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रंग -राग : ईदा (Ida) : विष्णु खरे

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विश्वयुद्ध की पृष्ठभूमि में इतिहास और भूगोल की यात्रा करती 2013 के आस्कर से सम्मानित पावेल पाव्लिकोस्की की पोलिश फिल्म ‘’ईदा’’कई कारणों से चर्चा में है. इस फ़िल्म के सभी पहलुओं को टटोलता विष्णु खरे का लेख.  



ऑस्कर ऐसी फ़िल्मों को मिलता है, स्टुपिड               
विष्णु खरे



स्तालिन-युग के बाद के पोलैंड की एक युवती है अन्ना,जो यतीम थी और 1960 के बाद के बरसों में में एक कॉन्वेंट में पली-बढ़ी है.उसे चर्च में ‘नन’ या ‘सिस्टर’ बनना ही है लेकिन अंतिम दीक्षा के पहले उसकी वरिष्ठ पुरोहितानियाँ उसे बताती हैं कि वह पैदाइशी ईसाई नहीं, यहूदी है और उसका असली नाम ईदा था.अब सिर्फ़ उसकी असली मौसी वान्दा ग्रूज़ जिंदा है और अन्ना उर्फ़ ईदा चाहे तो नन बनने-न बनने का फ़ैसला लेने से पहले उससे कुछ दिनों के लिए पहली और आख़िरी बार मिल सकती है.मौसी वान्दा स्तालिन-युग में एक जज थी,अभी भी है और उसने कई पोलिश देशभक्तों को फाँसी दी थी.वह अब एक अधेड़ अल्कोहलिक और सैक्स-विक्षिप्त हो चुकी है.ईदा जानना चाहती है कि उसके माता-पिता हिटलर,स्तालिन और दूसरे विश्व-युद्ध के ज़माने के पोलैंड में कैसे मारे गए थे और उनकी कब्रें अगर हैं तो कहाँ हैं.के भान्जी के साथ मौसी वान्दा भी यह मालूम करना चाहती है.यह जटिल और जोखिम-भरी तलाश उन्हें पोलैंड के अंदरूनी गाँवों में ले जाती है और आखिरकार उनका सामना इस सचाई से होता है कि जिस ईसाई पोलिश किसान ने जान का ख़तरा उठाकर ईदा के माँ-बाप को पनाह दी थी उसी ने उनकी ज़मीन-जायदाद की लालच में उनकी ह्त्या कर दी थी.ईदा और वान्दा उस किसान का क्या फैसला करें ? ईदा कैथलिक-ईसाई नन बने या अपनी ‘’असली’’ यहूदियत में लौट जाए ? मौसी जिस शहराती दुनिया में रहती है उसमें जवान लड़के हैं,नाइट क्लब हैं,नाच-गाना-नशा है,आलिंगन-चुम्बन हैं,’लाइफ़’ है.ईदा लौट कर गिरजाघर की सन्यासिन बन जाए या रुक कर मौसी के भौतिक ‘सुखों’ के संसार को गले लगा ले ?
स बरस का विदेशी फिल्म ऑस्कर जीतनेवाली निदेशक पावेल पाव्लिकोस्कीकी पोलिश फिल्म ‘’ईदा’’ सिर्फ़ इतनी-ही चुनौतियाँ पेश करती तब भी कोई बात थी - तत्कालीन इतिहास,समाज,संस्कृति और राजनीति के जो प्रश्न वह उठाती है उन्होंने पोलैंड और यूरोप,ईसाइयों और यहूदियों,दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच एक गहरा विवाद खड़ा कर दिया है जिसकी छाया सैकड़ों वर्षों और लाखों वर्ग-किलोमीटरों  तक पहुँचती है.एक कैथलिक-समर्थक प्रतिक्रियावादी वैबसाइट ने उसे ‘देश-विरोधी’कहा है.यूरोपीय संसद के एक पोलिश सदस्य ने कहा है कि यह एक अजीब फिल्म है जिसमें यहूदी-संहार Holocaust तो है,जर्मन नहीं हैं,यहूदियों को नात्सी नहीं मारते,लालची और घिनौने पोलिश किसान मारते हैं.’पोलिश मानहानि-विरोधी लीग’ने हज़ारों दस्तखतों के साथ माँग की है कि ‘ईदा’ के प्रोड्यूसर फिल्म की शुरूआत में यह प्रति-वक्तव्य (‘डिस्क्लेमर’) दें कि पोलैंड पर उन दिनों नात्सी जर्मनी का कब्जा था,जर्मनों ने पोलिश यहूदियों की हत्याएँ कीं, हज़ारों पोलिश नागरिकों को यहूदियों को शरण देने के कारण मार डाला गया फिर भी वह बाज़ नहीं आए,पोलैंड की तत्कालीन  ‘देशभक्त भूमिगत सरकार’ने यहूदियों को संकट में डालनेवाले पोलिश नागरिकों को सज़ा दी, और इजराइल के ‘याद वाशेम संस्थान’  ने नात्सियों के ज़माने में यहूदियों की मदद करने के लिए सबसे अधिक पदक पोलिश नागरिकों को ही दिए हैं.
धर वामपंथियों ने ’ईदा’ को यहूदी-विरोधी क़रार दिया है.वर्षावा के ‘यहूदी ऐतिहासिक संस्थान’की हेलेना दात्नर ने कहा है कि इस फिल्म की सह-नायिका यही बतलाना चाहती है जो पोलिश लोग उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो कभी सच्चा समाजवाद लाना चाहते थे : कि एक वैसी यहूदिन (वान्दा ग्रूज़) रंडी और पियक्कड़ थी.वामपंथी प्रकाशन ‘क्रितीका पोलीतीचना’की नारीवादी संपादिका आग्निएश्का ग्राफ़ का मानना है कि ‘ईदा’ सिर्फ एक इन्तकाम की कहानी है जिसमें एक यहूदिन जज को अपने बहन-बहनोई को मारने के जुर्म में  पोलिश लोगों को फाँसी की सज़ा देते दिखाया गया है.
च तो यह है कि सदियों के पारम्परीण यहूदी-ईसाई द्वेष,हिटलर,दूसरे विश्व युद्ध,स्तालिन तथा पूर्व सोवियत संघ और ब्लॉक ने  मिलकर  सभी यूरोपीय देशों के बहुआयामीय इतिहासों को शायद हमेशा के लिए बहुत जटिल बना डाला है और उनकी सारी गुत्थियों को सुलझाने के लिए सामूहिक संतुलित मन-मस्तिष्क  की दरकार है.’ईदा’ यह कहीं नहीं कहती कि सभी ईसाई पोलिश नागरिक या किसान लालची हत्यारे थे या सभी यहूदी और वामपंथी वास्तविक या काल्पनिक अपराधों के लिए ईसाई पोलिश नागरिकों से हिसाब बराबर कर रहे थे. ईदा जैसे सैकड़ों बच्चों को करीब एक हज़ार कैथलिक कान्वेंट की सिस्टरों ने ही तो बचाया था.यदि ’ईदा’ पर यहूदी-विरोधी होने का आरोप है तो समनाम नायिका सभी को क्षमा करती हुई,सारे प्रलोभनों का त्याग करती हुई सन्यासिनी बनती है.वान्दा ग्रूज़ का चरित्र भले ही एक वैसी वास्तविक महिला हेलेना वोलिंस्का पर आधारित है, पर फिल्म में अपने गहरे अपराध-बोध के कारण न्यायाधीश वान्दा आत्महत्या पर विवश होती है.
समें संदेह नहीं कि दक्षिणपंथियों,साम्यवादियों और तटस्थों तीनों के द्वारा ‘ईदा’ पर जो आपत्तियाँ उठाई गई हैं उनमें से भले ही बहुत कम लेकिन कुछ सही ज़रूर हैं.लेकिन निदेशक पाव्लिकोव्स्कीका कहना है कि मेरी फिल्म का का मक़सद न तो इतिहास पढ़ाना है और न दर्शकों को अतीत के बारे में ज्ञान या उपदेश देना. इसे आप चाहें तो एक आध्यात्मिक कहानी कह सकते हैं. ईदा की तलाश  यह है कि वह ख़ुद है कौन – ईसाई,यहूदी या एक मानवी ? क्या वह सचमुच एक कैथलिक सन्यासिन बनना चाहती है ? शराब और उच्छ्रंखल सैक्स के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक मृत्यु को निमंत्रण देने वाली उसकी मौसी वान्दा उसे अपनी-ही जैसी ज़िंदगी की ओर ले जाना चाहती है लेकिन अंत में शास्त्रीय संगीत सुनते हुए पश्चात्ताप की मृत्यु का ही वरण करती है,और वह किसान,जिसने ईदा के माता-पिता को लोभवश मार डालने के लिए ही अस्थायी रूप से बचाया था,क्या रोते हुए उनकी कब्र खोदकर उनकी बची हुई करुण अस्थियाँ भांजी-मौसी को नहीं सौंपता ?
ह सच है कि एक ठोस,ऋजु कथानक होते हुए भी ‘ईदा’ सही,सर्वोच्च अर्थों में एक ‘कला फिल्म’ है.इसे देखना उतना आसान नहीं है और इसकी व्यापारिक कामयाबी तो नामुमकिन है. इसे जान-बूझकर काले-सुफ़ेद में बनाया गया है ताकि सेपिआ भी दिखे और हमें अस्तित्व के ‘ग्रे’ यानी धूसर-संसार में ले जाए.इसे देखकर 1950-60 के दशकों के महान निदेशकों की महान फ़िल्में याद आती हैं.ऐसा नहीं है कि प्रबुद्ध भारतीय दर्शक को इसमें कुछ न मिलेगा लेकिन यदि आप यूरोप के पिछले सौ वर्षों के इतिहास को कमोबेश जानते हैं,अंदरूनी यूरोप के भूदृश्य से यत्किंचित् परिचित हैं,तो आप मनाते रहते हैं कि ऐसी फ़िल्में कभी ख़त्म न हों.फिर आपको यह याद आता है कि हमारे देश में ही पिछले हज़ारों वर्षों के कितने दलित-हिन्दू-मुसलमान-सिख कंकाल गड़े हुए हैं,हमने और हमारे पुरखों ने कितनी हत्याएँ की हैं,हमारे जीवन, दिल और दिमाग़ किस किस्म के श्मशान और कब्रस्तान हैं,हमारे बीच कितने हत्यारे इसी वक़्त मौजूद हैं और होते रहेंगे,तो आप पूछते हैं हमारे यहाँ ‘ईदा’ जैसी एक भी फिल्म क्यों नहीं है ?
जबकिहमारे दो कौड़ी के ‘’डायरेक्टर’’ अपनी टुच्ची फिल्मों को हॉलीवुड ले जाकर अपने पालतू ‘’फिल्म-विशेषज्ञों’’ के साथ रिरियाते-घिघियाते घूमते हैं कि हमें ऑस्कर क्यों नहीं मिलता.
(यह आलेख नवभारत टाइम्समेंआज  प्रकाशित है, लेखक और संपादक के प्रति आभार के साथ.)
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विष्णु खरे
८ कविता संग्रह, १ आलोचना, २ सिने- समीक्षा, २१ अनुवाद (हिंदी, अंगेजी, जर्मन) और ८ संपादित आदि पुस्तकें प्रकाशित.
9833256060/ vishnukhare@gmail.com 

मंगलाचार : लोकमित्र गौतम

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लोकमित्र गौतम का पहला कविता संग्रह  मैं अपने साथ बहुत कुछ लेकर जाऊँगा .. प्रकाशित हुआ है.गौतम की कवितायेँ आकार में अपेक्षाकृत बड़ी है. लम्बी कविताओं को साधना मुश्किल काव्य-कला है, वे कितना सफल हुए हैं यह आप कवितायेँ पढ़कर देख सकेंगे. कविताओं का वितान विस्तृत है , चिंताएं बहुवर्णी हैं.




मेरे सपनो अब तुम विदा लो                  

मेरे सपनो
तुम्हारा बोझ ढोते ढोते
मैं थक गया हूं
अब तुम विदा लो...
मेरी हकीकतो
तुममें कल्पनाओं का रंग भरते भरते
मैं ऊब गया हूं
अब मुझे बख्शो
मेरा सब्र जवाब दे रहा है
ढांढस मुझे झांसे लगने लगे हैं
मैं उस सुबह की इंतजार में जो अब तक नहीं आयी
...और कब तक अपनी मासूम शामों का कत्ल करूंगा
मैं अब जीना चाहता हूं
अभी, इसी वक्त से
मेरे सपनो मुझे माफ़ करना
तुम्हारा इस तरह यकायक साथ छोड़ देने पर
मैं शर्मिंदा हूँ
पर क्या करता तुम्हारी दुनिया का
इतना डरावना सच देखने के बाद
मेरे पास और कोई चारा भी तो नहीं था
हालांकि मैंने सुन रखा था
कि सपनों की दुनिया खौफनाक होती है
मगर जो अपनी आँखों से देखा
वह सुने और सोचे गए से कहीं ज्यादा भयावह था
मैंने तुम्हारी दुनिया में खौफनाक जबरई देखी है
मैंने देखा है
एक तानाशाह सपना
अनगिनत कमजोर सपनों को लील जाता है
तानाशाह सपनों की खुराक भी बहुत तगड़ी होती है
और कमजोर सपनों की बदकिस्मती यह है
कि किसी सपने की खुराक
कोई दूसरा सपना ही होता है
शायद इसीलिए
सपनों के आदिशत्रु सपने ही हैं
ताकतवर सपने
कमजोर सपनों को सांस नहीं लेने देते
ताकतवर सपने जानते हैं
सपनों का सिंहासन
सपनों की लाशों पर ही सजता है
फिर सपना चाहे कलिंग विजय का हो
या आल्पस से हिमालय के आर पार तक
अपनी छतरी फैलाने का
इन शहंशाह सपनों की पालकी
तलवार की मूठ में कसे कमजोर सपने ही ढोते हैं
फिर चाहे
मुकुटशाही की रस्मों को वो देख पाएं
या थककर तलवार की मूठ पर ही
हमेशा हमेशा के लिए सो जाएं
इसकी परवाह कौन करता है ?
मेरे बाबा कहा करते थे
एक जवान सपना
घने साये का दरख्त होता है
इसकी ठंडी छांव और मीठी तासीर के लालच में
कभी मत फंसना
इसके साये में कुछ नहीं उगता
इसका नीम नशा होश छीन लेता है
फिर यहूदी इंसान नहीं
गैस चैंबर का ईंधन दिखता है
इसका खौफनाक सुरूर
कुछ याद नहीं रहने देता
याद रखता है तो बस
मकुनी मूंछों को ताने रखने की जिद
क्योंकि जिदें सपनों की प्रेम संताने होती हैं
मुझे पता है
सपनों के खिलाफ जंग में
मैं अकेला खड़ा हूं
क्योंकि सपनीली प्रेम गाथाएं
बहुत आकर्षक होती हैं
सफेद घोड़े पर सवार होकर आता है राजकुमार
और सितारों की सीढि़यों से उतरती है सोन परी
सुनने और सोचने में कितना दिलकश है ये सब
मगर मैं जानता हूं
कितना हिंसक है यह सब
ऐसे सपने सिर्फ सपनों में ही सच होते हैं
हकीकत में नहीं
जब भी कोई उतारना चाहता है इसे हकीकत की दुनिया में
पानी का इन्द्रधनुषी बुलबुला साबित होता है, यह सपना
आंखें खुलते ही
सितारों से उतरी सोनपरी की हथेलियां
खुरदुरी मिट्टी की हो जाती हैं
और सफेद घोड़ा नीली आंखों वाले राजकुमार को
जमीन पर पटक घास चरने चला जाता है
इसीलिए मैं परियों और राजकुमारों वाले सपनों से
तुम्हें बचाना चाहता हूं
इसीलिए मैं तुम्हें सपनीली नहीं बनाना चाहता
मैं तुमसे
सर्द सुबहों के उनींदे में
बांहों में कसकर भींच ली गई
गर्म रजाई की तरह लिपटना चाहता हूं
मैं तुम्हें लार्जर दैन लाइफ नहीं बनाना चाहता
इसलिए मैं अपने सपनों से कह रहा हूँ
अब तुम विदा लो ...





