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मीमांसा : हर्बर्ट मार्क्युज़ :अच्युतानंद मिश्र

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जर्मन-अमेरिकी दार्शनिक, समाजशास्त्री और राजनीतिक चिंतक हर्बर्ट मार्क्युज़ (Herbert Marcuse, July 19, 1898 – July 29, 1979)फ्रैंकफर्ट स्कूल के सिद्धांतकार  माने जाते हैं.मार्क्सवाद से उनका लम्बा सार्थक संवाद चला है. शुरू में तो उन्हें मार्क्सवाद विरोधी मानकर तिरस्कृत ही किया गया पर बाद में उन्हें पूरक की तरह देखा जाने लगा. वैचारिक असहमतियों की विचार के विकास में अहम भूमिका होती है. इसे आज सबसे अधिक समझने की जरूरत है.

युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र ने विस्तार से इसकी चर्चा की है. आज के समय को समझने में यह आलेख सहायक है. और हर्बर्ट मार्क्युज़ पर एक मुकम्मल पाठ तो है ही.


मार्क्सवाद पर एक खुली बहस                             

अच्युतानंद मिश्र



ठारहवीं – उन्नीसवीं सदी के दौरान पूंजीवाद ने जो आधारभूत ढांचा निर्मित किया, क्या वह अब भी मौजूद है? वर्तमान दौर के पूंजीवाद को क्या पुराने पूंजीवाद के क्रमिक विकास के तौर पर देखना उचित होगा? इतिहास की जो चेतना मार्क्सवादी चिंतन ने उन्नीसवीं सदी के मध्य विकसित की क्या आज भी  हम उसी चेतना से संचालित हो रहे हैं?

वर्तमान से सम्बद्ध ये कुछ गंभीर और जरुरी प्रश्न थे.जर्मन और फ्रेंच दार्शनिकों ने लगातार इन प्रश्नों पर अलग अलग कोणों से विचार किया. उनके निष्कर्ष एक दूसरे से भिन्न हैं, लेकिन इस विविधता से एक नई समग्रता निर्मित होती है.इस समग्रता में मौजूद आत्मचेतना को उस बाह्य वस्तुपरकता के क्रिटीक के तौर पर भी देखा जा सकता है, जो बीसवीं सदी के पूंजीवादी विकास के मूल में मौजूद रहा.20 वीं सदी के मध्य तक दार्शनिकों ने इस आत्मचेतना को एक बहुलतावादी दृष्टिकोण में बदलने का प्रयत्न किया.यही वजह है कि एक से लगते हुए प्रश्नों पर भिन्न- भिन्न रास्तों से जवाबों की तलाश की गयी.इस क्रम में एक नये तरह की विषयवत्ता की प्रस्तावना जर्मन दार्शनिक हर्बर्ट मार्क्युज़करते हैं.

मार्क्युज़का जन्म जर्मनीमें हुआ.वे प्रथम विश्वयुद्ध में शामिल रहे और उसके पश्चात् उन्होंने अकादमिक अध्ययन से खुद को दुबारा जोड़ा.आरंभिक अकादमिक जीवन और चिंतन में उनपर हाईडेगरका बहुत प्रभाव पड़ा.हाईडेगर के अस्तित्ववादी अवधारणा से मार्क्सवादी अवधारणा के जुड़ाव की संभावनाओं पर विचार करते हुए उन्होंने अपने अकादमिक जीवन की शुरुआत की. 30’ के दशक में हाईडेगर का जुड़ाव नाज़ी आन्दोलन से हुआ.वे उसके सिद्धांतकार बने.मार्क्युज़ने इसी बिंदु पर हाईडेगर से अपना नाता तोड़ लिया.मार्क्युज़ के आरंभिक चिंतन पर गैर-मार्क्सवादी चिंतकों का प्रभाव अधिक है.तीस के आरंभिक वर्षों में मार्क्स की अप्रकाशित पांडुलिपियाँ प्रकाशित हुयी.इन पांडुलिपियों के प्रकाशन से मार्क्युज़ के लिए चिंतन और विश्लेषण की एक नई दुनिया का दरवाज़ा खुला.यहाँ से उन्होंने मार्क्सवाद की अविकसित संभावनाओं पर विचार किया.

मार्क्युज़, मार्क्सवाद और जर्मन आदर्शवाद के मध्य सम्बन्धों की तलाश करते हैं.कांट ने तर्क की महत्ता स्थापित की.इस तर्क के मूल में मनुष्य की मुक्ति का संकल्प मौजूद था.मुक्ति का व्यवहारिक संकल्प फ्रेंच क्रांति में देखा जा सकता था.जर्मन आदर्शवादी मुक्ति का सिद्धांत गढ़ रहे थे.हीगेल और मार्क्स के समक्ष फ्रेंच क्रांति और जर्मन आदर्शवाद यानि व्यवहार और सिद्धांत दोनों के द्वैत में मुक्ति की चेतना का स्वरूप निर्मित हो रहा था.एक नया समाज और एक नई सामाजिक चेतना विकसित हो रही थी.हीगेल इसी विकसित चेतना में व्यक्ति की तलाश एक बुद्धिवादी मनुष्य के रूप में करते हैं.वे द्वंदवाद को मनुष्य के आत्मविकास के रूप में चिन्हित करते हैं.इसे ही आगे चलकर मार्क्स ने सामाजिक विकास की परिकल्पना से जोड़ दिया.

क्रांति जर्मनी में नहीं हुयी वह फ्रांस में हुयी.इस संदर्भ में अपनी आरंभिक पुस्तक रीज़न एंड रिवोल्यूशन में मार्क्युज़ लिखते हैं . जर्मनी की अर्थव्यवस्था फ्रांस और इंग्लैंड की अपेक्षा काफी कमज़ोर थी.जर्मन मध्यवर्ग बेहद कमजोर और विश्रृंखलित था.ऐसे में जर्मनी में क्रांति संभव नहीं थी.फ्रांस में जो कुछ वास्तव में घट रहा था, वह जर्मनी में आदर्श के तौर पर मौजूद था.वहां सबकुछ एक दार्शनिक विवेक के स्तर पर समाज में घटित हो रहा था लेकिन फ्रांस में वास्तव में वह होता नज़र आ रहा था.1

कान्ट, फ़िक्टे और शेलिंग से होते हुए जर्मन आदर्शवाद जब हेगेल के समक्ष आया तो उन्होंने उसे व्यवहार और दर्शन के द्वैत में विकसित किया.मार्क्युज़ का मानना था कि हीगेल मनुष्य की स्वतंत्रता को नये सिरे से समझने और व्याख्यायित करने का जो प्रयत्न करते हैं, वह बेहद महत्वपूर्ण है.हीगेल के अनुसार मनुष्य की स्वायत्त चेतना का निर्माण तर्क द्वारा ही संभव है.उनका स्पष्ट मानना था कि तर्क द्वारा ही हम सही गलत के निर्णय पर पहुँचते हैं.फ्रांसिसी क्रांति ने मनुष्य के विवेक के समक्ष क्रांतिकारी परिवर्तन ला दिया.मनुष्य अपने विवेक पर नये सिरे से यकीन करने लगा.उसका यह यकीन दरअसल उसकी स्वायत्त और आधुनिक चेतना थी.हीगेल का कहना था कि जो कुछ मनुष्य के विवेक से बाहर है वह तर्क से परे है.हीगेल की इस दृष्टि में भविष्य की दुनिया का स्वप्न था.मार्क्युज़ हीगेल के इस दृष्टिकोण को अपने चिंतन के केंद्र में लाते हैं.संभवतः वे 20 वी सदी के अकेले दार्शनिक है जो मनुष्य की स्वायत्त आत्मचेतना की परिकल्पना को कभी नहीं छोड़ते.सरल भाषा में कहा जा सकता है कि मनुष्य की आत्मचेतना की स्वायत्ता ही मार्क्युज़ के चिंतन एवं लेखन का केंद्रीय पहलु है.मार्क्युज़ लिखते हैं - मनुष्य एक चिंतनशील प्राणी है.उसका विवेक उसे अपनी क्षमताओं और दुनिया के प्रति आस्वस्ति देता है.इस तरह वह महज़ अपने इर्द गिर्द मौजूद तर्कों पर ही आश्रित नहीं है, बल्कि वह अपने इर्द गिर्द को नये सिरे से तर्कों द्वारा विकसित भी करता है ..वह स्वतंत्रता के लिए इतिहास में संघर्षरत रहा है.वह अपने व्यक्तित्व का निर्माण करता है.इसी प्रक्रिया में वह पूर्णता की तलाश करता है और मानवीय गुणों को निर्मित करता है .हालाँकि अधीनता और असामनता मौजूद है .अधिकांश लोगों के पास स्वतंत्रता नहीं है.वे सम्पत्ति के आखिरी टुकड़े से भी वंचित हैं.इसलिए इस अतार्किक वास्तविकता को बदला जाना चाहिए.उसे तर्क के अनुरूप ढाला जाना चाहिए तभी वर्तमान स्थिति में मौजूदा सामाजिक यथार्थ का पुनर्संयोजन हो सकता है.सर्वसत्तावाद और सामन्तवाद के अवशेषों को पूरी तरह नष्ट किया जाना चाहिए2

मार्क्युज़ के लिए हीगेल के बुद्धिवाद से मनुष्य की मुक्ति का नया दायरा विकसित होता है.अपनी वर्तमान स्थिति पर विचार करने के लिए वह सामाजिक यथार्थ से टक्कर लेता है.वह अपने विवेक को अपनी स्वायत्त चेतना के नये अस्त्र के रूप में विकसित करता है.हीगेल ने यह कहा कि हर मनुष्य का विवेक भिन्न हो सकता है, लेकिन उन भिन्नताओं से निर्मित सार्वभौमिकता की पहचान की जानी चाहिए.प्रगतिशील सामाजिक विवेक का निर्माण उसी सार्वभौमिकता के द्वारा किया जा सकता है .हीगेल यहाँ यथार्थ के निर्माण में आत्मचेतना के महत्व को इंगित कर रहे थे.

आत्मचेतना के इस नये बोध का प्रसार हीगेल और जर्मनी तक ही सीमित नहीं था.19 वीं सदी के पूर्वार्ध में वह भारतीय नवोदित मध्यवर्ग की चेतना से भी टकराने लगा.राजाराममोहन रायजिस सामाजिक परिकल्पना को रख रहे थे उसमें भी इस आत्मचेतना की केंद्रीय भूमिका देखी जा सकती है.अगर हम थोड़ा ध्यान से देखें तो वे जिन प्रश्नों को उठा रहे थे उनसे एक आधुनिक भारतीय मनुष्य की परिकल्पना निर्मित हो रही थी.वे मनुष्य की मुक्ति को नई तार्किकता की पहचान के रूप में देख रहे थे.इस आत्मचेतना में सामन्ती अतार्किकता का निषेध मौजूद था.यह कहना अधिक प्रासंगिक होगा कि राजरामोहन राय की आधुनिकता का मूल सरोकार समाज की उस अतार्किकता से था, जिसमे व्यक्ति की पहचान का निषेध मौजूद था.व्यक्ति की पहचान से उनका तात्पर्य व्यक्तित्व निर्माण से था.यहाँ से हम नये भारतीय आत्मनिर्माण या आत्मबोध के लिए विकल मन की पहचान कर सकते हैं.

यह विकलता भारतीय स्वाधीनता संग्राम कि एक बहुत बड़ी उपलब्धि थी.आत्म के पहचान और खोज की यह कोशिश राजाराम मोहन राय से होती हुयी गांधी तक आती है.आधुनिक भारत की परिकल्पना का निर्माण दरअसल इसी आत्म के वैविध्य में विकसित हो रहा था.जर्मन आदर्शवाद और यूरोपीय नवजागरण की चेतना का द्वैत जिस आधुनिकता की परिकल्पना को प्रस्तुत कर रहा था, वह मानवीय विवेक का एक वैश्विक दृश्य रच रहा था.हीगेल और मार्क्स को मार्क्युज़ इसी परपरा के सबसे उज्ज्वल पक्ष के रूप में व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं.इस अर्थ में मार्क्युज़ एक क्रांतिकारी काम कर रहे थे, वे हीगेल और मार्क्स के अंतर्विरोधों को उभारने की बजाय उनमें मौजूद चिंतन की क्रमिकता की तलाश कर रहे थे.मार्क्युज़ का मानना था कि हीगेल की दार्शनिक चिंताएं बहुत ठोस होती नज़र आती हैं.उनके अनुसार हीगेल एक ऐसे दर्शन का आधार निर्मित कर रहे थे, जिसके मूल में मनुष्य और उसकी परिस्थितियाँ थी.अमूर्त विचार नहीं.इस तरह हीगेल तर्क और विवेक के रास्ते मनुष्य के अस्तित्व की पहचान कर रहे थे.मार्क्स हीगेल की इस आत्मचेतना को सामाजिकता प्रदान कर प्रासंगिक बना देते हैं.इस अर्थ में हीगेल के आत्म की अवधारणा को मार्क्स सामाजिकता के दायरे में ले आते हैं.यही वह बिंदु है जहाँ मार्क्स का दार्शनिक अवदान एक क्रांतिकारी भूमिका अदा करता है.वे चेतना की गतिशीलता और समाज की गतिशीलता के बीच मनुष्यता की पहचान करते हैं.वह मनुष्यता जो दुनिया को बदल कर अधिक मानवीय बनाना चाहती है.

मार्क्युज़ के अनुसार मार्क्सवाद महज़ ज्ञान या आधुनिक विज्ञान भर नहीं है.वह एक ऐसी क्रांतिकारी विचारधारा है जिसके तहत बुर्जुआ समाज का विश्लेषण एवं उसकी आलोचना की जा सकती है.वे हीगेल की चेतना की अवधारणा को 20 वीं सदी के आत्म की हाईडेगर की अवधारणा के समकक्ष लाते हैं.इसी संदर्भ में बीसवीं सदी में मार्क्सवाद की नई संभावनाओं की तलाश करते हैं.वे दृष्यप्रपंच विज्ञान और ऐतिहासिक भौतिकवाद के द्वंद्व को विकसित करते हैं.मार्क्युज़ का स्पष्ट मानना था कि मार्क्सवाद के दार्शनिक परिपेक्ष्य को विकसित किये जाने की आवश्यकता है.1932 में उन्होंने मार्क्सवाद की अर्थशास्त्र और दर्शन सम्बन्धी पांडुलिपियों पर The Foundation Of Historical Materialism’ शीर्षक लेख लिखा.

इस लेख में मार्क्युज़ मार्क्स की आर्थिकी पर अधिक बल देने का विरोध करते हैं.वे कहते हैं कि इसका प्रभाव यह पड़ा कि लोगों ने मार्क्सवाद को एक आर्थिक विज्ञान के तौर पर लेना आरंभ किया.मार्क्युज़ के अनुसार मार्क्स की दर्शन सम्बन्धी मान्यताएं आधिक कारगर हैं जों उनके बाद के लेखन में अधिक व्यवहारिक नज़र आता है.मार्क्युज़ मार्क्स को दार्शनिक संदर्भ में पढने की वकालत करते हैं.मार्क्युज़ मार्क्स के आलोचनात्मक चिंतन को महत्व देते हैं और नये संदर्भ में विकसित करने की बात करते हैं.नये संदर्भ में इसलिए भी कि मार्क्सवाद की सीमाओं की पहचान के बगैर उसे आगे बढाया नहीं जा सकता है.मार्क्युज़ के अनुसार मौजूदा मनुष्य के तमाम संकटों को समझने के लिए मार्क्सवाद के दार्शनिक आयामों के विस्तार की जरुरत है.ऐसा क्यों ?

मार्क्युज़ चिंतन के केंद्र में मनुष्य की मुक्ति के सवाल को रखते हैं.वे पूछते है कि ऐसा क्यों होता है कि हर बार शोषितों का संघर्ष उन्हें वर्चस्व के नये और विकसित रूपों के समक्ष ला खड़ा करता है.क्रांति के दौरान हर बार ऐसे मौके आते हैं, जब यह लगता है कि अब जीत हासिल की जा सकती है लेकिन ऐसे मौके गुजर जाते हैं.मार्क्युज़ इस प्रश्न को अहम् मानते हैं.वे कहते हैं हर बार इस मौके का गुजर जाना क्रांति की गतिशील प्रक्रिया को ही प्रश्नांकित कर देता है.अगर क्रांति एक वैज्ञानिक चेतना का प्रतिबिम्ब है तो हर बार उसके परिणाम अपेक्षित गतिशीलता की तरफ इंगित करेंगे.परन्तु ऐसा नहीं होता.मार्क्युज़ इस न होने का विश्लेषण करते हैं.वे बताते हैं कि यह जरुरी है कि क्रांति की प्रक्रिया से सम्बद्ध  शक्तियों पर पुनर्विचार किया जाए.इसी प्रक्रिया के तहत वे मार्क्सवाद को फ्रायड के चिंतन से जोड़ते हैं.

शोषितों का संघर्ष जब किसी क्रांतिकारी प्रक्रिया को जन्म देता है तो उनका आत्म नये सिरे से रूपांतरित होता है.इस रूपांतरण की प्रक्रिया के साथ-साथ समाज की चेतना भी रूपांतरित होती है.लेकिन क्रांति के पश्चात् जब पराजय का सामना शोषितों को करना पड़ता है तो ऐसी स्थिति में शोषितों को ‘आत्म विघटन’ की स्थिति से गुजरना होता है.क्या इस ‘आत्म विघटन’ के बाद सर्वहारा उसी चेतना के स्तर पर खुद को और और समाज को ला पाता है जहाँ से उसने आरम्भ किया था? क्या इस पराजय के बाद जो दमन की प्रक्रिया तीव्र होती है वह शोषितों को कहाँ ले जाती है? क्या आत्म के विघटन के बाद वे क्रांति की प्रगतिशील चेतना के वाहक बने रह जाते है? क्रांति की अगली अनेक कारवाइयों से पूर्व शोषितों द्वारा कोई आत्म संघर्ष चलाया जाता है? मार्क्युज़ के अनुसार मार्क्सवादियों ने अब तक क्रांति की प्रक्रिया तक ही विचार किया है.

क्रांति के पश्चात् आत्म विघटन की प्रक्रिया से उबरने का रास्ता अब तक निकालने की बात नहीं सोची गयी.ऐसा इसलिए कि मजदूर वर्ग की चेतना का सरलीकरण कर दिया गया है.यह मान लिया गया है कि सर्वहारा की चेतना हमेशा उसे प्रगतिशीलता के नये आयामों की तरफ ले जाती है.इन प्रश्नों को समझने के लिए मार्क्युज़फ्रायड की आत्म चेतना की अवधारणा से मार्क्सवाद को जोड़ते हैं.आत्म विघटन के बाद नये सिरे से आत्मबोध का निर्माण, मार्क्युज़ इस प्रश्न को अपनी पुस्तक ‘एरोस एंड सिविलाइजेशन’, में उठाते हैं.

मार्क्युज़ क्रांति के लिए नये विषय की तलाश करते हैं.वे बताते हैं कि पराजय के बाद जब हम विषय में परिवर्तन की बात को अनिवार्य नहीं बनाते तो मार्क्सवाद की समूची चेतना अपनी दार्शनिकता से कट जाती है.वह एक अधिकारिक मार्क्सवाद का रूप ले लेती है.इस अर्थ में हम देखें तो मार्क्युज़ आरम्भ से ही हीगेल हाईडेगर और फ्रायड को मार्क्सवाद से जोड़ कर एक नये विषय की प्रस्तावना रखते हैं.  यह 19 वीं सदी के मार्क्सवाद की विषय प्रस्तावना से भिन्न है.

पराजय के बाद आत्मविघटन की स्थितियों से दुनिया के तमाम देशों में मार्क्सवाद को गुजरना पड़ा.70’ के दशक के बाद इस तरह के आत्मविघटन के दौर से भारतीय कम्युनिष्ट पार्टियाँ भी गुजरी.उन्होंने अपने विश्लेषण में हार के कारणों का विश्लेषण किया.यह भी समझने की कोशिश कि की भारतीय समाज की विविधता के मध्य कम्युनिष्ट पार्टियों को किस तरह काम करना चाहिए.लेकिन वे क्रांति के  पश्चात रूपांतरित आत्म की पहचान नहीं करते.परिणाम स्वरुप हम पाते हैं कि तमाम कम्युनिस्ट पार्टियाँ एक गहरे नैतिक संकट का शिकार होने लगती हैं.यहाँ यह याद करना विषयांतर नहीं होगा कि हिंदी के कवि मुक्तिबोधएक सच्चे कम्युनिष्ट के लिए आत्म संघर्ष को क्यों इतना बहुत महत्व देते थे.वे अस्तित्व की उलझनों से किनारा नहीं करते बल्कि उससे जूझते हैं.लेकिन मुक्तिबोध के इस आत्मसंघर्ष के पहलू को समाज के आत्म विघटन से उबारने की दिशा में उठाये गये कदम की तरह नहीं देखा गया.यहाँ से मुक्तिबोध की बेचैनी और उलझनों को समझने का नया रास्ता खुलता है.



(दो)
मार्क्युज़ मार्क्स के श्रम के सिद्धांत को विशेष महत्व देते हैं.उनके अनुसार श्रम की अवधारणा ही मार्क्सवाद को अनिवार्य और मानवीय बनाती है.यह बात जर्मन आदर्शवाद सम्बन्धी बहसों में भी देखी जा सकती है.मार्क्स इस बहस का समापन करते हुए कहते हैं कि ‘सवाल दुनिया को बदलने का है’  यानि उसे मानवीय बनाने का है.अब तक के दार्शनिकों ने सिर्फ दुनिया की व्याख्या की है लेकिन बदलने की चेतना के साथ दुनिया की व्याख्या नहीं की गयी है.मार्क्स इसकी जरुरत महसूस करते हैं.अपने दार्शनिक चिंतन की प्रक्रिया में वे इसे अनिवार्य मानते हैं.मार्क्स के यहाँ दुनिया के मानवीय बनने की परिकल्पना के केंद्र में मनुष्य का श्रम ही है.मार्क्स इस बात को मानते है कि श्रम के द्वारा ही मनुष्य स्वायत्त होता है.

मार्क्युज़ मार्क्स के श्रम की अवधारणा की व्याख्या करते हुए कहते हैं कि अन्य दार्शनिकों के ठंडेपन की अपेक्षा मार्क्स का दर्शन अधिक संवेदनशील और गरिमामय नज़र आता है.उनके अनुसार ऐसा इसलिए क्योंकि मार्क्स श्रम को महज़ आर्थिक प्रक्रिया के रूप में नहीं देखते.वे उसे मनुष्यता की रचनात्मक शक्ति के रूप में भी देखते हैं.इसलिए उनका मानना है कि श्रम के शोषण के द्वारा मनुष्य की रचनात्मक शक्ति को क्षीण किया जाता है और श्रमिक एक विलगाव की स्थिति में पहुँच जाता है.मार्क्युज़ कहते हैं कि मनुष्य का श्रम न सिर्फ उसे अपितु परिदृश्य को भी रचता है.अपने परिदृश्य से जुड़कर ही कोई मनुष्य बना रह सकता है.यह जुड़ाव वह श्रम द्वारा हासिल करता है.

द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पूंजी का स्वरुप पूरी तरह बदल जाता है.बीसवीं सदी को हम दो अलग अलग सदियों के तौर पर देख सकते हैं.पहला हिस्सा वह, जिसे हम उन्नीसवीं सदी के विस्तार के रूप में पाते हैं.यह विस्तार 1928 तक यानि आर्थिक मंदी तक देखा जा सकता है.आर्थिक मंदी के बेहद गंभीर प्रभाव समूची दुनिया पर पड़े.एक तरफ फासीवादी उभार तीव्र हो गया तो दूसरी तरफ साम्राज्यवादी लूट की संस्कृति चरम पर पहुँच गयी.इसके परिणामस्वरूप समाज और मनुष्य के अन्तर्सम्बन्धों में तीव्र परिवर्तन आया.मार्क्युज़ पूंजीवाद के इस नये युग के आरम्भ की विशिष्टताओं को चिन्हित करते हैं साथ ही मार्क्सवाद की असफलताओं को समझने की समकालीन मार्क्सवादी दृष्टिकोण की रुपरेखा भी विकसित करते हैं.मार्क्युज़ मार्क्सवाद की बुनियादी अवधारणाओं को वर्तमान के परिपेक्ष्य में व्याख्यायित करने का प्रयत्न करते हैं.मार्क्युज़ देखते हैं कि पूंजीवाद ने मार्क्स के श्रम के सिद्धांत को विकृत कर दिया है.

मार्क्स के लिए श्रम की भूमिका मनुष्य की सामाजिक प्रकृति के निर्माण में अहम् थी लेकिन श्रम को लालच से जोड़ दिया गया है.यहाँ मार्क्युज़ मार्क्स की अवधारणा को फ्रायड के सिद्धांत से जोड़ते हैं और पाते हैं कि श्रम को कामेच्छा में बदल दिया गया है.श्रम की भूमिका का यह रूपांतरण व्यक्तित्व के रास्ते समाज के चरित्र को बदल रहा है.मार्क्स के अनुसार उत्पादन की द्वंद्वात्मकता में श्रम की भूमिका निर्णायक थी.लेकिन श्रम के इस रूपांतरण ने उसे वर्चस्वादी द्वंद्व में रूपांतरित कर दिया है.इतिहास का संघर्ष एक नये वर्चस्व में बदल रहा है.समाज की क्रांतिकारी ताकतें जाने अनजाने इस वर्चस्व का हिस्सा बनती जा रही हैं.वे प्रश्न उठाते हैं क्या ऐसी स्थिति में श्रमिक के संघर्ष का कोई निर्णायक अर्थ रह जाता है? यही वह बिंदु है जहाँ से मार्क्युज़ मार्क्सवाद को नये सिरे से व्याख्यायित करते हुए नए सवालों और नये प्रस्थान बिन्दुओं की तलाश करते हैं.



(तीन)
जर्मन आदर्शवाद ने समाज में आलोचनात्मक विवेक को महत्वपूर्ण माना था.हीगेल ने तर्क को मानवीय विवेक में ढाला.हीगेल एक ऐसे आत्म निर्माण की बात करते हैं जो तर्क से संचालित होता था.मार्क्स के लिए मानवीय विवेक का निर्माण किन्हीं व्यक्तिगत प्रयत्नों के तहत नहीं बल्कि सामाजिक प्रक्रिया के तहत संभव था.इस सबके मूल में जो लक्ष्य था,वह था समाज का आलोचनात्मक विवेक निर्माण.मार्क्युज़ यह सवाल उठाते हैं कि बीसवीं सदी में आलोचनात्मक विवेक की पहचान किस तरह संभव है? वर्चस्ववाद का हमला महज़ बाहरी सत्ताओं तक सीमित नहीं रहा गया है, बल्कि वह हमारी मनोवैज्ञानिक एवं सांस्कृतिक चेतना पर भी काबिज हो चुका  है.समाज के भीतर क्या किसी किस्म की द्वंद्वात्मकता बची रह गयी है? ऐसे में क्या यह जरुरी नहीं कि हम द्वंद्वात्मकता को नये सिरे से समझने की कोशिश करें.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने आलोचनात्मक विवेक और द्वंद्वात्मकता की चेतना के भिन्न आयामों को नये सिरे से समझने की कोशिश की.ऐसी ही एक कोशिश की योजना होर्खाइमरएडोर्नोऔर मार्क्युज़ के बीच 40’ के दशक में बनी.उन्होंने द्वंद्वात्मकता को नये संदर्भ में विशेषकर फासीवादी क्रूरता के पश्चात् समझने और व्याख्यायित करने की अनिवार्यता को महसूस किया.मार्क्युज़ निजी जीवन की व्यस्तताओं के कारण इस परियोजना में शामिल नहीं रह सके.होर्खाइमरऔर एडोर्नों ने इस परियोजना को पूरा किया.Dialectics Of Enlightenmentशीर्षक से 40 के दशक में यह पुस्तक छपकर आई.इस के तक़रीबन दो दशक बाद मार्क्युज़ की पुस्तक One Dimensional Man(एक आयामी मनुष्य) का प्रकाशन हुआ.इस पुस्तक को उसी योजना के विस्तार के रूप में देखा जा सकता है जो 40 ‘ के दशक में होर्खाइमर ,एडोर्नो और मार्क्युज़ के मध्य बनी थी.

एक आयामी मनुष्यमें मार्क्युज़ समाज में मौजूद द्वंद्वात्मकता की पड़ताल करते हैं.उस दौर में इस पुस्तक के निराशावादी निष्कर्षों की मार्क्सवादी हलकों मैं तीखी आलोचना हुयी थी.दुनिया भर के कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्यों ने इस पुस्तक को मार्क्सवाद विरोधी माना था.कुछ इसे  सी.आई.ए की करवाई के रूप में देख रहें थे.लेकिन 68’ के पेरिस छात्र आन्दोलनकारियों ने यह स्वीकार किया कि उनके लिए मुक्ति की अवधारणा का वर्तमान परिप्रेक्ष्य इस पुस्तक के द्वारा ही संभव हुआ है.

द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् पूंजीवाद में जो आमूलचूल परिवर्तन आया एक आयामी मनुष्यमें मार्क्युज़  उसकी व्याख्या प्रस्तुत करते हैं.व्याख्या के लिए जो आधार मार्क्युज़ चुनते हैं, वह है समाज की गतिकी.मार्क्युज़ मानते हैं कि विकसित देशों का पूंजीवाद अपने पिछले दौर के पूंजीवाद से अलग हो चूका है.वे इसे विकसित औद्योगिक पूंजीवादके तौर पर चिन्हित करते हैं.एक तरह से यह उत्तर पूंजीवाद की आहटों से भरा दौर है.मार्क्युज़ लिखते हैं  तकनीकी प्रगति के मूल्य के तौर पर एक सहज आसान, तार्किक लोकतांत्रिक परतंत्रता ने विकसित औद्योगिक सभ्यता को अपने गिरफ्त में ले लिया है.यांत्रिक सामाजिक अनिवार्यता की खातिर कष्टपूर्ण कारवाइयों के इस दौर में व्यक्ति के दमन से अधिक संगत कुछ भी नहीं.उत्पादन समूहों के बीच व्यक्तिगत प्रतिष्ठानों का महत्व बढ़ा है.असमान आर्थिक विषयों के मध्य स्वतंत्र प्रतियोगिताएं आरम्भ हुयीं हैं.विशेषाधिकारों और राष्ट्रीय संप्रभुत्ता में की गयी कटौती के परिणाम स्वरुप अंतर्राष्ट्रीय संगठनों के संसाधनों में कमी आई है.हालाँकि इस तकनीकी क्रम विकास में राजनीतिक और बौद्धिक सहभागिता की आलोचना की जा सकती है लेकिन यह उसका एक निर्णायक पक्ष था3

यहाँ मार्क्युज़ विकास के नये मॉडल का चित्र खींचते हैं.वे यह बताने की कोशिश करते हैं कि सामाजिक दमन की प्रक्रिया को पूंजी के नये रूप ने किस तरह अर्जित किया है.इस संदर्भ में दिलचस्प है कि व्यक्ति बनाम समाज की पूंजीवादी अवधारणा को बड़े पैमाने पर मार्क्सवादी अवधारणा के रूप में स्वीकार किया गया.समाज की समूची अवधारणा को संस्थानीकृत कर व्यक्तिगत दमन की कारवाइयों का आरम्भ किया गया.परिणामस्वरूप हर वह व्यक्ति जो खुद को समाज का हिस्सा मानता है, अपने ऊपर हो रहे दमन को सामाजिक अनिवार्यता मानकर स्वीकार करता गया.मार्क्युज़ कहते है इस दमन के द्वारा समाज में व्यक्ति के निषेध को ही क्रांतिकारी चेतना के रूप में बदल दिया.आरम्भ में समाज में व्यक्ति के मूल्यों का इस तरह निषेध नहीं था.

बोलने की आज़ादी, विचारों की स्वतंत्रता, राजनीतिक विरोध की स्वतंत्रता आदि को लोकतान्त्रिक मूल्यों के तौर पर स्वीकार किया गया.धीरे-धीरे इनमें अंतर्निहित मूल्यों को इनसे निथार लिया गया.तीव्र संस्थानीकरण की प्रक्रिया द्वारा इन्हें समाज के विरोध में बताकर लोगों से इसे छीन लिया गया.मार्क्युज़ कहते हैं कि लोकतंत्र को एक तकनीक में बदलने की प्रक्रिया आरम्भ हुयी.इसके लिए लोकतंत्र के मूल्यों के बरक्स संस्थाओं का निर्माण किया गया.इन संस्थाओं की स्वायत्ता को मुख्य रूप से चिन्हित किया गया.कहा गया कि इनकी स्वायत्ता में ही लोकतंत्र की सार्थकता है.इस प्रक्रिया का परिणाम यह हुआ कि लोग इन संस्थाओं की मनमानियों को अस्वीकार करने की स्थिति में खुद को नहीं पाते थे. 

मार्क्युज़ लिखते हैं कि स्वतंत्रता का अर्थ न सिर्फ काम करने की स्वतंत्रता से था बल्कि उसमें भूखे मरने की स्वतंत्रता भी अंतर्निहित थी.जनसामान्य के बड़े हिस्से पर इस बात ने असुरक्षा के बोध को भरा.अगर व्यक्तियों को स्वतंत्र आर्थिक विषय के रूप में बाजार में खुद को साबित न करना होता तो इस तरह की स्वतंत्रता का चला जाना ही बेहतर था.यह सभ्यता के लिए एक बड़ी उपलब्धि होती.इसे व्याख्यायित करते हुए मार्क्युज़ लिखते हैं कि यांत्रिकीकरण और सर्वमान्यीकरण की तकनीकी प्रक्रिया व्यक्तिगत उर्जा को अनिवार्यता से परे एक अनुपयोगी स्वतंत्रता में बदल देती है.इस प्रक्रिया के फलस्वरूप मानवीय अस्तित्व की संरचना ही प्रभावित होने लगती है.दुनिया के दवाबों के बीच व्यक्ति का काम से मुक्त होना उसकी जरूरतों और संभावनाओं दोनों से ही उसे काट देता है.व्यक्ति इस स्वायत्ता को अपने अस्तित्व के विरोध में महसूस करने लगता है और अगले स्तर की परतंत्रता को बिना प्रतिरोध के स्वीकार लेता है.यहाँ मार्क्युज़ एक महत्वपूर्ण बात कहते हैं कि अगर उत्पादन की संस्थाओं को अनिवार्य जरूरतों को पूरा करने के लिए निर्देशित किया जाता तो यह स्वतंत्रता मनुष्य के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती.मनुष्यता की  नई संभावनाएं प्रकट होती.

मार्क्युज़ यह सवाल उठाते हैं कि विकसित औद्योगिक समाजों में जो उत्पादन का ढांचा है वह किस किस्म की स्वतंत्रता को निर्मित करता है.क्या स्वतंत्रता का लक्ष्य व्यक्ति को अधिक परतंत्र बनाने में है? यह स्वतंत्रता जरूरतों को श्रम की प्रक्रिया से काटकर उसे एक अनुर्वर यंत्र में बदल देती है.मार्क्युज़ कहते हैं कि समकालीन औद्योगिक समाजों में तकनीक को विकास के पैमाने में ढालकर स्वयं को सर्वसत्तावादी बना डाला.मार्क्युज़ राजनीति के बदलते स्वरुप और तकनीकी विकास प्रक्रिया के अन्तर्सम्बन्धों पर विचार करते हैं.वे कहते हैं कि लोकतंत्र में राजनीतिक विरोध का सामाजिक आलोचनात्मक विवेक निर्माण में बहुत महत्व होता था.लेकिन विकसित औद्योगिक समाजों में राजनीतिक अंतर्विरोधों तकनीकी एकीकरण ने अप्रभावी बना दिया है.

राजनीति की भूमिका उस तकनीक को कायम रखने भर की है.इसे हर राजनीतिक पार्टी को अंजाम देना है.मार्क्युज़ यह बताते हैं कि तकनीकी तार्किकता ने समाज की चेतना में नये तरह का वर्चस्व कायम किया है.यह वर्चस्व राजनीतिक और वैचारिक अंतर्विरोधों को अर्थहीन बना सकने में सक्षम है. 90’ के बाद भारतीय राजनीति की दिशा भी इसी तरफ जाती नज़र आती है.सत्तारूढ़ तमाम पार्टियों के कार्यान्वन की नीतियों में एक अद्भुत साम्य नज़र आता है.राजनीति विचारधारा और कार्यनीति के बीच किसी तरह की संगती बची नहीं रह गयी है.भूमिका में सिर्फ विकास की तकनीकी अवधारणा की मौजूदगी देखी जा सकती है.मार्क्युज़ इस बात को रखते हैं कि मशीन और मनुष्य के संघर्ष में जीत मशीन की होती है.समाज में यंत्र एक प्रभावी शक्ति के रूप में विकसित होने लगता है.इस प्रक्रिया का परिणाम यह होता है कि उत्तरोत्तर समाज का ही यांत्रिकीकरण होने लगता है.समाज में सर्वाधिक महत्वपूर्ण राजनीतिक शक्ति के रूप में यंत्र की भूमिका बची रह जाती है.मार्क्युज़ लिखते हैं वर्तमान औद्योगिक सभ्यताएं इस बात को दर्शाती हैं कि वे उस स्तर पर पहुँच गयी हैं जहाँ स्वतंत्र समाज को पारम्परिक आर्थिक राजनीतिक और बौद्धिक स्वायत्ता के रूप में चिन्हित करना प्रासंगिक नहीं रह गया है.यह इसलिए नहीं कि ये स्वायत्तायें अप्रासंगिक हो गयीं हैं बल्कि इसलिए कि पारम्परिक रूपों में वे अत्यधिक प्रासंगिक हो गयी हैं .ऐसे में नई व्याख्याओं की जरूरत है जो कि समाज की वर्तमान संभावनाओं को रेखांकित करे.4

ये नये रूप क्या हैं ? मार्क्युज़ के अनुसार इनमें पुराने रूपों का नकार छिपा है.आर्थिक स्वतंत्रता का अर्थ है अर्थव्यवस्था से मुक्ति.अस्तित्व के लिए रोजमर्रा के संघर्ष से मुक्ति का तात्पर्य है जीवित रहने के लिए कमाने से मुक्ति.राजनीति से मुक्ति का अर्थ है राजनीतिक विचारधारा से मुक्ति और राजनीति का व्यक्तिगत उद्योग में बदल जाना.इसी तरह बौद्धिक स्वतंत्रता का अर्थ होगा व्यक्तियों की मान्यताओं का जनसंचार माध्यमों पर हावी होना ताकि सामान्य जन के आलोचनात्मक विवेक को एकायामी दृष्टिकोण में बदला जा सके.ये बातें मार्क्युज़ अमेरिकी और यूरोपीय समाज को ध्यान में रखकर भले 50’ और 60’ के दशक के अपने अनुभवों के आधार पर कह रहे हों लेकिन इनमें विकसित पूंजीवाद की अंतर्वस्तु पर विशेष बल था.यही वजह है कि इस तरह के सामाजिक एवं राजनीतिक रूपांतरण को 90’ के बाद भारतीय समाज में भी बखूबी देखा जा सकता है.

नई सदी में तो एशियाई समाजों में यह प्रक्रिया और तेज़ हुयी है.पिछले कुछ वर्षों में हमारे यहाँ जो सामाजिक एवं राजनीतिक परिवर्तन हुए हैं, उसकी ठीक-ठीक पहचान पूंजीवाद की पुरानी व्याख्याओं द्वारा संभव नज़र नहीं आता.  समूची भारतीय राजनीति को जनसंचार माध्यमों द्वारा प्रभावित किया जा रहा है.जन संचार माध्यमों की भूमिका इस हद तक हो गयी है कि लोगों के चेतन अवचेतन में मौजूद अंतर्विरोधों को भी अप्रासंगिक बना दिया गया है.जनता के प्रश्नों को जनता की राय के बजाय विशेषज्ञों की व्याख्याओं द्वारा समझाया जाता है.इस तरह समाज में एक अनुकूलन पैदा किया जाता है.फिर उस समझ को बड़े पैमाने पर और आक्रामक प्रचार माध्यमों द्वारा इस तरह प्रचारित किया जाता है कि हर व्यक्ति अपनी ही नज़र में खुद को झूठा मान ले.सत्ता की राय को ही वह सामूहिक विवेक मानकर उसके पक्ष में हो लेता है.

मार्क्युज़ कहते हैं कि विकसित औद्योगिक समाजों में जरूरतों और संतुष्टि की चेतना को रचा जाता है.वर्गों के विलोप की काल्पनिकता को जनता के सहज विवेक का हिस्सा बना दिया जाता  है.संस्थाएं समाज के ढांचे को इस तरह बदलती हैं कि उसमें वर्गों का भेद खत्म होता सा प्रतीत होने लगता है.ऐसा करने के लिए वस्तुओं के उपभोग की एकता को मुद्दा बनाया जाता है.उपभोग की वस्तुओं का साम्य हमारे विवेक में एक प्रकट तर्क को बुनता है.हम सोचते हैं कि मालिक और नौकर तो एक ही टेलीविज़न देख रहे हैं, टाइपिस्ट और मालिक की लड़की ने एक से ही कपडे पहन रखें हैं या तमाम लोग एक से ही अख़बार पढ़ रहे हैं तो यह सब कुछ पुराने अंतर्विरोधों की अपेक्षा कितना अधिक आधुनिक है.निचले पायदान पर जीने वाली जनता का कितना विकास किया गया है.वह अब ऊपरी वर्ग के साथ एक समरस जीवन व्यतीत कर रही है.इस तरह समाज में वर्गीय एकता और समरसता का मिथ बुना जाता है.सामान्य बातचीत में भी लोग यह कहते हुए सुने जा सकते हैं कि पहले के शोषण की अपेक्षा शोषण कितना कम हुआ है.संसाधनों के सामूहिक उपभोग की संभावनाएं अप्रत्याशित तौर पर समाज में बढ़ी हैं.

यहाँ मार्क्युज़ यह सवाल उठाते हैं कि क्या वर्गों की चेतना का अर्थ उपभोग की स्वायत्ता भर है? उपभोग के परे भी वर्गों का अस्तित्व होता है, क्यों हम इस बात से अनभिज्ञ होने लगते हैं.यहाँ एक बात और महत्वपूर्ण है कि वर्ग साम्य वस्तुओं के उपभोग द्वारा जब अर्जित किया जाता है तो हमारे भीतर यह बात बैठ जाती है कि हम उपभोग की क्रमिकता द्वारा ही अपने को समाज में सम्मान जनक बनाये रख सकते हैं.हर व्यक्ति वस्तुओं के उपभोग के अपरिमत संसार का नागरिक हो जाता है.उपभोग की नकली आकांक्षाओं को रचा जाता है.उसे हमारे विवेक में अनिवार्य बनाया जाता है.हम यह मान बैठते हैं कि उन्हें पा कर ही हम संतुष्टिदायक जीवन जी सकते हैं.उत्पादन की इस तर्कहीनता को पूंजी के पुराने रूप से नहीं समझा जा सकता.इस बेतहासा उत्पादन का परिणाम होता है दमन के नये स्तरों का निर्माण.शोषण के अनुकूलित तरीके विकसित किये जाते हैं.उपभोग के असंतोष को इस स्तर पर पहुंचा दिया जाता है कि हर व्यक्ति उसे पाने के लिए कोई भी कीमत अदा करने को तैयार नज़र आता है.  

मार्क्युज़ कहते हैं कि समाज के अतिविकसित दायरे में सामाजिक का वैयक्तिक में बदलना इतना सूक्ष्म  एवं तकनीकी है कि उनके बीच के अंतर्विरोधों को आसानी से उभारा नहीं जा सकता.उनके बीच का अंतर महज़ एक सिद्धांत के रूप में ही नज़र आता है.इसी तरह जनसंचार माध्यमों द्वारा दिखाए गये कार्यक्रमों में सूचना और मनोरंजन के दायरे को स्पष्ट कर सकना आसान नहीं लगता.गाड़ियों की भूमिका में शोर और सुविधा के बीच फर्क किस तरह किया जा सकता है? राष्ट्रीय सुरक्षा और कॉर्पोरेट लाभ के बीच भी वर्तमान में फर्क करना लगभग असंभव सा हो गया है.ऐसे में हम एक गैर आलोचनात्मक संस्कृति के प्रवेश द्वार पर खुद को खड़ा पाते हैं.मार्क्युज़ कहते हैं इस तरह हमारा सामना विकसित औद्योगिक समाज के एक बेहद चिंतित करने वाले पक्ष से होता है.उसकी अतार्किकता का तार्किक पक्ष.उत्पादकता और गुणवत्ता को उपभोग की चेतना में बदलने की पीछे क्रियाशील शक्तियाँ इस तर्क को बुनती हैं.सामान्य आदमी इस संरचना में उलझता जाता है.वह इस तर्कहीनता के पीछे के तर्क को नहीं देखता.

इस तरह उत्तरोत्तर तकनीकी यथार्थ के द्वारा समाज की संरचना को बदल दिया जाता है.मार्क्युज़ कहते हैं कि कई बार ऐसा महसूस होता है कि इस बाहरी बदलाव के विरुद्ध लोग एकजुट होंगे. वे अपनी अन्तःचेतना को उद्भाषित करेंगे.लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है.तो क्या हमारी अन्तः चेतना में भी एक संकुचन निर्मित किया जा रहा है? बाहरी परिवर्तनों को देखने और समझने के मध्य हमारे बोध में क्यों कोई अन्तर्विरोध पैदा नहीं होता.मार्क्युज़ इन सवालों को एकायामी मनुष्यकी स्थिति से जोड़ते हैं.वे पूछते हैं आखिर इन स्थितियों की एकरूपता के विरुद्ध हमारी बहुलता संघर्ष क्यों नहीं करती ? क्या कोई बहुलता बची नहीं रह गयी है? मार्क्युज़ के अनुसार बाहरी बदलावों के द्वारा हमारी अन्तः चेतना को बदला जा रहा है.मार्क्युज़ इसके लिए .... (अन्तःक्षेपण) शब्द का इस्तेमाल करते हैं.वे कहते हैं यह शब्द अब अपनी पारम्परिक भूमिका में नहीं रह गया है.मार्क्युज़ बताते हैं कि मनुष्य का अन्तः करण बाह्य यथार्थ के उन पक्षों  का पुनरुत्पादन करता था जिसपर उसका नियंत्रण नहीं था.यह अन्तःक्षेपण की प्रक्रिया होती थी.अन्तःक्षेपण द्वारा बाह्य का आंतरिकीकरण किया जाता था.लोग जिसे अन्तः प्रेरणा के रूप में देखते थे वस्तुतः वह हमारी चेतना की द्वंद्वात्मकता ही थी.यही वह पक्ष था जिसके प्रभाव में आकर लोग बाह्य को नकार देते थे.वे यह कहते हुए कि हमारा मन नहीं मान रहा, अस्वीकार के सहस का परिचय देते थे.अन्तःक्षेपण हमारे अंतःकरण को बाह्य के प्रति बाह्य से मुक्त बनता था.व्यक्तियों का यही अन्तःक्षेपण उन्हें सामाजिक प्रतिरोध के लिए एकजुट करता था.

मार्क्स ने चेतना के निर्माण में जिस द्वंद्वात्मकता कि बात स्वीकार कि थी वह इसी अन्तःक्षेपण के रास्ते संभव था.मनुष्य की यह आन्तरिक स्वायत्ता महज़ उसकी निजता को ही उद्भासित नहीं करती थी बल्कि सामाजिक कड़ी में वह अपने अस्तित्व को भी प्रमाणित करता था.एक तरह से कहें तो इसी अन्तःक्षेपण के रास्ते मनुष्य बहुलताओं के संयोग से गतिशील एकात्मकता का निर्माण करता था.मार्क्युज़ कहते हैं तकनीकी यथार्थ ने उसकी इस आन्तरिकता को नष्ट कर दिया है.व्यापक स्तर पर किये गये उत्पादन वितरण और उपभोग के द्वारा उसकी इस निजता को निगल लिया जाता है.मार्क्युज़ कहते हैं उद्योगों का मनोविज्ञान महज़ फैक्ट्रियों तक ही सीमित नहीं रह गया है.वह अपने दायरे का अतिक्रमण करता है.इसके परिणामस्वरूप  अन्तःक्षेपण की प्रक्रिया ठहर गयी है.उसकी द्वंद्वात्मकता नष्ट हो गयी है.बाह्य सामाजिक गतिशीलता के अनुरूप आतंरिक बोध के निर्माण में अन्तःक्षेपण के स्थान पर यांत्रिक अनुकरण प्रभावी हो गया है.समाज और व्यक्ति के सम्बन्ध में जो द्वंद्वात्मकता थी, वह नष्ट हो गयी है.यही वजह है कि व्यक्ति का महत्व घटा है.वह यांत्रिक अर्थों में समाज का प्रतिबिम्ब नज़र आने लगा है.

मार्क्युज़ कहते हैं कि समाज के स्वाभाविक प्रतिबिम्ब के रूप में इस व्यक्ति की पहचान विकसित औद्योगिक समाजों में भली भांति की जा सकती है, लेकिन इसके वैविध्य को पहचानना कठिन होता जा रहा है.वैज्ञानिक प्रबंधन और संगठन के द्वारा बेहद बारीक़ तरीकों से यह सब किया जा रहा है.मनुष्य के मन के रूप में मौजूद यह आंतरिक आयाम किन्हीं बाह्य नियंत्रों द्वारा संचालित हो रहा है.ऐसे में आलोचनात्मक विवेक के निर्माण की स्थिति नहीं रह जाती.मार्क्युज़ कहते हैं यह आलोचनात्मक विवेक जिस नकरात्मक चिंतन से आरम्भ होता था समाज में अब उसी गुंजाईश कम रह गयी है.

व्यक्ति और समाज के मध्य क्या बचा रह गया है, अपरिमित वस्तुओं के संसार के अतिरिक्त? व्यक्ति से समाज के बीच मौजूद द्वन्द्वाताम्कता में ही व्यक्तित्व का निर्माण होता था.उसमें तमाम तरह के नकार और स्वीकार के द्वारा एक आलोचनात्मक विवेक निर्मित होता था.लेकिन वस्तुओं के बेतहाशा उत्पादन और तर्कहीन उपभोग ने इस सम्बन्ध को बदल दिया है.जिस आलोचनात्मक विवेक के द्वारा व्यक्ति समाज का आंतरिकीकरण करता था वह कहाँ बचा है? मार्क्युज़ कहते हैं इस आंतरिक आयाम के नष्ट होने ने विवेक को बहुआयामी नहीं रहने दिया.मनुष्य अब एकायामी विवेक का प्रतिबिम्ब हो गया है.प्रश्न यह भी है कि क्या हम इसे विवेक कह सकते हैं?

मार्क्युज़ हायडेगर के अस्तित्वाद की चेतना के साथ मार्क्स के विलगाव की चेतना की पड़ताल करते हैं ? वे विलगाव की अवधारणा में मौजूद स्थिरता की बाबत सवाल उठाते हैं.वे इस बात को रेखांकित करते हैं कि वर्गीय सामान्यीकरणों के बावजूद अस्तित्व का वैविध्य, मनुष्य के आलोचनात्मक विवेक की सतत गतिशीलता को नष्ट नहीं होने देता है.ऐसे में सर्वसत्तावादी ताकतें इस तरह के सामान्यीकरणों द्वारा वर्चस्व के नये रूपों को विकसित करती हैं.वे वर्गीय अंतर्विरोधों को वर्गीय उत्पादन और उपभोग की चेतना में सीमित कर देखने पर बल देती हैं.मार्क्युज़ कहते हैं क्या विलगाव हर किसी का समाज में एक ही स्तर का होता है.मार्क्युज़ के अनुसार ऐसा नहीं होता.एक ही वर्गीय दायरे में रहने के बावजूद हर मनुष्य अपने व्यक्तित्व और स्व के साथ मौजूद रहता है.इसलिए विलगाव का स्तर भी सभी का  भिन्न होगा.विलगाव की स्थिति के भीतर भी यह गतिशीलता बनी रहती है.मार्क्युज़ इसे भी मनुष्य की बहुआयामिता के रूप में देखते हैं.उत्पादन के माध्यम जब श्रमिक को एक विलगाव की स्थिति में पहुँचाया जाता है तो वह इसी गतिशीलता के रास्ते यानि अपने स्व की चेतना के माध्यम से स्वयं को पुनःअर्जित करता है.




(चार)
मार्क्युज़ व्यक्ति और समाज के अन्तर्सम्बन्धों पर कई आयामों से विचार करते हैं.इसी संदर्भ में वे मार्क्सवाद की अवधारणा में बदलाव की अनिवार्यता पर बल देते हैं.मार्क्युज़ के बहुत से समकालीन दार्शनिक सीधे-सीधे मार्क्सवाद को ख़ारिज कर रहे थे.बड़े जोर शोर से उसकी अपर्याप्तता की चर्चा कर रहे थे.वहीँ मार्क्युज़ मार्क्सवाद के समकालीन परिप्रेक्ष्य एवं उसके समाज दर्शन को विकसित कर रहे थे. 19 वीं सदी सिद्धांतों की सदी थी. 20 वीं सदी कार्यान्वन की.  इन दोनों के फांको के बीच मार्क्सवाद की प्रासंगिकता पर नये प्रश्न उठ रहे थे.मार्क्युज़ न सिर्फ 20 वीं सदी बल्कि 19 वीं सदी को भी नये तरह से देखने की बात करते हैं.वे हीगेल के द्वंदवाद को नये परिप्रेक्ष्य में देखने की बात कहते हैं और इस पर बल देते हैं कि समाज के तर्क निर्माण में हीगेल के द्वंदवाद की भुमिका बहुत महत्वपूर्ण है.

मार्क्युज़ का स्पष्ट मानना था कि मार्क्सवाद की मौजूदा समझ और दृष्टि द्वारा विकसित औद्योगिक समाज को व्याख्यायित नहीं किया जा सकता.यही वजह है कि वर्तमान दौर में मार्क्सवाद समाज के नज़रिए को आलोचनात्मक बनाये रखने में सफल नहीं हो सका है.मार्क्युज़ मार्क्सवाद के लक्ष्य को राजनीतिक परिवर्तन तक महदूद कर नहीं देख रहे थे.उनका मानना था कि बगैर सामाजिक परिवर्तन के मार्क्सवाद को लोगों की चेतना का हिस्सा नहीं बनाया जा सकता.समाज की इकाई व्यक्ति है और व्यक्ति को बदले बगैर समाज को नहीं बदला जा सकता है.इसके विपरीत पारम्परिक मार्क्सवादियों का मानना था कि समाज वर्गों के द्वारा बनता है, इसलिए सिर्फ वर्गीय अंतर्विरोधों की पहचान के द्वारा समाज को जरुरी तौर पर परिवर्तित किया जा सकेगा.प्रत्यक्ष रूप में भूमिका व्यक्ति की बजाय वर्ग की होगी.मार्क्युज़ पारम्परिक मार्क्सवाद की इस समझ से इत्तेफाक नहीं रखते थे.उनका मानना था कि व्यक्तियों को रूपांतरित कर ही समाज को रूपांतरित किया जा सकता है.समाज स्वयं में किसी एक दिशा में अग्रसर नहीं होता.आलोचनात्मक विवेक द्वारा ही समाज के सामूहिक विवेक को निर्मित किया जा सकता है.अगर आलोचनात्मक विवेक को प्रश्रय न दिया गया तो सामूहिक विवेक एक वर्चस्ववाद की चेतना में बदल जाएगा.

पूंजीवाद ने व्यक्तियों को प्रभावित करने के तरीकों को बदला है.विकसित औद्योगिक समाजों में पूंजीवाद कई स्तरों पर व्यक्ति को अपना निशाना बनाता है.न सिर्फ राजनीति बल्कि मनोविज्ञान , वस्तुओं के उत्पादन ,वितरण, खपत, जन संचार, यातायात, शिक्षा, चिकित्सा, कला एवं मनोरंजन, इन तमाम माध्यमों से पूंजीवाद व्यक्ति को रूपांतरित करता है.व्यक्तियों के इस रूपांतरण से अनुकूलित एकायामी समाज निर्मित होता है.पूंजीवाद के अनुकूल व्यक्तियों की अगली खेप तैयार होती है.इस प्रक्रिया और क्रमिकता से उत्तरोत्तर हम इस बात को स्वीकार करने लगते हैं कि पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया, सामजिक जीवन और संस्कृति बोध ही हमारे सहज बोध के अनुकूल है.ये इस हद तक स्वचालित हैं जैसे कि पानी का नीचे गिरना.ऐसे में इस सब के प्रति हमारा किसी किस्म का विरोध मानवीय प्रकृति के अनुरूप नहीं होगा.

मार्क्युज़ जब फ्रैंकफर्ट स्कूल से जुड़े तो उनके लिए सबसे बड़ा संकट था फासीवाद का आगमन. 30’ के आरम्भिक वर्षों में ही फासीवाद ने समूचे समाज को अपनी गिरफ्त में ले लेना आरम्भ कर दिया.मार्क्युज़ ने इंस्टिट्यूट फॉर सोशल साइंस रिसर्चके कार्यों द्वारा फासीवाद के चरित्र को समझना आरम्भ किया.एडोर्नो, होर्खाइमरऔर मार्क्युज़ के लिए यह पहेली से कम नहीं था कि जब फासीवाद विकसित हो रहा था, समाज में अपनी गहरी जड़ें जमा रहा था तो समाज के भीतर से ही उसे चुनौती क्यों नहीं मिली.सत्ता का फासीवादी विस्तार कहीं समाज के फासीवादी विस्तार तक तो नहीं जाता? मार्क्युज़ ने इस प्रश्न को एक चुनौती की तरह स्वीकार किया.सबसे अहम् सवाल यह था कि समाज की पारम्परिक परिभाषा से मुक्त किस तरह हुआ जाए.पारम्परिक मार्क्सवादी दृष्टिकोण के तहत समाज वर्गों में बंटा हुआ है.वर्गीय अन्तर्विरोध ही समाज को नियंत्रित करते हैं.लेकिन फासीवादी सत्ता के समक्ष समाज का दूसरा चेहरा नज़र आ रहा था.ऐसे में मार्क्युज़ नये संदर्भों में समाज को विश्लेषित करते हैं.इस विश्लेषण के मूल में यह बात थी कि फासीवाद की सामाजिक आलोचना की चेतना का निर्माण कैसे हो.


मार्क्युज़ ने इस बात पर बल दिया कि समाज को सिर्फ वर्गीय अंतर्विरोधों के दायरे से देखने पर उसका आन्तरिक स्वरुप स्पष्ट नहीं होता.दमन की शक्तियों ने समाज को गहरे तक बदल दिया है.ऐसे में वर्गीय अंतर्विरोधों के साथ-साथ किसी समय विशेष में व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों को भी समाज के विश्लेषण में शामिल किया जाना चाहिए.समाज बनाम सत्ता की एकहरी समझ से 20 वीं सदी की दुनिया की वास्तविक पहचान संभव नहीं है.मार्क्युज़ इसे स्पष्ट करने के लिए बार -बार उत्पादन संबधों में आये परिवर्तन के साथ उपभोग की संस्कृति के रूपांतरण की तरफ भी इंगित करते हैं.वे कहते हैं उपभोग और लालच की संस्कृति के रास्ते सत्ता ने समाज के विरोध को एक हद तक कम कर दिया है.समाज में एक नई संस्कृति विकसित की गयी है और इस संस्कृति में जाने अनजाने सत्ता का आंतरिक समर्थन छिपा हुआ है.मार्क्युज़ इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि फासीवाद महज़ सत्ता का बदले हुए स्वरुप के तौर पर मौजूद नहीं था बल्कि वह समाज की सोच का भी हिस्सा बन चूका था.इसके मूल में समाज में आलोचनात्मक विवेक और विपरीत चिंतन के घटते प्रभाव को मार्क्युज़ रेखांकित करते हैं.मार्क्युज़ ने लिखा कि फासीवादी सत्ता ही फासीवादी समाज में बदल गयी.

डगलस केलनर ने मार्क्युज़ की तमाम पुस्तकों का संपादन किया है .वे फ्रंकफर्ट स्कूल की अगली कड़ी के चिंतकों में गिने जाते हैं.उनका मानना है कि मार्क्युज़ की पुस्तक एकायामी मनुष्यको पढने के दो तरीके हैं.पहला यह कि समाज का जो एकायामी तकनीकीकरण हुआ है उसके परिणामों के विषय में विचार किया जाए.केलनर के अनुसार यह स्वीकार किया जा सकता है कि इस रास्ते सर्वसत्तावाद की समाज में स्थापनी हुयी हो.ऐसी स्थिति में एक नये तरह के समाज से हमारा सामना होता है.इस समाज में पूंजीवादी अंतर्विरोधों की आलोचना के लिए व्यक्तिवादी दृष्टिकोण या वैविध्यता की कोई गुंजाईश नहीं रह जाती.एकयामिता का अर्थ यह हुआ कि ऐतिहासिक विकास को ही वर्चस्ववादी विवेक में बदल दिया जाए.ऐसे में हर तरह का विरोध ही संदेहास्पद और अर्थहीन हो जाएगा.हालाँकि केलनर का मानना है कि यह संभव है कि एक आयामी मनुष्य का एक पाठ इस तरह से किया जाए, लेकिन मार्क्युज़ एक आयामिता को सर्वसत्तावादी रूपांतरण में नहीं देख रहे थे.केलनर के अनुसार मार्क्युज़ इसे द्वंद्वात्मकता के विरोध में देख रहे थे.यह ज्यादा खतरनाक स्थिति थी.मार्क्युज़ इसे सामाजिक चेतना  में सिकुड़ रही द्वंद्वात्मकता से जोड़कर देख रहे थे.

वे इसे विकसित औद्योगिक समाज का एक महत्वपूर्ण आयाम कह रहे थे.एक ऐसा आयाम जिसने अन्य तमाम पक्षों को अर्थहीन बना डाला है.मार्क्युज़ इसे ही सत्ता के आयाम के रूप में रखते हैं.इसमें किसी तरह के अन्तर्विरोध की कोई संभावना बची नहीं रह जाती है.सत्ता के इस एकायामी चरित्र को सामाजिक विकास की प्रक्रिया में ढाल दिया जाता है.हम अगर ध्यान से देखें तो द्वितीय विश्वयुद्ध के पश्चात् दुनिया की तमाम सरकारें एक ही बात को दोहराती रहीं , उन सबका एक ही लक्ष्य था - वह लक्ष्य था विकास.सरकारें इस प्रश्न को नहीं रखती कि यह विकास किसके लिए.वे सिर्फ विकास की बात करती हैं.इस विकास के नारे के तहत ही समाज को अंतर्विरोधों से मुक्त कर दिया जाता है.सत्ताएं यह आश्वाशन देती हैं कि हर किसी का विकास संभव है, इसलिए जरुरत सत्ता के विरोध की नहीं सहयोग की है.यह कहा जाता है कि विरोध करने वाले विकास विरोधी है.वे तेज़ रफ़्तार वक्त की दौड़ में पिछड़ जाने को अभिशप्त हैं.इस पूरी प्रक्रिया का एक ही उद्देश्य था समाज को एकायामी विकास की अवधारणा में जकड़ना.ऐसे में समाज की चेतना और सत्ता की चेतना के बीच किसी किस्म का भेद नहीं रह जाएगा.

मार्क्युज़ के अनुसार एकायामी समाज में वस्तु और विषय के बीच का द्वंद्व समाप्त होने लगता है.विषय के रूप में समाज का वस्तुकरण होने लगता है.समाज की समूची चेतना पर वस्तु चेतना का वर्चस्व बढने लगता है.यहाँ तक कि मनुष्य की आत्म सत्ता का ही लोप हो जाता है.स्वायत्ता की जो चेतना उसके बोध का स्वाभाविक अंग होती थी नष्ट होने लगती है.मनुष्य की आत्मसत्ता में ही उसकी शक्ति का बोध अंतर्निहित है.इसी शक्ति के बोध से वह स्वतंत्रता और ज्ञान की ओर उन्मुख होता है.जैसे ही उसकी आत्म सत्ता वस्तु सत्ता में बदलने लगती है उसकी यह स्व चेतना भी विनष्ट होती जाती है.ऐसे में यह जरुरी है कि वह अपनी आत्मसत्ता के इस रूपांतरण के विरुद्ध संघर्ष करे.संघर्ष की चेतना वह जिस इतिहासबोध से ग्रहण करता था वह स्वयं में ही वर्चस्ववादी शतियों में बदल गयी है.

मार्क्युज़ कहते हैं कि स्वायत्ता और आत्मचेतना के लिए यह जरुरी है कि वस्तु चेतना से मुक्त हुआ जाए.जब स्वायत्त विषय वस्तु को नियंत्रित करती है तो समाज में रचनात्मक निर्माण की प्रक्रिया आरम्भ होती है.अंतःकरण का आयतन विस्तृत होता है .लेकिन इसके विपरीत जब वस्तु विषय को नियंत्रित करती है तब समाज एक विध्वंस की ओर जाता है.परतंत्रता बढती है.अंतःकरण का आयतन संकुचित होता जाता है.यही एकायामी समाज की विडंबना है.वस्तु द्वारा विषय पर जो वर्चस्व हासिल किया जाता है, वह समाज की रचनात्मक शक्ति को नष्ट कर देता है.हीगेल ने वस्तु और विषय के बीच एक तनाव की बात कही थी.एक आयामी समाज में यह तनाव नष्ट होने लगता है.वस्तु के समक्ष विषय का आत्मसमर्पण उसके वस्तुकरण का वायस बनता है.मार्क्युज़ के अनुसार विकसित औद्योगिक समाजों में स्थिति यहीं नहीं ठहरती बल्कि विषय के वस्तुकरण के पश्चात् उसके भीतर से ही वस्तु के विकास की संभावनाएं विकसित होने लगती हैं.उदाहरण के तौर पर मध्यवर्गीय उपभोक्ता के भीतर जो वस्तुकरण हुआ है उसने उसे आत्म से निर्वासित कर दिया है.यह स्थिति पिछले कुछ वर्षों में खासकर महानगरों में देखी जा सकती है.जहाँ मध्यवर्गीय जीवन मूल्य उपभोग के मूल्य बनकर रह गये हैं .

जीवन से तमाम तरह की संस्कृति पठन-पाठन गीत -संगीत आदि को निकाल कर उसे 24 घंटे के उपभोक्ता में बदल दिया है.मध्यवर्ग का यह हिस्सा किसी तरह के अन्तर्विरोध को सह नहीं पाता.उसके राजनीतिक विचार, जीवन मूल्य, स्त्री सम्बन्धी आचरण सबमें एक खास तरह की एकरूपता है.यह एकरूपता उसके आत्म के वस्तुकरण के द्वारा निर्मित हुयी है.महानगरों के बंद दायरों में कैद यह वर्ग न तो व्यवसायिक विविधता, न तो भाषिक सांस्कृतिक विविधता और न ही धार्मिक विविधता को स्वीकार करता है.वह हर तरह की विविधता के विरुद्ध हिंसक हो जाता है.

