है.

श्री आर. बी. तायडे मराठी/अंग्रेज़ी के फिल्म-आलोचक हैं और महाराष्ट्र मेंअपने फिल्म-क्लब आन्दोलन के कारण जाने जाते हैं. इस फ़िल्म पर मराठी आलोचकों से यह पहली समीक्षाहै जो विष्णु खरे के सौजन्य से समालोचन को प्राप्त हुई  है.

 . 

A blockbuster Marathi movie by Nagraj Manjule
SAIRAT (2016)                                                                     
  
A review by

R.B.Tayade
(rated at 4 out of 10)




With a great hype in the visual media, rave reviews in the press, impressed by his earlier movie 'Fandry” and insistence practically from all my  relatives and friends (some of them vouching on oath), I finally saw the film yesterday at City Pride, Kothrud, Pune.

However, it was a great disappointment for me and, I believe, would be so for many among us who might go for it expecting some realistic film like 'Fandry'. In fact, it turned out to be almost a commercial film made with both the eyes on box-office and only a dash of realism in the second half.

The film, for it's long duration of almost 3 hours, is too tiring - particularly the second half drags on and on. Sadly, the film is quite unlike Nagraj's much acclaimed first movie 'Fandry'. The story is nothing new. The plot of upper-caste young girl falling for a poor boy from the lower-caste has been portrayed in number of films since ages with varying consequences - some of them reconciliatory while other others ending in violence. Neeraj  Ghaiwan's recent film 'Masaan', being an example of one of the excellent films on the topic, has an altogether different and twisted ending that effectively surmounted the precarious situation - not, of course, forgetting its portrayal of delicate & innocent romance and down to earth realism. At this juncture, I also remember a 1977 Czechoslovakian film  'Rose Tinted Dreams'(Ruzove Sny) by Dusan Hanak on the same subject where a well established boy falls for a gypsy 'Roma' girl. The film perhaps has the best possible ending to such an impasse by infiltrating surrealism in reality - or was it reality infiltrating in surrealism? Be that as it may, it's a great experimental film on such a teenaged romance which, I am afraid, a very few of us might have seen.

And then, the 'honour-killing' - which can be deemed to be an essence of the film - is not every day happening, nor every rich village-belle has the same characteristic as depicted in the film. And if at all such a topic is to be brought to fore and portrayed in a film, it should have been done with all its seriousness. But very clever of the promoters of the film not to give even a hint of the darker side of the film in its 'promos' and hold onto it's box-office collection by simply presenting a rosy picture. This is quite in contrast to what Ashutosh Gowarikar / Amir Khan had done while promoting their film 'Lagaan'. They kept the best part (Cricket match) out of 'promos' when this very hidden part later went on to become the sole winner for the film.

Incidentally, in the very first shot, the film latches onto the same 'Lagaan', filters in a little bit of romance of 'Fandry'& 'Shaala', further stuffs it with Bollywood kind of songs, dances, musical euphoria - laced with western tunes, adds a glamorous cinematography and finally tries to add a dash of realism that's too tiring as well as depressing.

Further, I find several flaws in the film...

1. The story, script and dialogues are not meticulously conceived. The village’s headman, aspiring to be a leader in politics, committing such atrocities and getting Scot-free in the present much conscious socio / political scenario appears a bit too much. The Maharashtrian lady rescuing the couple at Hyadrabad, subsequent rise in the stature of this rustic & uneducated couple to the extent of earning 40 K and even looking for a posh apartment seems all too sudden and a bit far-fetched. In fact, that's the period when their true struggle for survival had begun. I found hardly any emotionally touching scenes, except for 2 scenes - the first when Archi (Rinku Rajguru) remembers her mother & home and secondly when she gets overtly emotional when she looks at the presents sent by her mother. Archie, who was shown so brave and defiant before is suddenly shown as very weak & mundane girl in the second half. Many dialogues are repetitive and lose their relevance. The police loosing track of the girl of such an influential leader for years together, the film looking like divided into two separate halves and so on.

2. The actors have simply acted and understandably so because most of them being non professionals, but what troubles most is the total lack of on screen chemistry between the lead couple - especially when it's an intense love story.

3. I must say the cinematography is too good, but sadly it's restricted to the first half only. The shot of birds (hopefully captured by the crew in reality), the slow-motion romantic scenes (like we often see in Bollywood movies) are truly fabulous. But how many times should they be employed and for how long? Doesn't it loose it's relevance as well as effect. The shots of the swing along the shore of the lake, zoom-in shots of palace etc. Are certainly good to watch but do they have any relevance to the village scenario and dormant theme of the movie? Well, they might be fabulous for a Bollywood films, but not so good for this kind of theme.

4. Music by Ajay-Atul is mind-blowing...has already created a craze all over the nation. The incorporation of western symphonies (boastfully played and recorded in Hollywood) is simply marvelous. No wonder, if Ajay Atul again become strong contenders for National Award as they had been before for their music for the film 'Jogwa'. But sad part is that the music, in spite of its outstanding melody, is as irrelevant to the basic theme and scenario of this movie as it was for their past music award winning film 'Jogwa'. And that “Zin..zing...zingat” song tops it all. I am yet see a village-headman inviting the entire village for the dancing at the birthday bash. And then, the projector operators of Indian Cinema Halls have different ideas about the comfort of their audience. Come such song and they play it full-blast. No matter how many cotton balls you stuff in your ears, you can't stop the jarring sound piercing your ear-drums. I strongly advise, move out of theater when this song comes on screen. You can always listen to it in a cozy comfort of your home in mp3 with a volume of your choice.