मै नया कुछ नहीं कह रहा                       

मुझे पता है मै नया कुछ नहीं कह रहा
फिर भी मै कहूँगा
क्योंकि
सच हमेशा तर्क से नत्थी नहीं होता
छूटे किस्सों और गैर जरुरी संदर्भों से भी
ढूंढ़कर निकालना पड़ता है
तो कई बार उसे
तर्कों की तह से भी कोशिश करके निकालना पड़ता है
मुस्कुराहट में छिपे हादशों की तरह
जब चकमा देकर पेज तीन के किस्से
घेर लेते हैं अख़बारों के पहले पेज
तो आम सरोकारों की सुर्ख़ियों को
गुरिल्ला जंग लड़नी ही पड़ती है
फिर से पहले पेज में जगह पाने के लिए
मुझे पता है तुम्हे देखकर
सांसों को जो रिद्दम और आँखों को जो सुकून मिलता है
उसका सुहावने मौसम या संसदीय लोकतंत्र की निरंतरता से
कोई ताल्लुक नहीं
फिर भी मै कहूँगा
संसदीय बहसों की निरर्थकता
तुम्हारी गर्दन के नमकीन एहसास को
कसैला बना देती है
जानता हूँ
मुझे बोलने का यह मौका
अपनी कहानी सुनाने के लिए नहीं दिया गया
फिर भी मौका मिला है तो मै दोहराऊंगा
वरना समझदारी की नैतिक उपकथाएं
हमारी सीधी सादी रोमांचविहीन प्रेमकथा का
जनाजा निकाल देंगी
और घोषणा कर दी जाएगी की यह प्रेमकथा
अटूट मगर अद्रश्य
हिग्स बोसान कणों की कथा है
इसलिए दोहराए जाने के आरोपों के बावजूद
मै अपना इकबालनामा पेश करूँगा
क्योंकि इज्ज़त बचाने में
इतिहास के पर्दे की भी एक सीमा है .
इसलिए मेरा मानना है की
मूर्ख साबित होने की परवाह किये बिना
योद्धाओं को युद्ध का लालच करना चाहिए
मुझे पता है
मै नया कुछ नहीं कह रहा
फिर भी मै कहूंगा
ताकि इंतजार की बेसब्री और खुश होने की
मासूमियत बची रहे
ताकि कहने की परंपरा और सुने जाने की
सम्भावना बची रहे
ताकि देखने की उत्सुकता और दिखने की लालसा बची रहे
असहमति चाहे जितनी हो मगर मै नहीं चाहूँगा
बहस की मेज़ की बायीं ओर रखे पीकदान में आँख बचाकर
साथ सा थ निपटा दिए जाएँ
गाँधी और मार्क्स !




चिट्ठी                              
एनकाउंटर स्पेशलिस्ट कहे जाने वाले
उस पुलिस सब इंस्पेक्टर को
अब भी यकीन नहीं हो रहा
कि मारे गये आतंकवादी की कसकर बंद मुट्ठी से
मिला पुर्जा,उसके महबूब की चिट्ठी थी
उसकी आखिरी निशानी
जो उसने उसे आखिरी बार बिछुड़ने से पहले दी थी
न कि किसी आतंकी योजना का ब्लू प्रिंट
जैसा कि उसके अफसर ने कान में फुसफुसाकर बताया था
पुलिस अफसर के जानिब तो भला
कागज के एक टुकड़े के लिए भी भला कोई अपनी जान देता है ?
नामुमकिन !
ऐसा हो ही नहीं सकता!!
काश ! अघाई उम्र का वह अफसर कभी समझ पाता
महज लिखे हुए कागज का टुकड़ा
या निवेश पत्र भर नहीं होती चिट्ठी
कि वक्त और मौसम के मिजाज से
उसकी कीमत तय हो
कि मौकों और महत्व के मुताबिक
आंकी जाए उसकी ताकत
काश! सिर्फ आदेश सुनने और निर्देश पालन करने वाला
वह थुलथुल पुलिस आफीसर
जो खाली समय में अपनी जूनियर को
अश्लील एसएमएस भेजता रहता है
कभी समझ पाता कि चिट्ठी के कितने रंग होते हैं ?
उसकी कितनी खुश्बुएं होती हैं
कि कैसे बदल जाते हैं
अलग अलग मौकों में चिट्ठी के मायने
सरहद में खड़े सिपाही के लिए चिट्ठी
महज हालचाल जानने का जरिया नहीं होती
देश की आन बान के लिए अपनी जान से खेलने वाले
सिपाहियों के लिए महबूब का मेहंदी लगा हाथ होती है चिट्ठी
निराशा से घिरे क्रांतिकारी के लिए उसमें
हौसला भर देने वाला विचार होती है चिट्ठी
चूमकर चिट्ठी वह ऐलान कर देता है
शून्य थेके शुरु
साथी! चलो फिर शुरू करते हैं सफ़र शून्य से
सब इंस्पेक्टर से झूठ कहता है उसका ऑफिसर
कि कोई मुट्ठी में दबी मामूली चिट्ठी के लिए 
जान नहीं दे सकता
उसे पता नहीं
प्रेमियों के लिए क्या मायने रखती है चिट्ठी ?
उसके लिए चंद अलफाजों की ये दुनिया, समूचा कायनात होती है
जो उन्हें जीने की हसरत देती हैतो मौका पड़ने पर
मरने का जज्बा भी देती है
क्योंकि चिट्ठी महज कागज का टुकड़ा भर नहीं होती...
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lokmitragautam@gmail.com

परख : सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा (सुनील सिंह) : अर्पण कुमार

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सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा :: सुनील सिंह
प्रकाशक : यश पब्लिकेशंस/1/11848, पंचशील गार्डन, नवीन शाहदरा/दिल्ली 110032 /संस्करण : 2014 /मूल्य : रु. 295 





चर्चित कथाकार सत्येन के संस्मरणों पर आधारित सुनील सिंह की किताब – ‘पितु मातु सहायक स्वामी सखा’ की विवेचना अर्पण कुमार ने विस्तार से की है.  सुनील कुमार के  एक लाइलाज रोग के होम्योपैथी  इलाज के सिलसिले में उनकी मदद सत्येन जी ने की . इसमें 1993-99 के बीच का समय है. यह संस्मरण कथादेश में किश्तों में छपा और प्रसिद्ध हुआ.


सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा (सुनील सिंह)                    
अर्पण कुमार

हने की ज़रूरत नहीं कि सत्येन पर केंद्रित अपने इस संस्मरण में उनके भीतर के हीरक कणों को प्रस्तुत पुस्तक (सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखा )के माध्यम से सुनील सिंहएक-एक कर हमारे सामने लाते हैं. हालाँकि इसमें सुनील ने उनसे जुड़े अपने कुल जमा छह वर्षों के बारे में ही लिखा है,मगर यह पुस्तक किसी अन्य लेखक की ही भाँति सत्येन के संश्लिष्ट व्यक्तित्व को खोलने में सहायक है. इसमें उनसे जुड़े और मिलने आनेवाले लेखकों के स्केच भी खींचे गए हैं और सत्येन समेत उन लेखकों की पुस्तकों की एक अंतर्यात्रा की गई है. विभिन्न जगहों से इलाज करवाकर हार बैठे सुनील जब सत्येन के घर भोपाल आते हैं (अपने इलाज के प्रति किसी आश्वस्ति-भाव से कोसों दूर), तो वहाँ सिर्फ उनकी आँखों की इस दुर्लभ बीमारी का काफी हद तक सफल इलाज मात्र नहीं होता है, बल्कि परस्पर भिन्न पृष्ठभूमि के साहित्यिकारों का एक-दूसरे से मेल-जोल बढ़ता है और उस परस्पर मिलन में ही इस संस्मरण की नींव सुनील के लेखकीय अवचेतन में कहीं पड़ जाती है.

निश्चय ही कुछ न कुछ लिखे जाने के पीछे कुछ हठीली प्रेरणाएं काम करती हैं,जिनके वशीभूत व्यक्ति कागज काले करता चला जाता है.इस क्रम में कुछ कारण गिनाए जा सकते हैं. सबसे पहला और सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण जो समझ में आता है वह है सुनील के मन में सत्येन के प्रति कहीं-न-कहीं जमा कृतज्ञता का एक भाव, जिसे वे अपनी लेखनी में आभार सहित अभिव्यक्त करते हैं. आज की एक सीमा तक सामान्य कही जानेवाली उनकी दिनचर्या के पीछे सत्येन के इलाज का हाथ है. तमाम विपरीत शारीरिक एवं मानसिक स्थितियों के बीच अगर किसी के उपचार न लगते से उपचार द्वारा किसी को ऐसी राहत मिलती हो कि वह उस चिकित्सक की मृत्य के पश्चात भी उसके प्रति इस हेतु एक श्रद्धा भाव रखे तो यह महत्वपूर्ण है. चिकित्सक और रोगी दोनों के लिए. दूसरे, यह,सत्येन की मौत से बिलखते छोटे भाई से सरीखे उनके एक प्रेमी और प्रशंसक का अपनी ओर से लिखा मर्सियाहै. और तीसरा कारण, सत्येन को हिंदी साहित्य में उनका देय प्राप्त न होने का दुःख मनाते एक लेखक की सदाशयता और तत्जन्य उत्पन्न पीड़ा है जो समकालीन हिंदी समाज की समूहबद्ध राजनीति के यथास्थितिवाद के खिलाफ लोगों को झकझोरना चाहती है.

इस संस्मरण में कराह है तो कहकहे भी. रोटी-कटी दोस्ती के जिक्र हैं तो अबोले की हद तक पहुँचते उसके दुःखद और एकांतिक हश्र का ब्यौरा भी. अपरिचय से परिचय की ओर;विवाद से संवाद की ओर बढ़ते कुछ हाथ हैं तो बीच रास्ते में किसी की बर्बर हत्या से उत्पन्न एक खूनी अकेलापन भी. यह संस्मरण एक तरफ स्वयं संस्मरणकार के अपने निचाट अकेलेपन से लड़ते जाने की कशमकश और ज़िद का गवाह है तो दूसरी तरफ कुछ आत्मीय जनों के साथ जिए गए उसके प्रवास के दिनों का पुनराख्यान भी. मगर इन परस्पर विरुद्ध सिरों के बीच जो ज़रूरी और पठनीय है,वह है वैयक्तिक रागात्मक्ता और संवेदनशीलता के बीच यहाँ दुनिया और दुनियादारों को जिस तरह देखा गया है और इन सबके बीच स्वयं लेखकों की स्थिति और उनके मनोभावों और संघर्षों को जिस तरह पकड़ने की कोशिश की गई है...उससे रु-ब-रु होना.   

फरवरी 2010 में लिखा गया यह संस्मरण अप्रैल 2011 में समाप्त हो सका. निश्चय ही इस संस्मरण को सुनील ने बहुत डूब कर लिखा है और इसमें उनका लेखकीय कौशल अपने प्रभावी और जादुई रूप में हमारे सामने आता है. इसमें कथा, स्मृति, रेखाचित्र,रिपोर्टाज आदि कई विधाओं के टूल्स का बेहतर प्रयोग किया गया है. लेखक स्वयं इसे विशुद्ध रूप से मात्र संस्मरण कहने से बचना चाहता है. मगर आलोचकीय सुविधा के लिए इसे मोटे तौर पर संस्मरण कहना अनुचित न होगा. वैसे भी स्मृति के आधार पर लिखित साहित्य संस्मरण की श्रेणी में आता है,फिर चाहे वह किसी व्यक्ति या विषय;किसी स्थान या घटना को लेकर लिखा गया हो. सत्येन कुमार के साथ सुनील के बिताए पलों (1993-99 के बीच का समय) का दस्तावेज है यह संस्मरण. विदित है कि यह संस्मरण कथादेश में जनवरी 2012 से लेकर सितंबर 2012 तक किश्तवार प्रकाशित होकर काफी चर्चित हो चुका है. इसकी भाषा और प्रस्तुति की खूब सराहना की गई. मगर पुस्तक रूप में प्रकाशित सामग्री पत्रिका में प्रकाशित सामग्री से कुछ परिवर्तन लिए हुए है.

सत्येन कुमार : पितु मातु सहायक स्वामी सखानाम से ही स्पष्ट है कि लेखक का उनसे संबंध बहुस्तरीय है. तो क्या वास्तव में कोई एक संबंध बहुस्तरीय होता है! एक ही व्यक्ति क्या किसी के लिए इतने रूपों में हो सकता है?इसका उत्तर है हाँ’. निश्चय ही ऐसा हो सकता है अगर किसी को देखने की हमारी अंतदृष्टि उतनी परिपक्व और बहुस्तरीय हो.अगर उसके साथ जीवन को कई स्तरों पर जीया गया हो. अगर उसके जीए-देखे और हमारे जीए-देखे में कुछ साम्य हो. अगर परकाया-प्रवेश अपनी रुढ़ियों से आगे जाकर किया गया हो. अगर उसके आवेश और भटकाव को हम तनिक सोचकर और रुककर देखना चाहते हों आदि आदि. उल्लेखनीय है कि सत्येन ने पतनोन्मुख सामंतवाद को बड़े करीब से देखा था. इस विषय पर उनकी कई रचनाएं हमें पढ़ने को मिलती हैं. स्वयं सुनील भी इस ढहती व्यवस्था को करीब से देखते आए हैं. इस संस्मरण में सुनील ने इससे जुड़े कई मार्मिक प्रसंग उठाए हैं. 

सत्येन के व्यक्तित्व के अंतर्विरोधों को भी वे बड़े करीने से पकड़ने की कोशिश करते हैं. ननिहाल में अभावों के बीच पले उनके जीवन के सूत्र के सहारे तो कभी पिता-पुत्र के बीच बचपन से ही सुदृढ़ होती अपरिचय की दीवार से टिककर तो कभी शादी के बाद प्रमिला और सत्येन के दो अलग-अलग शहरों (सागर में प्रमिला जी और भोपाल में सत्येन जी) में रहने की परिस्थितियों में झाँककर. मधुमेह की बीमारी से परेशान सत्येन के साथ प्रमिला जी अंततः 1984 में अपनी नौकरी से इस्तिफा देकर भोपाल रहने आती हैं. सुनील टिप्पणी करते हैं, “ प्रमिला जी के भोपाल आ जाने से सत्येन के जीवन में स्थायित्व तो आया,लेकिन उनका मानसिक भटकाव कभी खत्म नहीं हुआ-इस माध्यम से उस माध्यम तक और इस लड़की से उस लड़की तक.......कहते हैं लेखक का भटकाव कभी निर्रथक नहीं जाता. इसी भटकाव में उन्हें खेलकी मोना लाल, ‘छुट्टी का दिनकी डॉ. अदिति, ‘बर्फकी शालिनी, ‘शेरनीकी दिलप्रीत कौर और नदी को याद नहींकी रानी साहिबा और सुगंधा जैसे अविस्मरणीय चरित्र दिए(पृ. 66).

कहने की ज़रूरत नहीं कि इस पुस्तक-संसद के वेल ऑफ हाउसमें सत्येन कुमार हैं,मगर उनके पार्श्व में मंज़ूर ऐहतेशाम और सुमति पर भी काफी कुछ लिखा गया है. मंज़ूर पर इसलिए कि वे सत्येन को प्यारे (बाद में दोनों के बीच आए अबोलेपन में भी एक-दूसरे के कहीं गहरे भीतर एक रागात्मकता बची रह जाती है और दोनों एक-दूसरे के बगैर एक शहर के अंतहीन जंगल में अपने-अपने एकांत में कहीं निःशब्द सुबकते भी हैं) और उनके हमशहरी (दोनों भोपाल के) हैं तो सुमति पर इसलिए कि वह भी सत्येन के यहाँ सुनील की तरह आती-जाती रहती थी.इसके अलावा उनसे मिलने आनेवाले कृष्णा-सोबती, स्वदेश दीपक आदि के रेखाचित्र समुत्सुक होकर खींचे गए हैं. माई री मैं कासे कहूँ पीरमें अपने दुःख का वर्णन संस्मरणकार ने विस्तार से किया है. आँख की डाइपलोपिया नामक बीमारी (एक विशिष्ट किस्म का नेत्र रोग जिसमें मरीज को एक खास दूरी तक की अधिकांश चीजें दो-दो दिखती हैं) से लड़ते हुए किसी के अपने जीवन-त्याग करने की तो किसी के विक्षिप्त हो जाने की बात सुनील निःसंकोच भाव से कहते हैं. स्वयं अपने भीतर आए ऐसे ख्यालों का भी एकाधिक जगहों पर वे जिक्र करते हैं. 