मार्क्युज़ कहते हैं एकायामी मनुष्य के भीतर प्रबोधन की चेतना नष्ट होती जाती है.वह स्वतंत्रता को खोने लगता है.स्वतंत्रता का अर्थ है ज्ञान, इच्छा शक्ति.यह जान सकना कि हम क्या चाहते हैं.चुन सकने की क्षमता, रुकावटों का विरोध कर सकने का साहस.एकायामी मनुष्य स्वतंत्र मनुष्य के इन मूलभूत गुणों से विमुख होने लगता है.क्या इस तरह कि स्थिति भारतीय मध्यवर्ग के एक बड़े दायरे में विकसित होती नज़र नहीं आती? मध्यवर्ग का यह हिस्सा किस तरह की सामाजिक भूमिका का निर्वाह कर रहा है? उसके लिए चुनने का अर्थ क्या है? क्या वह अपनी मर्ज़ी से अपना पेशा चुन सकता है ? क्या वह अपने काम के अतिरिक्त घंटों का हिसाब मांग सकता है? अगर ऐसा नहीं है तो क्या ज्ञान ने उसके भीतर स्वायत्ता का बोध विकसित किया? भारतीय समाज के वर्तमान दौर में मध्यवर्ग की भूमिका बदलते दौर की आहटों को हमारे समक्ष प्रस्तुत करती है .अगर समाज में संवाद की स्थिति कम हो रही है, आलोचनात्मक विवेक क्षीण हो रहा तो इस विषय पर गंभीरता से विचार किया जाना चाहिए.




(पांच)
मार्क्स की परिकल्पना के अनुसार 20 वीं सदी को क्रांति की सदी होना था.पूंजीवाद के गहरे होते अंतर्विरोधों पर सर्वहारा की निर्णायक चोटें पड़नी थी.मार्क्स के अनुसार पूंजीवाद के खात्में के मूल में सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना का अनिवार्य विष्फोट अवश्यम्भावी था. इसे 20 वीं सदी में संभव होना था.मार्क्स यह भी मानते थे क्रांति विकसित पूंजीवादी देशों में होगी, क्योंकि वहीं पर सर्वहारा अपने सबसे अधिक क्रांतिकारी रूप में मौजूद होगा.लेकिन ऐसा नहीं हुआ. 20 वीं सदी के मध्य दार्शनिकों ने इसे अलग -अलग आयामों से व्याख्यायित करना आरभ किया.मार्क्युज़ के लिए यह महज़ व्याख्या से जुड़ा प्रश्न नहीं था.यह मार्क्सवाद और क्रांति के भविष्य से जुड़ा प्रश्न था.मार्क्युज़ का मानना था कि द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत तकनीक एवं तकनीकी तार्किकता, प्रशासन और प्रशासनिक संस्थाएं, पूंजीवादी सरकारें एवं संचार माध्यम, उत्पादन एवं उपभोग की तर्कहीनता इन सबने मिलकर सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना एवं व्यक्ति की स्वायत्ता पर नकरात्मक प्रभाव डाला है.उसकी धार को कम किया है.यह कैसे संभव हुआ? मार्क्युज़ के अनुसार विकसित औद्योगिक समाजों में विवेक और स्वतंत्रता की ताकत में कमी आई है.राजनीति अर्थव्यवस्था और संस्कृति में बहुलता के स्थान पर एकाधिकारवादी नियंत्रण बढ़ा है.यहाँ तक कि तर्क की भूमिका भी बदल गयी है.वह अब हमे स्वायत्त नहीं करती बल्कि हमारे ऊपर नये तरह का वर्चस्व स्थापित करती है.

मार्क्युज़ इस बात पर बल देते हैं कि सर्वहारा की अवधारणा की पड़ताल की जानी चाहिए.क्या बीसवीं सदी के इस तकनीकी दौर में हम सर्वहारा की उन्नीसवीं सदी की समझ से ही काम चलायेगे.मार्क्युज़ के अनुसार 20 वीं सदी में सर्वहारा पूंजीवाद का विलोम नहीं रह गया.पूंजीवाद के विकासक्रम ने सर्वहारा ई चेतना पर भी प्रभाव डाला है.वह वास्तव में पूंजीवाद के विरुद्ध समग्र क्रांति को अंजाम देने की अवस्था में खुद को नहीं पाता.मार्क्युज़ के अनुसार सर्वहारा की चेतना पूंजीवाद के अंतर्विरोधों को समझने की दिशा में अग्रसर नहीं हो सकी.यह किस तरह संभव हुआ? मार्क्युज़ इसका विश्लेषण करते हुए लिखते हैं - जब मार्क्स ने विकसित औद्योगिक समाजों में समाजवादी रूपांतरण की बात की थी तो उसके मूल में न सिर्फ उत्पादन सम्बन्धों की परिपक्वता की बात थी उनके गैर रचनात्मक उपयोग की भी बात थी .पूंजीवाद के विरोधों के गहरे होने और उसके विनष्ट होने की आकांक्षा इसके मूल में थी.परन्तु शताब्दी के नये दौर में विकसित औद्योगिक देशों में आंतरिक अंतर्विरोधों का बढ़ना ही एक कुशल संतुलन में बदल गया.सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना कुंद होने लगी.न सिर्फ श्रमिकों का एक छोटा आरामपसंद तबका बल्कि श्रमिक वर्ग का एक बड़ा हिस्सा समाज की मूलधारा के पक्ष में खड़ा हो गया.5

उत्पादन की तीव्र गति के समानांतर सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना को भी तेज़ धार होना था. लेकिन पूंजीवादी उत्पादन प्रक्रिया ने सर्वहारा की क्रांतिकारी चेतना के विकास को अवरुद्ध कर दिया.तकनीकी प्रगति ने संतुष्टि और जरुरत को कई गुणा बढ़ा दिया है.

ट्रेड यूनियन के संदर्भ में मार्क्स ने माना था कि उनकी बड़ी भूमिका मजदूरों के असंतोष को एकत्र करने में होगी.श्रमिक के श्रम का जब अवमूल्यन होगा तो ट्रेड यूनियन इस दिशा में श्रमिकों की मांगों को तेज़ करेंगे .20 वीं सदी में ट्रेड यूनियनों के द्वारा श्रमिकों पर नियंत्रण रखा जाने लगा.धीरे -धीरे ट्रेड यूनियनों ने अपना दायरा उदारवादी मांगों तक सीमित कर लिया.वृहद् उत्पादन के ठिकानों के रूप में शहरों के विकास ने लालच और अधीनता का नया जाल बुना.कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को एक नये विकल्प की तरह पूंजीवादी देशों में प्रस्तुत किया गया.ट्रेड यूनियनों की मांग कल्याणकारी राज्य के दायरों में आकर सिमटने लगी.श्रमिकों के लिए आवास , चिकित्सा और शिक्षा की व्यवस्था तक वे सहमत होने लगे.बड़े पैमाने पर हो रहे उत्पादन के अनुकूल श्रमिकों को कल्याणकारी राज्य की अवधारणा के तहत ये सुविधाएँ आसानी से दी जा सकती थी.लेकिन इन्हें पाने के लिए उन्हें अपने काम को घंटों को बढ़ाना पड़ता था.ट्रेड यूनियन की राजनीति सर्वहारा की राजनीति की बजाय बुर्जुआ की राजनीति में बदल गयी.70’ के दशक के आसपास समूची दुनिया में ट्रेड यूनियन कमजोर हुए और उन पर प्रति क्रांतिकारी ताकतों का कब्ज़ा हो गया.भारत जैसे देश में आज की तारीख में सबसे बड़ा ट्रेड यूनियन भारत मजदूर संघ है जो कि दक्षिणपंथी शक्तियों द्वारा संचालित किया जाता है.

यहाँ यह समझना दिलचस्प है कि मार्क्स जिस सर्वहारा को क्रांति के अग्रिम दस्ते के तौर पर उन्नीसवीं सदी में देख रहे थे, बीसवीं सदी में उसके चरित्र और चेतना में निर्णायक बदलाव आ चूका था.मार्क्युज़ इस बदलाव को चिन्हित करते हुए लिखते हैं – तकनीकी प्रगति ने सामाजिक शक्तियों के संतुलन में मौलिक परिवर्तन ला दिया है.नियंत्रण और विध्वंस की सरकारी मशीनरियों ने सघर्ष के शास्त्रीय रूपों को पुरातनपंथी और रूमानियत से भरा साबित कर दिया है.इस मोर्चेबंदी ने अपने क्रांतिकारी मूल्य को कुछ उसी तरह खो दिया है जिस तरह हड़तालों ने अपनी क्रांतिकारी अंतर्वस्तु को.6

मार्क्युज़ इस बात पर विशेष बल देते हैं कि सर्वहारा की परिकल्पना में आये परिवर्तन ने मार्क्सवाद की दिशा को मोड़ दिया है.मार्क्युज़ कहते हैं विकसित औद्योगिक पूंजीवादी युग को सीधे सीधे आदर्श पूंजीवादी युग के विकास या विस्तार के तौर पर नहीं देखा जा सकता.इतिहास की क्रमिकता मेंi आये इस व्यवधान को व्याख्यायित किये बगैर हम आगे नहीं बढ़ सकते.उन्नीसवीं सदी में पूंजीवाद की मूलभूत विशेषताओं को आत्मसात करते हुए मार्क्स ने सर्वहारा की परिकल्पना को व्याख्यायित किया था.मार्क्स के अनुसार सर्वहारा की अवधारणा के तीन आधार प्रमुख थे-

(1) उत्पादन सम्बन्धों में उसकी भूमिका
(2) बहुसंख्य जनता का सर्वहारा होना
(3) उत्पादन के वर्तमान स्वरुप में खुद को बचाए रखने के लिए किये जा रहे उसके संघर्ष में उसका स्वयं के जीवन को मनुष्य के जीवन के रूप में नकारना.

यह तीसरा आधार ही उसे विलगाव की चेतना तक ले जाता था क्योंकि जीवन स्थितियों की क्रूरता के मध्य वह अपनी मनुष्यगत उपस्थिति को भूलता जाता था.मार्क्युज़ के अनुसार उत्पादन की गति में बेतहाशा वृद्धि ने इस समूची अवधारणा को बदल दिया है.स्पष्ट है कि उत्पादन कि इस बेतहाशा गति के मूल में तकनीकी विकास की भूमिका अहम् है.इन नई परिस्थितियों में सर्वहारा के दायरे को नये सिरे से परिभाषित किये जाने की जरुरत है.संघर्ष के आग्रिम दस्ते को नये सिरे से परिभाषित और व्याख्यायित करने की बात मार्क्युज़ कहते हैं.

मार्क्युज़ का कहना है कि नये दौर में उत्पादन की प्रक्रियाओं को समझना आसन नहीं रह गया.भौतिक और गैर भौतिक दोनों तरह के उत्पादनों ने सर्वहारा के नये रूपों को हमारे समक्ष निर्मित किया है.ऐसे में उनके अनुसार तीसरी दुनिया के देशों की भूमिका महत्वपूर्ण हो जाती है.मार्क्युज़ स्वीकार करते हैं कि मार्क्स ने सर्वहारा के जिन तीन गुणों का उल्लेख किया था विकसित औद्योगिक समाज से सम्बद्ध सर्वहारा ने उन विशिष्टताओं को लगभग खो दिया है.वह सिर्फ पहली विशेषता के गिर्द बचा रह जाता है लेकिन न तो वह आबादी का बहुसंख्य ही रह गया है और न ही उसकी आवश्यकतायें व्यवस्था परिवर्तन में क्रांतिकारी भूमिका अदा कर रही है.ऐसे में मार्क्युज़ कहते हैं कि भले वस्तुगत अर्थों में सर्वहारा क्रांतिकारी ताकत के रूप में नज़र आता हो लेकिन विषय के रूप में उसकी भूमिका क्रांतिकारी नहीं रह गयी है.मार्क्युज़ क्रांतिकारी विषय की तलाश करते हैं और एक नये मार्क्सवाद की परिकल्पना को रचते हैं.वे इसे नव मार्क्सवाद कहते हैं.

मार्क्युज़ इतिहास और वर्तमान के बीच नये सम्बन्धों की तलाश करते हैं.वे यह सवाल उठाते हैं कि पारम्परिक मार्क्सवाद की इतिहास चेतना वर्तमान को जिस तरह परिभाषित करती है,क्या उससे वर्तमान का प्रतिरोध निर्मित होता है?क्या वह हमारी चेतना में दमन के वास्तविक प्रतिकार का स्वरुप निर्मित करती है? मार्क्युज़ जब ये प्रश्न उठा रहे थे तो अधिकांश मार्क्सवादी इन सवालों को ख़ारिज कर रहे थें.उनका कहना था कि मार्क्युज़ की सारी स्थापनाओं के केंद्र में अमेरिकी समाज है.उनके सारे निष्कर्ष उसी समाज के अनुभव पर आधारित हैं.परन्तु तक़रीबन चार दशक बाद यह देखना कठिन नहीं रह जाता कि मार्क्युज़ के निष्कर्ष मूलतः पूंजी के नये स्वरुप को ध्यान में रखकर निकाले गये थे.ज्यों -ज्यों इस पूंजी का विस्तार होता गया, मार्क्युज़ के निष्कर्षों का दायरा विकसित होता गया.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के चिंतकों ने इस बात को रखने का प्रयत्न किया कि पूंजी का स्वभाव महज़ अर्थव्यवस्था और राजनीति तक महदूद नहीं है.वह संस्कृति विचार और जीवन पद्धति का भी अभिन्न अंग होता जा रहा है.यह पूंजी के पुराने स्वरुप के साथ संभव नहीं था.पूंजी की यह सर्वसत्तावादी और दमनकारी छवि यह बताती है कि नई पूंजी ने अपने स्वरुप में आमूलचूल परिवर्तन कर दिया है .मार्क्युज़ इस नई पूंजी के स्वरुप की पहचान और संघर्ष के नये तरीकों को चिन्हित करते हैं.मार्क्युज़ सर्वहारा की अवधारणा में परिवर्तन की बात कहते हैं.वे कहते हैं हाशिये के समाज की अवधारणा और प्रतिरोध के पारम्परिक और गैर पारम्परिक तरीकों के एकीकरण के द्वारा ,प्रतिरोध के नये रास्तों की तलाश संभव है.मार्क्युज़ जब ये बाते कह रहे थे, उस वक्त एक प्रखर और आक्रोश से भरी नई पीढ़ी उभर रही थी.वह पारम्परिक मार्क्सवाद के प्रतिरोध को भी परख रही थी और रूस में मार्क्सवादी शासन का मूल्याङ्कन भी कर रही थी.

रूस के मार्क्सवादी शासन को लेकर मार्क्युज़ ने एक पुस्तक लिखी- ‘सोवियत मार्क्सवाद एक आलोचनात्मक विश्लेषण’.इस पुस्तक के द्वारा सोवियत मार्क्सवाद की आलोचना मार्क्सवादी दृष्टिकोण से प्रस्तुत की गयी.उस समय के लिहाज़ से यह एक क्रांतिकारी कदम था और एक हद तक आत्मघाती भी.आत्मघाती इस अर्थ में कि समूची दुनिया में मार्क्युज़ की एक ऐसी छवि निर्मित करने की कोशिश की गयी कि वे बतौर सी.आई.ए के एजेंट यह सबकुछ लिख रहे हैं.ऐसी स्थिति में उनको पढने,समझने और उन पर विचार करने की जरुरत नहीं है.न सिर्फ हर्बर्ट मार्क्युज़ के संदर्भ में  बल्कि आज की तारीख तक दुनिया भर के मार्क्सवादियों का एक धरा इस बात को लेकर एकमत है कि फ्रैंकफर्ट स्कूल की अवधारणा और उसकी चिंतन पद्धति के मूल में अमेरिकी साम्राज्यवाद की भूमिका है.हालाँकि इस संदर्भ में यह भी कम दिलचस्प नहीं कि एडोर्नो और मार्क्युज़ के चिंतन को खारिज करने वाले पारम्परिक मार्क्सवादी विचारकों ने यह कहा कि उनका विश्लेषण सिर्फ अमरीकी समाज को केंद्र में रखकर है.अतः उन निष्कर्षों से कोई सर्वमान्य दमन की चेतना निर्मित नहीं होती इसलिए यह दुनिया के वर्तमान दौर में समझने में बहुत कारगर नहीं है.इस सबके बावजूद क्रांतिकारी चेतना से लैस युवाओं का बड़ा वर्ग, मार्क्युज़ की नव-मार्क्सवादी रुझानों के प्रभाव में आया.60’ के दशक के उतरार्ध में मार्क्युज़ छात्रों के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय सिद्धांतकार बन गये.

मार्क्युज़ ने सर्वहारा की अवधारणा को 60’ के दशक के मध्य नये सिरे से व्याख्यायित किया.उनके अनुसार पारम्परिक वाम की श्रमिक की अवधारणा को बदलते हुए क्रांतिकारी दस्ते में छात्रों, बेरोजगारों, अश्वेतों और अराजकतावादियों को शामिल करने की जरूरत है.मार्क्युज़ का मानना था कि इन्हें इसलिए शामिल किया जाना चाहिए क्योंकि ये पूंजीवादी खेल का हिस्सा नहीं होना चाहते.वे उस सफलता की सीढ़ी पर नहीं चढ़ना चाहते जो पूंजीवादी लालच से निर्मित होती है.मार्क्युज़ के अनुसार वर्चस्व की चेतना के निर्माण में अर्थव्यवस्था, राजनीति, तकनीक,और सामाजिक संस्थाओं आदि के संयुक्त प्रभाव की भूमिका का आकलन किया जाना चाहिए.पारम्परिक मार्क्सवादी दायरे में वर्चस्व को उत्पादन के पूंजीवादी स्वरुप एवं वस्तुपरकता के दायरे में सीमित कर देखा जाता है.इसके विपरीत हाईडेगर या बेबर के अनुसार वह तकनीक, तकनीकी तार्किकता तथा दमनकारी राजनीतिक चेतना में अंतर्भूत है.

मार्क्युज़ इन दोनों व्याख्याओं से पुर्णतः सहमत नहीं थे.उनका मानना था कि वर्तमान परिस्थितियों में इन निष्कर्षों से आगे बढ़ने की जरुरत है.मार्क्युज़ कहते हैं कि सामाजिक वर्चस्व की चेतना समाज के बाहर के तत्वों में मौजूद नहीं है, बल्कि उसे समाज की आंतरिक बुनावट में प्रत्यारोपित कर दिया गया है.मार्क्युज़ इस बात पर जोड़ देते हैं कि समाज की पुरानी छवियाँ बदल चुकी है.समाज स्वयं में ही  वर्चस्व के अटूट क्रम में बदल गया है.ऐसी स्थिति में समाज की आलोचना के नये तरीके विकसित किये जाने चाहिए.मार्क्युज़ यह भी कहते हैं कि सत्ता की पहचान समाज के बहार की शक्तियों में नहीं की जा सकती बल्कि उसे सामाजिक दायरों के भीतर विकसित हो रही चेतना के रूप में व्याख्यायित किये जाने की जरुरत है.फासीवादी सत्ता के चरित्र के साथ जनता के गैर आलोचनात्मक विवेक का मिलान करते हुए मार्क्युज़ ने लिखा था ‘फासीवादी राज्य ही फासीवादी समाज है’.

फ्रैंकफर्ट स्कूल के सभी चिंतकों में सर्वाधिक राजनीतिक मार्क्युज़ नज़र आते हैं .एडोर्नो समूचे विमर्श को दर्शन में ले जाते हैं, लेकिन मार्क्युज़ के यहाँ दर्शन, राजनीति एवं समाजशास्त्र का एक संतुलन नज़र आता है.यही कारण है कि एडोर्नो को लिखे एक पत्र में मार्क्युज़ उन्हें सलाह देते हैं कि वे जब पूरब की बात करें तो इस बात का ख्याल रखें कि दुनिया पूरब बनाम पश्चिम में बदल चुकी है और आज की स्थिति में पश्चिम की आलोचना करना ज्यादा जरुरी है, ऐसे में पूरब के बारे में कोई बात करते हुए अतिरिक्त सावधान रहने की जरुरत है.

60के दशक में मार्क्युज़ ने इस बात को समझने की जरुरत पर बल दिया कि मजदूर या श्रमिक की पहचान के नये तरीके इजाद किये जाने चाहिए, साथ ही उन रूपों की तलाश भी की जानी चाहिए,जहाँ पूंजीवादी चेतना के साथ मजदूर वर्ग की चेतना का अहम् हिस्सा खड़ा नज़र आता है.मजदूर वर्ग बाहरी दुनिया का प्रतिरोधी प्रतिबिम्ब नहीं रह गया है.वर्तमान की स्थिति में उसे पूंजीवाद के बाहरी रूपों के साथ ही संघर्ष नहीं करना है, बल्कि उस पूंजीवाद से भी लड़ना है जिसे उसके अवचेतन में प्रत्यारोपित कर दिया गया है.मार्क्युज़ का मानना था कि आत्म का रूपांतरण मजदूर वर्ग के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनकर आया है.ऐसे में वह क्रांति का विषय होकर भी क्रांतिकारी नहीं रह गया है.इसके लिए वे बीसवीं सदी में विकसित क्रिटिकल थ्योरी के साथ मार्क्सवाद को जोड़कर विकसित करने की बात कहते हैं.

मार्क्युज़ विरोध के व्यक्तिवादी तरीकों को भी महत्वपूर्ण मानते हैं.वे कहते हैं इस तरह की तमाम कोशिशें पूजीवाद का एक व्यापक क्रिटीक रचती हैं.मार्क्युज़ बार-बार समाज को व्यक्ति के रास्ते चिन्हित करने का प्रयत्न करते हैं.उनकी यह कोशिश उस पूंजीवादी प्रयत्न का जवाब बनती है, जहाँ वह स्वचालन की प्रक्रिया और तकनीक द्वारा हर किसी पर नियंत्रण काबिज करता है.मार्क्युज़ कहते हैं व्यक्ति का प्रतिरोध इस तकनीक और स्वचालन की प्रक्रिया को कमजोर करता है.इसी संदर्भ में एक आयामी मनुष्य समकालीन मनुष्य और उससे निर्मित समाज की आलोचना प्रस्तुत करती है, सिर्फ पूंजीवाद की नहीं.वे कहते हैं बीसवीं सदी के यथार्थ से हमने जाना कि हर तरह के विचार अंततः एक वर्चस्वादी विचार में बदल जाते हैं.समूचा समाज इस वर्चस्वाद के अनुकूल ढलता जाता है ..यहाँ तक कि सुविधाओं की आवश्यकता, राजनीतिक और नैतिक स्वतंत्रता का भी इस्तेमाल वर्चस्व को कायम रखने के तरीकों में बदल जाता है.ऐसे में विकल्प क्या है ? वे कहते हैं समग्र विध्वंस ही एकमात्र विकल्प के रूप में नज़र आता है.जब उनसे यह पूछा गया क्या वे छात्रों के अराजकतावादी आन्दोलन को वैचारिक रूप से सही मानते हैं तो मार्क्युज़ का कहना था ‘नहीं’ .लेकिन बावजूद इसके उनका मानना था कि छात्रों द्वारा उठाया जा रहा यह कदम एकदम सही है.मार्क्युज़ का कहना था हर तरह के हिंसक प्रतिरोध के परिणामस्वरूप दमन की संभावना बढ़ जाती है.लेकिन यह प्रतिरोध न करने का कारण कभी नहीं रहा है.अन्यथा हर तरह की प्रगति असंभव हो जायेगी.7 (पृष्ठ-१०३)

मार्क्युज़ कहते हैं कि समाज में विरोध की चेतना बहुमूल्य है.विरोध की चेतना में ही भविष्य की परिकल्पना मौजूद रहेगी.विरोध को किसी भी शर्त पर दमन के आतंक में छोड़ा नहीं जा सकता.मार्क्युज़ का मानना था कि छात्रों द्वारा किया जा रहा बलप्रयोग मूलतः आत्मरक्षात्मक है.छात्र आन्दोलनकारियों ने इस बात को स्वीकार किया कि मार्क्युज़ के रास्ते ही उन्होंने मार्क्स को नये रूप में पढना आरम्भ किया.मार्क्युज़ के समग्र चिंतन में नये के प्रति एक स्वागत का भाव नज़र आता है.एक तरह से कहें तो पारम्परिक मार्क्सवाद की जितनी खुली और क्रांतिकारी आलोचना मार्क्युज़ ने प्रस्तुत की उतनी अन्यत्र नज़र नहीं आती.

मार्क्युज़ के संदर्भ में विशेषकर उनकी पुस्तक एक आयामी मनुष्य के संदर्भ में बहुत से आलोचकों ने यह आरोप लगाया कि उनके दृष्टिकोण में एक खास तरह का निराशावाद है.उनका चिंतन हमे किसी ठोस नतीजे पर नहीं ले जाता.निराशावाद की बात मार्क्युज़ ने स्वीकार भी की.अपने जीवन के अंतिम दशक में वे नये विकल्पों की तलाश में नज़र आते हैं.मार्क्युज़ यथार्थ की जटिलताओं को लेकर कोई सरलीकृत समाधान प्रस्तुत नहीं प्रस्तुत करते और न ही कोई राजनीतिक अपरिपक्वता प्रदर्शित करते हैं.

वे समय के विवध आयामों को व्याख्यायित करते हैं.वे कहते हैं कि उत्पादन की प्रक्रिया को इस तरह मोड़ दिया गया है कि वह सिर्फ व्यर्थ की चीज़ें ही उत्पादित कर रही है.इसतरह श्रम की रचनाशीलता को नष्ट किया जा रहा है.इस व्यर्थ के उत्पादन ने बहुसंख्य लोगों की चेतना को अनुर्वर वर्तमान में बदल दिया है.वर्तमान का यह बोध हमे भविष्यहीनता की तरफ ले जा रहा है.इसमें आधुनिक ज्ञान विज्ञान सूचना और प्राद्यौगिकी की भूमिका निर्णायक है.एक तरह से कहें संस्कृति के समग्र रूपों को तकनीक ने आच्छादित कर लिया है.मार्क्युज़ के अनुसार यह जरुरी नहीं कि विज्ञान की भूमिका इतनी नकरात्मक ही हो या तकनीक मनुष्य विरोधी ही हो.वे कहते हैं कि टेलीविजन का काम लोगों को शिक्षित करना हो सकता था.इस शिक्षा का परिणाम यह होता कि लोग ऐसी चीज़ों की मांग नहीं करते जो व्यर्थ के उत्पादन से सम्बद्ध हों.परिणामस्वरूप शहरों में इस तरह के तमाम उत्पादन केंद्र नष्ट हो जाते.लोग अपने मूल स्थानों की तरफ लौट जाते और फिर वे उत्पादन की ऐसी प्रक्रिया का आरम्भ करते जिसमें बहुसंख्य लोगों की रचनात्मक भूमिका को सुनिश्चित किया जा सकता था.इस तरह उत्पादन और उपभोग के बीच एक व्यवहारिक संतुलन निर्मित होता.इसे स्पष्ट करते हुए मार्क्युज़ कहते हैं कि लोग जेनरल मोटर्स और फोर्ड द्वारा निर्मित की जा रही निजी आरामदेह गाड़ियों की बजाय जन परिवहन के काम आ सकने लायक गाड़ियों का निर्माण किया जा सकता था.जो बहुसंख्य के जीवन स्तर को प्रगति के रास्ते पर ला सकने के काम आती .




(छह)
लेनिन का  मानना था कि तीसरी दुनिया का मुक्तिकामी युद्ध पूंजीवाद के विनाश की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करेगा.उनका कहना था कि पूंजीवादी कड़ी में सबसे कमज़ोर हिस्से को तोड़कर पूंजीवाद पर निर्णायक प्रहार किया जा सकता है.मार्क्युज़ लेनिन की इस स्थापना से सहमत नहीं थे.उनका कहना था कि पूंजीवाद से संघर्ष कर रही निर्णायक शक्तियों के साथ जब तीसरी दुनिया का संघर्ष एकजुट होगा तभी पूंजीवाद पर निर्णायक चोट हो सकेगी .क्योंकि पूंजीवाद हमेशा प्रतिक्रांतिकारी ताकतों के साथ हाथ मिलाकर मुक्तिकामी युद्धों की दिशा मोड़ने का प्रयत्न करता है.ऐसी स्थिति में पूंजीवाद से एकायामी नहीं बहुआयामी संघर्ष की जरूरत है.यह बात भारत के स्वंत्रता के लिए हुए संघर्ष और उसके परिणाम पर भी लागू होती है.

भारत ने तक़रीबन डेढ़ सौ वर्षों तक जो मुक्तिकामी युद्ध लड़ा, उसके परिणाम को किस तरह बदला गया यह हैरान करता है.क्या मुक्तिकामी युद्ध से जनता की चेतना में जो परिवर्तन आया, उससे भारत पाकिस्तान के विभाजन की कोई संगती बैठती है? यह कैसे संभव हुआ कि लाखों लोगों के बलिदान को अंतिम क्षणों में हुए भारत पाकिस्तान के विभाजन के द्वारा निगल लिया गया? क्या इसे महज़ एक राजनीतिक संयोग भर माना जा सकता है? तमाम राजनीतिक संयोग पूंजीवाद के पक्ष में ही भूमिका अदा करते हैं? जनता की सामूहिक स्मृति में, वहां के लोगों के संघर्ष की जो छवियाँ होती हैं वह वास्तव में हर तरह के दमन के प्रतिरोध की संभावना भी निर्मित करती है.

पूंजीवाद इतिहास की दिशा को बदलने के लिए जनता की सामूहिक स्मृति को प्रतिक्रांतिकारी शक्तियों के रास्ते उलझा देता है. यह कम दिलचस्प नहीं कि वह यूरोप जो फ़्रांसीसी क्रांति और जर्मन आदर्शवाद के गर्भ से निकला था, जिसने सामंतवाद के विरुद्ध एक निर्णायक लड़ाई लड़ी थी, वही एशियाई और अफ़्रीकी समाजों में दमन के लिए सामंती एवं प्रतिक्रांतिकारी ताकतों का समर्थन एवं संरक्षण प्राप्त करता है.

क्या मार्क्युज़ की परिकल्पना हमे एक निराशा से दूसरे निराशा की ओर धकेल देती है? आखिर इस नये पूंजीवाद कि व्याख्या और विश्लेषण के बाद आगे का रास्ता क्या है .दमन की यह अंतहीन प्रक्रिया जब समूचे समाज को अपना ग्रास बना लेगी तब हम किस दुनिया और मनुष्यता के लिए संघर्ष करेंगे.कौन सा सौन्दर्यबोध हमारे भीतर टिमटिमाता रहेगा? कौन सी स्मृतियाँ हमारे भीतर दीप्त होती रहेंगी? किनके सहारे हम भविष्य की ओर पहुंचेगे?

अगर यह दुनिया रहेगी दमन होगा तो संघर्ष भी बचा रहेगा.सवाल है संघर्ष का वास्तविक स्वरुप क्या हो? मार्क्युज़ के अनुसार वह रास्ता होगा वृहद् नकार (Great Refusal). एकायामी मनुष्य की यह मन्थरता आगे जाकर टूटेगी. काम के प्रति बढ़ते असंतोष और आत्मसंघर्ष में प्रस्फुटित हो रहे रोजमर्रा के गुस्से में उसे चिन्हित किया जा सकता है.तनख्वाहों का छद्म, मुद्रास्फीति का बढ़ना बेरोजगारी में वृद्धि असंतुलित मुद्र्व्यवस्था, बाज़ार में मंदी पर्यावरण और उर्जा का संकट .ये सब स्थितियां मिलकर एक नई चेतना का निर्माण करती हैं.मार्क्युज़ के अनुसार यह चेतना है वृहद् नकार की.

मार्क्युज़ के अनुसार विकसित औद्योगिक समाज एक विशाल तकनीक द्वारा संचालित किये जाते हैं.यह तकनीक रोज़ बरोज़ मनुष्य से खाली होती जा रही है.हर दिन एक नई मशीन को कई लोगों की जगह स्थापित कर दिया जाता है, इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप शोषण और तीव्र होता जाता है.

लोग नाखुश होते हैं.परेशान होते हैं.वे चाहते हैं कि यह सब कुछ बंद हो .लेकिन यह रुकता नहीं.वे हताश होते हैं.पीछे हटते हैं.मर जाते है. फिर नये लोगों का रेला आता है.सबकुछ पूर्ववत चलता रहता हैं.इतिहास ,इतिहास की तरह नहीं एक वृत्त की तरह घूमता रहता है.जीवन -समय में वही सारी चीज़ें बार-बार दुहरायी जाती है.ऐसे में विकल्प क्या है ? मार्क्युज़ के अनुसार, यह जो लोगों के रोजमर्रा का संघर्ष है, यह जो उनके उनके छोटे छोटे नकार हैं ,भविष्य में वही जाएगा.इनमें एक उम्मीद है .उम्मीद यह कि ये तमाम नकार एक दिन वृहद् नकारबन जायेंगे.लोगों के न कहने से विरोध की ताकत बढ़ेगी.वे एक दिन सारी मशीनों को ठप्प कर देंगे.पूंजीवादी उत्पादन का घूमता पहिया हिचकोले खाने लगेगा.लय टूटने लगेगी.विध्वंस का एक दौर आएगा.इतिहास का यह चक्र थमेगा.हम एक नये समय नये युग में जायेंगे.हम भविष्य में प्रवेश करेंगे.नये और पुराने के बीच यह वृहद् नकार निर्णायक साबित होगा.मार्क्युज़ के अनुसार समाज की मुक्ति की दिशा में यह पहला कदम निर्णायक साबित होगा.   
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संदर्भ
1 Marcuse Herbert ,Reason And Revolution Hegel And The Rise Of Social Theory, Routledge And Kegan Paul, London and Henley, reprint - 1986,  page 4
2 Ibid 6
3 Marcuse Herbert , One Dimensional Man Studies In The Ideology Of Advanced Industrial Society     Routledge  London  Reprint 2012, Page 3
4 Ibid  6
5 Marcuse Herbert ,Reason And Revolution Hegel And The Rise Of Social Theory, Routledge And Kegan Paul, London and Henley, reprint - 1986,  page 436
 6 Ibid page 438
7 Marcuse Herbert, The New Left And The 1960s (collected papers of Herbert Marcuse vol 3 ) ed –Douglas Kellner , Routledge ,London 2005, Pg 103

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युवा अध्येता अच्युतानंद मिश्र लगातार समकालीन सामाजिक दार्शनिक अवधारणाओं पर लिख रहे हैं. 'विलगाव, आधुनिक विज्ञान और मध्यवर्ग',  'फूको'जुरगेन हेबरमास,  ‘बौद्रिला’, और एडोर्नो  पर उनके आलेख आप समालोचन पर  पढ़ चुके हैं.    


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anmishra27@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : संतोष अर्श

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(गूगल से साभार)

संतोष अर्श की कविताओं की तेवर तुर्शी अलग से दिखती है, वे समकालीनता के विद्रूप पर हमलावर हैं, जातिगत विडम्बनाओं पर मुखर हैं.  
कविता का ढब भी बदलता  चलता है जगह –जगह. उन्हीं के शब्दों में ‘राख के भीतर बहुत सारी चिंगारियाँ’ लिए हुए. पर ये कविताएँ भी हैं केवल सपाट वक्तव्य नहीं.

इसीलिए एक कवि के रूपमें संतोष आश्वस्त करते हैं.
कुछ नई कविताएँ


संतोष अर्श की कविताएँ                          



गऊ आदमी

गऊ आदमी है
कि आदमी गऊ है ?
लखनऊ गोरखपुर है
कि गोरखपुर लखनऊ है ?
हिंदू गऊ है
कि मुसलमान गऊ है ?
बांभन गऊ है
कि अहीर गऊ है ?
चाय गाय है
कि गाय चाय है ?
विकास श्मशान है
कि विकास क़ब्रिस्तान है ?
कुर्सी पर जोग होता है
कि जोग से कुर्सी मिलती है ?
सत्य उत्तर होता है
कि उत्तर सत्य होता है ?
गऊ आदमी है
कि आदमी गऊ है ?




जानेमन जुगनू

जानेमन जुगनू !
बहुत दिन बाद मिले हो
ज़रा कम टिमटिमा रहे हो
रात की चकाचौंध रोशनी से डरे हुए हो ?
जानेमन जुगनू !
किन झाड़ियों में छुपे रहे
किन पत्तियों में ढके रहे
किन नालियों में पड़े रहे
किन योजनाओं में लगे रहे
उम्मीद की बैट्री चार्ज कर रहे थे ?

जानेमन जुगनू !
अँधेरा बहुत है
सही कह रहे हो
अँधेरे को रोशनी के वरक में लपेटा है
अँधेरा फैलाने वालों ने
अँधेरे का नाम रोशनी रख दिया है.

जानेमन जुगनू !
क्या बकवास करते हो
बच्चे तुम्हारे पीछे नहीं दौड़ते
अब तुम खुले में सो रहे
किसी मजूर की मच्छरदानी पर भी नहीं जाते
रात के आवारा को भी शक्ल नहीं दिखाते  

जानेमन जुगनू !
इतनी भी उदासी क्या
आओ बैठते हैं
दो-दो पेग पीते हैं
थोड़ा सा जीते हैं
योजना बनाते हैं
रात बहुत तगड़ी है
साज़िश बहुत गहरी है. 


 आत्मा के घाव

वे घाव
,घाव नहीं होते
जो कभी नहीं भरते.
देह पर लगे घाव
समय,समय पर भर देता है
आत्मा पर लगे घाव
चिताएँ और क़ब्रें भी नहीं भर पातीं.

देह पर लगे घाव
त्वचा पर धब्बा छोड़ते हैं
आत्मा पर लगे घाव
जमाने पर छाप छोड़ते हैं.
जिन लोगों की आत्मा पर घाव थे
उनके अजीब चाव थे
अलग हाव-भाव थे
वे जलते हुए अलाव थे
जिसमें जमाने को तापना था.

मरहम होना चाहिए
लेकिन देह के घावों के लिए
आत्मा पर लगे घाव
जमाने के घाव होते हैं.



पुरानी लड़ाई    

जब दो गरीब आदमी लड़ते हैं
तो एक अमीर आदमी बहुत ख़ुश होता है.
उसे लगता है कि दो तीतर लड़ रहे हैं
कि दो बटेर लड़ रहे हैं
दो मुर्गियाँ लड़ रही हैं,या दो भेड़ें.
जब दो गरीब आदमी लड़ते हैं
तो एक अमीर आदमी को बहुत मज़ा आता है
जैसे रोमन सामंतों को दो ग़ुलामों के लड़ने पर आता था.

दो गरीब आदमियों की लड़ाई में
जब एक गरीब आदमी मर जाता है
तो एक अमीर आदमी को वही आनंद मिलता है
जो ग्लेडिएटर की मौत पर
रोमन राजा को मिलता था.



अंतिम तीली   

इस वक़्त मुझे
अफवाहों के सूखे जंगल में
सत्य की एक पीली पत्ती ढूँढनी है.
बहुत भयानक शोर में
अपनी बात लोगों तक पहुँचानी है
और अपना पेट भी भरना है.
क्या यह संभव है ?
क्या यह संभव है कि
घुप्प अँधेरे में
मैं ज़ख़्मी हाथों से छू-कर,टटोल कर
ज़माने के लिए सही चीज़ उठा लूँ ?
हाँ यह संभव है !
बारिश में बुरी तरह भीग गई
माचिस की अंतिम तीली शेष है. 



घूर पर पड़ी हुई राख

मैं कविता में
घूर पर पड़ी हुई
थोड़ी सी राख हूँ
जिसे एक देहाती औरत
चूल्हा बुझाने के बाद फेंक गई है.
इस बात से अनजान
कि उस राख के भीतर बहुत सारी चिंगारियाँ थीं.


 आँत और ज़मीन का रिश्ता 

जिससे मेरी आँतों का रिश्ता है
मैं अपनी वो दो बीघे ज़मीन कहीं छोड़ कर
किसी महानगर में आ गिरा हूँ.
मेरे जैसे ही कुछ लोगों को छोड़ कर
यहाँ मुझे कोई नहीं जानता
यहाँ वर्तमान और भविष्य दोनों से डर लगता है.
भविष्य से डर लगने पर
मुझे मेरी ज़मीन याद आती है
और मेरे हृदय का क्षेत्रफल दो बीघे हो जाता है.
दो बीघे ज़मीन केवल दो बीघे ज़मीन नहीं होती
दो बीघे आसमान भी होती है
दो बीघे धूप भी होती है
दो बीघे बारिश भी होती है
दो बीघे हरीतिमा भी.    



दीनानाथ का मोहिनी रूप    

समुद्र मंथन   
अमृत के लिए नहीं    
रोटी और पानी,
ज़मीन गुड़धानी के लिए हुआ था.

मंदार पर्वत कछुए की नहीं
ग़ुलामों की पीठ पर रखा था
और मथानी की रस्सी
उन्हीं की खाल खींचकर
बटी गई थी.
समुद्र से जो विष निकला था
उसे पीने वाला ज़रूर कोई आदिवासी रहा होगा.

जौहरी लूट ले गए हीरे-मोती-रत्न
दीनानाथ ने मोहिनी बनकर
सब जनों को रिझा लिया.      



 लेखकों की हत्याओं का मौसम

कलबुर्गी मारे गए
पानसरे मारे गए
दाभोलकर मारे गए
किरवले मारे गए.
वे भाषाएँ सच्ची भाषाएँ होती हैं
जिनमें लिखने वाले लेखकों की हत्याएँ होती हैं
लेखकों की हत्याओं के मौसम में
जिन भाषाओं के लेखक नहीं मारे जाते
वे भाषाएँ या तो कायरों की होती हैं
या हत्यारों की.


स्वर्ग बनाम नर्क     

उन्होंने स्वर्ग में उपभोग किया
और कचरा नरक में फेंक दिया.
हर स्वर्ग अपने नीचे एक नरक बनाता है
उस नरक में वे लोग रहते हैं,
जिन्होंने नरक बनाने वालों के लिए
स्वर्ग बनाया है.
दूसरों का जीवन नरक बना देना ही
अपने लिए स्वर्ग बना लेना है.
चंद लोगों का स्वर्ग
बहुत ज़्यादा लोगों का नरक है.
जब नरक से किसी आदमी की चीख
स्वर्ग के आदमी तक पहुँचती है
तो वह नरक में
थोड़ा और कचरा फेंकता है.



कविता क्या है ? -1

कवि होने में क्या है ?
कवि तो ब्रह्मेश्वर मुखिया भी हो सकता है
चंगेज़ खाँ भी !
भ्रष्ट अफ़सर, लंपट नेता
कामी प्रोफ़ेसर और घूसखोर जज
डॉक्टर किडनीचोर, टिकियाचोर वक़ील भी
कवि हो सकता है.
कवि होने में क्या है ?

मेरे जैसा लंठ भी कवि हो सकता है.
कवि होने में कुछ भी नहीं है !
जो कुछ है, वो
कविता होने में है.



कविता क्या है ? -2

मैंने सुकुल (रामचंदर) जी से पूछा,कविता क्या ?
उन्होंने कहा,कविता तुलसीदास है !
मैंने शर्मा (रामबिलास) जी से पूछा,कविता क्या ?
उन्होंने भी कहा,कविता तुलसीदास है !
सुकुल दक्षिण हैं,शर्मा वाम हैं
दोनों का आदि अंत राम हैं
राम शंबूक का बधिक है,सीता का त्यागी है
इसीलिए हिन्दी कविता अभागी है.


कविता क्या है ? -3 

कविता जनेऊ नहीं है
जिसे कान पर लपेट कर
फ़र्ज़ी बिम्ब मूत दिए जाएँ.
कविता गले में चुपचाप
टाँग ली गई हाँडी है
जिसमें सच्ची अनुभूतियों का थूक भरा है.    
_____________________

संतोष अर्श 
(1987, बाराबंकीउत्तर- प्रदेश)
ग़ज़लों के तीन संग्रह ‘फ़ासले से आगे’, ‘क्या पता’ और ‘अभी है आग सीने में’ प्रकाशित.
अवध के ऐतिहासिकसांस्कृतिक लेखन में भी रुचि
लोकसंघर्ष’ त्रैमासिक में लगातार राजनीतिकसामाजिक न्याय के मसलों पर लेखन.
2013 के लखनऊ लिट्रेचर कार्निवाल में बतौर युवा लेखक आमंत्रित.

फ़िलवक़्त गुजरात केंद्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी भाषा एवं साहित्य केंद्र में शोधार्थी  
 poetarshbbk@gmail.com  

परिप्रेक्ष्य : 'क'से कविता का एक साल

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कविता पाठ का ख़ास आयोजन ‘क’ से कविता उतराखंड में अपनी स्थापना की पहली वर्षगाँठ मना रहा है. इस अवसर पर २३ अप्रैल को देहरादून में विशेष समारोह का आयोजन किया जा रहा है.
इस सफर पर प्रतिभा कटियार की टिप्पणी .



 'क' से कविता का सिलसिला                     
प्रतिभा कटियार


बारह महीने...छह ऋतुएं..तीन मौसम...और अनजाने लोगों का बनता कारवां...हंसतीखिलखिलाती दोस्तियों के बनने और निखरने का सिलसिला...और सबको जोड़ती हुई कविताएं. 24 अप्रैल 2016 को देहरादून के पहाड़ों से उतरकर कोई मौसम कविताओं की एक शाम में ढल गया था...उस शाम का नाम पड़ा से कविता...याद है मुझको वो पंक्तियां जिनसे इस शाम का आगाज़ हुआ था...उत्तराखण्ड के कवि स्वर्गीय हरजीत जी की थीं वो लाइनें कि आई चिड़िया तो मैंने यह जानामेरे कमरे में आसमान भी था...

जब कविता नाम की यह चिड़िया देहरादून की इस बैठक में चहचहाई थी, तब कहां पता था कि बारह महीनों में यह चहचहाअट एक संगीत बनकर पूरी दुनिया को इस तरह गुंजा देगी. कि इन बारह महीनों के सफर में उत्तराखण्ड में ही उत्तरकाशीश्रीनगरहलद्वानीउधमसिंह नगरटिहरी और खटीमा में से कविता की शामें सजने लगेंगी. क्या पता था कि हिंदुस्तान में हैदराबादइंदौरछिंदवाड़ादिल्ली होते हुए ये बैठकियां रिचमंड (अमेरिका) तक जा सजेंगी.

यह सिलसिला किसी जुनून से शुरू हुआ हो ऐसा भी नहीं. यह सिलसिला एक प्यास से शुरू हुआ थाबहुत प्यार से शुरू हुआ था. प्यास कविताओं की,जिंदगी कीकलाओं की. रोजमर्रा की भागदौड़ से लगातार क्षरित होताउलझाता जीवन जब थकने को था तो कविता की छांह में आराम मिलने लगा. सुकून आने लगा. कोई पूछता कि आखिर क्या खास है इस से कविता में. इतने कार्यक्रम तो हैं साहित्य और कविताओं के एक और क्यों तो हम मुस्कुराते हुएकहते...यहां सुकून हैआराम हैकिसी को कुछ साबित नहीं करना हैबस कविताओं को महसूस करना हैअपनी पसंद की कविता दूसरों से साझा करने का सुख है.

अपनी पसंद की कविता...सादगी....सरलता...यही इस कार्यक्रम के केन्द्रीय तत्व रहे. कितना ही विरोध हुआकुछ लोग नाराज भी हुएकुछ अब तक नाराज हैं. किसी को लगा कि यह कैसा बेवकूफी भरा कार्यक्रम हैं, जहां अपनी रचना पढ़ने की आजादी ही नहीं हैक्यों आयेगा कोई भला. कई बार लगा सचमुच नहीं आयेंगे क्या लोगकभी कभी इतने मासूम इसरार होते कि बस एक अपनी कविता सुना लेने दो नकि मना करते समय दिल ही बैठने लगता...लेकिन समझौता अगर आत्मा से ही हो तो देह का क्या काम. से कविता कार्यक्रम की आत्मा ही यह है कि यहां अपने मैंको उतारकर आना है.

न सिर्फ अपने लिखे को साझा करने के मोह से मुक्त होने की यह शुरुआत थी बल्कि यह शुरुआत थी अपने तमाम सारे और अहंकारों को भी छिटककर दूर करने की. कि अपना लंबा चौड़ा परिचय भी क्यों देना है. आपकी पसंद भी तो आपकी पहचान ही है न?मुझे एक ही कविता क्यों पढने को मिली? मेरी पसंद की कविता पर कम तालियां क्यों बजीं...ऐसे सवाल भी अहंकारही तो थे...मैंही तो थे...जो धीरे-धीरे पिघल रहे थे.

कभी-कभी लगता कि लोग कम आ रहे हैं, क्या लोगों को सिर्फ अपनी कविताएं सुनाने में रुचि हैअपनी पसंद की कविताएं सुनाने और दूसरे की पसंद की कविताएं सुनने में कोई रुचि नहीं...फिर लगता...हर समय में नई बात को समझने और स्वीकार करने में वक्त लगा ही है. हम भीड़ के पीछे नहीं भाग रहे थे लेकिन अच्छी कविताओं को सुनने की प्यास लगातार बढ़ रही थी. बिना किसी अवरोध के हम हर महीने बैठते कभी कम, कभी ज्यादा और दो घंटे में जितनी कविताएं हम सुनतेउन कविताओं के अपने जीवन में खास जगह बनने के किस्से सुनते तो लगता कि इस भागती-दौड़ती जिंदगी से कुछ लम्हे चुरा ही लिए हमनेकुछ तो जी ही लिया...ये जिया हुआ हमसे कोई कभी नहीं छीन सकता.

इस बीच दूसरे शहरों में से कविता की बैठकियों की खबरें कानों को आराम देतीं और यह सुकून भी कि देहरादून जिन शामोंको किसी ख़्वाब सा बुना था, वो ख़्वाब अब कई पलकों में सजने लगा हैकई शहरों में खिलने लगा है. बारह महीने बहुत ज्यादा वक्त नहीं होता लेकिन एक छोटे से शहर में छोटी सी बैठकी से शुरू हुआ यह सिलसिला किस तरह न सिर्फ उत्तराखण्ड की सीमाएं लांघ चुका है बल्कि हिन्दुस्तान की सीमा को भी उसने हंसकर ठुकरा दिया है.

रिचमंड में रुचि बड़े प्यार से से कविता की बैठकी सजाती हैं, न्यूज़ीलैंड में जसपाल भी उत्साह से हिंदी और उर्दू की कविताओं का पिटारा खोले बैठे हैं. उधर हैदराबाद में मीनाक्षी और प्रवीण कुछ अलग ही स्तर पर इसे हैदराबाद के दिलों की धड़कन बना रहे हैं. छिंदवाड़ा में रोहित रुसिया की कला ने से कविता के रंगों को सुर और आवाज से अलग ही अंदाज दियादिल्ली में चंदर, पूजा, जावेद ने निशस्तनाम से यहबैठकी सजाईइंदौर की धरा और वैभव ने कविताओं को अपनी पसंद की मुट्ठियों से आज़ाद किया और शहर मुस्कुरा दिया.

उत्तराखण्ड में तो पूरा राज्य ही इस रंग में रंगने लगा. उत्तरकाशी में प्रमोदराजेश, मदन मोहन और रेखा चमोली ने इस कार्यक्रम को सहेजा तो श्रीनगर में नीरज नैथानी ने. हल्द्वानी में प्रभात उप्रेती और भास्कर ने आगे बढ़कर कहाप्यार तो कबसे है कविताओं से तो चलो एक-दूसरे की पसंद की भी सुनते हैंउधमसिंह नगर में हेम पंत ने कार्यक्रम को रचनात्मकता के नये पंख लगाये और यहाँ न सिर्फ कविताएं सुनी-सुनाई जाने लगीं बल्कि कविताओं की किताबों का एक कोना भी बना दिया गया. कविताओं की खुशबू इस कदर फैलने लगी कि टिहरी से संजय सेमवाल और खटीमा से सिद्धेश्वर जी ने भी इसे शहर का हिस्सा बना लिया. शहर के मौसम अब से कविताओं के सुर में सुर मिलाने लगे हैं.

इस सबके बीच सुंदर अहसास यह हाथ आया कि हम एक परिवार होते जा रहे हैं. से कविता परिवार. लगता है हर उस शहर में जहां से कविता हो रहा है या होने की तैयारियां चल रही हैं अपना कोई है. कोई ताम-झाम नहींकोई वरिष्ठ नहीं, कोई कनिष्ठ नहीं सब एक से...यानी कविता प्रेमी. कितने ही लोगों ने अपनी देह पर रेंगते हुए उस अहसास को भी बयान किया कि कबसे तो छूट गया था लिखना पढ़ना और यह तो कब का भूल चुके थे कि मेरी भी कोई पसंद हुआ करती थी. कैसे कुछ कविताओं ने दीवाना बना दिया था और कितनी ही कविताओं के पीछे बौराए फिरते थे. वो बीता हुआ दीवानापन लौटा लायी हैं से कविता की बैठकियां.कितने ही युवा साथी इस दीवानेपन में शामिल हुए कितनी गृहिणियांप्रोफेसर,थियेटर आर्टिस्टडाक्टर्सवकीलचार्टड अकाउंटेंटबच्चे...आठ बरस से अस्सी बरस तक के दीवाने सब एक साथ...और इस समूचे दीवानेपन में दूर से यूट्यूब वीडियोज के जरिये रंग भरता सबसे बड़ा दीवाना मनीष गुप्ता...जो जानता है कि यह दुनिया दीवानों ने ही बचाकर रखीहै इसलिए इस दुनिया को दीवानों से भर देना चाहिए. मनीष ने इस दीवानेपन में बॉलीवुड की तमाम हस्तियों को भी शामिल किया तो वरिष्ठ से लेकर नवोदित कवियों को भी. मनीष पिछले चार सालों से कविता के खूबसूरत यूट्यूब वीडियोज बनाकर कविताओं को जिन्दगी से दोबारा से जोड़ने के काम कर ही रहे थे. वो अब तक तकरीबन चार सौ वीडियो बना चुके हैं.जिनके जरिये बालीवुड हस्तियों समेत अनेक कवि लोक संस्कृति, लोकके गीतों को भी वो जोड़ते चल रहे हैं. ‘क’ से कविता की बैठकियों में इन यूट्यूब वीडियो ने भी रंग भरे.


हम आपस में लड़ते हैंझगड़ते हैंमुस्कुराते हैंखिलखिलाते हैं लेकिन एक-दूसरे से खूब सीखते हुए जिंदगी को असल में जीने की कोशिश करते हैं.

लोग पूछते हैं अपने शहर में किस तरह शुरू करें से कविता तो हम सबसे पहले मुस्कुराते हैं. इसे शहर में शुरू करने से आसान तो कुछ भी नहीं क्योंकि इसके लिए न पैसे चाहिए न ताकत, बस प्यार चाहिए कविताओं के लिएजिंदगी के लिए. ध्यान बस इतना रखना है कि सिलसिला टूटे न और मैंइससे दूर रहे.

हमेशा से एक बात लगती रही कि जिंदगी की किसी भी चीज में घालमेल संभव है लेकिन प्रेम में और कविता में नहीं. से कविता तो कविता से ही प्रेम की बात है तो यहां बिना घालमेल के ही आगे बढ़ा जा सकता है. एक शहर में कोई भी चार दोस्त इस सिलसिले को शुरू कर सकते हैं...यह बताते हुए कि यहां अपनी कविता नहीं पढ़ी जाती अपनी पसंद की कविताएं पढ़ी जाती हैं. इससे सरल क्या होगा भला...हांएक बात जरूर याद रखनी है कि से कविता को तनाव नहीं प्यार की तरह अंजाम देना है, जिससे जुड़ी हर बात में सुख मिले...

आज बारह महीनों के सफर को देखती हूं तो सुकून होता है...ख़्वाब से भरी अपनी आंखों से अब शिकायत नहीं रहती...
(इसमें शामिल हुए नाम तो सिर्फ प्रतीक भर हैं हर शहर में इन बैठकियों से जुड़ने वालों और इसे आगे बढाने वालों की फेहरिस्त तो बहुत लम्बी है)

_________________
प्रतिभा कटियार
9456591379

कथा - गाथा : सुराख़ : प्रज्ञा पाण्डेय

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(ASHISH AVIKUNTHAK : ENDNOTE (ANTARAL)












एक ट्रेन में एक लड़की से एक अफसर मिलता है उनमें बातें होती हैं और बातों में  आकार लेती है यह कहानी. कहानी मार्मिक है. पठनीय है. प्रेम, अलगाव और आत्मनिर्भरता से होकर जीने की जिद्द तक इसका फैलाव है.

  
कहानी
सुराख़                                              

प्रज्ञा पाण्डेय



गोल और गदबदे चेहरे वाली गोलमटोल वह  गेहूँ के रंग की  लड़की ट्रेन  में सवार हो गयी थी. पहाड़ी लड़कियों सी तरल, पनीली,  फूली फूली  आँखों वाली वह अपनी सीट पर बैठी भीतर से जितनी  बेचैन थी ऊपर से उतनी ही शांत दिखाई देती थी. उसके फरीदा जलाली गालों के कारण  उसकी उम्र का अंदाजा कोई भी  नहीं लगा पाता था. वह कभी तैतीस की लगती थी तो कभी तेईस की. ऐसा उसके साथ बरसों से था. वह जब जैसी चाहती  बन जाती, जब चाहती  तेईस  की और जब चाहती तैंतीस  की. जब वह  चाहती खिलकर हंसती तब उसके चेहरे पर उसकी आँखें,उसकी  पुतालियां, उसकी नाक, उसकी त्वचा भी खिलखिल हंसती.

कोई भांप ही न पाता कि अपने भीतर वह  किस तरह का और कितना निर्मम समय जी चुकी है. सचमुच  सन्नाटों  से भरे बीते  हुए खौफनाक  समय को पछाड़ना वह जानती थी तो क्या जीवन को रंगमंच मानकर वह सायरा बानो की तरह ही  अभिनय कर रही थी जिसकी मासूम सुन्दरता देख यकीन नहीं होता कि यह भी क्या अभिनय कर सकती है. वह लड़की  अपने चारों ओर  महकते  हुए शोख, सफ़ेद, गुलाबी फूल  और अपना सबसे प्रिय फूल लिली उगा लेती थी और खूब खुश दिखायी देती जैसे कि धरती पर पावों को थाप दे दे नाच रही हो, जैसे कि अभी  उसके सपनों का  उगना बाक़ी हो  जो उसके दुपट्टे में आँखें बंद किये  सोये पड़े हों  और जिन्हें वह दुनिया के सामने बिखेर देना चाहती हो. ऐसी थी वह लड़की! पर  कभी कभी अपने दिल की दुनिया में बिखरी हुई, रुई सी उदास  एक   औरत थी   जो आँगन के पिछले   दरवाज़े से निकल अपने उन स्वप्नों के लिए हर चहारदीवारी फलांग जाना चाहती थी  और किसी खुले मैदान में बैठ मर गए सपनों के लिए जी भर रोना  चाहती थी जिनके साथ उसे कभी  मन की  दुनिया बसानी थी जो बस न सकी थी.

लड़की के दिल  में एक धुकधुकी की आवाजाही हरदम ही  बनी रहती थी. ट्रेन के  चलने से पहले ज्यों ही इंजन डिब्बे से टकराया लड़की  का जी धक् से हुआ उसे लगा  कि पूरी ट्रेन ही कहीं किसी दरख़्त से जाकर टकरा गयी. सामने की बर्थ पर एक रोबीला, मूंछों वाला, अफसर जैसा आदमी  आकर बैठ गया  और   ट्रेन ने स्टेशन को  ऐसे  छोड़ा   जैसे  कि अब तक उसी की प्रतीक्षा में  रुकी  थी.                                 

अलस् भोर   थी.  ठंढी हवा थी फिर भी  रोबीली  मूंछों वाले उस  अफसर को देख कर लड़की की  हथेली में पसीना आ गया. चूंकि  लड़की ने अपने आसपास कई रूआबदार पुरुषों को अपने जीवन को जकड़ते देखा था इसलिए वह  रुआबदार लोगों से बहुत  डरती थी लेकिन ऊपर से  उसके  चेहरे के ऊपर  उसके भरे भरे होंठों की मुस्कान का  ऐसा पहरा था कि यह सच कभी भी जाहिर नहीं होता था. सो उसने फिर वही किया और अपनी बेपरवाही ऐसे जतायी जैसे उसे अपने  आस-पास से  कुछ  लेना-देना ही न हो जैसे कि वह मस्तमौला,  सजी धजी कोई फकीरिन हो. 

सामने की सीट पर बैठा वह रोबीला  आदमी  सी बी आई में था. अफसर था. किसी केस के सिलसिले में बनारस आया था और अब दिल्ली वापस जा रहा था. लड़की बनारस की थी और दिल्ली  जा रही थी. ट्रेन चलने के कुछ मिनटों के बीच  इतनी बाते खुल चुकी थीं. एक यात्रा में दो मुसाफिरों  के बीच इससे अधिक बातचीत की  कोई गुंजाइश   भी नहीं होती  लेकिन अफसर  बहुत बातूनी था. उसके बातूनीपन की तर्ज़ पर ही लड़की ने भी उससे सवाल पूछ लिया था कि किस केस के सिलसिले में वह बनारस आया ? तो अफसर इस के  जवाब को किसी बहाने से  टाल गया था. लड़की ने भी दुबारा नहीं पूछा बल्कि इसी बीच अफसर अपने बातूनीपन के बारे में लड़की को बताने लगा कि  बचपन से ही अफसर के बातूनीपन की  आदत छुड़ाने की माता पिता ने तमाम कोशिशें की थीं लेकिन वह अब तक वैसा ही था.  

माता पिता को लगता था कि यह ऐब  उसकी  ज़िंदगी  का बहुत  सा उत्तम और नतीजे देने वाला समय  बर्बाद कर देगा  साथ ही वह बडबोलेपन के कारण कभी  किसी मुसीबत में भी  फंसेगा लेकिन वह अब तक किसी मुसीबत में नहीं पडा था बल्कि  इसी गुण की वजह से बहुत से लोगों की बहुत सी मुसीबतों के समाधान ढूंढ दिए थे. अफसर को अपने प्रोफेशन में इस बातूनीपन का लाभ मिला था. अपनी इसी आदत के कारण वह  बहुत जल्दी जल्दी कामयाबी की सीढियां चढ़ गया था क्योंकि अफसर किसी को न तो अप्रिय बोलता था न दुश्मनी मोल लेता था. वह तो कुरेद कर पेट  की दाढ़ी भी बाहर निकाल लाता था और इसीलिए वह खुद को किसी के अंतर्मन में झाँक लेने का माहिर   समझता था. वह बोला कि वह कुएं में झाँकने की तरह किसी के मन में झांकता है. यह जानकर   लड़की कुछ अधिक ही सतर्क हो गयी थी. वह   बाहरी लोगों से अधिक  बातचीत   करना तब तक पसंद  नहीं करती थी जब तक संभव हो. वह अपनों से तो खुली किताब थी पर परायों के सामने  ताला बंद कमरा थी.

यों तो अफसर देखने में जितना रोबीला था बोलने में उतना रोबीला सचमुच नहीं  था इसीलिए  लड़की को उसमें किसी  अफसरपन की कोई बू  नहीं आई  और कोई    रुआब नहीं दिखा लेकिन उसकी मूंछे रोबीलीं थीं. रुआबदार अफसरने  पूछा- "तुम क्या करती हो"
"
मैं एक  एन  जी ओ में काम करती हूँ"लड़की  बिला  वजह  किसी को अपने सच बताने में  बिलकुल यकीन नहीं करती थी  क्योंकि उसके  पास जीवन के ऐसे कई अनुभव थे जिनके कारण वह  जानती थी कि उसे ऐसा  ही करना चाहिये. जाने कैसे कैसे डर थे उसके भीतर जिन्हें संभालना उसके ही वश में था किसी और के नहीं तब किसी को बताने का लाभ ही क्या था.
"
एन जी ओ का क्या नाम है."अफसर ने पूछा.

"
एडुकॉम एंड नेशन. वे लोग  भारत में शिक्षा पर काम करते हैं. भारत की गरीबी कम करने और भारत   को साक्षर बनाने के लिए वर्ल्ड बैंक ने  उन्हें पैसे दिए हैं.   लड़की ने एक संपर्क से मन ही मन नाता जोड़ लिया था और  बेझिझक बहुत इत्मीनान से अफसर  से बातें करने लगी थी. अफसर को  देश विदेश के सारे एनजीओज़ का काला चिट्ठा बहुत मालूम था. उसके पास एक   अंतर्दृष्टि भी थी. अपने बारे में यह भी उसका मानना था कि सूक्ष्म आर्थिक अपराध और अपराधियों को वह   दूर से ही पहचानता था लेकिन  सच तो यह था कि  अपना  रौब झाड़ने में कभी कभी वह दूसरों  के सामने  बहक भी जाता था. वह कहता  मैं उड़ती चिड़िया को  पहचानता हूँ और उसके पर गिन सकता हूँ. उसे लड़की मासूम लगी. उसने सोचा -यह क्या कर सकती है, अपराध तो ऊपर बैठे लोग करते हैं.  यह तो   उस  बड़ी माला  का  एक ऐसा  मोती  है जिसे निकाल कर पूरी माला दो सेकेंड में फिर गुंथ जाए और इसके वहां होने की  कोई निशानी भी  न छूटे.
 
"
अच्छा तो फिर यहाँ किसलिए ?" 
अफसर ने पूछा.

"
यहाँ  तीन-चार  दिन  दिल्ली और आस पास की झुग्गियों का सर्वे करके रिपोर्ट बनानी है मुझे."
लड़की ने बहुत सहजता से मुकम्मल जवाब  दे दिया.

"
ओह तो काफी सीरियस काम है आपका."अफसर बाल की खाल  निकालने में जुटा सा लगा.
लड़की भीतर के भी भीतर थोड़ा सा  डरी  कि उस रुआबदार अफसर ने तुरंत ही  पूछ ही लिया -" ओह, तो आपको यहाँ की झुग्गी झोपड़ियों के अते-पते मालूम हैं?"  

लड़की  जवाब के लिए तैयार थी - "नहीं मुझे तो कुछ नहीं मालूम. मेरे जो लोग यहाँ हैं वे ही मुझे गाइड करेंगे."

इसके बाद की बारीकी में अफसर नहीं गया.  उसने अपनी सुडौल  स्वस्थ गरदन हाँ  में हिलायी.  उसने पूछा -माँ बाप कहाँ हैं क्या करते हैं.

"पिता तो रिटायर हो चुके हैं. माँ घर में ही रहतीं   हैं "लड़की दस साल पीछे पहुँच गयी थी. लड़की ने  अपनी भाव भंगिमा से यह संकेत  दे देना ठीक   समझा था  कि वह अब तक अविवाहित है.

विवाहित स्त्री और  अकेली माँ  पर कैसी कैसी निगाहें रखते हैं लोग यह सब भुगतने  बाद ही लड़की इस नतीजे पर पहुंची थी. इस बीच उसकी बेटी का  फ़ोन आया  और वह उसे काटकर एसमएस  को माध्यम बना उससे बात करती रही. कोई बड़ी  बात नहीं थी यह कहने में कि  वह शादीशुदा है. उसके  दो बच्चे  हैं लेकिन किसी को इतना बताने पर बात इतने पर कहाँ रुकती है. और आपके पति ? इस सवाल के  बिना कहाँ पूरे  होते  हैं  सारे जवाब. वह इस सवाल से बचना चाहती थी. वैसे तो  शादी के दो साल बाद से  ही लगभग उसने यह बताना छोड़ ही  दिया था कि  वह शादीशुदा  है  क्योंकि शादी उसकी दुखती रग थी जिसे  बार-बार छेड़ने पर वह खासे   दर्द का अनुभव करती थी.  यों भी कम समय में उसने  बहुत अधिक जी लिया था.