5. The editing too is sloppy. Many scenes are unnecessarily repeated. For instance the stinking scene of Aarchi on way to the toilet is repeated till we really feel nauseated. And then the scene in which Archie is shown giving alms to the beggar! Has this scene any relevance to the situation or the theme? A good editor can do justice to the film by cutting many such unnecessary scenes and make it sleeker perhaps by half an hour or so for the good.


So, in conclusion, the film is more of a commercial film rather than any realistic or art-house film and must be seen as such. However, Nagraj Manjule is known for making a realistic films and one wishes he soon reverts back to his original. And if he does, best thing for him to begin would be with the last scene of 'Sairat' where the blood-stained footprints of the kid are seen lost into oblivion.

Well, I returned home with a heavy heart and I switched on an old 1951 B&W movie 'Sanam' starring Dev Anand, Suraiya and Meena Kumar on the home-projector just to get back into my normal self though knowing fully well that what I was about to watch was utter nonsense. To my surprise, this old film 'Sanam' went far ahead of this film 'Sairat' in terms of love affairs. In 'Sairat' a rich girl falls for a poor guy, but in 'Sanam' the rich girl and a daughter of an established lawyer, Suraiya, falls for a jail-breaker, Dev Anand....after all it's Bollywood !!!

So my recommendation - go for this movie, watch it once as any other Bollywood movie, but preferably keep the kids below 15 away for they are likely to draw altogether different conclusion than wishfully intended. I gave this this movie 4 out of 10 for its music, cinematography, entertainment value and handling subject of social relevance.
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सैराट : संवाद (३): कैलाश वानखेड़े

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मराठी फ़िल्म ‘सैराट’ पर विष्णु खरेके आलेख से प्रारम्भ ‘वाद/विवाद/संवाद’ की अगली कड़ी में कथाकार कैलाश वानखेड़ेका आलेख प्रस्तुत है. इससे पहले आपने मराठी/अंग्रेजी के फ़िल्म- आलोचक आर. बी. तायडेका अंग्रेजी में लिखा आलेख पढ़ा.  
पूर्व के दोनों आलेखों की प्रकृति वैचारिक–विवेचनात्मक थी. 

कैलाश वानखेड़े ने इस फ़िल्म को एक कथाकार की तरह देखा है और इस संवेदनशील लिखत में खुद उनके अपने अनुभव भी शामिल हैं.

जिस समाज में प्रेमियों की हत्याएं ‘आनर’ (honour) के नाम पर होती हों वहां सोचना होगा ‘आनर’ है क्या ?. इसे 'कस्टोडियन' (custodian) किलिंग कहना चाहिए. यह फ़िल्म भारतीय समाज की संरचना पर जलता हुआ सवाल है.  



प्रेम पानी से तरबतर सैराट                                
 कैलाश वानखेड़े



मेरे पास शुरूआती शब्द नही है.सैराट के अंत के बाद निशब्द हो गया था.सबकुछ इतना अचानक हो गया था कि नन्हा आकाश घर से बाहर निकलते हुए रो रहा था. तब तक भीतर का बहुत कुछ टूटकर बहने की बजाय अटक गया था. अबोध बालक के पैर के निशान सड़क पर नही समाज के थोबड़े पर दिख रहे थे.लाल रक्तिम.वह चलता जा रहा था.वह रो रहा था.गली सुनसान थी.मल्टीप्लेक्स में अँधेरा सन्नाटे के साथ मरा पड़ा था, मुर्दा शांति से भरा हुआ.फिर लोग उठने लगे.मै बैठा रहा.  चुप था.लोग जा रहे थे.बैठा रहा मै.जैसे भूल गया था अपने आपको.अपने घर को.शहर को.नौकरी को.मन को.और जब गेट बंद करने वाला आया तब लगा अब तो जाना होगा.उठना होगा. दिमाग बंद था.जबान पर ताला जड़ दिया था.बस चुप था कि लगा, वो जो मारे जा रहे है, वे कौन थे?
मनुष्य..?

इस देश में किसी इंसान को किस रूप में पहचानते है.नाम से या शक्ल से.उसके काम से.क्या किसी मनुष्य को जानना इतना पर्याप्त नही है कि वह एक इंसान है? सच बताना नाम के साथ सरनेम जानकर और क्या जानना चाहते है?  उसका धंधा या उसकी हैसियत ? सरनेमविहीन आदमी से स्त्री से आखिर क्या परेशानी है ?

आप सोचियेगा, आपका दिमाग उसके बारे में कौन कौन सी जानकारी इकठ्ठी करना चाहता है?
तो नागराज मुन्जाले बड़े ही खिलदंडे अंदाज से माइक पकडकर परश्या की तलाश में हमें लगा देते है.परश्या एक झलक देखने की हसरत में हैंडपंप चला रहा है.कई बर्तन बिना डिमांड के भरकर दे रहा है.तमन्ना की भरी पूरी नदी से भरा हुआ है कि बस एक बार आर्ची दिख जाए.एक बार दीदार कर लू.ख़्वाब नींद में अब बडबडाने लगे है कि दोस्तों के साथ घरवालों को पता चल गया कि कालेज के पहले साल का यह मासूम किशोर अब इश्क की राह पर निकल गया है.इतना इतना आगे पहुँच गया है कि उसने एक ख़त लिख दिया.



ख़त.
प्रेमपत्र. जो लिखे नही जाते है, उसने लिख दिया.प्रेम करना और उसे खत में अक्षरों से हकीकत करना, कितना मुश्किल है? वो जानते है जिन्होंने इश्क किया लेकिन लिख नही पाए एक प्रेम पत्र.आपने किसी से प्रेम किया है?