उनके अपने निचाट अकेलेपन, अपनी ही नज़रों में अपनी गरिमाहीन और अँधेरे में जीती जा रही असुविधाजनक ज़िंदगी और जीवन को नष्ट कर देने की स्वयं के अंदर उभरती प्रवृत्ति....इन सबके बीच सुनील का जिंदा रहना और अपने लेखकीय कौशल के साथ उभरकर हमारे सामने आना न सिर्फ उनके भीतर की दृढ़-इच्छाशक्ति का दर्शाता है बल्कि सहित्य और कला के अन्य माध्यमों से जुड़े रहने की एक अटूट शृंखला ने उन्हें जीवनदायिनी शक्ति भी दी है. उनके अंदर के सर्जक ने उनको अपना बेहतर रचने का एक नामालूम तरीके से उद्बोधन भी दिया है. सुना है लूट लिया है किसी को रहबर नेमें ऐसी असहायता का जीवन जी रहे एक किशोर को उसके अपने ही लोगों द्वारा छले जाने की घटनाओं का संकेत है. सुनील सिंह आँखों की अपनी इस बीमारी से लड़ते हुए न सिर्फ अपने आप से लड़ते हैं बल्कि अपनी इस लड़ाई में अपनी अशक्तता को उचित ही अपनी ताकत बनाते हैं. और फिर इन दो अध्यायों (अगर उपशीर्षकों को अध्याय माना जाए) के बाद सत्येन कुमार का जिक्र आता है.

हमसे पूछो हमने कहाँ वो चेहरा रौशन देखा हैसे लेकर जेते दिबो आमि तोमायतक लगभग हर अध्याय में सत्येन अमूमन किसी न किसी रूप में उपस्थित हैं. इसके बाद उपसंहारऔर फिर इस संस्मरण का पटाक्षेप हो जाता है. कुल सौ पृष्ठों में फैले इस संस्मरण में जीवन के कई रंग देखने को मिल जाते हैं. कहना ज़रूरी है कि इसके उप-शीर्षक बड़े मार्मिक,आकर्षक और गेय बन पड़े हैं. अध्याय के भीतर की सामग्री को उचित रूप से प्रतिबिंबित करते हुए. लेखक ने कथ्य के हिसाब से पूरी पुस्तक में अलग-अलग उप-शीर्षकों का इस्तेमाल किया है. वन लाईनरकी तरह काम करनेवाले ये उपशीर्षक अपने भीतर अपना विशिष्ट रचनात्मक आस्वाद समाहित किए हुए हैं. जैसे एक मेले में अलग-अलग स्टॉल पर उनके विपणन प्रतिनिधि अपनी खासियत बताने के लिए समुत्सुक रहते हैं, ये उपशीर्षक भी कुछ उसी भूमिका में पाठकों को नज़र आते हैं. अगर सुमति की चर्चा करनी हो तो मैं अलबेली झमक भरूँ पनिआँजैसी पंक्ति का प्रयोग किया जाता है, जिसमें इस लोकगीत के माध्यम से उसके व्यक्तित्व के रागात्मक और प्रवहमान व्यक्तित्व को वाणी दी गई है. सुमति के व्यक्तित्व की इस यायावरी और ओजस्वी व्यक्तित्व का चित्रण तब मार्मिक बन जाता है, जब पाठक के आगे उसकी हत्या की बात सामने आती है. सत्येन के सहसा मारपीट पर उतारु हो आनेवाले पक्ष का चित्रण करना हो तो विशुद्ध फिल्मी अंदाज़ का उप-शीर्षक बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाए. उदासी की एक लंबी चादर तले अरसे से आपाद-मस्तक जीते लोगों की कहानियाँ और उसाँसें हैं इस संस्मरण में. उसकी अभिव्यक्तिपरक इतने स्थिर चित्र खींचे गए हैं कि पाठक का कलेजा बाहर को आ जाता है और उसे इसका पता तक नहीं चल पाता. सपना देख जुड़ा गइले जियरा,सपना न अउरी देखाब ए राम, ऑवर स्वीटेस्ट सॉन्ग्स आर दोज दैट टेल ऑफ द सैडेस्ट थॉट ;इस खाना-ए-हस्ती से गुजर जाऊँगा बेलौसआदि ऐसे ही अध्याय हैं.

इस संस्मरण में कभी रोबीली और भव्य रही कोठियों की ढहती भयावहता का चित्रण है तो उसके भीतर बिछाई जाती क्रूर बिसातों की कहानियों का संकेत भी. भव्यता के बरक्स तुच्छता;कोमलता के बरक्स कलुषता; उदारता के बरक्स संकुचन के चित्रण में सुनील की कलम मानों कमाल कर जाती है. अपने ननिहाल की जर्जर होती इमारत के बारे में वे लिखते हैं,“…लोहेकेविशालदरवाजेसेनिकलकर मैं वहीं खड़ा हो गया. सोचने लगा,यह महल भी एक दिन वीरान हो जाएगा. बहुत दिनों के बाद किसी सरकारी महकमे का कोई मुलाजिम इसके बाहरी हिस्से में अपना आवास बनाएगा,जैसे राजमहल के बाहरी हिस्से-सिरिश्ताखाने की कोठरियों में ब्लॉक का दफ्तर खुल गया था. किसी रात को वह महल के अंदर जाएगा. उसे पहले तो संगीत की मधुर लहरियाँ सुनाई पड़ेंगी,इसके बाद  सुनायी देगी कुएँ में धकेल कर हत्या किए जा रहे बड़े नानाजी की हृदय-विदारक चीख....एक ही वाक्य में सुनील, सुमधुर स्वर-लहरियों और मृत्यु की हृदयविदारक चीख दोनों की बातें करते हैं. एकाधिक जगहों पर जादुई यथार्थवाद के शिल्प में ढला यह लेखन सुनील के कलमकार की खासियत है जो इस पुस्तक में यहाँ-वहाँ देखने को मिलती है.

मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगरमें सुनील सितंबर 1993 में भोपाल पहुँचने के अपने प्रकरण पर टिप्पणी करते हैं: -नियति ने तीन अपरिचित लोगों से मेरा मिलन भोपाल के एक अजनबी मकान में तय कर रखा था,ऐसा तो सिर्फ आर्थर कानन डायल के उपन्यासों में होता है. इसी अध्याय में सुनील की सत्येन से पहली मुलाकात का जिक्र है. अपने लेखकीय स्वभाव या अपनी विशिष्ट शैली या अपना पुस्तक प्रेम या लेखक को किसी नायक के अंदाज़ में देखते आने की अपनी प्रवृत्ति....यहाँ भी वे सत्येन की गाड़ी में बैठे हुए उनकी कृतियों के बारे में सोच रहे हैं. वे लिखते हैं,“ ’जंगलके सत्येन कुमार. गोली चलती है और घायल पशु चीखने लगता है. रेस्ट हाउस में ठहरी लड़की रात भर नहीं सो पाती. जहाजका वह भूरी दाढ़ियों वाला कप्तान. डूबते जहाज सा मुराद मंज़िल और असहाय से रफत मियाँ.शेरनीकी दिलप्रीत कौर- मैं आपके लायक नहीं,आप तो गुरुओं जैसे हो.  सुनील सत्येन कुमार से नहीं,जहाजऔर जंगलके सत्येन कुमार से मिलना चाहते हैं. पढ़ी हुई किसी रचना को पढ़ते हुए हम उसके रचनाकार के बारे में एक छवि निर्मित करते हैं. सुनील भी करते हैं और कदाचित हम सब से अधिक करते हैं. और फिर उसे खूबसूरत तरीके से पिरोकर हमारे सामने रखते हैं. यह संस्मरण इसका एक पुख्ता गवाह है.स्वयं मैं जहाँ कहीं ठेले पर ले जाई जाती बर्फ की सिल्लियों को देखता हूँ,मुझे धर्मवीर भारती के निबंध ठेले पर हिमालयकी सहसा याद हो आती है. सड़कों पर लापरवाही से चलाए जा रहे ट्रक को देखकर श्रीलाल शुक्ल का उपन्यास राग दरबारीसहसा स्मृति में आ धमकता है जिसमें यह आप्त वाक्य जाने कितने लोगों ने उद्धृत किया है… ‘ट्रकों का आविष्कार तो सड़कों के साथ बलात्कार करने के लिए ही  किया गया है.                    

होमियोपैथ के इलाज के सिलसिले में,विभिन्न प्रसंगों के बीच सुनील का,सत्येन कुमार के साथ उनके घर में सानिध्य के कई संवाद और वहाँ की विभिन्न गतिविधियों का स्केच बड़ा प्रामाणिक और रोचक बन पड़ा है. सुनील सिंह,उन लेखकों में शामिल हैं,जो अपने संपादकों और अपने वरिष्ठ लेखकों का समुचित सम्मान करते हैं और उनकी रचनाओं को पूरी तल्लीनता से पढ़ते हैं. सुनील की खासियत है कि वे किसी रचना को उसका होकर पढ़ते हैं और उसमें इतना खोते हैं कि उसके हिसाब से वे उसकी छवि निर्मित करते हैं. और फिर जब वह लेखक उनके जीवन के किसी मोड़ पर उनसे मिलता है,तो उनके पास उसके सारे संदर्भ होते हैं और वे उन सभी संदर्भों से गुजरते हुए उस लेखक के प्रत्यक्ष आते हैं. किसी को लेकर सुनील के भीतर होनेवाली इस मानसिक यात्रा के कारण ही उनके द्वारा लोगों के खींचे गए स्केच मानीखेज़,आत्मीय और रोचक बन पड़ते हैं. कई बार पारस्परिक संवादों में किसी रचना का जिक्र गाहे-ब-गाहे आ जाता है. कई बार किसी घटना या किसी से हुए संक्षिप्त मुलाकात में सहसा आया कुछ औचक मोड़ भी इसी कारण संभव हो पाता है. मसलन,जब वे मंज़ूर ऐहतेशाम से मिलने उनके घर जाते हैं,तो उनके मकान और मुहल्ले को देखकर उन्हें उनका उपन्यास दास्ताने लापतायादहोआताहै.वेलिखतेहैं,उनका मकान,आसपास का माहौल बिल्कुल वही था,जो उनके उपन्यास दास्ताने लापतामें दर्ज़ है. यहाँ तक कि बूचरखाने से आता बदबू का भभका भी,जो कभी-कभी हवा के झोंके के साथ आ नथुनों से टकराता था.मतलब यह कि इस संग्रह को जितना वर्णित लेखकों के संस्मरण के लिए याद किया जाएगा,उतना ही उनकी रचनाओं के अंतर्पाठ के लिए भी. रचना से रचनाकार और रचनाकार से पुनः रचना तक की इस आवाजाही में इस संस्मरण के रचना-विन्यास को देखा-समझा जा सकता है.

किसी भी संस्मरण का साहित्यिक महत्व इसमें है कि वह अपने स्तर पर कितने बड़े सवालों को उठाता है,अपने आस-पास के चरित्रों को उठाकर उन्हें साहित्यिक पात्र बनाकर संस्मरणकार उनके बहाने से अपने देश-काल के बारे में क्या कहना और लोगों से क्या बाँटना चाहता है.मतलब यह कि निजता का वर्ण्य कुछ ऐसा हो कि वे निजता मात्र का अतिक्रमण करें और उसका एक व्यापक सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ निर्मित हो सके. पाठकों को उन्हें पढ़ने और उन संदर्भों के बारे में जानने की इच्छा हो. दूसरा,उस वर्ण्य का वर्णन कुछ इस तरह का हो कि उसमें चरित्र-चित्रण की संशलिष्टता अलग-अलग स्तरों पर उद्घाटित हो.कहने की ज़रूरत नहीं कि इन कसौटियों पर यह संस्मरण बिल्कुल खरा उतरता है. इसमें हमारे समय और समाज के कई यथार्थ एक रोचक किस्सागो अंदाज़ में परत दत परत हमारे सामने खुलते हैं,जिनका जिक्र आगे किया जाएगा. सुनील की एक खासियत है कि वे क्रमशः अपनी बात रखते हैं. छोटे-छोटे वाक्यों से शुरू करते हुए आगे बढ़ते हैं. इस संस्मरण में भी ऐसा ही है. संस्मरण को उप-शीर्षकों में बाँटने से लेखक के लिए एक लाभ यह हुआ कि चरणबद्ध रूप से यह सस्मरण लिखा जा सका और पाठकों को यह सुविधा प्राप्त हुई कि वे अपने हिसाब से अपना अभिष्ट लोकेट कर सकें.

चूँकि यह आत्मचरित मात्र नहीं है,इसलिए सुनील सिंह अपने बारे में जो कुछ लिखते हैं,उसके पीछे या तो कोई प्रसंग/पृष्ठभूमि आती है या फिर परस्पर संवादों में उनके जीवन की अपनी कतरनें हमारे सामने आती हैं. ननिहाल से लेकर ददिहाल तक वे अपने पारिवारिक जीवन का चित्रण गाहे-ब-गाहे प्रसंगानुसार करते आए हैं,जिसमें सांय-सांय करता अकेलापन है,बड़े घरों के बीच दरकते व्यक्तित्व हैं,संबंधों के बीच पनपती अजनबियत और एक दूसरे के प्रति बढ़ता संशय है. संपत्ति की लिप्सा में किसी बुजुर्ग की अपने द्वारा की गई हत्या है और इन सबका लेखक के अवचेतन पर पड़ा प्रभाव है. स्मृतियों में जाकर अपने अवचेतन के गह्वर से कुछ ऐसा निकाल लेना कि उसमें तत्कालीन समय की धड़कन समा जाए,तो इससे रचना में एक जीवंतता और प्रामाणिकता आ जाती है. तब हमारा इतिहास हमारे वर्तमान के पार्श्व में आ खड़ा होता है. फिर उस इतिहास के पृष्ठ छल-प्रपंचों से रँगे हुए हों या अँधेरों की तहों में लिपटे उन पृष्ठों पर रोशनी के चंद क़तरे छितराए हुए हों. छिजते सामंतवाद की उठापटक के बीच सीधे-सादे लोगों का स्वयं उनके ही परिजनों द्वारा ठगा जाना हो या विधवा स्त्रियों को एकांतिक,गरिमाहीन और आवश्यक सुविधाओं से रहित जीवन जीना हो. लेखक सुनील सिंह न सिर्फ इन सबके भोक्ता रहे हैं,बल्कि उन्होंने इन सबका निरपेक्ष और अनासक्त भाव से यहाँ चित्रण भी किया है.  
   

इस संस्मरण में जीते-जागते चरित्रों को अपनी पूरी आत्मीयता और भावमयता में चित्रित किया गया है. जिस सुमति से लेखक के संबंध की शुरूआत एक रचनात्मक विवाद की कटुता से होती है,वही संबंध,क्रमशः एक संवेदनात्मक सघनता में बदलता है और जिसके केंद्र में स्वयं सत्येन कुमार थे. एक तरफ इससे संस्मरणकार के पूर्वाग्रह मुक्त नज़रिए का पता चलता है तो दूसरी तरफ एक कसी हुई कथावस्तु की तरह इसमें कथा-केंद्र के साथ हरेक का कुछ न कुछ संबंध भी परिदर्शित होता है. बाद में सुमति की हत्या कर दी जाती है. सुमति का वह प्रसंग बड़ा मार्मिक बन पड़ा है. खास तौर से तब,जब वह भोपाल से विदा ले रही थी. लेखक लिखता है,काश! तनिक-सा भी एहसास होता-कोई अपशकुन,कोई दुःस्वप्न कि यही आखिरी मुलाकात है-फिर मिलना नहीं होगा,तो उसे जाने ही क्यों देते!सत्येन कुमार और उनकी पत्नी की भी क्रमशः मृत्यु हो जाती है. सच,मृत्यु जितना अवश्यंभावी है,उतना ही औचक  भी. सत्येन की मृत्यु के पश्चात उनके लेखन की धरोहर को जिंदा रखने में हिंदी समाज की निष्क्रियता पर जहाँ कई सवाल खड़ा किए गए हैं, वहीं सुमति की हत्या के पीछे के उद्देश्यों और एक बड़े आर्थिक घोटाले  की पृष्ठभूमि का संकेत भी किया गया है.   