उसके सपनों की  तहें और गिरहें अभी खुली  भी न थीं. उसे इसके लिए  समय ही नहीं मिला था. अब तक का उसका सारा समय खुद को ढंकने तोपने और बचाने   में  चला गया था.उसने अफसर को चोर निगाह से देखा. क्या अफसर   सच कह रहा है कि वह सबको  समझ जाता है !  क्या उसे भी. उसे तो सब छुपा ले जाना है. वह मान ही मान हंसी .. 


"कहाँ की रहने वाली हो"अफसर ने पूछा  -कैसे बताये कि वह आज भी अरावली की पहाड़ियों के बीच ही रहती है. वर्षों बीत गए वहां गए हुए और उस एक ठहरी हुई गाढ़ी शाम को जिए हुए फिर भी.  
                                 
लड़की धीरे से अपने भीतर उतर गयी.  प्रेम में पड़  विवाह किया था उसने. प्रेम में ही रह गयी होती विवाह क्यों  किया. उसे बार बार लगता लेकिन उसके लगने से क्या हुआ. दुनिया  की सबसे पुरानी   पहाड़ियों के बीच  घूमती वह शाम  उसी तरह बीत गयी होती तो  क्या कोई शिकायत की होती उसने ! उसके साथ कितनी मधुर थी वह. उसे पत्थरों के बीच बना  वह मंदिर याद आ गया. वह  वहां न रहा होता तो उसने भी कोई कसम न ली होती.  वहां लाल जोड़े में सजी धजी एक दुल्हन और पीली धोती और पीला कुरता पहने गाँठ  जोड़े  वह जोड़ा जो न मिला होता  तो वह उस शाम को  दिल में बसाये  अपने  घर चली आयी होती. उस जोड़े को देखती  संजीव की आँखों की कशिश ने वहीँ एक ऐसी कसम दे दी  कि वह अपना जीवन  बिना सोचे समझे उसे सौंप घर लौट आयी थी.

पत्थरों के बीच बने उस  मंदिर की चट्टान पर बैठ एक आरक्त चुम्बन के आतुर इंतज़ार में ढलते सूरज को देखना और झिलमिल अँधेरे के आते ही   झट  घर आने के लिए उसकी बाहों के  घेरे को  तोड़कर अपनी कलाईयों को उसकी मुलायम पकड़ से छुड़ा लेने की स्मृति जीने के लिए क्या बहुत नहीं होती.  क्या चंद पलों में  उसे एक बड़ा  फैसला  कर लेना चाहिए  था ? लेकिन बावजूद इसके उसने बड़े फैसले आगे भी चंद पलों में लिए. जैसे संजीव से अलग होने का फैसला  एक  छत के नीचे रहते हुए  भी संभव किया. जिस दिन उसने उसके स्कूल के लिए निकलते समय  उसकी बेटियों के सामने ही उसने  कहा था- धंधा करने जा रही हो हो ? बस उसी दिन बल्कि उसी पल .
उसकी आँखों में कोई आंसू झिलमिलाता उसके पहले ही अफसर ने पूछ लिया.  

"माँ बाप के लिए  तो बेटियां बहुत प्रिय होतीं हैं. तुम तो वैसे भी इतनी मधुर और शालीन हो."अफसर स्नेहिल था .

लड़की  के  होंठ हमेशा की तरह फैली हुई  तैलीय मुस्कान से लबरेज थे. लड़की स्थिर शीशे की बड़ी खिड़की से बाहर अपनी नज़रें जमा बैठ गयी.     

वह लगातार  ट्रेन के बंद शीशे  वाली पारदर्शी   खिड़की से बाहर देख रही थी.                

पिता लड़की के फैसले से  आहत थे. उन्होंने तो उसके बचपन में ही मित्र के बेटे से उसका रिश्ता जोड़ने का  वचन दिया था. यह भी कहा था तुम मेरे पास ही रहोगी तुम्हारे घर की छत मेरे घर की छत से मिली रहेगी तो मैं   चैन से मर सकूँगा. पिता बहुत भावुक  व्यक्ति थे और उसे बहुत चाहते थे.  भावुकता के लिए वे माँ की डांट खाते रहते थे. संभवतः माँ ने ही पिता को मजबूत किया होगा उसके लिए फैसला लेने के बारे में तभी वे उसे बुलाकर कह सके होंगे- "जाओ  जहाँ चाहती  हो वहां जाकर  घर बसा लो". 

वे तो चाहते ही थे कि वह सुखी रहे. उसको खुद से दूर नहीं करना चाहते थे लेकिन माँ  की बात मानते  थे. बीमार पिता को छोड़ एक धुकधुकी सीने में लिए वह  पाँव में पत्थर बाँध भारी कदमों को लेकर नदी से भरे मन से मां के पैरों पर गिरी.  मां को देखा तो उन्होंने उसकी ओर एक बार भी न देखा मां की आँखों में उसके मन की  वही  नदी मौजूद थी. वह चली आयी.कच्ची मिटटी के अहाते वाले आँगन  से बाहर आते हुए वहां  बने इकट्ठ-दुक्कट की  गहरी रेखाओं ने उसे रोका था लेकिन उसने दिल पर हाथ रख कर उनसे कहा- "फिर आँऊगी."पिता मर गए. घर  बिक गया.  वह दुबारा जा न सकी. एक बार इतना बड़ा फैसला लेने के  बाद  पिता के रहते वह वापस  जाती तो  क्या उसे अपने ही घर में पनाह मिलती. क्या पिता उसे माफ़ कर देते ? वह यह सवाल मन तक लाती और फिर पिता के मन का मान रखती हुई वह जवाब  भूल जाती.

अफसर जितनी देर चुपचाप बैठा रहा उतनी देर लड़की  यही सब सोचती  रही. उसकी आँखों में  एक मायूसी ठहर जाए  उससे पहले   वह अफसर की ओर देख मुस्करा देती.  "माँ -बाप बेटियों के विवाह की चिंता सबसे अधिक करते हैं. शादी के लिए कोई  लड़का-वड़का ढूंढ लो" 

अफसर मुस्कराया वह फिर लड़की से बात करने के मूड  में था.  शादी की बात पीछा नहीं छोड़ेगी. लड़की को  झल्लाहट हुई फिर भी  जाने क्यों लड़की को अफसर भला लग रहा था. उससे   बात करना अच्छा लग रहा था  नहीं तो  अब तो वह हमेशा ही डर के घेरों  में रहकर  जीने वाली लड़की हो गयी थी. पहली बार वह किसी  सहयात्री को  इतनी छूट  दे रही  थी. अफसर की लड़का-वडका ढूँढने की बात पर वह कुछ शर्म से मुस्करा पड़ी. कुवांरी लड़की को  लडके की  बात पर  जिस तरह  मुस्करांना चाहिए ठीक उसी तरह और फिर खिडकी से बाहर देखने लगी. यह सब वह अक्सर किया करती थी तभी  तो तेईस की हो जाती थी. उसका मन सचमुच तेईस  पर   ही आँखें मूंदें  बैठा था.  यही सच था  क्योंकि उसके सपनों की तो  तहें  भी अभी नहीं  खुलीं थीं.


अब तो दो बेटियां, उसके दो बच्चे भी  हैं. उसने  बेटी को एसमएस भेजा – रिन्नू  सो जाओ. अपना ख़याल रखना और बाहर  का दरवाज़ा ठीक से बंद कर लेना.  ध्यान रखना "
"
ओके, टेक केयर , गुडनाइट माँ."बेटी का जवाब भी आ गया.   

अफसर की आँखों  की मुलायमियत से ज़ाहिर था कि वह लड़की को किसी के प्रेम में मान रहा था.   ज़रूर ये  उसी को  एसमएस भेज रही होगी. लड़की ने   सोचा  वह ऐसा ही  सोच रहा होगा. अफसर ने  सोचा -  लड़कियां सही मायनों में शादी करना भले ही  नहीं  जानतीं पर वे प्रेम करना जानतीं हैं. अफसर को याद आया कि  जिस लड़की से अफसर ने प्रेम किया उसने  उससे विवाह नहीं किया और जिससे अफसर ने विवाह किया उससे उसको   कभी प्रेम नहीं हुआ. वह अपनी प्रेमिका के बारे में अक्सर सोचता और एक शेर याद करता- कुछ तो मजबूरियां रहीं होंगी यूं ही कोई बेवफा नहीं होता. अफसर सामने बैठी किसी भी लड़की में अपनी प्रेमिका को ढूंढता. अफसर यह खेल खुद के साथ खेलता तब वह वापस उम्र के उसी पडाव पर खडा होता.   
    

एक छत के नीचे रहते हुए  उसने  संजीव से रिश्ते तोड़ लिए और खुद को कुंआरी कहने लगी.  जब वह  नशे में होता उसे बहुत प्यार करता उसे  आवाज़ देता, बुलाता उसे गाना सुनाता उसे रिझाता  लेकिन लड़की का दिल टूट  चुका  था.  वह पति   से नहीं पर  उस प्रेमी से बेसाख्ता नाराज़ थी जो उसे अरावली की पहाड़ियों में मिला था.  उसकी नाराज़गी इस जन्म में तो नहीं टूटने वाली. उसने सोचा था कि  एक बार  अपने पथरीली रास्ते   पर चलना सीख ले  तब संजीव से  एक एक पल  का हिसाब  करेगी. लेकिन ढेरों सवाल उसके पास रह गए.    

उसने जिद करके एक बार  कहा -"क्यों नहीं छोड़ देते इसे. . तब एक दिन संजीव ने  कहा और उसने सुना. लड़की  की आँखों के आगे कई दिनों तक वही सब घूमता रहा. - "पा पीने वाले को जहाँ भी देखते  पीटने  लगते थे. पार्टी में  शराब  पीने वालों को बख्शते नहीं  थे. वे शराब की महक पाते ही वहशी की तरह किसी के घर में चल रही पार्टी में हंगामा करते थे और गाली गलौज कर पार्टी छोड़कर चले आते थे. हम  सारे भाई बहन,  माँ और मैं अंधेरी रातों में बिना कुछ भी खाए पिए उनके  पीछे पीछे भागते घर  चले  आते थे .

पा के इस चेहरे से वह इतना डरने लगा  था कि  उसको भय के दौरे पड़ने लगे थे. उसके पाँव काँपते थे, उसे डरावने सपने आते थे.  एक बार उन्होंने,   उन्होंने मेरे  जिगरी यार को पीटा था मेरे जिगरी यार को  और उसी दिन मैं  पीकर घर आया था.  उन्होंने ही दरवाजा खोला था और मुझे देखते ही सहम गए थे. मैं वह निगाह नहीं भूल सकता.  उनकी निगाहों में वही  याचना थी जो मेरी निगाहों में  थी  जब  मेरे जिगरी यार को मेरे ही घर की पार्टी में सबके बीच में  पटक पटक कर   मारा  था उन्होने. तभी से मैं  पीता  हूँ  बल्कि शराब मुझे  पीती है और तब से ही मुझे भय के दौरे भी नहीं पड़ते  जब तक मैं  ज़िंदा हूँ  तब तक ये मुझे पीती रहेगी और मैं इसे पीता  रहूंगा" .

लड़की ने  एक बार मर जाने की कोशिश  की. अपने हाथ की नस काट  ली  लेकिनसंजीव ने उसे बचा लिया था. संजीव ने  उसके माँ बाप के लिए और अपने   बच्चों के लिए उसे बचा लिया था. वह नशे में  आपे  से बाहर हो जाता था  "किससे मिलने जाती हो ? कौन यार है तुम्हारा, कभी हमें भी मिलवा दो. यह सिंगार किसके लिए ? बोलो. मारने दौड़ता. फैशन ? उतार इसे."वह डर  जाती.  फिर पहनने लगती  वही पुराने कपडे.  वह बाहर घूम घूम कहने  लगता  इसके चाल चलन ठीक नहीं हैं. नशे में  खूब बहकता वह.  अफसर की नज़र बचाकर लड़की ने अपनी कलाई पर पड़े उस कटे हुए निशान  को देखा और झट दुपट्टे में छुपा लिया .

एक दिन  संजीव ने  दुनिया को अचानक  अलविदा कह दिया  और  फिर कभी न लौटने के लिए उसपर  मुस्कराता हमेशा के लिए  चला गया.  लड़की के लिए संजीव का यह धोखा  ना काबिले बर्दाश्त था. सदमें से बाहर आने में उसे कुछ साल लग गए. उसने खुद को संभाला और खूब संभाला.

घर की   ड्योढी के अन्दर वह औरत थी और ड्योढ़ी के बाहर एक लड़की. बीच में कोई सुराख नहीं था. एक दिन उसके शोख दुपट्टे को अलगनी पर सूखते देख उसके देवर ने आँखें निकालकर कड़क आवाज़ में उससे पूछा था 'यह शोख रंग तुम्हारा है'वह सकपका कर बोली थी-'नहीं रिन्नू का'वह बच गयी थी. वह अभिनय करने वाली  फकीरिन हो गयी थी. अपने सपनों को जीने के लिए सारे रंग  पहनने  के लिए,  अपने कोरे दुपट्टों  में रंग भरने के लिए,  जीने का अभिनय करने के लिए. उसे दूसरा जन्म लेने की ज़रुरत नहीं थी. उसे  मालूम था कि ज़िंदगी छोटी है इसे जी लो जितना जीना है. उसे लगता उसके आसपास के लोगों को यह नहीं मालूम था नहीं तो उसे फकीरिन  बनना  ही क्यों पड़ता .

अपने काले  कटे बाल वह क्लिप में छुपाकर रखती. पतले चूडीदार  पायजामे, कांच की चूड़ियाँ,इत्र की शीशियाँ  सुरमा, काजल वह सफर के लिए रखती.

"अरे लो भाई खाना आ गया  है."अफसर  उसको उसके ख्यालों से बाहर निकाल लिया. अफसर बोला - "थोड़ी देर में  मेरा स्टेशन  आने वाला है.   मुझे  उतरना है. तुमसे बातें करते रास्ता कब ख़त्म हो गया पता ही न चला. सुनो,  लड़की, मैं इंसान को देखकर  उसको पहचान लेता हूँ.   वर्षों  का तजुर्बा  है  मेरे  पास.   मैंने तुम्हें बताया था  न. लड़की   डरती हुई मुस्कराती  रही.

"एक बात कह रहा हूँ. मेरी बेटी की उम्र की हो तुम ! लड़की ! यह दुनिया  काजल की कोठरी है. कोई अच्छा लड़का देखकर शादी कर लो. मैं चलता हूँ.  फिर  मिलूंगा शायद फिर ट्रेन  में." 

वह ज़ोर का ठहाका लगाकर  हंस पड़ा. लड़की ने   सोचा अफसर उसके पिता की तरह ही भावुक  है.

कितना अच्छा है अफसर. इतने शातिर  अपराधियों को पकड़ने वाला अफसर मुझे नहीं पकड़ पाया? लड़की अपने  अनुभवों और  आंसुओं के साथ  हंस पडी. जाते जाते अफसर ने एक बार मुड़कर उसे देख लिया उसकी डबडबायी आँखों को. लड़की ने झट से आँखों में कुछ पड जाने  बहाना  कर पीठ उसकी ओर घुमा ली. अफसर ने जाते जाते  हाथ हिलाया लड़की मुस्करा दी.  ट्रेन गंतव्य  की ओर  दौड़  पडी  थी.

                 
  _____________________

प्रज्ञा   पाण्डेय 
89, लेखराज नगीना,  सी ब्लाक, इंदिरा नगर 
लखनऊ
9532969797 


सविता सिंह के लिए (कविता) : विपिन चौधरी

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समकालीन कवियों पर कविताएँ लिखने की रवायत है.  शमशेर, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल त्रिलोचन आदि ने एक दूसरे पर खूब कविताएँ लिखी हैं. सुधीर सक्सेना का एक कविता संग्रह इधर आया था – ‘किताबें दीवार नहीं होतीं.’ उसमें सभी कविताएँ किसी न  किसी को समर्पित हैं.


युवा  विपिन चौधरी ने अपने से पहले की पीढ़ी की महत्वपूर्ण लेखिका सवितासिंह  पर पन्द्रह कविताएँ लिखी हैं.  इन कविताओं में कितनी कविता है और कितना प्रभाव ? कितना आवेग है और कितना निजत्व ? यह आप पढ़ कर देखिए.





विपिन चौधरी 

उतरी है एक नाव उस पार, जरूर उसमें एक नया संसार रचने का सामान होगा
(सविता सिंह के लिए )





1.

मॉस-मज्जाको पार कर  
आत्माकीझीनीत्वचाकोछूता,
यह तीर
कहींटकरातानहीं
छूता हैबस
तुममेरेजीवनमें
उतरीहो
एकतीरकीतरह 
सचकहतीहूँ
कपाससानर्मयहतीर
सफ़ेदनहीं,
इसकारंग
आसमानीहै.


2.   
दुःख  सिर्फपत्थरनहीं
उसका  भीएकसीना है
दुःखकी भी एकराह है , जो
प्रेमके मुहानेसे निकलती है
जाती चाहे कहीं  भीहो
तुमदुःखकोइतना
अपनाबनादेतीहो
कि कभी-कभीदुःखपरभी  मुझेदुलारहोआता है  जैसेतुमपरआताहैदुलार
तुम्हारादुःखअबमेरादुःख है यहमानलो 
तुमसेमिलकरदुःखपर  विश्वासऔरगहराहुआहै
दुःखएकमुकद्दसचीज़है अबमेरेलिए.




3. 
तुम्हारीसंवेदनामुझेडराती है कईबार 
मैंतुम्हे उससेदूरलेजानाचाहतीहूँ 
परतुम्हारीसंवेदना,
देह है तुम्हारी 
यहमैंनेजानातुम्हारीकविताओंसे 
कि तुमदूरनहींहोसकतीकवितासे 
औरअबमैंचाहतीहूँ 
तुमरहोगहरी  संवेदनाकेभीतर 
रहता है जैसे  सफ़ेदबगुला 
पानीमेंबराबर .



 4. 
तुम्हारी नाव तो  उस पार उतरती  है 
परतुम ठहरीरहतीहोवहीँ 
खिड़कीसेदेखती 
आकाशऔरसमुंदरके नीलेविस्तारको
मोंट्रियाल  भीवहीथीतुम 
आरामेंभी 
दिल्लीमेंभी 
होआतीथीतुमदूरतलक 
परकायदेसेतुम वहींरहतीथी 
अपनेकमरेमें 
कालीचायपीती 
खिड़कीसेदेखती 
तुम्हारादेखना,
ठहरनाहै 
कि  द्रश्यभीठहराव  कीएकसुंदरभंगिमाहै
यहभंगिमाअज़ीज़ हैतुम्हें .



5.
तुम्हाराठहरावमुझेपसंद है 
कि मेराभीएकमात्रप्रेम यही है  
औरआखिरीभी 
किसप्रेमसेतुमटूटकरबतियातीहोपृथ्वीके उस पार गएअपनेप्रियसे 
कि मैं  भीउससेदूर 
जो है  इसी पृथ्वीपर 
मगरअपनीदुनियामेंमगन 
करतीहूँ  उसदूरकेरहवासीसे
मुग्धऐसीहीप्रेमिलबातचीत 
सुनों 
हमदोनोंकेबीच 
यहठहराव हीतो है 
बांधता है जो हमें 
औरबींधताभी.




6.
अक्सरहीकहींऊँचेसेदेखतीहो तुम
दुःखकीबलखातीहुयीनदीका  अचानक पत्थरहोजाना
   

मनकेसभीतंतुओंपरऊँगलीरख 
उन्हेंझंकृतकरतीतुम 
जानतीहोउनकेतत्सम,विलोम, पर्यायवाची 
पीलेरंगकीउदासस्याहीमेंघंटोंडूबकररचतीगीलेशब्द  
जोसुखाते  हैउनकेभीतर 
पढ़तेहैंजोतुम्हारीएकांतमेंअपनारंगछोड़तीहुयी कवितायेँ 
नीलेमेंपीलारंगमिला करहरारंगबनानातुम्हेंपसंदनहीं 
किकलाकीइसतमीजकारास्ताभीदुनियादारीकीतरफमुड़ताहै 
दुनियादारीसेतुम्हेंपरहेज़नहीं 
परइसका इनकारसायनअक्सरतुम्हेंपरेशानकरताआयाहै  
तुम्हारीगंभीरतालेजातीहैतुम्हेंसबसेदूर
एकपरिचितपरछाईमुझेभीघेरलेतीहैअक्सर 
तबमुझेसोचनाहीहोताहैतुम्हारेबारेमें 
मुझेलिखनीहीहोतीहैतुमपरएककविता.



7.   
जरुरीनहींकिचीज़ेंव्यस्थितकरनेकेलिएएकसीधी रेखाखींचदी  जाए 
औरप्रेमकेसाथ-साथजुदाईसेभीदोस्ती करलीजाए 
परप्रेमखुदहीजुदाईसेरिश्ताबनाकरहमारेकरीबआया
तुमतबभीचुपरही  
स्त्रीवादीमनस्विताकेसारेउपकरणोंसेलैसतुम  
इसप्रेमकोसर्वोपरिमानचढ़गयी  कईसीढियाँनंगेपाँव 
यहजानतेहुएकिलौटनेकाआशयलहू-लुहानहोनाहै
परजुदाहोनेकेसारेसबकतुम्हेंमुंह-ज़बानीयाद  थे 
उससमयभीजबप्रेमअलविदाकहगयाथा.


8.  
सपनोंकारंग 
याभाषाकासन्नाटा 
याअपनेहीमनकाकुछइक्कठाकरती
चींटियोंकाअनुशासनतुम्हेंखूबदेखा   
देखोअबभीवेपंक्तिबद्धहोकहींजारहीहैं 
होगाजरूरउनकामनकावहां 
अपनेमनकातुमनेभीखूबपाया 
खूबइक्कठीकीउदासीऔरसमेटा  अकेलापन 
औरउसेबुनकरओढ़ादियाअपनीबिटियाको 
वहभीअबदेखतीहैदुनियाउसीखिड़कीसे 
जिसमेबैठदेखीथीतुमनेएकनावजातीहुएदूसरेछोर कीओर.




9. 
सच, जीवनकीबिछीहुयीचादरउतनीहीचौड़ीहै 
जितनाउसपरओढेजानेवालालिहाफ 
अक्सरनापनेबैठजातीहो  तुम  
स्त्रीकेमनकाआयतन 
जोप्रेममेंमरेजारहेहैंउनसेतुम्हेंकुछकहनाहै 
बतातीहोतुम 
अँधेरेप्रेमकेयातनागृहहैं 
सुबकतीहुयीनिकलतीहैइनअंधेरोंसे  हररोज़एक स्त्री 
फिरभीनहींदेतीजोप्रेमकोटोकराभरगालियाँ
बसखुदकोपत्थरबनाकररोज़सहतीहै लहरोंकीचोट 
यहख्यालहीतुम्हारेमनपरएकझुर्रीबना  देताहै.


10.
तुम्हारीकविताओंकेप्रेममेंडूबीमैं,   
बसइतनाभरजानतीहूँ 
किउदासीजबघुटनोंतकजायेतोजरूर उसेओकभरपीकरदेखनाचाहिए 
फिरजबउदासीकापानीधीरे-धीरेजाछटे 
औरहमहोजाए  जीवनमें तल्लीन 
तबभीउदासीकानीला जल
मेरेकंठमेंताउम्रठहरारहे   
औरतुमबार-बारमुझसेकहसको 
क्योंउतारलीतुमनेभीअपनेजीवनमेंयहनाव 
क्यामेरीडगमगातीमगरपारउतरनेकीजिदकरतीनाव हीइससमुन्दरकेलिएकाफीनहींथी ?




11.
वेस्त्रियांजिन्होंनेअपने  एकांतकेरास्तेमेंआये झाड़ -झगाड़  खुद साफ़किये  थे 
उनकीऊंगलियों केपोरोपरतुमनेदेखी श्रमकीनीलिमा 
वेस्त्रियांभी
जिनके सपनोंमेंभीखर्चहोतीरहीथी ऊर्जा 
जिन्होंनेअपनेसपनोंसेउसराजकुमारकोदियाथा खदेड़ 
जिसनेउन्हेंकरवायाथालंबा इंतज़ार 
अबदेखोतुमने  भीबनालीहैअपने  सपनोंमेंखासी  जगह 
कितनीआसानीसेजासकतीहोतुम  इनकेप्रागणमें 
बिनाकिसी  टकराए 
सोचसकतीहो यहाँविचरतेहुए 
नयीस्त्रीकेनएसंविधानकेबारे 
लिखसकतीहो उनकीप्रशस्तिमेंकोई  कविता 
सहीही
तुमनेअपनेभूतकीराखकोअपनेमस्तकपरनहींलगाया 
देखतीरहीदुःखकोऔरगाढ़ाहोतेहुए 
औरइसप्रक्रियाकोदेखतेहुएतुम्हारे  चेहरेकीचमकदेखतेहीबनतीथी.

  

 12.  
तुम्हाराएकांतही 
एकमात्रपूंजीहैतुम्हारी   
वहीँरखछोड़ाहैतुमने अपना  इक्कठाकियाहुआ  सामान 
जैसेचिड़ियाघोंसलेकेलिए एक- एक तिनकाढूंढलातीहै
तुमनेउसी  लगनसेबनायीएकांत कीचारदीवारी  
स्त्रीअपनासमेटाहुआ किसीकोनहींदिखाती 
वक़्तआनेपरहीदिखतीहैउसकी  रौशनी 
ऐसाहीकियातुमनेभी   
एकांतकीवर्णमालामेंकरीनेसेसीखनेमें उलझी, 'मैं
देखतीहूँतुम्हेंएकांतका नित-नूतन  गीतरचतेहुए. 




13. 
तुम्हारेप्रभामंडलकेऊर्जाक्षेत्रमें 
आड़ोलिततरंगे, चक्र, प्रतिबिंबइतनी शांत 
समुंदरअपने  मौन-व्रतमेंहोजैसे  
तुम्हारीप्रभामंडलकी 
विशिष्टऔरजुदालहर 
दैदीप्यमानकूकुन  कीतरहबाकीपरतोंसेजुडीहुयीहैं
तुम्हारेइस विद्युतचुम्बकीयप्रभामंडलमेंसेगुजरताहैकोई 
तबउसकेभीतरभी 
प्रिज्मकीतरह  कईरंगनिकलतेहोंगे 
औरहररंगअपनेढबकासाथीढूंढलेताहोगा 
तबरंगोंकीदुनियाऔर 
जीवनकेरोजगारमेंकुछहलचलतोजरूर होतीहोगी. 




14. 
अनेकों  रंग, ध्वनियाँ, रौशनीकीआवृतियां 
कांपतीहैं 
तुम्हारेआस-पाससूखेपत्तोंकीमानिंद 
शारीरिक, भावनात्मक, मानसिक, आध्यात्मिकस्थितियां 
कितनीहीदिशाओंमेंपरिक्रमाकर
थक, जल्दीही लौटभी आतीहैं   
परउसमेंजीवनकावज़नहोताहै 
औरयहवज़नजानताहै  
अबनयीस्त्री 
हरतरहकाभारउठाहीलेगी 
किअबतो उसेअपनीभरीहुयी गागरस्वयंहीउठानीहोगी 
छलकनेकीपरवाहकियेबगैर. 




15.
एकसपनातुमसेमिलकर
नयाआकारपाजाताहै
स्त्रीएकऔरनयारंगबनालेतीहै
किअबउसेअपनेबनायेरंगकीजरुरतहै
तबतुमधीरेसेसबसेपवित्ररंग
सफ़ेदकीओरदेखकरकहतीहो
शुक्रिया
स्त्रीकेमनचाहेरंगमेंअपनारंगशामिलकरनेकेलिये
बहुतशुक्रिया.

_________________________________



विपिन चौधरी
(२ अप्रैल १९७६भिवानी (हरियाणा)
दो कविता संग्रह प्रकाशित
कुछ कहानियाँ और लेख प्रतिष्ठित पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित,
रेडियो के लिये नियमित लेखन, साहित्यिक और सामाजिक गतिविधिओं से जुड़ाव
सम्प्रतिस्वयं-सेवी संस्था का संचालन 
vipin.choudhary7@gmail.com

रंग- राग : पाँचवां अंतर्राष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल : भास्कर उप्रेती

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नैनीताल के समीप नौकुचियाताल में ‘लेक साइड डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल’ (एल.डी.एफ.) का आयोजन पिछले कुछ वर्षों से हो रहा है. इस साल  14 से 17 अप्रैल तक आयोजित पाँचवे अंतर्राष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल  में 10 देशों की 13 फ़िल्में प्रदर्शित की गयीं.  
भास्कर उप्रेती वहां उपस्थित थे. सभी फिल्में देखीं. आयोजकों और मेहमानों से बात- चीत की.
यह ख़ास रपट आपके लिए

नौकुचियाताल में पाँचवां अंतर्राष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल                     

भास्कर उप्रेती 



ज़ादी के बाद सरकार की योजनाओं को बताने के उद्देश्य से डाक्यूमेंट्री फिल्म विधा अस्तित्व में आई. 70-80 के दशक तक आते-आते लोगों में योजनाओं के प्रति मोहभंग शुरू हो गया, जो मुख्यतः प्रिंट माध्यमों में मुखरित हुआ. इसी दौर में कुछ लोगों ने कैमरा का प्रयोग अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया. आज डाक्यूमेंट्री फिल्म की यह विधा बहुत बड़ी हो चुकी है और इसे पॉलिटिकल एक्टिविज्म के एक धारदार औजार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है. मगर, डाक्यूमेंट्री विधा मूलतः कला की विधा मानी जाती है. कला, जिसमें कैमरे के माध्यम से लोग अपनी बात सरल और सहज रूप में कह सकें. जो जीवन को सिनेमाई उद्दीपन से बाहर निकालकर जैसा वह है, वैसा दिखा सके. ऐसी कला जिसका खुद का कोई एजेंडा या प्रोपेगेंडा नहीं बल्कि जहाँ कहा हुआ और दिखाया हुआ खुद ही स्टैंड करे और कराए. हालाँकि साहित्य की तरह सिनेमा में भी ‘आर्ट फॉर आर्ट्स सेक’की सीमाएं हैं. प्रिंट की तुलना में कैमरा यथार्थ को ही दिखाने का आदी होता है और जो काल्पनिकता रचता है, वह भी किसी यथार्थ की ही बुनियाद पर होती है.

कला को प्रधान मानने वाले डाक्यूमेंट्री सिनेमा का एक बड़ा मकसद यह भी है कि वह हमारे बीच मौजूद उस सामान्य और साधारण को एक गाढ़ी खबर की तरह सामने लाये, जो हमें सामान्यत: दिखाई देना बंद हो गया है. ऐसा गाढ़ापन जो पारे की तरह है, कीचड़ की तरह नहीं. मुद्दे की बात को सनसनी और मुहावरों से निकालकर देख पाना, यही प्रयास आर्ट सिनेमा करता है. सत्यजीत रे की पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ को इसके एक उदाहरण के रूप में याद किया जाता है.

इसी विचार से अनुभवी फिल्मकार सुषमा माथुर और प्रमोद माथुरकुछ सालों से नौकुचियातालमें ‘लेक साइड डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल’ (एल.डी.एफ.) का आयोजन कर रहे हैं. इस बार 14 से 17 अप्रैल तक आयोजित फेस्टीवल में 10 मुल्कों की 13 फ़िल्में प्रदर्शित की गयीं.आयोजन में भारतीय फिल्मकारों के अलावा नॉर्वे, स्विट्ज़रलैंड आदि से डाक्यूमेंट्री फ़िल्म मेकर शामिल हुए. नौकुचियाताल में यह आयोजन लगातार पाँचवे साल हो रहा है, जिसमें अब तक यूरोप के लगभग सभी देशों की डाक्यूमेंट्री शामिल हो चुकी हैं, खासकर पूर्वी यूरोपीय देशों की फिल्मों को यहाँ अधिक तरजीह मिली है. इसके साथ ही भारत समेत एशिया के विभिन्न देशों का सिनेमा भी यहाँ आया है. इस बार फेस्टिवल को गोथे इंस्टिट्यूट (मैक्समूलर भवन) जर्मनी, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड और पोलैंड के राजनयों द्वारा मदद प्रदान की गयी थी. सुषमा माथुर और प्रमोद माथुर फॉर मीडिया नाम की एक संस्था चलाते हैं और अब यह दंपत्ति नौकुचियाताल (नैनीताल से करीब 30 किलोमीटर दूर, इलाके की सबसे बड़ी झील) में ही बस गयी है. इसी वजह से इसका आयोजन हर बार नौकुचियाताल में तय रहता है. फॉर मीडिया के साथ प्रतिष्ठित संस्थाएं डॉक्स लेप्ज़िग, सिनेमा डेला क्रिटिक और सिनेमा डू रील इसके सह-आयोजक थे. फॉर मीडिया भारत के युवा फिल्म निर्माताओं के लिए समय-समय पर वर्कशॉप, सेमीनार और सिनेमा पालिसी को लेकर चर्चा-परिचर्चा आयोजित करती रहती है. संस्था का मकसद पेशेवर डाक्यूमेंट्री निर्माता तैयार करना है. फॉर मीडिया को संयुक्त राष्ट्र की इकॉनोमिक और सोशल काउंसिल की ओर से विशेष परामर्शदात्री संस्था का दर्जा मिला हुआ है. फॉर मीडिया, स्पॉट फिल्म्स नामक पैतृक संस्था से संबद्ध है.  
   
फ़िल्में जो यहाँ दर्शायी गयीं इनमें रोमानिया की फिल्म ‘सिनेमा, मोन अमोर’पहली थी. फिल्म रोमानिया में तेजी से विलुप्त हुए सिनेमाघरों की त्रासदी को व्यक्त करने के साथ विक्टर पउरिस के उस जद्दोजहद की कथा है जो किसी तरह अपने सिनेमा में लोगों को लाना चाहता है. लेकिन, उसकी और उसके सीमित स्टाफ की जद्दोजहद अंततः 30 दर्शकों तक को ही सिनेमाघर में जुटा पाती है. पुराना सिनेमा नयी तकनीक और भव्यता के आगे लाचार है, लेकिन उसमें सिनेमा का जूनून था. यह फिल्म रोमानिया के मशहूर सिनेमाघर ‘डासिया’ की सच्ची दास्ताँ हैं, जो अंततः नए बाज़ार का निवाला बनता है, लेकिन अपने साथ कई सवाल छोड़ जाता है. फिल्म का निर्देशन अलेक्जान्द्रू बेल्क ने किया है.

दूसरी फिल्म स्विट्ज़रलैंड से आई थी और उसके निर्देशक थॉमस ल्युसिंगरखुद भी यहाँ मौजूद थे. फिल्म ‘बीइंग दियर’मृत्य की दहलीज पर खड़े चार अलग-अलग स्थानों के लोगों की देखभाली की कहानी है. एक मरीज अमेरिका, दूसरा ब्राजील, तीसरा, स्विट्ज़रलैंड और चौथा नेपाल से. मृत्युबोध और उस पर बातचीत कैसे उनकी मौत की पीड़ा को एक सहज चीज बना देती है, फिल्म यही दिखाना चाहती है. यदि मृत्यु निश्चित है तो क्यों नहीं मृत्यु की एक नयी कला विकसित की जाय. पेशे से शिक्षक रहे ल्युसिंगर ने बताया कि इस फिल्म का विचार उन्हें अपनी माँ की लंबी बीमारी से आया. वह कहते हैं फिल्म ने उन्हें चुना, न कि उन्होंने फिल्म को. इसे बनाने में कई साल लगे और उन्हें इसके लिए फिल्म निर्माण का काम भी सीखना पड़ा.


दूसरे दिन की पहली फिल्म बुल्गारिया से थी- ‘एंड दि पार्टी गोज ऑन एंड ऑन’. इसका निर्देशन ग्योर्गुई बालावनोव ने किया है. फिल्म यूरोप और बुल्गारिया में पिछले दिनों छाई आर्थिक मंदी और उससे उपजे व्यक्तिगत क्षोभ को दर्शाती है. क्रांति की दरकार है लेकिन क्रांति के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं. दक्षिणपंथी सांसद को कहते हुए सुना गया है कि कठोर आर्थिक नियंत्रण लाने होंगे, जबकि जिंदगी पहले से ही तबाह है. फिल्म कहती है कि सोवियत संघ में श्रम संबंधों के बदलने की एक बानगी जरूर पेश हुई थी लेकिन वह दुनिया के समाजों पर कोई दूरगामी छाप नहीं छोड़ सकी.

अगली फिल्म थी पंकज जौहरनिर्देशित ‘सिसीलिया’. यह फिल्म घरेलू नौकरानियों की विडंबनाओं के साथ खुद फिल्म निर्माता का साक्षात्कार है. यह मानव तस्करी की जीवंत कहानी है. सिलिलिया दिल्ली में पंकज और उनकी पत्नी सुनैना के घर में काम करती है और उसे खबर मिलती है कि उसकी बेटी ने ख़ुदकुशी कर ली है. उसकी बेटी दिल्ली के ही दूसरे इलाके में घरेलू नौकरानी थी. पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाके से आई सिसीलिया तय करती है कि वह अपनी बेटी की ख़ुदकुशी को लेकर लड़ाई लड़ेगी. इस काम में जौहर दंपत्ति उसकी मदद करते हैं. ख़ुदकुशी के बारे में जल्द पता चल जाता है, यह हत्या का मामला है. लंबी कानूनी लड़ाई के दौरान पंकज को पता चलता है कि आदिवासी इलाके से घरेलू काम के लिए महानगरों में लायी जाने वाली लड़कियों के पीछे एक तंत्र काम कर रहा है. सिसीलिया की बेटी तरह की कई लड़कियों का पता नहीं चल पाता. तंत्र इतना मजबूत है कि जौहर दंपत्ति और सिसीलिया अंततः हथियार डाल देते हैं. सिसीलिया अपने गाँव लौट जाती है और समुदाय के सामने एफ.आई.आर. दर्ज करने को लेकर माफ़ी मांगती है.

अगली फिल्म जापान सेथी- ‘पेंटिंग पीस: दि आर्ट एंड लाइफ ऑफ़ काज़ुआकी तान्शी’. इसका निर्देशन नीदरलैंड के बेबेथ वान्लूने किया है. फिल्म 80 वर्षीय जैन शिक्षक, अनुवादक, कलाकर और कार्यकर्ता काज़ुआकी तान्शीकी कहानी है. खासकर उनके द्वारा 13वीं शताब्दी के महान जापानी कलाकार दोज़ेन के काम की प्रतिलिपि बनाने को लेकर उनके योगदान को दर्शाती है. फिल्म आपको यूरोप और जापान की कला-यात्रा कराती है. चीन के खिलाफ छेड़े गए जापानी युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले काज़ुआकी तान्शी के पिता बाद में शांतिवादी हो जाते हैं. खासकर, नागासाकी और हिरोशिमा की तबाही के बाद वह दुनिया को और बर्बादी के रास्ते में जाने से रोकने का प्रयास करते हैं. इस वजह से वह जापानी सरकार के लिए चुनौती बनते हैं तो दूसरी तरह जनता के चहेते. काज़ुआकी तान्शी अपने पिता के आत्मावलोकन को कला में ढालते हुए दुनिया में शांति, सहअस्तित्व और बहुलता के पक्ष में मजबूत आवाज बन जाते हैं. उनकी कला को संयुक्त राष्ट्र अपने मिशन के लिए अपनाता है.

दिन की अंतिम फिल्म भारत से थी- ‘सब-टेक्स्ट ऑफ़ एंगर’, जिसका निर्देशन वंदना कोहलीने किया था. फिल्म क्रोध आने की वजहों और क्रोध के दौरान होने वाली मानसिक-शारीरिक प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करती है. फिल्म बताती है कि क्रोध एक मनोवैज्ञानिक दशा तो है लेकिन इसकी जड़ें हमारे समाज और परिवेश में निहित हैं. अपने विषय को समझने के लिए वंदना ने भारत, यूरोप और अमेरिका के श्रेष्ठ मनोविज्ञानियों, मनोचिकित्सकों और समाजविज्ञानियों से बात की है. वह अपनी फिल्म में मीडिया और एल्क्ट्रोनिक माध्यमों द्वारा पैदा किये जाने वाले अवसाद को बखूबी दर्शाती हैं.

तीसरे दिन की पहली फिल्म पोलैंड से थी- ‘के-2. टचिंग दि स्काई’. पर्वतारोही एलिसा कुबार्स्का निर्देशित फिल्म हानिया, लुकाज़, लिंसडे और क्रिस टुलिस की काराकोरम अभियान की एक आत्मावलोकन करती कहानी है. खुद निर्देशक और ये चार दरअसल 1986 के अभियान में मारे गए इनके माताओं-पिताओं से साक्षात्कार करती हुई अभियान में चलती हैं. ये सब खुद भी अच्छे ट्रेकर और क्लाइंबर हैं, लेकिन इनका मकसद है मानव की उस ग्रंथि का पता लगाना जो निरर्थक शिखरों को फतह करने के लिए सब कुछ दाँव में लगा देते हैं. फिल्म के संवाद बहुत ही मार्मिक हैं जो हमारे सोचने के नज़रिए को चुनौती देते हैं.

पोलैंड से आई फिल्म ‘कासा ब्लांका’का निर्देशन अलेक्सांद्र मॉसियोजेकने किया है. यह हवाना में मछुआरों के छोटे से गाँव में डाउन सिंड्रोम के पीड़ित 76 वर्षीय माँ और 37 वर्षीय बेटे की कहानी है. एक पुरानी कॉलोनी के एक छोटे से कमरे में माँ और बेटा कैसे रह रहे हैं, उनका आपसी रिश्ता कैसा है, इसको बखूबी पेश किया गया है. बेटा व्लादिमीर या तो माँ की सेवा में लगा दिखता है या बच्चों और मछ्वारों के बीच. बूढ़ी माँ इन परिस्थितियों में कैसे अपने बेटे को लेकर मासूम सपने देख रही है और बेटा हर मुश्किल में भी कैसे माँ को इंतहा प्यार करता है. बेटे को घर आने में थोड़ी भी देर होती है तो माँ कैसे अपने जर्जर शरीर के साथ अँधेरी सुरंग में खड़ी सीढ़ी उतरकर बेटे को तलाशने लगती है. फिल्म यही बताती है कि प्रेम के लिए भौतिक जरूरतें और शारीरिक कठिनाइयाँ बाधा नहीं बनती और वह तलछट गरीबी में अधिक गहरे मानी पाता है.

‘दि कन्वर्सेशन’फिल्म रूस से आई थी, जिसका निर्देशन अनास्तासिया नोविकोवाने किया है. एक बुजुर्ग एक एकांत जगह पर खिड़की के पास बैठा है. उसके पास में एक मोबाइल फ़ोन रखा है. उसे किसी की कॉल का इंतजार है. इंतजार करते-करते वह खुद से बात करने लगता है. वह दूर अस्पताल में भर्ती अपनी पत्नी के बारे में, खिड़की पर चढ़ आई छिपकली के बारे में, पानी में उतर रहे झींगुर के बारे में और समय के बीतते चले जाने के बारे में बातें करता है. फिल्म उदासी, विछोह और अकेलेपन का विषद चित्र खींच पाती है.   

अगली फिल्म फ्रांस से थी- ‘अ यंग गर्ल इन हेर नाइनटीज’. इसका निर्देशन यान कोरिडीयानऔर ब्रूनी टेडीशी ने किया है. यह एक कोरियोग्राफर थिअरी की एक भूलने के आदी बीमारों के अस्पताल की यात्रा है. उसका ध्यान आकर्षित करती है 90 वर्षीय ब्लांचे मोरोयु, जो अपना सुंदर सा नाम भी याद नहीं कर पाती और बाकी मरीजों से हमेशा एक दूरी बनाकर रखती है. थिअरी अपने काम के दौरान मरीजों के हाव-भाव, मुद्राएं और शब्दों को गौर से सुनता है. किसी के मधुर गीत के दौरान ब्लांचे अचानक गहरी विस्मृति से जाग उठती है. वह उन क्षणों में लौट आती है जब उसे पहली बार प्यार हुआ था.   

समापन के दिन एक ही फिल्म रखी गयी थी, वह थी- ‘हेलिकॉप्टर- हाउस अरेस्ट’, यह जर्मनी से थी. फिल्म का निर्देशन कोस्तांतिन हटज़का है. 27 वर्षीय बेंजामिन को जेल में उपद्रव के लिए उसके घर में ही निगरानी पर रखा गया है. उसकी माँ और उसके बीच हेलिकॉप्टर को लेकर एक ऐसा संवाद चलता है जो दर्शक के मन में सवाल पैदा करता है कि इस काम में कोई कानूनी मसला भी है क्या! फिल्म संवाद की ताकत को दर्शाने का काम करती है.

नौकुचियाताल झील के किनारे एक रिसोर्ट में दिखाई जा रही इन फिल्मों पर बात करने के लिए देशी-विदेशी फिल्मकारों के अलावा तमिलनाडु, झारखंड, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, पंजाब, अल्मोड़ा आदि जगहों से लोग पहुंचे थे. हर फिल्म के बाद फिल्म की निर्माण प्रक्रिया पर निर्देशक से सवाल जवाब होते. आपने यह फिल्म क्यों बनाई, किसके लिए बनाई? आपने फिल्म प्रोडक्शन के लिए किन लोगों से फण्ड लिया? ये चुभने वाले सवाल हो सकते हैं, मगर निर्माताओं-निर्देशकों को इन सवालों पर खुलकर और विनम्रतापूर्वक बात करते देखा गया. ये सभी फ़िल्में राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त फ़िल्में थीं, लेकिन निर्देशक अपनी कल्पना, रचना और उसे दर्शकों ने कैसे छुआ यह जानने में खासी दिलचस्पी दिखा रहे थे.   

नौकुचियाताल फिल्म फेस्टीवल में चुनिंदा लोग ही आमंत्रित किये जाते हैं. पहली नज़र में देखने पर यह दृश्य अटपटा भी लगता है, खलता भी है; मगर इसके आयोजक इस संकोच को इस विधा के साथ पेश आने की एक जरूरत बताते हैं. इसमें भाग लेने वाले लोग मुख्यतः सिनेमाई लोग ही होते हैं, खासकर निर्माता, निर्देशक और संपादक. डाक्यूमेंट्री विधा खासकर कला डाक्यूमेंट्री बनाने वाले सामान्य रूप से स्वयं में ही सब कुछ होते हैं. पटकथा लिखने वाले, कैमरा चलाने वाले और कई बार इसके पात्र भी. आयोजन में ऐसी फ़िल्में आती हैं, जिन्हें सामान्य तौर पर सिनेमाघरों, बाजारों या यूट्यूब जैसी जगहों में नहीं देख सकते.

सिनेमाकार अपने उत्पाद को लेकर जगह-जगह स्क्रीनिंग कराते हैं. निर्देशक और निर्माता एक आईडिया लेकर आता है और उस पर बाकी सिनेमाविदों से उनकी राय चाहता है. कई फ़िल्में ऐसी हो सकती हैं जो एक सामान्य दर्शक को पहली ही नज़र में रुच जाएँ, मगर सिनेमा की समझ रखने वाली डाक्यूमेंट्री कम्युनिटी को वह मामूली और कुछ नयी बात न कहने वाली लगे. डाक्यूमेंट्री में आर्ट को अहमियत देने वाली ये फ़िल्में दरअसल हमारे सिनेमा-दृष्टिकोण को चुनौती देने का काम करती हैं. यह उस सब को धोने की इच्छा रखती हैं जो मुख्यधारा के सिनेमा की मादकता और एक्टीविस्ट डाक्यूमेंट्री सिनेमा की सनसनी हमारे मन पर दर्ज करती है.

मीडिया की भाषा में इसे स्लो मोशन सिनेमा भी कह सकते हैं. 72 वर्षीय प्रमोद माथुरबताते हैं कि हम सिनेमा को अभिजन के दायरों से बाहर लाने का प्रयास कर रहे हैं. यह एक भ्रम है कि आर्ट सिनेमा अभिजनों की ही समझ में आ सकता है. दरअसल, यह भ्रम मुख्यधारा के सिनेमा ने पैदा किया है. जब कोई छोटे बजट की फिल्म बनाता है और सामान्य जिंदगी को दर्शाता है तो उसे पेशेवर सिनेमा के डब्बे से बाहर निकालकर आर्ट या डाक्यूमेंट्री सिनेमा के डब्बे में डाल दिया जाता है. हम डाक्यूमेंट्री को न छोटा-बड़ा करके देखते हैं और न ही इसे महज नारेबाजी के काम में लाने की हिमायती हैं. आज डाक्यूमेंट्री फिल्में एन.जी.ओ. मार्का हो गयी हैं. हम गंभीर सिनेमा के लिए जगह बनाने के लिए लगे हैं. यह आज के दौर में कठिन काम है, लेकिन यह बहुत जरूरी काम है.

62 वर्षीय सुषमा माथुरबताती हैं कि वे  30-40 साल से ऐसा ही सिनेमा बनाने के काम में लगे हैं. बड़े नगर को छोड़कर हम यहाँ इसलिए आये हैं कि लोगों को क्रिएटिव आर्ट की ये फॉर्म समझा सकें. हमारे देश में डाक्यूमेंट्री फिल्म आर्ट वर्कशॉप तक सीमित होकर रह गयी हैं. हमारा दूसरा प्रयास यह भी है कि विश्व का बेहतरीन सिनेमा यहाँ लायें, उस पर गहन चर्चा कराएं. देखने से और बात करने से चीजें समझ आती हैं. वह बताती हैं कि यूरोप के देशों में आर्ट सिनेमा को बढ़ावा देने वाले बड़े-बड़े संस्थान हैं. वे हर तरह के गंभीर काम को मदद देती हैं, यह सोचे बगैर कि इससे सरकारी नीतियों की आलोचना होती है. वे आलोचना सुनना चाहते हैं. हमारे यहाँ उल्टी स्थिति है. सरकार के लिए डाक्यूमेंट्री सिनेमा अपना प्रोपगेंडा करने का औजार है. दूसरी तरह एंटी-एस्टेब्लिश्मेंट की ही बात है. हम मानते हैं कि कहने के तरीके से फरक पड़ता है. आपने भुखमरी दिखाई, गरीबी दिखायी लेकिन आपकी बात सुर्खियाँ बटोरकर रह गयी और कोई हलचल नहीं हुई. चीजें वैसी की वैसी बनी रही तो फायदा नहीं. अभी एक अभियान चला हुआ है भारत की नेगेटिव चीजें दिखाकर अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स जीतने का. इससे किसको फायदा हुआ? गरीबी कोई पैसे और पुरस्कार कमाने की चीज है? सिनेमा मानसिक पोषण के लिए होता है, जैसे कि साहित्य होता है.
प्रमोदबताते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय फेस्टीवल करने का मकसद साफ़ है. यहाँ के उत्साही सिनेमाकार बाहर का सिनेमा देखें. खासकर रूस, पोलैंड, चेक और इरान का सिनेमा एक अलग तरह का नैरेटिव पेश करते हैं, उनका सिनेमायी स्टाइल अलग है. आप इस बात को अपने यहाँ लायेंगे तो अपने मुद्दों को अधिक गंभीरता से पेश कर सकेंगे. वह बताते हैं एक अच्छी फिल्म सोचने का दायरा बढ़ाती है और सोचने के नए-नए नज़रिए विकसित करती है. सिनेमा बनाने में बहुत श्रम और समय भी लगता है. उसे अकेले में देखकर बात नहीं बनती, उस पर चर्चा करना भी जरूरी होता है. हम यहाँ ऐसा ही वातावरण निर्मित करना चाहते हैं. वह कहते हैं सरकारी या एंटी-एस्टेब्लिश्मेंट वाली फिल्म आपके सोच को प्रभावित करने का प्रयास करती हैं, जबकि आर्ट मूवीज आपको नया दृष्टिकोण देती हैं.

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भास्कर उप्रेती
(गंगोलीहाट, पिथौरागढ़)
शिक्षा- एम.ए. (अंग्रेजी), एम.ए. (हिंदी); बी.एड., कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल
पत्रकारिता शिक्षा- जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली
एक साल तक एक राजकीय इंटर कॉलेज में अंग्रेजी अध्यापन के बाद कई तरह के काम किए. फिर करीब आठ साल तक विभिन्न राष्ट्रीय दैनिकों में काम. कृषि, विज्ञान, पर्यावरण और कला में विशेष रुचि. पिछले चार साल से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में. शिक्षा के अलावा उत्तराखंड और हिमालयी मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा लेखन. पहाड़ों और जंगलों में निरंतर विचरण. 
chebhaskar@gmail.com

स्वप्निल श्रीवास्तव : सात कविताएँ

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(पेंटिग : Anjolie Ela Menon : After the Party : 2017)

आज मजदूर दिवस है. हिंदी का साहित्यकार अब भी कलम का मजदूर ही है. वे और भाषाएँ  होंगी जिनके लेखक कलम से जी लेते होगे. संसार की कथित सबसे बड़ी भाषा में लिखने वाला कलमकार दूसरे पेशे में भी साथ-साथ न कर्मरत रहे तो उसका जीना मुहाल है. आज हिंदी में न कोई फुलटाइम लेखक है न निकट भविष्य में उसके होने की संभावना दिखती है.

कला, साहित्य, संस्कृति विहीन यह कैसा समाज  बन रहा है ? यह जो निष्ठुरता अराजकता बढ़ी है उसका एक कारण यह भी है कि हम साहित्य से दूर होते जा रहे हैं. 

आज वरिष्ठ कवि स्वप्निल को पढ़ते हैं जो सच्चे  कलम (मेहनत) कश हैं. उनकी कविताओं में परिश्रम का पसीना खूब चमकता है.  



स्वप्निल श्रीवास्तव की  सात कविताएँ                                



 १.
शिकारी –परिवार

एक संग्रहालय की  तरह थी  उनकी  हवेली
दीवार पर ट्‌गी  हुई थी  जंग खायी  हुई  तलवार
जानवरों  की  सींग को  कायदे से सजाया  गया था

घर के लोग  बाघ के  खाल के  जूते पहने हुये थे
ओढ़े हुये  थे  बनपखा
उनके दांत  किंचित  बढ़े  हुये  थे
नाखूनों  के  साथ  छेड़ छाड़ नही  की  गयी  थी

एक  पारिवारिक  तस्वीर  में  मूंछे  चेहरे  से
बाहर थी
कंधें  पर  झूल  रही  थी  बंदूक
हमे  बताया  गया  कि  इसमें  ज्यादातर  लोग
निशानेबाज  हैं
वे  शंब्द भेदी बाण चलाने में  निपुण थे
उनके  निशाने  पर  अक्सर जानवर  की  जगह
आदमी  आ  जाते  थे
पुरूष पुरूष की  तरह  नही  थे
न  स्त्रियां  स्त्रियां की  तरह  थी
बच्चों  के  भीतर  गायब थी  अबोधता

इस  शिकारी  परिवार  की  नस्ल  अलग थी
अभी  इन्हे  मनुष्य  होना  था.


  
२.

बूढ़ा  बैल

अभी  अभी  कजरारी  हैं  बूंढ़े बैल  की  आंखे
अंधेरें  में  चमकती  हैं  उसकी  पुतलियां
दांतों के  पतन  के बावजूद उसके  चारा  खाने  की
क्षमता  कम  नही  हुई  है
वह  अपनी  चौभढ़ से  फोड़ सकता  है
गन्नें  की  गांठ
कोई  उसकी  पूंछ  पकड़ेगा तो  वह  हूंफेगा
गुस्से  में  मार  सकता  है  सींग

बस  इस  उम्र  में  खूंटा  तुड़ा  कर  भाग
नही  सकता
किसी  गाय  को  देखकर उसके  भीतर नही  उमगता
पहले  जैसा  प्रेम

उसके  कंधें  से  उतर  चुका  है जुआ
वह  कृषि –कार्य  से  निवृत  हो  चुका  है
खाली  समय  में  करता  रहता  है जुगाली
फेंकता  रहता  है  फेन

वह  हौदी  से  मुंह  उठा कर लहलहाती  हुई
फसलों  को  देखते  हुये  चरने  की  इच्छा  को
स्थगित  करता  है

बछड़ों  का  पूर्वज  है  यह  बैल
गाये  जाते  है  उसके  कारनामे
बछड़े  उसे  घेरे  हुये  है
उससे  कुछ न  कुछ  पाना  चाहते  हैं

बछड़ो  में  वह  दम  कहां-  वे  उसकी  लीक पर
चल  सके
बस  पूंछ  उठाये बू‌ढ़े बैल  की  परिक्रमा
करते  रहते  हैं.
  



(दो)
बूढ़े  बैल  जब  अनुपयोगी  हो  जाते  है
उन्हें  दरवाजे  पर  बांध  दिया  जाता  है
ताकि  लोग  जान  सके –यह  वही  बैल  है
जिसने  बंजर  धरती  के  अहंकार  को  तोड़ कर
उसे  उर्वर  बनाया  था

बूंढ़े बैल  को  देख  कर  कसाई  की  आंखों  में
चमक आ  जाती  है
वह  खुंजलाता  है अपनी  दाढ़ी और  बधस्थल को
याद  करता  है

हम  बैलों  के  आभारी  हैं
वे  फसलों  के  लिये  तैयार  करते  है जमीन
वे  दंवनी  करते  हैं
खींचते है  हमारे  जीवन के  रहट
बैलगाड़ी  में  नध कर  हमे  गंतव्य तक
पहुंचाते हैं

कुछ  बैल  मरकहे  निकल  जाते  हैं
वे  हुरपेटने  की  कोशिश  में  लगे रहते  है
वे  विफल सांड़ है
इसलिये  कुंठित  रहते  हैं

उनके  पुरूषार्थ  को  कूंच  दिया  गया  है
संकुचित  हो  गयी  है  उनकी  कामनायें
उनके  पास  से  गुजरना  ठीक नही  है
वे  हमे  रगेद सकते  हैं

सोचिये  जब  बैल  नही  रहेगे
कितना  सूना -  सूना  लगेगा  घर
दुआर  पर  बाघ  की  तरह बैठे  हुये बैलो की  डकार
सुनने  को  तरसता  रहेगा  मन.







३.
दस्तकें 

जब  दरवाजे पर  नही  लगी  थी  कालबेल
दस्तक  देने  का  अपना  मजा  होता  था
हम अपने – अपने ढ़ंग  से देते  थे  दस्तक
और  अपने  आने  की  धुन  बजाते  थे

संगीतकार  दरवाजे  को  तबले  की  तरह
बजाते  थे
गायक  मित्रों को दस्तक  से  ज्यादा  अपनी  आवाज  पर
भरोसा  होता  था
उनकी  आवाज  दस्तक  से  काफी  तेज
होती  थी

दरवाजे  हमारे  आने  की  आहट  को ‌‌आंक
लेते  थे
वे  धीमें—धीमें  खुलने  लगते  थे

वें  क्या  दिन  थे -  जब  दरवाजों  पर
परदे  नही  थे
नही  थी  कर्कश घंटियां
कितनी  आसान  थी  हमारी  आवाजाही

घंटियों  ने  हमारी  आदत  को  बदल
दिया.




४.
बांकपन

जीवन में  कुछ  भी  न  बचे
बांकपन  बचा  रहना  चाहिये

थोड़ी  तिर्छी पहननी  चाहिये  टोपी
चींजों  के  देखने  का  हुनर  आना  चाहिये
चलने  के  लिये  आम  रास्तो  का  चुनाव
ठीक  नही
खुद  अपना  रास्ता  बनाना  चाहिये

जीने  के  लिये  जुनून और  लड़ने  के  लिये
चाहिये  हौसला
प्रेम के लिये  होना  चाहिये पागलपन

गाने  के  लिये  हो  गीत
याद  करने  के  लिये  दृश्य
और  बुरी  चींजों  को  भूलने  की हिकमत
होनी  चाहिये

जीवन की  आधाधापी  में ठहर  कर निकाल
लेना  चाहिये  थोड़ा  समय
उस  तानाशाह  के  बारे  में  सोचना चाहिये
जो  हमारे  चैन  को  धीरे -  धीरे  छीन
रहा  है.






५.
तुम्हारा  नाम

खजुराहो  के  मंदिरों में  मैंने  लिखा  है
तुम्हारे  नाम  के  साथ  अपना  नाम
ओरछा  के  राय-प्रवीन महल  में  दर्ज  है
यही  इबारत

कुशीनगर  के  बौद्ध स्तूप  के  दायी  ओर एक  कोने  में
हम  दोनो  का  नाम साथ –साथ  अंकित  है
जब  कभी इन  जगहों  पर  जाना  तो इन अक्षरों  को
जरूर  पढ़ना
इन  हर्फों  के  बीच  दिखाई  देगा
हमारा  चेहरा

पेड़ों की  त्वचा पर  चट्टानों पर –दिल  और  दिमाग में
पहले  से  खुदा  हुआ  है  तुम्हारा  नाम
मैं  जहां  भी  जाता  हूं  तुम्हारे  नाम  के  साथ
जाता  हूं
हमारा  पीछा  करता  है  तुम्हारा  नाम

क्या  मैं  तुम्हारे  नाम  के  साथ
पैदा  हुआ  हूं ?




६.

गोररक्षक

जो  आदमी  की  हत्या  में  वांछित  थे
वे  गोहत्या  के  जुर्म  में  पकड़े  गये
आदमी  के  मारे  जाने  से  बड़ा  गुनाह  था
गाय  को  मारा  जाना
पुराणों  में  गाय  कामधेनु  थी
वह  गोरक्षको  की  हर  इच्छा  को पूरा
करती  थी

गोरक्षक  बछड़ों  के  हिस्से  का  दूध  पीकर
बड़े  होते  थे
उन्हे  बैल  बना  कर  हल  में
नांधते  थे
और  अन्न उपजाते  थे

बूढ़ी  गायें  ऋषियों  को  उपहार  में  दी
जाती  थी
जो  इस  प्रथा  का  विरोध  करता  था
उसे  शास्त्र  विरोधी  कह कर  समाज  से
बाहर  कर  दिया  जाता  था

कलयुग  में  गाय  का  बड़ा  महातम  है
उसकी  पूंछ  पकड़  कर  पार  की  जा
सकती  है  बैतरणी
उसके  चारे को  खाकर  मिटायी  जा  सकती है
अदम्य  भूख
उसकी  परिक्रमा  करके  हासिल  की  जा
सकती  है  सत्ता

सबसे  बड़ा  दान  है – गोदान
लेकिन  गायें  पुरोहितो  के  पास  नही
पहुंच  पा  रही  हैं
उन्हें  कसाई  के  ठीहे  के  पास
देखा  जा  रहा  है.    


  


   ७.
स्त्रियां

प्राय: सभी  स्त्रियां  अच्छी  होती  है
लेकिन  जो  स्त्रियां  गाती  है
वे  भिन्न  होती  हैं
वे  दुख  को  सुख  की  तरह
गाती  है

उनके  गाने  से  होता  है
बिहान
उनके  स्वर  में  कलरव  सुनाई
पड़ता  है
ऐसे  एक  गायक  स्त्री  ने  मुझे
दिया  था  जन्म
मुझे  बनाया  था  गीत और  तल्लीन
होकर  गाया  था

उसके  जाने  के  बाद  मुझे
गाया  नही  गया

किसी  के  पास  नही  था  वैसा  कंठ
किसी  के  पास  नही  थी  गाने  की  धुन
और  मैं  खुद  को  गा  नही  सकता  था.

 _______________
स्वप्निल  श्रीवास्तव

ईश्‍वर एक लाठी है(1982), ताख पर दियासलाई(1992), मुझे दूसरी पृथ्‍वी चाहिए(2004) जिन्‍दगी का मुकदमा(2010), जब तक ही जीवन (2014) कविता संग्रह प्रकाशित

510—अवधपुरी  कालोनी –अमानीगंज
फैजाबाद -224001
मो...09415332326

मेघ - दूत : जिगरी यार : लुइगी पिरांदेलो

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(पेंटिग : 3 closefriends : NGUYEN THI CHAU GIANG (Vietnam)

इटली के नाटककार, उपन्यासकार, कवि, कथाकार तथा १९३४ के साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित Luigi Pirandello  (28 June 1867 10 December 1936) अपनी कथाओं में मनोवैज्ञानिक विवेचना के लिए प्रसिद्ध हैं. उनकी एक कहानी close friends का हिंदी में अनुवाद कथाकार और कवि सुशांत सुप्रिय ने किया है. हिन्दी में लुइगी पिरांदेलो की कृतियों के अनुवाद लगभग नहीं के बराबर हुए हैं. 



(इतालवी कहानी)
जिगरी यार                             
मूल लेखक : लुइगी पिरांदेलो 
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय 



गिगी मियर ने उस सुबह एक पुराना लबादा पहन रखा था (जब आप चालीस से ऊपर के हों तो उत्तर दिशा से बहने वाली बर्फ़ीली हवा आप को मज़ाक नहीं लगती). उसने मफ़लर से अपनी नाक तक ढँक रखी थी. अपने दोनों हाथों में उसने वैसे मोटे दस्ताने पहन रखे थे जैसे अंग्रेज़ लोग पहनते हैं. वह भरपेट खा कर चला था. उसकी त्वचा चिकनी और रक्ताभ थी. वह मेलिनी के स्टॉप पर उस ट्राम की प्रतीक्षा कर रहा था जो हर रोज़ की तरह उसे पास्त्रेंगो के रास्ते 'कोर्ते देई कौंती' ले जाती, जहाँ वह नौकरी करता था.

Luigi Pirandello
            
उसका जन्म कुलीन वर्ग में हुआ था लेकिन अब तो हालात... उफ़् ! अब न उसके अधीन कोई इलाक़ा था, न ही बेशुमार धन-संपत्ति. बचपन के अपने सुखद अनजानेपन में ही गिगी मियर ने अपने पिता को शासकीय सेवा में जाने की अपनी 'राजसी'योजना के बारे में बता दिया था. दरअसल तब अपनी मासूमियत में उसने मान लिया था कि 'कोर्ते देई कौंती 'कुलीन लोगों का दरबार था जिसमें हर कुलीन व्यक्ति को शामिल होने का अधिकार था.
              
हर आदमी यह जानता है कि जब आप बेसब्री से ट्राम की प्रतीक्षा कर रहे होते हैं तो वे कभी नहीं आतीं. बल्कि ऐसे समय में वे बीच में ही कहीं रुक जाती हैं क्योंकि बिजली नहीं होती, या वे किसी रेड़े को रौंदने में व्यस्त होती हैं, या वे किसी बदक़िस्मत इंसान तक को कुचल डालने से नहीं चूकतीं. बावजूद इसके, हर बात पर ग़ौर करने पर हम पाते हैं कि वे एक निराली ही चीज़ हैं !
              
जिस सुबह का ज़िक्र हो रहा है, उस सुबह उत्तर दिशा से ठंडी, बर्फ़ीली हवा चल रही थी, और गिगी मियर अपने पैर पटकते हुए सलेटी नदी को देख रहा था. उसे लगा जैसे नए पुश्ते की रंगहीन दीवारों के बीच, फड़फड़ाते आस्तीनों वाली क़मीज़ पहने उस बेचारी नदी को भी बहुत ठंड लग रही थी.
               
अंत में घंटी बजाते हुए ट्राम आ पहुँची. गिगी मियर उसके रुकने से पहले ही उस पर सवार होने वाला था कि उसे लगा जैसे नए पुल पौंते केवोर की तरफ़ से किसी ने ज़ोर से उसका नाम पुकारा:


गिगी, अरे भाई, गिगी !