प्रेम.
आर्ची उस ख़त को लिए बिना हर बार एक सवाल भेजती है, उस तुतलानी वाली उम्र के लडके के हाथ जिसके हाथ में परश्या का प्रेमपत्र है.ख़त पढ़ा नही गया और सवालों की लाइन राजमार्ग पर सरपट भागती है कि दर्शक को लगता है, अब क्या? जिज्ञासा, कौतुहल..क्या रिस्पांस होगा?वे सब चुप हो जाते है जिन्होंने प्यार किया लेकिन इजहार नही किया.हिम्मत नही हुई.ताकत नही थी कि लिख दे एक ख़त.चार लाइन अढाई अक्षर के साथ.एक लाइन लिख पाने की हसरत ताउम्र लिए बैठे थे कई, वे जो उम्र के अंतिम पड़ाव में या अधेड़ हो गए कि जिन्दगी से बेदखल हो चुके थे.जो इश्क में थे वे जानते है उस ख़त में क्या होगा, इसलिए वे प्रेम पत्र लिखते नही.

ख़त,  एक अनुरोध, एक निवेदन, एक मन, एक सपना, एक हसरत, एक जिन्दगी, एक विश्व ही तो है.ताउम्र की खुराक है प्रेमपत्र.जवाब मिले न मिले लिखा ही जाना चाहिए.परश्या जिसकी मां मछली बेचती है.खुशियाँ लाती है.बाप अपना घर मछली पकड़ने से चलाता है. मां बाप का सपना.पढ़ेगा तो कुछ बनेगा? अमूमन यही सपना देखा भोगा जाता है.जीवन यही है, यही माना है बापों ने.माओ ने और लड़का है कि लड़की के चक्कर में पड़ जाता है.लड़की प्यार में शिद्दत से डूब जाती है कि सभ्य समाज में पगला जाती है.जो प्रेम करते है वो पागल हो जाते है.पागल न बने अपने बच्चे, इसके लिए तमाम जतन करते है. लड़की अपने मन से जीने न लग जाए.कहाँ जीवन जिया है अपनी मनमर्जी से माओ बापों ने.वे अपनी जीवन का सबसे बड़ा बदला अपनी औलाद से लेते है.इसलिए बचपन से सिखाते है.आज्ञाकारी बनाने के लिए हर संभव हथियार का इस्तेमाल करते है.

सैराट में गाने बजते है.स्वप्नदृश्य के मनोहारी संसार में गीत के बोल किसी अनाम फूल के झाड से इस तरह झरते है कि पुरे सिनेमा हाल में बिखर जाते है. फूल, पेड़ आसमान और सूखे दरख्त पर परश्या और आर्ची की बजाय दर्शक खुद बैठ जाते है.वे जो प्यार करते है/करना चाहते थे वे. वे सब जो मनुष्य है.वे सब कैमरे के भीतर उस जगह पहुँच जाते है जहाँ से खुद को खुद की खबर नही मिलती.शब्द मिलते है जो इतने धीमे से दिमाग के अंदर दाखिल हो जाते है कि दिल की धडकन के सिवा कुछ सुनाई नही देता.

और तभी दलित कविता, नामदेव ढसाल से लेकर केशव सुत पढ़ाने में डूबा हुआ प्रोफेसर लोखंडे को एक लड़का दिखता है.जो सबसे बेखबर होकर मोबाइल पर बात कर रहा है.वे उससे पूछते है कौन हो तुम? वह लड़का जवाबी शब्दों के लिए जबान चलाने की बजाय अपना हाथ चलाता है.सटाक...गाल पर थप्पड़...लडके को यह बेहद अपमानजनक लगता है कि कोई उससे पूछे, तुम कौन हो? और लड़का चला जाता है.नाम है प्रिंस.उसी कक्षा में बैठी है आर्ची.बैठा है परश्या.और कई छात्र छात्राए.कोई आवाज नही आती.शाम ढले प्रिंस के पिता बुलाते है प्राचार्य,प्रोफेसरों को कि सब पहचान ले प्रिंस को ताकि इस तरह का गुस्सा दिलाने वाला सवाल कोई प्रोफ़ेसर न कर सके.अन्यथा प्रिंस का गुस्सा न जाने क्या कर बैठे.गर्वित है पिता, शर्मसार है बहन. कुछ भी कर सकता है की भावना के साथ श्रेष्ठता की ग्रन्थी प्रिंस का स्थाई मुकुट में तब्दील हो जाती है.

जिस घर में प्रिंस भी रहता है, उसका नाम है अर्चना. अर्चना बोले तो आर्ची. उस घर के कब्जे में है दूर दूर तक पसरा हुआ खेत, जिसमें गन्ने है.केले है और भी बहुत कुछ.गन्ने की खेती मतलब शक्कर कारखाना.शक्कर उत्पादान के साथ है कॉलेज.बड़ी बड़ी शैक्षणिक संस्थाओ का अर्थ है डोनेशन जो पढने और पढ़ाने वालों से लिया जाता है.शैक्षणिक संस्थाओं के निजीकरण का दूर तक पसरा हुआ खेत.जो जीवन में एक बार बोया जाता है और जब चाहा तब काटी जाती है फसल. इन सबका कुल जमा है सत्ता.अर्थतंत्र का गठजोड़ के साथ यहाँ की गरीबी का असली कारण सामाजिक असमानता का स्वर जो लोगों को सुनाई नही देता है.