बोल तेरे साथ क्या सलूक किया जाएमें सुनील,सत्येन कुमार के गुस्सैल स्वभाव और उनके द्वारा सहजतापूर्वक किसी के ऊपर हाथ-पाँव चला लेने(उस रात भोपाल में उनसे  पिटनेवाला ऑटो वाला उनकी गाड़ी के सामने आ गया था) की एक घटना का आँखो-देखा बयान करते हैं. यहाँ वे उनके आत्मकथात्मक उपन्यास छुट्टी का दिन(सागर विश्वविद्यालय के उनके छात्र-जीवन में मार-पीट के विविध प्रसंग) की और हेमिंग्वेके बुलफाइट देखने की आदत का जिक्र करते हैं और साथ ही उन दोनों की मजबूत कद-काठी की भी. बदलते शहरों, बढ़ते उपभोक्तावाद, ढहते सामंतवाद, दरकते संबंधों आदि की भी चर्चा गाहे-ब-गाहे हुई है. इन सबके संकुल में यह संस्मरण एक महत्वपूर्ण और रोचक कृति बन गया है,इसमें संदेह नहीं.          

सत्येन को केंद्र में रखकर लिखे गए इस संस्मरण के बहाने सुनील अपने जीवन और अपनी पृष्ठभूमि के विरोधाभासों की भी अंतर्यात्रा कर पाते हैं.छोटी-मोटी चीजें जब बड़े और  बहुलताधर्मी रचनात्मक संदर्भों के साथ सामने आती हैं,तो उनका महत्व बढ़ जाता है. इस संस्मरण में लेखक ने यही कमाल किया है. पुस्तकों,लेखकों,पत्रिकाओं,संबंधों,भेंट-मुलाकातों,यात्राओं आदि की चर्चा लेखक ने काफी डूबकर की है. उल्टे कई बार अगर किसी लेखक की कृतियों को अगर उन्होंने ठीक से पढ़ा और गुना नहीं है तो इसके बगैर वे उससे मिलने में उन्हें एक किस्म के संकोच का अनुभव होता है. रमेशचंद्र शाह और ज्योत्सना मिलन के यहाँ जाने में उनका यह संकोच देखा जा सकता है (देखें पृष्ठ 40-41).    

मंज़ूर से अपनी पहली मुलाकात के दिन वे मंज़ूर की पहली कहानी रमजान में मौतका जिक्र करते हुए कहते हैं, कथानायक रात को सुनसान सड़क से गुजर रहा है.एक लैंपपोस्ट से दूसरे लैंपपोस्ट तक का फासला तय करते समय साया कभी लंबा,कभी सिकुड़ता और कभी बिल्कुल ही गायब हो जाता है(पृ. 34). और जब मंज़ूर उन्हें इसके लिखे जाने की पृष्ठभूमि से वाकिफ़ कराते हुए कहते हैं,सत्येन उन दिनों जहाजकहानी लिख रहा था. उसने मुझसे डिटेल्स जुटाने के लिए कहा.सत्येन ने जहाजकहानी पूरी की. लेकिन डिटेल्स इकट्ठा करने के क्रम में मुझे कुछ ऐसा मिला कि मैंने रमजान में मौतकहानी लिख ली(पृ. 34).

इस पर सुनील ने उचित ही प्रतिक्रिया दी, यानी एक ही पृष्ठभूमि का इस्तेमाल करते हुए दो कथाकारों ने दो अविस्मरणीय कहानियाँ लिख दीं(पृ. 34).      

मतलब यह कि ऐसे ही कई साहित्यिक विचार-विमर्शों के बीच यह संस्मरण बुना गया है,जिनमें कई उपयोगी जानकारियाँ सुरक्षित हैं. एक सुसंपादित फिल्म की तरह इसके भीतर की विषयवस्तु का चयन भी कठोरतापूर्वक और समुचित मापदंडों पर रखकर किया गया है.


इस संस्मरण में व्यक्तियों, जगहों,पुस्तकों और संवादों की तुलनात्मक प्रस्तुति अपनी आकर्षक और प्रवहमान भाषा में अद्भुत है,जिसमें शहर की साहित्यिक-सांस्कृतिक यात्रा को बड़े रोचक अंदाज़ में प्रस्तुत किया गया है. एक कहानीकार अपनी कहानियों में जिस तरह से कथा-परिवेश रचता है,सुनील भी अपने उस कहानीकार की कला का इस्तेमाल अपने इस संस्मरण में बखूबी करते हैं. उनके अंदर का निरीक्षक अपने आस-पास को तल्लीनता से जी भर कर देखता है. तभी तो सत्येन के मकान के प्राकृतिक,सुरम्य लोकेशनकी वे जितनी चर्चा करते हैं और उन्हें वह खूबसूरत दृश्य जितना प्रभावित करता है,उतना ही वे उस दरवाजे पर लिखे नाम को लेकर ठहरते हैं.जिस संकल्पना/मनोवेद/रहस्य के साथ व्यक्ति अपनी संतानों/पुस्तकों/मकानों का नाम रखता है,उसमें भी कोई सत्येन कुमार जैसा लेखक कुछ रखे तो उसकी व्याख्या अवश्य की जाएगी. वे कुर्रतुल ऐन हैदर की पंक्ति को उद्धृत करते हैं,कानों के नाम उसमें रहनेवालों की साइकी को बतलाते हैं (पृ.58).

उनका प्रकृति-चित्रण भी सुनील अपने हिसाब से करते हैं. मसलन सत्येन के घर से दिखनेवाली प्राकृतिक छटा का विवरण वे इस तरह देते हैं,यहाँ से पहाड़ी की ढलान दिखती थी. ढलान पर भारी-भरकम चट्टानें थीं,कहीं-कहीं एकाध कॉलोनी और झुग्गी-झोपड़ियाँ. पहाड़ी के ऐन पैताने सागर था- भोपाल ताल. अरे,यह तो दागिस्तान है- अपने रसूल हमजातोव का दागिस्तान. ऊपर पहाड़,नीचे सागर. काला सागर भी तो आखिरकार झील ही है. तब तो यहीं कहीं बाज भी होंगे,जिनका  रसूल बार-बार जिक्र करते हैं (पृ.33).

सुमित्रानंदन पन्त पर लिखे अपने प्रसिद्ध लेख सुमित्रानंदन पन्त : एक विश्लेषण (नई कविता का आत्मसंघर्षमें संकलित) में गजानन माधव मुक्तिबोधलिखते हैं,ऐतिहासिक अनुभूति वह कीमिया है जो मनुष्य का संबंध सूर्य के विस्फोटकारी केंद्र से स्थापित कर देती है. यह वह जादू है जो मनुष्य को यह महसूस कराता है कि विश्व-परिवर्तन की मूलभूत प्रक्रियाओं का वह सारभूत अंग है. ऐतिहासिक अनुभूति के द्वारा मनुष्य के अपने आयाम असीम हो जाते हैं-उसका दिक और काल उन्नत हो जाता है. ....सुनील भी शहरों के,गिरते सामंतवाद या फिर किसी लेखक के मूल्यांकन पर बात करते हुए इसी कीमियागिरी का उपयोग करते हैं. कुछेक पंक्तियों में वे किसी शहर का ऐसा चित्र खींचते हैं कि उसकी सांस्कृतिक यात्रा से पाठक न सिर्फ परिचित होता है बल्कि भाषा के ऐसे स्थापत्य से चकित भी होता है. औरंगाबाद,हजारीबाग और भोपाल जैसे शहरों और उनके शहरियों के बारे में उनकी रवानगी भरी भाषा गुदगुदाती है तो कई जगहों पर महत्वपूर्ण सूचनाओं के छोटे-छोटे ब्यौरे उस शहर की पुरातनता और सुदीर्घ सांस्कृतिक/साहित्यिक कड़ी को हमारे सामने प्रस्तुत करते हैं. बदलते समय के साथ शहर के बदलते मिज़ाज़ को सुनील उसी पुरातनता के बरक्स रखकर देखते हैं. 

मसलन उनके गृह नगर औरंगाबाद के बारे में उनकी यह टिप्पणी...यह विश्व के पहले उपन्यास कादंबरी और महाकाव्य हर्षचरितके रचयिता बाणभट्ट की धरती है. कभी बुद्ध के चरणों ने इसे पवित्र किया था. वे इसी धरती से गुजरकर सारनाथ गए थे. उर्वशी पुरस्कार से सम्मनित और राज्य-सभा सदस्या प्रसिद्ध फिल्म अभिनेत्री स्व,नरगिस दत्त और प्रसिद्ध अभिनेता तथा रात और दिनजैसी अविस्मरणीय फिल्म के निर्माता भाई अनवर हुसैन ने इसी धरती पर अपनी आँखें खोली थीं. कालांतर में यह लाठी और बूथ-कैपचरिंग के लिए विख्यात हुई.तत्पश्चात,कुछ दिनों तक ऊपर से छह इंच छोटा करने का फैशन खूब जोरों से चला,….. दलेलचक बघौरा और दरमियाँ जैसे सामूहिक नरसंहारों की वज़ह से यह जगतख्यात हुई(इस खाना-ए-हस्ती से गुजर जाऊँगा बेलौस’,पृ.53-54). 

इसी तरह हजारीबाग के कुछ साहित्यकारों पर की गई उनकी दोस्ताना और हल्की-फुल्की टिप्पणी अपने हास्य-व्यंग्य मिश्रित अंदाज़ में हमारे पेट में मरोड़ भी लाती है और साहित्य की वस्तुस्थिति का कच्चा-चिट्ठा भी खोलती है:- ..भारत यायावर को जब कविता से कुछ होता-हवाता नहीं दिखा तो इन्होंने रेणु को पाथेय समझ सत्तु की तरह अपने अंगोछे में बाँधकर  लाठी में लटका लिया था....” (पृ54).  सुनील खुद पर आत्म-व्यंग्य करने से नहीं चूकते,...कहाँ तो मुझे हल्दीघाटी में तलवार का जौहर दिखाना चाहिए था और कहाँ मैं अंगुलियों में गिनी जाने लायक कहानियों की झक पान गुमटी सजाए बैठा था..(पृ.54).  यहीं पर कुछ कदम आगे चलकर वे भोपाल की बात करते हैं. और बात क्या मानों भोपाल को किसी तश्तरी में सजाकर हमारे सामने पेश कर देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे मंज़ूर एहतेशाम के यहाँ तशतरी में सजाकर पानी के गिलास अतिथियों को पेश किए जाते हैं. एक बानगी प्रस्तुत है:- भोपाल- जर्दा,गर्दा,पर्दा और नामर्दा का मशहूर शहर. ....बिहार राज्य विद्युत बोर्ड की कृपा से हम तो धुँधुआती-सी एक रोशनी के अभ्यस्त हो चुके थे,यहाँ चकाचौंध थी. पुरानी रियासत थी,सो तोपें-असली और साहित्यिक दोनों किस्मों की,इधर-उधर बिखरी पड़ी थीं..(पृ.55). सत्येन और मंज़ूर की बड़े-बड़ों की खबर लेने के अंदाज़ को वे यहीं पर क्या खूब जोड़ते हैं और देखिए ज़रा कि उनकी उपमा किससे देते हैं, दो बोफोर्स तोपें तो ऐन मेरी आँखों के सामने तैनात थीं. हमने तो इनके दर्शन-लाभ को ही वैभव समझ पुरुषस्य भाग्यमके फिक्सड डिपोजिट में डाल दिया था.हमारे रत्ती भर दिमाग की हालत यह थी कि कभी यह ईश्वरीय प्रकाश से नहा जाता,तो कभी यहाँ ब्लैक-आउट सा अँधेरा हो जाता. कहने की ज़रूरत नहीं कि ऐसा सृजनात्मक गद्य सुनील की उपलब्धि है और संस्मरण में इसका ऐसा प्रयोग उल्लेखनीय है. वे शहर में रह रहे शहरियों को और शहरियों के भीतर धड़कते शहर दोनों को देखने की कोशिश करते हैं. वे इन शहरों का ऐसा चित्र खींचते हैं कि अचानक से ये शहर हमें आकर्षित करने और अपने यहाँ हमें बुलाते प्रतीत होने लगते हैं.     

कई जगहों पर लेखकों की खिंचाई भी खूब की गई है फिर चाहे वे विक्रम सेठ हों या कुर्रतुल ऐन हैदर;अज्ञेयया फिर तोल्स्तोय. कई जगहों पर कुछ रोचक अंदाज़ में बातें होतीं. मंज़ूर कहते,ऐनी आपा के पास एक बहुत बड़ी मेज है. उसमें बस दराजें ही दराजें हैं. इन तमाम दराजों में इंफार्मेशंस ठूँस-ठूँस कर भरी हैं. बस समझ लो,यही कारे-ए-जहाँ दराज है . इस पर सत्येन कुमार व्यंग्य कसते हैं,सूचनाएं इकट्ठी कर लो और नॉवेल लिख मारो.यह लेखन है!

बेशक ये व्यक्तिगत या कहिए हल्की-फुल्की टिप्पणियाँ हैं,मगर ये बड़े लेखकों द्वारा बड़े लेखकों के प्रति की गई टिप्पणी है. इसे सुनील भी जानते हैं,मगर चुटकी लेने से नहीं चूकते,और लीजिए,किस्सा-ए-कुर्रतुल ऐन हैदर बजरिए जनाब मंजूर ऐहतेशाम मिनटों में तमाम हुआ!

सत्येन कुमार और उनकी पत्नी की देयता को सुनील,सत्येन की एक कहानी हँसके माध्यम से याद करते हैं,जिसमें खदान में काम कर रहे एक युवक के जीवन को एक निःसंतान दंपत्ति व्यवस्थित करता है. सत्येन कुमार को सुनील उचित ही एक सेल्फ-मेड और जिम्मेदार इंसान मानते हैं. सुनील लिखते हैं,बहुत छोटी उम्र में उन्होंने पैसा कमाना सीख लिया था. वे जो कुछ भी थे-अपने बलबूते पर थे. इसके बावजूद,मैंने उन्हें गर्दिशके दिनों का विलाप करते कभी नहीं सुना(पृ. 76).  

यहाँ पर लेखकों में सतही तौर पर दिखते फक्कड़पने और उसकी आड़ में अपनी महानता का राग अलापनेवाले और हर अवसरवादिता को चुपचाप गटक जाने में पारंगत लेखकों पर चुटकी लेते हुए वे कहते हैं, “ और हाँ,लेखक और कवि,अमूमन अपने कवि-लेखक होने को लापरवाही और गैर-जिम्मेदारी का लाइसेंस मानते हैं. वे पूरी तरह जिम्मेदार और भरोसेमंद थे (पृ. 76).
 
शीशे-सा है मतवाले तेरा दिल  में सत्येन के पारदर्शी और नाजुकमिजाज होने के अतिरिक्त उनके व्यक्तित्व के अन्य कई पक्षों को यहाँ सुनील ने बखूबी उजागर किया है. उनका शिकारी पक्ष, अतिशीघ्र अपना आपा खो देना वाला पक्ष, किसी के गर्मजोशी से आतिथेय करना, बेहद पजेसिवहोकर किसी से दोस्ती निभाना और फिर किसी नामालूम से प्रसंग पर जीवन भर के लिए उसे किनारा कर लेना. सत्येन अपनी कहानियों में जिन हीरोईक किस्म के पात्रों को रचा करते थे,कहीं-न-कहीं वे पात्र उनके स्वयं के अवचेतन से निकले हुए थे. जिससे प्यार करना,उसे बुरा लगने की हद तक डाँट देना,अपनी रचनात्मक क्षति की हानि से बेलौस होकर बड़े प्रकाशकों से पंगा ले लेना (जबकि अपने को विद्रोही और क्रांतिकारी घोषित करनेवाले कद्द्वार लेखक/आलोचक उनकी अनावश्यक और दयनीय जी-हुजूरी में दिन-रात एक किए होते हैं)आदि उनके इसी अव्यावहारिक (व्यावहारिक चतुर सुजानों की मानें तो) मगर साहसिक कदम के उदाहरण हैं. अपनी पुस्तक गल्प का यथार्थ: कथालोचन के आयामके अध्याय ‘’समकालीन कहानी : आधे-अधूरे चित्रमें सुवास कुमारलिखते हैं,सत्येन कुमार की एक खासियत है विशिष्ट चरित्र-सृष्टि.हीरोइक चरित्रों की सृष्टि करना उन्हें अच्छा लगता है और संभवतः हीरोवर्शिप भी.
         