और उसने एक व्यक्ति को अपने पीछे बाँहें फैलाए दौड़ते हुए पाया. इस बीच ट्राम निकल गई. बदले में सांत्वना के रूप में गिगी ने खुद को एक अजनबी की बाँहों में पाया. उस अजनबी ने जिस शिद्दत से दो बार मफ़लर से लिपटे गिगी के चेहरे को बाँहों में भर लिया उससे तो यही लगा कि वह कोई जिगरी यार था.
                
"क्या तुम जानते हो, मैं तो तुम्हें देखते ही पहचान गया था, गिगी, मेरे दोस्त ! पर यह क्या है ? -- तुम अभी से बूढे होने लगे हो ? इतने सारे सफ़ेद बाल; तुम्हें शरम नहीं आती ? अपने संतनुमा बुढ़ापे की ख़ातिर पहले तुम मुझे चुंबन दो, गिगी, मेरे प्यारे दोस्त. यहाँ खड़े तुम ऐसे लग रहे थे जैसे मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे. पर जब मैंने तुम्हें उस दानवी ट्राम पर सवार होते देखा तो मैंने खुद से कहा, "यह ग़द्दारी है, एकदम ग़द्दारी."

"हाँ, मैं दफ़्तर जा रहा था, "मियर ने जैसे ज़बर्दस्ती मुस्कराते हुए कहा.
"मुझ पर एक अहसान करो. ऐसी वाहियात चीज़ों के नाम अभी मत लो."
"क्या ? "
"हाँ, मैं यही कहना चाहता हूँ. बल दे कर."
"तुम एक अजीब आदमी हो. क्या तुम यह जानते हो ? "
"हाँ, मैं यह जानता हूँ. लेकिन यह बताओ, क्या तुम्हें मुझसे अभी मुलाक़ात होने की उम्मीद थी? तुम्हारे चेहरे के हाव-भाव तो यह बता रहे हैं कि तुम्हें इसकी बिल्कुल उम्मीद नहीं थी."
"हाँ, दरअसल... सच्ची बात बताऊँ तो --"

"मैं कल शाम यहाँ पहुँचा. तुम्हारे भाई ने तुम्हारे लिए शुभकामनाएँ भेजी हैं. मेरी बात सुन कर तुम्हें हँसी आएगी. वह मेरे बारे में एक पत्र लिख कर तुम्हें भेजना चाह रहा था ! 'क्या,'मैंने कहा, 'अब तुम गिगी को मेरे बारे में पत्र लिखोगे ? क्या तुम्हें पता है, मैं गिगी को बहुत पहले से जानता हूँ. भगवान भला करे, हम तो लड़कपन के दोस्त हैं. हमारे बीच कई-बार लड़ाई-झगड़ा भी हो चुका है. विश्वविद्यालय में हम दोनों सहपाठी थे, भाई. 'मशहूर पादुआ विश्वविद्यालय में, क्या तुम्हें याद आया ? वह बड़ा-सा घंटा जिसका बजना तुम कभी नहीं सुन पाते थे;

तुम कैसे घोड़े बेच कर सोते थे. मुझे 'गधे बेच कर 'कहना चाहिए ! और जब तुमने वाकई उस घंटे का बजना सुना -- ऐसा केवल एक बार हुआ था -- तो तुम्हें लगा था जैसे वह आग लगने की चेतावनी देने वाला घंटा था... वे भी क्या दिन थे, है न !...

ईश्वर की दया से तुम्हारा भाई ठीक-ठाक है. हम दोनो मिल कर कोई काम कर रहे हैं, और मैं उसी सिलसिले में यहाँ आया हूँ. लेकिन तुम्हें क्या हो गया है ? तुम्हारा चेहरा तो किसी शव-यात्रा में शामिल आदमी-सा लग रहा है ! क्या तुम्हारी शादी हो गई ? "
"नहीं, प्रिय ! "गिगी मियर जोश में आ कर बोला.
"क्या तुम्हारी शादी होने वाली है ? "
"पागल हो गए हो क्या ? चालीस के बाद ? हे ईश्वर, नहीं. मैं इसके बारे में सोच भी नहीं सकता."

"चालीस ! गिगी, तुम्हारी उम्र पचास बरस के ज़्यादा क़रीब होगी. दरअसल मैं भूल रहा था... चाहे वो घंटियाँ हों या बरस हों, तुम्हारा यह अनूठापन रहा है कि तुम उनके बजने या बीतने की आहट नहीं सुन पाते हो. तुम पचास बरस के तो होगे ही, मेरे प्यारे दोस्त. पचास बरस के. मैं तुम्हें आश्वस्त करता हूँ. हम आह भर सकते हैं. अब यह गम्भीर बात हो गई है. चलो, देखते हैं, तुम कब पैदा हुए थे... अप्रैल, 1851में. क्या यह सच है या नहीं ? बारह अप्रैल के दिन."

"माफ़ करना, वह मई का महीना था. और 1852का साल था."मियर ने थोड़ा चिढ़ कर हर अक्षर पर बल देते हुए उसे सुधारा.

"क्या तुम्हें मुझसे बेहतर पता है ? वह 12मई, 1852का दिन था. इस लिहाज़ से अभी तुम्हारी उम्र उन्चास साल और कुछ महीनों की है. तुम्हारी कोई पत्नी भी नहीं ? बढ़िया है. जैसा कि तुम जानते हो, मैं तो शादी-शुदा हूँ. हाँ, यह एक त्रासदी है ! मैं तुम्हें इतना हँसा सकता हूँ कि हँसते-हँसते तुम्हारे पेट में बल पड़ जाएँगे. इस बीच मैं यह मान लेता हूँ कि तुमने मुझे दोपहर के भोजन के लिए आमंत्रित कर लिया है. आजकल तुम खाना खाने कहाँ जाते हो ? क्या उसी पुरान'बारबा 'रेस्त्रां में ? "
 "हे ईश्वर ! "गिगी मियर हैरान हो कर बोला --"क्या तुम 'बारबा'रेस्त्रां के बारे में भी जानते हो ? मुझे लगता है, तुम भी वहाँ जा चुके हो."

"मैं और 'बारबा 'रेस्त्रां मे ? जब मैं पादुआ में रहता हूँ तो यह कैसे सम्भव है ? मुझे बताया गया था कि अन्य लोगों के साथ तुम भी वहाँ जाते हो और वहाँ बहुत कुछ होता है. मैं उसे शराबख़ाना कहूँ या भोजनालय? "

"उसे शराबख़ाना ही कहो, एक सस्ता शराबख़ाना ", मियर ने जवाब दिया -- "किन यदि तुम दोपहर का खाना मेरे साथ खा रहे हो तो हमें घर पर मौजूद खाना बनाने वाली नौकरानी को यह बताना होगा."
"क्या वह बावर्ची युवा है ? "

"अरे नहीं, भाई. वह बूढ़ी है. दूसरी बात यह है कि अब मैं 'बारबा 'में नहीं जाता. पिछले तीन सालों से तो बिल्कुल नहीं गया हूँ. एक उम्र होती है जब... "
"चालीस के बाद --- "

"हाँ, चालीस के बाद आप में इतना साहस होना चाहिए कि आप ऐसे किसी मार्ग से दूर रहें जो आपको खाई के किनारे की खड़ी चट्टान तक ले जाता है. जब तक आप में सामर्थ्य है, आप बहुत सावधानी से धीरे-धीरे उस खड़ी चट्टान तक जा सकते हैं -- अपने-आप को लुढ़क कर उस पार खाई में गिरने से बचाते हुए.

ख़ैर, अब हम यहाँ हैं तो मैं तुम्हें दिखाऊँगा कि मैंने अपने छोटे-से घर को कैसे सजा कर रखा हुआ है."

"ह्म्म, सावधानी से, धीरे-धीरे.... तुमने अपने घर को बढ़िया ढंग से ही रखा होगा."गिगी मियर के मित्र ने उसके पीछे-पीछे घर की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए कहा, "पर तुम्हारे जैसा विशाल, भारी-भरकम, बढ़िया आदमी आज कैसी हल्की और सतही बातें कर रहा है ! बेचारा गिगी ! समय ने तुम्हारा क्या हाल कर दिया है ! क्या तुम्हारी पूँछ झुलस गई है ? क्या तुम चाहते हो कि मैं रो दूँ ? "

"देखो...,"नौकरानी के दरवाज़ा खोलने की प्रतीक्षा करते हुए मियर ने कहा, "इस समय मुझे अपने अभिशप्त अस्तित्व का साथ निभाना पड़ रहा है ; हल्के और सतही शब्दों से उसे दुलारना-पुचकारना और फुसलाना पड़ रहा है, वर्ना वह भी मेरे जीवन को सतही बना देगा. फ़िलहाल मुझे चार फ़ुट की क़ब्र में जाने की कोई जल्दी नहीं है."

"तो क्या तुम आदमी के दोपाया होने में यक़ीन रखते हो ? "मित्र ने कहा, "गिगी, यह मत कहना कि तुम्हें इस पर यक़ीन है. मुझे पता है, मुझे दो पैरों पर खड़े रहने के लिए कितनी कोशिश करनी पड़ती है. यक़ीन करो, मित्र ; यदि हम प्रकृति के अनुरूप बन जाएँ तो हम सभी चौपाया बन जाना चाहेंगे. सबसे अच्छी बात ! कुछ भी इससे ज़्यादा आरामदेह नहीं. हमेशा बढ़िया संतुलन. कितनी बार मैं खुद को ज़मीन पर रेंगते हुए देखना चाहता हूँ. यह अभिशप्त सभ्यता हमें नष्ट कर रही है. यदि मैं चौपाया होता तो मैं एक बढ़िया जंगली जानवर होता. तुमने जो कुछ मुझे कहा है, उसके बदले में मैं तुम्हें कुछ दुलत्तियाँ रसीद करता ! तब मेरे पास न बीवी होती, न उधार की फ़िक्र होती. क्या तुम मुझे रुलाना चाहते हो. मैं तो चला. "

जैसे साक्षात् बादलों से अवतरित हुए अपने इस मित्र की सनक भरी मज़ाक़िया बातें सुन कर गिगी मियर स्तंभित रह गया. उसे ध्यान से देखते हुए गिगी ने अपने ज़हन पर बहुत ज़ोर डाला ताकि उसे इस मित्र का नाम याद आ जाए. आख़िर पादुआ में वह उसे कैसे और कब जानता था -- अपने लड़कपन के समय या अपने विश्वविद्यालय के दिनों में ? उसने उन दिनों के अपने सभी घनिष्ठ मित्रों के बारे में बार-बार सोचा, पर कोई फायदा नहीं हुआ ; किसी भी मित्र की शक्ल उस व्यक्ति से नहीं मिलती थी. इस विषय में खुद उसी व्यक्ति से पूछने की उसकी हिम्मत नहीं हुई क्योंकि वह उससे इस स्तर की और इतनी ज़्यादा घनिष्ठता दिखा रहा था कि पूछने पर वह बहुत अपमानित महसूस करता. इसलिए गिगी ने सोचा कि वह चालाकी इस्तेमाल करके सच्चाई जान लेगा.

नौकरानी बहुत देर के बाद दरवाज़ा खोलने आई ; उसे अपने मालिक के इतनी जल्दी लौट आने की उम्मीद नहीं थी. गिगी मियर ने दूसरी बार दरवाज़े की घंटी बजाई और अंत में वह अपनी चप्पलें घसीटते हुए प्रकट हुई.

 मैं आ गया हूँ, बूढ़ी अम्मा ", मियर ने उससे कहा. "मेरे साथ मेरा मित्र भी है. जल्दी से दो लोगों के लिए दोपहर का खाना बना दो. ध्यान रखना, मेरे मित्र को हल्की बातें पसंद नहीं. इनका नाम भी बड़ा असाधारण है. "

दाढ़ी, सींगों और खुरों वाला नरभक्षी बकरा", गिगी के मित्र ने मज़ाक़िया लहज़े में नाम बताया जिसे सुनकर वह वृद्धा संदेह में पड़ गई कि वह इस पर हँसे या ईश्वर को याद करते हुए अपनी उँगलियों से अपनी छाती पर सलीब का चिह्न बनाए. "और मेरे इस अद्भुत नाम के बारे में अब कोई भी नहीं जानना चाहता, बूढ़ी अम्मा ! बैंकों के निदेशक यह नाम सुन कर मुँह बना लेते हैं. और साहूकार विचलित हो जाते हैं. केवल मेरी पत्नी ही अपवाद है ; उसने इस नाम को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया है. किंतु मैंने उसे केवल नाम पर ही अधिकार करने दिया, खुद पर नहीं. जी हाँ, खुद पर नहीं. मैं बेहद रूपवान व्यक्ति हूँ -- दुनिया गवाह है ! इसलिए गिगी, मान जाओ क्योंकि तुममें भी यह कमज़ोरी है. चलो, मुझे अपनी चीज़ें दिखाओ. जहाँ तक तुम्हारी बात है बूढ़ी अम्मा, काम पर लग जाओ. पशुओं के लिए चारे का बंदोबस्त करो."

अपनी युक्ति के विफल हो जाने से घबराए मियर ने अपने मित्र को अपने छोटे फ़्लैट के पाँचो कमरे दिखाए, जिन्हें एक ऐसे व्यक्ति ने प्यार से सुसज्जित किया था जिसे बहुत ज़्यादा चीज़ों की इच्छा नहीं थी. एक बार जब उसने अपने मकान को अपना शरण-स्थल बनाने का निर्णय ले लिया, तो ऐसी कोई ज़रूरत नहीं थी जिसकी पूर्ति मकान में से ही नहीं की जा सकती थी. वहाँ एक बैठक थी, एक शयन-कक्ष था, एक छोटा शौचालय था, एक खाने का कमरा था और एक अध्ययन-कक्ष था.

अपने छोटे-से बैठक में मियर की हैरानी और उत्पीड़न -- दोनों बढ़ गए जब उसने अपने मित्र को अपने परिवार की नितांत निजी और अंतरंग बातें बताते हुए सुना. वह साथ-ही-साथ आग जलाने वाली जगह की बगल में बने ताक पर रखे सभी फ़ोटो पर भी निगाह डालता जा रहा था.

"गिगी यार, काश तेरी तरह का मेरा भी कोई साला होता. तू तो जानता है, मेरा साला कितना बड़ा बदमाश है !"
"क्या वह तुम्हारी बहन से दुर्व्यवहार करता है ? "
"नहीं, वह तो मुझ ही से दुर्व्यवहार करता है.. वह चाहे तो कितनी आसानी से ऐसी मुसीबतों में मेरी मदद कर सकता है. पर वह ऐसा नहीं करता. "
"माफ़ करना, "मियर ने कहा, "मैं तुम्हारे साले का नाम याद नहीं कर पा रहा."


"कोई बात नहीं. तुम उसका नाम याद कर भी नहीं सकते -- तुम उसे नहीं जानते हो. वह पादुआ में केवल दो साल से है. क्या तुम्हें पता है, उसने मेरे साथ क्या किया ? तुम्हारे दयालु भाई ने मेरी मदद करने का आश्वासन दिया था, यदि मेरा साला मेरी हुंडी ले लेता. लेकिन क्या तुम यक़ीन करोगे ? उसने दस्तखत करने से इंकार कर दिया. हालाँकि तुम्हारा भाई मेरा मित्र है, पर असलियत तो यही है न कि वह एक बाहरी व्यक्ति है. जब उसे यह बात पता चली तो वह बेहद क्रुद्ध हो गया और उसने इस काम को अपने हाथों में ले लिया. हमारा काम अब निश्चित ही हो कर रहेगा... लेकिन क्या मैं तुम्हें अपने साले के इंकार की वजह बताऊँ !... देखो, मैं अब भी एक रूपवान आदमी हूँ. इस बात से तुम इंकार नहीं कर सकते. लड़कियाँ मुझ पर मरती हैं. मैं इस सच्चाई से मुकर नहीं सकता. देखो, मेरे साले की बहन का दुर्भाग्य था कि वह मुझसे प्रेम करने लगी. बेचारी. उसकी पसंद तो अच्छी थी पर उसमें व्यवहार-कौशल की कमी थी. तुम खुद ही कल्पना करो, क्या मैं... असल में बात यह है कि उसने ज़हर खा लिया."

"क्या उसकी मृत्यु हो गई ? "मियर ने रुक कर पूछा.

"नहीं-नहीं. उसने उलटी कर दी जिसके कारण उसकी जान बच गई. लेकिन तुम देख ही सकते हो कि इस त्रासद घटना के बाद मेरे लिए अपने साले के घर में क़दम रख पाना असम्भव था. हे ईश्वर, क्या हमें खाने के लिए कुछ मिलेगा या नहीं ? भूख के मारे मेरी जान जा रही है. "

बाद में खाने की मेज पर गिगी का मित्र उससे प्यार से गोपनीय बातें करता रहा. इससे चिढ़ कर गिगी ने मन-ही-मन अपशब्दों की बौछार कर दी. फिर थोड़ा सँभल कर वह अपने मित्र से पादुआ की ख़बरें पूछता रहा. इसके-उसके बारे में बातें करता रहा. गिगी को उम्मीद थी कि बातचीत के दौरान शायद उसके मित्र का अपना नाम उसकी ज़ुबाँ से फिसल जाए. (गिगी की खीझ हर पल बढ़ती ही जा रही थी.)

इधर-उधर की बातें करके गिगी अपने मित्र का नाम जानने की अपनी सनक से भी अपना ध्यान हटा रहा था.

"चलो, अब मुझे बताओ -- वैवरदे वाले व्यक्ति का क्या हुआ ? मैं इतालवी बैंक के निदेशक की बात कर रहा हूँ -- हाँ, वही जिसकी बीवी बड़ी ख़ूबसूरत है पर जिसकी स्थूलकाय बहन भेंगी है. मैने ग़लत तो नहीं कहा ? क्या वे अब भी पादुआ में हैं ? "यह सुनकर उसका मित्र ठठा कर हँसने लगा.

"क्या हुआ ?,"गिगी की उत्सुकता जागृत हो गई. "क्या उसकी बहन भेंगी नहीं है ? "
"चुप हो जाओ. ईश्वर के लिए चुप हो जाओ !"अपनी हँसी न रोक पाने की वजह से उसके मित्र ने कहा. हँसी के दौरों की वजह से उसके पेट में बल पड़ रहे थे.

"भेंगापन ? हाँ, मेरा ख़्याल है, वह वाकई भेंगी है. और उसकी नाक इतनी चौड़ी है कि उसमें से आपको उसका दिमाग़ भी दिखता है ! यही वह स्त्री है. "
"कौन-सी स्त्री ? "
"मेरी बीवी ! "

यह सुनकर गिगी मियर हक्का-बक्का रह गया. क्षमायाचना में वह केवल कुछ बेवक़ूफ़ानी-सी बात ही बुदबुदा सका. लेकिन उसका मित्र ज़ोर-ज़ोर से, पहले से भी ज़्यादा देर तक हँसता रहा. बहुत देर बाद वह शांत हुआ, उसने त्योरी चढ़ाई और एक गहरी साँस ली.

"मेरे प्रिय मित्र, "उसने कहा, "जीवन में अज्ञात वीरता के कई कारनामे होते हैं. कवि की सबसे अकुशल कल्पनाशक्ति और सोच भी वहाँ तक नहीं पहुँच पाती है. "

"सही कह रहे हो !"मियर भी गहरी साँस ले कर बोला, "तुम सही कह रहे हो...तुम जो कहना चाहते हो, वह मैं समझ सकता हूँ. "

"नहीं, तुम उसे बिल्कुल नहीं समझ सकते, "उसके मित्र ने उसी समय उसकी बात को काटते हुए कहा, "क्या तुम्हें यह लग रहा है कि मैं अपनी ओर इशारा कर रहा हूँ ? कि मैं एक नायक हूँ जबकि वास्तव में मैं केवल एक पीड़ित व्यक्ति हूँ ? ऐसा नहीं है. नायिका की भूमिका तो मेरी साली की है -- मैं ल्यूसियो वैलवर्दे की पत्नी की बात कर रहा हूँ. मेरी बात ध्यान से सुनो -- हे ईश्वर, कितना बड़ा अंध-मूढ़ व्यक्ति."

"मैं ? "

"नहीं, मैं. मैं. मैं खुद को धोखा देता रहा कि ल्यूसियो वैलवर्दे की पत्नी अपने पति से शादी करने से पहले मुझसे मुहब्बत करती थी. तुम्हें इस बात पर यक़ीन करना होगा, गिगी. ईमानदारी से कहूँ तो वह इसी के योग्य था. लेकिन हे ईश्वर ! क्या तुम जानते हो कि आगे क्या हुआ ? जो तुम सुनोगे वह त्याग के तटस्थ भाव का उदाहरण होगा. उस दिन वैलवर्दे चला जाता है या कम-से-कम जाने का ढोंग करता है (उसकी पत्नी यह जानती है). फिर वह मुझे अपने घर में आने देती है. जब इकट्ठे हैरान होने का त्रासद पल आता है, तब वह मुझे अपनी साली के कमरे में छिपा देती है -- वही स्त्री जो भेंगी है. वह काँपती हुई पतिव्रता स्त्री के अंदाज़ में मेरा स्वागत करती है. ऐसा लगता है जैसे अपने भाई के सम्मान और उसकी शांति के लिए वह अपना उत्सर्ग कर रही है. दरअसल मुझे बड़ी मुश्किल से चिल्ला कर इतना कहने का समय मिला -- "लेकिन देवी जी, एक मिनट रुकिए. ल्यूसियो गम्भीरता से ऐसा सोच भी कैसे सकता है..." -- अभी मैंने अपनी बात ख़त्म भी नहीं की थी कि गुस्से में बड़बड़ाता हुआ ल्यूसियो भीतर दाख़िल हुआ. फिर क्या हंगामा हुआ,

इसकी कल्पना तुम बख़ूबी कर सकते हो.

"क्या ! "गिगी मियर के मुँह से निकला, "तुम, जो इतने अक़्लमंद हो, फिर भी. "

"और ऋण के रूप में मुझे दिया जाने वाला रुपया ? "गिगी का मित्र चीख़ा, "मौन अनुमति से ऋण के रूप में मुझे दिये जाने वाले रुपये का क्या होता जिसका नवीनीकरण वैलवर्दे अपनी पत्नी के सात्विक ढोंग की वजह से कर रहा था ?वह उसी समय मुझे रक़म देने से मना कर देता -- क्या तुम समझ रहे हो ? और मुझे बर्बाद कर देता. कितना घटिया मज़ाक था ! चलो, कृपा करके अब इसके बारे में एक शब्द भी और नहीं कहें... असल बात तो यह है कि मेरे पास चार पैसे भी नहीं थे, और इस बात को ध्यान में रखो कि शादी करने का मेरा कोई इरादा नहीं था.. "

"क्या ! "गिगी मियर ने बीच में हस्तक्षेप करते हुए कहा, "तुमने उससे शादी कर ली ! "

"अरे, नहीं. मैं तुमसे वादा करता हूँ. उसने मुझसे शादी की. केवल उसकी शादी हुई. मैंने उसे पहले ही कह दिया था, "देवी जी, आप मेरी पदवी और मेरे नाम से जुड़ना चाहती हैं. ठीक है, जुड़ जाइए. क़सम से, मैं यह खुद भी नहीं जानता कि मैं इस पदवी और नाम का क्या करूँ. लेकिन बस यहीं तक, हाँ जी ? "

"फिर तो, "मियर ने रुक कर विजेता के अंदाज़ में कहा, "इस के बारे में और कुछ भी नहीं किया जा सकता था. यानी तब उसका नाम वैलवर्दे था और अब वह -- "

"बिल्कुल सही, "मेज पर से उठकर हँसते हुए गिगी के मित्र ने कहा.

"नहीं, सुनो, "गिगी मियर के लिए अब यह स्थिति असह्य हो रही थी और उसने साहस बटोर कर कहा, "तुम्हारे साथ आज की सुबह बिता कर मुझे मज़ा आ गया. मैंने भी तुम्हारे साथ अपने भाई जैसा व्यवहार किया है. अब तुम मुझ पर एक अहसान करो. "

"क्या तुम मेरी पत्नी को उधार लेना पसंद करोगे ? "
"नहीं, शुक्रिया. मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे अपना नाम बताओ. "

"मैं ? अपना नाम ? "उसके मित्र ने हैरान हो कर पूछा. वह इस तरह से अपनी छाती पर हल्के-से अपनी उँगलियाँ बजा रहा था मानो उसे अपने अस्तित्व पर भरोसा न हो. "तुम्हारा क्या मतलब है ? क्या तुम मेरा नाम नहीं जानते ? क्या तुम्हें मेरा नाम बिल्कुल याद नहीं ? "
"नहीं, "मियर ने शर्मिंदा होते हुए कहा, "मुझे माफ़ करना. तुम मुझे धरती पर मौजूद सबसे भुलक्कड़ आदमी कह सकते हो. पर मैं लगभग क़सम खा कर कहता हूँ कि मैंने तुम्हें पहले कभी नहीं देखा है. "

"अच्छा ? बढ़िया है, बहुत बढ़िया !.."उसके मित्र ने जवाब दिया. "मेरे जिगरी यार गिगी, आओ, मुझसे हाथ मिलाओ. इतने बढ़िया दोपहर के भोजन और तुम्हारे साथ के लिए मैं तुम्हें हृदय से शुक्रिया अदा करता हूँ. लेकिन अब तो मैं तुम्हें अपना नाम बताए बिना ही जाऊँगा. अब यही होगा. "

"तुम्हारा बेड़ा गर्क हो ! तुम मुझे अपना नाम बताओगे, "अपने पंजों के बल उछलते हुए गिगी चिल्लाया. "पूरी सुबह मैं तुम्हारा नाम याद करने के लिए अपने दिमाग़ पर ज़ोर डालता रहा. अब जब तक तुम मुझे अपना नाम नहीं बता देते, मैं तुम्हें नहीं जाने दूँगा."
"चाहे तुम मेरी हत्या कर दो, "गिगी के मित्र ने उत्तर दिया, "चाहे तुम मेरे टुकड़े-टुकड़े कर दो, पर मैं तुम्हें अपना नाम नहीं बताऊँगा."

"चलो, शाबाश ! तुम तो अच्छे आदमी हो, "मियर ने अपने स्वर को मृदु बनाते हुए कहा, "मेरे साथ कभी ऐसा विचित्र अनुभव नहीं हुआ. मैं क़सम खा कर कहता हूँ कि यह भुलक्कड़पन एक दर्दनाक अनुभूति है. सुबह से मैं लगातार तुम्हारे बारे में ही सोच रहा हूँ. तुम मेरी सनक बन गए हो. ईश्वर के लिए अपना नाम बताओ."

"जा कर पता कर लो."
"देखो. अपने भुलक्कड़पन के बावजूद मैंने तुम्हें दोपहर का भोजन खिलाया. सच तो यह है कि यदि मैं तुम्हें कभी नहीं जानता था तो भी अब तुम मेरे प्रिय बन गए हो. मुझ पर यक़ीन करो. तुम मुझे अपने भाई जैसे लगे हो. मैं तुम्हारा प्रशंसक बन गया हूँ. मैं चाहूँगा कि तुम मुझसे मिलने आते रहो. इसलिए मुझे अपना नाम बताओ. "

"तुम जानते हो, इस सब का कोई फ़ायदा नहीं, "गिगी के मित्र ने कहा, "मेरे रहने न रहने से तुम्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता. तुम खुद ही सोचो. क्या तुम अकस्मात् मिली मेरी वह खुशी मुझसे छीन लेना चाहते हो -- कि मैंने तुम्हें ठग लिया क्योंकि तुम्हें पता ही नहीं चला कि तुम्हारा मेहमान कौन है ? नहीं, चले जाओ. तुम बहुत ज़्यादा जानना चाहते हो और मैं देख सकता हूँ कि मैं तुम्हें बिल्कुल याद नहीं. यदि तुम मुझे इस बात से आहत नहीं करना चाहते कि तुमने मुझे भुला दिया है तो मुझे इसी तरह चले जाने दो. "

"तो फिर तुम जल्दी यहाँ से चले जाओ, "गिगी मियर ने चिड़चिड़े स्वर में कहा."मैं तुम्हें अपने सामने देखना और बर्दाश्त नहीं कर सकता. "

"ठीक है, मैं जा रहा हूँ. लेकिन पहले मुझे एक चुंबन तो दे दो. मैं कल वापस पादुआ लौट जाऊँगा. "

"नहीं,"गिगी ने झुँझला कर कहा, "जब तक तुम मुझे अपना नाम -- "

"नहीं, नहीं. बस. अब चलता हूँ, " उसके मित्र ने उसकी बात बीच में ही काटते हुए कहा. और वह हँसता हुआ चल पड़ा. सीढ़ियों के पास जा कर वह मुड़ा और उसने अपने होठों से चुम्बन का चिह्न बना कर अपने हाथों से उस काल्पनिक चिह्न को गिगी की ओर उड़ा दिया.


_______________________
सुशांत सुप्रिय
A-5001,गौड़ ग्रीन सिटी,वैभव खंड,इंदिरापुरम,ग़ाज़ियाबाद - 201014 (उ. प्र.) 
ई-मेल : sushant1968@gmail.com

मंगलाचार : सोनिया गौड़ (कविताएँ)

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(The Music Of Love. This picture was taken in Tenganan Village, Bali (2010). Tenganan is the most famous Bali Aga (original Balinese)village and is located close to CandiDasa in East Bali. A man was playing bamboo music to entertain a disabled child which is not his son, but he loves this child likes he loves his own son. (Photo and caption by ArioWibisono)




सोनिया गौड़ की कविताएँ                             


सोनिया गौड़ की कविताएँ आपके समक्ष हैं. एक युवा जैसे प्रेम को सबसे पहले पहचानता है ठीक उसी तरह से कलाओं में वह प्रेम कविताओं के पास पहले जाता है. और लिखता भी है. यह कलाओं से उसके लगाव की शुरुआत है.  इस शुरुआत में उसके इस लगाव के विकास के बीज भी दबे होते हैं.





एकात्म


जिद्दी पहाड़ों के बीच
घने देवदारु के नीचे "एकांत"
आदमखोर बाघ की तरह सुस्ताता है.

दूर गांव में कोलाहल जलती मशाल की तरह चमकता है
दब्बू आँखों में डर को समेटकर
शहर लांघ आता है "आदमखोर"
तुम्हारे ऑफिस के कमरे में....
घूरता है मुझे खा जाने के लिए.

अचानक शमशेर की कविताएं
बर्फ की तरह पिघलती हैं
और नदी बनकर मेरी मुझमे बहने लगती हैं.

तुम्हारा प्रेम चमकते तारों  का सा भाल बन जाता है
और गिरता है मुझपर, एकान्त खुद को समाप्त कर देता है!
एकांत की मौत पर, तुम्हारी आँखों के तारे टूट कर
ख्वाहिश बन जाते हैं.

एकांत पुनर्जीवित होता है,
नदी के आंचल में तुम्हारे नीले कुर्ते का रंग  गहरा नजर आता है.
शाम के दुपट्टे में दीपदीपाते हैं रौशनी के जुगनू
एकान्त हम दोनों का हाथ थामता है...
और फिर लांघता है शहर से गाँव
छोड़ देता है देवदारु के नीचे,
फिर गायब हो जाता है.
असल में एकान्त स्वभक्षी है,
जो दो प्रेमियों के "एकात्म"के बाद खुद को खा जाता है.







वसंत

मेरी आँखों से तुमको देखने के बाद
मेरे पास मेरा कुछ शेष नहीं....
अब अशेष तुम ही हो मुझमें.
तुम्हारी देह की सीपी से छलका था  प्रेम
जो समा गया मेरे देह के कैनवास में.

कुछ अंश छोड़ा तुमने माघ की हलकी सर्दी का
पीले फूलों की खुशबू का
तीखी सरसों की गंध और आम की बौरों का पागलपन!

पीले चावल की महक वाली तुम्हारी साँसों की खुशबु
कविताओं की तरह बिखर गई होगी कमरे में.
नदी सी ठहरी रही मैं और पहले सूरज की तरह डूब गए तुम, मेरी सम्पूर्ण सत्ता में.

अब क्या बचा मेरी निजी आँखों से तुमको देखने के बाद.

पृथ्वी से कांपते इस बदन पर आकाश की छाप....
सागर की असमाप्त लहरें.....मेरे मुँह में तुम्हारे मुँह से निकला प्रेम भरे नाटक का एक छोटा सा संवाद!
एक रूप कथा कि शुरुआत.... और मेरी तमाम शोकग्रस्त रातों का  उत्प्रवास






देह जो नदी बन चुकीरेड लाइट एरिया पर



 (1)

भूख से बेदम,
किसी सड़क ने
पिघलते सूरज की आड़ में,
घसीट के फेंका
एक ऐसी राह में जो दिन में झिझक से
सिकुड़ जाती है
और रातों में बेशर्मी से चौड़ी हो जाती है.

(2)

वह औरत ख्याल नहीं सोचती
बस बातें करती है चीकट दीवारों से
बेबस झड़ती पपड़ियों के बीच लटके बरसों पुराने कैलेंडर में अंतहीन उड़ान भरते पक्षियों से!
और हाँ, बेमकसद बने मकड़ियों के जालों से भी.



(3)

तेज धार वाली दोपहर जब, जीवन की सांझ को काटती है
वह घूरने लग जाती है रातों में ईश्वर को,
ठन्डे पक्षी के शव जैसे पड़ जाती है
जब उछलती है उस पर किसी की देह,
वह अक्सर चूल्हे की आग से परे
किसी के बदन की
भूख मिटाती है.
मृत्यु का काला रंग आर्तनाद करता है
फिर कुछ क्षणों बाद सब कुछ लाल लाल!



 (4)

रात का जहाज टूटता है, देह की नदी से टकराकर
क्षितिज गलने लगते हैं,
रंगबिरंगी रौशनी के बीच अचानक आनंदित होकर ईश्वर आँखें मूँद लेते हैं,
वह मुस्कराती है, और हाथ बाँध के
दार्शनिकता के नारंगी रंग में पुत जाती है.


(5)

ख्यालों, बातों और भूख में से वह अपने लिए भूख चुनती है
वही भूख जो उसके पेट में नारों की तरह चीखती है.

एक पुरुष जो बेहद गोपनीय है सबके लिए रातों में
पश्चिम से आता है,
औरत उसके लिए वह ख्याल, बातें और भूख तीनो छोड़ देती है,
ख्याल, जो क्षणिक है
बातें, जो बेहद उबाऊ
भूख, जो किसी रिश्ते को स्खलित करने के लिए काफी है.

पुरुष सिर्फ भूख चुनता है
जो देह बन चुकी नदी में तैरना चाहती है.






विरोधाभास

मैं रेत के किनारे, सलवटों की तरह मिली थी!
तुमने प्रेम की संभावनाएं तलाशी
मैं अलसाई नदी बन गई... तुमने मेरी नींद निचोड़ ली
और बो दिया अपने घरनके आँगन में.
सुबह वहां तुलसी की पौध जमी थी,

तुमने मेरे सारे वसन्त जला दिए, तुलसी की पत्तियां झड़ गईं.
मैं पाप और पुण्य का फैसला करते हुए
पाप बनी!
तुम अंतिम विचार करते हुए... प्रेम की सुनहरी बालियां तोड़ लाये....
पाप की समाधि बनी, प्रेम के गर्भ में!

रात भर बारिश हुई....
सुबह मैं पानी का शोर बन गई.... तुमने अपनी सांसो का कंपन शोर को सुनाया.....
मैं जीवन बनके धड़कने लगी
तुम ईश्वर बनकर मुझको पैदा करते रहे
मारते रहे.
मैं इंसान बनकर टालती रही प्रेम की मृत्यु भविष्य के लिए!

______________________

सोनिया गौड़
soniyabgaur@gmail.com/मोबाईल9887898879

सिद्धेश्वर सिंह की कविताएँ

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उतराखंड के खटीमा में सिद्धेश्वर सिंह ने कविता की रौशनी बरकरार रखी है. दो संग्रह प्रकाशित हैं, वे विदेशी कविताओं का हिन्दी में लगातार अनुवाद कर रहे हैं. उनकी कविताएँ सुगढ़ हैं और बहुस्तरीय भी. इधर की उनकी कविताओं में परम्परा से संवाद के तमाम सुंदर फूल खिले हैं. उनकी सुगंध दूर से ही आती है. 


सिद्धेश्वर सिंह की कविताएँ                                                






भरथरी गायक
         

वे भरथरी गायक थे
पता नही कहाँ चले गए सारंगी बजाते बजाते

वे अक्सर अवतरित होते थे गांव की कच्ची गैलपर
और ठूंठी टहनियों पर खिल जाते थे गेरुआ फूल
मनसायन हो जाते थे घर दुआर

उनके आने से और हरियर हो जाती थीं फसलें
कुएं के जल में भर जाती थी और मिठास
दिन की तो बात ही क्या
रात में ज्यादा उजले दिखाई देते थे चांद तारे

वे सुनाते थे वैराग्य की कथाएं
किन्ही बीते युगों  के राजा रानियों और जोगियों की
माया मोह से बंधे गृहस्थों में 
जगा जाते थे जीवन का सुरीला राग

वे जादूगर थे सचमुच के
अपनी गुदरी में बांधकर ले जाते थे सबके दुःख
और  उनके आने से 
थोड़ा पास सरक आता दिखता था सुख

वे भरथरी गायक थे
वे शायद इसीलिए नहीं आते अब
कि दिनोदिन भारी होती जा रही है दुखों की खेप
और मन  को उदास कर जाती है सारंगी की आवाज.




कविता का काम 

कविता में मन रमता है
मन में रमती है कविताएं
जीवन का गद्य  कुछ हो जाता है आसान
'इति सिद्धम'के मुहाने तक पहुँचते दिखते हैं
रोजमर्रा के कामों के निर्मेय - प्रमेय
हो सकता है यह आत्मतोष हो
या कि कोई स्वनिर्मित शरण्य
फिर भी
कविता में मन रमता है
मन में रमती है कविताएं.

कामकाज के बीच समय मिले  यदि थोड़ा 
तो खुल जाती है कविता की किताब 
या फिर शुरू होता है
अधूरी कविताओं को पूरा करने का काम
यह न भी तो हो सोच की सीढ़ियों से
चुपचाप उतरते आते हैं पंक्तियों के पांव
सहकर्मी मुस्कयाते है 
कनखियों से देखते हैं बार - बार
ऐसे जैसे कि मैंने चुरा लिया हो 
कोई जरूरी गोपनीय दस्तावेज 
और  चुपके से उसकी नक़ल कर रहा हूँ तैयार.

कक्षा से लौटता हूँ
चॉक से सने हाथ लिए
अभी -अभी पढ़ाया है काव्यशास्त्र
जेहन में अब भी मथ रहा है रससिद्धांत
पता नहीं यह कैसी निष्पत्ति है
पता नहीं किस किस्म का साधारणीकरण
कि  स्टाफ रूम तक 
बात - बहस करते 
साथ चले आए हैं भरतमुनि 
बाथरूम में हाथ धोने जाता हूँ
तो मिल जाते हैं विद्यापति गुनगुनाते -
'सखि हे ,की पूछसि अनुभव मोय'
आलमारी खोलता हूँ 
तो वहां से आवाज देते हैं घनानंद -
'तलवार की धार पै धावनो है'
और मैं हो जाता हूँ लगभग सावधान
गोया कविता लिखना हो कोई खतरनाक काम.

ऐसे ही चल रहा है जीवन
ऐसे उभर रहा है  राग विराग
ऐसे ही निभ रहा है कविता का साथ
गुणीजन भले ही मानें इसे पुनरुक्ति दोष
फिर -फिर कहूँगा
कि कविता में मन रमता है
मन में रमती है कविताएं.



कवि की नदी

पता नहीं  यह  कब से है
आई कहाँ से
अवतरित हुई किसी अन्य लोक से
या कि जन्मी यहीं की मिट्टी पानी से

जो भी जैसा भी  रहा हो इतिहास
मुझे  कुछ -कुछ पता है इसके होने का
इसने यहीं के पत्थरों को पुचकार कर 
राह बनाई सजल होने की
और  लहर दर लहर उभरती रही कविता की धार
यह कवि की नदी है
इसे प्यार से देखा जाना चाहिए चुपचाप

असंख्य नदियाँ है इस धरा पर
मनुष्यों के अशेष रेवड़ में
कवियों की गिनती का भी नहीं कोई पारावार
किताबों से बाहर आकर
कभी ध्यान से सुनो अगर
इस पर बने पुल से गुजरती रेलगाड़ी को
तो साफ सुनाई देगा - 
मैं  नदी 
मैं केन
मैं कवि
मैं केदार !



चलना
चलता रहा कछुआ चाल
अपनी मौज में
आसपास खूब  उछालें भरते रहे खरगोश

आंधियां आईं तो डरपा जी
लेकिन थाम ली वह छरहरी शाख
जिस पर टिका हुआ था घोंसला
अपनी पूरी ताकत से

पानी बरसा तो तान लिया
हथेलियों का चंदोवा
नम होती रही भाग्यरेख 
पर छूटी नहीं आस की पतली डोर

शबो रोज़ के इस तमाशे में
पास बैठे बतियाते रहे ग़ालिब
हम चलते रहे थोड़ी दूर तक
हर इक तेज़-रौ के साथ 
लेकिन हर  बार होती रही राहजन की पहचान



सहयात्री मुक्तिबोध

राजनादगांव पर कुछ धीमी हुई रेलगाड़ी 
झपट कर  डिब्बे में सवार हो गए मुक्तिबोध
लगे पूछने - पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है?
मैं क्या कहता नहीं सूझा कोई त्वरित व माकूल जवाब
वे मुस्कुराये  बतियाते रहे देर तक
लगभग आत्मालाप जैसा कुछ असंबद्ध बेतरतीब
और जब नागपुर  आया तो उतर गए तेजी से
यह कहते हुए कि सुनो -  तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़
चांद का मुंह अब भी टेढ़ा है
और खतरे कम नहीं हुए हैं अंधेरे के

यह नागपुर था
संतरों के चटख रंग बिखरे हुए थे चारो ओर
इसी रंग में घुलती चली जा रही थी हर चीज
एक बार को मन हुआ कि स्थगित कर दूं यात्रा
चला जाऊं वर्धा या पवनार
गांधी और विनोबा की स्मृतियों में डूबकर
मुक्त होने की कोशिश करूं रोज रोज के खटराग से
यह भी सोचा कि फोन लगाऊं कवि वसंत त्रिपाठी को
चौंका दूं कि देखो तुम्हारे शहर से गुजर रही है मेरी रेल
और मैं याद कर रहा हूँ तुम्हारी कविताओं को
यह अलग बात है कि कुछ और कह गए है मुक्तिबोध
थोड़ी देर पहले ही

अलसा गया वातानुकूलन की सुशीतल हवा में
सोचा कि भोपाल  में उतर लूँगा
देख आऊंगा भारत भवन का जलवा 
अगरचे वह अब भी है बरकरार
पूछ लूँगा की कहाँ है  काम पर जाते  वे बच्चे
जो बताए गए थे राजेश जोशी के हवाले से
फिर सोचा
भगवत रावत तो अब रहे नहीं 
आखिर किससे मिलकर मिलेगा जी को  तनिक आराम
छोड़ दिया यह विचार भी 
और देखता रहा खिड़की के शीशे के पार
दूसरी ओर एक दुनिया थी जिसके होने का बस आभास
गोया कि एक प्रतिसंसार

गुजरा ग्वालियर
गई झांसी
छूटा मुरैना धौलपुर
पता नहीं कब निकल गए आगरा मथुरा
और दिल्ली के स्टेशन पर खड़ी हो गई गई अपनी ट्रेन

खड़ा हूँ  देश के दिल दिल्ली में
अब धीरे धीरे  छूट रही है कविताओं की डोर
धीरे धीरे घर कर रहा है भीड़ में खो जाने का डर
ठीक से टटोलता हूँ अपना सामान
और ऑटो पकड़ कर 
तेजी से चल देता देना चाहता हूँ आईएसबीटी आनंदविहार
वहीं से मिलेगी 
अपने कस्बे की ओर जाने वाली आरामदेह एसी बस

एक पिट्ठू बैग है पीठ पर लदा
बैग में कुछ किताबें हैं कविताओं की
कविताओं में एक दुनिया है छटपटाती हुई
जैसे कि कोई पुकारती हुई पुकार
जैसे कि अंधेरे में उतरती हुई सीढ़ियों पर कोई पदचाप
जैसे कि कमल ताल में किसी बेचैन मछली की छपाक
बार बार परेशान करती है ये आवाजें
और मैं जीन्स की जेब में हाथ घुसाकर
हड़बड़ी में टटोलने लगता हूँ ईयरफोन


मूर्खताएं
(प्रिय कवि वीरेन डंगवाल को याद करते हुए)

चतुराईयों  की चकाचौंध से 
दूर ही रहे बेचारा चित्त
भले ही  इत - उत 
व्यापे अनुप्रास की छटा भरपूर !

पल प्रतिकूल
फूल बिच छिपे अनगिन शूल
माथे पर जमी गर्द धूल
समय सरपट भागता कुटिल क्रूर !

छूटने न पाए 
संगियों का साथ
धीरे -धीरे चलते रहें कदम
भले ही गंतव्य दीखता रहे कुछ दूर- दूर !

हँसे जग 
डोंगी हो डगमग
बात लगे अपनी मूरखपन लगभग
फिर भी बना रहे  कवि का यकीन
कि देखना 
एक दिन उजले दिन आएंगे जरूर !
__________________________________________________


सिद्धेश्वर सिंह
(11 नवंबर 1963, गाजीपुर, उत्तर प्रदेश)
कविता संग्रह- हथिया नक्षत्र एवं अन्य कवितायें, कर्मनाशा  प्रकाशित
अन्ना अख्यातोवा और हालीना पोस्वियोत्सीका आदि की कविताओं के अनुवाद

संपर्क : ए-3, आफीसर्स कालोनी, टनकपुर रोड, अमाउँ पो. खटीमा
जिला उधमसिंह नगर (उत्तराखंड) पिन 262308

अन्यत्र : संघ चिठ्ठा : अखिलेश

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मशहूर चित्रकार और लेखक अखिलेश १९९७  में भारत महोत्सव के दरमियान मास्को गए थे. ये संस्मरण उसी दौर के दर्द ओ गम बयाँ करते है.
महान से महान विचार और आन्दोलन भी जब अपनी आलोचना सुनना बंद कर देते हैं तब  भटक कर किस तरह मनुष्य विरोधी हो जाते हैं सोवियत संघ इसका उदाहरण है. कई ‘ महान’ विचारों की भारत में भी यही गति हो रही है.
यह  यूटोपिया के ध्वंस की  धूल  है .


संघ चिठ्ठा                                              
अखिलेश 




सोवियत संघ में मनाये जाने वाले भारत महोत्सवमें भारत भवन ने समकालीन कला प्रदर्शनी लगाई. १९९७ की सितम्बर की एक शाम जब पूरी प्रदर्शनी जिन्हे कुछ लकड़ी के बॉक्स में पैक किया गया था, जिसमें एक बॉक्स में रामकुमारका चित्र माचू-पिचूथा जो अपने आकार में बड़ा होने के कारण इतने बड़े बॉक्स में बंद था कि इन बॉक्स को साधारण ७४७ हवाई जहाज से नहीं भेजा जा सका. भारत सरकार के आग्रह पर देर रात संघ से विशेष हवाई जहाज आया और इन सब बॉक्स को मेरे सामने रात लगभग तीन बजे लादा गया. वे चित्र संघ जा चुके थे दूसरे दिन मैं भी संघ की राजधानी मस्कवा पहुँच गया. दूतावास से कोई मुझे लेने आया हुआ था और उस शाम जब हम इन बॉक्स को लेने हवाई अड्डे पहुंचे तो पता लगा कि वे अभी पहुँचे नहीं. जाहिर है मुझे आश्चर्य होना था जिसका कुछ हिस्सा अभी दूतावास जाकर मुझे मिलना था. दूतावास के अधिकारी ने मुझे जरूरी हिदायतें दी जिनका पालन मुझे मस्कवा में अपनी जान बचाने के लिए करना था.

१. शाम सात बजे बाद मैं होटल से बाहर नहीं जाना है.
२. मैट्रो ट्रैन में अकेले सफर नहीं करना है.
३. मेट्रो स्टेशन के लम्बे गलियारे हों तो उसे अकेले नहीं पार करना है.
४. किसी अजनबी से वोदका का गिलास नहीं लेना है.
५. जेब में ज्यादा पैसे लेकर बाहर नहीं जाना है.

मैंने पूछा भाई ऐसा क्यों ? किसका आतंक है ?
सीधे जवाब मिला कम्युनिस्टका.

फिर मुझे समझाया गया कि अब यहाँ के कम्युनिस्ट माफियाबन चुके हैं और इस तरह की गतिविधियाँ लगातार करते रहते है खासतौर से किसी विदेशी को देखकर उसे निशाना बनाते हैं. मैंने कहा पेरेस्त्रोइका और ग्लास्तनोस्त का क्या हुआ ? अब तो ये एक खुला संघ है. उन्होंने बतलाया वो सब भी ख़त्म हो चुका है और अब एक अराजक स्थिति है जिसमें कुछ भी सम्भव है. माफिया ने पिछले हफ्ते एक दुकानदार को उसकी दुकान के सामने गोली मार दी और उसकी लाश को आतंक फ़ैलाने के लिए पुरे दिन वही पड़े रहने दिया. पुलिस भी नहीं हटा सकी. उस वक़्त मुझे ये अंदाजा नहीं हुआ कि इस महान देश के झूठों के बारे में और पता चलना है. लोहे की दीवार के पीछे का कटु सत्य उस भुक्तभोगी से सुनना है जिसका नाम लुडमिला था और आने वाले दिनों में वो मेरी दुभाषिया होने वाली है.

दूसरे दिन सुबह सुबह एक खूबसूरत लड़की ने मेरे कमरे का दरवाजा खटखटाया,मेरा स्वागत किया और बतलाया कि सुबह का नाश्ता नीचे रेस्तराँ में मेरा इन्तजार कर रहा है. रंग-बिरंगी सलाद, सूखी डबलरोटी, उबले अण्डे और कुनकुनी कॉफी पीते हुए मैंने लुडमिला से बात शुरू करते हुए उसके बारे में पूछना शुरू किया. वो अपनी शिक्षा पूरी करने के दौरान ही दूसरी भाषाएँ सीखने लगी थी और उसे करीब चार भाषाएँ आती थी. उसका काम ही ये था कि बाहर से आने वाले अतिथियों के लिए वो दुभाषिया थी. उसने बहुत उत्साह से आस पास की दर्शनीय जगहों के बारे में बताया और कहा कि मैं सबसे पहले आपको मेट्रो स्टेशन ले चलूंगी. मैंने याद दिलाया हमें हवाईअड्डे जाना है जहाँ शायद अब हमारे चित्र आ चुके होंगे उन्हें लेकर प्रदर्शनी वाली जगह ले जाना था. वो बोली हाँ ये सब के लिए अभी बहुत समय है सुबह घूमने के लिए हम मेट्रो स्टेशन चलेंगे.

वो मुझे मेट्रो स्टशन ले चली. जो पास ही था जिसके लिए हम लगभग दो किलोमीटर चले. स्टेशन में घुसे तो मेरी आँखे चौंधियाँ गई. विशाल स्टेशन चमचमाता हुआ. सैकड़ो लोग इधर उधर आ जा रहे हैं. सभी सुव्यवस्थित, सुचारु रूप से सुरुचि के साथ बना ठना ये स्टेशन दुनिया के अनेक मेट्रो स्टेशन से बेहतर और शानदार था. हम लोग स्टेशन की चौड़ी संगमरमर की सीढ़ियों से नीचे उतर रहे थे. मेरे ख्याल से करीब तीन मंजिल नीचे उतरे होंगे जहाँ से अलग अलग स्थानों के लिए कई रास्ते खुल रहे थे. भीतर की ये जगह लम्बी सी दूर तक चली जा रही थी और बीच में जहाँ से अलग स्टेशन के लिए मेट्रो लाइन रही होंगी उस चौराहे नुमा जगह पर विशाल मूर्तियाँ लगी हुई थी जो मजदूरों के झुण्ड थे या समूह में किसी काम के लिए जाते हुए लोग. पीतल में ढली ये मूर्तियां कलात्मक और आकर्षित करने वाली थी. मुझे अच्छा लगा और मैं ध्यान से इस भव्यता देखते हुए चल रहा था, स्टेशन की सजावट देख रहा था कि लुडमिला ने कहा कि लेनिन इसे “palace of people” कहता था. मेरा ध्यान इस तरफ गया कि वाकई ये जगह किसी राजमहल की तरह जगमगाती हुई अपनी भव्यता में अनूठी है. न्यूयोर्क, लन्दन, पेरिस, जर्मनी या जापान के प्रमुख मेट्रो स्टेशन इस के सामने कुछ नहीं हैं. उनकी विशालता में कोई भव्यता नहीं दिखाई देती. ये किसी भी तरह स्टेशन नहीं था. राजप्रसाद का एक हिस्सा सा लगरहा था. लगभग एक घण्टा हम लोगो ने वहाँ बिताया लुडमिला मुझे अपनी व्यावसायिक बुद्धि से शहर के बारे में और किसी बहाने ये भी जानने की कोशिश कर रही थी कि मेरी रुचियाँ क्या हैं, कौनसी जगह मैं देखना पसन्द करूँगा कहाँ कहाँ वो ले जा सकती है आदि आदि.

फिर हम लोग हवाई अड्डे के लिए चल दिए. जहाँ जाकर पता चला कि अभी तक हमारा सामान नहीं आया है. लुडमिला ने भरपूर कोशिश की ये जानने की कि सामान कहाँ रुका हुआ है और अभी तक क्यों नहीं आया ? किन्तु कुछ खास पता नहीं चल सका. हम लोग वापस लौट आये. मुझे अब चिन्ता होने लगी कि मेरे सामने पूरी प्रदर्शनी दिल्ली से मास्को के लिए निकल चुकी थी और अब दो दिन हो गए हैं पहुंची नहीं ?



(दो)
तीसरे दिन भी हमारा सामान नहीं आया था. लौटते हुए लुडमिला ने कहा ऐसा हो नहीं सकता कि सामान नहीं आया हो. यहाँ कम्युनिस्ट बैठते हैं आज उन्होंने मुझे इशारा किया है कि कुछ रिश्वत देने से काम चल जायेगा और वे पता लगा सकेंगे कि कहाँ अटका हुआ है सामान. मेरी चिन्ता बढ़ रही थी कि प्रदर्शनी लगाने का समय उतना नहीं मिलेगा. बॉक्स खोलना और चित्र अनपैक करना आदि बहुत सारा काम काफी समय माँगता है. उस दिन हम लोग संग्रहालय चले गए जहाँ रुसी यथार्थवादी चित्रों की भरमार थी. संघ के शासन काल में कोई चित्रकार संघ की नीतियों से अलग चित्र नहीं बना सकता था. सारे चित्रों में कम्युनिस्ट पार्टी का गुणगान या ऐसा एक सन्देश चित्रित था जिसे सीधे समझा जा सकता था.

वे चित्र काम पोस्टर ज्यादा थे जिन्हे चित्र की तरह बनाया गया. मैंने पूछा यहाँ मालेविच, शागाल, कैंडिंस्की या रॉथकोविच के चित्र नहीं हैं ? लुडमिला का जवाब था बिलकुल नहीं हो सकते हैं. मैं सोच रहा था इन चित्रकारों ने दुनिया की कला अपने चित्रों से बदल दी और इन्हे अपने ही देश के महत्वपूर्ण संग्रहालय में जगह नहीं मिली ? वहाँ बहुत से चित्रकार थे पिकासो, डाली, माने, तुलुस लौत्रे आदि अनेक जो इन सब को मानते थे चाहते थे किन्तु पार्टी लाइन के बाहर होने के कारण वे यहाँ नहीं है. मेरी बहुत इच्छा थी कि मालेविच का केटलॉग या उस पर कोई पुस्तक मिल जाये तो मैं खरीद सकता हूँ किन्तु ये सब वहाँ कहाँ था ?

ये चित्रकार आज भी प्रतिबन्धित हैं. इन्हे अपनी जान बचने के लिए देश छोड़कर भागना पड़ा. ये वो चित्रकार थे जिन्होंने पार्टी की नीतियों पर (चित्र ) पोस्टर बनाना मंजूर नहीं किया था सो उनके लिए दो ही जगह तय थी कब्रिस्तान या परदेस.

उन्होंने परदेस चुना और दुनिया की कला को प्रभावित किया. हेर्मिताज जैसे विश्व प्रसिद्ध संग्रहालय में वहीँ के कलाकारों को न पाकर मेरी निराशा को दूर करने लुडमिला कॉफी पिलाने कैफ़े ले गई जो उसी परिसर में था. वहाँ बैठकर उसने पहली बार धीमी आवाज में बतलाना शुरू किया कि कैसे देश के महत्वपूर्ण कलाकार, लेखक और वे लोग जो कम्युनिस्ट पार्टी के अत्याचारों के ख़िलाफ़ थे उन्हें मारा गया या देश छोड़कर जाना पड़ा. ये संख्या हज़ारो में है. मनो वो कोई रहस्य खोल रही है. वो फुसफुसा रही थी मैंने कहा अब किस बात का डर है अब तो तुम आराम से बात कर सकती हो. उसका जवाब चौकाने वाला था. उसने कहा अब ज्यादा खतरा है. सारे कम्युनिस्ट अब माफिया में बदल गए हैं और वे उस काल की बुराई नहीं सुन सकते. सामान्य जीवन में कम्युनिस्टशब्द अब गाली की तरह प्रयोग में लाया जाता है और ये गाली माँ की गाली से ज्यादा चुभने वाली है. मैंने पूछा क्या रुसी भाषा में भी माँ की गाली होती है ? उसने कहा वो जितनी भाषाएँ जानती है सभी में माँ की गाली को प्रमुख स्थान प्राप्त है.

आज काफी गरम थी मौसम ठण्डा था और हम लोग उस मौसम की शीतलता में राजनीति, कम्युनिस्ट जैसे घटिया विषय पर बात कर रहे थे. मैंने मन ही मन सोचा और विषय बदल दिया. मैंने कहा चेखव का घर देखना चाहता हूँ जो पास ही में कहीं हैं. वो उत्साहित हो गई. उसे अच्छा लगा कि मैंने चेखव का नाम लिया जिसका घर और दवाखाना साथ ही साथ है.

आपने पहला रुसी लेखक कौनसा पढ़ा ?’
गोगोल
कैसा लगा ?’
हम्म्म ठीक

वो अब जानना चाहती थी मेरी घुसपैठ कितनी है रुसी साहित्य में. मैंने कुछ पढ़ा नहीं था मैं क्या बतलाता ? दोस्तोवस्की, पुश्किन, तोल्स्तोय, गोर्की, शोलोखोव, अख़्मातोवा, मायकोवस्की और चेखव जैसे कुछ ही लेखकों की कुछ रचनाएं पढ़ी थी. वो भी अपनी रूचि से बरसों पहले. मैंने उसे बताया बहुत पहले जिस पाठ को मैं आज भी नहीं भूल पाता हूँ वो किसी रुसी लेखक का ही है जिसका नाम मुझे याद नहीं, जिसमें जंगल में लगी आग का वर्णन है. आग के बहाने उसने जंगल में फैली अफरा-तफरी का जो दृश्य खींचा है वो भुलाया नहीं जा सकता. हमलोग दूसरी बात करने लगे. वो मुझे चेखव के घर ले गई.



(तीन)
इन दो दिनों मैं मैंने जाना कि लुडमिला को भूख बहुत लगती थी. वो अक्सर शाम के खाने के बाद रुक जाया करती और रूस खासतौर पर मस्कवा के बारे में बहुत बातें किया करती. उसको पसंद था सैन्डविच. उसका सैंडविच भी विचित्र था, डबलरोटी के बीच केला रखकर वो चाव से खाया करती. छठे दिन जब हमलोग नाश्ता करने गए हॉल पूरा भरा हुआ था और बहुत से भारतीय कलाकार, गायक, नर्तक, लोक गायक, वहाँ मौजूद थे और दूतावास के कुछ लोग उन्हें समूह में वही सब बता रहे थे कि जान बचानी हो तो क्या करना है. भारतीय कलाकारों से ये निवेदन किया जा रहा था कि वे अपने कमरे से अगर फ़ोन करते हैं तो मस्कवा में कहीं भी फ़ोन करना मुफ्त है उसका कोई पैसा नहीं लगेगा, यदि वे अपने देश फ़ोन कर रहे हैं तो उसका भुगतान किये बगैर न जाएं. बाद में दूतावास को मुसीबत होती उसके भुगतान में. उसी सुबह मंजीत बावा आने वाले थे और उन्हें मैंने बतलाया कि अभी तक चित्र नहीं आएं हैं. आज हम लोग जल्दी ही जाने वाले हैं उन्हें छुड़ाने के लिए. मंजीत ने कहा हम सब साथ चलेंगे.

नाश्ते के बाद हम लोग हवाईअड्डे पहुंचे. मैंने देखा कि पीछे हमारे बॉक्स रखे हुए हैं किन्तु उनका जवाब वही था अभी पहुंचे नहीं. मैंने मंजीत को दिखलाया कि वे रहे सारे बॉक्स और मंजीत ने उन्हें छुड़ाने के लिए रिश्वत दी. लुडमिला बहुत नाराज हुई और उसे शर्म भी आ रही थी और वो लौटते हए रास्ते भर उन्हें गालियाँ देती रही. वो शर्मिंदा ज्यादा हो रही थी इसलिए उसका गुस्सा ज्यादा बढ़ रहा था. उसने बताया कि अभी भी बहुत सी जगहों पर कम्युनिस्ट नौकरियों पर लगे हुए हैं और इनका काम ही अब ये बचा है कि देश को लूटे. मैंने पूछा कि क्या उस दौर में इस तरह होता था ? ये पूछना लुडमिला का नया रूप सामने ले आया. वो रोने लगी उसकी आँखों में बेबसी, दर्द गहरी पीड़ा, अपमान झलक आया.

इस बीच हम लोग दीर्घा पहुँच चुके थे. फिर मैं व्यस्त हो गया बहुत सा काम था और दिन थोड़े. लुडमिला भी कर्मठ थी और हम सब ने मिलकर एक शानदार प्रदर्शनी का उद्घाटन देखा. लोगो में उत्सुकता थी. प्रदर्शनी में हमने रुसी चित्रकार निकोलस रोरिक, जिन्होंने जीवन भर हिमालय के चित्र बनाये, के भी चित्र शामिल किये थे जो नगमा से हमें लोन पर मिले थे. प्रदर्शनी के उद्घाटन कि शाम दूतावास में सभी लोग आमंत्रित थे रात के भोजन के लिए जहाँ मेरी मुलाकात ओल्गा ओकुनेवा से हुई, जो मास्को में रह कर महाभारत पर काम कर रही थी. वे एक संजीदा print maker हैं. उनके etchings देखने लायक थे और वे खुद भी बहुत ही धीमे बात करने वाली थी. उनकी अंग्रेजी में कच रुसी जुबान का पहरा था जिसे समझाने में शुरुआत में मुझे बहुत ही मुश्किल हुई. उसी शाम मैंने उनसे पूछा कि आप हिन्दुस्तान आने को उत्सुक हैं. वे जल्द ही भारत आ सकेंगी इसका अंदाज उस वक़्त नहीं हुआ.

अगले दिन मेरे पास घुमने के अलावा अब कुछ काम न था और लुडमिला जो बहुत सा वर्णन कर चुकी थी उसके साथ मैंने घूमना शुरू किया. पहले हम लोग एक चर्च गए जहाँ icon देखने योग्य थे. विशाल चित्र जिन पर सोने कि परत चढ़ा कर उन्हें बनाया गया था ग्यारहवीं शताब्दी के ये चित्र लकड़ी के लट्ठों पर बने हुए थे. रंगों की चमक सोने के मुकाबले उतनी ही खुबसूरत और आकर्षक. ये मेरे लिए भी एक अनुभव था. इसके पहले मैंने इस तरह के चित्र देखे न थे और न ही कल्पना कि थी. मेरे ज्यादा पूछने पर लुडमिला ने एक चित्रकार से मिलवाने का वादा किया जो आज भी इस तरह के चित्र बनाता है. मैंने पूछा कम्युनिस्टो ने ये सब बन्द नहीं कराया ? ये तो पाखण्ड और ढोंग है ऐसा हमारे यहाँ के मानते हैं. कोई भी पारम्परिक और साभ्यातिक नैरन्तर्य उनके लिए प्रगतिशीलता का विरोधी है. उसने बतलाया यहाँ सभी पारम्परिक बातें अभी भी चल रही हैं. हम उस कलाकार के यहाँ गए और उसने बहुत से चित्र दिखलाये जो सभी किसी के लिए बनाये गए थे वहाँ तीन चार लडकियाँ भी थी जो इस कला को सीख रही थी. वहीँ पता चला कि इन चित्रों को देश से बाहर ले जाना मना है और बहुत से लोग इसकी स्मगलिंग भी करते हैं. कई लोग नकली चित्र भी बना कर बेचते हैं.

उस दिन के लिए बहुत था हमलोग अमेरिकन कम्पनी मेक डोनाल्ड में दोपहर को बर्गर खाए थे अब कुछ भूख भी लग आई थी सो होटल लौट आये. हमारा होटल, मस्कवा होटल था जो बहुत बड़ा था जिसके चार विंग थे east west south और north . इसमें तीन हज़ार कमरे थे और एक विंग से दुसरे विंग में जाने के लिए लगभग एक डेढ़ किलोमीटर का फ़ासला तय करना होता था. मैं east विंग में था और हमलोग खाने कि टेबल पर साथ बैठे थे. लुडमिला बता रही थी अपने बचपन के बारे में जो बहुत ही डर और सन्देह के साथ गुजरा जिसमें किसी पर न भरोसा न करना उसे बचपन में ही सिखाना पड़ा.

वो बता रही थी उन दिनों मैं अपने भाई से और निश्चित ही भाई मुझसे डरता था. हम दोनों को ये लगता था कि दूसरा KGB का एजेंट है. हम ही क्यों पूरे मोहल्ले में सभी एक दुसरे पर शक करते थे और ये कहानियाँ लगातार सुनते थे कि उसके चाचा ने पानी पीने से इंकार किया तो दूसरे दिन उनकी लाश मिली या किसी ने मौसम की निन्दा की वो लापता हो गया. परिवार में हम एक दूसरे पर शक करते थे. किसी को पता नहीं होता था कि कौन KGB का एजेंट है. हम सब एक दूसरे के Informer थे.



(चार)
जब हम बच्चे थे हमारे घर में माहौल तनाव का हुआ करता. सभी इन्तजार किया करते घोषणा का. रेडियो पर घोषणा होती आज आलू मिलेंगे लोग भागकर लाइन में लगाने लगते. राशन कि दुकान के सामने लम्बी लाइन लग जाती. दुकान खुलती तब तक बहुत से लोग चुपचाप लाइन में लग चुके होते. मरघट सी शान्ति में खड़े लोग अपनी बारी का इन्तजार करते. आलू मिलना शुरू होते और सबसे आगे लगे लोगों को फ़ायदा था कि उन्हें अच्छे आलू मिलते. राशन कि दूकान से मिल रहे सामान पर कोई प्रश्न करना गुनाह था. जब कोई शिकायत करता आलू ख़राब हैं फिर वो जीवन भर आलू नहीं खा सकता. वो किधर जाता पता नहीं चलता. लाइन में लगे हुए कई बार ऐसा हुआ जब पापा का नम्बर आया तबतक आलू ख़त्म हो चुके थे और उन्हें टूथपेस्ट लेकर वापस आना पड़ता. ये जरूर था आलू दस पैसे में मिल रहे थे तो टूथपेस्ट भी दस पैसे का ही मिलता. इस तरह हम लोगों को जीवन में जब जो चाहिए था वो शायद ही कभी मिला हो.