सोलापुर का अर्थ मेरे लिए पंढरपुर के दर्शनाभिलाशी रमाबाई और अम्बेडकर का संवाद, कवि संत चोखामेला, लेखक योगिराज वाघमारे जी से मुलाक़ात और मेरे पिता द्वारा लाई जाने वाली सोलापुरी चादरे है.सोलापुर की सीमा कर्नाटक से लगी है.ये सारी बाते और इनका असर. सोलापुर जिले की इसी पृष्ठभूमि के साथ फिल्म मुखर होती है.गाँव क़स्बा और लोग...यही के है.इन्हीं बातों से बने बिगड़े है. सैराट का वातावरण.वेशभूषा में जो मेहनत है वो सोलापुर के मन को उतार देती है रुपहले पर्दे पर.फिल्म में वेशभूषा आर्थिक स्थिति, सामाजिक जीवन का बयान है. सोलापुर का शहर है, करमाळा. उसी तहसील के एक गाँव में नागराज का जन्म हुआ है.इसी कस्बे में फिल्म जवान होती है.इसी परिवेश में फेंड्ररी का कैशौर्य विकसित हुआ था.बार्शी सोलापुर उस्मानाबाद की सडक और कस्बे के भीतर जाकर पता चलता है अर्थतंत्र मुट्ठीभर लोगों के कब्जे में है और ढेर सारे मजूर. कम मजदूरी. ढेर सारा काम.तभी तो तीखी सब्जी का है वर्हाड़.वर्हाडी सब्जी मतलब पानी मांगने के लिए बेबस हो जाये.पानी पानी करती है जबान.




पानी.
पानी, किसके घर का पीना चाहिए.जाति व्यवस्था में खानपान दुसरे पायदान पर है.पानी जिसके घर पीना है, वह कौन है?जो पी रहा है वो कौन?

आर्ची जब परश्या के मां से पिने के लिए पानी मांगती है.तब मां बेटी की शक्ल पर जाति का इतिहास पढने को मिलता है.अमीर बाप की लड़की पानी नही मांगती है.जाति मांगती है पानी.वही आर्ची के मौसेरे भाई को पानी पिलाने के लिए दादी कहती है, तब कहता है कि वो पाटिल है.तब बुढिया कहती है, पाटिल को प्यास नही लगती?

प्यास सबको लगती है.सबको पानी चाहिए.सबको पानी मिले इसलिए ही तो हुआ तो महाड़ सत्याग्रह.चवदार तालाब के पानी का मतलब भेदभावरहित समाज की संकल्पना है जो इन दो दृश्यों में निर्देशक कह देता है.इसलिए आर्ची प्यास न होने के बावजूद परश्या के घर का पानी पीकर इस खतरनाक लाइन को तोड़ देती है.

उस समाज में, जो सोलापुर का होने के बाद भी देश के किसी भी जगह का हो सकता है, वहां प्रेम करने लगता है परश्या.आर्ची को उसके बहतर फीसदी अंक होने की बात रोमांचित करती है.उसका अंदाज और मासूमियत के बीच कब ये प्रेम खिलदंडता के साथ अपने उफान पर आ जाता है, पता ही नही चलता क्योंकि वे अपने आसपास के ही प्रेमी है.आसपास के प्रेमी का प्रेम देखना एक सपना है और इसे साकार करते है नागराज.इस समाज में प्रेम को गुनाह माना जाता है और अपनी जाति में हो तो वरदान समझ लेता है.इसलिए सयाने लोगबाग प्रेम सोच समझकर करते है.अपनी बिरादरी की अनिवार्य शर्त के बाद उसकी औकात अगर ठीकठाक है तो इस प्रेम को विद्रोह का नारा बनाने में कोई देर नही लगती.अकस्मात भी नही लगता है कि ऐसे प्रेम नियोजित षड्यंत्र होते है जो आपस में एक दुसरे ही के खिलाफ बुना जाता है. उस माहौल में मछली दूकान पर परश्या की मां को आत्या’(पिता की बहन) बोलते हुए प्रणाम करने के तरीके से तय कर देती है आर्ची की मंजिल.

गाँव में रहते हुए वो रायल इनफील्ड चलाती है.परश्या के घर आकर पानी पीकर कहती है, परश्या की मां बहन को कि वह अकेली जा रही है खेत में ट्रैक्टर चलाते हुए.अकेली..हाँ..अकेली ..कि परश्या को सुनाती है कि वह आ जाए गन्ने के खेत में.प्रेमिका की हिम्मत, इतनी है कि क्लास में या पीटी करते हुए वह जमाने भर को ठेंगा दिखाती है.कालेज में आर्ची से दूर रहने की सलाह देकर भीड़ परश्या की पिटाई करती है तो कहती है, किसी ने भी इसे हाथ लगाया तो उसकी खैर नही. और तमाम जोखिम उठाकर प्रिंस के बर्थ डे पर अपने घर परश्या को बुलाती है.जहाँ झींग झींग झिन्गाट बजता है.यह बिंदास नाच है.बिन्घास्त गाना है, जिस पर झूमझूमकर नाचना ही है, इसी तरह जीना है कि इसी का मतलब सैराट है....इसमें अकेला व्यक्ति अपने साथ अपने समूह के साथ एकाकार होकर खो जाता है, नाच में संगीत में ,गीत में.इसमें मन है, उत्साह है और ढेर सारा आनन्द. अपने हिसाब से अपने मन की सुनने वाली ये बिंदास हवा ही है सैराट.किसी की परवाह किये बिना जीने की उद्दाम लालसा का साकार रूप यहाँ आकर जीने लगती है कि बैठे बैठे पैर थिरकने लगते है. अजय अतुल का संगीत गाने झंझाट से आता है और परश्या की मुहब्बत का परचम लहराते हुए आता है कि दर्शक झूम उठता है.नाचने लगता है कि उसे परश्या की मुहब्बत की कामयाबी का जश्न मनाना है.इसलिए वह खुलकर जश्न में शामिल होता है.नाचता गाता है आल्हादित होता है.