इस संस्मरण में लेखकों के लेखन के प्रति एक आदर और हसरत का भाव है. अच्छे लेखन को लेकर एक अकुंठित प्रशंसा भाव है जो आजकल लोगों में खासकर समकालीन लेखकों में घटता जा रहा है. सत्येन और मंज़ूर जैसे लेखकों की रचना-प्रक्रियाओं को भी प्रसंगानुकूल सुनील ने बताने की चेष्टा की है. एक बड़ा और इत्मिनानपसंद लेखक किस तरह अपनी किसी रचना को लेकर तैयारी करता है,इसका सहज अनुमान लगाया जा सकता है. हमारे बाद अब महफिल में अफसाने बयाँ होंगेउप शीर्षक में वे मंजूर भाईके शोरूम में उपलब्ध शांति को लेकर उसकी तुलना बर्मा के पगोडा से करते हैं,और वहाँ अपने व्यावसायिक कार्यों के बीच लेखन की उनकी तैयारी की तफ्तीश देते हुए सुनील लिखते हैं:,यहीं बैठकर मंजूर भाई प्रसिद्ध अंग्रेजी लेखक राजा राव की तरह अपने उपन्यासों की दसवर्षीय योजनाएँ बनाते हैं. पचासों तरह की किताबें पढ़ते हैं. नोट्स लेते हैं. तब कहीं जाकर उपन्यास लिखने का असली काम शुरू होता है. फिर निष्ठुरतापूर्वक मंज़ूर भाई द्वारा उनके लिखे की काट-पीट को सुनील रेखांकित करते हैं. तभी उनकी लेखन-प्रक्रिया पर लिखते-लिखते वे उनकी (मंज़ूर की) व्यवहार-कुशलता पर चर्चा करने लगते हैं. ऐसे ही सिरों से सिरे मिलते चलते जाते हैं औ भोपाल में दंगे होने,सत्येन के अचानक से आग-बबूला हो जाने और सहसा उनके शांत हो जाने की कितनी घटनाएं यहाँ दर्ज़ हैं. वैसे ये प्रसंग सामान्य किस्म के हैं मगर सुनील अपने वर्णन से उन्हें उदात्त, पठनीय और महत्वपूर्ण बना देते हैं. ठीक वैसे ही जैसे एक कस्बाई प्रेम और विपरीत लिंग के प्रति सहज कैशोर्य आकर्षण को लेकर अपने वर्णन और प्रस्तुति कौशल से मनोहर श्याम जोशी कसपजैसा घनघोर रूप से पाठ्य उपन्यास लिख पाते हैं. उर्वर कल्पनाशीलता वाले कथाकार-व्यक्तित्व को जब अपने अनुकूल रचना-धर्मियों का साथ मिलता है तब वक़्त किस कदर खुद रंगोली बन जाता है,इसे इस संस्मरण में सहज ही देखा जा सकता है.          


मैं तो अकेला ही चला था जानिब-ए-मंजिल मगर’ 

इस तरह गुँथी हुई किस्सागोई इस पुस्तक की विशेषता है. स्वप्न,आदर्श, यथार्थ,साहित्य,स्वप्रसंग,स्मृति के परस्पर जादुई जुड़ाव से ऐसी रचना संभव होती है. मृत्यु की आकांक्षा और जीवन की कई घोर किल्लतों (आर्थिक अर्थ में नहीं) के बीच एक उत्तरजीविता की कहानी है. जिस तरह कैंसर का एक मरीज,कैंसर से जीते जाने की अपनी कहानी लिखता है,और उसकी कहानी में इलाज करनेवाले डॉक्टरों का अनिवार्यतः जिक्र रहता है उसी तरह,यहाँ आँखों की इस असाधारण,अति दुर्लभ और बेहद असुविधाजनक एवं गरिमाखंडक बीमारी को काफी हद तक होमियोपैथ की अपनी गोलियों से ठीक और नियंत्रित करनेवाले चिकित्सिक सत्येन का जिक्र तो खैर आना ही था. मगर चूँकि वह चिकित्सक एक साहित्यकार भी था और उसके आसपास साहित्यिक गहमागहमी का एक बड़ा तंत्र था,अतः यहाँ साहित्य सहज ही केंद्र में आ गया है. इसे यूँ कहना भी गलत नहीं होगा कि यहाँ मरीज और चिकित्सक दोनों की उनकी तयशुदा भूमिकाओं और स्थितियों से इतर अगर कोई चीज इसे रोचक और पठनीय बनाता है तो वह इसमें विभिन्न पुस्तकों,रचनाओं,रचनाकारों और विविध साहित्येतर प्रसंगों के जिक्र का होना है. जिस तरह होमियोपैथ की मीठी गोलियों में दवाई की कड़वाहट नहीं होती,मगर जिनसे कई मर्तबा बीमारीजन्य कड़वाहट दूर हो जाती है,उसी तरह इस संस्मरण में परस्पर के हँसी ठहाके की मिठास से समय की कुछ कड़वाहट को अपने तईं कम करने की कोशिश की गई है. क्योंकि तमाम प्रयासों के बावजूद यह जो ज़िंदगी है,इसका चलायमान रहना इसकी पहली शर्त है. फिर चाहे एक-एक कर आपके प्रियजन आपसे बिछुड़ते चले क्यों न जाएं.

मैंने चाँद और सितारों की तमन्ना की थी 
सत्येन औरमंज़ूर की सिर्फ दोस्ती नहीं टूटी थी,पूरे भोपाल की आबो-हवा बदल गई थी. भूमंडलीकरण, और आर्थिक प्रभुता की इस आपाधापी में सिर्फ पुराने मकान नहीं टूट रहे थे बल्कि उनमें रहनेवाले बाशिंदों के अंदर कई चीजें दरक रही थीं. सत्येन और मंज़ूर की टूटी दोस्ती के बीच वे सत्येन के घर का वातावरण चित्रित करते हुए सुनील लिखते हैं,सत्येन जी और मैं अब भी डायनिंग टेबल पर ही बैठकर बातें करते थे.लेकिन अब यहाँ बहुत वीरानी थी.बहुत उदासी थी.लगता था,जैसे कोई बहुत ही प्यारी सी चीज बेआवाज टूट गयी है...(पृ.97)”.हम बहुधा किसी गलतफहमी में या अहंवश किसी से रिश्ता तोड़ तो लेते हैं, मगर क्रमशः हमॆं यह आभास होता है कि हम इस कारण कितने अकेले और शुष्क हो गए हैं. किसी के अलग हो जाने से या किसी से अपना संवाद समाप्त कर लेने के उपरांत उस व्यक्ति से जुड़े कुछ विशिष्ट रंग हमसे छूट जाते हैं जैसे हमारी साँसों के सीप से वक्त के मोती अलग होते हैं.बहुत कम शब्दों में और बहुत विस्तार में जाए बगैर सुनील,सत्येन के भीतर की निर्जनता और उदासी के सांय-सांय करते आसमान को हमारे सामने उतार लाते हैं. फिश प्लेट के बदलते ही एक-दूसरे के साथ जुड़ी पटरियों की दिशाएं दो अलग-अलग ट्रेनों और उनके मुसाफिरों को एक-दूसरे से बहुत दूर कर देती हैं,उसी तरह अबोलेपन की ऐसी स्थिति में एक शहर लाख अपना सिर धुनता रह जाए,दो पुराने यार फिर हमप्याला नहीं हो पाते. सुनील सिंह ने सत्येन के घर की भीतर की इस वीरानी को शिद्दत से महसूस किया है. ऐसे मार्मिक स्थलों पर सुनील गहरे पैठ सके हैं सत्येन के मन रूपी सागर में. प्रकटतः बिना कोई आहट किए सुनील का यूँ सत्येन बनना और पुनः सुनील बनकर उस सत्येन की मनःस्थितियों के बारे में लिखनाइस संस्मरण की एक अद्वितीय विशेषता कही जाएगी और इसे प्रचलित परकाया-प्रवेश से कहीं आगे जाकर देखने की ज़रूरत है.                                

संस्मरण का अंतिम अंश उपसंहारहै, जो है तो केवल एक पृष्ठ का,मगर इसके अंदर कई चीजों का पटाक्षेप कर दिया गया है. जीवन के श्वेत और श्याम दोनों पक्षों को एक दरवेश की निगाह से देखनेवाले सुनील ने यहाँ कुछ तल्ख टिप्पणियाँ की हैं. पहले सत्येन जी का जाना और उनके बाद उनके प्रकाशन और उनकी पुस्तकों को सँभालने की कोशिश में खुद ही चली गईं प्रमिला जी...सुनील ने बहुत मार्मिक प्रहार किए हैं हमारे प्रकाशन-जगत की निरी व्यवसायोन्मुखी प्रवृत्ति पर,हिंदी जगत के घोर आत्मकेंद्रन पर,अपनी अपनी आँखों के सामने अपने प्रिय-जनों के अलविदा करने पर. इन सबसे बड़ी बात यह कि अपनी आँखों की विरल और बेहद असुविधाजनक बीमारी से काफी हद तक सत्येन कुमार के इलाज से हुए लाभ के प्रति एक बार पुनः अपना सहज और स्वाभाविक आभार प्रकट किया है सुनील ने.

जिस तरह शुरू में हैप्पी-हैप्पी दिखती किसी दुख़ांत फिल्म की गिरहें जब एक-एक कर खुलना शुरू होती हैं और अंत में जब कई सिरे एक-एक कर खुलते जाते हैं,तो कई कड़वे सत्य हमारे सामने आते हैं. उसी तरह इस दुखांत संस्मरण में अंततः कई व्यक्तियों और संबंधों का पटाक्षेप हो जाता है. प्रेमचंद की ठाकुर का कुआँकहानी में जिस प्रकार तमाम प्रयासों के बावजूद जिस प्रकार जोखू को अपने बदबूदार कुएं का ही पानी पीना पड़ता है,उसी प्रकार सुनील को भी अंत में सत्येन और मंज़ूर के बीच विकसित हुए कड़वे संबंधों का, सुमति की हत्या का, सत्येन और बाद में उनकी पत्नी प्रमिला जी की मृत्यु. ऐसा कहते हैं कि मार्मिक कथा तो दुखांत ही होती है,यह संस्मरण भी सत्येन कुमार के जीवन-चरित से शुरू होकर उनके देहांत की खबर से समाप्त हो जाता है. मगर यहाँ संस्मरण समाप्त होता है, उसका प्रभाव नहीं. किसी कद्दावर लेखक का यूँ चुपके से चला जाना एक समाचार मात्र बनकर रहना होता है क्या!

शीशे-सा मतवाले है तेरा दिल  में निर्मल वर्मा के प्रति सत्येन के आदर और आसक्ति-भाव को देखा जा सकता है. सुनील उस घटना का जीक्र यूँ करते हैं,निर्मल वर्मा को सत्येन जी इतना चाहते थे कि एक दफा उन्होंने हल्के मूड में मुझसे कहा,अगर मैं लड़की होता तो ज़रूर निर्मल के साथ भाग जाता. .....सिर्फ निर्मल की कहानियों को मत देखो,यह भी देखो,इनके पीछे का जंगल कितना बड़ा है. सत्येन की विरासतहीन (उनकी रचनाओं/पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन की दारुण स्थिति) मौत पर उन्हीं निर्मल वर्माकी ये पंक्तियाँ सहसा याद हो आती हैं: - एक तरह से भारतीय राजनीति की निर्मूल और मूल्यहीन सत्तावादिता जीवन के हर क्षेत्र को दूषित कर गई है,यह आश्चर्य की बात होती,यदि साहित्य इससे अछूता रह जाता. समकालीन हिंदी साहित्यकार संस्कृति से अपने को जोड़कर राजनीति में इस अनैतिक,अनाधिकार हस्तक्षेप को रोक सकता था. इसके विपरीत हुआ यह कि स्वयं साहित्य संस्कृति से कटकर राजनीति के सत्तामत्त मतवादी दबाव के आगे घुटने टेकने लगा” (अज्ञेय : आधुनिक बोध की पीड़ाविषयक अपने लेख में).सुनील जब यह कहते हैं कि सत्येन जी को अगर उनका प्राप्य नहीं मिला तो इसके लिए हिंदी आलोचना की इकरंगी आलोचना पद्धति जिम्मेवार है’(पृ.81),तो उसके पीछे निर्मल वर्मा की उपरोक्त हकीकत ही बयान हो रही है. 
                                             

यह मानने में कुछ गुरेज नहीं होना चाहिए कि हमारे समाज का एक बड़ा तबका गैर-साहित्यिक लोगों का है, जिसके लिए साहित्य गाहे-ब-गाहे पठन-पाठन का हिस्सा तो है मगर जो अपने बच्चों को साहित्यकार नहीं बनाना चाहता और जो साहित्यकारों और उनके साहित्य के बारे में कम जानता है और ज्यादा जानने की उसकी कोई इच्छा भी नहीं है. उनके फक्कड़पन और उनके टूटे-दुहरे व्यक्तित्व (स्पिल्ट पर्सनाल्टी) को वे ठीक-ठीक से समझ नहीं पाते. हम सभी साहित्यकारों के आस-पास ऐसे असाहित्यिक बहुतायत में उपलब्ध हैं. सुनील ऐसे लोगों के बीच बैठकर उनके बेलाग विचारों को भी सुनते आए हैं. इस संस्मरण में लेखकों को कई बार ऐसे असाहित्यिक के चश्मे से भी सुनील देखते हैं. इससे साहित्य और साहित्यकारों पर की गई उनकी टिप्पणियों में कई जगहों पर एक खास किस्म की देशजता और सहजता आ गई है.  स्व-घोषित महानता का दर्प तोड़ती ऐसी व्यंग्योक्तियों को इस संदर्भ में देखा-पकड़ा जा सकता है.       
                       
कुछ तो अपना स्वास्थ्य तो कुछ अपना मिज़ाज़....सुनील बड़े इत्मिनान से अपनी रचनात्मकता को गतिशील और जीवंत बनाए हुए हैं. यह समकालीन लेखकीय हड़बड़ी के बरक्स साहित्य या कहिए कला को जीते/समझते पढ़ते हुए एक संकोच सहित अपने रचनात्मक अवदान को लोगों के समक्ष रखने की नम्रता भी है. एक छोटे शहर में रहते हुए और आँखों की एक विरल और काफी असुविधापूर्ण बीमारी से जूझते हुए सुनील स्वयं को साहित्यकार की जगह साहित्य का अध्येता ही ज़्यादा मानते हैं. हालाँकि इस बीच उनके तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं और उन्होंने कुछ कहानी-पत्रिकाओं का संपादन भी किया है. सुनील सिंह बिहार के एक सुदूरवर्ती इलाके में रहते हुए तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बीच अपना लेखन-कार्य किए जा रहे हैं,इसे उनकी लेखकीय जीवटता ही कही जाएगी. अपनी माँ का जिक्र करते हुए सुनील अपने इस संस्मरण में एक जगह लिखते हैं,मेरी माँ का कंठ बहुत सुंदर था,जैसे अशर्फियाँ खनक रही हों (पृ. 78). शास्त्रीय संगीत में डूबनेवाले और उससे अपने जीवन में रागात्मकता प्राप्त करनेवाले सुनील की खनकदार भाषा में लिखा यह संस्मरण हिंदी के बेहतर संस्मरणों में से एक माना जाएगा, यह कहना ग़लत न होगा.  