पति पत्नी पर शक करता कि ये KGB है और पत्नी पति पर. सभी के आपसी सम्बन्ध दिखावटी थे. दूध लेने गए कोयला लेकर लौटे पिता की नज़रों में भय था माँ मन की बात नहीं कर सकती थी. सब लोगों के लिए रेडियो रक्षक नहीं राक्षस था जिस पर जो घोषणा होती उसे मानने के सिवा कोई चारा न था. लोग मिटटी भी नहीं खाते इस इस डर से कि पकडे जाने पर ये सिद्ध होगा कि खाने को नहीं मिलता जो कि इस सुनहरे शासन के खिलाफ़ वक्तव्य होगा. मिटटी खाना देश द्रोह है. हमारे लिए खेलने के मैदान नहीं होते थे. बगीचा स्वप्न था. बल्कि मैंने अपने बचपन में ये जाना ही नहीं कि बगीचा भी इस दुनिया में हुआ करता है.

जब में पहली बार जर्मनी गई तब बच्चों को खेलते देखा. मैं बड़ी देर तक उन्हें खेलते देखती रही. वहीँ मैंने जाना कि काफ़ी के कई प्रकार होते हैं. मैं पहली बार दुभाषिये के काम से देश से बाहर गई जर्मनी. एक शाम मेरी काफ़ी खत्म हो गई तो मैं लेने के लिए किसी स्टोर में घुसी और वहाँ काफ़ी के इतने प्रकार देख कर मैं रोने लगी.मुझे मालूम ही नहीं था कि कि एक मुचड़े कागज़ के पैकेट में मिल रही काफ़ी के अलावा भी काफ़ी होती है. मेरी दोस्त घबरा गई और मुझे पकड़ कर बाहर ले आई. उसे मैं बतला भी न सकी मैं क्यों रोई. बाद में कई बार उस स्टोर में गयी सिर्फ तरह तरह के सामान देखने. कितने तरह के आलू थे ! बचपन के दिन आतंक और भय से भरे दिन थे.

लुडमिला अब रो रही थी उसके आसूँ आखों में जमा थे. डबडबाई आँखों से वो मुझे देख रही थी और उसने कोई उपक्रम भी नहीं किया उन्हें पोछने का.

लुडमिला जो बतला रही थी उसकी मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा था. उसका चेहरा धीरे धीरे लाल हो रहा था. हमारा बचपन खेल और मस्ती से भरा नहीं था हम लोग शक और डर के कारण आपस में दोस्त भी नहीं बनते. एक चुप्पी बच्चों के बीच रहती. रोज हत्या, बलात्कार होने वाली घटनाओ से डरे हम लोग अपनी बार का इन्तजार करते. अख़बारों में छपा करता था नयी सुबह, नया संसार आने वाला है, हम सब को उसके लिए इंतजार करना है. वे कहा करते थे हम पुराने ढंग कि नैतिकता और मानवीयता का बहिष्कार करते हैं जो बुर्जुआ ने नीचे तबके के लोगों को दबाने और शोषण करने के लिए बनायीं हैं. हमारी नैतिकता का कोई उदहारण इसलिए नहीं है कि वो नए आदर्शों पर टिकी है. हमारा उद्देश्य पुराने ढंग उन सभी तौर तरीको को नष्ट करना है जो शोषण और निर्मम अत्याचार के लिए बनाये गए हैं.

हमें सारे खून माफ़ हैं हमने लाल तलवार उठाई है दबाने और कुचलने के लिए नहीं बल्कि मानवता को मुक्त करने के लिए. खून पानी की तरह बहने दो, खून के धब्बो से झंडो को लाल होने दो जैसे समुद्री डाकुओं का काला झंडा होता था उसी तरह हमारा झंडा लाल होगा खून से भरा हमेशा के लिए. ये सब डराने के लिए काफ़ी होती थी. हर दिन सुनाई देता बोल्शेविको ने कुछ लोगों का क़त्ल सड़क पर कर दिया. हत्या, बलात्कार चोरी, सामान्य बातें थी. चेकालोग, जो भक्त थे इस लाल रंग के वे कोकीन और दूसरे नशों में डूबे रहते ताकि आसानी से इन हत्याओं को अंजाम दे सके. बुर्जुआ लोगों के लिए जरूरी था कि वे अपनी सम्पति कि घोषणा करे उन्हें बताना होता था कि कितने खाने का सामान, गहने, जूते, कपड़े,सायकिल,बिस्तर,चादर, बर्तन,आदि हैं. घोषित नहीं करने पर तत्काल मौत कि सजा मुकर्रर थी. सभी बुर्जुआ थे, किसी को भी पकड़ा या मारा जाता था. दरवाजे पर दस्तक होती और दरवाज़ा खुलते ही गोली मार कर चेकाभाग जाता. क्यों मारा पता न चलता. सब देखते कोई पकड़ा नहीं जाता. सबको इन्तजार था नयी सुबह का, नए सूरज का. वो आता ही नहीं था.

मैं जब जर्मनी में थी उस वक़्त मेरे दोस्त ने मुझे गर्व से बतलाया कि पूरी बीसवीं शताब्दी दो जर्मन के नाम है हिटलर और कार्ल-मार्क्स. इन दोनों के पास नयी सुबह का विचार था और दोनों के कारण भरपूर रक्त शुद्धि हुई. हम जर्मन लगातार नए के लिए इन्तजार करते हैं. दोनों के विचारों से हत्याएँ हुई और होती जा रही हैं. पूरी मानवता इस नए सूरज का इन्तजार कर रही है जो हर दिन नहीं आता.

लुडमिला का रोना बढ़ रहा था.


पांच
लुडमिला से मुझे सहानुभूति नहीं हो रही थी. किन्तु जो वो कह रही थी उसमें सच का अंश पूरा था उसमें बनावटी कुछ नहीं लगा. ग्लासनोस्त और पेरेस्त्रोइका के बाद अब गोर्वोचोव एक चुटकुला बन चुके थे. उनका मजाक टेलीविज़न पर लगातार उड़ाया जाता था. कोई जोकर बनकर आता है जिसके सर पर वही जन्म चिन्ह रहता है जो गोर्वोचोव के सर पर था, और वो लगातार कुछ ऐसी हरकतें करता रहता, पिटता रहता लोग उसका मजाक उड़ाते. टी. वी. एंकर उसे छेड़ता रहता और जो कुछ कहता उसका मजाक बनता. सडकों पर भी गोर्वोचोव बने लगे जोकर दीख जाते जो कभी कभी पेरेस्त्रोइका या ग्लासनोस्त चिल्लाते रहते. लोग उन्हें धिक्कारते उनका मजाक उड़ाते और जब मैंने लुडमिला से इस बारे में पूछा तो उसने कहा आज लोगों के सामने कम्युनिस्ट यही बचा जो दूसरे के कर्मों का फल भुगत रहा है. इस समय रूस के लोगों के लिए कोई सबसा बड़ा दुश्मन है तो वह एक विचार जो हमने कार्ल मार्क्स से उधार लिया. कम्युनिज्म लोगों का दुश्मन है. और हम ही लोग मूर्ख थे जो उसके हाथों का खिलौना बने. हमारा संसार, हमारा समाज, हमारे लोगों के सामने अब उसकी पोल खुल गयी.

इस बीच भारतीय महोत्सव में आने वाले दो ग्रुप को सरे राह लूटा गया उनके कपड़े फाड़े गए और उनसे पैसे न मिलने पर उन्हें मारा गया. उनका गुनाह ये था कि वे सात बजे बाद कहीं मेट्रो के गलियारे से निकल रहे थे या कहीं सुनसान जगह पकडे गए थे. इन घटनाओ के बाद हमें और सख्ती से बतलाया जाता अपना बचाव कैसे करना. पूरा मस्कवा कम्युनिस्ट आतंक से दहल रहा था. हम लोग सुरक्षित स्थान पर थे लुडमिला बतलाती जो लोग थोडा सा बाहरी इलाकों में हैं जहाँ उस तरह की निगरानी नहीं हो सकती, पुलिस जल्दी नहीं पहुँच सकती वहाँ हालात इससे ज्यादा बदतर हैं. उसका कहना था पहले हम लोग कम्युनिस्ट राज में जानवरों सा जीवन व्यतीत कर रहे थे अब उसके जाने के बाद आतंक का माहौल झेल रहे हैं. जानवरों सा जीवन बिताने के लिए मजबूर थे. हर कोई informer था. कोई भी भरोसे के लायक नहीं था. पिता हों या माँ. सब अपनी जान बचने के लिए किसी भी स्तर तक गिर सकते थे. और जान कभी बचती नहीं थी. मैं बता नहीं सकती कि उन दिनों हमारे शहर में लगभग साठ-सत्तर लोग रोज मारे जाते थे. इसका हिसाब नहीं था. कुछ भी हो सकता था कभी भी. रात को किसी भी वक़्त बोल्शेविक आकर आपको पकड ले जा सकते थे. कारण कोई जान नहीं सकता. पड़ोस के लोग डर के मारे चुप रहते. देखकर भी अनदेखा करते. कोई भी बोलता नहीं था यदि बोला तो उसके बाद आपका नामो-निशां मिट जाता.वही हालात अभी भी हैं, मैं सुबह जब घर से निकलती हूँ तब मुझे पता नहीं होता कि आज शाम घर वापस जा सकुंगी या नहीं. कुछ भी हो सकता है.

ये सब घटनाएं हम लोग सुबह नाश्ते के साथ सुनते थे. लुडमिला कभी शर्म से कभी गुस्से से अपने देश को बचाती और हमेशा कम्युनिस्टो को गरियाती.

एक दिन वो आदेश की कॉपी लेकर आई. ये आदेश १९२१ में किसी जिले का था. इसमें साफ़ साफ़ लिखा हुआ था

१. किसी भी नागरिक को उसी वक़्त गोली मार दी जाये जब वो अपना नाम नहीं बता रहा हो.
२. जिला अधिकारी और स्थानीय नेता को ये अधिकार दिए जाते हैं कि किसी के घर से हथियार पाए जाने पर उन्हें तत्काल गोली मार दी जाये.
३. हथियार मिलने पर सबसे पहले घर के बड़े लडके को गोली मार कर ख़त्म किया जाये.
४. किसी भी परिवार ने यदि किसी विद्रोही को छुपा रखा है तो सबसे पहले उनकी संपत्ति जब्त की जाये उन्हें जिलाबदर किया जाये और बड़े लड़के को मार दिया जाये.
५. किसी भी परिवार ने यदि दूसरे परिवार के लोगों को शरण दे रखी है, जिसने विद्रोही को छुपाया था उन्हें भी वही सजा दी जाये.
६. विद्रोही अगर भाग गया है उसका परिवार भी नहीं है तब उनकी संपत्ति जब्त कर उन लोगों को बाँट दी जाये जो सरकार के साथ हैं और उनके मकान जला दिए जाये.
७. इन आदेशों का पालन बिना किसी दया भाव के कठोरता से किया जाये.


इस तरह के आदेश हर जिले में वहाँ के भक्त अपनी सुविधा से निकाला करते और उनका पालन जबरदस्ती कराया जाता. मुझे या किसी भी रुसी को पता नहीं था कि रूस के बाहर की दुनिया अलग है. मैं जब जर्मनी गई तो वहाँ आज़ादी का रूप देखकर रात रात भर रोया करती. हम लोग तो नरक में रह रहे थे और दुनिया को बतलाया जा रहा कि लोहे कि दीवारों के पीछे, आने वाला स्वर्ग है जिसमें हर रुसी रह रहा है. मैंने जब जर्मनी में कई तरह की कॉफ़ी देखी या साबुन देखे तो मुझे ध्यान आया कि हम लोग लाइन में लग कर राशन की दुकान से जो साबुन या कॉफ़ी या कुछ भी जो मिलता था उसे दुनिया का सर्वश्रेष्ठ मानकर इस्तेमाल करते क्योंकि हमें ऐसा ही बतलाया जाता था. साबुन लेने गए और टोस्ट लेकर लौटे या दलिया लेने गए और तेल लेकर लौटना आम बात थी. कभी भी किसी को भी जरूरत का सामान मिला ही नहीं और इसकी शिकायत किसी से की नहीं जा सकती ये हमसब ने बचपन में ही जान लिया कि सिगरेट लेने जाना और जूता पॉलिश लेकर लौटना एक सामान्य जीवन का लक्षण है. अब ये अपमानजनक लगता है और पता लगा कि हम सब जिल्लत भरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर थे. नया सूरज आ रहा था. नयी सुबह होने वाली थी. झंडा लाल रंग से रंगा जा रहा था और हम सबका खून उसमें शामिल था. उसी हँसिये से लोगों के सर काटे जा रहे थे जो गेहूँ उगा रहे थे. हमारा झंडा हमारा प्रतीक बना हुआ था.

(जारी)
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परख : धुँधले अतीत की आहटें

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गोपाल माथुर के उपन्यास 'धुँधले अतीत की आहटें'की समीक्षा विमलेश शर्मा की कलम से .







अनाम खामोशियों, स्थगित जीवन और निर्वासित मन का राग 

विमलेश शर्मा 


तीत कितना भी धुँधला क्यों ना हो उसकी आहटें अनजानी धमक लिए हुए होती हैं.उनकी कशिश इतनी तीव्र होती हैं कि वे मौसमों को पैरों में घूँघरूं बाँध किसी भी पहर गमकने लग जाती हैं.अक्सर किसी राह की तलाश में पगडंडी को खोजने के  लिए आँखों पर जोर देना पड़ता है पर अतीत स्मृतियों के जाले में सदा टँगा रहता है.लेखक के लहजे में ही कहूँगी कि वह सदा अलसाये दिन में शाम के झुटपुटे की मानिंद सहमा सा रूका रहता है. इन्हीं अहसासातों की बानगी है, धुँधले अतीत की आहटें. गोपाल माथुर का यह उपन्यास बीते वर्ष बोधि प्रकाशन से आयी ऐसी सौगात है जो हमारे मन की बसाहट में सीधी घुसपैठ करता है. उपन्यास में चिन्हित आहटें, पदचापें अपने अबोले में ही कह कर जाती हैं कि उम्र गुज़र जाती है,उन चुप्पियों की आहटें सुनते हुए जिन्हें अगर सलीके से कहा गया होता तो जाने कितने दरवाजे खुल सकते थे. 

यह उपन्यास पीठ पर भार सी ठिठकी सिसकती उदासियों की बानगी है.यहाँ उकेरे गए किरदार पाठक के मन में उतरकर उसके साथ चहलकदमी करने लगते हैं.किरदार यहाँ मात्र घटनाओं के हाथ की कठपुतली ना होकर स्मृतियों में उसी तरह ठिठके रह जाते हैं जैसे कि बरसती बारिश के बाद पानी के चहबच्चे,जो किसी स्मृति का जीवंत दस्तावेज भर होते हैं.उपन्यास पढ़ते हुए कई बार ऐसा लगा है कि लेखक के ही साथ मेरा पाठक मन भी मेंगलोर के उस समुद्र और ग्रेनाइट की काली चट्टानों के बीच पहुँच गया है जहाँ नरेटर और सिन्थिया अपने अभिशप्त जीवन की जकड़न से बाहर आने का प्रयास कर रहे हैं.

पूरे उपन्यास में वातावरण इतना जीवंत है कि आप हाथ बढ़ाकर बादलों को कभी भी छू सकते हैं, बारिशों को महसूस सकते हैं, चढ़ते सूरज औऱ उतराती शाम से गलबहियाँ कर सकते हैं और नम हवाओं से भीग सकते हैं.परिवेश की इतनी करीबी शिनाख़्त हमें निर्मल वर्मा के लिखे में मिलती है, जहाँ बैंच , पेड़ो की टहनियाँ, बहती नदी , एकांत सड़क भी बतियाती नज़र आती है.परन्तु गर हम इस सृजन को निर्मल वर्मा के लिखे की छाँह में ही देखेंगे तो यह लेखक के साथ अन्याय होगा.इस उपन्यास को दो मर्तबा पढ़कर जाना कि यहाँ कहीं निर्मल वर्मा की उदासियाँ है तो कहीं टैगोर का भाषायी कुवारांपन.हो सकता है किसी पाठक को इसमें शरतचन्द्र दिखाई दें तो किसी को कोई और रचनाकार.दरअसल गहन अनुभूतियों से रचा गया यह सृजन पाठकीय चेतना के भीतर स्थायी नमी लेकर ठिठक जाता है.वही अनुभूति जब फिर से किसी सृजन से आलोडित होती है तो पाठक उसमें पहले की छाँह ढूँढने लगता है. 

यही बात इस उपन्यास के कहन में भी नजर आती है.चर्च में, समुद्र किनारे अनेक स्थल उपन्यास में ऐसे हैं जहाँ निर्मल वर्मा ठिठके खड़े नज़र आते हैं, पर पूरी पाठकीय यात्रा में निर्दोष खड़ा लेखक,आपको चुपचाप आपकेही पूर्वाग्रह से बाहर खींच लाने में सफल हो जाता है.वो क्षण ठीक उसी अपराधबोध सा होता है जिसे लेखक उपन्यास में  अपने दरवाजे पर नक्काशीके काम को लेकर उस वृद्ध की अस्वस्थता को लेकर अनुभूत करता है.औपन्यासिक नायक की ही तरह मेरा पाठकीय मन भी, मेरे पूर्वाग्रह को लेकर लेखक के समक्ष ठीक उसी तरह नतमस्तक होता है.

अतीत की अनुभूति की  संश्लिष्ट अभिव्यक्ति में बुने गए कथानक में तरल और सूक्ष्म भाषिक प्रयोग इस रचाव को विशिष्ट बनाते हैं. इस उपन्यास के बिंब और वातावरण सृष्टि इसके प्राण हैं.शब्द औऱ अनकहे अर्थों में गूँथे बिम्ब पाठक को उसी अपार्टमेन्ट में पहुँचा देते हैं जहाँ वह नायक रह रहा होता है.मोटरसाइकिल से तय किया रास्ता, कटहल के पेड़, समुद्र का किनारा, ठिठके.. तिरते...बरसते बादल सभी बिंब आप ठीक वैसे ही महसूस कर सकते हैं जैसे कि आपके समक्ष घट रहे हों.निःसंदेह वातावरण कि इतनी सशक्त उपस्थिति अरसे बाद किसी उपन्यास में देखने, पढ़ने को मिली है.पढ़ते हुए अनेक स्थानों पर लगता है कि तेजी से ली गयी एक सांस भी शब्दों की उस महीन बुनावट को ठेस पहुँचा देगी जो किसलय सी कोमल हैं.मिसाल के तौर पर यह अंश ही देखिए जिसे पढ़ते हुए एक नामालूम शाम आपकी सांसों में शामिल होने लगती है 

...आपको नहीं लगता कि बोल कर हम इस शाम का सम्मोहन तोड़ देंगे..ऐसी शाम बहुत दिनों बाद आई है जब नीले आकाश ने बादलों के बीच जगह बना कर हमारी तरफ देखा है और जब सूरज छिप जाने के बाद भी समुद्र के उस पार अपनी उपस्थिति दर्ज़ किए हुए है. 

या फिर यह टुकड़ा..  

क्षितिज पर छाई सिंदूरी लालिमा अपनी आभा आहिस्ता-आहिस्ता रात को सौंपने लगी थी.बहुत दिनों बाद हवा सांस लेने के लिए थमी थी और सारी प्रकृति जैसे अपने ही सुरूर में डूबी हुई झूम रही थी.चाँद अभी निकला नहीं था.आंगन में लगे नारियल के पेड़ चुपचाप हमें छत पर बातें करते हुए सुन रहे थे.....(138)

जाने कितनी शामें , कितनी सुबहों,बारिशों औऱ बादलों के टुकड़ों के  बीच पाठकीय मन की आवाजाही लगी रहती है.वातावरण का यही सजीव चित्रण 250 पृष्ठों की पाठकीय यात्रा में  सुबह सी ताज़गी तारी किए रहता है.

जीवन भी एक अज़ीब शै है, जब जो हासिल होता है, वह पास होकर भी पास नहीं होता और जो चीज़ दूर होती है उसका आकर्षण दूर होकर भी सिर चढ़कर बोलता है.उपन्यास में यही कशमकश है जहाँ वर्तमान और अतीत आपस में ऐसे उलझ जाते हैं, जिन्हें एक-दूसरे से अलग करना असम्भव प्रतीत होता है. कथानायक, संजना, सिन्थिया ,फिलिप,वृद्ध और पिण्टो कृति के मुख्य किरदार हैं जिनके इर्द-गिर्द उपन्यास की कथा आगे बढ़ती है.इनमें भी संजना और फिलिप अनुपस्थित किरदार है. 

ये विभावना की ही भाँति अपना अस्तित्व मुख्य किरदारों के समकक्ष बनाए रखते हैं. पिंटो  जो कि सिन्थिया का पुत्र है, की उपस्थिति हमें कथानायक और सिन्थिया के संवादों से ही विदित होती है.मुख्य् रूप से यहाँ दो ही किरदार है, यह निःसन्देह इस उपन्यास की उपलब्धि है कि इतने कम चरित्रों के माध्यम से लेखक संबध विच्छेद से उपजे निर्वासित और अभिशप्त मन की अनेक स्थितियाँ रचता है.

कथाक्रम में जाने कितने अनुभव अस्पष्ट और अशरीरी है , जो उस अकेलेपन को रेखांकित करते हैं जिसे हर व्यक्ति कहीं ना कहीं अपनी जिन्दगी में भोगता है.ठीक इन्हीं क्षणों में पाठकीय अनुभव अपनी गहनता, व्यापकता औऱ तीव्रता में कलात्मक अनुभव के समीप हो जाता है.यहाँ पात्र अपनी उपस्थिति से हमारे मानस पर चित्रित नहीं होते  वरन् अपनी विराट अनुपस्थिति से एक गहरे अभाव, त्रास, वेदना  से साक्षात्कार करवाते हैं.हम सिर्फ उस उपस्थिति का अभाव महसूस करते हैं, जो पूर्व में औपन्यासिक किरदारों के जीवन के साथ जुड़ी थी- औऱ अब वह नहीं है.इसी अकेलेपन और अभाव की भावना से लगाव का जन्म होता है और इसी लगाव में सिन्थिया औऱ नरेटर बाहर से अपने को देख पाते हैं.ऐसे अनेक स्थल हैं जहाँ रचना का अनुभव पाठकीय अनुभव संसार को झिंझोड़ कर  रख देता है.उपन्यास को पढ़ते-पढ़ते पाठक कभी नायक तो कभी सिन्थिया को अपने भीतर महसूस करता है, वह उसी संसार में जीता है, उठता है, बैठता है, जहाँ पात्रों का बसेरा है.यही नहीं वह उस कॉफी की गर्माहट को भी महसूस करता है जो सिन्थिया और कथानायक के हलक से उतर रही होती है.निःसंदेह यही किसी कृति की प्रामाणिकता और अर्थवत्ता है जिसे अनुभूतियों की यह तीव्रता रेखांकित करती है.

वस्तुतः यह उपन्यास अलगाव की जमीं पर उपजे दो किरदारों की कहानी है.यह कहानी एक रहस्य को आद्योपांत अपने साथ लेकर चलती है कि आखिर क्यों इन पूर्ण पात्रों के जीवन में इतना अधूरापन है, यही रहस्य पाठक को अंत तक जिगीषु बनाए रखता है.कोई भी रहस्य तभी पूर्ण सफल है जब वह पूर्ण रूपेण अभेद्य या अज्ञात ना हो.अगर रहस्य अभेद्य है तो फिर वह रहस्य है ही नहीं. यहाँ यह रहस्य अनेक मनःस्थितियों के माध्यम से अनेक आयामों में उजागर होता रहता है.पाठक अपनी दृष्टि से हर उस बिन्दू पर उस रहस्य को खोजने का प्रयास करता है जहाँ किरदारों के कदम ठिठकते हैं और यही कारण है कि किरदारों के रहस्य की परतें अनेक स्तरीय हो जाती हैं.यही संयोजन अंततः उस रहस्य से साक्षात्कार भी करवाता है जो अंत तक अनुद्घाटित था. यही शैलीगत बुनावट रचना में प्रवाह उत्पन्न करती है.

किसी भी रचना की सफलता पाठक से एकाकार होने से होती है.यह साफल्य अलग-अलग तंतुओं में नहीं  वरन् समूचे संघटन विधान में जीवित रहता है.इसीलिए यहाँ भी जब हम  एक तत्त्व को दूसरे से अलगाते हैं तो रचना का सौन्दर्य और संवेदना मुरझाने लगती है.भाषा, किरदार, कथातत्त्व, भाव संयोजन वे तत्त्व हैं जो किसी भी कलाकृति को स्वायत्त व विशिष्ट बनाते हैं.यहाँ सभी माध्यमों से ऐसे यथार्थ का गुम्फन है जो अतीत की छाँह में सरकता है.उपन्यास में घटना बाहुल्य नहीं है ना ही किरदारों को बाहुबली भूमिका में दर्शाया गया है वरन् इसके उलट वे बेहद सादा हैं, बेहद आम. इतने सादा कि किरदार की गोल बिन्दी पर ठिठक कर समुद्र की नमी को महसूस किया जा सकता है. यहाँ दैनिक जीवन की मुस्कराहटें हैं,जान बूझ कर पूछे गए निरर्थक प्रश्न हैं जिनका प्रयोग हम और आपजीवन की अनेक असहज स्थितियों से बचने के लिए करते हैं. 

जंगल के गीत, पंछियों की फुसफुसाहटों और अनाम खामोशियों के बीच यह उपन्यास अतीत का राग है जिसके दंश से किरदार विलग होना चाहते हैं. यह अतीत राग इतना प्रभावी है कि युगल के बीच चुकी हुई उपस्थितियाँ भी मुखर रहती हैं.सिन्थिया की हर याद में फिलिप जीवित है.समन्दर, चर्च, घर से लेकर बारिशों तक उसकी उपस्थिति इतनी मौज़ू है कि नायिका उससे चाहकर भी मुक्त नहीं हो पाती.यही बात कथानायक लेखक के साथ है, कभी तुलनात्मक दृष्टिकोण से तो कभी सौन्दर्य की बानगियों से संजना अनायास ही उसके समक्ष आ खड़ी होती है.यही कारण है कि देह और मन के इतने समीप होने के बावजूद दोनों किरदारों के बीच एक अजीब सी खामोशी पसरी रहती है.संबंधों का यह बिखराव उनकी सूखी आँखों में साफ झलकता है.यह बिखराव इस कदर कथानायक लेखक के मन पर हावी है कि वह अपने उपन्यास लेखन की समाप्ति पर खुश होने के बजाय उन पात्रों के बिछड़ने से दुखी हो जाता है.

आजकल अनेक रचनाओं में स्त्री के शोषण की बात , उसके छले जाने की बात की जाती है पर इससे इतर यहाँ संबंधों के बिखराव से आहत होता पुरूष नज़र आता है. लिव इन रिलेशन से उपजे अलगाव को जहाँ कथानायक और संजना के माध्यम से दिखलाया गया है वहीं दांपत्य में उपजे देहवादी दृष्टिकोण और एकरसता को फिलिप के माध्यम से चित्रित किया गया है.  यहाँ दोनों ही प्रसंगों में यह दर्शाने की कोशिश की गई है कि एक दूसरे को स्पेस दिए बगैर प्रेम संभव नहीं है.  प्रेम में इतना अधिक चुंबकीय आकर्षण होता है कि तमाम प्रकार के आकर्षण इन के बीच घुल जाते हैं औऱ रह जाती है तो दो आत्माएँ.इस भाव के वैपरीत्य के शिकार सिन्थिया और कथानायक अपने-अपने ध्रूवों पर रहते हुए इस एकाकीपन को झेलते हैं.  

दोनों एक दूसरे के अतीत से अनजान हैं, दोनों एक दूसरे के अतीत में अनुपस्थित है पर कोई धागा है जो उन्हें जोड़े हुए है.कथानायक अपने अधूरे उपन्यास को पूरा करने एक अनजाने शहर में आता है जहाँ नायिका अपने अतीत की चादर देह पर ओढ़े जीने की बेतरतीब कोशिश में रत है.स्थगित जिन्दगी की तलाश में भटकते हुए इन दोनों पात्रों के जीवन के  दर्द को बयां करते हुए लेखक एक स्थान पर अपने ही पात्रों से कहलवाता है कि हम दोनों ही वर्तमान में जीते हुए अतीत के प्रेत हैं.हमें तब तक मुक्ति नहीं मिल  पाएगी जब तक हमारा अतीत हमसे मुक्त नहीं हो जाता.  

जीवन की यह सबसे बड़ी त्रासदी है कि अतीत आपको लगातार हॉण्ट करता है.और फिरकिसी एक क्षण जीवन की शुरूआत उस अतीत पर निर्भर हो जाती है जो अतीत होकर भी जीवंत है, अश्वत्थामा की ही तरह.इन्हीं अन्तर्विरोधों से जूझते हुए , नैतिकता और दायित्व बोध का भार निर्वहन करते हुए अंततः दोनों अपने अतीत से फारिग होने की चेष्टा करते हैं.देह के कुछ अंशों की अनुपस्थिति के दाग आत्मा पर इतने अधिक हावी होते हैं कि जीवन ही पंगु हो जाता है. इन्हीं प्रसंगों की उकेरन में कहीं निर्मल वर्मा की नज़ाकत अवसाद ओढ़े सामने आती है तो कहीं चेखव की रचनात्मक गहराई, कहीं टैगोर के नायिका के जोगी की ही भाँति सिन्थिया कथानायक से दूर भाग अपने खोल में सिमट जाती है.उपन्यास का बहाव मेंगलोर के बादलों की आवाजाही सा है.यह लेखक की शिल्पगत खूबी है कि कम चरित्रों और संवादों के होते हुए भी लेखक अंतिम पृष्ठ तक लाजवाब धैर्य़ बनाए रखता है.यहाँ स्थगित होती हुई बुनियादी सच्चाईयाँ हैं जिन्हें लेखक स्वयं बयां करता है. अनेक बिम्बों में स्खलित होती हुई संवेदनाएँ अतीत को बुहारने का अंतहीन प्रयास करती नज़र आती हैं.उपन्यास का अंत खासा चौंकाता है पर एक ब्रेस्ट कैंसर से उपजी त्रासदी का इतना संयत चित्रण सिर्फ और सिर्फ गोपाल माथुर ही कर सकते थे.इस तरह अंत भी उपन्यास के अनेक बिंदुओं के ही तरह ठहर कर सोचने को मजबूर करता है.

उपन्यास लेखन में जिस धैर्य औऱ लगन का निवेश किया गया है उसे उपन्यास के हर प्रस्थान बिन्दू पर सहज ही जाना जा सकता है.गौरतलब है कि उपन्यास का रचाव करने वाला लेखक ही इसका मुख्य पात्र भी है .कहने का तात्पर्य है कि उपन्यास का मुख्य पात्र स्वयं लेखकीय भूमिका में है.वह  उन तमाम लेखकीय दायित्वों, उसके अनमनेपन औऱ लेखन की अनुकूल परिस्थितियों से भली भाँति वाकिफ़ है, इसीलिए उपन्यास के तीन खण्ड कविता की बानगी से उस लेखकीय मनोदशा का भी चित्रण करते हैं, जिन्हें कोई भी लेखक अपनी सृजनयात्रा के दौरान अनुभूत करता है. लेखक द्वारा रचाव के क्षणों को, किरदारों के जन्म से उनके बढ़ने तक की स्थितियों को कई रचनाकारों ने परकाया प्रवेश कहा है, ठीक वैसे ही गोपाल माथुर लिखते हैं कि-  

शुरू शुरू में मुझे लगता था कि उपन्यास की सारी स्थितियां मेरी ही तो सृजित की हुई हैं उन्हें मैं कभी भी किसी भी तरह घुमा सकता हूँ पर अहिस्ता अहिस्ता मैंने जाना कि एक सीमा के बाद उपन्यास के पात्र इतना ग्रो कर जाते हैं की लेखक का साथ छोड़ देते हैं और अपनी राह खुद--खुद चलने लगते हैं.एक दिन वे इतने सक्षम हो जाते हैं की लेखक को वह लिखना पड़ता है जो वे चाहते हैं.

बरबस बहकर आया यह दुःख इतना अलग है कि बारिशों के बाद भी कोरा बना रहता है, जो इतना भारी है कि हवाएँ उसे उड़ा नहीं सकती और इतना हल्का कि पलक झपकते ही काँधे पर आ बैठता है.  नथुनों में भरती हुई बादलों की नम गंध शब्दों के मार्फ़त कब पाठक के नथुनों में आ जमती है इसका आभास पाठक को नहीं हो पाता. 

यह शैलीगत चातुर्य ही है कि घटनाक्रम के घटाटोप के अभाव के बावजूद यहाँ सांवेगिक तीव्रता बदस्तूर बरसती है.शब्दों की कारीगरी इतनी अनायास है कि उपन्यास अपने वृहद कलेवर के बावजूद बोझिल महसूस नहीं हो पाता. कथा कहने का ढंग, सूक्ष्म स्पर्श,दृष्टि की गहनता और रचाव की कलात्मकता वे बिन्दू हैं जिन्हें यह उपन्यास पढ़कर सहज ही महसूस किया जा सकता है.
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विमलेश शर्मा
vimlesh27@gmail.com

परख : आशा बलवती है राजन् : हिमांशु पंड्या

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नन्द चतुर्वेदी के अंतिम कविता संग्रह – ‘आशा बलवती है राजन्’ पर हिमांशु पांड्या की यह समीक्षा  मन से लिखी गयी है, एक तरह से यह कवि से संवाद है. कवि के अनेक व्यक्तिगत प्रसंग इसे और भी विश्वसनीय बनाते हैं.

इस तरह के संवाद जहाँ कविता को खोलते हैं वहीँ कविता और कवि के प्रति रूचि भी पैदा करते हैं. हिमांशु वर्तमान से आँख मिलाते हुए इन कविताओं को परखते हैं.



क्या इस चिठ्ठी पर आपका नाम है ?                                      
हिमांशु पंड्या





ह नन्द बाबू के अंतिम संग्रह की कवितायेँ हैं जो उनकी मृत्यूपरांत आया, हालांकि इसकी पांडुलिपि उन्होंने ही तैयार की थी.

इस संग्रह की कई कवितायेँ उनके मुंह से सुनी हुई हैं. इस संग्रह की कवितायेँ लिखे जाने का अंतिम दशक ही मेरी उनकी ढेरों मुलाकातों का दशक था.मैं 99 से इस शहर में रहने लगा और 2000 से गृहस्थी बसाई. 2012 में उदयपुर छोड़ दिया. उसके कोई दो बरस बाद एक दिन उनकी मृत्यु की खबर मिली. इसे आप विडम्बना ही कहेंगे कि समय और भूगोल की दूरी के कारण ही मुझे यह खबर विश्वसनीय लगी. लगा कि हाँ, उनकी उम्र हो ही गयी थी, वरना वहां रहते कभी ये ख्याल नहीं आया कि एक दिन वे नहीं रहेंगे.

सिर्फ़ समय और भूगोल की दूरी ने इस खबर को विश्वसनीय बनाया कि नन्द बाबू नहीं रहे. वहां तो बस वे थे. उन ढेरों घनी दुपहरियों में जो वैसे तो आग बरसाती थीं लेकिन अहिंसापुरी के उस शांत पसरे माहौल में एक आश्वस्तकारी उपस्थिति के रूप में वे हमेशा मौजूद थे.



(दो)
अंत तक लड़ना पड़ता है अपनी निराशाओं से
अंत तक शत्रु अपराजित नज़र आते हैं
मदोन्मत्त एक एक सीधी प्रभुता की चढ़ते
बहुत सी हीन लड़ाइयों में दिन बीत जाते हैं
फिर जब हिसाब मिलाते हैं
पछतावा होता है

इस संग्रह की कविताओं में गहरा निराशा बोध है. संग्रह की शीर्षक कविता भी स्वयं कवि के शब्दों में, "महाभारत के एक जटिल मूल्य क्षरण के प्रसंग की दुखान्तिका से गुजरती है जैसे. सब कुछ अँधेरे में लिपट गया हो जैसे !"लेकिन कवि यह मानने को तैयार नहीं है. वह अगले ही क्षण लिखता है, "किन्तु एक प्रबल मानवीय विश्वास चमकता है 'आशा बलवती है राजन'में."कठोर सच यह है कि इस कविता में मूल्य क्षरण का पाताल ही है, कहीं कोई आशा की किरण भी नहीं है. जिस समाज में सत्य का पाठ पढने वाले हमेशा 'अनादर के ढलानों'पर खड़े हों, वहां एक सत्यवादी के मुख से 'हतो नरो'ऊर्ज्वसित स्वर में और 'कुंजरो वा'कांपते त्रस्त स्वर में ही निकलता है और फिर तो आधे अधूरे युधिष्ठिर को हिमशिखरों में गलने ही जाना होता है, कृष्ण को व्याध के बाण से मारा ही जाना होता है.कविता की अंतिम पंक्तियाँ कुछ यों हैं :

सत्य अब वस्तुओं, विज्ञापनों के
बाज़ार में बिकता है
आत्मा की जल वाली नदी
दुर्दिनों की रेत में विलुप्त हो गयी है

आशा बलवती है राजन !

पाठ के विधान में अंतिम पंक्ति आशा का सन्देश नहीं, व्यंग्य का खड़ग ही लगती है. एकबारगी यह मान लें कि नन्द बाबू ने यह पंक्ति इस कविता विशेष के लिए नहीं बल्कि समूचे संग्रह के लिए लिखी तब भी संग्रह के मूल स्वर के साथ संगति बैठाना मुश्किल है. फिर ऐसा क्यों लिखा उन्होंने ? या ज्यादा सरल सवाल - यही शीर्षक क्यों ?



(तीन)
बात जब पक्षधरता की हो तब कवि अभिधा को ही चुनता है, उदाहरण हैं आज़ादी से जुडी ये तीन कवितायेँ. 'आज़ादी की आधी सदी'में वे सीधे सीधे अपने समय के स्वाधीनता के सवालों को उठाते हैं जो जाहिर है, सामाजिक समानता के सवाल हैं. स्वतन्त्र भारत में प्रत्येक नागरिक को मूलभूत सुविधाएं मिलना किसी की कृपा नहीं वरन उसका अधिकार है. और यह कोई बड़ी आकांक्षा नहीं, एक आम आदमी का मेनिफेस्टो है. कवि लिखता है कि गेंहू,चावल,शक्कर या लज्जा ढकने के वस्त्र की 'कृपा'रेखांकित कर उसे कृतज्ञ न बनाया जाए, बस.

दंगे में न मरूं
मरूं तो शिनाख्त न किया जाऊं
हिन्दू या मुसलमान
कौन सा हिन्दू, मुसलमान कौनसा ?

हमारे दौर में युवा आकांक्षा के सबसे बड़े प्रतीक ने भी यही कहा था, "एक आदमी की कीमत उसकी फौरी पहचान और करीबी संभावना तक सीमित कर दी गई है.एक वोट तक. एक नंबर तक. एक वस्तु तक. कभी भी एक इंसान को उसके दिमाग सेनहीं आंका जाता."

दूसरी कविता 'गणतंत्र'में वे प्रार्थना शैली में अपनी आकांक्षाएं गिनाते हैं. वे इस गणतंत्र के महत्त्व को जानते हैं जो हज़ारों वर्षों पुराना भी है और 'कल की आकांक्षा'जितना नया भी.

वे सब हमारी प्रार्थनाएं हों
द्वेष रहित गणतंत्र के लिए
वे सब जो व्यर्थ मान ली गयी हैं
विलासिता के द्वार पर हास्यास्पद.
(तीसरी कविता का ज़िक्र मैं लेख के आखिर में करूंगा.)

नन्द बाबू का सपना समता और समाजवाद का सपना था. इस सपने वाले भारत के लिए वे आजीवन प्रयासरत रहे. वे लोहिया के पथ के अनुयायी थे. हालांकि आश्चर्यजनक यह है इस किताब की भूमिका में उन्होंने अपने प्रेरणास्पद विचारकों में सबसे प्रमुखता से मार्क्स को उद्धृत किया है. एक अनुमान लगाया जा सकता है कि समाजवादियों की वर्तमान खेप के पतन ने यह दिशा बदली हो. पर फिर, मार्क्सवाद के झंडाबरदारों ने ही कौन सा अनुकरणीय उदाहरण पेश किया है हालिया दशकों में ? मेरे विचार से, इसका कारण यह है कि वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था में समाजवादी आकांक्षाएं जिस तरह से अप्रासंगिक होती चली गयीं, पूंजी का अबाध भयावह केन्द्रीयकरण जिस तरह होता चला गया, उसने कवि को वंचितों की एकजूटता के वैश्विक दर्शन की ओर मोड़ा. ठीक उस समय, जब मार्क्सवादी राजनीति इस मुल्क में अपने हिमांक पर थी, पूँजी के वैश्विक दैत्य के सामने इस दर्शन की प्रासंगिकता सर्वाधिक मौजूं थी.

यानी - जिस समय आपको अपना लिखा व्यर्थ लगने लगता है, ठीक उसी समय आपको लिखने की सबसे ज्यादा जरूरत महसूस होती है.


यह नितान्त अकाव्यात्मक वाक्य है लेकिन वास्तविकता यही है कि नन्द बाबू को अपनी मृत्यु की आहट सुनाई देने लग गयी थी. अपनी देह के क्षरण को उनसे अधिक कौन समझ पाता होगा ? उनकी कविता 'सुगंध वृक्ष'में बचपन की स्मृतियों से वृक्ष और बहन चले आते हैं, जैसे लहना सिंह को अंतिम समय में भाई कीरतसिंह और आम का पेड़ याद आ गए थे. लेकिन जीवन से उनकी रागात्मकता हम सबसे ज्यादा थी. भरी दुपहरियों में, चाहे हम धृष्टतापूर्वक बिना पूर्वसूचना के ही पहुंचे हों, वे हमेशा अपने स्वच्छ सूती रंगीन कुर्तों में सचेत बैठे मिलते.

कुर्ता बिना सिलवट का होता, उस पर प्रेस वाली लाइनिंग नहीं नज़र आती. ऐसा लगता था जैसे उसे करीने से सुखाया गया है और फिर तार से उतार कर पहन लिया गया है. सिर्फ एक बार, जब वे बीमार थे, तब मैंने उन्हें अस्त-व्यस्त देखा था. बिना शेव किये हुए उनके चेहरे के सफ़ेद खूंटे और झुर्रियां, उस यथार्थ की बयानी कर रहे थे जो उनकी देह का हिस्सा था पर उनकी आत्मा का नहीं. मुझे लगता है कि उनकी उस दिन की अन्यमनस्कता का कारण बीमारी नहीं थी.

वे चाहते थे कि हम काल के वशीभूत जर्जरित काया से न मिलें, इस काया के भीतर जीवन की ऊर्जा से सराबोर उनके स्व से मिलें. जब बहसों के दौरान मैं थोड़ी और प्रज्ञा थोड़ी ज्यादा उत्तेजना में आते तो वे मंद मंद मुस्काते, "देखा बच्चू ! उम्र की रेखा को लांघकर मैं तुम तक आ ही पहुंचा न !"

यह पूरा संग्रह अपनी वय की पहचान के साथ पीछे के जीवन की ओर दृष्टिपात का उदाहरण है. (मैं सिंहावलोकन शब्द से बच रहा हूँ क्योंकि वह नन्द बाबू की जीवन दृष्टि से मेल नहीं खाता.) थोड़े दिनों पहले आये उनके एक संस्मरण संग्रह का तो नाम ही था 'अतीत राग'. लेकिन 'वय की पहचान'मैंने इसलिए कहा है कि यह संग्रह अतीत राग है, वीत राग बिलकुल नहीं है. अपनी प्रसिद्द कविता 'महाराज'में वे इस चालाकी का ज़िक्र करते हैं कि वैराग्य, त्याग जैसे झुनझुने अभावों को लुभावना आवरण देकर ढकने के लिए ही गढ़े गए हैं.

धर्म ग्रंथों में बहुत सी ऊलजलूल बातें
जैसे त्याग, जैसे विरक्ति
जैसे वैराग्य, करुणा जैसे दान लिखी हैं
वह सब समर विजेताओं के लिए नहीं
दास लोगों के लिए हैं

'शरीर'उनकी एक अप्रतिम कविता है. उम्र के नवें दशक में वे ही इतने अकुंठ भाव से देह की आकांक्षा और गरिमा को रेखांकित करती कविता लिख सकते थे. इस कविता में वे हमारी घर नामक संरचना, उसमें निर्मित शरीर की अपवित्रता, उससे उपजे डर के दर्शन और तृष्णाओं की अग्नि का ज़िक्र करते हैं, इस पवित्रता दर्शन के पीछे ब्राह्मणत्व के होने को चिह्नित करते हैं. और फिर पौराणिक कथाओं से उठते हाहाकार को दर्ज करते हैं.

बहुत सी घटनाएं थीं
स्त्रियाँ यम के पास जाती थीं हठीली, अडिग
मृत्यु से उठा लिए गए अपने पतियों के शरीर माँगने
देहातीत प्रेम का एक बार फिर देहानंद लेने के लिए
द्रौपदी पाँच-पाँच पतियों को बाँधे रही शरीर से
अनुद्विग्न, प्रसन्न
राम कौन सी सीता के लिए विकल थे
'मृगनयनी'कहते
अघोरी शिव भुवन भर में दौड़ते रहे
पार्वती के ठन्डे, गलते अकिंचन शरीर को
शरीर पर लिए शरीर के लिए
तथागत ने शरीर के लिए ही तो पूछा था
तुम भी एक दिन ऐसी ही हो जाओगी, यशोधरा !
पृथ्वी पर गिरी अचानक, रंगहीन पांखुरी की तरह

और इसके बाद वे कविता में उन नायकों को कठघरे में खड़ा कर देते हैं जो अपनी प्रिया की पुकार को ठुकराकर महान बने. यों ये काम बरसों पहले मैथिलीशरण गुप्त ने भी किया था मगर वहां यशोधरा के प्रति बुद्ध के कर्तव्य का ही हवाला था. वह राष्ट्र निर्माण की कविता थी, यह व्यक्ति की आकांक्षाओं की अभिव्यक्ति की कविता है.

वासवदत्ता के कामातुर कांपते शरीर से
तुमने कहा था 'तब आऊँगा जब द्वार बंद होंगे'
तथागत ! वासवदत्ता आत्मा नहीं शरीर थी
तुम्हें उसी क्षण, सारे लोक के सामने
अपनी युवा कामना के लिए बुलातीं

किसने गिने कितने कल्प कल्पान्तारों तक
तुम्हें देखने के लिए प्रतीक्षा विह्वल रही
वृषभानुकुमारी, कृष्ण !

ऐसा इसलिए ही हो पाया क्योंकि नन्द बाबू ने भोग और त्याग के दो छोरों के बीच सादगी का वरण किया था. वैश्वीकरण की गलाकाट दौड़ में खाया अघाया या हांफता मध्यवर्ग जिन दो छोरों के बीच पेंडुलम सा झूलता है, उसे ये कवितायेँ सम्यक मार्ग की ओर जाने का रास्ता सुझाती हैं. एक ऐसा रास्ता जिसमें खुशियाँ बाज़ार की मोहताज नहीं होंगीं.

प्रकट तो होना ही है
जो तुमने खरीदा एक भय ही था
केवल दीनता.
काम की चीज़ें कुछ दूसरी थीं
जिन्हें खरीदना तुम भूल ही गए थे !

अब मुझे कहने की इजाजत दीजिये, जो व्यर्थताबोध नन्द बाबू की कविताओं में आया है - वह उनका वैयक्तिक बोध नहीं है. वह आधी सदी बीतने के बाद उन कसौटियों की परख है जो इस आज़ाद मुल्क के नागरिकों के लिए वांछित थीं. वह इस गणतंत्र का लेखा जोखा है. जब वे 'अकाल मेघ'में कहते हैं कि 'सारे ताल, कुएं सूख गए हैं'तब वे प्रकृति की नहीं इस देश की बात कर रहे हैं, दीन-हीन-वंचित को संसाधनों से महरूम किये जाने के षड्यंत्र का रूपक खींच रहे हैं. और फिर वे बेदखल हुए लोगों की तरफ से आरोप पत्र दाखिल करते हुए विकास के इस मॉडल को खारिज करते हैं.

हमारा गाँव, भूखंड हमारे मन में रहेगा
काकी और हम सब सड़क पर
एक व्यवस्थित, चालाक अकाल
पीठ पर बाँधे रहेंगे, अपनी भूमि से
बेदखल हुए.

इक्कीसवीं शताब्दी में आकर सबसे बड़ी विडम्बना जिससे कवि साक्षात्कार कराता है वह यह नहीं है कि परिस्थितियाँ विकट हैं. वे तो कब नहीं थीं. शायद आज़ादी के फ़ौरन बाद ज्यादा रही होंगी. 'क्या होता है भयावह'कविता में वे लिखते हैं

लोग कहते हैं विस्तार से मत कहो
सारांश बता दो

अब विस्तार से क्लेशों का वर्णन सुनते
किसी को क्रोध न आये
लेखक को लगने लगे अविश्वसनीय घटना है

अब जब दो दशक पहले शुरू हुए उदारीकरण के चक्र ने नोटबंदी के साथ एक वृत्त पूरा कर लिया है और हमारी चुनी हुई सरकारें बाज़ार की बड़ी ताकतों के सामने नतमस्तक हो गयी हैं तब समता का सपना इसलिए अस्वीकार्य हो गया है क्योंकि बाज़ार ने वंचना को षड्यंत्र नहीं बल्कि प्रतियोगिता में असफलता साबित कर दिया है. जहाँ सबके लिए मूलभूत संसाधनों की नैसर्गिक बात भी 'विलासिता के द्वार पर हास्यास्पद' ('गणतंत्र', 30) मान ली गयी है. बाज़ार की क्रूर सच्चाई यही है.

इस सपने को रखने के लिए
फिलहाल हमारे पास जगह नहीं है
प्रेम और सौन्दर्य की
माँग गिर गयी है इन दिनों बाज़ार में
पुराने मालगोदामों में पड़ी सड़ रही हैं
बुद्ध को समर्पित 'थेरी गाथाएं'

और इस तरह एक समूची यात्रा के बाद कुल जमा हासिल निल बटे सन्नाटा ही दिखता है. इस यात्रा में कितने ही लोगों ने साथ साथ चलकर एक दूसरे का साथ दिया. क्या यह एक सामूहिक निराशा बोध नहीं है ?

दुनिया बदलने की कोशिश कितनी बार करते हैं
लेकिन पता नहीं कैसे उसी पुरानी गली
उसी उदास मोड़ पर आ जाते हैं
वही जिद्दी कुत्ते, पुरानी चितकबरी गुर्राती बिल्लियाँ

जाहिर है, एक रचनाकार के लिए संकट दोहरा होगा. उसकी ईमानदारी उसे अपने से सवाल करने पर मजबूर करेगी कि क्या वह अपनी कहन ठीक से संप्रेषित नहीं कर पाया ?

लिखने के बाद लिखने का पुण्य निष्फल हो जाता है
जो लिखना चाह था वह भटकता ही रहा अंतर्लोक में
जो लिखा वह लिखना ही नहीं था
जहाँ का तहां ही होता है लेखक
उस बवंडर के गुजरने के बाद
अपने लिखे के लिए इतना अनाश्वस्त
एक दावानल के बीच
जो कुछ लिखा उस सत्य में झुलसते

यह सारी पंक्तियाँ मैंने एक शब्द पर ध्यान दिलाने के लिए लिखी हैं - 'अनाश्वस्त'. इतनी आश्वस्ति के साथ अपनी अनाश्वस्ति का स्वीकार वही लेखक कर सकता है जो अपने पाठकों को कविता नामक उत्पाद का ग्रहणकर्ता नहीं बल्कि समानधर्मा मानता है. वे भूमिका में लिखते हैं, "मैं अस्थिर, अधीर समय का कवि हूँ, अपने निर्मित सपनों पर संशय करता इसलिए मैं 'कालजयी'कवितायेँ लिखने के दंभ से मुक्त हूँ."मुझे लगता है कि ईमानदारी यह होगी कि मैं इस बात को रेखांकित करूं कि वे सूरते हाल को एकदम हाल हाल में बिगड़ गया नहीं बता रहे हैं और न किसी विशेष खलनायक को चिह्नित कर उस पर सारा दोष मढ़ रहे हैं. इसी बिंदु पर आकर लगता है कि उनका स्व विस्तार पा गया है.

आजादी को हम सब मरने देते हैं पहले
बाद में उसका महत्त्व बताने के लिए
कुछ इस तरह बताने के लिए
जो हम नहीं हुए, जो हमने नहीं चाहा होना

बताते हैं क्या क्या नहीं हुआ
कारण और विकल्प, आत्मीयता और उत्तेजना
नहीं होने दिया उन्होंने जो हमारे पक्ष में नहीं थे
हमने क्या किया यह नहीं बताते
अपनी दलाली, कमीशन, चोरी

फिर सवाल यह स्वाभाविक ही उठता है कि परिदृश्य इतना निराशाजनक है तो आशा बलवती कैसे है ? क्योंकि स्वाधीनता की आधी सदी बाद, स्वाधीनता के अनेक आयामों पर विचार करने के बाद लेखक के सामने यह स्पष्ट है कि स्वाधीनता भाव है और विकट से विकट परिस्थितियाँ भीतर के भाव को तिरोहित नहीं कर सकतीं. और हाँ, समानधर्मा को सपने का हस्तांतरण संभव है. यहाँ मैं स्वाधीनता पर उस तीसरी कविता का अंतिम अंश उद्धृत करता हूँ जो मुझे इस संग्रह में सर्वाधिक प्रिय है.


स्वाधीनता कहती है
मुझे परिभाषित करो
यदि मैं तुम्हारा सपना हूँ तो मैं तुम्हारा यथार्थ भी हूँ
तुम्हारा रोज खटखटाती हूँ दरवाजा
तुम्हारा घर आँगन मेरी संसद है
यहीं भटकती रहती हूँ तुम्हारी यातनाएं लेकर
मैं तुम्हारी इच्छा शक्ति हूँ
तुम्हारी विजय की अकुंठित कामना

यदि विकट परिस्थितियाँ सच हैं तो उनसे लड़ने की संकल्प शक्ति भी उतना ही बड़ा सच है. हर पीढी अपने स्वाधीनता के सवालों और परिभाषाओं को खुद गढ़ती है. यह एक अनवरत प्रक्रिया है. पूर्व प्रदत्त सत्य आदेश हो सकता है, परंपरा हो सकती है, स्वाधीनता नहीं हो सकती.जहाँ और जिस भी कविता में नन्द बाबू ने युवा/किशोर पीढी को संबोधित किया है, वहां न अपरिचय/अविश्वास का आरोपी भाव है, न समझाने वाला बड़प्पन का. वे सिर्फ अपना अनुभव बांटना चाहते हैं, अपनी चढ़ाई चढ़ने के लिए उन्हें खुला छोड़कर.
ये दिन मैंने तुम्हारे लिए रखे हैं
मूसलाधार वर्षा और उन्मत्त आँधियों के
लगातार भागने के, दो दो सीढियां उचक-उचककर चढ़ने के
मुझे जहाँ से चढ़ाई शुरू होती है वहीं छोड़ देने के



(चार)
मैंने शुरू में लिखा था कि जगह और समय की दूरी के कारण ही मैं उनके जाने की खबर पर विश्वास कर पाया. अब इस संग्रह को पढने के बाद मैं कह सकता हूँ कि यदि मैं अंतिम दो सालों भी उदयपुर में रह रहा होता और उनके जाने के तीन दिन पहले भी उनसे मिला होता तो उनके पास ढेर सी योजनाएं, ढेर से प्रस्ताव और ढेर से नक़्शे होते. अब मुझे यह भी पता है कि एक सार्थक जीवन संतुष्ट कभी नहीं हो सकता.

कुछ काम और करने हैं अभी
मसलन उस पुराने कोट का अस्तर
जो नीचे है उसे ऊपर कराना और
ऊपर वाले को नीचे

गले में कुछ अटकता सा है. मैं उठकर पानी पीता हूँ. रात के साढ़े तीन बजे हैं. क्या बगल के कमरे में सो रही प्रज्ञा को जगा लूं ? ऐसा नहीं करता हूँ. पूरी कविता दो तीन बार पढता हूँ. वैयक्तिक क्षति का अहसास गहराता जाता है. शायद विरेचन के लिए यह जरूरी ही था.
अंत में,
इसी कविता से,

उस चिठ्ठी पर मैंने पता नहीं लिखा है
तब भी मुझे जल्दी है
मैं उसे चिंता करने वाले लोगों तक पहुंचा दूं
समय से पहले

नन्द बाबू चाहे चले गए हों पर इस चिठ्ठी के पहुँचने का समय अभी निकला नहीं है. बिना पते की यह चिठ्ठी पानेवाले की प्रतीक्षा कर रही है. क्या इस चिठ्ठी पर आपका नाम लिखा है ? अगर हाँ तो फ़ौरन दावा कीजिये.
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हिमांशु पंड्या
साहित्य के गम्भीर अध्येता
तमाम पत्र-पत्रिकाओं में आलोचनात्मक लेख प्रकाशित
जसम के सदस्य
himanshuko@gmail.com 

अन्यत्र : संघ चिट्ठा (अंतिम) : अखिलेश

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प्रसिद्ध चित्रकार और लेखक अखिलेश सोवियत संघ में १९९६ में भारत कला महोत्सव के आयोजन में शामिल हुए थे. ये संस्मरण उसी दौर के हैं. इसका पहला भाग आप पढ़ चुके हैं. शेष और अंतिम हिस्सा यहाँ दिया जा रहा है.

तथाकथित महान विचारधाराओं के तलघर में क्या कुछ घटित होता रहता है, जानना त्रासद है. जो इसे भोग रहे थे उनकी यंत्रणाओं की  कल्पना ही विचलित कर देती है.


संघ चिठ्ठा                                        

अखिलेश  



सोवियत संघ में जब १९९६ में भारत कला महोत्सव मनाया जा रहा था उस वक़्त प्रख्यात चित्रकार मंजीत बावा भारत भवन में रूपंकर समकालीन, आदिवासी और लोक कला संग्रहालय के निदेशक थे. इस भारत महोत्सव में भारत भवन के पास जिम्मा था समकालीन कला प्रदर्शनी लगाने का. भारत भवन में मेरा काम ही प्रदर्शनी आयोजित करना था अतः इसे करने की जिम्मेदारी मुझे सौपीं गई. इस अवसर पर रूपंकर के संग्रह से मैंने छोटी सी प्रदर्शनी के लिए कुछ चित्रों का चयन किया और प्रसिद्द रुसी चित्रकार निकोलस रोरिक,जिन्होंने अपने जीवन के अन्तिम पच्चीस वर्ष भारत में हिमालय चित्रित करने में लगाया, उनके चित्र भी मैंने इस प्रदर्शनी में शामिल किये जो नगमा के संग्रह से मिले.

रूस को लेकर मेरे मन जो उत्साह था उसका बड़ा कारण वहाँ के लेखक थे जिन्हे पढ़कर मैंने रूस की कल्पना परीलोक सी कर रखी थी वह सब छिन्न भिन्न हुई. पहली बार मुझे लगा कि रूस के बारे में जो झूठ फैलाया गया है उसका सचाई से कोई सम्बन्ध नहीं है. इंदौर के  होमी दाजी,  बेचारे, कम्युनिस्ट नेता थे और वे अक्सर हमारे घर आया करते थे, उनके चुनाव प्रचार के लिए भी मैंने काम किया, पहली बार रूस की तारीफ उन्ही के मुँह से सुनी थी. वो अगर जिन्दा रहते तो मैं उनसे जरूर मिलता इस यात्रा के बाद.

रूस का रूप वीभत्स था और लुडमिला जो एक साधारण इंसान थी उसके अनुभव हिला देने वाले थे. असलियत का पता तो किसी राजनैतिक विचारधारा वाले व्यक्ति से ही चल सकता था. साधारण लोगो ने नर्क का अनुभव रूस में कम्युनिस्टों के शासन काल के सत्तर सालों में कर लिया था. मैंने लम्बे समय तक इन्हे नहीं लिखा किन्तु हाल ही में उदयन ने मुझे  एक विडिओ दिखाया जिसमें हिन्दी के महत्वपूर्ण लेखकों का मजाक उड़ाता हुआ एक KGB का एजेंट बतला रहा है कि कैसे उसने इन लोगो को लगातार मूर्ख बनाया. उसके साथ फोटो में सरदार जाफ़री और सुमित्रानंदन पंत भी दिखलाई दे रहे हैं. तब मैंने इसे लिखने की योजना पर अमल किया. यू ट्यूब पर उपलब्ध ये विडिओ देखने लायक है. वो जो कह रहा है कुछ ज्यादा है हमारे कविवर की प्रसिद्धि से.

इसमें कुछ ज्यादा तो नहीं लिख पा रहा हूँ ये बात आज से लगभग बीस इक्कीस वर्ष पहले की हैं. जो याद रह गया वो सब यहाँ है.    


 __________


छह
चेखव का घर बहुत ही खूबसूरत था. अन्तोन पावलोविच चेखव पेशे से डॉक्टर थे और मास्को में बने उनके घर का नीचे का हिस्सा दवाखाना था ऊपर के हिस्से में वे रहते थे. ऊपर घर में लिखने की मेज पर कलम,दवात और कुछ कागज रखे हुए थे. मानो अभी अभी चेखव नीचे दवाखाने में किसी मरीज को देखने गए हैं. चेखव कहते भी थे कि

“चिकित्सा मेरी विधि सम्मत पत्नी है और लेखन रखैल”

चेखव ने जितना लिखा है उसकी तुलना में वे शेक्सपियर के समकक्ष रखे जाते हैं किन्तु ये भी सत्य है कि जितना समय वो अपने मरीज को देखने जाने आने में लगाते थे उस कारण उन्हें लिखने का मौका कम मिलता रहा था. इस कम मिले मौके में जो लिखा है वो कम नहीं है. उनकी मेज के पास ही एक छोटा सा सोफा रखा हुआ है जहाँ वे सो जाया करते थे. उस सोफे की लम्बाई देखकर लगता है कि चेखव बहुत लम्बे नहीं हुआ करते होंगे. सुरुचि पूर्ण घर की सजावट और जमावट वैसी ही रखी गई है जो उनके समय रही होगी. ऊपर के हिस्से में दूसरी तरफ छोटा सा थिएटर बना हुआ था जो पत्नी ओल्गा निपर के लिए बनवाया था. ओल्गा नाटक करती थी और काफ़ी प्रसिद्द थीं. चेखव भी पत्नी को बहुत पास नहीं रखना चाहते थे उन्होंने शादी से पहले अपने दोस्त को लिखा था -

“यदि तुम चाहते हो कि मैं शादी कर लूँ तो मेरी ये शर्त होगी कि जब मैं देहात में रह रहा हूँ तो उसे मास्को में रहना होगा. मैं बीच-बीच में उससे मिलने आता रहूँगा. और वादा करता हूँ कि एक अच्छा पति साबित होऊंगा किन्तु मुझे ऐसी पत्नी चाहिए जो चन्द्रमा की तरह रोज-रोज मेरे आसमान पर खिला करे.

थिएटर पूरी तरह थिएटर था. हालाँकि इसे ओल्गा के लिए रिहर्सल करने के लिए बनाया गया था किन्तु वहाँ पचास लोगों के बैठने की व्यवस्था थी और मंच पर नाटक किया जा सकता था. सब कुछ स्थगित सा था. दवाखाना और लिखने की मेज आदि सभी जगह जीवन  मौजूद थे किन्तु यहाँ सब कुछ ठहरा हुआ सा है. सब भूतकाल का लग रहा था. इसमें होने वाला नाटक इसे वर्तमान से बाहर ले आये थे और इसे पीछे उस समय में धकेल दिया था जहाँ ये कभी सक्रीय गतिविधिओं का केन्द्र रहा होगा. रिहर्सल और अभिनेताओ का जमावड़ा, चिक-चिक, झगड़े और बहसों ने इस जगह को उसी समय में कीलित कर लिया था.

चेखव जो अपनी पत्नी से चाहते थे कि वे स्वतंत्र रूप से काम करें और उनके काम में सीधा दखल न दें उनके अंतिम समय में उनका ख्याल रखती थीं. अंतिम दिनों में वे उन्हें जर्मनी में एक स्पा ले गयी जो था जहाँ उनकी मृत्यु पर ओल्गा ने लिखा-

“अन्तोन असामान्य रूप से सीधे बैठ गए और जर्मन में जोर से साफ़ साफ़ बोले (हालाँकि उन्हें जर्मन नहीं आती थी) मैं मर रहा हूँ’  डॉक्टर ने उन्हें सांत्वना दी, उन्हें कपूर का इंजेक्शन लगाया और शेम्पैन मंगाई. अन्तोन ने ग्लास भर के शेम्पैन ली. उसे भरपूर देखा, मुझे देख मुस्कुराया और कहा बहुत दिनों बाद शेम्पैन पी रहा हूँ. एक घूँट में उसे ख़त्म किया और बायीं करवट लेकर लेट गए. मेरे पास इतना ही समय था कि मैं दौड़कर उनके पास जाऊँ उन्हें सीधा लिटा दूँ किन्तु उनकी साँस बन्द हो चुकी थी. वो एक बच्चे की तरह शान्त सो रहे थे

चेखव के घर ये सब यादें आना स्वाभाविक था. घर में उनकी मौजूदगी का गर्म अहसास था जो घर के हर कोने में महसूस किया जा सकता था.

इसके बाद लुडमिला मुझे साप्ताहिक हाट में ले गई. यहाँ कई तरह की वोदका बिक रही थी जो किसानों ने अपने घर में बनाई होगी. कुछ वोदका हम लोगों को चखने के लिए दी गई और वो इतनी ज्यादा थी कि खरीदने की सोचना शराबी का काम हो सकता था जो मैं नहीं हूँ,न ही लुडमिला थी. ये मैं हमेशा से सोचता रहा हूँ कि एक तरफ किसान अपनी सोच में बहुत सीमित होता है दूसरी तरफ उसका हाथ बहुत खुला होता है वो जब कुछ देगा तो इतना ज्यादा होगा जितने की जरूरत नहीं थी. हमलोग जब कॉलेज में लैंडस्केप करने गाँव जाया करते थे वहाँ यदि गुड़ बन रहा है किसान बिना माँगे इतना दे देगा कि हफ्ते भर खाने पर भी ख़त्म न हो. और किसी एक को नहीं जितने हैं सभी को देगा. हमारी हालत इस कहावत की तरह हो जाती थी गए थे नमाज़ पढ़ने, रोज़े गले पढ़ गए.