यही से सैराट का दूसरा हिस्सा शुरू होता है.यही से प्रेम का मतलब पता चलता है.यही पर परश्या और दोस्तों की जानलेवा पिटाई होती है.यही से पता चलता है कि परश्या ने बिना सोचे बिना गणित के प्रेम किया है.सजा तो मिलनी चाहिए क्योंकि यह विजातीय प्रेम है.यह अमीर घर की लड़की से गरीब का प्यार नही है.गैर दलित लड़की से प्रेम...इज्जत पर डाका.रक्तशुद्धता के तमाम जकडबंदी को तोड़ने का अपराध है.तमाम परम्परा, संस्कृति को चुनौती देकर बाप की उस मर्दानगी पर सवालिए निशान लगने लगते है, जो अपनी बेटी को अपनी सम्पति मानता है.जब चाहेगा जिससे चाहेगा उससे शादी करवाने का उसे ठेका मिला है, इस ठेके के काम को ध्वस्त करने पर जो तिलमिलाहट है वह कई गुना इसलिए बढ़ जाती है कि परश्या उस जमात का प्रतिनिधित्व करता है जिसे हाशिये पर रखा गया है, जिसे गाँव बाहर सडने के लिए छोड़ दिया.जिसकी बार्डर तय है, वह बार्डर तोड़कर रक्त शुद्धता के महान सिद्धांत की ऐसी की तैसी कर देता है.जाति की बात इस बर्बरता को और बढ़ाती है जब गन्ने के खेत में सलीम कहता है, वो तुझे गाड देंगे...यह पक्का भरोसा है सलीम को.

इस अपराध की सजा में जवखेडा से लेकर ठेठ तमिलनाडु तक टुकड़े टुकड़े करने में कोई हिचक नही होती है, महानता का इतिहास का ढोल पीटने वालों को.यह तब और अपने बर्बरतम रूप में दिखती है कि इस प्रेम की सजा मां बाप को मिलती है., आख़िरकार परश्या के बहन की शादी न होना और परिवार को अपना गाँव छोड़कर जाना ही पड़ता है.परश्या का बाप अपने गाल पर चांटे लगाते हुए अपनी भाषा भूल जाते है.अपनी भाषा को भूलना मतलब अपने आपको खो देना, अपनी जमीं से बेदखल हो जाना है.अब गाँव बाहर भी नही रह सकते.सीमा रेखा पार भी नही.दिखना नही चाहिए.दिखा तो जान ले लेंगे.विदर्भ में मुझे मेरे ममेरे भाई के बेटे का अपराध याद आता है.घर छोडकर उनका रहना दिखता है.सब घटित होता है, मेरे भीतर.वह पिता मेरे ममेरे भाई में बदल जाता है.


आख़िरकर पकडे जाते है दो दोस्तों के साथ आर्ची परश्या.आर्ची को ममेरा भाई बताता है, बलात्कार, अपहरण का केस परश्या पर लगा दिया है.आर्ची उसी आक्रमकता से थानेदार से लडती है.मैं ले गई थी परश्या को.अपनी मर्जी से गई थी.उसे और साथियों को छोड़ दो.बाप तमाम हैसियत के बाद भी निरीह दिखता है.वे तमाम बाप वो व्यवस्था चाहते है कि परश्या और उसके दोस्त जेल में सड जाए.जेल,  न्यायपालिका, पुलिस...जिन्दगी बर्बाद करने के लिए काफी है.छुड़ाती है सबको.जो साहस है, पहल है, हिम्मत है, वह सारी आर्ची में डाल दी लेखक निर्देशक ने.इस नजरिये से देखेंगे तो फिल्म मराठी की नायिका की छवि को तोडती है.वही दलित नायक के बहाने दलित जीवन की त्रासदी को उकेरती है.दर्द और जिन्दगी एक सी लगती है.वो जीवन उसका दर्शन बेहद संक्षिप्त रूप में दिखाकर उसका कैनवास इतना बड़ा कर दिया कि अपनी मर्जी की भेदभाव रहित जीवन जीने की चाह रखने वाले को यह अपनी फिल्म लगती है.वो लड़की जिसे कोख में मारने के बाद भी अपराधबोध से ग्रसित नही होता है समाज.वो लड़की जिसे पैदा होने के बाद मूलभूत अधिकार से वंचित किया जाता है.जिसे प्राइवेट प्रापर्टी मानकर दान किया जाता है.

जिसे पिता की सम्पति में कोई हिस्सा नही दिया जाता है.क्योंकि लड़की, मनुष्य नही सम्पति है.जिसे एक उम्र के बाद उस घर में नही रहना है.पराया धन है.अब उसकी अर्थी ही आनी है.उस समाज की आँख से सिर्फ आँख मिलाते है नागराज मुन्जाले. वे जो करते आ रहे है तयकथा,पटकथा,दलित व्यक्ति का जीवन,भूमिका,व्यवहार. उनको यह नागवार लगता है कि हीरो के रूप में दलित क्यों?यदि दलित ही रखना था तो फिर कथित ऊची जात की लड़की को प्रेमिका क्यों बनाया...क्यों?

सैराट अपने समय के परिवर्तन को बेहद सहज तरीके से दृश्यांकित करती जाती है. फिर महिला का विधायक होना हो,या आर्ची का पुरुष अधिकार मान लिए गए वाहनों की ड्रायविंग करना या प्रेमी के लिए बंदूक लेना या थानेदार से पिता से भिड़ना.