ओल्ड मॉंकका अधिकाधिक प्रसंग निर्मल वर्माके बहुचर्चित यात्रा-वृतांत चीड़ों पर चाँदनीकी याद दिलाता है, जिसमें बीअर की काफी चर्चा की गई है. अंतर यह है कि वहाँ यूरोप के तमाम प्रसंग हैं तो यहाँ कथा का लोकेल अपना चिर-परिचित भोपाल शहर.     


अंत में पुस्तक के फ्लैप पर सुनील सिंह की इन पंक्तियों के साथ इस पुस्तक के अंतर्पाठ को विराम देना चाहूँगा,.अँधेरा हो और ऐसा अँधेरा हो कि रास्ते ओझल हो गए हों,ऐसे में कोई एक दिया जला दे तो यह दिया मामूली दिया भर नहीं रह जाता. यह दिया इस अँधेरे समय का सूर्य है,यह कहने में संकोच नहीं करना चाहिए
___________________________________

अर्पण कुमार

‘नदी के पार नदी’ (2002) एवं ‘मैं सड़क हूँ’ (2011) काव्य-संग्रह तथा लेख और समीक्षाएं प्रकाशित
बी-1/6, एस.बी.बी.जे. अधिकारी आवास/ज्योति नगर, जयपुर/
पिन : 302005 /मो. 9413396755
ई-मेल : arpankumarr@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : अजय सिंह

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अजय सिंहचार दशकों से कवितायेँ लिख रहे हैं. उनका पहला कविता संग्रह – ‘राष्ट्रपति भवन में सूअर’इस वर्ष गुलमोहर प्रकाशन से प्रकाशित हुआ है. अजय सिंह गोरख पाण्डेय, पाश, नागार्जुन, आलोक धन्वा, शमशेर बहादुर सिंह  आदि की परम्परा के कवि हैं और अपनी कविताओं में वह अपने इन मित्रों को याद भी करते हैं. इधर की हिंदी कविता के लिए अजय सिंह की कविताओं का स्वर और संधान अलहदा लगे तो विस्मय नहीं होना चाहिए. दरअसल यह उस पीढ़ी की सशक्त कविताएँ हैं जो आमूल परिवर्तन के साथ साहित्य और समाज में उपस्थित थी. इस पीढ़ी के लिए कविता एक सामाजिक कर्म है जो अपने विशिष्ट ऐतिहासिक दौर को अभिव्यक्त करती है, समस्याओं से टकराती है और समस्याओं के समाधान की दिशा की ओर संकेत करती है. इन कविताओं में वर्तमान शिनाख्त है और इसलिए ये कविताएँ समकालीन हैं.    


अजय सिंह  की कवितायेँ                         




देश प्रेम की कविता उर्फ सारे जहां से अच्छा...
(दिवंगत कवि शमशेर को, उनके 84वें जन्मदिन पर याद करते हुए)

मैं आधा हिंदू हूं
आधा मुसलमान हूं
मैं पूरा हिंदुस्तान हूं

मैं गंगौली का राही मासूम रज़ा हूं
मैं लमही का प्रेमचंद हूं
मैं इकबाल का बागी किसान हूं
मैं शमशेर के गवालियर का मजूर हूं
मैं पटना की शाहिदा हसन हूं
मैं नर्मदा की मेधा पाटकर हूं
मैं शाहबानो हूं
मैं शिवपति और मैकी हूं
मैं वामिक का भूका बंगाल हूं
मैं केदार की बसंती हवा हूं
मैं आलोकधन्वा का गोली दागो पोस्टर हूं
मैं अब्दुल बिस्मिल्लाह का उपन्यास हूं

मैं पूरा हिंदुस्तान हूं

मैं भिवंडी हूं
मैं बंबई का ख़ौफनाक चेहरा हूं
मैं सूरत की लुटी हुई इज्ज़त हूं
मैं भागलपुर बनारस कानपुर भोपाल में
जिंदा जलाया गया मुसलमान हूं

मैं नक्सलबाड़ी हूं
मैं मध्य बिहार का धधकता खेत-खलिहान हूं
मैं नयी पहचान के लिए छटपटाता उत्तर प्रदेश हूं
जो न कायर है न भदेस
मैं नया विहान हूं

मैं पूरा हिंदुस्तान हूं

मैं वो अनगिनत हिंदू औरत हूं
जैसा साल-दर-साल के आंकड़े बताते हैं
जिन्हें फ्रिज टी.वी. स्कूटर चंद ज़ेवरात के लिए
भरी जवानी आग के हवाले कर दिया गया
और कहा गया-
खाना बनाते समय कपड़े में आग लग गयी
मैं वो अनगिनत मुसलमान औरत हूं
जिन्हें तलाक तलाक तलाक कह कर
गर्मी की चिलचिलाती दोपहर
जाड़े की कंपकंपाती रात
घर से बेघर कर दिया गया
और कहा गया-
मेहरून्निसा बदचलन औरत है
जैसे गर्भवती सीता को
अंधेरी रात सुनसान जंगल में

कितनी अजब बात है!
सीता धरती से पैदा हुई
और वापस धरती में समा गयी-
बेइज्ज़त और लांछित होकर-
प्रकृति के नियम को धता बताते हुए
लेकिन आज की सीता फातिमा ज़हरा
धरती की कोख में नहीं लौटेंगी
यह द्वंद्ववाद के खिलाफ है
वे लड़ेंगी
क्योंकि, जैसाकि पाश ने कहा था,
साथी, लड़े बगैर कुछ नहीं मिलता

मैं बेवा का शबाब हूं
मैं कैथरकला की औरत हूं
मैं राजस्थान की भंवरी बाई हूं
मैं चंदेरी की मलिका बेगम हूं
जिसका दायां पांव काट लिया गया
पर जो अभी भी इच्छा मृग है
चौकड़ी भरने को आतुर- वीरेन की कविता की तरह
मैं भोजपुर का जगदीश मास्टर हूं
मैं जुलूस हूं
साझा हिंदुस्तान के लिए
बराबरी वाले हिंदुस्तान के लिए
इंसाफ वाले हिंदुस्तान के लिए

वो देखो!

जुलूस में जो लाल परचम और
बंद मुट्ठियां लहरा रही हैं
उनमें कितनी हिंदू कितनी मुसलमान
-कौन करे हिसाब?

हिंदुस्तान बनिए की किताब तो नहीं
जुलूस में सर से आंचल
कब कंधे पर गिरा
गेसू बिखरे
आज़ादी की छटा बिखरी
पतली लेकिन सधी आवाज़ में नारा लगा:
बलात्कारी को मौत की सज़ा दो!
कब बुरका उठा
       -जैसे बाहर की ओर खिड़की खुली
और उस सांवली सूरत ने नारा लगाया:
आज़ादी चाहिए... इंक़लाब चाहिए!

आज़ादी
स्वतंत्रता
मुक्ति
हिंदू को भी उतनी ही प्यारी है जितनी मुसलमान को
जब ये शब्द रचे जा रहे थे
न जाने कितनी बेडिय़ां टूट रही थीं
न जाने कितने हसीन ख्वाब साकार होने को थे

ख्वाब भी कभी हिंदू या मुसलमान हुए हैं?

मैं वाम वाम वाम दिशा हूं
ओ मायकोवस्की!
ओ शमशेर!
यही है हकीकत हमारे समय की
मैं सथ्यू की फिल्म गर्म हवाका आखfरी सीन हूं
मैं लाल किले पर लाल निशान
मांगने वाला हिंदू हूं मुसलमान हूं
मैं पूरा हिंदुस्तान हूं 

(लखनऊ: 13 जनवरी 1995)




झिलमिलाती हैं अनंत वासनाएं
(कवि व दोस्त गोरख पांडेय की स्मृति को समर्पित)

अनंत वासनाएं झिलमिलाती हैं
असीम जिजीविषा
वासना की अतृप्त देवी का सम्मोहन दूर-दूर तक
ययाति की चिर तृषा

कौन है
जो आधी शताब्दी के किवाड़ पर
दस्तक देता है
घोड़े की तरह दौड़ते वसंत की टाप
सुनायी देती है दूर जाती हुई

कौन है
जो देर रात लौटता है
और मद्धिम सुर में गुनगुनाता है:
'जब करूंगा प्रेम
पिघल उठेंगे
युगों के भूधर
उफन उठेंगे
सात सागर

सुना है
पार्वती जब शिव से प्रेम करती थी
हिमालय हिलने लगता था
बर्फ़ बन गयी नदियां पिघलने लगतीं
हवा कुछ इस तरह चलती
जैसे उर्वशी के कपड़े
उड़ाये लिये जा रही हो
खिंच जाता यहां से वहां तक
सुंदर वितान

वो औरत कई सदियां पार करती
चली आयी
जवानी की चमक धुंधली ज़रूर
पर कशिश थी बरकऱार
जैसे अमृता शेरगिल
दिलेर दिलकश दिलरुबा

उसकी आवाज़ में
कई आवाज़ें
कई शताब्दियां
कई कराह
कई दज़ला फरात मुअनजोदड़ो
कई लुटिएंस ला कार्बुजिए
कई टूटी हुई बिखरी हुई कविताएं
कई गुएर्निका
मिले-जुले थे

तुमने मुझसे कभी प्रेम नहीं किया
तुम हमेशा फरमाइशें करते रहे
तुम मेरे दोस्त न बन सके

ख्वाहिशें अंधेरे में छूटे तीर की तरह
निशाना ढूंढ़ती हैं
आवाज़ें आह्वïन बन जाना चाहती हैं
प्यास गहरी प्यास बन रही है
बंदिशें वर्जनाएं धराशायी हो रही हैं

ओ अनंत वासनाओ!
ओ गहरी प्यास!
ओ दमित आकांक्षा!
धूल-भरे अंधड़ की तरह उठो
ओ शताब्दियों की कराह!
ताबूत से बाहर निकलो और सजीव आलिंगन बन जाओ
ओ सम्मोहन!
दोस्ती की कोई नयी धुन तो बनाओ 
(उत्तर प्रदेश'लखनऊ: मई 1997)




कोई मुझसे पूछे

कोई मुझसे पूछे
वह तुम्हारे लिए क्या है
मैं कहूंगा: वह मेरी मुक्ति है
आज़ादी की तमन्ना
खुली हवा

कभी उन्मुक्त झरना    कभी दहकती चट्टान
कभी प्यास           कभी तृप्ति
कभी मृग मरीचिका     कभी रसीले चुंबन
कभी अथाह यातना     कभी अपार सुख
कभी पर पीड़ा         कभी अनंत इंतज़ार
बन कर वह मुझसे लिपट जाती है
मैं उसकी देह के सुनहरे जंगल
में बार-बार गुम होता हुआ
लौटता हूं सुरक्षित
नये जीवन की ओर

वह ऐसे मिलती है
जैसे धान के खेत की बगल में
अड़हुल का फूल अचानक दिखे
अपनी मोहक सुंदरता
से बेपरवाह
हवा में धीरे-धीरे हिलता हुआ
और खुशी के मारे आप चिल्ला उठें
और उसकी ओर लपकें
अरे, तुम यहां!

मुझे उस पर भरोसा है
जैसे तीसरी दुनिया के सर्वहारा
और प्रगतिशील निम्र-पूंजीवादी बुद्धिजीवी
को
मार्क्स और माओ पर 
(लखनऊ: 2001)





30मार्च 2013शनिवार शाम 4बजे

यह दिन किसी और दिन
जैसा ही था

वे दोनों एक राजनीतिक रैली
से लौट रहे थे
रैली औरतों पर बढ़ रही
हिंसा के खिलाफ आयोजित की गयी थी
औरतों के बारे में असंवेदनशील रवैया अपनाने के विरोध में
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत के पुतले फूंके गये
लड़की ने अपने भाषण
में कहा मेरी स्कर्ट से ऊंची
मेरी आवाज़ है जिससे पितृसत्ता डरती है
उसका दोस्त पोस्टर
लिये हुए था, जिस पर गोरख पांडेय
की कविता पंक्ति लिखी थी:
'सड़कों पर लड़ाई में अब तुम्हारे
शामिल होने के दिन आ गये हैं
रैली के बाद लड़की ने अपने
दोस्त से कहा चलो मैं तुम्हारे घर
तुम्हें ड्रॉप कर देती हूं
लड़की मोटर साइकिल चला रही थी
उसका दोस्त पीछे की सीट पर बैठा था
यह सुहाना दृश्य था
घर पहुंचकर उसके दोस्त ने कहा
चाय पीकर जाना
घर पर ताला लगा था जिसे उसका
दोस्त खोल रहा था

लड़की ने पूछा तुम अकेले रहते हो?
दोस्त ने कहा फिलहाल
ताला खोलकर उसने कहा आओ
लड़की असमंजस में बाहर खड़ी रही
दोस्त ने पूछा डर रही हो?
लड़की ने कहा नहीं डरने की क्या बात है,
और वह दोस्त के साथ अंदर कमरे में चली आयी
कमरे में आते ही उसकी घबराहट शुरू हो गयी
कभी वह कुर्सी पर बैठती कभी टेबुल की टेक लगाकर खड़ी हो जाती
कभी सोफे पर बैठ जाती कभी चहलक़दमी करने लगती
कभी अपने कुर्ते की जेब में हाथ डालती
फिर निकाल लेती
दोस्त मुस्करा रहा था
उसने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद करना चाहा
तो लड़की चीख पड़ी दरवाज़ा खुला रहने दो
मुझे डर लग रहा है

दोस्त के लगातार मुस्कराते रहने पर
उसने चिढ़कर कहा घबराहट के मारे मेरी जान
निकल रही है और तुम हंस रहे हो!
मैं कभी इस तरह अकेली किसी मर्द
के साथ उसके कमरे में नहीं गयी जहां और कोई न हो
पंखा थोड़ा तेज़ करो
पंखा तेज़ चल रहा था लेकिन
पसीना था कि लड़की को बराबर
अपनी गिरफ्त में लिये जा रहा था
दोस्त ने कहा अगर तुम्हें बलात्कार की आशंका हो
तो तुम अपने घर जा सकती हो नो प्रॉब्लम हम कल कॉफ़ी हाउस में मिल लेंगे
लड़की ने कहा पहले तुम चाय बनाओ फटाफट
दोस्त ने कहा चाय बनाना एक कला है उसके लिए थोड़ा धैर्य और समय चाहिए
यह कहकर उसने कमरे का दरवाज़ा अंदर से बंद कर दिया
लड़की ने बंद दरवाज़े को देखा दोस्त के हाथों
को देखा उसके चेहरे के भाव को देखा
उसकी देहभाषा को देखा
और सोचा अगर मेरे ऊपर हमला हुआ
तो मुझे अपने बचाव में क्या करना चाहिए
उसे याद आया अपने पर्स में
वह छोटा रामपुरी चाकू रखती है
लेकिन पर्स पता नहीं
उसने कहां रख दिया था नर्वसनेस में

मुस्कराता हुआ दोस्त उसे वहीं छोड़
रसोईघर की तरफ चला गया
और चाय बनाने लगा
लड़की भी धीरे-धीरे वहीं आ गयी और
दोस्त के पास खड़ी हो गयी
दो प्याली चाय लेकर दोस्त
अपने लिखने-पढऩे की
टेबुल पर आ गया और वहीं कुर्सियों पर बैठ
दोनों चाय पीने लगे

चाय पीते-पीते अचानक लड़की ने अपने
दोस्त की दायीं हथेली को अपनी बायीं
हथेली में कसकर पकड़ा और टेबुल पर
अपना माथा टिका दिया
जैसे कि नींद आ रही हो
दोस्त ने गुंथी हुई हथेलियों को देखा
उन हथेलियों से जो ध्वनि तरंगें
निकल रही थीं उन्हें समझने की उसने कोशिश की
फिर लड़की के चेहरे को देखा
चेहरे पर रैली की थकान थी
हल्की उदासी से भरा सम्मोहन था
कुछ रहस्यमय खोयापन लिये हुए सुंदरता थी
दोस्त ने लड़की के बालों पर धीरे से हाथ फेरा
और आहिस्ते से सर को चूम लिया
वह कुछ सोच रहा था कि अब आगे क्या होनेवाला है
लड़की अपने दोस्त की हथेली को कस कर पकड़े थी

यह दिन किसी और दिन जैसा ही था
बस, दो स्वतंत्रचेता व्यक्ति
एक-दूसरे पर भरोसा करना सीख रहे थे
सहभागिता बन रही थी
प्रेम पैदा हो रहा था
और शायद आगे की किसी बड़ी लड़ाई का
जज्ब़ा पनप रहा था

यह दिन किसी और दिन जैसा ही था
जो दो व्यक्तियों के लिए बहुत खास बन गया था. 
(लखनऊ:10 मई 2013)
___________________
अजय सिंह  (15 अगस्त 1946)

बिहार के बक्सर जिले में चौगाई में जन्मे वरिष्ठ पत्रकार, कवि व विश्लेषक अजय सिंह ने पढाई इलाहाबाद से की. उनकी कविताएं, लेख, समीक्षाएं, टिप्पणियां, रिपोर्ट ल राजनीतिक विश्लेषण विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे हैं. भाकपा (माले-लिबरेशन) और जन संस्कृति मंच से उनका गहरा जुड़ाव रहा है.