इस हाट में सभी तरह कि वस्तुएं मौजूद थी. खाने पीने से लेकर ओढ़ने पहनने तक की, फल, सब्जियां, डबल रोटी, दूध, तरह तरह की वोदका, एक तरफ भुने जा रहे कबाब दूसरी तरफ़ कोई स्थानीय खाद्य सामग्री, जिसकी गंध हमें उकसा भी रही थी और प्रेरित भी कर रही थी. लुडमिला बीच बीच में कुछ खरीद लाती और चखने को कहती, उसका उत्साह देखने लायक था और वो जिस रूचि से मुझे दिखा रही थी उसे भुलाया नहीं जा सकता. गुलामी, बेबसी, और आपसी जासूसी के खौफ़ के बाहर लुडमिला एक इन्सान कि तरह महक,चहक रही थी.



सात
उस हाट में हर तरह का सामान बिकने आया था. लुडमिला बतला रही थी इस हाट के लिए आस पास के गॉंव से किसान और दूसरे लोग सब आते हैं और हाथ से बनाये सामान का ये बड़ा बाजार है. वहाँ कुछ लड़कियाँ क्रोशिये से बनाई डिजाईन लिए बैठी थीं हम लोग देखने लगे. बहुत ही मेहनत और कल्पना से इन्हें बनाया गया था काम की बारीकी और बनाने का कौशल उसे खूबसूरत बना रहा था. पास ही में कुछ कलाकारों ने,हाथ से चित्रित केतली, कप, प्लेट और दूसरे बर्तन की, जिन्हें चित्रित करने के बाद में आग में पकाया गया था जिससे ये रंग इस्तेमाल करने पर न निकले, छोटी सी दुकान लगा रखी थी. वहीँ वो प्रसिद्द रुसी गुड़िया भी मिल रही थी जिसके अंदर एक के बाद दूसरी गुड़िया निकलती जाती है. किसी में छः किसी में आठ गुडियाएँ थी. दोनों तरह की मिल रही थी एक जो पूरी तरह से सजी धजी, चित्रित, दूसरी सिर्फ लकड़ी की जिसे आप खुद चित्रित कर सकते हो.

इस बाजार या हाट में हर तरह का सामान मिल रहा था और बहुत बड़े मैदान में लगा हुआ था. दुकानों के लम्बे लम्बे गलियारे थे. लुडमिला खाने के स्टाल की तरफ ले चली बोली कि  कुछ रुसी पारम्परिक व्यंजन खिलाती हूँ. वो नाम बता रही थी और कुछ जानना भी चाह रही थी कि मेरी दिलचस्पी किसमें है ? एक दो व्यंजन हम लोगो ने खाये एक दो चखे और कुछ हाथ में लिए हाट में घूमते रहे. उस दिन बहुत सा समय वहाँ बिता कर दोनों प्रदर्शनी में पहुँचे जहाँ oriental museum के निदेशक मेरा इन्तजार कर रहे थे. वे बहुत बेतक्कलुफी से मिले और उन्होंने प्रदर्शनी की सराहना की साथ ही भारत भवन के बारे में पूछताछ जारी रखी. इसके बाद उन्होंने मुझे आमंत्रित किया क्या मैं कुछ समय के लिए उनके संग्रहालय चल सकता हूँ ?
हम लोग तैयार थे वहां जाने के लिए. उनकी कार में मास्को के किसी छोर पर बने oriental museum पहुँचे. 

उन्होंने उत्साह से उनके संग्रहालय के बारे में बतलाना शुरू किया और वहाँ के महत्वपूर्ण कलाकृतियों को दिखलाया. इस बीच उनके एक सहायक ने आकर सूचना दी कि हम लोग उनके ऑफिस में आ सकते हैं. ऑफिस में मेज पर लगभग दोपहर के भोजन सा चाय नाश्ता रखा हुआ था. जितनी देर हम लोगो को जलपान में लगी उतनी देर में उनके सहायक ने कुछ और दिखाने के लिए निकाल लिया था. उन्होंने कहा अब मैं आपको हमारे संग्रह की छः महत्वपूर्ण कलाकृतियाँ दिखलाऊँगा. हम लोग एक दीर्घा में पहुँचे जहाँ उनके सहायक ने हुसैन की छः कलाकृतियाँ निकाल रखी थीं. मेरे लिए ये आश्चर्य का विषय इसलिए भी था कि मुझे उम्मीद नहीं थी कि किसी हिंदुस्तानी चित्रकार की कलाकृतियां देखने को मिलेंगी. वो भी हुसैन साहेब की जिन्होंने कम्युनिज़्म के खिलाफ चीन में बढ़चढ़कर बोला था और उन्हें दौरे के बीच में ही नेहरू ने वापस बुला लिया था जो वे नहीं आये (ये किस्सा फिर कभी). उन्होंने बतलाया हुसैन की प्रदर्शनी साठ के दशक में यहाँ हुई थी और उस वक़्त ये कलाकृतियां हम लोगो ने खरीदी थी. हुसैन के ये चित्र खूब थे. ये चित्र छोटे भी नहीं थे सभी छह फुट की लम्बाई लिए होंगे. चित्र हुसैन की खासियत के मुताबिक थे और हुसैन की पहचान लिए हुए थे. मेरी ख़ुशी का छोर न था. वे बतलाते रहे उस प्रदर्शनी के बारे में और उस घटना के बारे में जब हुसैन अचानक कहीं चले गए थे जो मुमकिन न था. चारों तरफ अफरा तफरी थी कि वो जा कैसे सकते हैं ? बाद में उन्हें ढूँढ निकला गया और उनके साथ एक व्यक्ति रखा गया कि वे नज़र में रहे. मैंने सोचा निश्चित ही वो KGB का एजेंट रहा होगा.

चित्र दिखा कर उन्हें जो शांति मिली वो उनके चेहरे पर झलक रही थी. इसके बाद उन्होंने ढेर सारे तोहफ़े दिए जिन्हे उनके संग्रहालय में ही बनाया गया था. हाथ के बने इन खूबसूरत तोहफ़ो में दैनिक रोजगार छुपा था. उनकी कार से ही हम लोग वापस प्रदर्शनी की जगह लौटे, वहाँ ओल्गा मेरा इन्तज़ार कर रही थी उसने बतलाया कि वो मुझे अपने स्टूडियो ले जाना चाहती है यदि कल सुबह मेरे पास कुछ समय हो तो ? मैंने लुडमिला को देखा कि क्या किया जाना चाहिए.

लुडमिला ओल्गा से रुसी में बात करने लगी. वे दोनों इस क़दर बातों में लगीं कि मुझे वहाँ खड़े रहना भारी लग रहा था. मैं धीरे से गैलरी में चला आया और जोगेन चौधरी का चित्र नटी बिनोदिनीध्यान से देखने लगा. जोगेन का यह चित्र एक रेखांकन है जिसे में रूस के एकान्त में पहली बार ध्यान से देख रहा था. ये उन दिनों का काम है जब जोगेन राष्ट्रपति भवन के संग्रहालय की देख रेख करते थे. एक युवा चित्रकार जिसका जीवन अभी शुरू नहीं हुआ है अपने एकांत में कुछ गोदा-गादी करता है और साधन सीमित होने से वो सिर्फ पेन और स्याही से चित्र बनाता है बिना किसी उम्मीद के. उन दिनों का यह रेखांकन प्रसिद्द नटी का है.

नटी की आँखें इस चित्र की खासियत है. सारा आकर्षण इन आँखों में आ बसा है. एक साधारण सी वेशभूषा में वो नटी है जो अपने हुनर से लोगो को कायल कर लेती है. उसका हुनर उसकी आँखों से टपक रहा है. काले सफ़ेद इस रेखांकन के कागज़ का रंग कुछ पीला होना शुरू हो गया था जिससे ये चित्र अब उस काल का ही लग रहा है जिस काल में बिनोदिनी मंच पर उतरा करती होगी. जोगेन की एकाग्रता इस चित्र में भाव पैदा कर रही थी. चित्र को ध्यान से देखने का मौका मुझे कुछ और मिलता यदि ओल्गा और लुडमिला न लौट आते. लुडमिला ने बतलाया कि मैं ओल्गा के साथ जा सकता हूँ और अगर मेरी इजाजत है तो कल वो छुट्टी मना सकती है. मुझे पूरा दिन लगेगा स्टूडियो में. मैंने ओल्गा को देखा वो उत्सुक थी और खुश भी. हम लोग कैफ़े में चले आये जहाँ कॉफ़ी पीते हुए इस पर विचार किया जाना है कि कल का क्या कार्यक्रम रहेगा.



आठ
दूसरे दिन ओल्गा सुबह सुबह मस्कवा होटल मुझे लेने आ गई. मैं तैयार ही था सुबह एक दौरा क्रेमिलन के उन खूबसूरत से दिखने वाले संत बाँसिल cathedral  और लाल चौक (Red Square ) कर आया था. ये घूमना उन हिदायतों के खिलाफ था और घातक हो सकता था जो हम सब लोगो को लगातार दी जाती रही. किन्तु उस दिन की सुबह ही खूबसूरत थी जिसने मुझे प्रेरित किया लाल चौक तक घूम आने को. इसका नाम रेड स्क्वायर कम्युनिज़्म आने के बहुत पहले ही से था. हम लोग या दुनिया भर में लोग इसे कम्युनिस्ट पार्टी के लाल रंग के  प्रतीक से जोड़ते हैं जो बिलकुल ही गलत है और न ही वहाँ लगी लाल रंग की ईटों के भरपूर इस्तेमाल के कारण. रुसी भाषा में एक शब्द है क्रासनायाजिसका अर्थ लालऔर खूबसूरतहै. ज़ार अलेक्सेई मिखाइलोविच ने यह नाम चौक के लिए रखा था जिसे पहले पॉज़ारयाने जली हुई जगह कहा जाता था. इस चौक को बढ़ाने के लिए लिए कुछ पुराने घरों को जलाया गया था. जब से ये जली हुई जगह के नाम से जाना जाने लगा था.

यह रेड स्क्वायर वास्तव में बहुत दर्शनीय है. एक तरफ क्रेमलिन राजमहल है उसी के साथ यह जगह जहाँ परी कथाओं में वर्णित सा यह कैथेड्रल और उसके चारों और खुले वातावरण में उसकी भव्यता किसी को भी आमंत्रित करती है. भगवान को ताले में बंद दुनिया भर में किया जाता है सो यहाँ भी चर्च बंद था. सुबह के पवित्र वातावरण में आप भगवान से नहीं मिल सकते इसकी जिम्मेदारी उन दो विशाल दरवाजो की थी जिन्हे भीतर से बंद किया गया था. उस सुनसान सुबह मैं लाल चौक का चक्कर लगा रहा था और उसके आकर्षण में डूबा मुझे ये ख्याल भी नहीं था कि किसी तरफ से भी कम्युनिस्ट आकर मुझे लूट सकते हैं, मार सकते हैं, कुछ नहीं तो धमका सकते हैं. कल ही की बात थी किसी कलाकार ने बतलाया था कि कुछ लूटेरे उसके पीछे बहुत दूर तक भागे थे रुसी में चिल्लाते हुए जिसका अर्थ उसने अपने मन से ये लगाया था कि वे कह रहे थे वापस जाओ, वापस जाओ. क्रेमलिन की खूबी,  खूबसूरती और वैभव उस ज़ार समय की यश गाथा कहती है जिसका पूरा खानदान क्रांति की शुरुआत में मार दिया गया था और रूस उस संघमें बदला जिसका पतन सत्तर साल बाद होने वाला था. इस पतन दौर में बहुत सी उपलब्धियां संघके खाते में हैं किन्तु मानवीयता का हास, मनुष्यता का सबसे निचला स्तर भी इन्ही सत्तर सालों में हासिल किया. दिल दहला ने वाले किस्से, सामूहिक क़त्ल, भीषण यातनायें, बलात्कार और मनुष्य के पाशविक रूप को हिटलर के कृत्यों के पीछे छुपाया गया. इसके लिए बहुत से जतन हुए और वे सब मनुष्यता के गिरने के उदहारण ही बने.

युद्ध के अपराधों के लिए चली Nuremberg Trials नाज़ी दौर के लोगो पर लागू हुई किन्तु लेनिन और स्टालिन के दौर पर नहीं. ये चलना चाहिए. न सिर्फ इन पर बल्कि उन सब लोगो पर जो इसका हिस्सा रहे हैं. उसकी आँखों में आंसू मैं देख सकता था वो कल रात ये सब बतला रही थी. लुडमिला का दुःख मैं समझ सकता था किन्तु कोई सलाह नहीं दे सकता था. उसके बचपन का आतंक उस पर हावी है. मैं कल्पना कर सिहर रहा था और उसने तो भुगता है. वो जब बोलना शुरू करती है मानो दुःख का, दर्द का, पीड़ा का, संसार आपके सामने रख रही है. मैं इस संघ को नहीं जानता था लुडमिला ने मेरे सामने एक दूसरा संघ रखा जिससे मैं अनभिज्ञ था मैं ही क्यों हिन्दुस्तान में आज भी बहुत से लोग इन बातों को नहीं जानते हैं और कुछ जो जानते हैं बतलाते नहीं मानो उनके खानदानकी पोल खुल रही है. एक जिम्मेदार मनुष्य की कल्पना उन्हें नहीं है. या उनकी कल्पना में जिम्मेदार मनुष्य नहीं है.

ओल्गा सुन्दर लग रही थी. उसने स्कर्ट और टॉप पहना हुआ था जिस पर लम्बे जूते उसकी पिण्डलियों तक आये हुए थे. ओल्गा ने बतलाया एक स्टेशन तक हम मेट्रो से चलेंगे फिर ट्रेन से. कुछ ही देर में हम लोग उस भव्य मस्कवा मेट्रो स्टेशन पर टिकट खरीद कर मेट्रो में बैठ चुके थे. मेट्रो का हर स्टेशन दूसरे से अलग और बेहद खूबसूरत था. स्टेशन में लम्बे-चौड़े दालान, खुली जगहें, मूर्तियाँ और उनकी सजावट, रौनक आपको यह अहसास नहीं होने देती कि आपकी मेट्रो मस्कवा नदी के नीचे से गुजर रही है. ये सब भी हुआ उसी लाल’घृणित समय में.


आज का युवा इस बात को गर्व से नहीं बतलाता बल्कि उसे शर्म है अपने पिछले सत्तर सालों पर. ओल्गा अपनी धीमी आवाज़ में अपने सेन्टर के बारे में बता रही थी जहाँ हम जा रहे थे. ओल्गा मास्को की नहीं है वो यूक्रेन से आयी है. यहाँ एक कमरा किराये से लेकर रह रही है और काम करने रोज उसे वहाँ जाना होता है. उसकी नीली आँखें गहराई से देखती हैं और यहीं उसने रुसी भाषा में महाभारत की किताब किसी स्टोर पर देखी थी. पढ़ने के बाद महाभारत के चरित्र उसके साथ रहने लगे. फिर इसी जूनून में उसने उन पात्रों को चित्रित करना शुरू किया. ओल्गा के प्रिंट कलात्मक कौशल और कल्पना की उड़ान को समेटे थे. इन्हे देखकर नहीं लगता कि छापाकार रुसी होगा. मैं उसकी बातों और आने जाने वाले स्टेशन के बीच साम्य बैठा रहा था. ओल्गा कई बार इतना धीरे बोलती थी कि सुनने के लिए गौर करना होता था और स्टेशन उसमें व्यवधान बन लटक रहे थे. लम्बी यात्रा हमें मास्को के अंतिम छोर पर ले आयी है इसका पता बाहर निकल कर ही हुआ. यहाँ सब कुछ बदला हुआ था. कस्बे सी जगह थी और हम लोग मेट्रो स्टेशन से लगे हुए ट्रेन स्टेशन पर अगली यात्रा के लिए अपना टिकट खरीद रहे थे. टिकट खरीद लेने के बाद ओल्गा ने कहा कुछ wine खरीद लेते हैं. उसने कसकर मेरा हाथ पकड़ लिया और रुसी कद्दावर महिला की भाँति तेजी से बाज़ार की ओर चल पड़ी. मुझे आश्चर्य हुआ कि उसने मेरी कलाई इतनी जोर से पकड़ रखी है मानो मैं गुम जाऊँगा.


नौ
ओल्गा ने रुसी वाइन, ऑलिव और कुछ खाने का सामान ख़रीदा. इस बीच उसने मेरी कलाई छोड़ी नहीं. अभी ट्रेन के आने में समय था ओल्गा ने बतलाया ये मास्को के बाहर का एक गॉंव है, जिसकी जनसँख्या हज़ार होगी किन्तु उसका बाजार मैं देख रहा था भरा पूरा किसी शहर के बाजार के कोने सा था जैसे इंदौर का मारोठिया बाजार. हम लोग भटकते रहे मैंने पूछा तुमने मेरा हाथ क्यों पकड़ रखा है ? उसने मुझे चुप रहने का इशारा भर किया. मैं समझ गया शायद मेरी सुरक्षा के लिए. ओल्गा ने कहा कुछ और वाइन खरीद लेते हैं और जवाब मैं क्या देता- वो खरीद रही थी. अब हमारे पास पर्याप्त वाइन और खाने का सामान था. ये सब लेकर हम लोग ट्रेन स्टेशन पर आ गए कुछ ही समय बाद ट्रेन भी आ गई. ट्रेन में चढ़ने का दृश्य अपने यहाँ की किसी भी ट्रेन में चढ़ने जैसा ही हो सकता है इसका अनुभव मुझे हुआ. जब ट्रेन चली तो हम लोग ठसाठस भरी ट्रेन के डिब्बे में हिचकोले खा रहे थे.

डब्बे में स्त्रियां ज्यादा थी, पसीने और इत्र की मिली जुली गंध उस वक़्त तक माथा ख़राब करती रही जब तक मैं उसका अभ्यस्त नहीं हो गया. मुझे अहसास हुआ कि ओल्गा मुझे लेकर महिलाओं वाले डिब्बे में चढ़ गई है. मुझे कोई पुरुष दीख ही नहीं रहा था वहाँ सब रुसी महिलाएं थीं ज्यादातर गोर्की के उपन्यास माँ से निकलकर आयीं थीं. रुसी उपन्यासकारों का अपने समाज से इतना गहरा सम्बन्ध होगा इसका प्रमाण डब्बे में मौजूद था. वे लगातार बोल बतियाँ रही थीं. इतने दिनों में मैंने ये भी पाया कि रुसी महिलाएं कर्मठ हैं. पुरुष वोदका का भोग लगाए टुन्न यहाँ वहाँ दिखते हैं किन्तु महिलाएं हमेशा काम करती हुई दिखी. हमारी ट्रेन अब रफ़्तार पकड़ चुकी थी और ओल्गा ने कहीं बैठने की जगह खोज निकाली थी. वो चाहती थी मैं बैठ जाऊँ किन्तु उन महिलाओं के बीच बैठने से ज्यादा बेहतर मुझे खड़े रहना लगा.

सितम्बर का अन्तिम सप्ताह था मौसम में ठंडक बढ़ रही थी इसलिए डिब्बे की खिड़कियाँ बंद थी. डिब्बे में मौजूद ठहरी हवा में पसीने की गहरी गंध और इत्र की हलकी सुगन्ध मुझे बस बेहोश होने से बचाये हुए थी. सभी यात्री इस गंध के आदि थे जो रूस की महिलाओ की गंध थी. मैं अकेला इस गंध से परेशान था बाकि सब बातचीत में मशगूल थे. ट्रेन की रफ्तार बढ़ती जा रही थी और हम लोग अब खुले मैदानी इलाके में से गुजर रहे थे. दोनों तरफ खेत, वृक्ष, कभी कभी जंगल का टुकड़ा दिखलाई दे जाता था. लगभग एक घण्टे की यात्रा के बाद हम लोग किसी निर्जन स्टेशन पर उतरने वाले हम दो ही थे.

स्टेशन से बाहर निकल एक सड़क पर आस पास देखते हुए जा रहे थे. मैंने देखा चारों तरफ घने पेड़ हैं और बहुत से पक्षी बोल रहे हैं ओल्गा ने बतलाया ये स्टूडियो शहर से बाहर है. यहाँ सारी सुविधाएँ हैं और यहाँ काम करने के लिए जगह मुफ्त दी जाती है. मास्को शहर की कला परिषद में जिन कलाकारों का नाम है ये सुविधा सिर्फ उन्हें ही मिल सकती. करीब पन्द्रह मिनट चलने के बाद हम लोग उस जगह आ चुके थे जहाँ स्टूडियो बने हुए थे. ये एक बड़ी सी जगह थी. प्रिंट बनाने के लिए ये अकेला स्टूडियो था. ओल्गा मुझे अंदर सभी जगह घुमा लायी. वहाँ काम कर रहे कुछ कलाकारों से मिलवाया उनके साथ टूटी फूटी बात की. ज्यादातर कलाकारों को अंग्रेजी नहीं आती थी और ओल्गा मेरे दुभाषिये की तरह थी. ये कलाकार यहाँ काम करते हैं और शाम को सब साथ बैठ कर वोदका पीते हुए अपनी कला चर्चा में आलोचना को शामिल रखते हैं.

ओल्गा अपने स्टूडियो में ले गई जहाँ उसकी एचिंग प्रेस और काम करने की मेज थी वहीँ कुछ कुर्सियाँ, एक छोटा सा बिस्तर और कमरा गर्म रखने का हीटर. मैंने उससे पूछा तुम मेरा हाथ क्यों पकडे हुए थीं ? ओल्गा बताने लगी. लेनिन ने क्रान्ति के तुरन्त बाद शायद दिसम्बर में (क्रान्ति अक्टूबर में हुई) सोवियत संघ सुरक्षा के लिए भक्तों की एक सेना बनाई थी जिसका प्रमुख फेलिक्स ज़र्ज़िंस्कीनमक एक पोलिश सामन्त को नियुक्त किया, जिसने हाल ही में कम्युनिस्ट बनना स्वीकार किया था. उन्नीस सौ अठारह तक चेका भक्तों के सैकड़ो संघ बना दिए (क्रान्ति १९१७ में हुई थी) जिनका काम सिर्फ आतंक फैलाना था, गुप्त सुचनायें इक्कठी करना, जासूसी करना, और राज्य के लिए चेका भक्त सोवियत संघ के वफ़ादार सैनिक थे वे देश सेवा में कुछ इस तरह लगे रहते कि ट्रेन में कोई महिला राशन लेकर गलती से या जल्दी में चेका डब्बे में चढ़ गई तो पूरे डब्बे के चेका भक्त उसे बतलायेंगे कि ट्रेन में राशन लेकर चढ़ना गैर कानूनी है. यदि उसे राशन लेकर घर जाना होता है तब उन पच्चीस-तीस भक्तों को भुगतना होगा.  

मैंने कहा चेका भक्त से मेरा क्या काम ? मुझे तुमने क्यों पकड़ रखा था ? ओल्गा ने कहा इन चेंकिस्ट ने सत्तर सालों में बलात्कार, हत्या, लूट, राहजनी, बूढ़े-बड़े लोगो की हत्या आदि राज्य को सुचारु रूप से चलाये रखने के लिए भरपूर की. अब उनके पास काम नहीं है. किन्तु  वे लोग अब भी यही करते हैं. लेनिन की ये सौगात रूस में अभी भी जिन्दा है. मुझे डर था तुम्हे अकेला देख कर लूट पाट न लें. ये अब माफिया की तरह काम करते हैं. इनका संगठन गैर कानूनी रूप से चल रहा है.

लेनिन को रूस भूल नहीं सकता उसने लूटने के नए नए उपाय खोजे, आतंक, लूटपाट, हत्या, भ्रष्टाचार का यदि कोई पर्याय है तो उसका नाम व्लादिमीर है. उसका नया सूरज, नयी सुबह लेकर आया नहीं.

ओल्गा की आवाज में खरखराहट आने लगी थी. उसने भी, उसके परिवार ने भी शायद  कम्युनिस्ट आतंक देखा होगा जो आवाज के पीछे से आवाज लगा रहा था. मैंने बात बदलते हुए कहा तुम्हारा ये सेन्टर बहुत सुन्दर जगह है जंगल के बीच जहाँ किसी तरह का व्यवधान नहीं है. शहरी शोर शराबा और आवाजाही से दूर. क्या इस जगह सिर्फ ट्रेन से आ सकते हैं ? कोई और साधन से नहीं?

नहीं यहाँ वो ट्रेन स्टेशन ही आने के लिए उपयुक्त है. कार से आ सकतें हैं किन्तु किसी कलाकार के पास कार नहीं है. मेरे पास भी नहीं. कार रखना खर्चे का काम है. ट्रेन से आना जाना बहुत सस्ता है.

क्रांति अच्छी हो सकती थी यदि वो अपने लोगो का सम्मान करना सीख जाती.


अंतिम
रुसी छापा कलाकारों के लिए बनाये गए केन्द्र चेलुसकिन्स्काया ( Cheluskinskaya ) में पूरा दिन गुजरने के बाद मैं और ओल्गा वापस लौट आते हैं. यहाँ ओल्गा ने मुझे उसके कुछ पुराने काम भी दिखाए जिसमें रुसी दृश्य और रुसी चरित्र भरपूर थे. ओल्गा के छापों में महाभारत छिड़ने के बाद बड़ा परिवर्तन आया. मानो कोई मुकाम हासिल हुआ हो. ओल्गा को महाभारत के सभी चरित्रों से लगाव हो गया था. उसने उनका गहन अध्ययन किया था. उनके बारे में कोई भी कुछ बताये तो वह सब काम छोड़कर सुनने बैठ जाती. दोपहर में ओल्गा ने मुझे रुसी खट्टी वाइन पिलाई जो मुझे पसन्द नहीं आयी. ऑलिव भी खट्टे ही थे सो मैंने उन्हें भी दूर रखा. ओल्गा के सामने ये समस्या थी कि वो कहाँ से मेरे लिए कुछ खाने का जुगाड़ करें. ओल्गा उसी में बिंधी रही और ये सब देखते दिखाते शाम हो गई थी. ट्रेन का समय भी हो गया था. इस ट्रेन के चले जाने पर दूसरी ट्रेन देर रात है और ओल्गा को अपने कमरे पर समय से पहुँचना होता है. ओल्गा थोड़ा खुश भी थी और कुछ दुखी भी कि खाने का प्रबंध नहीं हो पाया था.

दूसरे दिन मैंने लुडमिला को याद दिलाया कि कल सुबह मेरे जाने के लिए कार का प्रबंध करना होगा दूसरा मेरा फ़ोन का बिल अभी तक नहीं मिला. दूतावास के कर्मचारी ने जब फ़ोन बिल भरने की सूचना दी थी तभी मैंने लुडमिला को बतलाया था कि मैंने एक फ़ोन अनु को किया था मेरे पहुँचने का उसका बिल चुकाए बगैर नहीं जाना चाहता हूँ अतः मुझे बतलाया जाये कि कहाँ भुगतान होगा. लुडमिला में उसी दिन कहीं फ़ोन किया और मुझे बिल भेजने की गुजारिश की. उस दिन का दिन है और आज का वो बिल नहीं आया.

लुडमिला ने कार का प्रबन्ध कर दिया और मुझसे कुछ आश्चर्य से पूछा कि अभी तक बिल नहीं आया ? उसने कहा अब कोई समय नहीं बचा है चलो वहीँ चलकर भर देते हैं. हम दोनों लिफ्ट से नीचे आये और वो मुझे एक लॉबी में ले चली. मस्कवा होटल बहुत बड़ा था और उसके अन्दर कई गलियारे और लिफ्ट से गुजरने के बाद हम ऑफिस नुमा जगह पर पहुँचे. जहाँ लुडमिला ने काउंटर पर बैठी लड़की से मेरा कमरा नम्बर बता कर बिल देने को कहा और मुझे नहीं पता था कि उसने मधुमक्खी के छत्ते में हाथ डाला है. लगभग एक घण्टा हम दोनों वहाँ खड़े रहे और वो दस या बारह लड़कियां और कुछ मर्द मेरा बिल बनाने का काम करते रहे हम देखते रहे वो चलते रहे, आते जाते रहे, बीच बीच में हमें देख कर मुस्काते भी रहे किन्तु बिल था कि बन ही नहीं रहा था. लुडमिला मुझसे बोली अब मुझे पक्का भरोसा हो गया कि ये सब कम्युनिस्ट हैं (उसने रुसी में कोई गाली दी) ये लोग रिश्वत चाहते हैं बिल देने के लिए.

मैं देख रहा था खूबसूरत लड़कियाँ कम्युनिस्ट कैसे हो सकती हैं ? और ये रिश्वत चाहेंगी ? मुझे झूठ लगा. किन्तु वो सही थी. उसने काउन्टर पर जाकर पूछा और कितनी देर लगेगी ? लड़की ने कोई जवाब नहीं दिया काम करती रही. लुडमिला का धैर्य जवाब दे रहा था. उसने थोड़ी ऊँची आवाज में दोहराया. अब एक लड़की ने उस की तरफ देखा और कहा कुछ समय लगेगा. मेरे ख्याल से लुडमिला को अब तक नाराज हो जाना चाहिए था किन्तु वो चुप रही और मेरे पास आयी बोली निकाल रहे हैं.

मस्कवा होटल वाकई बहुत बड़ी है और सारे काम इस छोटे से ऑफिस में होते हैं. इसमें काम करने वाले लगातार किसी न किसी काम में व्यस्त दीख रहे थे. मुझे नहीं पता कि वो मेरा बिल का काम कर रहे थे या कुछ और किन्तु उन सबकी व्यस्तता फ़िल्मी थी. अब तक बहुत सा समय  बीत चुका था और एक बार फिर लुडमिला गई और बिल चाहा. उन्होंने क्या जवाब दिया  ये तो मुझे पता न चला किन्तु लुडमिला ने उनसे कहा तुम सब कम्युनिस्ट हो.

उसका यह कहना आग में घी का काम कर गया. थोड़ी ही देर में वे सब एक तरफ और हमारी बहादुर लुडमिला दूसरी तरफ. दोनों तरफ से चीखती हुई आवाजें और गुस्सैल चेहरे एक दूसरे को याने वो सब दूसरी लुडमिला को जवाब दे रहे थे. सिर्फ एक शब्द बीच बीच में मुझे समझ आता कम्युनिस्टजिसके बाद वो सब एक बार फिर भड़क जाते और मद्धिम पड़ती आवाजों में फिर जान आ जाती. ये सब दस मिनिट चला होगा इसके बाद गुस्से में तमतमायी लुडमिला मेरे पास आयी और बोली चलें. मैंने भी देख लिया कि वो खाली हाथ हैं और अब उसे कुछ और करना है जिससे मेरा बिल मुझे मिल सके.

लुडमिला ने बतलाया कि बिल आपके कमरे में दे दिया जायेगा. कब ये नहीं पता. और वो बिल कभी नहीं आया. लुडमिला ने बतलाया आजकल यहाँ कम्युनिस्ट एक गाली की तरह इस्तेमाल होता है. अब जितने भी कम्युनिस्ट बचे हैं वे गिरी हरकतों से बाज नहीं आते  जिससे लोगो में रोष फैला है. ये सारे कम्युनिस्ट अपनी बर्बादी के लिए दूसरे पर दोष मढ़ते हैं खुद कुछ नहीं करते. इन अवसरवादी, लालची, दोहरे चरित्र वाले कम्युनिस्टों से निपटने का रास्ता नहीं मिल रहा. सब भेड़िये की तरह झुण्ड बना कर एक हो जाते हैं. देखा नहीं वो सब एक होकर मुझसे लड़ रहे थे. उन्हें अभी टुकड़ा डाल देती दुम हिलाते हुए बिल ले आते.

मगर मैं क्यों दूँ ? लुडमिला का गुस्सा शान्त हो रहा था उसकी आवाज में मिठास आ रही और मेरा मन अब कहीं जाने का न था. मुझे इंतज़ार करना था उस बिल का जो न आने वाला है. लुडमिला ने कहा चलो लेनिन के Mausoleum चलते हैं. वहाँ उसका शव रखा है. लाल चौक पर ही ये जगह थी हम लोग वहाँ गए और उसमें घुसने के पहले मैंने कहा नहीं मैं नहीं देखना चाहता उस व्यक्ति को जिसने हज़ारों बल्कि लाखों बेगुनाह को एक गलत विचार के लिए मार दिया. लुडमिला प्रसन्न थी. उसे सॅन्डविच खाना था मुझे जूस पीना था.

दूसरे दिन दूतावास की गाड़ी सुबह ही आ गयी थी. उसे मैंने कहा मैंने फ़ोन का बिल नहीं दिया है.
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परख : अपना ही देश (मदन कश्यप)

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'बन्नी दाई बन्नी दाई 

मुझे बचाओ मुझे बचाओ 

मेरी आंखों पर बंधी पट्टी खोलो 

मेरे अंतस पर जड़ा ताला तोड़ो

मेरा पूरा वज़ूद दब रहा है बज्र किवाड़ से
मुझे बचाओ बन्नी दाई ?' 



अपने ही देश में बेगाने                          
अर्पण कुमार 


दन का कवि सूक्ष्म मनोभावों को बड़े करीने से उकेरता रहा है. अपने आसपास को लेकर सजग कवि अपनी कविताओं में मुख्यतः अपनी दृष्टि और अपने अनुभव के दो सन्दर्भ बिंदुओं को लेकर चलता है. कविता उसकी इसी यात्रा का हासिल होती है.इससे उसकी रचनाओं का 'लोकेल'हमारे सामने आता है. 'लेकिन उदास है पृथ्वी' (1992) से लेकर प्रस्तुत संग्रह 'अपना ही देश' (2015) तक मदन के कवि की यात्रा ज़ारी है. यद्यपि इस बीच मदन के आलेखों के कई संग्रह भी हमारे समक्ष आए.
(मदन कश्यप)

प्रस्तुत संग्रह 'अपना ही देश'में उनकी एक कविता है 'बहुरुपिया'. बहुरुपियों से भरे इस समाज में हमारा आए दिन ऐसे मुखौटाधारी लोगों से वास्ता पड़ता रहता है. कवि इनके मुखौटों को उतार फेंकने का काम करता है. कुछ समय पहले तक आदर्श रहे शख़्स का असली चेहरा हमारे सामने प्रकट हो जाता है. ऐसे में इन सबके बीच एक नटी 'बहुरुपिए'को लाकर कवि इस विषय की व्यंजना को बहुगुणित कर देता है. इस कविता के माध्यम से हमारे परिवेश और समय में होते तमाम परिवर्तनों के बीच कवि एक लाचार बहुरुपिए के दर्द को समझने की कोशिश करता हैं. एक व्यक्ति जो हनुमान का वेश धारण कर और अपने करतबों से लोगों को आकर्षित कर कुछ पैसे कमा लेना चाहता है. मगर उसका यह रूप बहुत प्रभावी नहीं बन पाता है और लोगों के लिए उसके इस रूप का अब कोई ख़ास कौतुक नहीं रह गया है. कवि उसकी इस बेबसी को

देखिए किस तरह पकड़ता है :-
'बनने की विवशता
और नहीं बन पाने की असहायता के बीच
फंसा हुआ एक उदास आदमी था वह
जो जीने का और कोई दूसरा तरीक़ा नहीं जानता था'
('बहुरुपिया', पृष्ठ 26)

चर्चित कवि मदन कश्यप का यह नवीनतम काव्य संग्रह 'अपना ही देश'कई मायनों में एक उल्लेखनीय संग्रह बन पड़ा है. निरंतर कविता-लेखन में सक्रिय मदन का यह पाँचवा काव्य-संग्रह कविता के प्रति हममें आश्वस्ति का भाव उत्पन्न करता है और कविता-विरोध के कथित किसी स्वर पर कुछ विराम भी लगाता है. हमारे समय की क्रूरता और उसके बहुरूपिएपन को बेबाकी से उजागर करता हुआ एक कवि, वर्तमान समय के अवसरवाद, उसकी असंवेदनशीलता और कट्टरता  के खिलाफ अपनी रचनाओं में स्वयं लामबंद होता अपनी रचनाओं से हमें सचेत करता दिखता है.

'बिजूका', ‘दिल्ली में गैंडा’, ‘मेटाफर’, ‘हवाई थैला’, ‘पुरखों का दुःखजैसी कविताएँ इसका प्रमाण हैं. इस संग्रह में कई कविताएँ लड़कियों/स्त्रियों और उन पर होने वाले अत्याचारों पर है. निठारी हत्याकांड में बलात् मारी गईं और दुष्कर्मों की शिकार हुईं लड़कियों को केंद्र में लिख कर लिखी गई कविताएँ 'निठारी : एक अधूरी कविता', ‘निठारी की बच्ची’, ‘निठारी में ज़रथुष्ट्रसंग्रह की महत्वपूर्ण और आवश्यक कविताएँ है. अन्यथा दिल्ली के सब-अर्बन के रूप में जाने जाने वाले नोएडा और उसके ग्रामांचल को दिल्ली के घुटने के रुप में एक कवि ही चित्रित कर सकता है. अभिव्यक्ति की यह वक्रता मदन के लेखन में कई जगहों पर दिखती है. 'अपना ही देश'कविता, इस संग्रह की शीर्षक कविता है, जो एक तरह से कवि की पूरी काव्य यात्रा की प्रस्तावना प्रस्तुत कर देती है. यह कविता न सिर्फ़ इस संग्रह के बीज वक्तव्य की सी है, बल्कि इसके माध्यम से कवि ने ऐसे कई अनुत्तरित सवालों को उठाया है जो लंबे समय से अपना जवाब ढूँढ़ रहे हैं :-

'ये नदियाँ हमारी बहनें हैं
इन्हें इंगलिश बियर की तरह गटकना बंद कीजिए'
(पृष्ठ संख्या 98).

मदन की कविताओं में जीवट है, जो ज़िंदगी और साहित्य दोनों का ही जीव-द्रव्य है. सपनों के पाले जाने, कुछ बड़े सपनों को बनाए रखने की ज़िद के साथ वहाँ बेबसी आती है मगर उस बेबसी के साथ कवि का हौसला और उसकी उम्मीद भी संग होती है. दर्दनाक चित्रण में भी कवि कुछ बेहतर की संभावनाओं को तलाशता है. इसे और प्रभावी रूप में हम उनकी कविता 'करीम भाई'में देख सकते हैं. करीम भाई को संबोधित इस कविता का 'विट'बड़ा प्रभावी है. हवा में लाठी भांजते और पसीने से लथपथ होते करीम भाई से कवि कई सवाल करता है और साथ ही कुछ कुछ टिप्पणी करता चलता है. इस सवाल -जवाब में कुछ ऐसी बारीकियां हैं कि वहां संवाद में ही कवित्व संभव हो पाता है.  एक तरफ़ संवेदनशीलता की यह बारीक़ी देखें :-

हवा तो वैसे भी पिटती रहती है
बंदूक की गोली छाती भेदने से पहले
हवा को छेदती है
चांटा हवा को पीट कर ही
किसी के गाल पर बरसता है
फिर भला हवा को अलग से क्या पीटना
(पृष्ठ 23)

मगर कवि खुद ही इसका उत्तर देता है. वह लिखता है :-

मान गया करीम भाई
जब हर चीज़ के साथ हवा पिटती है
तो क्यों न कोई हवा को पीटे
कि उसके पिटने से एक दिन वह भी पिट जाएगा
जिसे हम पीटना चाहते हैं.
(पृष्ठ 24)

ज़ाहिर है यहाँ कवि और करीम भाई  दोनों एक हो गए हैं या कहिए स्वभावतः कवि दुनिया के सभी करीम भाइयों के साथ खड़ा है. एक मामूली आदमी के आक्रोश को इससे बेहतर ढंग से नहीं लिखा जा सकता है. जब अपने से बड़े किसी ताकतवर से लड़ना होता है तो उसके लिए हौसला एक दिन में नहीं आ जाता. यह एक सुदीर्घ प्रक्रिया होती है. कवि अपनी इस कविता में उस मनोविज्ञान को हवा पीटने जैसे बहुप्रचलित मुहावरे का उपयोग करते हुए उसमें कई रंग भर देता है. फिर हवा पीटना कोई निरर्थक कार्य नहीं रह जाता है. कह सकते हैं की निरर्थकता के भीतर सार्थकता ढूंढ़ लेना ही सच्चा कवि कर्म है और मदन इसमें दीक्षित नज़र आते हैं.

मदन यथार्थ के साथ आशा के और करुणा के साथ संबल के कवि हैं. मगर उनकी आशा कोरी नहीं है और उनका संबल निराधार नहीं है. 'नीम रोशनी में'( 2000) फैली 'दूर तक चुप्पी' (2014) उनके इस कवि-स्वभाव से हमारा परिचय करा देती है.  'कुरुज' (2006) में संकलित कविताओं की अंतर्धारा से हम सभी अवगत हैं, जहाँ शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद की गई है. कह सकते हैं कि मदन का कवि देशजता की भंगिमाओं से लैस है और स्थानिकता के चटख रंगों के साथ राष्ट्र के एक बड़े, समरूप और प्रगतिशील फलक की उनकी रचनाओं में आकांक्षा व्यक्त की गई है. निःसंदेह कवि के लिए देश एक भौगोलिक इकाई मात्र तो है नहीं.

वह इसके साथ सांस्कृतिक, आर्थिक और राजनीतिक इकाई भी है और इन इकाइयों के भी कई उपभेद हैं. देश जिसमें कोई कवि रहता है, वह उसे समग्रता में देखता हुआ, उसकी संपूर्णता को जीता हुआ उसकी विडंबनाओं की ओर भी इशारा करता है. कवि कर्म की चुनौती भी यही है. इससे उसके देशप्रेम में कोई कमी नहीं आती  है, जैसा कई बार उसके ऊपर आरोप लगा दिया जाता है. हाँ, वह अपने देश-परिवेश के प्रति सजग और 'क्रिटिकल'होता है और उसे सचमुच में लोकतांत्रिक और अत्याचार-मुक्त स्वरूप में देखने की अभिलाषा रखता है.

यहीं पर अल्बेयर कामू की यह पंक्ति याद हो आती है, "मैं अपने देश को इतना प्यार करता हूँ कि राष्ट्रवादी नहीं हो सकता."ज़ाहिर हैनिष्ठा बहुत हद तक एक व्यक्तिगत नज़रिया है. चीज़ों को अलग अलग तरीके से देखने के पीछे आपसी असहमति तो हो सकती है, मगर इसके आधार पर किसी को खांचाबद्ध करना उचित नहीं है. राजनीतिक एवं सामाजिक रूप से सजग मदन अपनी कविताओं में कई बड़ी ख़बरों को अपनी कविता का विषय बनाते हैं.

तब वे तथ्यों की पुनरावृति मात्र नहीं कर रहे होते बल्कि लोमहर्षक घटनाओं से आहत एक कवि अपने समय को अपने तईं पूरी संवेदना में दर्ज कर रहा होता है और कई बार उन पक्षों की ओर भी इंगित कर रहा होता है जो कविता में ही आत्मीय और भावपरक रूप में प्रकट हो सकते हैं. मतलब यह कि एक तरफ़ कवि घटनाओं से प्रभावित होता है तो दूसरी तरफ़ उसपर यह ज़िम्मेदारी भी आ जाती है कि घटनाएँ कविता में उस तरह सीधे-सीधे और कोरे अभिधात्मक रूप में दर्ज़ मात्र न हो जिस तरह वे ख़बरों में हो पाईं थी. यहीं पर साहित्य और पत्रकारिता के बीच की बारीक़ रेखा हमारे सामने आती है और तात्कालिकता से आगे जाने की साहित्य की चुनौती भी.

'पुरखों का दुःख'और 'अपना ही देश'कविताओं को अगर मिलाकर पढ़ा जाए तो कवि की करुणा और उसकी सम्यक दृष्टि का भान सहज ही हो पाता है.

एक पुरुष की स्वीकारोक्ति पर लिखी 'हलफ़नामा'शीर्षक कविता स्त्रियों की संवेदनशीलता को समर्पित एक समर्थ कविता है, जहाँ पुरुष खुले मन से अपनी असहनशीलता और अस्थिरता को स्वीकारता है. इस तरह की उद्दात स्वीकारोक्ति हलफ़नामाकविता को एक बड़ी कविता बनाती है. 'सड़क किनारे तीन बच्चे', 'छोटी लड़कि', 'बड़ी होती बेटीसरीखी कविताएँ रागात्मकता को उसके पूरे परिवेश और परंपरा के बीच प्रस्तुत करती हैं.

मदन कश्यप बड़ी रेंज के कवि हैं और ऐसा कवि छोटे प्रसंगों, अन्यथा अलक्षित रह जाते कई निरीक्षणों और अल्प चर्चित मुद्दों में भी ऐसी सजीवता उत्पन्न कर देता है, देखे हुए को इतने कोणों से हमें दिखाता है और अपनी प्रस्तुति को एक ऐसी ऊंचाई पर ले जाता है कि वह कविता न सिर्फ़ भाषाई स्थापत्य के दृष्टिकोण से बल्कि भावपरक संप्रेषणीयता की कसौटी पर भी एक बड़ी कविता सिद्ध होती है.

लोककथा के परिचित सुपरिचित पात्रों गोनू ओझा और बन्नी दाई को आधार बनाकर  लिखी गई कविता 'बज्र किवाड़'इस संग्रह की उपलब्धि है. इसमें बन्नी दाई की उमंगों को अधूरा रहने पर कवी को क्षुब्ध होता दिखाया गया है. गोनू ओझा की बेबसी भी यहाँ प्रकट है. ऐसे में कवि आगे आता है और ईमानदारीपूर्वक चाहता है कि वह बन्नी दाई को अँधेरे की कालकोठरी से आज़ाद करे. उसे खुली दुनिया में ताज़ा हवा लेने दे मगर उसकी आज़ादी का आकांक्षी कवि ख़ुद कैसे बेबस हो उठता है, कविता का अंत हमें यही दिखाता है. जो कवि बन्नी दाई को आज़ाद करने निकला था, कविता के अंत अंत तक आते हुए वह स्वयं बन्नी दाई से सहायता मांगने लगता है. निश्चय ही इस कविता में एक कलमकार की सीमा को मदन कश्यप ने मार्मिक और कारुणिक रूप में अभिव्यक्त किया है.लेखक बदलाव चाहता है मगर बदलाव कर नहीं पाता है. मदन ने इस काव्य-संवाद में इसे बख़ूबी उकेरा है. वे कहते हैं:-

'बन्नी दाई बन्नी दाई 
मुझे बचाओ मुझे बचाओ 
मेरी आंखों पर बंधी पट्टी खोलो 
मेरे अंतस पर जड़ा ताला तोड़ो
मेरा पूरा वज़ूद दब रहा है बज्र किवाड़ से
मुझे बचाओ बन्नी दाई ?' 
(पृष्ठ 56)

कहीं न कहीं यहाँ  लेखकों के  क्रांतिकारी होने से शुरु होकर सुविधाभोगी होने तक की  परिणति को भी  कवि दिखाना चाहता है.

मदन के भीतर आत्म-पड़ताल बहुत गहरे तक समाहित है. ऐसे में छोटी बड़ी हर चीज़ का पोस्टमार्टम करती ये कविताएँ सच्ची और प्रभावी बन पड़ी हैं. ये बहुधा हमें भी आत्म-निरीक्षण करने की ओर प्रेरित करती हैं.ऐसी ही एक कविता 'माफ़ीनामा'में कवि कहता है :-

'हमारे कंधे पर वेताल की तरह चढ़ा है
तुम्हारे दुराचारों का इतिहास
अब तुम्हीं बताओ इसे कहां ले जाऊं
किस आग से जलाऊँ
किस नदी में बहाऊँ'
(पृष्ठ 91)

कई बार यथार्थ की विसंगतियां इतनी उद्धिग्न कर देने वाली होती हैं कि व्यक्ति के मुँह से सहसा गाली  निकल जाती है. इसे आप राही मासूम रज़ा के उपन्यास 'आधा गांव 'और अन्यत्र दूसरे लेखकों की कृतियों में देख सकते हैं. मगर यह तो आम आदमी की बात हुई, जिनके माध्यम से लेखक व्यवस्था के प्रति हमारे आक्रोश को वाणी प्रदान करता है. मगर कविता में जब हम किसी पात्र के माध्यम से नहीं बल्कि सीधे अपनी बात रख रहे होते हैं तो क्या किया जाए! ऐसे में कवि व्यंग्य का सहारा लेता है. जब संश्लिष्ट  सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक स्थितियों के गहरे और पुराने मकड़जाल को दिखाना हो तो व्यंग्य के तेवर से लैस कई आधुनिक कविताओं ने इसे समुचित रूप में दिखाना संभव किया है.

कई बार लंबी कविताओं में इसे  'फंतासी'द्वारा भी सफलतापूर्वक अभिव्यक्त किया गया है. 'अँधेरे में' कविता इसका एक बड़ा उदाहरण है. मगर छोटी कविताओं में जब हम कुछेक बिंदुओं पर फोकस करना चाहते हैं, ऐसे में अपनी भावाभिव्यक्ति को व्यंग्य के झूले पर बिठाकर कवि ज़ोर से एक धक्का मार देता है. ऊपर जाने और नीचे आने की इस आवृत्तिमूलक प्रक्रिया में कवि अपने हिसाब से हमें हमारे आसपास के कई रंगों से अवगत कराता है. फिर यह झूले की एक पेंग मात्र नहीं रह जाती है बल्कि हमारे देखे भोगे अनुभव का कैनवस कुछ और बड़ा हो जाता है. अपने कोरी परंपराओं और रूढ़ियों से आसक्त और उनपर तंज़ कसता कवि लिखता है

'हम एक ऐसी बंधी हुई नाव हैं
जिसका लंगर पाताल तक धंसा है और
रस्सी अपनी गांठ सहित पत्थर हो चुकी है'
('बँधी हुई नाव', पृष्ठ 35).

किसी बदलाव को नकारते और स्थावर हो जाते समाज को देख कवि आक्रोशित है मगर अपने भीतर के उस कसैलेपन को पचाता कवि अपनी बात कुछ इन बिंबों के माध्यम से कहता है. रस्सी का पत्थर में तब्दील होना चलने,ठहरने और फिर आगे बढ़ने की हमारी पूरी प्रक्रिया का स्थगित होना है.  विकसित और शिक्षित होकर भी अंधविश्वास की आग में खुद को और औरों को जलाना मात्र है. अनावश्यक शौर्य गाथाओं से लिपटे रहने और कुछ न करने की जगह वर्तमान समय के अनुरूप खुद को ढालने में कवि का अधिक विश्वास है.  'मध्यवर्ग का कोरस', 'लोकतंत्र का राजकुमार'आदि ऐसी ही कविताएँ हैं.

2015में प्रकाशित इस संग्रह में अमूमन वर्ष 2003से लेकर 2012तक लिखी कवि की कविताएँ संकलित हैं. कविता के साथ इनके ज़िक्र से पाठकों और आलोचकों को यह जानने में सहूलियत होती है कि कवि अपने समय के साथ कितना संपृक्त है और और अपने आसपास की घटनाओं से कितना अनुप्राणित है! आख़िरकार साहित्य सृजन का कच्चा माल हम इसी समाज से लेते हैं और उसे वापस किसी खास विधा या रूप में ढालकर इसी समाज को लौटा देते हैं. कुछ लेने और लौटाने का यह कर्म ही साहित्य कर्म है. मदन की कविता में तभी तो निठारी हत्याकांड बार बार अलग अलग रूपों में लौट आता है. आदिवासियों से छिनते जंगल, जल जंगल और ज़मीन पर पूंजीपतियों के कब्जे और उनके दोहन के कई प्रकट  कारनामे और अप्रकट साज़िशों का उनके यहाँ ज़िक्र होता है.

'उदासी के बीच', 'तानाशाह और जूते’, 'धर्मनिरपेक्ष हत्यारा'जैसी कविताओं से गुज़रना मानो कहीं न कहीं अपने जीवनानुभवों से भी गुजरना है. कहने की ज़रूरत नहीं कि भाषाई देशज गंध हमें हमारी मिट्टी की सोंधी महक की याद दिलाते हैं. इस धरातल पर 'बड़ी होती बेटी'उनकी एक यादगार कविता सिद्ध होगी.

'मकई के दानों को बचाता है छिलकोइया
चावल को कन और भूसी 
ढोलने को बचाता है रेशम का तागा
तुझे कौन बचाएगा मेरी बेटी!'
(बड़ी होती बेटी-3, पृष्ठ 17).

बड़ी होती बेटी के साथ बदलते समय को यहाँ पूरी व्यंजना के साथ दिखाया गया है.  ग्रामीण जगत के चिरपरिचित माहौल में आते बदलाव के साथ कठिनतर होते वक़्त की बात की गई है. प्रकृति और कृषि जगत के विभिन्न रंगों के माध्यम से कवि ने बड़ी होती बेटी के साथ अपेक्षित खुशियों की जगह तमाम दुश्वारियों और आशंकाओं के आ जाने को दिखाया है. मूलतः ग्रामीण परिवेश में अंकित यह कविता अपने असुरक्षा बोध में शहरी परिवेश तक भी आती है. लड़कियों के माता-पिता दोनों जगहों पर समान रूप से चिंतित नज़र आते हैं.


ग्रामीण लोकोक्तियों के प्रयोग से कवि ने अपने कहन का बेहतर काव्यपरक प्रयोग संभव किया है. उदाहरणतः पुरसा भर पानी’, ‘बिला जाता था अतृप्ति की रेत में’, ‘मकई के झौरे’, 'कठही संदूक'आदि वाक्यांशों को देखा जा सकता है.
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काव्य संग्रह : अपना ही देश (मदन कश्यप)
पृष्ठ : 104
प्रकाशक : किताब घर, 4855-56/24, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली-110002 /मूल्य : दो सौ रुपए 
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अर्पण कुमार (जयपुर)
मो: 9413396755
arpankumarr@gmail.com



कथा- गाथा : चंद्रेश कुमार छतलानी की लघुकथाएं

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(पेंटिग : जनगढ़ सिंह श्याम )







चंद्रेश कुमार छतलानी सॉफ्टवेयर डेवलेपर हैं और लघु कथाएं लिखते हैं. उनकी पांच लघुकथाएं आपके लिए.




चंद्रेश कुमार छतलानी : लघु कथाएं                  


मौसेरे भाई

एक राजनैतिक दल की बैठक में अध्यक्षता कर रहे मंत्री का फोन घनघनाया. फोन करने वाले का नाम पढ़ते ही उसके चेहरे के हाव-भाव बदल गये. वह मुंह बिगाड़ कर खड़ा हुआ और बैठक के सदस्यों को जल्दी लौटने का इशारा कर दरवाजे से बाहर चला गया.

बाहर जाकर मंत्री ने फोन उठाया और कान से लगाकर कहा, “हैलो.

सामने से आवाज़ आई, “नमस्कार मंत्री जी.

नमस्कार...

मंत्री जी, आज आपकी पार्टी के दूसरे मंत्री ने एक प्रेस कांफ्रेस में यह बयान दिया है कि हमारी पार्टी की छानबीन में कोई कोताही नहीं बरतेंगे. आप कान खोल कर सुन लीजिये, अगर यह बात सच है तो हम भी वो सारे सबूत सार्वजनिक कर देंगे, जिनसे आपकी और आपके साथियों की इज्जत तार-तार हो सकती है.दूसरी तरफ से आ रहा स्वर हर शब्द के साथ तीक्ष्ण होता गया.

मंत्री यह सुनकर अचकचाया और अपने स्वर में बनावटी प्रेम भर कर उत्तर दिया, “आप मुझ पर विश्वास रखिये, जनता में तो बयान देना ही पड़ता है. आप स्वयं यह बात समझते हैं, निश्चिंत रहिये आप भी बचे रहेंगे और हम भी.

दूसरी तरफ का स्वर अब अपेक्षाकृत धीमा हुआ, “ठीक है, चुनावी लाभ के लिए कुछ भी कहें. लेकिन यह न भूलें कि जब हम कुर्सी पर थे तो आपको ढक कर रखा और अब आप हैं तो हम भी ढके रहें.

मंत्री ने हामी भरते हुए फोन रख दिया. फोन रखते समय उसकी निगाह सामने लटकी एक तस्वीर पर चली गयी, उस तस्वीर में कुछ कुत्ते और बिल्लियाँ एक ही थाली में जीभ लपलपाते हुए खाना खा रहे थे.

और वह अपने होंठों को साफ़ कर बैठक कक्ष में चला गया.




2)

उसकी ज़रूरत

उसके मन में चल रहा अंतर्द्वंद चेहरे पर सहज ही परिलक्षित हो रहा था. वह अपनी पत्नी के बारे में सोच रहा था, “चार साल हो गए इसकी बीमारी को, अब तो दर्द का अहसास मुझे भी होने लगा है, इसकी हर चीख मेरे गले से निकली लगती है.

और उसने मुट्ठी भींच कर दीवार पर दे मारी, लेकिन अगले ही क्षण हाथ खींच लिया. कुछ मिनटों पहले ही पत्नी की आँख लगी थी, वह उसे जगाना नहीं चाहता था. वह वहीँ ज़मीन पर बैठ गया और फिर सोचने लगा, “सारे इलाज कर लिये, बीमारी बढती जा रही है, क्यों न इसे इस दर्द से हमेशा के लिए छुटकारा...? नहीं... लेकिन...

और उसने दिल कड़ा कर वह निर्णय ले ही लिया, जिस बारे में वह कुछ दिनों से सोच रहा था.

घर में कोई और नहीं था, वह चुपचाप रसोई में गया, पानी का गिलास भरा और अपनी जेब से कुछ दिनों पहले खरीदी हुई ज़हर की पुड़िया निकाली. पुड़िया को देखते ही उसकी आँखों में आंसू तैरने गये, लेकिन दिल मज़बूत कर उसने पानी में ज़हर डाल दिया और एक चम्मच लेकर कांपते हाथों से उसे घोलने लगा.

रसोई की खिड़की से बाहर कुछ बच्चे खेलते दिखाई दे रहे थे, उनमें उसका पोता भी था, वह उन्हें देखते हुए फिर पत्नी के बारे में सोचने लगा, “इसकी सूरत अब कभी... इसके बिना मैं कैसे रहूँगा?”


तभी खेलते-खेलते एक बच्चा गिर गया और उस बच्चे के मुंह से चीख निकली. चीख सुनते ही वह गिलास फैंक कर बाहर भागा, और पोते से पूछा, "क्या हुआ बेटा?"

पोते ने उसे आश्चर्य से देखा, क्योंकि पोता तो गिरा ही नहीं था, अलबत्ता गिलास ज़रूर वाशबेसिन में गिर कर ज़हरीले पानी को नाली में बहा चुका था.

और वह भी चैन की सांस लेकर अंदर लौट आया.





3)

मैं पानी हूँ

"क्या... समझ रखा है... मुझे? मर्द हूँ... इसलिए नीट पीता हूँ... मरद हूँ... मुरद...आ"
ऐसे ही बड़बड़ाते हुए वह सो गया. रोज़ की तरह ही घरवालों के समझाने के बावजूद भी वह बिना पानी मिलाये बहुत शराब पी गया था.

कुछ देर तक यूं ही पड़ा रहने के बाद वह उठा. नशे के बावजूद वह स्वयं को बहुत हल्का महसूस कर रहा था, लेकिन कमरे का दृश्य देखते ही अचरज से उसकी आँखें फ़ैल गयीं, उसके पलंग पर एक क्षीणकाय व्यक्ति लेटा हुआ तड़प रहा था. 

उसने  उस व्यक्ति को गौर से देखा, उस व्यक्ति का चेहरा उसी के चेहरे जैसा था. वह घबरा गया और उसने पूछा, "कौन हो तुम?"
उस व्यक्ति ने तड़पते हुए कहा, "...पानी..." 

और यह कहते ही उस व्यक्ति का शरीर निढाल हो गया. वह व्यक्ति पानी था, लेकिन अब मिट्टी में बदल चुका था. 

उसी समय कमरे में उसकी पत्नी, माँ और बच्चों ने प्रवेश किया और उस व्यक्ति को देख कर रोने लगे. वह चिल्लाया, "क्यों रो रहे हो?" 

लेकिन उसकी आवाज़ उन तक नहीं पहुंच रही थी.
वह और घबरा गया, तभी पीछे से किसी ने उसे धक्का दिया, वह उस मृत शरीर के ऊपर गिर कर उसके अंदर चला गया. वहां अँधेरा था, उसे अपना सिर भारी लगने लगा और वह तेज़ प्यास से व्याकुल हो उठा. वह चिल्लाया "पानी", लेकिन बाहर उसकी आवाज़ नहीं जा पा रही थी. 

उससे रहा नहीं गया और वह अपनी पूरी शक्ति के साथ चिल्लाया, "पा...आआ...नी" 

चीखते ही वह जाग गया, उसने स्वप्न देखा था, लेकिन उसका हलक सूख रहा था. उसने अपने चेहरे को थपथपाया और पास रखी पानी की बोतल को उठा कर एक ही सांस में सारा पानी पी लिया. 

और उसके पीछे रखी शराब की बोतल नीचे गिर गयी थी, जिसमें से शराब बह रही थी... बिना पानी की.






4)

डगमगाता वर्तमान

"सच कहूं तो ऐसा प्रतीत हो रहा है जैसे चार सौ मीटर के ट्रैक पर तुम्हारे पैरों की ताल से संगीत सा बज रहा है, कितना तेज़ दौड़े हो! ओलम्पिक स्वर्ण की दौड़ और तुम्हारी दौड़ में केवल पांच सेकंड का अन्तर रहा. तीन साल पहले यह तेज़ी थी तो अब क्या न होगी! तुम बहुत आगे जाओगे."

मोबाइल फ़ोन पर वीडियो देखते हुए उसने बच्चों की तरह किलकारी मारी और अपने धावक मित्र को गले लगा लिया.

मित्र लेकिन प्रसन्न नहीं था, उसने दुखी स्वर में उत्तर दिया, "दो साल यूनिवर्सिटी को जिताया, पिछले साल भी कांस्य पदक मिला, लेकिन इस बार टीम में मेरा चयन ही नहीं हुआ, आगे क्या ख़ाक जाऊँगा?"

"क्यों!"वह भौचंका रह गया.

"हर जगह पक्षपात है, दौड़ते वक्त दो कदम लाइन से बाहर क्या चले गए तो पिछली सारी दौड़ भूल गए, कह दिया 'भाग मिल्खा भाग'."

"भाग मिल्खा...! यह तो फिल्म का नाम है, तो और क्या कहना चाहिये?"उसने जिज्ञासावश पूछा

थके हुए चेहरे पर सुस्त पड़ती आँखों से धावक मित्र ने उसे देखा और फिर भर्राये हुए स्वर में कहा
"काश! दौड़ मिल्खा दौड़ कहते."






5)

बैक टू बटालियन

सुनसान रात में लगभग तीन घंटे दौड़ने के बाद वह सैनिक थक कर चूर हो गया था और वहीँ ज़मीन पर बैठ गया. कुछ देर बाद साँस संयत होने पर उसने अपने कपड़ों में छिपाया हुआ मोबाईल फोन निकाला. उस पर नेटवर्क की दो रेखाएं देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी और बिना समय गंवाये उसने अपनी माँ को फोन लगाया. मुश्किल से एक ही घंटी बजी होगी कि माँ ने फोन उठा लिया. 

सैनिक ने हाँफते स्वर में कहा, “माँ मैं घर आ रहा हूँ.

अच्छा! तुझे छुट्टी मिल गयी? कब तक पहुंचेगा?” माँ ने ख़ुश होकर प्रश्न दागे.

छुट्टी नहीं मिली, मैं बंकर छोड़ कर निकल आया हूँ.

क्यों?” माँ ने आश्चर्यमिश्रित स्वर में पूछा.

दुश्मनों ने कुछ सैनिकों के सिर काट दिए, उनके तड़पते शरीर को देखकर मेरी आत्मा तक कांप उठी... इसलिए मैं...कहते हुए वह सिहर उठा.

सैनिकों के सिर काट दिये...!उसकी माँ बिलखने लगी.

हाँ, और मैं वहां रहता तो मैं नहीं आता... मेरी सिरकटी लाश आती.वह कातर स्वर में बोला

उसकी माँ चुप रही, उसने अपनी थकी हुई गर्दन घुमाई और फिर कहा, “ऐसी हालत है कि कभी हाथ-पैरों को धोना भूल जाएँ तो वे गलने लगते है, बंकर में खड़े होने की जगह नहीं मिलती, पचास फीट नीचे जाकर बर्फ को गर्म कर पानी पीते हैं, हर समय दुश्मन के हथियारों की रेंज में रहते हैं... और तिस पर ऐसी भयानक मौत के दृश्य!” 

कुछ क्षणों तक चुप्पी छा गयी, फिर उसकी माँ ने गंभीर स्वर में कहा
सिर कटने की मौत, किसी भगौड़े की झुके हुए सिर वाली जिंदगी से तो ज़्यादा भयानक नहीं है... तू मेरे घर में ऐसे मत आना बेटा.

_________________________________________

चंद्रेश कुमार छतलानी
सहायक आचार्य (कंप्यूटर विज्ञान)
जनार्दन राय नागर राजस्थान विद्यापीठ विश्वविद्यालय, उदयपुर (राजस्थान) 
पता - 3 46, प्रभात नगर, सेक्टर - 5, हिरण मगरी, उदयपुर (राजस्थान) - 313002

फोन - 99285 44749/ ई-मेल -chandresh.chhatlani@gmail.com


रंग - राग : जनगढ़ : अखिलेश

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आदिवासी कलाकार जनगढ़ सिंह श्याम  निगाता (जापान) शहर के एक छोटे से गाँव में जहाँ वह हासेगावा के साथ रहते थे, एक दिन कमरे में मृत पाए गए. उनके पास उनके बने - अधबने चित्रों के साथ एक्यूट डिप्रेशन की तमाम दवाएं मिलीं. उनके अंतिम अधूरे चित्र में  अंधी मछलियाँ हैं जिनकी आँखें खाली हैं.


प्रसिद्ध चित्रकार और हिन्दी के लेखक अखिलेश ने  विस्तार से भारतीय रंग – समाज में जनगढ़  के उत्पीडन, अपमान और एलियनेशन को समझा है. गहरे धंस कर जनगढ़ के चित्रों की व्याख्या की है. 

यह लेख नहीं प्रतिवाद है.   