सैराट एक नायिका प्रधान कमर्शियल फिल्म है. डाक्यूमेंट्री नही है. इसलिए इसमें झिंगाट संगीत और गाने है. लेकिन यह आम फिल्म नही है. आप इसे किस जगह से खड़े होकर देख रहे है?क्या देख रहे है?एक अदना सा दृश्य,दो शब्द,बर्ताव,चेहरे के भाव तय कर देते है पूरी फिल्म के उद्देश्य को. अब दलित को गाली देना उतना सरल नही रहा तो वे अपनी घृणा की अभिव्यक्ति इसी तरह से बदले हुए शब्द,बर्ताव और हाव भाव से कर प्रताड़ित करते है. प्रताड़ित होने वाली की निगाह से सैराट में बहुत कुछ टूटता,बनता है?यह  समझा पाना मुश्किल है क्योंकि जहाँ सर्वज्ञ से भरा हुआ ज्ञान है,वहां अभी तक जिस तरह से जाति आई है फिल्मों में उस तरह से इसमें जाति सामने नही आती. इसमें तो वह बिना बडबोलेपन से,गाली से. भाषण से नही आई. वह चेहरे पर,उसके व्यवहार में परिलक्षित होती है. 

इस तरह से दिखती है कि चुभती है. अपना जीवन और सपने को एक बड़ी खेप फ़िल्म देखने आ रही है कि सैराट मराठी फिल्म इतिहास की सबसे बड़ी सुपर हिट हो गई है.
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लेखक कैलाश वानखेड़े का सत्यापनकहानी संग्रह चर्चित है और वह सम्प्रति म.प्र.राज्य प्रशासनिक सेवा में कार्यरत हैं.
kailashwankhede70@gmail.com
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.विष्णु खरे के  आलेख के लिए यहाँ क्लिक करें

सैराट : संवाद (४): जयंत पवार

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हिंदी के प्रारम्भिक लेखक हिंदी के साथ साथ मराठी भी जानते थे. भारतेंदु ने अपने नाटकों में मराठी का प्रयोग किया है. सरस्वती के महान संपादक महावीरप्रसाद द्विवेदी ने मराठी से हिंदी में पर्याप्त अनुवाद किये हैं.  

‘सैराट’ संवाद  भाषाओँ की सीमा से परे जा चुका है. समालोचन में यह चौथा आलेख न केवल ‘मराठी मानुष’ का है बल्कि मराठी में है. इससे पहले इस पर विष्णु खरेका हिंदी में लिखा, आर. बी. तायडेका अंग्रेजी में तथा कैलाश वानखेड़ेका हिंदी में लिखा आलेख पढ़ चुके हैं. समालोचन इस तरह से हिंदी-मराठी सहयोग का भी मंच बन चुका है.

मराठी जानने और हिंदी में लिख सकने वाले पाठक  आलेख के हिस्सों का अनुवाद टिप्पणी में दे तो और बेहतर रहेगा.




प्रेक्षक का ''सैराट''झाले असावेत?                                      
(क्या दर्शक ''सैराट''हो जाएँ ?)
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जयंत पवार 



काल एक सामाजिक कर्तव्य केलं. नागराज मंजुळेचा 'सैराट'पाहिला. एखादा महत्त्वाचा सिनेमा पाहायचं राहून जातं अनेकदा.त्याविषयी कोणी मुद्दाम पृच्छा करत नाही. पण 'सैराट'प्रदर्शित झाल्यापासून लोक एकमेकांना विचारताहेत, 'सैराट'पाहिला का? जणू तो बघणं हे तुमचं कर्तव्य आहे, असा विचारण्यामागचा सूर असतो. त्यामुळे हा सिनेमा बघणं एक सामाजिक कर्तव्य बनलं होतं. ते काल पार पाडलं.