रंग-राग : एन . एच. -१० और ऑनर किलिंग : जय कौशल

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निर्देशक नवदीप सिंह की हिंदी फ़िल्म ‘एन.एच.-१०’ ऑनर किलिंगके मुद्दे को गम्भीरता से उठाती है. इस फ़िल्म पर समालोचन में आपने सारंग उपाध्याय का लेख पढ़ा है. जय कौशल की टिप्पणी कुछ जरूरी सवालों के साथ.


ऑनर किलिंग और एन.एच. - १०             

जय कौशल 


ऑनर किलिंगअसल में अपने परिवार अथवा सामाजिक समूह के सदस्यों की उसी परिवार या सामजिक समूह के अन्य सदस्यों द्वारा मिलकर अंजाम दी गई हत्या है. माना जाता  है कि 'भूलकर्ता या अपराधी'ने जानबूझकर एक ऐसा अपराध किया है, जो उसके परिवार और उस सामजिक समूह की पीढ़ियों से कमाई इज्जत को मिट्टी में मिलाकर रख देगा. इसलिए अपनी इज्जत बचाने और भविष्य में ऐसे ’अपराध’ न होने देने के लिए 'भूलकर्ता'का 'इलाज'करना जरूरी है. जाहिर है, इसकी ज्यादातर शिकार लड़कियाँ अथवा महिलाएँ बनती हैं. ऑनर किलिंगके लिए निम्न कारण जिम्मेदार हो सकते हैं :

1. सगोत्र (कुल या परिवार के भीतर) विवाह या सम्बन्ध
2. अपनी इच्छा से परिवार, जाति अथवा धर्म के बाहर प्रेम-विवाह या सम्बन्ध
3. विवाहेतर सम्बन्ध
4. समलैंगिक सम्बन्ध
5. परिवार या समुदाय की कथित संस्कृति के विरुद्ध पहनावा

इनमें प्रथम दो कारणों से ऑनर किलिंगके सर्वाधिक मामले सामने आए हैं. समाजशास्त्रियों के अनुसार इसकी प्रमुख वजह कथित जाति-व्यवस्था की कठोरता और धर्म की कट्टरता है. समाज के ठेकेदारों को भय लगने लगता है कि कहीं ऐसे मामलों से उनकी जाति या धर्म की शुद्धता, पारम्परिकता और इसकी वजह से मिल रहे लाभों पर आँच आ जाएगी. इसलिए अपराधियों को सबक सिखाना जरूरी है. गौरतलब है कि 1947में भारत-विभाजन के दौरान ऑनर किलिंगके काफी मामले सामने आए थे. इसके बाद से यह मसला बढ़ता ही गया है. पिछले कुछ सालों में इस जघन्य समस्या ने भारत एवं अरब-देशों सहित दुनिया भर में विकराल रूप धारण कर लिया है. संयुक्त राष्ट्र के आंकड़े बताते हैं कि इज्जत के नाम पर दुनिया भर में हो रही हत्याओं में हर पांचवीं भारत में हो रही है. यही वजह है कि इन दिनों यह मुद्दा अंतरराष्ट्रीय चर्चा के केंद्र में है. इस पर लगातार चिन्तन-मनन और लेखन जारी है.

हाल ही में निर्देशक नवदीप सिंह ने NH10नाम से एक फिल्म बनाई है, जिसमें इसी 'ऑनर किलिंग'को मुद्दा बनाया गया है. यों पहले भी इस पर फ़िल्में बन चुकी हैं. 2013में पॉवला क्वेस्किन द्वारा लिखित एवं निर्मित 'ऑनर डायरीज'ऐसी ही फिल्म है. पॉवला के अनुसार, '2013में बेस्ट डॉक्यूमेंट्री का इंटरफेथ अवार्ड पाने वाली 'ऑनर डायरीज'इज्जत के लिए की जाने वाली हिंसा के मुद्दे पर बनी अपनी तरह की पहली फिल्म है. इसमें इज्जत के नाम पर शिकार रह चुकी मध्य एशिया की नौ मानवाधिकार कार्यकर्ता महिलाओं की खुलकर बातचीत उन्हीं की जबानी दिखाई गई है. इसी वर्ष हिन्दी में इसे लेकर मिलिंद उके ने देहरादून डायरीज नाम की फिल्म बनाई थी, उससे पहले निर्माता-निर्देशक अजय सिन्हा ’खाप’ शीर्षक से एक फ़िल्म बना चुके थे लेकिन NH10इस प्रसंग पर अब तक की हिन्दी में सबसे गंभीर बल्कि किसी भी संवेदनशील मन को झकझोर देने वाली फ़िल्म है.

नवदीप ने दिल्ली और उसके आस-पास के गाँवों तथा छोटे शहरों में अक्सर होने वाली ऑनर किलिंगकी घटनाओं को फ़िल्म का केन्द्र बनाया है और उसके बहाने पितृसत्ताक व्यवस्था, महिलाओं को लेकर हमारे समाज की जड़, अश्लील और हिंसक सोच, तथाकथित भारत-माता ग्रामवासिनीतक संविधान की पहुँच, पुलिसिया रवैये आदि पर प्रहार किया है. इसकी नायिका मीरा (अनुष्का शर्मा) एक ऐसी लड़की है, जिसके लिए प्रेम-प्यार, महानगर की नौकरी, हाई-क्लास सोसायटी और शॉपिंग मॉल और वीकेंड पर अपने पति अर्जुन (नील भूपलम) या दोस्तों के साथ मौज-मस्ती ही जैसे जीवन है. लेकिन वह महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों के प्रति भरपूर जागरूक है, पितृसत्ताक-व्यवस्था से वाकिफ़ है. उसे औरतों को लेकर दी जाने वाली गालियाँ बर्दाश्त नहीं, अगर सार्वजनिक टॉयलेटों या दीवारों पर कहीं उसे कोई अश्लील शब्दावली लिखी दिख जाती है, तो वह तुरंत कपड़ा लेकर उसे पोंछने में जुट जाती है. पुलिस और संविधान में उसका विश्वास है. इस देश में जेंडर और जाति की अस्मिता की सुरक्षा इतना बड़ा मुद्दा है कि उसकी पूरी गारंटी हम महानगरों तक में नहीं दे पाए हैं, गाँवों की तो बात ही बेमानी-सी है, फ़िर भी बहुत फर्क है इस इंडियाऔर भारत में, जिसे NH10फ़िल्म में जेंडर और जाति के नजरिए से दिखाया गया है.

ऐसा नहीं है कि महानगरों में महिलाओं के साथ अपराध नहीं होते या वहाँ जाति-प्रथा जड़ से नष्ट हो चुकी है. वहाँ भी रात में या सुनसान इलाकों में महिलाएँ असुरक्षित हैं, वहाँ भी यही मानसिकता है कि ऐसी संकटकी स्थितियों में स्त्री के साथ किसी परिचित पुरुष का होना जरूरी है, फ़िल्म में भी इसे दिखाया गया है. अर्जुन और मीरा देर रात एक पार्टी में गए हैं, वहाँ से मीरा को अपने ऑफ़िस में होने वाली एक प्रॉडक्ट लांचिंग के लिए लौटना पड़ता है. रास्ते में उस पर दो मोटरसाइकिल सवार हमला कर देते हैं. मीरा और अर्जुन इस हमले की रिपोर्ट दर्ज कराने थाने जाते हैं, जहाँ पुलिसवाला अर्जुन को सलाह देता है कि, देर रात औरत को अकेले जाने ही क्यों देते हैंऔर अगर जाना जरूरी ही हो तो इन्हें लाइसेंसी गन साथ में रखनी चाहिए, क्योंकि, यह शहर  बढ़ता बच्चा है, कूद तो लगायेगा ही. इस सबके बावजूद महानगरों में खापका वैसा आतंक नहीं है, प्रेम करने के लिए गोत्रकी छान-बीन प्राय: नहीं की जाती, अब विवाह के लिए जाति को तरजीह देना भी थोड़ा  शिथिल पड़ने लगा है. लापरवाही और पक्षपात के लिए प्रसिद्ध हमारी पुलिस द्वारा महानगरों में खुलकर सामाजिक-अपराध करने वालों का साथ नहीं दिया जाता. जी हाँ,महानगर अस्मिता-उत्पीड़न से मुक्त नहीं हैं लेकिन गाँवों और छोटे शहरों की तरह डंके की चोट पर वहाँ यह जारी भी नहीं है. वीकेंड पर मीरा का पति अर्जुनअपनी पत्नी का जन्मदिन मनाने के लिए गुड़गाँव के ग्रामीण इलाके में एक प्राइवेट विला बुक करता है. जहाँ जाते समय रास्ते में वे एक ढाबे पर कुछ खाने के लिए रुकते हैं. वहीं मीरा को एक लड़की मिलती है, जो उससे अपने पति को बचाने के लिए मदद की गुहार करती है. लेकिन तत्काल मीरा उसके मामले में पड़ने से खुद को बचा लेती है. यह हमारे तथाकथित सभ्य और महानगरीय समाज का सच है. हमारी संवेदनशीलता  का दायरा इस तरह सिकुड़ रहा है कि हम जल्दी से किसी के दु:ख में शामिल नहीं होते. तभी दृश्य आता है कि उसी लड़की का सगा भाई और गाँववाले मिलकर उसे और उसके पति के साथ मारपीट रहे हैं, सारा गाँव उन्हें देख रहा है, लेकिन कोई उनको बचाने में मदद नहीं करता. सबको पता है कि लड़के-लड़की ने एक ही गोत्र में होने के बावजूद आपस में शादी की है, जो कि खापकी नजर में एक सामाजिक-अपराध है, इज्जत का मामला है. इसमें जो भी मदद करेगा, वो खाप-न्यायका विरोधी माना जाएगा और उसके साथ भी वही सुलूक किया जाएगा जो लड़के-लड़की के साथ किया जाना है-यानी सामूहिक हत्या. लेकिन अर्जुन को यह नहीं पता था, वह एक सामान्य नागरिक की तरह लड़के-लड़की की मदद करना चाहता है, जिसके बदले में उसे एक झन्नाटेदार थप्पड़ मिलता है.

मीरा के पास वही लाइसेंसी गन मौजूद है, जो उसने दिल्ली में रात-बिरात अकेले चलने पर अपनी सुरक्षा के लिए ली थी. अर्जुन गन लेकर जंगल में उस ओर घुस जाता है, जहाँ गाँववाले गए हैं ताकि उन्हें डराकर लड़की-लड़के को मारने से बचा सके. लेकिन वहाँ मामला उलटा पड़ जाता है. मीरा और अर्जुन के सामने बर्बरतापूर्वक न केवल लड़के-लड़की को मार दिया जाता है बल्कि इन दोनों के साथ भी मारपीट की जाती है. एक पागल आदमी इनकी गाड़ी की चाबी ले लेता है, जिसे छीनने के क्रम में अर्जुन के हाथों गोली से उसकी हत्या हो जाती है. इसके बाद अर्जुन और मीरा की यातना का सिलसिला शुरू होता है. मीरा गंभीर रूप से घायल अर्जुन को एक रेलवे ब्रिज के नीचे छोड़ती है और सबसे पहले कानून के रखवालों के पास नजदीकी पुलिस थाने में मदद की गुहार के लिए निकल पड़ती है, लेकिन गाँव की पुलिस कानून और संविधान से नहीं अपने समाज और खाप के निर्णयों के अनुसार चलती है. पुलिस-वाले उसकी सहायता नहीं करते बल्कि उल्टे अपराधियों की तरह बर्ताव करते हैं. आखिर मीरा किसी तरह खोजते हुए सरपंच के घर पहुँचती है. इसे लोकतन्त्र में उसकी आस्था के तहत देखा जाना चाहिए. मीरा को नागरिक सुरक्षा की जिम्मेदार पुलिस और ग्राम-स्वराज्य की पैरोकार सरपंच दोनों से कोई मदद नहीं मिलती. फ़िल्म में गाँव की सरपंच के रूप में एक दबंग स्त्री (दीप्ति नवल)को दिखाया गया है, जो मारी गई लड़की और उसके हत्यारे भाई की सगी माँ भी है.

दीप्ति का किरदार यहाँ बेहद सशक्त बन पड़ा है. यह चरित्र बखूबी दिखाता है कि औरतें भी पितृसत्ताक व्यवस्था की वाहक होती हैं. तो मीरा जिस सरपंच से मदद माँगने पहुँची थी, वहाँ भी स्थानीय पुलिस की तरह उसे पकड़ लिया जाता है. लेकिन वह हत्यारों की ही गाड़ी लेकर वहाँ से भाग निकलती है, जो न केवल अर्जुन की हत्या कर अपने घर लौटे थे, वरन्‍ उसी के खून से दीवार पर मीरा के लिए गन्दी गालियाँ भी लिखकर आए थे. सार्वजनिक शौचालयों तक में स्त्रियों को लेकर लिखी गालियों के प्रति संवेदनशील रहने वाली मीरा अपने पति की हत्या और अपने स्त्रीत्व को दी गई गालियों से इस कदर निराश और उत्तेजित हो जाती है कि प्रतिक्रियास्वरूप लड़के-लड़की और अपने पति को मारने वालों की जान ले डालती है. वस्तुत: मीरा का यह कदम लोकतन्त्र में उसकी उठ चुकी आस्था के रूप में देखे जाने की माँग करता है. इसके बावजूद हरियाणा की बेहद रियलिस्टिक लोकेशनों पर फ़िल्माई गई इस मूवी के अंत पर सवाल उठाए जा सकते हैं क्योंकि जो फ़िल्म ऑनर किलिंगको केन्द्र में रख कर चल रही थी, उसका अंत किलिंगमें जाकर होता है. पर समझना यह भी चाहिए कि मीरा पारम्परिक हिंदी फिल्मों की पिछलग्गू प्रेमिका और पत्नीकी तरह नहीं है. अपने पेशे में सफल मीरा जबकठिन परिस्थितियों में उलझती है तो खुद को संभालती हुई अप्रत्याशितफैसले लेती दिखाई देती है, इन विकट स्थितियों में फंसी मीरा की लाचारगी जाहिर है. बख़ैर,जिन्हें आजकल भी अखबार में छपी अपराध की ऐसी घिनौनी खबरें कहानियाँ-सरीखी लगती हैं या जिनके लिए भारत के गाँवमहज सीधे’,’श्लील’, ‘अहिंसकऔर अपनत्व की संस्कृतिसे युक्त हैं तथा महानगर सिर्फ़ धूर्त’, ‘अश्लील’‘हिंसकऔर अजनबीपनसे भरे हैं, उन्हें एक बार ये फ़िल्म जरूर देखनी चाहिए. 
_______________

जय कौशल
तीन पुस्तकें, कुछ आलेख और समीक्षाएँ प्रकाशित.फ़िलहाल त्रिपुरा विश्वविद्यालय, अगरतला में कार्यरत.मो. नं.- 09612091397/ ईमेल-jaikaushal81@gmail.com

परख : मुअनजोदड़ो : माधव हाड़ा

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जनसत्ता के संपादक और लेखक ओम थानवी को उनकी यात्रा-विचार पुस्तक ‘मुअनजोदड़ो’ के लिए २०१४ के २४ वें बिहारी पुरस्कार से सम्मानित करने की घोषणा हुई है. क्या है मुअनजोदड़ो ? प्रो. माधव हाड़ा ने इस किताब के माध्यम से भारतीय महाद्वीप के इतिहास और पुरातत्व पर ओम थानवी के नजरिये को देखा - परखा है.   