जनगढ़
उसके बारे में                                          
  अखिलेश


नगढ़ सिंह श्याम एक विलक्षण प्रतिभा संपन्न संगीतकार था जिसने अपने गीतों में वर्णित देवी देवताओं को पहले मिटटी में फिर रंग से क़ागज पर उकेरना शुरू किया और स्वामीनाथन के सानिध्य में दुनिया के पहले कला के घर ‘भारत भवन’ में रहते हुए जिस बुलन्दी को छुआ वो दुलर्भ और अप्राप्य रही अनेक कलाकारों के लिए. जनगढ़ जापान में बन रहे मिथिला संग्रहालय के लिए जब दोबारा गया तो लौटा नहीं. वहाँ उसके द्वारा की गई आत्महत्या कि पहेली उसके सिवा कोई नहीं सुलझा सकता. वो एक ऐसा रहस्य है उसके चित्रों की ही तरह जिसे वो ही समझ सकता है, उसकी आत्महत्या कि ख़बर फैक्स से आयी और कुछ ही दिनों में अख़बारों के लिए मसाला बन गयी. तरह-तरह के झूठ और बनाई हुई ख़बरों से अख़बार अपना गैर जिम्मेदाराना चरित्र उजागर कर रहे थे. भारत भवन से मुझे नियुक्त किया गया सुबह शाम इन अख़बारों के प्रतिनिधियों को ताज़ा जानकारी उपलब्ध करने के लिए. ग्यारह दिनों में जनगढ़ का शव भोपाल आ चुका था और उसका अंतिम संस्कार किया गया जब तक पत्रकारों का एक ही जीवन्त प्रश्न होता था. उसने आत्महत्या क्यों की. जनगढ़ कुछ लिख कर छोड़ नहीं गया था और उस पर कुछ भी कहना मूर्खता ही होती अत: मैं उन्हें एक किस्सा सुनाता था ज्यां बोद्रिल्लाकी पुस्तक seduction से. किस्सा संक्षेप में कुछ इस तरह है :

बगदाद शहर के बाज़ार में राजा का प्रिय सैनिक खरीदारी के दौरान देखता है कि दूसरी तरफ मौत खड़ी  उसे देख रही है दोनों की नज़रें मिलती हैं और मौत उसे देख मुस्काती है. सैनिक घबरा जाता है दौड़कर राजा के पास जाकर बोलता है मुझे आपके घुडसाल का सबसे तेज चलने वाला घोड़ा चाहिए. राजा का प्रिय सैनिक है इसलिए राजा उसे घोड़ा देता है और पूछता है क्यों ? सैनिक बाज़ार की घटना बतलाता है और रातों रात चलकर सुरक्षित समरकंद पहुँचकर अपने को बचा सकता है. इस तरह मौत से पीछा छुड़ा सकता है. उसके चले जाने के बाद राजा मौत को दरबार में बुलाकर फटकारता है कि तुम मेरे राज्य में लोगों को डरा रही हो तुमने मेरे प्रिय सैनिक को बाज़ार में देखा और मुस्कुराया, ऐसा तुम क्यों कर रही हो ? मौत ने कहा मैं किसी को डरा धमका नहीं रही और मुझे आपके राज्य में लोग खुश ही नज़र आये हाँ मैं सैनिक को देखकर इसलिए मुस्काई कि ये यहाँ क्या कर रहा है मैं तो इसे कल सुबह समरकंद में मिल रही हूँ ?

पत्रकारों का दूसरा सवाल भी वही होता तब मैं उन्हें नीलगिरी की पौराणिक कहानी सुनाता था.  (यह कहानी लेख में है)

ये दोनों कहानियां हमें सिर्फ अपनी सीमित सोच का विस्तार करती  दीखती हैं. मुझे नहीं पता और शायद किसी को भी पता न होगा कि उसने ऐसा क्यों किया. मैं उस दिन से जापान के इस संग्रहालय जाकर देखना चाहता था कि आखिर वो कौनसी जगह है जहाँ ये सब हुआ. मेरी मुलाकात औरोगीता से भारत भवन में हुई और उसने बताया कि वो जनगढ़ के ऊपर काम कर रही है. उसी से बातचीत के दौरान यह तय हुआ कि हम दोनों निगाता इस संग्रहालय देखने जायेंगे. और वो मौका शीघ्र ही आया.

ये जगह बिलकुल ही सुनसान जगह है और यहाँ शायद ही कोई बाहरी व्यक्ति आता जाता होगा. जितने दिन हम लोग यहाँ रहे अकेले ही थे. छोटा सा एक तालाब है जिसके किनारे संग्रहालय के करता धर्ता और सब कुछ सेन हासेगावा अपनी पत्नी और एक बेटे के साथ रहते हैं. पास ही दो तीन और छोटे छोटे मकान हैं जिसमें से एक बन्द है जनगढ़ इसी में रहता था और अब ये स्टोर कि तरह बरता जा रहा है. दो अन्य आस पास ही हैं जहाँ अन्य कलाकार, जिन्हें सेन हासेगावा आमंत्रित करते हैं, ठहरते हैं. जनगढ़ के साथ ऐसा कुछ नहीं हुआ जो बकवास उन दिनों लगातार अख़बारों में छपती रही. 


इस लेख के साथ यदि कभी कोई मौका मिले तो जनगढ़ की मृत्यु के बाद मैंने एक लेख “ परधान की मौतें ”महात्मा गाँधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय कि पत्रिका के संपादक श्री पीयूष दईया के आग्रह पर लिखा था जो बहुवचन के नौवें अंक में छपा है पाठक गण उसे भी पढ़े तो शायद अंदाजा हो सकता है जिस माहौल से जनगढ़ गुजर रहा था. उसमें मैंने इस बात की तरफ़ इशारा किया है कि किस तरह जनगढ़ आत्महत्या करने के पहले कई बार मर चुका था.
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जनगढ़

न दिनों अख़बारों में उसके बारे में बहुत लिखा गया. ज़्यादातर लापरवाह और बेध्यानी से, भरपूर ग़ैरजिम्मेदारी से. ज़्यादातर बिना सरोकार, बिना स्नेह, बिना जाने, सिर्फ़ बहती गंगा में हाथ धोकर प्रसिद्ध होने की लालच में. लिखे गये का ज़्यादा हिस्सा झूठ से भरा है. लिखे गये हर पाठ में हर विद्वान ने तथ्य जाने बगैर उसके बारे में मनगढ़न्त कहानी लिखी. कुछ अपना स्वार्थ साधते लिखे तो कुछ उसकी प्रसिद्धि के छींटों से भीगे खुद को उस जगह देखते हुए. यह सब एक बात स्पष्ट कर देता है कि अधिकतर लिखने वाले ग़ैरजिम्मेदार थे और अपने माध्यम के प्रति उदासीन और अज्ञानी हैं. उसके बारे में जितना छपा है, उसे पढ़कर अब और ज़्यादा लिखने को उत्सुक ऐसे कई लोगों की भीड़ चली ही आ रही है, जो अपनी जिज्ञासा में अनेकों छपे झूठ को सच मानकर बहस करने लगी है. परिणाम में एक बड़ा झूठ तो प्रचलन में आ ही गया है, जिसे गौण्ड कलाके नाम से निस्संकोच बापरा जा रहा है.
उसके बारे में छपा कि वह किसी जेल में बन्द है और उसे वहाँ से आने नहीं दिया जा रहा हैऐसा एक ख़त उसने बिहार के एक कलाकार को लिखा है. उसका कोई ख़त बिहार के किसी कलाकार के पास नहीं आया. उसे जबरदस्ती बंद कर उससे अनेकों चित्र बनवाये जा रहे हैं.उसे बिना उसकी इच्छा के जापान ले जाया गया है.यह सब या इस तरह की अनेकों बातें झूठ सिर्फ़ इसलिये साबित हो जाती हैं कि वह बच्चा नहीं था, जिसे अपना अच्छा या बुरा न समझता हो. वह दुनिया घूमा हुआ था और उसके इर्द-गिर्द कई लोग थे, जो ये जानते थे कि उसकी मर्जी के बगैर उसके साथ कुछ नहीं हो सकता था. वह स्वतंत्र था और अपनी शख्सियत का मालिक था. वह जिद्दी था और दूसरी तरफ गहरा संवेदनशील. उसमें आत्मसम्मान था और वो अपनी खोती जा रही पहचान के प्रति सजग था. एक घटना बतलाता हूँ.
“वह पेरिस से लौटा था. पेरिस में एक प्रदर्शनी हुई थी जिसमें दुनिया के सौ जादूगरों को आमंत्रित किया गया था, जो अपनी उँगलियों से अचम्भा पैदा करते हैं. पेरिस में ठण्ड रही होगी और उससे बचने के लिए उसने महँगी और नये फ़ैशन की एक जैकेट खरीदी होगी. उसके लौटने पर मैंने घर में एक दावत रखी थी जिसमें स्वामी जी और कुछ साथी कलाकार भी शामिल थे. दिसम्बर के ठण्ड के दिन थे, हम लोग घर के आँगन में आग जलाकर उसके चारों और बैठे थे. रात गहरा गई थी और आग की ताप और रसरंजन की वजह से बातचीत के विषय भी आग की लपटों की तरह इधर-उधर लहरा रहे थे. इसी बीच स्वामीनाथन ने चुटकी ली, ‘अब तो तुम भी शहरी हो गये हो, ये जैकेट...... उनका वाक्य अधूरा रह गया. वह झटके से खड़ा हो गया और आनन-फानन में उसने अपनी जैकेट उतारी और आग में झोंक दी. जैकेट आधुनिक सिन्थेटिक कपड़े की बनी थी, तुरन्त ही आग पकड़ जलने लगी. वह वापस निश्चिन्त बैठ गया और पहले की तरह बात करने लगा मानों कुछ हुआ ही नहीं. इस घटना से साफ होता है कि एक स्वतंत्र, आत्माभिमानी कलाकार को हाँका नहीं जा सकता.”


(अपनी पत्नी और जे. स्वामीनाथन के साथ जनगढ़ )

रूपंकर में आदिवासी और आधुनिक कला को पास-पास रख स्वामीनाथन एक बड़ा काम कर रहे थे. हमारे गुलाम मस्तिष्क में यह भेद बहुत ही साफ और गहरे धँसा है कि आदिवासी, जो जंगल में रहता है वह अजूबे की बात है. इस आदिवासीको मानव समाज से बाहर रखकर अध्ययन का विषय मानकर, मानों वह मनुष्य नहीं कोई और प्रजाति का जीव है, अनेकों ने ग्रन्थ लिख अपनी विद्ववता का झण्डा गाड़ा. इनमें से अक्सर सभी ने विषयसे एक दूरी बनाये रखी. राजनेताओं ने भी इन्हें आज तक छब्बीस जनवरी पर निकलने वाले परेड में ‘विचित्र नाच नाचने वालों’ से ज़्यादा कुछ नहीं समझा. इस झाँकी को आदिवासी रस से भरने की शुरूआत हमारे पहले प्रधानमंत्री ने की और बाकी बचे प्रधानमंत्रियों का आदर्श चूँकि पहला वाला ही रहा, इसलिए आज तक छब्बीस जनवरी की परेड के लिए इन आदिवासियों को शिद्दत से याद किया जाता है. इससे ज़्यादा इनके बारे में भारतीय समाज कुछ नहीं जानता. स्वामीनाथन एक बड़ा जोखिम ले रहे थे कि वे कला में मौजूद भेद को समाप्त कर मनुष्य द्वाराकी जाने वाली कला की महत्ता को केन्द्र में लाने की पहल कर रहे थे.
इसी पहल में उन्होंने कई प्रदर्शनियाँ भी आयोजित कीं. मुझे अच्छे से याद है, जब स्वामीनाथन ने इसकी एक प्रदर्शनी दिल्ली की दीर्घा में आयोजित की तो सिर्फ़ तीन शहरी कलाकार प्रदर्शनी देखने आये, शेश ने स्वामी को झिड़का ही कि ये क्या तमाशा कर रहे हो, ये कोई कला है? उन्हीं में से कई ने बाद में इस पर लेख लिखे कि कैसे उन्होंने इसकी प्रतिभा को पहली नज़र में ही पहचान लिया था और उन्होंने जो कुछ भी उसके लिए किया, सिर्फ़ इसी कारण से वह अन्तरराष्ट्रीय कलाकार हो गया. यह कहकर उन्होंने अपनी पीठ खुद ही एक बार और थपथपा ली.
प्रसिद्ध नृतत्त्वशास्त्री श्री हीरालाल शुक्ल ने एक बार कहा, इतने सालों में जो काम कोई सरकार नहीं कर पायी, जो काम कोई और संस्था नहीं कर सकी, वो अकेले स्वामीनाथन ने कर दिखाया. आदिवासी इलाकों में स्वामीनाथन को भगवान की तरह मानते हैं.यह बात सच भी है कि स्वामी जी की उस छोटी-सी शुरूआत के कारण आज मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में रहने वाले लगभग चार लाख आदिवासी जीविकोपार्जन के लिए अपने हुनर पर आश्रित हैं. उनके भीतर आत्मविश्वास और एक सम्बल जागा है. अब हफ्तों दस रुपये की दिहाड़ी की मजदूरी का इन्तज़ार नहीं करना पड़ता है. अब वे अपनी इच्छा और मर्जी से काम करते और कमाते हैं. यह कोई आसान काम नहीं था.
मैंने तो चार लाख अपने अन्दाज़ में ही लिखा है. संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है. बयासी में शुरू किये गये इस यज्ञ की आँच से तप कर आज अनेक मुल्कों में इस दिशा में काम हो रहा है और अब इसे आदिवासी कलाकहने में भी एक तरह का नृतत्त्वशास्त्रीय फन्दा ही नज़र आता है, तो इसे और ज़्यादा मुक्त करने के लिए Vernacular कला भी कहा जा रहा है. मैं तो चाहूँगा कि इसे इस सम्बोधन से भी मुक्त किया जाना चाहिए और सिर्फ़ कला की तरह ही बरतना चाहिए, तब इस यज्ञ की आहूति पूर्ण होगी. इन अन्तरराष्ट्रीय बहसों को बीच ले आने में उसकाभी हाथ है. वह भले ही अब इन सब बातचीत और बहस से बाहर चला गया है, किन्तु उसी के कारण आदिवासी कलापर भारतीय समाज में ध्यान दिया जाने लगा. हालाँकि इसके पहले भी कई कलाकार मौजूद थे और वे बहुत अच्छे कलाकार होने के साथ नामचीन भी थे, किन्तु उनकी समझ का दायरा अपनी कला के साथ जुड़ा था. सीमित था.




(दो)
उसके बारे में यह कहना बिल्कुल ही गलत होगा कि वह अनपढ़ था. ये बात ज़रूर है कि वह उस Macaulay Education Systemमें नहीं पढ़ा था, जो हम भारतीयों को अपने बारे में अज्ञानी और संस्कृति विहीन बनाता है. किन्तु वह लिखता था और हिन्दी में लिखे उसके अन्तिम ख़त में हिज्जों की गलतियाँ शहर में पढ़े-लिखे कई लोगों से कम हैं. यह ख़त जो उसके दाह-संस्कार के बाद मिला, जिसे उसने अपनी आत्महत्या के तीन दिन पहले लिखा था. उस ख़त में, जो उसने अपनी पत्नी ननकुसिया श्याम को लिखा था, कई बार वह चिन्ता करता है बच्चों की, घर की और परिजनों की. वह अपने आने के बारे में दो बार लिखता है. वह कहता है कि इक्कीस या उन्तीस जुलाई को लौट रहा है. वह यह भी कह रहा है कि अम्माऔर ठाकुर साहबसे मिलकर मेरे बारे में विचार करने को कहना और जानना कि मेरे साथ क्या होगा? एक जगह यह भी लिखता है कि, ‘‘पता नहीं अब आप लोगों से मिल सकूँगा या नहीं ऐसा लगने लगा है.’’यह वाक्य ख़त के आखिरी हिस्से में लिख रहा है. इसके बाद वह यह भी लिख रहा है कि मंगत से कहना अगले रविवार को फ़ोन करूँगा. ख़त में कई बार ज़िक्र है मेरे बारे में विचार करवाना. चिन्ता है बच्चों की. परिजनों की. ज़िक्र है वीज़ा बढ़वाने का. नब्बे दिनों का टूरिस्ट वीज़ा. आने की तारीख का ज़िक्र भी है. यहाँ दो बातें साफ हैं कि वीज़ा खत्म होने पर वीज़ा बढ़ाया गया है और आने की तारीख बढ़ाई गयी है, जो उसी माह के दस दिन बाद वाली तारीख है. याने वह अगले दस दिन और रुकेगा.
दो हज़ार एक में जब उसकी मृत्यु का फ़ैक्स आया था, तभी से मेरे मन में कभी इस जगह जाऊँगाका विचार बैठ गया था. चैदह बरस बाद यह मौका मिला और मैं मिथिला संग्रहालय, निगाता गया. मिस्टर हासेगावा, जो एक दिलचस्प, दिलकश, दिलदार और ज़िन्दगी को भरपूर जीने वाले शख्स हैं, इस संग्रहालय के निदेशक, मालिक, रचयिता, संरक्षक आदि सभी कुछ हैं. उनके साथ बिताये गये सात दिनों में एक बार भी ऐसा नहीं लगा कि कुछ बनावटी है, कुछ संदेहास्पद है. जापान में संग्रहालय, वो भी भारतीय लोक आदिवासी कला का संग्रहालय, यह सब एक दीवानगी लग सकती है, जो कि वास्तव में वही है. इस दीवानगी की शुरूआत सत्तर के दशक से होती है. मिस्टर हासेगावा, टोक्यो में रहने वाले सम्भ्रान्त परिवार के सदस्य हैं जो समुराई, एक तरह के विषेश तलवारबाज़ योद्धा की सोलहवीं पीढ़ी से हैं.
चैबीस वर्ष की उमर में उन्होंने अपने पिता से कहा कि वे पहाड़ों में जाकर रहेंगे और वे टोक्यो छोड़कर इधर चले आए. कुछ वर्ष इन सुनसान पहाड़ी इलाकों में भटकते रहने के बाद जब वे कुछ काम से टोक्यो गये थे, वहाँ किसी हिप्पी को, जो हिन्दुस्तान से लौटा था, मिथिला, मधुवनी के कुछ चित्र बेचते हुए देखा. उनकी जिज्ञासा उन्हें वहाँ खींच ले गई और उन्होंने उससे चित्र लेकर देखना शुरू  किये. उसमें एक चित्र पर उनकी नज़र अटक गयी. यह चित्र था- गंगादेवीका. चित्र की कलात्मकता पर रीझे, कल्पना में उलझे, मिस्टर हासेगावा कुछ ही महीनों बाद मिथिला में गंगादेवी से मिल रहे थे और इस बार उन्होंने कुछ ज़्यादा चित्र खरीदे. बयासी में मिथिला संग्रहालय की इच्छाशक्ति और अपने खर्च से शुरूआत कर डाली. उसके बाद लगातार गंगादेवी, जमुनादेवी, बोवादेवी ही नहीं, अनेक लोक आदिवासी कलाकारों को वे आमंत्रित करने लगे और आज इस संग्रहालय में गंगादेवी, नीलमणी देवी, जिव्या सोमा म्हाशे, जनगण सिंह श्यामआदि अनेक कलाकारों की कलाकृतियों का विशाल और महत्त्वपूर्ण संग्रह यहाँ है. इतने बरसों में उनका लक्ष्य सिर्फ़ उत्तमता ही रहा. संख्या से कभी मिस्टर हासेगावा प्रभावित नहीं हुए. इन चार भारतीय कलाकारों की कलाकृतियाँ का श्रेष्ठ और महत्त्वपूर्ण संग्रह भारत में नहीं, जापान में है, जो सिर्फ़ एक आदमी की दीवानगी से पैदा हुआ है.

(हासेगावा का घर और संग्रहालय)
निगाता, टोकामाची शहर से कुछ दूर पहाड़ियों में बसा इतना छोटा गाँव है कि उसमें सिर्फ़ एक ही परिवार रहता है. यह परिवार ज़ाहिर है मिस्टर हासेगावा का है जिसमें उनकी पत्नी, लड़का और लड़की के अलावा दो कुत्ते भी शामिल हैं. ठण्ड के मौसम में यह जगह दुनिया से लगभग पाँच महीनों के लिए कट जाती है. यहाँ चार मीटर तक बर्फ़बारी होती है जिसकी सफाई की जिम्मेदारी मिस्टर हासेगावा की ही है. वहीं सामने एक छोटा-सा तालाब है जिसमें आसपास लोग मछलियाँ मारने आते हैं. ये लोग मछली बामुश्किल पकड़ते हैं और जो पकड़ते उसे वापस तालाब में छोड़ देते हैं. सामने की पहाड़ियाँ पेड़ों से भरी हैं. पीछे उतराई है, जो धीरे-धीरे उस सड़क तक चली जाती है, जो इसी गाँव को आती है. दो कव्वे स्थाई रूप से मछलियों के लिए काँव-काँव करते उड़ते रहते हैं. एक बिल्ली है, जो यहाँ-वहाँ भटकती रहती है. मिस्टर हासेगावा का घर तालाब किनारे है और उनके चार घर और यहीं आसपास हैं. ये सभी घर संग्रहालय में आने वाले कलाकारों के लिए आश्रय स्थल हैं. इन्हीं में से एक में जो मिस्टर हासेगावा के घर की दाईं ओर है, वह रहा था; जहाँ उसने न जाने क्यों अपनी इहलीला समाप्त की?
सर्पीली सड़क इस गाँव तक आती है, जिस पर पेड़ों से गिरे पत्तों का भूरा रंग बिछा हुआ है. तालाब किनारे ही एक मन्दिर है, जो देखभाल और मरम्मत के लिए इन दिनों बन्द है. मोड़ पर जहाँ से मिथिला संग्रहालय दिखना शुरू होता हैपहाड़ की चट्टानों के बीच अलाव में एक देवता की प्रतिष्ठा की गई है, जो यात्रियों को सुरक्षित रखने का काम करता है.आसपास के इलाकों में ढेरों गर्म पानी के गंधक भर सोते हैं जिन्हें वहाँ के स्थानीय लोगों ने स्नानघर में तब्दील कर लिया है और सभी जगह लोग नंग-धड़ंग स्नान करने आते हैं. आसपास की पहाड़ियों पर ज़्यादातर चीड़ के वृक्ष हैं और पास ही एक झरना है जिसका धातुज पानी स्वास्थ्यकारी है. इस पूरे इलाके में प्रकृति मेहरबान है. चारों तरफ़ पहाड़ियाँ, ऊपर खुला आसमान, साफ़ हवा और उसमें वानस्पतिक गंध. यह सब मिलकर आपको प्रेरित करती हैं इस खुले जंगल में विचरने को, जहाँ चीड़ के ऊँचे वृक्षों की फुनगी पर छोटी-छोटी चिड़िया चहचहाती बैठी हैं और बीच-बीच में एक-दूसरे का पीछा करतीं उड़ती हैं. उनकी तीखी आवाज़ आपका ध्यान खींचती है. चक्करदार सड़क पहाड़ों पर ऊपर-नीचे आती-जाती दीखती है, जिसके किनारों पर पेड़ों के झड़े पत्ते जमा हैं. इन्हीं सड़कों पर वह भी भटका होगा और गाया होगा कभी कोई गीत.
उसके बारे में जो अख़बारों में छप रहा था, वह सनसनीखेज़ पीली पत्रकारिता का अकाट्य उदाहरण है. हर बात कुछ ऐसी छापी जा रही थी, मानों संवाददाता वहीं खड़ा होकर देख, लिख रहा हो. हमारे ग़ैरजिम्मेदार कलाकारों का एक बड़ा समुदाय इस पीली पत्रकारिता की गर्म खबरों का मज़ा ले रहा था और आज तक उसी को सही समझता हुआ अपना शेष जीवन शेष कर रहा है. इस तरह की ख़बरों और बकवास का सामना मुझे रोज़ करना होता था. उन दिनों शासन ने मुझे इस विषय को बरतने का निर्देश दिया था जिससे भारत भवन से ही पत्रकारों को वास्तविक घटनाक्रम का विश्वस्त ब्यौरा मिल सके. जो हम लोगों में से किसी के पास नहीं था. रोज़ सुबह-शाम पत्रकार नियमित रूप से आते थे और उनके पास दिल्ली में छप रही इन ऊलजलूल खबरों का ढेर होता था, जिसमें एकप्रश्न रोज़ पूछा जाता था कि उसने वहाँ जाकर आत्महत्या क्यों की? यह किसी को मालूम नहीं था और इस बारे में कोई कयास लगाना, किसी को जिम्मेदार ठहराना उसी पीली पत्रकारिता की ग़ैरजिम्मेदार बाढ़ में बह जाना था, मैं उन्हें एक कहानी सुनाता था-
“नीलगिरी के पहाड़ों में एक तोता रहता था. भगवान विष्णु का वाहन गरुड़ उसका दोस्त था. जब भी गरुड़ को फुरसत होती वो अपने दोस्त से मिलने चला आता और वे घण्टों बातचीत करते कभी मिनटों. यह क्रम कई वर्षों से लगातार चला आ रहा था. एक बार तोते का ध्यान इस तरफ गया कि उसके बच्चे, उनके बच्चे और उनके बाद कई और बच्चे मर चुके हैं, किन्तु वह अभी तक ज़िन्दा हैं. वह भी किसी दिन मर जायेगा और उसकी यह दोस्ती खत्म हो जायेगी. इस बात से वह चिन्ता में डूब गया. उसने अपनी चिन्ता गरुड़ से व्यक्त की और कहा तुम तो उनके वाहन ही हो, क्यों न उनसे कहकर मुझे अमर करवा देते हो, सो हमारी दोस्ती भी बरकरार रहेगी. गरुड़ को भी बात समझ आ गई. वो भगवान विष्णु के पास पहुँचा और अपनी व्यथा कह डाली. विष्णु ने कहा, मैं पालनहार हूँ, किसी को अमर नहीं करता, किन्तु चलो भगवान शिव के पास चलते हैं, वे अक्सर अमर होने का वरदान देते रहते हैं. भगवान शिव सुनकर बोले, देखो मैं उसी को वरदान देता हूँ जो मेरी कठिन तपस्या कर मुझे प्रसन्न करता हो. अतः हमें भगवान ब्रह्मा के पास जाना होगा. वे दोनों भगवान ब्रह्मा के पास पहुँचे और पूरा किस्सा बतला ही रहे थे कि तीनों ने देखा कि यमराज उस तोते को लिये जा रहा है. ब्रह्मा, विष्णु, महेश तीनों ही नाराज़ हुए और यमराज को कहा, ये क्या किया, हम इसी तोते को अमर करने की बात कर रहे थे और तुमने उसे मार दिया? यमराज ने कहा, क्षमा चाहता हूँ, किन्तु मैंने इस तोते की बहुत ही असम्भव मृत्यु लिखी थी. मैंने लिखा था कि जिस दिन ब्रह्म, विष्णु, महेश तेरे बारे में बात करेंगे उस दिन तू मरेगा. अब आप लोगों को कहाँ फुर्सत कि एक मामूली तोते के बारे में बात करते! बरसों बाद आज आप तीनों मिले और यह मौका आया.”
यह कहानी मृत्यु की अनिश्चितता की कहानी है. सब अपनी मृत्यु की ओर अन्जाने ही जा रहे हैं. उसके लिए किसी तरह का कारण ढूँढ़ना मनुष्य की कमजोरी का ही प्रमाण है. मनुष्य मृत्यु की भयावहता, जो है नहीं, से भयभीत हो उससे अपना किसी तरह का अस्थाई सम्बन्ध बनाने के लिए उसका कारण ढूँढ़ता रहता है. जन्म की तरह मृत्यु भी अनिश्चित है. जन्म के अनिश्चित होने की तरफ ध्यान इसलिए नहीं जाता होगा कि कुछ हासिल हुआ है. मृत्यु में वह कुछ खोता है इसलिए वह अपने को सांत्वना देता है और यही उसकी कमजोरी है कि वह सांत्वना की तलाश में है. इस कहानी को सुन अनिष्चय से भरे पत्रकार हमेशा चुपचाप चले जाते थे.




(तीन)
मृत्यु के ग्यारहवें दिन उसका शरीर आ गया था, जिसे मिस्टर हासेगावा ने एक बड़ी राशि उधार लेकर अपने खर्चे से भेजा था. इसी के साथ उसके चित्र और उसका सामान भी लौटा जिसमें सबसे ज़्यादा संख्या में चित्र थे और उसके बाद जिस चीज़ की संख्या ज़्यादा थी, वह दवाइयाँ थीं. ग्यारह दवाइयाँ, जिसमें से नौ दवाई विशाद(depression)की थीं. नौ में से पाँच गहरे विशाद(Acutedepression)की. मिस्टर हासेगावा को इसके बारे में कुछ पता नहीं था कि वह ‘गहरे विशाद’ का मरीज था और उन्हें यह भी आश्चर्य हुआ कि डॉक्टर ने जनगण को इसके बावजूद आने की अनुमति कैसे दी. इतने गम्भीर हालात में जनगण उस जगह गया, जो दुनिया में एक ऐसा इलाका है, जहाँ आत्महत्या का प्रतिशत सबसे ज़्यादा है. गाँव का एकान्त, रुकने की लम्बी अवधि, साथी कलाकार की अनुपलब्धता, गहरा विशाद और शहरी लोगों पर अकाट्य अविश्वास- यह सब उसके साथ थे. इन सबके साथ वह रच रहा था अपना अन्तिम चित्र.


(हासेगावा जनगढ़ के चित्र के साथ) 
भारत में शहरी लोगों का आदिवासियों के प्रति जो व्यवहार है, उसका एक उदाहरण यहाँ रखना बहुत ज़रूरी है. इससे साफ पता चलता है कि सिर्फ़ स्वामीनाथन ही थे जिनके साथ इन कलाकारों का सीधा संवाद सिर्फ़ इसलिए हो सका कि स्वामी जी ने वैसा भेद नहीं रखा. वे उनके साथ खाते-पीते थे. उनके घर चले जाया करते थे. उन झोपड़ियों में सो जाया करते थे. उनके बीच उन्हीं की तरह रहा करते थे. भोपाल में विधान भवन बनकर तैयार हो चुका था और उसके वास्तुशास्त्री ने तीन कलाकारों को काम करने के लिए चुना, जिनमें से दो शहरी कलाकार थे और तीसरा जनगण. चार्ल्स कोरिया ने, जो देश के जाने-माने, दुनिया भर में प्रसिद्ध वास्तुशास्त्री थे (भगवान उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे), दोनों शहरी कलाकारों को पूरी छूट दी कि वे जो चाहे कर सकते हैं. उन्हें इन कलाकारों पर विश्वास था, जिन्हें वे उतना ही जानते थे जितना जनगण को, कि वे जो भी करेंगे, कमाल करेंगे. जनगण, एक आदिवासी, एक अनपढ़, एक गँवार, गाँव में रहने वाला क्या करेगा, इसलिए चार्ल्स कोरिया ने जनगण के कैटलाग, पुस्तकों में छपे चित्रों को काट-काट कर एक निहायत ही भद्दा और बेढब कोलाज़ बनाया और जनगण को भेज दिया कि इसकी नकल करो. मैं चूँकि विधान भवन की भीतरी साज-सज्जा के लिए जिम्मेदार था और अन्य कामकाज देख रहा था, उसी बीच जनगण यह कोलाज़ लेकर आया. उसकी आँखों में आँसू भरे थे, भर्राये गले से बोला, ‘ये भेजा है और इसकी नकल करने को बोला है. क्या मैं नकल करूँगा? मैं यह नहीं करना चाहता हूँ.मैंने उसे कहा, मना कर दो तुम्हें यह काम नहीं करना है. उसकी दूसरी दिक्कत थी उसने इस काम के लिए अग्रिम धनराशि लेकर अपने घर में ठहरे भाँजों की फौज पर खर्च कर दी थी.
खैर! ये सब अलग बात हैं. महत्त्वपूर्ण यह है कि चार्ल्स कोरिया, जो स्वयं एक अच्छे कला संग्राहक और कला पारखी थे, जिन्होंने कई कलाकारों को प्रोत्साहन दिया और उनकी कलाकृतियों को अपनी रचनात्मकता में शामिल किया है. उसी चार्ल्स कोरिया ने अनजाने नहीं, ये जानते हुए कि जनगण विश्वप्रसिद्ध कलाकार है, किन्तु सिर्फ़ इसलिए कि वो आदिवासी है अतः उसे काम करने की स्वतंत्रता नहीं दी. ये व्यवहार सामाजिक रूप से मान्य है. सभी लोग, बल्कि संवेदनशील कलाकार भी ये दूरी, ये अविश्वास ये अछूत व्यवहार बनाये रखते हैं. इन आदिवासी कलाकारों के मन में यह भेदभाव निश्चित ही अपनी जगह बनाता है और बरसों में इसने स्थायी जगह बना ली है.


(भारत भवन पर चित्रकारी जनगढ़)
इसका बड़ा उदाहरण ये है कि जब किसी आदिवासी से आप बात कर रहे हैं तो पहली बार में वो सुनता ही नहीं. सुनता है, किन्तु उसे दर्ज नहीं होने देता. दर्ज नहीं होता है तो वह समझता नहीं है. उसे अपने पीढ़ियों के अनुभव से यह पता है कि हर शहरी आदमी यदि उससे बात करने के लिए आया है तो उसे लूटने ही आया है. चार्ल्स को ये अन्दाज़ा भी नहीं था कि वो किस व्यक्ति से बात कर रहे हैं. इसीलिये चार्ल्स अपने रचने में वो सब नहीं कर पाये जबकि जनगण की रचनात्मकता में अनेकों रास्ते खुलते हैं. जनगण का सृजन इस तरह की छोटी-मोटी व्याधियों से परे कल्पना की उस ऊँची उड़ान का प्रमाण है, जहाँ अचम्भा पैदा होता है. जनगण हर अर्थ में चार्ल्स कोरिया से ज़्यादा मौलिक, ज़्यादा रचनात्मक और कुछ अधिक ही योगदान देकर गया है. उसमें सिर्फ़ एक कमी थी, वो आदिवासी था.
यही आदिवासी जापान में अपना अन्तिम चित्र अधूरा छोड़ जीवन से मुक्त होता है. अपने घर से दूर, अपने परिजनों से दूर, अपने परिवेश से दूर एक अपरिचित देश में अन्जान संस्कृति में. जापान जनगण तीसरी बार गया था. जाना नहीं चाहता था. उसने दो बार अपने जाने की तारीख बदली. तीसरी बार चला गया वापस न आने के लिए. जनगण को भी शायद पता न था कि वो अपनी मृत्यु की ओर जा रहा है. किसी को भी आकस्मिकता का अन्दाज़ा नहीं था. वह वहाँ गया. रहा तीन महीने और खूब काम किया. अन्तिम दो काम किये, जो जनगण के कामों की तरह नहीं हैं. मैं यहाँ जाना चाहता था और उसके अन्तिम चित्र को (मुखपृष्ठ पर छपा है) देखना चाहता था.
मिस्टर हासेगावा ने बहुत ही उदारतापूर्वक, अत्यन्त आत्मीय और निहायत ही जीवन्त शालीनता से आवभगत की. उनके लिए भी यह नया था. वे भी पिछले चैदह सालों से अख़बारों में छेड़े गये भर्त्सनीय और निन्दनीय अभियान से आहत इस विषय पर किसी से बात नहीं करते थे. उन्होंने जनगण के चित्र सम्भाल कर, अच्छे से बाँधकर रख दिया था. वे तैयार हुए इस विषय पर बात करने के लिए और वो चित्र भी खोलकर दिखलाया. जनगण का अन्तिम चित्र सामने था. बेहद सन्तुलित और सुविचारित, जनगण जैसा करता था, उससे थोड़ा अलग था. इसमें मछलियाँ हैं और वे पानी में हैं. जनगण ने पानी भी चित्रित किया. यह पहली बार किया. जनगण के चित्र, जो अक्सर सफ़ेद पार्श्व में ही होते हैं, उससे अलग यह चित्र था. इसमें अवसाद का लक्षण ढूँढ़ना बेवकूफी ही होगी. जनगण को भी खुद पता नहीं था कि वो क्या करने वाला है. तीन दिन पहले ही चिट्ठी में पत्नी को लिखा कि मेरे बारे में अम्मा से, ठाकुर साहेब से विचार करवाना. मैं इक्कीस तारीख को लौट रहा हूँ. चित्र तो जनगण के चित्र की तरह ही है. सात मछलियाँ हैं. कुछ वनस्पति यहाँ-वहाँ धब्बे की तरह और हरे रंग का पानी, जिसमें वे तैर रही हैं.



(चार)
यह हरे रंग का पानी जनगण की चित्रण शैली में बाहर से आया है. यह कुछ यथार्थवादी ढंग है विषय को चित्रित करने का. इसके पहले जो मछलियाँ चित्रित की हैं, उसमें पानी नहीं चित्रित किया कभी. विषय का चित्रण ही जनगण की विशेषता रही. ये सात मछलियाँ जनगण की चिर-परिचित कलममें चित्रित की जा रही थीं. उनका अलंकरण भी चल रहा था. इस अधूरे चित्रमें भी पूरापन है. बस आँख में खटकती हैं मछलियों की आँखें जिन्हें चित्रित किया जाना बाकी था. काम तो बहुत-सा बाकी है और जनगण शायद एक हफ्ते और रुकतातो यह चित्र पूरा होता और आज जनगण भी हमारे बीच होता. किन्तु ऐसा नहीं होना था. व्यथित, भरमाया और गहरे विशाद से ग्रस्त उस एकान्त में, उन पहाड़ों के बीच, उस अकेले गाँव में अकेला था और अकेलेपन में उसका मन विचलित और भ्रमित अनेकों कल्पनाओं से भर चुका होगा, जो उसकी प्रखर कल्पनाशक्ति से लगातार उत्तेजित और संचारित हो रहा होगा. फिर भी मैं कोई कारण नहीं बता सकता कि क्यों ऐसा किया?
(अंतिम चित्र) 

उस दिन जनगण दस बजे तक चित्रित कर रहा था, फिर खाना खाने अपने घर गया तो लौटा नहीं. मिस्टर हासेगावा ने शाम पाँच बजे के करीब किसी को भेजा कि देखो जनगण अभी तक लौटा नहीं, उसे बुला लाओ. और जो बुलाने गया वो अब अकेला सोना भूल चुका है. उसे पहले तो कई हफ़्तों नींद नहीं आई. अब आती है तो किसी के साथ. इस अधूरे छूटे चित्र में ये मछलियाँ अंधी हैं. आँखें खाली हैं. यह संयोग है कि बस्तर की कुटुम्बसर नामक एक जगह, जहाँ पहाड़ों की चट्टानों के बीच बनी दरारों में से नीचे उतरना शुरू करते हैं तो करीब तीन सौ मीटर तक नीचे उतरते जाते हैं. नीचे जाकर बहुत बड़ी-बड़ी जगह है, खुली है और बीच दरारों की झिर्री से निकलता पानी का जमा छोटा-सा पोखर भी है.
जब पोखर बन ही गया है तो उसमें मछलियाँ भी हैं. यहाँ सूरज की रोशनी नहीं पहुँचती है, बल्कि कभी नहीं पहुँची है. यहाँ ये मछलियाँ अंधी हैं, इनकी आँखें नहीं हैं, जिसकी उन्हें ज़रूरत नहीं है, क्योंकि कोई रोशनी नहीं है. ये मछलियाँ बिना देखे मर जाती हैं, जबकि बाहर की मछलियाँ, जो सूरज की रोशनी में हैं, कभी सोती नहीं, उनकी आँखें बंद नहीं होतीं. जनगण ने अन्तिम चित्र के पहले का चित्र भी मछलियों का ही बनाया और वे आँखों वाली मछलियाँ हैं और हाँ, जनगण ने इन मछलियों के होठों पर लिपस्टिक भी लगाई है. सुर्ख लाल रंग की लिपस्टिक.

अपना आखिरी चित्र, जो वह पूरा किये बगैर चला गया, कई मायनों में पूरा ही है. सिर्फ़ अलंकरण बाकी है. मछलियों की आँखें और होंठ चित्रित करना बाकी है. पानी में तैरती वनस्पति बाकी है, शायद वे छोटे जीव भी हो सकते हैं. ये मछलियाँ मसवासी देव के जाल और शिकार से बाहर हैं. जनगण पहली बार कुछ ऐसा चित्रित कर रहा है, जो उसके परधान समुदाय की स्मृति का अंश नहीं है. यह एक यथार्थवादी चित्रण है, जो परधानों की परम्परा में शहरी दरार है. न जाने क्यों जनगण इस विषय पर पहुँचा. क्या जनगण अपनी पारम्परिक सोच से बाहर इन मछलियों तक पहुँचा, जो लिपस्टिक लगाये हैं? जनगण के पास विषय चुक गये थे? वह क्यों आकर्षित हुआ इस तरह के ग़ैर पारम्परिक विषय की ओर? क्या जनगण अब अपना आदिवासी होना भूल रहा था या शहरी सभ्यता का आतंक उसके सर पर चढ़कर बोलने लगा था? घर में अनेक भान्जों को पालना उसकी सामुदायिक मजबूरी थी. वह इस बोझ को उठाने भोपाल नहीं आया था और न ही जापान. एक मजबूरी में वह इसका निर्वाह भी कर रहा था और अपने गहरे विशाद में गहराई भी. इससे बचने का एक रास्ता उसे नज़र आ रहा था और वो अक्सर अपनी पत्नी से कहता रहता था, ‘अब वापस गाँव चलें. जहाँ वो वापस जा न सका.
उसके लिए चित्र बनाना और उसमें रहना ही जीवन था. जनगण के लिये बीस लोगों का पालना, जो युवा और बेरोजगार हैं, मुश्किल काम था. वह अपने लिए नहीं गया था, वह इन लोगों के भोजन प्रबन्ध के लिए कुछ धन कमाने, जुटाने जापान गया था, वह अपने साथ बहुत से चित्र लेकर गया था जिसे मिस्टर हासेगावा खरीद लेते और उसे कुछ अतिरिक्त धन भी मिल जाता. वह जाना नहीं चाहता था. उसके पास छुट्टियाँ नहीं थीं. उसने भारत भवन में छुट्टी की अर्जी नहीं दी थी. वह बिना बताये जापान गया और बिना बताये इस दुनिया से गया.
वह अपने संसार में खुश था, जहाँ उसकी बीबी, तीन बच्चे और चित्र थे. वह ‘उसके संसार मेंअवसाद में था, विशाद में था जहाँ बहुत से लोगों को पालना, नौकरी करना, छुट्टी लेना, यात्रा करना, ठगा जाना, अपमानित होना और अविश्वास से देखा जाना बहुतायत से था.

वह खुश रहा होगा, जब यह संसार छोड़ रहा होगा. 
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अखिलेश 
भोपाल में रहते हैं. इंदौर के ललित कला सस्थान से डिग्री हासिल करने के बाद दस साल तक लगातार काले रंग में अमूर्त शैली में काम करते रहे. भारतीय समकालीन चित्रकला में अपनी एक खास अवधारणा रूप अध्यात्म के कारण खासे चर्चित और विवादित. देश-विदेश में अब तक उनकी कई एकल और समूह प्रदर्शनियां हो चुकी हैं. कुछ युवा और वरिष्ठ चित्रकारों की समूह प्रदर्शनियां क्यूरेट कर चुके हैं.
प्रकाशन :  
एक संवाद, आपबीती ( रूसी चित्रकार शागाल की आत्मकथा का अनुवाद), अचम्भे का रोना, मकबूल ( हुसैन की जीवनी) आदि
56akhilesh@gmail.com

कथा - गाथा : क़ुर्बान : शहादत ख़ान

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यह कहानी बस इतनी है कि क़ुरबानी के लिए बच्चे की तरह पोसे गए बकरे से घर भर को लगाव हो जाता है. जिस अम्मी ने उसे पाला वह बाद में एक माँ की तरह टूट कर बिलखती हैं. विवशता और लगाव के बीच जैसे-जैसे यह कहानी बढती है इसका असर बढ़ता जाता है. कोई बनाव श्रृंगार नहीं. ख़ालिश कथा. यह विचलित करने वाली कहानी है.


शहादत  ख़ान  से उम्मीदें बहुत बढ़ गयी हैं इस एक ही कहानी से. 

क़ुर्बान                                 
शहादत ख़ान 



न दिनों मैं चौथी कक्षा में पढ़ता था. जब अम्मी को बकरीपालने का शौक़ पैदा हुआ था. वह ईदगाह के पीछे वाली बस्ती में जाकर एक बकरी देख भी आई थी और फिर मुझसे बार-बार उसे देख आने का इसरार करने लगी. ताकि मैं जाकर उसे देख लूं और उसे खरीदने के बारे में अपनी पसंद और नापसंद अम्मी को बता सकूं. लेकिन स्कूल, ट्यूशन और फिर आलस की वजह से मैं जा नहीं पाया. 

अम्मी ने भी इस पर कोई ऐतराज नहीं किया और एक दिन वह पड़ोस की एक औरत के साथ जाकर खुद ही सात सौ रुपये में उसे खरीद लाई थी. वह हल्के कत्थई रंग की बकरी थी. उसके माथे पर सफेद रंग का एक निशान था. कान छोटे-छोटे और नुकीले थे. उसके सींग नहीं थे. इसलिए अम्मी उसे मुंडीबकरी कहती थी.जब वह आई थी तो बहुत दुबली पतली थी. इतनी दुबली की उसकी पसलियां तक गिनी जा सकती थी. लेकिन अम्मी की देखभाल से वह जल्दी गोल-मटोल हो गई थी. अम्मी जब उसे घास खाने के लिए बुलाती तो कहती, आजा है मुंडी... ,घास खा ले...,तो वह भी अम्मी के आवाज़ सुनते ही उनके पास दौड़ जाती.

हमारे घर आने के दो महीने बाद ही वह नए-दूध हुई थी. तब अम्मी ने कहा था,अगर हमारी बकरी ने पहला बकरा दिया तो वह अल्लाह नाम का होगा.यानी आने वाली ईद-उल-अजहा (बकरा-ईद) पर हम उसकी कुर्बानी करेंगे.

और फिर अगले पाँच महीनों तक वह हर नमाज़ में उस सास की तरह जिसकी बहु पहली बार हामला (गर्भवती) हो और वह अल्लाह से दुआ करती हो कि तू उसकी बहू को पहला बेटा ही देना... दुआ करती रही थी, ऐ अल्लाह तू हमारी बकरी को बकरा दियो. चाहे एक देना... लेकिन बकरा ही देना....

साथ ही वह उसके खाने पीने का भी बहुत ख्याल करती थी. वह सुबह ही उसके सामने ताजा और हरा घास खाने को रख देती थी. जिसे छोटा भाई घास मंडी से खरीदकर लाया करता था. दोपहर में वह उसके लिए भुस की सानीकिया करती और रात को मौसमी का गुद्दा खाने को देती थी. जिसे वह मौहल्लों के उन बच्चों कोदो-पाँच रुपये देकर मंगवा लिया करती थी जो बाजार में ढाबों, दुकानों और ठेलियों पर काम किया करते थें.

ठीक पाँच महीने बाद जुमे के दिन बकरी बिहा गई थी और उसने बकरा ही दिया था. काले रंग का. उस पर जगह-जगह सफेद रंग के चित्तीदार धब्बे थे. अपने माँ की तरह नुकीले कान और माथे पर सफेद निशान. अकेला होने के कारण वह काफी मजबूत और स्वस्थ था. अम्मी उसे देखकर बहुत खुश हुई थी. होने के पाँच मिनट बाद ही उसने चलना शुरु कर दिया था. अम्मी ने हाथ के नखुनों से उसके खुरों को चूट दिया था ताकि बड़े होने पर वह लंबे और बेतरबीत न निकल आए. साथ ही उन्होंने उसका नाम भी रख दिया था, कुर्बान.

अब वह दो हो गए थे. इसलिए अम्मी ने उन्हें घर में बांधने की बजाय बैठक के आगे बनी एक छोटी सी कोठरी में जिसे हम लोग दुकान कहते थे, बांधना शुरु कर दिया. वह उन्हें सारा दिन खुला रखती. रात को इशा की नमाज़ के बहुत बाद में जाकर उन्हें बांधती. फिर सुबह फज़र की नमाज़ के वक्त खोल देती. दुकान का दरवाज़ा बाहर सड़क पर खुलता था. इसलिए जब सुबह में हमसे से कोई एक उन्हें जाकर खोलता तो दरवाज़ा खुलते ही कुर्बान सड़क पर एक लंबी दौड़ लगा देता. वह उछलता-कूदता दूर नहर तक जाता और फिर वापस आकर अपनी माँ की पिछली टांगों के बीच घुस जाता. दूध पीते वक्त वह अपनी छोटी सी पूंछ को हाई-स्पीड से चलते पंखे की तरह फर-फर हिलाता रहता. बकरी के थनों में इतना दूध होता था कि पीते-पीते उसके मुँह के दोनों ओर से सफेद झाग निकलने लगते और फिर जब उसका पेट भर जाता तो वह छिंकता-धसकता इधर-उधर गर्दन हिलाने लगता.

नमाज़ पढ़कर अपने घरों को जाते लोग जब उसको दूध पीते हुए पूंछ हिलाते देखते तो वह हँसने लगते. हम भी उनसे मज़ाक में कहते, आ जाओ ताऊजी... हवा खालो....

स्कूल से आने के बाद शाम को हम दोनों भाई उसे और उसकी माँ को चराने ले जाया करते थे. कभी नहर पर तो कभी बाग में. कभी सड़क के इस तरफ तो कभी नहर के उस तरफ. जहां वह चरता तोकुछ नहीं था बस सारा वक्त हमारे पीछे भागता रहता. कभी हमारे टक्कर मारता तो कभी हमारे पास आकर बैठ जाता. फिर मुँह के इशारे से हमे पीठ पर खुसाने को कहता. उसकी माँ की तरह उसके भी सींग नहीं निकले थे. अम्मी की ज़बान में वह मुंडा बकरा था.  

कुर्बान अम्मी से कुछ ज्यादा ही हिल गया था. वह सारा दिन उनके पीछे-पीछे घूमता रहता. अगर वह बाहर तो बाहर और घर के अंदर होती तो अंदर. और जब वह नमाज़ पढ़ती तो वो उनके मुसल्ले के सामने आकर बैठ जाता. फिर जब वह नमाज़ खत्म करके मुसल्ला उठाकर उसे अंदर रखने जाती तो वह भी उनके पीछे-पीछे अंदर चला जाता. जहां वह उसे कभी मुट्ठी भर गेहूँ, कभी मक्का तो कभी चने खाने को दे दिया करती थी. यह उसका रोज का काम था. हालाँकि वह हमेशा अंदर कमरे में नहीं जाता था. बिजली के चले जाने पर जब कमरे में अंधेरा होता तो वह दरवाज़े पर ही रुक जाता और अम्मी के आने का इंतज़ार करता. जब किसी दिन वह नहीं आता तो अम्मी बाहर गली के दरवाज़े पर खड़ी होकर कहती
 आजा रे कुर्बान... ले... किटुउ-किटुउ...,

ओर वह जहां कही भी होता आवाज़ सुनते ही फौरन चला आता.

कुछ ही महीनों में वह काफी बड़ा हो गया था. भारी और बलशाली भी. एक बार अब्बू जी उसे नहर पर घूमाने ले गए थे. वापसी में आते वक्त पता नहीं उसे क्या सूझा कि एकाएक दौड़ पड़ा. उसका रस्सा हाथ में पकड़े अब्बू जी उसे पूरी जान लगाकर रोकने की कोशिश करते रहे. लेकिन वह रुका नहीं. उन्हें भी अपने साथ खींचता चला गया. जब उनसे उसके साथ भागा नहीं गया और उसका रस्सा उनके हाथ से फिसलता चला गया तो उन्होंने उसे छोड़ दिया. छूटते ही वह इतनी तेज़भागा कि घर आकर ही रुका. उसके पीछे-पीछे हांफते हुए अब्बू जी आए और फिर उन्होंने कहा,

इसमें तो मेरे से भी ज्यादा जान है... साला बहुत तेज़ भागता... आज इसने मुझे गिरा ही दिया होता.... माशाअल्लाह तुम्हारा बकरा बहुत अच्छा हो गया है तंज़ीला...,
उन्होंने अम्मी से कहा.

अम्मी उस वक्त नमाज़ पढ़ने के बाद मुसल्ले पर बैठी हुई उंगलियों के पोरों पर तस्बीह पढ़ रही थी. कुर्बान उनकी बगल में ही आ खड़ा हुआथा. अब्बू जी की बात सुनकर उन्होंने मुस्कुराते हुए अपने दोनों हाथ उसकी गर्दन में डाल दिए और उसके लाड करते हुए कहा,

हें... आज तू इन्हें गिरा देता कुर्बान...,
फिर उसके मुँह पर अपनी नाक रगड़ते हुए कहा,
मेरा सोना बच्चा.

रमज़ान के दिनों में वह ओर भी ठाड़ा (मोटा)हो गया था. उन दिनों दौड़ना तो दूर ज़ीने पर चढ़ते हुए ही वह हांपने लगता था. एक-एक पैडी पर बड़े आराम से और सुस्ता-सुस्ता कर चढ़ता. रमज़ान का महीना था. ईद आने वाली थी और फिर उसके बाद बकरा-ईद. इसलिए शहर में उन दिनों चोरों का बड़ा शोर मचा हुआ था. पठानकोट में तो एक ही रात में कई घरों से बकरें चोरी हो गए थें. खुद हमारे मौहल्ले में भी दिन में ही एक बकरी चोरी हो गई थी. इसलिए अम्मी ने अब उसे घर में ही बांधना शुरु कर दिया था. वह भी अपनी चारपाई के पाए में. तो भी उन्हें सुकून नहीं था. वह रात को कई दफा उठकर उसे देखती और उसकी पीठ पर हाथ फेरती रहती.

ईद से दो दिन पहले जब आसमान पर कोहरे की बजाय सूरज चमका था और तेज धूप निकल आई थी तो अम्मी ने उसे नहला दिया था. फिर अगले दिन शाम को जब उन्होंने अपने हाथों पर मेंहदी लगाई तो उसके पेट के सफेद हिस्से पर भी मेंहदी से चांद-तारा बना दिया था.

ईद वाले दिन भी जब तेज धूप निकली थी तो उन्होंने उसे फिर नहला दिया था. इस बार नहाने से उसकी हरे रंग की मेंहदी छूट गई थी और उसके नीचे से लाल रंग का चांद-तारा निकल आया था. नहलाने के बाद अम्मी ने एक पुराने शॉले से उसे पोंछ दिया था और अपने साथ ऊपर धूप में ले गई थी जहां वह सीर(सवेयां) बना रही थी. वहां उन्होंने उसे पिसी हुई मक्का और भूने हुए चने खाने के लिए दिए. फिर वह सारा दिन छत पर ही बैठा रहा था. 

दिन गुज़रते गए ओर फिर बकरा ईद का चांद भी दिख गया. अम्मी कुर्बान का ओर भी ज्यादा ख्याल करनी लगी थी. वह भी अब रात-दिन उन्हीं के इर्द-गिर्द मंडराता रहता. चाहे वह उसे कुछ खाने के लिए दे या न दे.

चांद रात वाले दिन हम दोनों भाई बड़े खुश थे. शाम को मगरिब के बाद जब चांद दिख गया तो मौहल्ले के बाकी बच्चों के साथ हमने पूरे मौहल्ले में घर-घर जाकर लोगों को सलाम किया था और उनको ईद की मुबारकबाद दी थी. मौहल्ले में खासी चहल-पहल थी और हर कोई कुर्बानी के बारे में बातचीत कर रहा था. जब लोग हमसे पूछते, तुम किसकी कुर्बानी करोगे...?”

तो हम बड़े शान से जवाब देते,  हम तो बकरे की कुर्बानी करेंगे... आपने वो हमारा कुर्बान देखा है ना... उसी की....इस शान के पीछे भी एक राज़ था. कुर्बानी के जानवर से आपकी आर्थिक हैसियत का पता चलता है. वह समाज में आपके रुतबे और रसूख को प्रदर्शित करती है. जो लोग बकरे की कुर्बानी देते है वह ज्यादा अमीर कहलाते है और समाज में उनका रुतबा भी बढ़ता है.

हमारा जवाब सुनकर वह कहते,  माशाअल्लाह... माशाअल्लाह... तुम्हारा बकरा तो बहोत ठाडा है... उसमें तो खूब गोश्त निकलेगा... हमे भी खिलाओगे या नहीं....

हां हां क्यों नहीं...?आप तो हमारे पड़ोसी है... आपका हक तो पहले बनता है....      

घर से बाहर जितनी चहल-पहल और खुशी थी घर के अंदर उतनी ही खामोशी और उदासी थी. अब्बू जी मस्जिद गए थे और अम्मी अंदर कमरे में पलंग पर बैठी हुई थी. कुर्बान उनके पैरों के पास बैठा हुआ था. वह गुमशुम था. उसने पिछले दो दिनों में लगभग ना के बराबर ही खाया था. बल्कि कुछ खाया ही नहीं था. अम्मी के हाथ से भी नहीं.

अल-सुबहा उठकर हम दोनों भाई अब्बू जी के साथ मस्जिद में नमाज़ पढ़ने गए. मस्जिद,जहां और दिन अंदर के हिस्से को छोड़कर पूरी खाली पड़ी रहती थी वहीं आज वह ऊपर से लेकर नीचे तक और अंदर से लेकर बाहर तक नमाज़ पढ़ने वालों से ठसाठस भरी हुई थी.

मस्जिद से आकर हम लोग तैयार हुए और ईदगाह चले गए. वहां से आने पर देखा तो पूरे मौहल्ले में गेंदे के फूलों की माला पहने कुर्बानी के जानवरों और उन्हें घेरकर चलते (हिस्सेदार, बकरे को छोड़कर हर बड़े जानवर में सात हिस्सेदार होते हैं.) टोपी पहने लोगोंकी बाहर थी. उनके सिवा वहां ओर कुछ दिखाई ही नहीं दे रहा था.   

हम ने भी कुर्बान को अच्छी तरह तैयार किया हुआ था. उसके गले में गेंदे और गुलाब के फूलों की माला पहनाई हुई थी. उसके माथे पर मेंहदी से चांद-तारा बना हुआ था. वह बहुत अच्छा लगा रहा था. पर बहुत उदास भी. अब्बू जी जब उसे कुर्बानी के ले जाने लगे तो बहनें रोने लगी थीं और अम्मी तो अंदर वाले कमरे से बाहर ही नहीं निकली. उन्होंने मुझसे कहा,चलो... इसे करवाना नी है क्या...?”

आप जाए... मैं नहीं जाऊंगा... मुझे तो डर लगता है..., यह कहकर मैं अंदर चला गया था. फिर उन्होंने तौहीद, जो छोटे के कारण भी बड़े सख्त दिल का था, से कहा- चल बई... जब वो नहीं जा रहा है तू चल....

तौहीद ने अब्बू जी के कहते ही कुर्बान की रस्सी पकड़ ली और उसे कुर्बानी के लिए लेकर चल दिया. लेकिन तभी मुझसे छोटी बहन आई और वह कुर्बान के गले लगकर रोने लगी. उसने अब्बू जी से कहा,अब्बू जी रहने दो... आप इसे न ले जाए... हमें इसकी कुर्बानी नहीं देनी, आप किसी ओर की कुर्बानी दे दे....

नहीं बेटा... हमने इसे बोल रखा... इसकी पैदाइश से भी पहले... ओर अल्लाह ने हमें यह कुर्बानी के लिए ही दिया... अब अगर हम पीछे हट गए तो अल्लाह नाराज़ हो जाएगा....

अल्लाह इसकी कुर्बानी से कैसे खुश होगाअब्बू जी...?वह तो अपने हर एक बंदों से सात माँओं से भी ज्यादा प्यार करता है... फिर यह तो बेचारा बेजुबान जानवर है... उसे इसकी की कुर्बानी से क्या खुशी मिलेगी...?”

मुझे नहीं पता बेटा... लेकिन यह अल्लाह का हुक्म है.... अब तुम अंदर जाओ....

वह अंदर आ गई और अम्मी केगले लगकर रोने लगी. साथ ही वह कह रही थी, अम्मी, अब्बू जी कुर्बान को ले जा रहे है... आप उन्हें रोकती क्यों नहीं... वह उसकी कुर्बानी दे देंगे... फिर हम उसे कभी नहीं देख पाएंगे....

लेकिन अम्मी ने उसकी किसी बात का कोई जवाब नहीं दिया. वह सारा वक्त खामोश बैठी रही.

अब्बू जी और तौहीद के जाने के बाद मैं भी उनके पीछे-पीछे कुर्बानी वाली जगह पर चला गया था. पर अब्बू जी वहां नहीं थे. बस तौहीद और मौहल्ले के चार-पांच जवान लड़कों ने कुर्बान को जमीन पर लिटा कर उसे पकड़ा हुआ था. कसाई उसे कुर्बान करने के लिए अपनी छुरियां तेज़ कर रहा था. फिर जब उसने बिस्मिल्लाह पढ़कर उसकी गर्दन पर छुरी चलाई तो मैंने अपना मुँह दूसरी तरफ फेर लिया. मैंने देखा कि अब्बू जी दरवाज़े के पीछे छुपे हुए गमगीन खड़े थे और जब उन्होंने दर्द से कराहते हुए कुर्बान की आवाज़ सुनी तो उनकी आँखों में आँसू आ गए थे. यह पहली और शायद आखिरी बार था जब मैंने अपने बाप को रोते हुए देखा था.

एक लोहे के बहुत बड़े टप में भरकर उसका गोश्त घर आया था. लेकिन हममे से किसी ने भी उसका गोश्त चखा तक नहीं. अम्मी ने सारा का सारा मौहल्ले और रिश्तेदारों में बंटवा दिया था. काम खत्म करने के बाद शाम को वह चारपाई पर लेट गई थी, पर रात को उन्हें बहुत तेज बुखार हो गया था. बुखार की हालत में ही वह बार-बार अपनी चारपाई से नीचे छांकती और कहती, कुर्बान कहां चला गया... वह तो यहां है ही नहीं... देखना तो ज़रा... कहीं ऊपर तो नहीं चला गया.

फिर जब वह नमाज़ पढ़ती और सलाम फेरने के बाद कुर्बान को अपने पास न पाती तो  कहती,कुर्बान तो आज आया ही नहीं... देखियो... कहीं बाहर तो नहीं बैठा कहीं...?”इसके बाद वह उठकर खुद ही बाहर गली के दरवाज़े पर आ खड़ी होती और कहती,आजा रे कुर्बान... ले... किटुउ-किटुअ....पर कुर्बान नहीं आता था. वह तो अल्लाह के पास चला गया था उनको खुश करने.

अम्मी को जब इस बात का एहसास होता तो वह अपने मुँह पर दुपट्टा डालकर सुबक-सुबक कर रोने लगती और कहती,आजा रे कुर्बान... ले... किटुउ-किटुउ....

इसके बाद अम्मी ने फिर कभी कोई बकरी नहीं पाली. जो थी उसे भी बेच दिया था.
__________

शहादत  ख़ान
रेख़्ता (ए उर्दू पोएट्री साइट) में कार्यरत, दिल्ली
7065710789. /786shahadatkhan@gmail.com

कथा - गाथा : अ स्टिच इन टाइम : सुभाष पंत

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पूंजी के वैश्वीकरण ने किस तरह पारम्परिक पेशे और उससे जुड़े समूहों को  बर्बाद किया है, इसे समझना हो तो वरिष्ठ कथाकार सुभाष पंत की यह कहानी ‘अ स्टिच इन टाइम’ जरुर पढ़ना चाहिए. ऐसे समूहों की कथा आपको किसी इतिहास की किताब में  दर्ज़ नहीं मिलेगी. जिसे इतिहास नज़र अंदाज़ करता उसे साहित्य सहेज लेता है.

यह कहानी  दर्ज़ी उसके एक कद्रदान  और  मल्टी ब्रांड की एक कमीज़ के इर्द गिर्द बुनी और सिली गयी हैं. नज़र अहमद का यह कहना अंदर तक हिला देता है – ‘यह आखिरी कमीज़ तो नहीं लेकिन यहाँ सिला कोई भी कपड़ा अब आखिरी कपडा़ हो सकता है.’


अ स्टिच इन टाइम                                          
सुभाष पंत


मेरी बेटी टीना ने मुझे जन्मदिन पर एक कमीज़ उपहार में दी. यह एक्सेल गारमेंट् मल्टीनेशनल की शर्ट थी और सलीके से खूबसूरत कार्डबोर्ड के कार्टन में पैक थी.

उस वक्त, याने जब वह ऐसा कर रही थी, उसके चेहरे पर एक आभिजात्य गरिमा थी और वह मुस्कुरा भी रही थी.

मेरे लिए यह समझना काफी मुश्किल था कि उसके व्यवहार में जन्मदिन की खुशी कितनी थी और मुझे युद्ध में हराने का उल्लास कितना था.

पर्दे के पीछे से लतिका झांक रही थी. उसकी उत्फुल्ल उत्सुकता से मेरे कान गर्म हो गए. यह एक भयानक किस्म का अपराध था. मेरे साथ सात फेरे लेने और अग्नि को साक्षी मानकर जीवनभर साथ निभाने का वचन भरने के बाद वह मुझे पराजित देखना चाहती थी. पति-प्रेम में व्याकुल स्त्रियाँ भी अपने पतियों को हारते हुए देखने की महान चाह से भरी रहती हैं. मुझे उसके चेहरे पर भी वही चाहत दिखाई दी.

दरअसल हम एक युद्ध लड़ रहे थे. टीना और मैं. वैसा ही जैसा दो पीढ़ियाँ निरन्तर लड़ रही होती हैं.

लड़ाई के कई मुहाने थे. इस मुहाने का ताल्लुक लिबास से था.

मैं दर्जी से कपड़े सिलवाकर पहनता था. अमन टेलर्ज के मास्टर नज़र अहमद से. मेरी नज़रों में वे सिर्फ दर्जी ही नहीं, फनकार थे. कपड़े सिलते वक्त ऐसा लगता जैसे वे शहनाई बजा रहे हैं, या कोई कविता रच रहे हैं.... हालांकि उनका शहनाई या कविता से कोई ताल्लुक नहीं था.

यह श्रम का कविता और संगीत हो जाना होता.   
टीना दर्जी से सिले कपड़ों से सख़्त नफ़रत करती.
उसका ख़याल था कि कपड़े विचार हैं...

यह बात मुझे सांसत में डाल देती. लेकिन वह मुझे इस तर्क से ठंडा कर देती कि तिलक-घोती-कुर्ताधरी कभी भी बिग बैंग या ब्लैकहोल के बारे में नहीं जान सकता. वह सिर्फ वेद-पुराणों में महदूद रहता है, जो हजारों साल छोटे दिमागों के सोच की अभिव्यक्तियाँ हैं.

उसने मुझे एक महीन और शालीन चालाकी से परास्त कर दिया. उपहार को अस्वीकार करके उसका दिल तोड़ना मेरे लिए मुमकिन नहीं था. बेटी का नाज़ुक दिल. कमीज़ मुझे पहननी ही थी. यह उसकी विजय थी और नज़र अहमद के विश्वास का आहत होना था.

वह कभी नज़र अहमद को नहीं जान सकती. फैशन डिजाइनिंग के सिलेबस में नज़र अहमद नहीं पढ़ाया जाता. मैरिट में आने और हमारे समझाने के बावजूद टीना ने मैडिकल ज्वाइन नहीं किया था. उसके पास मैंडिकल में सात-आठ साल बर्बाद करने का वक्त नहीं था. उसे दो साल के बाद चार लाख एनम का पैकेज़ चाहिए था.

वह फैशन डिजाइनिंग में डिप्लोमा कर रही थी. उसकी उम्र तेईस थी और उसके पास वक़्त नहीं था.

उसकी नज़रें मेरे चेहरे पर टिकी हुई थीं और मेरे हाथ में गिफ्ट पैक था. वह चाहती थी कि मैं उसे आक्रामक उत्कंठा के साथ खोल कर देखूँ और उसके चुनाव की प्रशंसा करूँ. जाहिर है, मैं ऐसा करना भी चाहता था. तभी यह मानसिक दुर्घटना हो गई और मुझे कार्टन पर नज़र अहमद का चेहरा दिखाई दिया. धुएँ की लकीर से बनाया हुआ-सा.

कार्टन पर उतरा यह वही चेहरा था जिसे मैंने छै एक महीने पहले तब देखा था जब टेलर मास्टर कमीज़ सिलने के लिए मेरा नाप ले रहे थे. अफ़सोस. यह एक थका हुआ भयभीत चेहरा था. उनके वर्कशाप में भी वैसी रौनक नहीं थी, जैसी अमूमन रहा करती थी. सिलाई मशीन और कारीग़रों की संख्या बहुत कम हो गई थी. शहर भव्य हो रहा था और अमन टेलर्ज के छत की कड़िया झुक रही थीं. काउंटर की पॉलिश फीकी पड़ गई थी और दीवारें बदरंग हो रहीं थी. हवा बेचैन थी. मानों कोई पका फोड़ा फटने के लिए धपधपा रहा है...