मी सिनेमा बघितला तो उपनगरातल्या एका मल्टिप्लेक्समध्ये. थिएटर निम्म होतं आणि गाण्याला लोक नाचत नव्हते. त्यामुळे सिनेमा नीट बघता आला. अर्थात सिनेमा बघत असताना लोक तो कसा बघताहेत हा देखील एक बघण्याचा भाग असतो. थिएटरात काही अमराठी लोक होते. अर्थातच बरेच मराठी होते आणि त्यांचं अनेक जागांना दाद दिल्यासारखं आलेलं हसू कानी पडत होतं. शेवट झाल्यावर काही जण डोळे पुसत बाहेर पडत होते. सोशल नेटवर्कवर या सिनेमाबद्दल आणि विशेषतः त्याच्या शेवटाबद्दल इतकं लिहिलं गेलंय की आता त्यातला शॉक एलिमेंट निघून गेलाय. पण त्याचा एक उलटा परिणामही झाला. शेवटाकडचा भाग बघताना, आता आपला शेवट आला असं एखाद्याला वाटल्यावर त्याचं जे होईल तशी काहीशी माझी अवस्था झाली. 'कॅफे मद्रास'सिनेमात बॉम्बस्फोट होण्यापूर्वी तो बॉम्ब कमरेला बांधून निघणारया दहशतवादी मुलीला वस्त्रं नेसवली जातात, तेव्हा सगळे आवाज दिग्दर्शकाने म्यूट केले आहेत. जणू तो एक भयानक सोहळा चालला आहे. लग्न करून परक्या घरी निघलेल्या मुलीची पाठवणी करताना केल्या जाणाऱ्या तयारीप्रमाणे. तो बघताना जशी कालवाकालव होते, तशी इथे झाली. आधीच्या प्रेक्षकांप्रमाणे मी बेसावध पकडला गेलो नाही. त्यामुळे हादरलो नाही, पण गुदमरलो.
एकूण चित्रपट त्याच्या गुणदोषांसकट आवडला. खरंतर त्याचे जितके गुण सांगावेत तितकेच किंवा अधिक त्याचे दोष सांगावे लागतील. किंबहुना संपूर्ण सिनेमा बघितल्यावर हा मराठीतला सवौत मोठा ब्लाकबस्टर कसा काय झाला बुवा, असा प्रश्न पडला. अतिशय पसरट मांडणी आणि नेमकेपणाच अभाव हा कलात्मकतेत अडसर ठरणारा सर्वात मोठा दुर्गुण या सिनेमात चिकटलेला आहे. आणि कलाकृतीचा कालावकाश कमी होण्याच्या आजकालच्या काळात 'सैराट'ची तीन तासांची लांबी हा चिंतेचा आणि प्रेक्षकांच्या सहनशक्तीची कसोटी बघणारा विषय ठरू शकला असता. तरीही यावर मात करून प्रेक्षकांनी तो पाहिला, एंजॉय केला आणि अनुभवला. हा एक चमत्कार वाटावा असाच अनुभव आहे. हा चमत्कार केवळ मार्केटिंगमुळे शक्य होईल असं वाटत नाही. केवळ एका दिग्दर्शकाला ब्रॅण्ड व्हॅल्यू प्राप्त झाली म्हणून होईल, असंही वाटत नाही. 'सैराट'च्या यशाची कारणं काय आहेत, याचा शोध अनेकांना अनेक अंगांनी घ्यावा लागेल. त्याची कारणं कलाकृतीत आणि कलाकृतीच्या बाहेरही आहेत. एखादा प्रादेशिक सिनेमा जेव्हा उत्पन्नाचे सगळे विक्रम तोडून उभाआडवा पसरत जातो आणि त्याच्या लोकप्रियतेची साथ वाऱ्याच्या वेगाने फैलावते तेव्हा त्या यशाचा अर्थ शोधावा लागतो. त्यातून सिनेमाच्या मोठेपणाची कारणं कदाचित हाताला लागणार नाहीत, किंबहुना जी लागतील ती फसवीच असतील पण समाजाच्या एका मोठ्या भागाच्या अभिरुचीची, बदलत्या संवेदनांची दिशा कळू शकेल. 
'सैराट'बघताना मला त्यातल्या लक्षणीय वाटलेल्या काही मोजक्या गोष्टी म्हणजे रचलेल्या संवादांचा पूर्ण अभाव. ते वास्तवात जसे झडतील तसेच ठेवणं. त्यामुळे ते बोलण्याची रीतही अघळ पघळ, अस्पष्ट आणि बहुजनी वळण्णाची. प्रमाणभाषेचं व्याकरण मोडणारी. वाक्यरचनेतला तर्क झुगारणारी. नायकाच्या सोबत असलेल्या त्याच्या दोन फाटक्या मित्रांचं अस्सल व्यक्तिरेखाटनही बघण्यासारखं आहे. यातला लंगड्या तर फारच भारी. तो साकारणाऱ्या कलाकाराची अदाकारी जबरदस्त आहे. दोन दृश्यांत लंगड्याच्या समोरून किंवा पार्श्वभागी कोणी दुसरा लंगडा माणूस सरकताना दिसतो. एका सीनमध्ये बुटका समोरून येतो. हे सामान्य दरिद्री माणसांचं पंगूपण, असहाय्यता चिन्ह बनून पसरत राहातं. सिनेमा फॅण्टसीकडून वास्तवाकडे क्रमशः सरकत येतो. पहिल्या भागातल्या परीकथेतही दिग्दर्शक नायकाच्या आणि नायिकेच्या मागे असलेला वास्तवाचा पदर घट्ट धरून ठेवतो. त्यातून पेरलेले अर्धनागर ग्रामीण व्यवस्थेतले जातीय संदर्भ नीट पोचतात. पाटलाचा पोर  लोखंडे नावाच्या दलित शिक्षकाच्या कानाखाली आवाज काढतो, त्याचं बापाला कौतुक वाटतं. हाच लोखंडे पर्शाला म्हणतो, तू झोपलास ना तिच्याबरोबर (पाटलाच्या पोरीबरोबर), मग दे सोडून. त्यांनी पण हेच केलं. हे जातीय संदर्भ ठळकपणे येणं ही देखील कदाचित प्रेक्षकांना सुखावणारी गोष्ट असेल. यात रूपवान नसणाऱ्या, अभावात जगणाऱ्या तरुण तरुणींचं रोमँटिक आयुष्य वास्तवाच्या जवळ जात त्यातला रोमँटिसिझम, हिरोइझम गोंजारतं. आजवरच्या पडद्यावरच्या प्रेमकथांतले नायक-नायिका तरुणाईला सुखावून गेलेही असतील, पण इथे प्रेक्षकांतले पर्शा, आर्ची, लंगड्या. सल्लू, आनी पडद्यावरच्या पात्रांत स्वतःला पाहतात. त्यांच्या भोवतालचं वास्तव असंच हिंसक, निर्दयी आणि अभावाने भरलेलं आहे. त्यात ते जगण्याचे दिलासे शोधतात. त्यांच्या परीकल्पना आणि वास्तव दोन्ही 'सैराट'ने समोर ठेवलंय आणि हळूच भविष्याच्या चित्राची गुंडाळीही उलगडलीय. या देशातल्या सर्वसामान्य युवक-युवतींचं जगणं एका तीन तासांच्या कॅप्सुलमध्ये बंद करून नागराज मंजुळेने आपल्यासमोर ठेवलंय.
या संपूर्ण सिनेमाला बहुजन संस्कृतीचं अस्तर आहे, ज्याच्यामुळे सिनेमात बहुसंख्यांना आपला आवाज ऐकू येतो. सिनेमा आपलंच एक सौंदर्यशास्त्र रचत जातो. जे अभिजनांना किंवा कलात्मकतेचा अभिजनी संस्कार असणाऱ्यांना खोटं, सोयीचं आणि नीरस वाटू शकतं. या सिनेमाला ठाशीव आणि घडीव आकार नाही. वाहणाऱ्या ओढ्यासारखा तो कसाही जात राहतो, पण त्याला स्वतःची गती आहे आणि स्वाभाविकता आहे. 
हा सिनेमा बघायला आलेला बहुजन तरुण प्रेक्षक राज्यातल्या लहान मोठ्या थेटरात घुसला आणि गाण्यांवर पैसे फेकत नाचला. आपण मोठ्या शहरातल्या मल्टिप्लेक्सेसमध्ये जाऊन तिथल्या थेटरात सीटवर उभं राहून नाचू शकतो, तिथे आता उच्चभ्रू नाहीत तर आपल्यासारखेच लोक अधिक संख्येने असणार, त्यामुळे पायात स्लिपर असली तरी तिथे बिचकून राहायचं कारण नाही, दणकून नाचायचं, हा एक वेगळाच कॉन्फिडन्स या सिनेमामुळे त्याला मिळाला. हा आपला चेहरा दाखवणारा आणि आपल्याच आवाजात बोलणारा सिनेमा आहे, ही जाणीव 'सैराट'ने त्याला त्याच्या नकळत दिली आणि तो बेभान झाला असावा. 
ही आणि अशी अनेक कारणं 'सैराट'च्या सुसाट यशामागे सुप्तावस्थेत असावीत. 'सैराट'चं यश हे त्याच्या कलात्मकतेत  कमी आणि त्याच्या आत आणि बाहेर असलेल्या अशा काही समाजशास्त्रीय गोष्टींमध्ये अधिक आहे. 
आता याच्यापुढे बहुजन संवेदनेच्या कलाकृतींपुढची जबाबदारी वाढली आहे. त्यात कप्पेबाज मांडणी करणं सोयीचं असलं तरी वास्तवाच्या सुलभीकरणावाचून त्यातून काही निष्पन्न होणार नाही. जातवास्तवाची आता उघड उघड मांडणी लोकांना हवी आहे. ती त्यांची गरज बनते आहे असं दिसतं. आणि हे वास्तव गुंतागुंतीचं आहे. वास्तवाचाच वेध घ्यायचा तर पाटलाची खलनायकी नेहमीच उपयोगाला यायची नाही. 'ख्वाडा'आणि 'सैराट'मधल्या चित्रणाने मराठा जातीतला काही वर्ग दुखावला असेल तर अशी जातीय अस्मिताही उपयोगाची नाही. कारण त्यातलं चित्रण खोटं नाही. ज्याप्रमाणे ब्राह्मणांवरील टीका ब्राह्मणांतल्या समंजस आणि पुरोगामी वर्गालाही एक समजदारी दाखवून झेलावी/ सहन करावी लागेल तशीच टीका मराठा वर्गालाही झेलावी लागेल. त्याला गत्यंतर नाही. ही झेलतच या जातीला आपल्यातला ताठरपणा कमी करत आणि स्वतःला सुधारत पुढे जावं लागेल. पण त्याच बरोबर हेही खरं नव्हे की अन्य जाती या शोषितच आहेत. 