इच्छा हुई. मालूम करूँ. क्या है, जो अमन टेलर्जं को भीतर ही भीतर खा रहा है. वे कान में खोंसी पैंसिल निकालकर कापी में उर्दू में नाप लिख रहे थे. उसे पढ़ना मुमकिन नहीं था. लगा वे पेंसिल की घिसी नोक से ग़लत नाप उतार रहे हैं. उनके हाथ काँप रहे थे और आँखें भावहीन थी. वे अपने क़द से कुछ छोटे भी लग रहे थे.

पूछना मुनासिब नहीं लगा.

‘‘क्या सोचने लगे पा...? आपने तो अब तक इसे देखा ही नहीं.’’टीना ने कार्टन पर उभरे नज़र अहमद के धुएँले चेहरे से मेरा ध्यान अपनी ओर खींचा.
‘‘दरअसल कार्टन ही इतना अट्रैक्टिव है...’’मैंने कहा और कार्टन से कमीज़ बाहर निकाला. वह एक महीन गत्ते पर आलपिनों से बंधा हुआ था और उसकी कालर प्लास्टिक की टेक पर अकड़ी हुई थी.

टीना ने सलीके से पिन निकाल कर कमीज़ मेरे सीने पर सजाते हुए पूछा, ‘‘कैसी लगी?’’
‘‘थैंक्यू बेबी. अच्छी क्यों नहीं लगेगी. महानायक इसके ब्रांड ऐम्बेसेडर हैं और यह वुड बी फैशन स्पेशलिस्ट की च्वाइस है.’’

‘‘बर्थ डे पार्टी में यही शर्ट पहनिएगा.’’ टीना ने आग्रह किया.

मैं पार्टी में अमन टेलर्ज़ से सिली वही कमीज़ पहनना चाहता था जिसके सही नाप के बारे में मुझे तब शक हुआ था जब नज़र अहमद ने उसे घिसी पेंसिल और काँपते हाथ से कापी में उतारा था. नियत तारीख को मैं कमीज़ लेने गया तो नज़र ने अलमारी से निकालते हुए कहा कि मैं उसे पहन का देख लूँ. मुझे अचरज हुआ. उन्हे अपने सिले कपड़ों, खा़स कर कमीज़-पैंट वगैरह पर पूरा विश्वास रहता था और वे कभी ट्रायल नहीं लेते थे. क्या उन्हें अपने पर विश्वास नहीं रहा या उन्हें खुद शक था कि उनसे नाप ग़लत लिया गया है. यह एक तैराक के पानी में डूबने की तरह था.

मैंने कमीज़ पहनी और मुझे सुखद आश्चर्य हुआ. उसमें कहीं कोई झोल या अटक नहीं थी. वह पूरे परफैक्शन के साथ सिली गई थी. नज़र ने ऊपरी बटन बंद करके उसके कॉलर का मुआइना किया और मेरी कॉख के नीचे हाथ डालकर उसका फाल देखा. उसे निर्दोष पाकर उनका चेहरा खुशी से चमकने लगा.

‘‘मास्टरजी आप इसे ऐसे देख रहे हैं जैसे यह आपकी बनाई आखिरी कमीज़ हो.’’मैंने कमीज़ उतारते हुए कहा.

उनका चेहरा फक्क हो गया. उन्होंने कमीज़ तहाकर पॉलीथीन के कैरीबैग में डाली और बिना कुछ बोले उसे काउंटर पर रख दिया.

‘‘आपकी तबीयत तो ठीक है? बहुत उदास और थके दीख रहे हैं...’’ मैंने काउंटर से बैग उठाते हुए कहा.

सूखी-सी हँसी से उनके चेहरे की झुर्रियां काँपने लगी. झुर्रियों के काँपने से मैंने जाना कि उनका चेहरा बेतहाशा झुर्रियों से भर गया है. उनकी कमर झुक चुकी है और उनका क़द छोटा हो गया है. यह अजीब बात थी. वे वक्त के साथ छोटे होते जा रहे थे....

‘‘तबीयत ठीक है,’’ उन्होंने कहा, ‘‘जैसा आपने फरमाया...यह आखिरी कमीज़ तो नहीं लेकिन यहाँ सिला कोई भी कपड़ा अब आखिरी कपडा़ हो सकता है...’’

‘‘क्या कह रहे हैं मास्टरजी? अमन टेलर्ज़ तो शहर की शान है...’’मैंने आश्चर्य और खेद के साथ कहा.

‘‘दरअसल अब रेडीमेड गारमेंट्स का जमाना है. इन्हें बनाने के लिए आई बड़ी कम्पनियों ने दर्जियों के कारोबार को मंदी में धकेल दिया है. कारीग़रों का मेहनताना निकालना ही मुश्किल हो गया. हमारा यह धंधा बंद होने के कगार पर है. बच्चों का मन दुकान से पूरी तरह उचट गया है. बड़ी मछली के सामने छोटी मछली बहुत दिन टिकी नहीं रह सकती...कभी हमारे भी दिन थे. आपने ठीक फ़रमाया, खुदा की मेहरबानी से हमने एक शानदार वक्त बिताया है...लेकिन अब तो जनाब हम हाशिए में हैं...’’उन्होंने कहा और कमज़ोर-सी खाँसी खाँसे, जो गले से नहीं दिल से उठ रही थी.

मुझे धक्का लगा. लेकिन अर्थ और बाज़ार के समीकरण के बारे में कुछ भी न जानने की वजह से मैं उन्हें कोई दिलासा नहीं दे सका. वैसे भी वे उम्र और अनुभव में मुझसे बड़े और समझदार थे.

अमन टेलर्ज़ की सीढ़ियाँ, और शायद अंतिम बार, उतरते हुए मैं अफ़सोस से भरा हुआ था. शानदार विरासत टूट रही थी. एक धड़कती हुई कहानी का यह त्रासद अंत था.

‘‘दरअसल मैं चाह रहा था कि नज़र अहमद से सिलवाई कमीज़ पहनूँ...’’
‘‘हैल नज़र! पता नही ये मरदूद देसी दर्जी आपका पिंड कब छोड़ेंगे....’’टीना ने कहा. उसके चेहरे पर तिरस्कार के ठोस अक्स उतर गए.
‘‘बहुत जल्दी...’’मैंने कहा, ‘‘शायद नज़र अहमद की सिली मेरी यह कमीज़ आखिरी कमीज़ है. अमन टेलर्ज़ मर रहा है और मुझे इसका अफ़सोस है.’’
‘‘युर वेरी सैंटी पापा. यह फ़ैशन बाज़ार है...इसमें वही टिकेगा जिसके पास एस्थोटिक है, जो इमेजिनेटिव है और इनोवेटिव है.’’
‘‘नही, जिसके पास पैसा और ताक़त है. वह बाकी चीजें ख़रीद लेगा और उन्हें कूड़ेदान में फेंक देगा जिनसे वह उन्हें ख़रीदेगा.’’

लतिका उत्सव की तैयारी में जुटी हुई थी. यह मेरे जन्मदिन का उत्सव था, जिसमें मेरे नहीं लतिका और टीना के मेहमान आने वाले थे. वह हमारी ओर मुखातिब हुई और टीना के पक्ष में सन्नद्ध हो गई. उसने हाथों से हवा को छुरी की तरह काटते हुए कहा, ‘अमन टेलर्ज़ का मरना, जैसा कि तुमने कहा, एक अफ़सोस की बात है. लेकिन उसकी सिली कमीज़ पहनने से...और खासकर ऐसे मौके पर जब फैशन जगत की हस्तियाँ हमारे उत्सव में शामिल हो रही हैं...उम्मीद है रितु बेरी भी...तुम्हे कपड़े तो कायदे के पहनने ही चाहिएँ.’’

मेरे पास कमीज़ पहनने के अनेक तर्क थे. मसलन नज़र अहमद की सिली आखिरी कमीज़ को मैं वह सम्मान देना चाहता था, जिसकी वह हकदार थी. वे कभी शहर का क्रेज थे और अब रद्दी की टोकरी में फेंके जा रहे थे. मैं उसे एक प्रतिरोध के रूप में भी पहनना चाहता था. महात्मा गांधी की तरह जिन्होंने मानचेस्टर की मिलों से आए कपड़ों से मरते जुलाहों को जिन्दा रखने के लिए खादी और चर्खे को आजादी का प्रतीक बनाया था. और सबसे बड़ी बात कि अपने जन्मदिन पर मुझे अपने हिसाब से कपड़े पहनने का अधिकार था.

मैं चुपचाप लेकिन गम्भीरता से उन्हें चित्त करने का धांसू तर्क खंगालने लगा. विचार काल के इस मौंन को लतिका ने मेरी कमज़ोरी माना और मुझ पर जज्बाती हमला बोल दिया, ‘‘तुम्हारी बात अपनी जगह सही हो सकती है...फिर भी तुम्हे बेटी का दिल तोड़ने का अपराध नहीं करना चाहिए...उसने कितनी चाहत से इसे खरीदा है. आजकल के बच्चे अपने माँ-बाप को धेले के लिए भी नहीं पूछते. अपनी टीना...वह तुम्हे अपने दोस्तों के बीच एक दकियानूस पिता की तरह पेश नहीं करना चाहती. पहनावे का दकियानूसी से सीधा ताल्लुक है.’’

भावनात्मक आक्रमण ने मुझे धकेलकर विवश कोने में खड़ा कर दिया.
टीना मौके का फायदा उठाकर मुझ पर छा गई, ‘पा...माई ग्रेट पा...’’

 मैं माँ-बेटी की घेराबंदी में फँस गया. वहाँ सिर्फ हार थी. मैं यह लड़ाई हार चुका था. उसी तरह जैसे ऐसी लड़ाइयों में पिता हारते ही हैं. निर्मम-भावुक विवश्ता में मुझे अपने जन्मोत्सव पर टिना की लाई कमीज़ ही पहननी थी.

यह हत्याओं का मामला था. ऐसी, जिसमें हत्यारों को हत्यारा नही माना जा सकता और उन्हें सजाएँ नहीं दी जा सकतीं. ये बहुत नसीफ हत्याएँ थीं. शानदार उत्सव की तरह...

बाजार अमन टेलर्ज़ को छीन रहा था और टीना उसकी बनाई अंतिम कमीज़ मुझसे छीन रही थी....


उत्सव की तैयारियाँ लगभग पूरी हो चुकीं थी और फिनिशिंग टच दिया जा रहा था. दो मिनट पहले ही रितु बेरी का फ़ोन आया था. वे करीब पौन घंटे के बाद यहाँ आने वाली थीं. एक लड़का ब्रश औेर रंगों के साथ ड्राइंग शीट पर झुका हुआ था. मैंने अंदाज लगाया. वह रितु बेरी के स्वागत में पोस्टर या प्लेकार्ड तैयार कर रहा होगा, जिसे टीना स्वागत द्वार पर सजाएगी या उस वक्त हाथ में हिलाती रहेगी जब रितु बेरी आएँगी.

मैं टलते हुए उसके पास गया और मेरा अनुमान उसी तरह गलत निकला जैसे अमूमन वे निकलत रहे. ड्राइंगशीट पर रितु बेरी नहीं, मेरा कैरीकेचर था और उसके नीचे लड़का आपको पचासवें जन्मदिन की शुभकामनाएँलिख रहा था. कैरीकेचर में एक मशहूर मसखरे नेता की नजदीकी झलक दिखाई दे रही थी. मुझे टीना का यह मज़ाक अच्छा लगा. उसकी निगाह में मैं देश के नीति निर्धारको की बराबरी का था, भले ही वे मसखरे हों. लेकिन एक मायने में यह सदमा देने वाला भी था क्योंकि इस मौलिक किस्म की रचनात्मक सोच के पीछे जाहिर है कि लतिका का शातिर दिमाग काम कर रहा होगा. वह प्रेमिका रहने के बाद मेरी पत्नी बनी थी. 

टीना रैपअप जीन और फरहरा पहने और गले में मोबाइल लटकाए पर्दे ठीक कर रही थी. उसने मेरी ओर नज़र घुमाकर बनावटी रोष से कहा, ‘ये क्या? आप अब तक तैयार नहीं हुए. रितु बेरी आनेवाली हैं. उनके पास बीसेक मिनट का टाइम है और उसी दौरान केक काटा जाना है.’’

मेरी इच्छा यह पूछने की हुई. क्या इतने बड़े केक भी होते हैं जिसमें पचास बर्थ डे कैंड़िल भोकी जा सकें. लेकिन ऐसा पूछने से टीना रुष्ट हो जाती. वह फक्कड़ मस्ती और जन्मदिन उत्सव के दारुण उत्साह से लबरेज थी. मैंने जिज्ञासा को काबू किया. मुस्काया और बोला, ‘‘ओके बेबी. मैं वक्त से तैयार हो जाऊँगा. वैसे, तुम्हारा यह कलाकार मजेदार लड़का है.’’

‘‘हाँ, पिंटू में महान कार्टूनिस्ट की अपार संभावनाएं हैं.’’

मुझे इस बात से खुश होना चाहिए था और मैं हुआ भी. भविष्य का एक महान कार्टूनिस्ट मेरे कैरीकेचर से अपने व्यावसायिक जीवन की शुरूआत कर रहा था. मैंने उसे शुभकामनाएँ दी और वापिस हो गया. अब मुझे तैयार होना था. इस मामले में भी मैं लतिका से पीछे रह गया था. वह काफी देर पहले पारलर जा चुकी थी और अब लौटने ही वाली थी.

मैंने कमरा भीतर से बोल्ट कर लिया. पौन घंटे का यह वक्त मेरा था, जिसे मैं इसे अपनी तरह से बिता सकता था. बाहर खिड़की के सामने पेड़ की शाख पर एक चिड़िया बैठी थी.

यह समझना काफी मुश्किल था कि उसे मौसम ने थका दिया था और वह सुस्ता रही थी, या फिर वह आसमान को चीरने वाली लम्बी उड़ान भरने के लिए अपने भीतर विश्वास पैदा कर रही थी. यह एक प्रेरक दृश्य था लेकिन मेरी चिन्ताएँ दूसरी थीं. मैंने फौरन अमन टेलर्जं से सिलवाई कमीज़ निकाल कर मेज पर फैला दी. यह सिर्फ मेरे लिए सिली गई कमीज़ थी, जो ऐलानिया बाज़ार में ख़रीदी या बेची नहीं जा सकती थी और मेरी एक अलग पहचान कायम करती थी.

क्मीज़ पहनकर मैं आइने के सामने खड़ा होकर अपने को निहारने लगा. वैसे ही जैसे लतिका तैयार होकर मुग्धभाव से अपने को निहारते हुए कैसी लग रही पूछती है. नाजुक दिल का सवाल फिर आड़े आ जाता. बाध्य. बहुत खूबसूरत लग रही हो कह कर मुझे ज्यादातर प्रमाण में उसे चूमना पड़ता. औरतें चालाक होती हैं. वे अपने को चुमवाने के सारे तरीके जानती हैं और चुपचाप उन्हें अमल में भी लाती हैं.

मैं सुखद अनुभूति से भर गया. भीतर तक अपनेपन के अहसास से मेरी आत्मा भींग गई. कुछ ऐसे ही जैसे बादल सिर्फ मेरे लिए बरस रहे हैं. कमीज़ के कंधे वैसे ही थे जैसे मेरे कंधे थे. आस्तीन के कफ ठीक वहीं थे जहाँ उन्हें मेरी आस्तीन के हिसाब से होना चाहिए था. कॉलर का ऊपरी बटन बंद करने पर वह न गले को दबा रहा था और न जगह छोड़ रहा था. कांख पर न कोई कसाव था और न वह ढीली झूल रही थी. पल्ले का फाल उतना ही था, जितना मैं चाहता था. और सबसे बड़ी बात यह थी कि कमीज़ का दिल ठीक उस जगह धड़क रहा था जहाँ मेरा दिल धड़कता है....

विजय के आनन्द की सघन अनुभूति में मैंने उत्ताल तरंग की तरह कमरे के चक्कर लगाए और सिगरेट सुलगाकर धुएँ के छल्ले उड़ाने लगा. मेरी आत्मा झकाझक और प्रसन्न थी. मैं इन क्षणों को, जो बहुत देर मेरे साथ नहीं रहने वाले थे, पूरी शिद्दत के साथ जीना चाहता था. कुछ देर बाद कभी भी दरवाज़ा खटकने वाला था और मुझे दरवाज़ा खोलने से पहल अपनी प्यारी बेटी की लाई शर्ट पहन लेनी थी.

मेरे कान चैकन्ने थे और कमरे में बंद रहने के बावजूद बाहर की सम्पूर्ण गतिविधियों की टोह ले रहे थे. सरगर्मी बढ़ गई थी. आवाज़ें और चहलकदमी थी. शायद बेकर्स से बर्थ डे केक आ चुका था, जिस पर पचास बर्थ डे कैंडिल लगाई जानी थीं. जिन्हे लतिका और टीना लगाएँगी और मुझे एक फूंक में बुझाने के लिए कहा जाएगा. उनके बुझते ही, जो एक से ज्यादा फूंक में बुझेगी, लतिका मेरे हाथ को सहरा देकर केक काटने में मेरी मदद करेगी. इसी के साथ तालियों की गड़गाहट और हैप्पी बर्थ डे टू यूका संगीत गूँजने लगेगा और मैं सदी का एक और वर्ष पिछड़ा आदमी हो जाऊँगा. एक और वर्ष जिद्दी बूढ़ा, जिसे अपने दर्जी की व्यवसायिक मौत बर्दाश्त नहीं होती....

मैंने पता नहीं कब धुएँ के छल्ले बनाने बंद कर दिए. धुआँ अब काँपती लकीर की तरह ऊपर उठ रहा था. हवा से टूटकर और उसकी मर्जी से आकार बदलते हुए. ये ऐसे रूपाकार थे जो मैं या कोई भी चाहकर नहीं बना सकते थे. प्रकृति असंभव कल्पनाओं की कलाकार है. सिगरेट जलते हुए छोटी पड़ गई थी और मेंरी उंगलियों को जलाने की कोशिश में थी. मैंने सिगरेट झटकी और जूते से मसल दी. पी कर फेंकी हुई सिगरेट मसली ही जाती है. ऐश ट्रे में, ज़मीन पर या कहीं भी.

कमीज़ पहने हुए एक सिगरेट वक्त गुजर चुका था. मैं एक और सिगरेट वक्त की रियायत चाहता था. यह संभव नहीं था. बाहर टीना अधीर थी और लतिका उससे भी ज्यादा. वह पारलर से तैयार होकर आ चुकी थी और उत्सव शुरु होने की बेचैनी से भरी हुई थी. अजीब बात थी. जन्मदिन मेरा था और बेचैन दूसरे लोग थे.

मैंने बुझे मन से कमीज़ उतारी. उसे तहाया और कपड़ों के इतने नीचे रख दिया कि उसे दफना दिया गया हो...एक अफसोस के साथ. मैंने उसके साथ एक कहानी भी दफना दी थी.    

टीना की कमीज़ मेरी नाप के अनुसार नहीं थी. ऐसी कमीजें किसी की भी नाप के मुताबिक नहीं होतीं. ये पहनने वाले से रिश्ता कायम करके नहीं बनाई जातीं. इनका नाप स्टेटिटिस्क्स की मोस्ट अकरिंग फ्रिक्वेसीज़ है. बहरहाल, ढीली फिटिंग के बावजूद उसमें आक्रामक उत्तेजना थी. शोख, गुस्सैल पर मोहक लड़की की तरह. उसके साथ समझौता करना होता है मैंने भी किया और कमीज़ पहनली. उसे पहनते ही मैंने महसूस किया कि मैं बदल गया हूँ. मैं ज्यादा संस्कारित, सभ्य और कीमती हो गया. बड़प्पन की ऐंठ से मेरी छाती फैल गई. सीना गदबदाने लगा और आँखों की झिल्लियाँ फैल गईं. मेरे पीछे ताकतें थीं. आला दिमाग, श्रेष्ठ अभिकल्प और महानायक थे. मैं सतह से ऊपर उठ चुका था.

मैंने डान क्विग्जोहट के वीरोचित साहस में दस्तक होने से पहले दरवाज़ा खोला और बाहर निकल गया.

टीना ने मेरी ओर देखा. अंगूठे और तर्जनी को मिलाकर छल्ला बनाकर मेरे कान में चिहुँकी, ‘‘मस्त...पा एकदम मस्त...’’

हॉल टीना और लतिका के मेहमानों से भरा हुआ था. पारलर की मेहरबानी से दस बरस छोटी हुई लतिका चहकती हुए किसी से बात कर रही थी. मुझे कमरे से निकलते देखकर उसने प्रसंग बीच में ही काटा, फुर्ती से लपकी और उस कुर्सी तक ले जाने के लिए, जिस पर बैठकर मैंने केक काटना था, मेरा कंधा थाम लिया. वह छात्रजीवन में नाटकों में अभिनय करके खासी ख्याति अर्जित कर चुकी थी. उसने माहौल में सहजरूप से ईर्ष्या योग्य आदर्श दाम्पत्य निर्मित कर लिया था. कुर्सी के पीछे की दीवार पर ऐन मेरे सिर के ऊपर मेरा कैरीकेचर टांगा जा चुका था. मेरा खयाल है कि इसके पीछे माँ-बेटी का मकसद उत्सव में हास्य रस पैदा करना रहा होगा क्योंकि अमूमन ऐसे उत्सवों पर संजीदा किस्म का आदमी होने के गरूर में मेरा थोबड़ा लटका रहता था. उत्सव में शामिल लोगों में वह खासी दिलचस्पी पैदा कर रहा था और वे उसे देखकर प्रसन्न थे.

मेज पर ट्रे में केक रखा था. वह बहुत बड़ा तो नहीं था, लेकिन मेरी आशंका को निर्मूल करते हुए उसमें पचास बर्थ डे कैंडिल सजी हुई थीं, जिन्हें लतिका और टीना ने खासे कौशल से लगाया था. वे अभी जलाई नहीं गईं थी. उसकी बगल में लेटे हुए आयताकार आधार पर हत्थे में गुलाबी रंग के फूलवाला एक खूबसूरत चाकू टिका हुआ था.

एक गोलमटोल, गाबदू और उत्सुक बच्चा अपनी काली और चमकीली आँखों वाली नुकीली माँ से पूछ रहा था कि वहाँ वैसे गुब्बारे क्यों नहीं लटकाए गए हैं, जैसे गुब्बारे उसकी पार्टी में लटकाए जाते हैं और अंकलजी ने रंगीन कागज का बना लम्बी चोटी का जोकरों वाला वैसा टोप क्यों नहीं पहना जैसा वह और उसके दोस्त अपने जन्मदिनों पर पहनते हैं.

उसकी माँ का चेहरा गरूर भरी शर्मिदंगी से आरक्त हो गया. उसने हीरे की अंगूठी पहनी उंगली वाले हाथ से बाल सहलाते हुए बच्चे को शांत करने के लिए कुछ कहा, लेकिन उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी कि वह सुनाई नहीं दी. बच्चा फूटते गुब्बारों से झरते फूलों में टाफियाँ लूटना और लम्बी चोटी की टोपी पहनना चाहता था. वह नाराजगी में माँ की कमर में घूसें से मारने लगा. माँ मोहित उसके गुस्से को चूम नही थी. मुझे बच्चे की नाराजगी प्रेरणादायक और शिक्षाप्रद लगी. मैंने तुरन्त फ़ैसला ले लिया कि लतिका के जन्मदिन पर उसके वास्ते रंगबिरंगे कागज का लम्बी पूंछ वाला टोपा बनवाऊँगा. उसके अभिकल्प में टीना की सहायता लूंगा, जो फैशन की दुनिया की होनहार छात्रा है और एक पिता के रूप में उसकी प्रतिभा को निखारना मेरा दायित्व है.

मोमबत्तियाँ जलाने-बुझाने और केक काटने वगैरह जन्मदिन की सारी रस्में रितु बेरी के आने पर शुरु हुईं और उनके जाने से पहले खत्म हो गईं. उन्होंने मुझे बधाई दी, और इस बात का खेद जाहिर किया कि उनके पास समय का अभाव है, वरना वे खाने पर जरूर रुकतीं. कागज की उपयोग-फेंक रकाबी में सजाए केक का टुकड़ा खाते हुए उनकी निगाहें कैरीकेचर पर थी. उन्होंने मुस्कुराते हुए टीना के कान में कुछ कहा. मेरा खयाल है कि उन्होंने इस मौलिक सोच के लिए उसे बधाई दी होगी. लेकिन यह सिर्फ मेरा अनुमान था. हो सकता है उन्होंने कुछ दूसरी ही बात की हो. वे सिर्फ पंद्रह मिनट रुकीं. लेकिन ये मिनट बहुत क़ीमती थे. मीडिया ने उन्हें अपने कैमरे और शब्दों में कैद करके अमरत्व प्रदान कर दिया था. मेहमानों में खलबली मची हुई थी और वे यह जानने को बेचैन थे कि यह क्लिपिंग कब और किस चैनल पर आएगी. दरअसल वे सब अपने को टीवी स्क्रीन पर देखना चाहते थे.

आयोजन का सूत्रधार टीना का व्यवसाई मामा नरेश सफल आयोजन की खुशी में झूम रहा था. ‘‘रितु जी को स्टेशन छोड़ कर आता हूँ. फिर शिवाज रिगेल के साथ आपके जन्मदिन का जश्न मनाया जाएगा. यह कोई छोटा अवसर नहीं, आपका पचासवां जंमदिन है. भगवान करे अगले और पचास साल आपके ऐसे जश्न मनते रहें. बस, गया और आया. मेरा इंतजार करना.’’उसने कहा और तेजी से जिम्मेदार आदमी की तरह बाहर निकल गया.

टीवी शूटिंग के बाद मेहमानों की रुचि भोजन में थी. मेरे साथ उनकी कुछ औपचारिकताएँ थी जिन्हे वे शालीनता से निभा चुके थे. वे भोजन के प्रति आग्रही न होने के कांइयां चैकन्नेपन के साथ लॉन में निकल गए. वहाँ व्यवस्था थी. मैं कमरे में अकेला रह गया. मेरे साथ सिर्फ मेरा कैरीकेचर था. एक बार इच्छा हुई गौर से कैरीकेचर को पहनाए कमीज़ को देखूँ. लेकिन मैंने अपना यह विचार मुल्तवी कर दिया. हमारी जिज्ञासाएँ अनेक बार हमें संकटों में उलझा देती हैं. मेरी समझ में नहीं आया कि मैं वाकई नरेश का इंतजार कर रहा था या उस फालतूपन को झेल रहा था जिसे अमूमन आयोजनों के प्रथम पुरुषों को झेलना होता है...बहरहाल गहरे फालतूपन के साथ मैंने उस कुर्सी की टेक पर सिर टिकाया, जिस पर बैठकर मैंने केक काटा था, और आँखें मूंद ली. कुछ देर बाद किसी काम से टीना कमरे में आई. उसने मेरा कंधा झिंझोड़ते हुए आहत स्वर में कहा,

‘‘पा...आप यहाँ अकेले...’’
‘‘बस ऐसे ही...’’ मैंने उबासी लेते हुए कहा.
वह कुर्सी खींचकर मेरी बगल में बैठ गई. आपका कोई भी दोस्त दिखाई नहीं दे रहा...’’
‘‘मैंने किसी को बुलाया ही नही.’’मैंने निरपेक्ष-सा उत्तर दिया.
आप आपने जन्मदिन तक से नाराज़ रहते हैं...किसी दोस्त को भी नहीं बुलाया.’’
बस ऐसे ही...’’मैंने थके स्वर में कहा.
‘‘लेकिन मैं आपके एक दोस्त को बुलाने गई थी...आप से बिना पूछे.’’

मैंने कुछ नहीं पूछा लेकिन उसके चेहरे पर अपने दोस्त को टटोलने लगा लेकिन मैं वहाँ अपना कोई दोस्त नहीं ढूँढ सका.

‘‘नज़र अहमद को...’’उसने मेरे चेहरे पर आँखें गड़ाते हुए कहा.
‘‘नज़र अहमद को...अजीब बात है. क्या तुम्हारी माँ भी नज़र अहमद का यहाँ होना चाहती थी?’’
‘‘हाँ, मम्मी ने ही मुझे कहा कि मैं अमन टेलर्ज़ का पता लगाऊँ और अहमद साहब को इन्वाइट करूँ.’’
‘‘ताज्जुब की बात है...’’
‘‘इसमें ताज्जुब की क्या बात है? आप मम्मी को अंडर ऐस्टीमेट कर रहे हैं. मैं ही जानती हूँ वो आपके सेंटिमेंट्स का कितना खयाल रखती है.’’
‘‘तुम्हारी माँ ने ऐसा क्यों मान लिया, और तुमने भी, कि नज़र अहमद मेरा दोस्त है.’’
‘‘आप उन्हें लेकर बहुत परेशान थे. शायद इसलिए...’’
‘‘नजर अहमद मेरे दोस्त नहीं, सिर्फ टेलर हैं, जो तीस साल से मेरे कपड़े सिल रहे हैं. बस इतना ही...’’
‘‘फिर भी मम्मी ने ऐसा चाहा. उन्हें महसूस हुआ कि आप उदास हैं...वह आपको उदास नहीं देख सकती. मै उनके कहने से आपको बगैर बताए अमन टेलर्ज़ को ढूँढ़ने गई.’’
‘‘तुमने मुझसे क्यों नहीं पूछा?’’
‘‘मैं आपको एक आश्चर्य देना चाहती थी. चाहती थी कि आप महसूस करें, हम आप की भावनाओं की कितनी इज्जत करते हैं.’’
‘‘फिर क्या हुआ? नज़र अहमद तो यहाँ दिखाई नहीं दिए.’’

‘‘मुझे अमन टेलर्ज़ मिला ही नहीं. वह अब रहा ही नहीं. वहाँ रीड एण्ड टेलरका शो रूम खुल गया है. उसका उद्घाटन आज ही हुआ...और उद्घाटन रितु बेरी के हाथों. सच बात ये कि मुझे यह जानकारी नहीं थी कि यह शो रूम वहाँ खुला जहाँ पहले अमन टेलर्ज़ हुआ करते थे. मैंने आसपास के दुकानदारों से अहमद साहब के घर पता मालूम किया और उनके घर गई. वे मुझे वहाँ भी नहीं मिले. अफ़सोस, उन्हें मैंस्सिव स्ट्रोक हुआ है और वे सीमआई के आईसीयू में हैं.’’

‘‘तुम मुझे ये सब क्यों बता रही हो?’’
‘‘इसलिए कि कल आप यह न कहें कि आपको धोखा दिया गया है. हमारे पास जानकारियाँ थीं और हमने वे आपसे छुपाई, यह जानकर आपको क्लेश होता.’’
"अमन टेलर्ज़ की जगह रीड एण्ड टेलरका शो रूम खुलना तुम्हे कैसा लगा?’’मैंने टीना को खोखली आँखों से देखते हुए पूछा.  

‘‘बाज़ार के हिसाब से यह एक मामूली घटना है. पर आप शायद दूसरी तरह से सोचते हैं, उसने स्थिर आवाज में कहा, ‘‘पररहैप्स पा... यू आर नॉट प्रिपेयर्ड टू फेस द रियलिटीज़ ऑफ़ टुडे.’’
 ‘‘शायद मैं वक्त से पीछे का आदमी हूँ और ऐसी बाते मुझे तकलीफ देती हैं.’’

इसी समय नरेश आ गया. उसके हाथ में थमी बास्केट में शिवाज रिगेल की बोतल झूल रही थी और वह गद्गद था.

टीना ड्रिंक्स का इतजाम करके बाहर निकल गई. शायद वह चाहती थी कि मैं शराब पी कर अपना दुख कुछ कम करलूँ.

गिलास टकराते हुए नरेश ने एक बार फिर मुझे पचासवें जन्मदिन की शुभकामना और शतायु होने की मंगलकामना दी. मैंने मुस्कराकर शुभकामनाएँ स्वीकार की और शतायु होने की मंगलकामना के लिए आभार प्रकट किया. अब मेरे पास कहने के लिए कुछ भी नहीं रह गया था. मैं चुपचाप शराब पीने लगा.

‘‘मानेगे न जीजाजी,’’शराब के पहले सरूर में उसने कहा, ‘आपका साला क्या कमाल चीज है. आपके पचासवें जंमदिन को मीडिया में उछालने के लिए मैंने कैसी प्लानिंग की. फैशन की दुनिया की सेलिब्रिटी को घेर लाया. यह भी एक मजेदार इत्तेफाक है कि आपके पचासवें जन्मदिन के रोज ही रीड़ एण्ड टेलरके आलीशान शो रूम का उद्घाटन हुआ, जो बेल्जियम कांच से बना परम्परा और आधुनिकता का बेजोड़ नमूना है. जीजाजी यह शहर की शान है. उसमें घुसते आदमी एकसाथ सैकड़ो प्रतिछवियों में बिखर जाता है. उसके उद्घाटन के लिए देश की महान फैशन डिजाइनर रितु बेरी बुलाई गई थीं. मैंने तय किया कि उद्घाट के बाद वे आपके जन्मदिन पर गैस्ट आवॅ ऑनर बन जाएँ तो सोने में सुहागा. इससे एक तो आपका जन्मदिन ऐतिहासिक हो जाएगा और वह रीड एण्ड टेलरके शो रूम के उद्घाटन के समाचार के साथ मीडिया में छा जाएगा. दूसरे यह सम्बंध टीना के कैरियर के लिए भी फायदेमंद होगा. साहब शतरंज की चाल की तरह आगे की सारी चाले सोचली पड़ती हैं. उनके पास तो टाइम नहीं था, लेकिन वे शहर व्यापारक मंडल के महामंत्री नरेश के आमंत्रण को ठुकरा भी नहीं सकती थीं. उनका यह सम्मान तो बाज़ार के ही बलबूते पर है न. वे आईं. पन्द्रह मिनट के लिए ही सही. मैं तो धन्य हो गया जी.’’

मैं नरेश की ऊलजुलूल बातों से भयानक ढंग से ऊब रहा था. लेकिन अभी पहला पैग चल रहा था और मेरी लड़ाकू मानसिकता चैतन्य नहीं हुई थी. इसके अलावा प्रेम के वर्षों में वह मेरे और लतिका के बीच एक पुल भी रहा था जिसकी वजह से उसके प्रति मेरे मन में सुकुमार भाव अब तक बरकरार था. दोएक लम्बे घूँट खींच कर मैंने पैग खत्म किया. मुस्कराया और बोला, ‘‘धन्य तुम ही नहीं, मैं भी हुआ. वाकई तुम कमाल के आदमी हो. और ये क्या, तुम्हारा पैग तो अभी वैसा ही और मैं अपना खत्म भी कर चुका.’’

उसने सलीके से मेरे लिए लार्ज पैग बनाया और गिलास मेरे हाथ में थमाते हुए कहा, ‘‘आप ड्रींक लेते रहें, मेरा इंतजार न करें. मैं अपने हिसाब से लेता रहूँगा. दरअसल खुशी के क्षणों में मैं शराब के साथ वक्त को भी सिप करता हूँ. जनाब शराब के साथ वक्त को सिप करना कितना सुखद अनुभव है. काश! आप जान सकते...’’ उसने गिलास उठाया और आहिस्ता आहिस्ता घूँट भरने लगा.

‘‘वाह! नरेश--शराब के साथ वक्त को सिप करना क्या लाजवाब जुमला है. यार तुम बहुत बड़े जुमलेबाज हो. मेरा खयाल है कि तुम एक सफल लेखक होते. बशर्ते कि तुम लिखना चाहते और लिखते भी.’’

भीतर की प्रतिभा पहचाने जाने की वजह से उसका सीना लरजने लगा और आँखें चमक गईं. ‘‘एक आप ही हैं जो मुझे समझते हैं....’’उसने कहा और तरल भावुकता में झुककर मेंरे पैर पकड़ लिए.  

‘‘यह क्या कर रहे हो नरेश. तुम जिन्दगीभर क्या बच्चे ही बने रहोगे.मैंने उसे मीठी झिड़की दी.

उसने मेरे पैर छोड़े और शराब के लम्बे घूँट भरकर पैग खत्म किया. ‘‘आप मुझे ऐसा करने से नहीं रोक सकते. यह मेरा अधिकार है.’’ उसने आधिकारिक स्वर में कहा., ‘‘मैं आपकी बहुत इज्जत करता हूँ जीजाजी. आपके चेहरे की एक भी शिकन मुझसे बर्दाश्त नहीं होती.’’

 ‘‘मुझे मालूम है नरेश.’’ मैंने उसका कंधा थपथपाया.

उसने दोनों के लिए लार्ज पैग बनाते हुए कहा, ‘एक बात पूछूँ जीजाजी. वायदा कीजिए आप बुरा नहीं मानेगे.’’
‘‘तुम्हारी बात का मैंने कभी बुरा माना?’मैंने उसे आश्वस्त किया.

‘‘ये तो सही है. दीदी कह रही थी आप नाराज़ हैं. वह भी एक कमीज़ के लिए. दर्जी की सिली बनाम मल्टीनेशनल की ब्रांडेड कमीज़. यह कतई यकीन करने की बात नहीं है. आप बच्चे नही हैं और साठ साल के होने में अभी दस बाकी हैं. शायद दीदी ने मज़ाक किया होगा. बताइए तो भला मल्टीनेशनल की शर्ट की जगह आप टुच्चे से दर्जी की सिली कमीज क्यूँ पहनना चाहेंगे. आप ही क्या कोई भी. जनाब कपड़े आदमी की औकात हैं. फिर आप इसमें फब भी कितना रहे हैं. परस्नैलिटि ही पूरी तरह बदल गई. एकदम किलर लग रहे हैं. आगे कुछ नहीं कह सकता जीजाजी हमारा रिश्ता ही ऐसा है....’’

मेरे भीतर तूफान गरजने लगा लेकिन अभी मैंने तीन पैग ही पिए थे और मेरा विवेक सुन्न नही हुआ था. मुझे याद था कि मैं उससे बुरा न मानने का वायदा कर चुका था. मैंने संयम रखा. गरजते हुए तूफान को गुस्से में नहीं बदलने दिया और सहज होने की कोशिश करते हुए कहा, ‘‘बेहतर है कि हम इस प्रसंग को यहीं खत्म का दें. किसी को भी अपनी मर्जी से कपड़े पहनने का अधिकार है. तुम ब्रांडेड कपड़े पहनने की वकालत करके उन कम्पनियों का प्रचार कर रहे हो, जो तुम्हें इसके लिए कोई पैसा नहीं दे रहीं.’’ 

यही वह बिन्दु था जहां हमारे बीच उस दिन का संवाद खत्म हुआ और हम एक दूसरे के लिए अजनबी हो गए और चुपचाप शराब सिप करने लगे.

मेरी दिक्कत यह थी कि मैं जिस प्रसंग को भूल जाना चाहता था फूहड़ ढँग से उसकी सीवन उधड़ गई थी. मेरे दिमाग में तीस साल के अरसे के अजीबोगरीब फ्लैशेज बन रहे थे. उनमें कोई तार्किक संगति नहीं थी. अमन टेलर्ज़ की सीढ़ियाँ चढ़ने और उतरने, कमीज़ पहनकर सिगरेट के छल्ले बनाने, बर्थ डे कैंडिल बुझाने, रितु बेरी के बधाई देने वगैरह के विविध फ्लैशेज. इन्हें जोड़ कर एक मुकम्मिल कहानी नहीं बनाई जा सकती. ये सिर्फ भटकी हुई कुछ घटनाएँ थीं जो मेरे भीतर फिर से घट रही थीं. मैंने कतई नहीं चाहा था कि वे कि ऐसा हो, लेकिन ऐसा हो रहा था.

मैं ज्यादा पी चुका था. मैंने ऐसा क्यों किया. इसका कोई जवाब मेंरे पास नहीं था. मेरे हाथ और होंठ काँप रहे थे. मैंने एक और पैग बनाना चाहा तो लतिका ने मेरे हाथ से गिलास छीन लिया. ‘‘अब और नहीं, बिल्कुल भी नहीं. आप नाराज़ हैं तो मुझे डांटिए, टीना या नरेश को डांटिए लेकिन भगवान के लिए...’’ उसने कहा और सुबकने लगी.

‘‘मैं तुमसे और टीना से कैसे नाराज़ हो सकता हूँ. तुमने तो मुझे सम्मानित आदमी बनाना चाहा और बना भी दिया...मैंने करुण हँसी हँसते हुए कहा.

‘‘पा...प्लीज अपने को संभालिए. आपको शराब चढ़ गई है. इतनी नहीं पीनी चाहिए थी. मामा आपने भी इनका खयाल नहीं रखा.’’टीना ने कहा और मुझे सहारा देकर खाने की टेबल पर ले गई.  

टेबल पर नरेश, उसकी पत्नी शीवा, लतिका, टीना, कार्टूनिस्ट पिंटू थे. और मैं था. और हैंगओवर में था. खाने के साथ बातें हो रहीं थीं. मैंने उनकी बातों में शामिल होना चाहा, लेकिन वे मेरे पल्ले नहीं पड़ रही थी. मैं उनके बीच में होते हुए अजनबी हो गया और ऐसे अंधेरे अनजान टापू में भटकने लगा जिसे किसी दूसरे ने नहीं मैंने ही बनाया था. उस अंधेरे में मुझे एक आवाज़ सुनाई दी. मुझे लगा कि शायद...लेकिन नहीं, यह कतई मुगालता नहीं था. सचमुच एक आवाज़ थी और यह आवाज़ मेरे पहने कमीज़ के भीतर से आ रही थी. एक्सेल गारमेंट मल्टीनेशनल की ब्र्रांडेड कमीज़ के भीतर से. किसी छोटी लड़की की. महीन लेकिन दिल में सूराख करती हुई.

जिसने भी यह कमीज़ पहनी हो उसे आयशा अंसारी का सलाम. मैं कोलकोता के सोनागाछी के मुहल्ले बांग्लावाड़ी में रहती हूँ. यहाँ हमारी दर्जी की एक दुकान थी. बड़ी तो नहीं थी लेकिन अब्बा हुनरमंद दर्जी थे लोग उनके सिले कपड़े पसंद करते थे. हम अमीर तो नहीं थे पर हमारा गुजर-बसर ठीक से हो रहा था. मेरे दोनों भाई पढ़ने के साथ अब्बा से सिलाई का काम सीख रहे थे और दोनों बहने तालीम ले रही थी. मैं तब छोटी थी और अब्बा हुजूर की लाड़ली थी. वे मुझे पढ़ा-लिखा कर वकील बनाना चाहते थे. हम खुश थे और ख्वाब देखा करते थे. अब्बा हज करने का, भाई दुकान की तरक्की का, बहने पढ़-लिख कर अच्छे घरों में शादी करने का और मैं काला कोट पहन कर वकील बनने का. अम्मी इस बात से खुश रहती कि बिरादरी में हमें इज्जत की निग़ाह से देखा जाता था.

'तभी हमारे ऊपर शैतान का साया पड़ गया. और हमारे बुरे दिन शुरु हो गए.

’'हुआ यह कि हमारे इलाके में बांग्ला परिधाननाम की रेडमेड वस्त्रों की फैक्टी खुली. इसके पास पूँजी थी और मिलों से थोक में कपड़ा उठाकर सस्ते दामों में रेडीमेड गारमेंट बेच सकती थी. उनकी पैकिंग भी इतनी अच्छी होती कि लोग सिले-सिलाए कपड़ों को पसंद करने लगे. हालांकि पैकिंग कपड़ा इस्तेमाल करने से पहले फेंक दी जाती है, लेकिन वह अपने माल के लिए गाहकों में खरीद की चमक तो पैदा कर ही देती है. दर्जी हाशिए पर खिसकने लगे. उनका धंधा मंदा पड़ गया. अब्बा का भी. हमारी रोटियां मुश्किल हो गई. वे जनान टेलर होते तो बात दूसरी थी. औरतो हर समय मोटी या पतली होती रहती हैं. रेडी मेड ब्लाऊज उन्हें मुआफिक नहीं आ सकते. अब्बा नाप लेने के नाम पर पराई औरतों के जिस्मों से छेड़छाड़ को गैर इस्लामिक मानते थे. वे जैंट्स टेलर थे. काम की मंदी की वजह से उन्हें अपनी दुकान बेचनी पड़ी और वे बांग्ला परिधानमें दर्जी हो गए.

यह वो वक्त था जब मैं पांचवी जमात में पढ़ रही थी और हालात ने मुझे समझदार बना दिया था. मुझे क्या, घर के सभी को. समझदार होने पर पहली बात जो मेरी समझ में आई वो ये थी कि हम मालिक से नौकर हो गए थे....घर की रौनक उड़ चुकी थी. अब्बा बुझे-बुझे रहने लगे थे. अम्मी का गरूर टूट गया था और हमने ख्वाब देखने बंद कर दिए थे. गनीमत थी कि किसी तरह कुनबे की रोटी चल रही थी.

'पर शैतान की मंशा कुछ और ही थी.

'बाजार में और भी बड़ी कम्पनियों का माल आने लगा. उनके बनाए कपड़े पहनना शान की
बात है. ये अकूत दौलत और बड़े हथकंडे की कम्पनियाँ है जिनके शिकंजों में तमाम दुनिया कसी हुई है. बांग्ला परिधानउनके सामने टिक नहीं सका. इतना घाटा हुआ कि तालाबंदी की नौबत आ गई. हमें दिन में तारे दिखाई देने लगे. हमारा क्या होगा? सवाल एक था. पर उसने सब की नींद उड़ा दी थी. आखिरकार हमारी फैक्ट्री ने घुटने टेक दिए और वह ठेके पर एक्सेल गारमेंट मल्टीनेशनलका माल बनाने लगी. इन बड़ी और सारी दुनिया में फैली कम्पनियों की अपनी फैक्ट्रियाँ नहीं होती. ये गरीब मुल्कों की फैक्ट्रियों में अपना माल बनवाती हैं. इनका तो बस नाम चलता है. ये नाम का पैसा बटोरती हैं. गरीब मुल्क की फैक्ट्रियाँ तालाबंदी के डर से लागत से भी कम में इनका माल तैयार करने को मजबूर हो जाती हैं.
'पहले हम मालिक से नौकर हुए.
अब हमारी कम्पनी मालिक से नौकर हो गई.

लागत से कम में माल तैयार करने के नुकसान की भरपाई के लिए कारीग़रों की पगार में इजाफा किए बगैर काम के घंटे बढ़ा दिए गए. अब्बा की उमर भी बढ़ रही थी. काम के घंटे भी बढ़ रहे थे. सुनवाई कोई भी नहीं थी. एक कारीग़र काम छोड़े तो उसकी जगह और भी कम पगार में दस कारीग़र तैयार रहते. कारीग़र दुनिया को बनाते हैं लेकिन ये दुनिया कारीग़रों की नहीं है.

महंगाई बढ़ रही थी, जैसी हर तरक्की पसंद मुल्क में बढ़ती है. उस पर ऐतराज भी नहीं किया जा सकता. तरक्की तो सभी चाहते हैं. लब्बोलुआब ये कि रोटी पर आई मुसीबत को टालने के लिए अब्बा के साथ घर के सभी लोग फैक्ट्री में दिहाड़ी पर तुरपन, काज-बटन वगैरह के छोटे मोटे काम करने लगे. भाई और बहने पढ़ाई छोड़ कर फैक्ट्री में चले गए. अम्मी और मेरे लिए अब्बा घर पर काम ले आते. अम्मी कपड़ो में काज बनाती और मैं बटन टाँकती. हमारी पूरी दुनिया ही बदल गई थी. ऐसी दुनिया जहाँ ख्वाब भी दो जून खाने के ही आते हैं.

एक्सेल गारमेंट् मल्टीनेशनल्स की यह कमीज मेरे अब्बा ने; अम्मी ने; मेरे भाई और बहनों ने; और मैंने तैयार की है...और हम गुमनाम हैं...

जिसने यह कमीज पहनी हो उसे, मैं यह कहानी इसलिए नहीं सुना रही कि मुझे कोई हमदर्दी चाहिए. हमदर्दी से हमारा या किसी का कुछ भी भला नही हो सकता. यह कहानी तो मैं मुआफी मांगने के लिए सुना रही हूँ. दरअसल मुझसे एक गलती हुई--

बटन टांकने के लिए कमीजों का ढेर लगा था और मुझे तेज बुखार था. रात थी और सुबह तक बटन टांकने ही थे. अगला दिन डिलिवरी का दिन था. मेरा जिस्म बुखार से तप रहा था. आँखें झिपी जा रही थीं और मैं ठंड की झिरझिरी से काँप रही थी. पर कोई रियायत नहीं. काम तो पूरा करना ही था. अमूमन मैं रात आठ बजे बटन टांकने बैठती हूँ और ग्यारह या हद से हद साढ़े ग्यारह तक काम निबटा लेती हूं. उस रात बैठी तो काम में मेरा मन नहीं लगा. मैंने अम्मी से कहा कि मेरे लिए एक गिलास चाय बना दे. अम्मी ने नहीं बनाई. शायद उन्होंने सुना नहीं. या सुन लिया हो तो घर में दूध, शक्कर या चाय की पत्ती न रही हो. मैं अम्मी की मजबूरी समझ गई. मुझे अफ़सोस हुआ कि मैंने उसे चाय के लिए क्यों कहा. मैं बिना चाय के ही काम पर लग गई. जिस समय मैं आखिरी कमीज़ में, जो आपने पहन रखी है, बटन टांक रही थी, उस समय रात का पौन बजा था. मैं बेहद थक गई थी. मेरा सिर चकरा रहा था. माथा तिड़क रहा था और गला सूख रहा था. मैंने आखरी बटन टांका तो मैं सन्न रह गई. काज की पट्टी के नीचे पिछली तरफ वक्त पड़ने पर इस्तेमाल के लिए जो फालतू बटन लगाए जाते हैं, उनमें से एक बटन मुझसे उल्टा टंक गया था.

हुनरमंद दर्जी की बेटी के लिए इससे ज्यादा शर्मिदंगी की कोई और बात नहीं हो सकती. मेरी आँखों में आँसू छलछला गए. लेकिन सीवन उधेड़कर बटन दुरूस्त करने की ताकत मुझ में उस वक्त नहीं थी. सोचा कि सुबह उठ कर उसे ठीक कर दूँगी. सुबह उठी तो कमीज़ दूसरी कमीज़ों के साथ पैकिंग के लिए फैक्ट्री जा चुकी थी.

आपकी पहनी कमीज की पट्टी के पिछली तरफ का एक फालतू बटन उल्टा टंका है.
मैं इस गलती के लिए आपसे मुआफी मांगती हूं.
‘‘पा... आप तो कुछ खा ही नहीं रहे हैं..’’ सहसा टीना ने मेरी तन्द्रा तोड़ी.
मैं चैंका और निर्जन टापू के अंधेरे से खाने की टेबल पर लौट आया. टेबल पर बैठे सब लोग मुझे धुंधले दिखाई दिए. मेरा खाना अनछुआ पड़ा था. मैं वाकई खाना खाना भूल गया था.

सॉरी बेटे. मेरी खाने की इच्छा नहीं हो रही. शायद मैं हैंगओवर में हूँ.’’मैंने कहा और कमीज़ की काज पट्टी को पलट कर देखने लगा.
वहाँ सचमुच एक फालतू बटन उल्टा टंका हुआ था.

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सुभाष पंत
एम.एस-सी, एम.ए
भरतीय वानिकी अनुसंधान एवम् शिक्षापरिषद, देहरादून से सेवा मुक्त वरिष्ठ वैज्ञानिक

क्हानी संग्रह- तपती हुई ज़मीन, चीफ़ के बाप की मौत, इक्कीस कहानियाँ, जिन्न और अन्य कहानियाँ, मुन्नीबाई की प्रार्थना, दस प्रतिनिधि कहानियाँ, एक का पहाड़ा, छोटा होता हुआ आदमी
उपन्यास-सुबह का भूला, पहाड़चोर
नाटक-चिड़ियाँ की आँख
सम्पादन-शब्दयोग त्रैमासिक पत्रिका

पता-280, डोभालवाला, देहरादून-248001

मोब-09897254818

रंग राग : बाहुबली : रवीन्द्र त्रिपाठी

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जिन्होंने बाहुबली देख रखी थी उनमें से बहुत बाहुबली- २ देख कर निराश हुए पर जिस निर्मित और नियंत्रित उन्माद में इसे प्रस्तुत किया गया उसने आर्थिक रूप से इसे सफल फ़िल्म सिद्ध कर दिया है. क्या यह समय भव्य झूठ का है ? चाहे सिनेमा हो या राजनीति हर जगह ‘निर्मित’ और ‘नियंत्रित’ भव्यता अपने को ‘सफल’ सिद्ध करा रही है. 

कुछ लोग बाहुबली श्रृंखला से इस लिए आनंदित है कि देखो प्राचीन भारत कितना महान था तो कुछ इस लिए कि अब हम भारत में भी हालीवुड सदृश्य भव्यता रच सकते हैं. पर जो लोग सिनेमा को गम्भीर कला माध्यम के रूप में लेते हैं और उसकी सार्थकता भी देखते हैं वे नाराज़ और निराश भी क्यों न हों. 

वर्तमान में भूत (काल)  के आह्वान  के  कुछ अपने कारण और तर्क तो होते ही हैं. पर भव्यता के सामने तर्क निस्तेज दीखता है. और यही इस समय का संकट है. 

प्रसिद्ध कला आलोचक  रवीन्द्र त्रिपाठी ने बाहुबली जैसी घटना को हर तरह से देखने और समझने का गम्भीर प्रयास किया है. अब आह और वाह से आगे बढ़कर इसकी जरूरत भी है.  

यह ख़ास लेख समालोचन के पाठकों के लिए.




बाहुबली– व्याख्याओं का लोकतंत्र (!)या अतिव्याख्या के खतरे            

रवीन्द्र त्रिपाठी


ब जब `बाहुबलीश्रृंखला की दोनों फिल्में  (Baahubali: The Beginning),  (Baahubali 2: The Conclusion) आ चुकी हैं और आम दर्शकों से लेकर बॉक्स ऑफिस पर   भी उसके निर्देशक केएस राजामौलीकासिक्का जम चुका है तो समय आ गया है कि इसके बारे में कुछ ऐसी बातें भी की जाएं तो इसके बारे में हमारे परिप्रेक्ष्य का विस्तार करें.

ये तो सभी जानते हैं कि `बाहुबली`अमर चित्रकथावाली कला शैली का ही फिल्मीकरण है. `अमर चित्रकथाउस तरह की कॉमिक्स रही है जो बच्चों (और बड़ों को भी) कल्पित प्राचीन युग में ले जाती हैं. अलग से कहने की जरूरत नहीं है कि ऐसी कहानियां किसी यथार्थ पर आधारित नहीं होती हैं. और ऐसा सिर्फ अमर चित्रकथाओं के साथ ही नहीं होता. दुनिया में जितने कॉमिक्स रहे हैं उनमें कल्पना की अतिरंजना होती है. `सुपरमैनसे लेकर `बैटमैनया `कैप्टेन अमेरिकाश्रृंखला की फिल्मों में भी यही है. इसलिए `बाहुबलीमें जो अतिरंजनाएं या अतिशयोक्तियां दीखती हैं, जैसे कि बाहुबली अकेले हाथी के उत्पात को रोक देता है या महेंद्र और अमरेंद्र बाहुबली (दोनों ही भूमिकाओ में प्रभाष) युद्ध में ऐसे ऐसे कौशल दिखाते है जो आम आदमी के लिए संभव नहीं है, वह सब दुनिया भर में प्रचलित फिल्मी युक्तियों की कड़ी में है. 

नायकों का मिथकीकरण या अतिरंजनाकरण हमेशा होता रहा है, आज भी हो हो रहा और शायद हमेशा हो. ये जानते हुए कि सुपरमैन या बैटमेन होना संभव नहीं है हम उन सभी फिल्मों को देखते हैं और प्रभावित होते हैं. वे हमारा मनोरंजन करती हैं. ऐसी फिल्मे कल्ट फिल्में हो जाती है. बाहुबली भी अगर भारतीय कल्ट फिल्म हो गई है तो न इसमे किसी तरह की अनहोनी है और `हाय, ये कैसे हो सकता हैवाली शैली में इसे संदिग्ध बनाने की जरूरत नहीं है. कल्पना हमेशा यथार्थ पर आधारित हो ये आवश्यक नहीं है. कई बार, यथार्थ से परे जाने की जरूरत होती है. बल्कि ये कहा जा सकता है कि दुनिया में कई ऐसी कहानियां हैं जो यथार्थ के परे जाकर ही रची है. `किस्सा हातिमताईसे लेकर हैरी पॉटर तक यही होता रहा है. और होता रहेगा. यथार्थ की अवहेलना नहीं होनी चाहिए. पर अतियथार्थ को नकारना भी कल्पना को कुंद करना है.

मुझे यहां `पेरिस रिव्यूमें    दिए अर्जेटिनीयाई और स्पानी कवि होर्हे लुई बोर्हेसका एक साक्षात्कार याद आता है. बोर्हेस फिल्म के समीक्षक नहीं थे. लेकिन फिल्में काफी देखते थे. अमेरिकी वेस्टर्न फिल्मों के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने इस साक्षात्कार में  कहा कि ये फिल्में एक तरह से महाकाव्यात्मक फिल्में हैं. पूरी तरह से तो नहीं लेकिन एक हल्की महाकाव्यात्मकता इनमें है. क्या बाहुबली के बारे में बात करते हुए बोर्हेस के कथन को लागू किया जा सकता हैं. हालांकि किसे के कथन को दूसरी सांस्कृतिक संदर्भ में लागू करना एक तरह से भदेस आलोचनात्मक पद्धति है लेकिन कई बार चीजों को समझने के लिए इसकी जरूरत भी पड़ जाती है.  

भारतीय संदर्भ में देखें तो ऐसी महाकाव्यात्क फिल्में कम ही बनी है. हिंदी  में तो और भी कम हैं. एक `मुगले आजम  ऐसी फिल्म है जिसके बारे में कहा जा सकता है कि उसने इस तरह के तत्व कुछ हद तक है. लेकिन ये फिल्म भी यथार्थ पर आधारित नहीं हैं. इसे ऐतिहासिक तथ्य के आलोक में जांचे तो इसकी कहानी को इतिहास पर आधारित कहना गलत होगा. ये तो कुछ ऐतिहासिक व्यक्तियों के इर्दगिर्द रची गई कपोल कल्पना है. फिर भी ये हिंदी सिनेमा में इसके महत्त्व को कभी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. उतने बड़े फलक की तो नही, बल्कि अपेक्षाकृत छोटे फलक की `उमराव जान(इस नाम से दो फिल्में बनीं, एक मुजफ्फर अलीने रेखा और फारूख शेख के साथ बनाई 1981 में और दूसरी जेपी दत्ताने बनाई ऐश्वर्या राय और अभिषेक बच्चन  के साथ 2006 में)   कल्पना-आधारित हैं क्योंकि उमराव जान नाम की कोई शख्सियत लखनऊ के इतिहास में हुई ही नहीं.

तो कहानी, चाहे बोलकर सुनाई जाए, लिखकर कही जाए या फिल्मों के माध्यम से दिखाई जाए, कल्पना से रगीपगी होगी ही.  हो सकता है कि किसी किसी वास्तविक घटना पर आधारित फिल्म बने, पर उसे भी सुनाने, लिखने या उस पर फिल्म बनाने में कल्पना का समावेश होता है. अब यह दीगर बात है कि कहने, सुनाने और लिखने की शैली में कल्पना का कितना सहारा लिय़ा गया है. वीरगाथाकालीन लोकमहाकाव्य आल्हा में एक जगह हाथी के बारे में कहा गया है कि उसका हौदा ही नौ कोसों में है. नौ कौसों में किसी हाथी का हौदा कैसे हो सकता है. और जिस हाथी का हौदा नौ कोसों में है वह कितना विशाल होगा? क्या ऐसा हाथी हो सकता है?

क्या कह सकते हैं कि बाहुबली लोक महाकाव्य की परंपरा का फिल्मी संस्करण है? मेरे खयाल से इस सवाल का विस्तार `हांहै.कई बार व्यावसायिक सफलताएं  अतिरिक्त डाह पैदा करती हैं. मुझे लगता है कि बाहुबली को लेकर कुछ आलोचको  के कोप का यही कारण है. और  व्यावसायिक असफलता भी कहीं को नहीं छोड़ती. जैसे आशुतोष गोवारीकरकी फिल्म `मोहन जोदाड़ों. न सिर्फ दर्शकों ने इसे नापसंद किया वरन फिल्म समीक्षकों ने भी इसकी भूरि भूरि निंदा की. और उसके जिम्मेदार खुद इसके निर्देशक थे जिन्होंने एक बड़े फलक को विषय उसका निर्वाह इस तरह मानो एक ग्राम पंचायत पर आधारित फिल्म बना रहे हों. कोई फिल्मकार विषय का निर्वाह किस तरह करता है इस पर भी उसकी सफलता निर्भर करती है.


ये ठीक है कि राजामौली की ये फिल्म कोई महान फिल्म नहीं है. फिर भी ये लोकमहाकाव्य की उस पुरानी शैली के करीब है जिसकी कहानी में प्रेम, धोखा, प्रतिशोध, स्वामीभक्ति जैसे मूल्यों को अतिरंजित शैली मे पेश किया जाता है. हालाकि राजामौली ने इसमें आधुनिकता के कुछ तत्व भी डाल दिए हैं. जैसे `बाहुबली – २ में देवसेनाका चरित्र कुछ कुछ  उस आधुनिक नारी की तरह है जो अपने अधिकार के प्रति सजग है. लेकिन कटप्पा जैसा चरित्र भी है जो उस तरह से आधुनिक नही है क्योंकि वह न्याय की आधुनिक धारणा के करीब न होकर `स्वामीभक्तिकी उस भावना से संचालित होता है जिसमें मालिक की हर बात माननी पड़ती है भले  ही वह गलत हो. इसलिए `कटप्पा ने बाहुबली को क्यो मारावाला रहस्यपूर्ण सवाल भी समकालीन समय़ में उचित प्रतीत नहीं होता. इस तरह बाहुबली की श्रृंखला की दोनों फिल्में आधुनिकता और प्राचीनता के बीच कहीं टिकी हैं.

क्या `बाहुबलीश्रृंखला की दोनों फिल्मों को किसी अन्य वैचारिक आलोक में देखा जा सकता है? इसके उत्तर में दो बातें कही जा सकती है. एक तो जैसै जिंदगी के हर पहलू में कोई न कोई विचारधारा मौजूद होती है, भले ही हम उनके प्रति सजग हों या न हों, वैसे ही `बाहुबलीमें सामान्य बोध में समा गए कुछ वैचारिक आग्रह हैं. इससे इनकार नहीं किया जा सकता. इस प्रसंग में दूसरी बात ये कि इसफिल्म में कोई सजग वैचारिकता नहीं दीखती. कम के कम मुझे. कुछ लोग इसमें स्वर्णिम और भव्य भारत की छवि देख रहे हैं.


मेरे खयाल से ये एक बचकाना प्रयास है. इसमें अगर किसी तरह की कोई भव्यता है तो वह इसके मेकिंग या निर्माण में है. वह इसके रणक्षेत्रों में दिखाए गए हथियारों- तीरों, तलवारों, ढालों भालाओं, गदाओं आदि में है. युद्ध कौशलों में है. घुड़दौड़ों में है. पर ये निष्कर्ष निकालना कि माहिष्मती(जिस राज्य की कहानी इसमें है) वह किसी तरह के यूटोपिया का प्रतिनिधि है, उचित नहीं होगा. हां, अगर कोई यूटोपिया है तो उसी प्रकार का जिसका सामान्य बोध हम भारतीयों के भीतर सदियों से विकसित हुआ है और जिसमें राजा तो बलवान और न्यायप्रिय हुआ करता था और उसके विरूद्ध षडयंत्र होते रहते थे. या इसी के मिलते जुलते रूप वाला कोई और यूटिपिया.इसी तरह `बाहुबलीको सामंतवाद का प्रतिनिधि कहना भी ठीक नहीं. हाँ, इसकी पृष्ठभूमि में सामंतवाद है क्योंकि हर राजा की कहानी सामंतवाद से जुड़ी रहती है. मैं फिर से दुहराऊंगा कि `बाहुबलीलोक महाकाव्यों वाली उस परंपरा में है जिसमें सामंती या अर्धसामंती विचारसरणियां निबद्ध होती थीं  पर मुख्य जोर कथा कहने की शैली पर होता था. मिसाल के लिए आज अगर कोई आल्हा-उदल की वीरता पर आधारित फिल्म बनाए तो वह सामंतवादी ढांचे पर ही खड़ी होगी. पर क्या वह सामंतवाद की वकालत करनेवाली होगी?  मेरे विचार से नहीं.

हम उस युग या समय में आ गए हैं जहां पुरानी वीरगाथाओं की परंपरा संभव नहीं. पर पुरानी वीरगाथाओं की स्मृतियां हमारे भीतर हैं. उनकी कथाशैली या वर्णनशैली में जो खास तरह का रस होता था और इस कारण वे हमारे भीतर झनझनाती रहती थीं. बाहुबली में उस वर्णन शैली का फिल्मीकरण हुआ है. वैसे हर फिल्म या रचना में `दूर की कौड़ीढूंढी जा सकती है. इसलिए `बाहुबलीको लेकर भी इस तरह के प्रयास होते रहेंगे. आखिर `शोलेके कुछ पश्चिमी अध्येताओं नें उसमें जय-वीरू (जिसे क्रमश: अमिताभ बच्चन और धर्मेंद्र ने निभाया था) के संबंधों में समलैगिकता ढूंढ ली थी. इस तरह की व्याख्याओं का क्या करेंगे आप?तुलसीदास कह गए हैं- ‘जाकी रही भावना जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी.

इसलिए व्य़ाख्याओं का लोकतंत्र(!)भी बना रहे तो क्या आपत्ति? अतिव्याख्या का आलम तो ये है कि निर्मल वर्मा  जैसे बड़े लेखक जब कुंभ यात्रा पर गए तो वहां उनको ईसाइयत के `पापबोध  और `कनफेशनके चिन्ह भी मिल गए थे. बिना यह समझे हुए कि इन दोनों अवधारणाओं का हिंदु धर्म या कुंभ यात्रा से कुछ लेना देना नहीं है. कुल मिलाकर ये कि बड़े बड़े व्याख्याकार भी अतिव्याख्या के फंदे में फंस जाते हैं.
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रवीन्द्र त्रिपाठीटीवी और प्रिट मीडिया के वरिष्ठ पत्रकार, फिल्म-,साहित्य-रंगमंच और कला के आलोचक, व्यंग्यकार हैं. व्यंग्य की पुस्तक `मन मोबाइलिया गया है'प्रकाशित. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की पत्रिका `रंग प्रसंग'और और केंद्रीय हिंदी संस्थान की पत्रिका `मीडिया का संपादन किया है. कई नाट्यालेख लिखे हैं. जनसत्ता के फिल्म समीक्षक और राष्ट्रीय सहारा के कला समीक्षक. वृतचित्र- निर्देशक. साहित्य अकादेमी और साहित्य कला परिषद के लिए वृतचित्रों का निर्माण. आदि
tripathi.ravindra@gmail.com
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