शोषणकर्ते त्यांच्यातही आहेत. ते सर्व जातींत आहेत. प्रत्येक जात आपल्या खालच्या जातीला पाण्यात बघत असते आणि सोयरिकीचा विषय आला की पाशवी होते. ऑनर किलिंग प्रत्येक जातीत होतं आहे आणि अशी असंख्य उदाहरणं या महाराष्ट्रात घडलेली आहेत. आणि पुरुषसत्ताकतेने तर अगदी तळातल्या जातीलाही ग्रासलेलं आहे. तळाच्या जातीतली स्त्री ही सर्वाधिक शोषित आहे. त्यामुळे बहुजन कलावंतांना यापुढे वास्तवाला भिडताना शोषणाच्या या आतल्या पदरांना धीटपणे भिडावं लागेल. असं भिडताना प्रत्येक जातीच्या अस्मिता जाग्या होऊन त्या कलाकृतींचा गळा घोटायला कदाचित मागेपुढे बघणार नाहीत. पण या सेन्सॉरशीपचं आव्हान बहुजन लेखक कलावंतांना घ्यावंच लागेल. 'सैराट'ने हे आव्हान घेतलेलं नाही पण पुढची दिशा मात्र स्पष्ट केली आहे. दुसरा कोणीतरी आपल्यावर अन्याय करतो हे वास्तव सोयीचं असतं पण आपणच आपल्या माणसावर अन्याय करतो हे दाखवणं सोपं नसतं, पाहाणं सोयीचं नसतं. पण मानवता जागवण्याची तीच वाट असते. 


'फॅण्ड्री'तल्या जब्याने फेकलेला दगड किंवा आर्ची-पर्शाच्या मुलाची रक्तात भिजलेली घराबाहेर पडणारी पावलं आपल्या जिव्हारी लागली असतील तर कलाकृतीतल्या कलात्मकतेच्या चर्चेपेक्षा ती मोठी गोष्ट आहे. पण या दगडाची आणि पावलाची पुढची दिशा टिपणं अधिक अवघड आहे.
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जयंत पवार मराठी के शीर्षस्थ कथाकार,नाटककार तथा नाट्य समीक्षक हैं. उनके नाटकों के अनुवाद और मंचन हिंदी में भी हुए हैं. हिंदी में उन्हें राजकमल ने प्रकाशित किया है. कहानी के लिए साहित्य अकादेमी से पुरस्कृत हैं. टाइम्स ऑफ़ इंडिया के मराठी दैनिक 'महाराष्ट्र टाइम्स'में वरिष्ठ पत्रकार हैं.
pawarjayant6001@gmail.com
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