मुअनजोदड़ो : विवादों की गर्द, कल्पनाका दलदलऔरइतिहासकी गाड़ी

माधव हाड़ा


भी कुछसमय पहले तक हिंदी के साहित्यिकविमर्शका दायरा केवलअपने तक सीमितथा. साहित्य मेंसाहित्येतर अनुशासनों की मौजूदगी घुसपैठकी तरह अवांछनीय थी. समाजविज्ञान, इतिहास, संस्कृति, पुरातत्त्व, संगीत आदिअनुशासनों के साथ संवादऔरअंतर्क्रिया  को इसमें अच्छी निगाह से नहीं देखा जाता था. अब हालात बदल रहे हैं. हिंदी के साहित्यिकों की समझ अब साहित्य की सीमा लांघ कर ज्ञान के साहित्येतर अनुशासनों तक पहुंच गई है. अब वे ज्ञान के दूसरे अनुशासनों की समझ के साथ साहित्य में हस्तक्षेप कर रहे हैं, जिससे साहित्य की दुनिया पहले की तुलना मेंअधिक समृद्ध ओर बड़ी हुई है. मुअनजोदड़ो विख्यात पत्रकार ओम थानवीकी पहली किताब है. यह एक यात्रा वृत्तांत है जो इतिहास, संस्कृति और पुरातत्त्व की गहरी समझ के साथ लिखा गया है. खास बात यह है कि मुअनजोदड़ो को यह किताब ऐतिहासिक और पुरातात्त्विक के साथ सांस्कृतिक दिलचस्पी के केन्द्र में लाती है.

मुअनजोदड़ो की खोजसेपारंपरिक भारतीय इतिहासका नक्शाबदल गया था. इतिहासकारों औरपुरातत्त्ववेत्ताओं कोइस खोज से अपनी धारणाओं मेंकईउलट-फेर करने पड़े. अबतक सर्वाधिक प्राचीनमानी जाने वाली वैदिक संस्कृतिके साथ इसका तालमेलमुश्किल हो गया. किसी को भीयह समझमें नहींआया कि सुमेरी सभ्यताके समकक्षयह समृद्धसभ्यता खत्मकैसेहो गई. इसकी लिपि अभी तक कोई पढ़ नहीं पाया. इतिहासकार और पुरातत्त्ववेत्ता इस संबंध में केवलकयास लगाते रहे, जिससे विवादों की झड़ी लग गई. लेखकके शब्दों में कहें तो “सिंधु घाटी की सभ्यता को लेकर खुदाईकम हुई है, विवादों की जड़ें ज्यादाखोदी गई हैं.”(पृ.109)  हिंदी के साहित्यिक भी पीछे नहीं रहे. उन्होंने मुअनजोदडो के इतिहास की गाड़ी को कल्पना के दलदल में घसीट लिया. लेखक ने इस वृत्तांत में इन विवादों और कल्पना के दलदल की विस्तार से पड़ताल की है. उसने उन पुनरुत्थानवादी प्रयासों को खारिज किया है, जो इस सभ्यता हिंदू सभ्यता साबित करना चाहते हैं. उसने पूरी तरह देशज इस सभ्यता की वर्तमान में निरंतरता के कुछ व्यावहारिक सूत्रों की भी खोज की है.

यह किताबशुरू यात्रावृत्तांतसेऔरखत्मपुरातात्त्विक विवेचन-विश्लेषण से होती है. किताब के शुरुआती पृष्ठों मेंकराची से मुअनजोदड़ो तक का यात्रा वृत्तांत है. यहां लेखकपाठकों के सिंध संबंधी  ज्ञानऔर समझको कभीपुनर्नवता  तो कभी समृद्धकरता चलता है. वह स्थानीय  सिंधी सहयात्री के सहयोगसे सिंध को उसके अतीत और वर्तमानकी जड़ों में जाकर समझने की कोशिश  करता है. वह देखता है कि पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में मुस्लिम राजबसे पहलेसिंध में कायम हुआ, मगरहिंदू-मुस्लिम फसाद वहां कभी नहींहुए. वह इसके कारणों की तहमें जाता है और पाता है एकतो सदियों पहले यहां कायम बौद्ध मतके सहनशीलता और करुणाकी गहरी जड़े छोड़ जाने से और दूसरे सूफियों के प्रभावके कारण ऐसा हुआ. (पृ.23) बंटवारे और आजादीके बादसिंध में बड़े पैमान पर हुए जातीयदंगों के कारणों की पड़ताल करते हुए वह इस निष्कर्षपहुंचता है कि यह सिंध में सिंधियों के हाशिए पर चले जाने कारण हुए. बंटवारे के बाद सबसे अधिकमुहाजिर उत्तरप्रदेशऔर पाक पंजाब से यहां आए, सिंधी आबादी यहां केवलआठप्रतिशतरह गई और सिंधी भाषाकी जगहउर्दू और अंग्रेजी ने ले ली. सिंध के लोगों ने इसे अपनी पहचानपर हमलासमझा. “जातीय अस्मिता की इस कशमकश में सिंध में ‘सिंधु देश’ के लिए‘जिए सिंध’ आंदोलन उठ खड़ाहुआ.” (पृ.25 ) कराची से मुअनजोदड़ो तक की इस बस यात्रा के दौरान आने वाले दो शहरों के सांस्कृतिकऔर ऐतिहासिक महत्वसे भी लेखक रूबरू करवाता है. उसकी इस यात्रा का पहलापड़ावहै सेवण. रुना लैला, आबिदा परवीन, नुसरत फतह अलीखान और न जाने कितने और गायकों के मुंहसे इस शहर का नामसुना है, लेकिन  इसके महत्व पर रोशनीअबलेखक डालता है. वह बताता है कि सेवण सूफी फकीर शाहबाज कलंदर का स्थान है, जिन्हें मुस्लिम पीर और हिंदू भर्तृहरि का अवतार मानते हैं.(पृ.31)  लरकाणा, जिसे लेखक अपने स्थानीय सहयात्री के आग्रह पर सही लाड़काणा कहता है, के आते ही लेखक उसकी पहचान जुल्फीकार अली भुट्टो के शहर के रूप में करता है. बाद वह इसे सूफी गायिका आबिदा परवीन और फिल्मकार कुमार शाहनी के शहर के रूप में भी याद करता है.(पृ.34)

किताबके आगे के हिस्सेके वृत्तांतमेंविवेचन औरविश्लेषणका पुट आ जाता है. लेखकअबएकशोधार्थी की तरह पहले मुअनजोदड़ो के महत्वपर रोशनीडालता है. उसके अनुसारयहां की खुदाईसे रातों-रात भारत के इतिहासका नक्शाबदल गया.(पृ.38)  यही बात बहुत पहले रोमिला थापरने भी कही थी. उनके अनुसार इस खोज से पारंपरिक भारतीय इतिहास का प्रारंभिक भाग पौराणिक कहानी बनकर रह गया. लेखक के अनुसार “सौ साल पहले भारत का दुनिया में महज दावा था कि उसकी सभ्यता प्राचीन है लेकिन सिंधु घाटी के हड़प्पा और मुअनजोदड़ो की खुदाई ने इस दावे को हकीकत में बदल दिया.”(पृ38.) उसके अनुसार सिंध के मुअनजोदड़ो, पाक-पंजाब के हड़प्पा, राजस्थान के कालीबंगा और गुजरात के लोथल व धौलावीरा की खुदाई में हासिल पुरावशेषों ने यह अच्छी तरह साबित कर दिया कि सिंधु घाटी समृद्ध और व्यवस्थित नागर संस्कृति थी. उसके निवासी उन्नत खेती और दूर-दूर तक व्यवसाय करते थे. वे उपकरणों का इस्तेमाल करते थे, शुद्ध नाप-तौल जानते थे और उनका रहन-सहन और नगर नियोजन उन्नत किस्म का था. लेखक को इस सभ्यता की जो बात सबसे महत्वपूर्णलगती है वो यह कि इसमें साक्षरता, सुरुचि और संपन्नता थी. इस सभ्यता के सौंदर्यबोध से भी वह अभिभूत है. वह इसके लिएयहां मिली बहुचर्चित याजक नरेश और कांसे से निर्मित निर्वसन नर्तकी युवती का विस्तृत वर्णन करता है. लेखक यहीं मोएनजोदड़ो, मोहनजोदड़ो आदिप्रचलित नामों के स्थान पर इस स्थान के असल नाम मुअनजोदड़ो का भाषायी अर्थ भी स्पष्ट करता है. वह लिखता है, “मुआ यानि मृत.. बहुवचन में मुअन, मुआ का सिंधी प्रयोग है. दड़ा माने टीला. मुअन-जो-दड़ो: मुर्दो का टीला.” (पृ.44)  मुअनजोदड़ो का महत्व स्थापित कर देने के बादलेखक इस स्थान की खोज और इसमें लगे लोगों की मेहनत का सिलसिलेवार ब्योरा देता है. 1924 ई. में सामने आए मुअनजोदड़ो की खोज का श्रेय आमतौर परभारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के तत्कालीन महानिदेशक जॉन मार्शलको दिया जाता है, लेकिन लेखक मानता है कि महानिदेशक के रूप में उन्होंने खुदाई और खोज का नेतृत्व तो किया, लेकिन हड़प्पा और मुअनजोदड़ो की खुदाई का कामभारतीय पुरातत्त्ववेत्ताओं ने ही किया. हड़प्पा मेंयह काम हीरानंद शास्त्रीने 1909ई. में, जबकि मुअनजोदड़ो में यह काम राखालदास बंद्योपाध्यायने 1922-23 ई. में किया. मुअनजोदड़ो में बंद्योपाघ्याय के बाद माधोस्वरुप वत्स और काशीनाथ दीक्षितने भी खुदाई करवाई.

मुअनजोदड़ो का मुआयना लेखकने बहुतबारीकी औरविस्तारसेकिया है. यह एकपुरातत्ववेत्ता और इतिहासकारके साथ एक साहित्यकार का मुआयना भीहै. वहकहता है कि “मुअनजोदड़ो की खूबी यह है कि इस आदिशहरकी सडककों  और गलियों मेंआप आज भी घूम-फिर सकते हैं. यहां का सभ्यताऔर संस्कृतिका सामानचाहेअजायबघरों की शोभा बढ़ा रहा हो, शहर जहां था अबभी वहीं है. आप इसकी किसी भी दीवार पर पीठटिका करसुस्ता सकते हैं. वह कोई खंडहर क्यों न हो, किसी घर की देहरी पर पांव रखकर सहसासहम जा सकते हैं, जैसेभीतरकोई अब भी रहता है.“ (पृ.50) मुअनजोदड़ो की इमारतों, सड़कों का आदि का विवरणइस किताबमें इस तरह है कि आपको यह जीवंतनगरकी तरह लगता है. यह विवरण इतिहास और पुरातत्त्व की किताबों में भी है, लेकिन यहां एक कृतिकार की आंख से देखा गया विवरण है. उसके अनुसारसिंधु नदी के दाहिने तटपर पांच किलोमीटर के विस्तार में फैलाहुआ यह 2600ई.पू का यह नगर दो भागों में बंटा हुआ है. दुर्गटीले के पश्चिमी भाग में स्थितसार्वजनिक महत्वके भवनों का इलाकागढ़कहलाता है, जिसमें सभाभवन, ज्ञानशाला, अन्नागार और स्नानागार हैं. दुर्ग टीले के सामने आबादी वाला शहर है. नगर नियोजनकी यह पद्धति बाद मेंभी दिखाई पड़ती है. लेखक का माननाहै कि यह रास्तादुनिया को मुअनजोदड़ो ने दिखाया लगता है.(पृ.53)  लेखक इन सभी इमारतों और बस्तियों का जायजा लेता है. 

अपने मूल स्वरूप के बहुत नजदीकतक बचे हुए स्नानागार की पड़ताल लेखक ने अपेक्षाकृत विस्तार से की है. उसके अनुसार यह सिद्ध वास्तुकला का उदाहरण है.(पृ.55)मुअनजोदडो का नगर नियोजन और अवजल निकासी प्रबंध खास तौर पर लेखक का ध्यान अपनी ओर खींचते हैं. मुअनजोदड़ो के आबादी वाले इलाके का कोई घर सड़क पर नहींखुलता. उनके दरवाजे अंदर गलियों में है. लेखक कहता है कि नगर नियोजन यही शैली आधुनिक शहर चंडीगढ़ में ली कार्बूजिए ने इस्तेमाल की है.(पृ.61)मुअनजोदड़ो के घरों से गंदे पानी की निकासी के लिएबनी होदियों और नालियों के जालपर लेखक अमर्त्य  सेनके शब्द उधर लेकर कहता है कि “मुअनजोदड़ो के चार हजारसाल बाद तक अवजल निकासी की ऐसी व्यवस्था देखने में नहीं आई.”(पृ.63)यहां कुंओं की मौजूदगी के संबंध मेंवह इरफान हबीबको उद्घृत करता है जो लिखते है कि “सिंधु घाटी की सभ्यता संसार में पहली ज्ञान संस्कृति है, जो कुंए खोदकर भूजल तक पहुंची.”(पृ.63)  बस्ती में घूमते हुए उसका ध्यान इस ओर जाता है कि एक तो कुओं को छोडकर सब कुछ चौकोरया आयताकार है और दूसरे, कमरे आकार में बहुत छोटे हैं और खिड़कियों और दरवाजों पर छज्जे नहीं है. वह इस संबंध में कयास तो लगाता है, लेकिन किसी निष्कर्षपर नहीं पहुंचता. मुअनजोदड़ो के संग्रहालय का जायजा लेते हुए लेखक का ध्यान कुछ और बातों पर भी जाता है. एक तो वहां प्रदर्शित चीजों में कोई हथियार नहीं है और दूसरे इन चीजों में प्रभुत्व या दिखावे का तेवर नदारद है. हथियार नहीं होने के संबंध में वह विशेषज्ञों की राय को आधार बनाकर निष्कर्ष निकालता है कि वहां अनुशासन शक्ति आधारित नहीं था. दिखावे का तेवर नहीं होने के संबंध में लेखक का मत है कि यह लो-प्रोफाइल सभ्यता थी, जो लघुता में भी महत्ता का अनुभव करती थी.(पृ.75)  

मुअनजोदड़ो से जुड़ी उन दो चर्चित गुत्थ्यिों से लेखक भी रूबरू होता है, जिनसे अब तक सभी पुरातत्त्ववेत्ता और इतिहासकार रूबरू हो चुके हैं और कोईनिष्कर्ष निकालने में असफल रहे हैं.

पहली गुत्थी यह है कि सिंधु सभ्यता खत्म कैसे हो गई. अत्यधिक भूमि दोहन, भूकंप-बाढ़ जैसी प्राकृतिक आपदा, जंगलों का विनाशऔर व्यापार शैथिल्य जैसे कई संभावित कारणों पर विचार के बादलेखक ताजा भूगर्भगीय अध्ययनों के हवाला देते हुए संभावना व्यक्त करता है कि इसका विनाश समुद्र का स्तर ऊपर उठने से हुआ होगा. समुद्र का स्तर ऊपर उठने से सिंधु का प्रवाह धीमा हो गया होगा और उसमें खेतों में गाद भर गई होगी, जिससे क्षार बढ़ गया होगा.(पृ.83)

दूसरी ज्यादा पेचीदा गुत्थी यह है कि वैदिक संस्कृति और सिंधु सभ्यता का संबंध किस तरह का है. दरअसल इस सभ्यता की खोज ने भारतीय इतिहास का ढांचा इस तरह बदला है कि उसके इस आरंभिक चरण को परवर्ती चरणों से जोडना मुश्किल कामहो गया. पुनरुत्थानवादी इतिहासकारों और कल्पनाजीवी साहित्यकारों ने कल्पना की घुड़दोड़ से अर्थ का अनर्थ कर दिया है. लेखक इस संबंध में कोई निष्कर्ष निकालने के बजाय यही कहता है कि “अगर देशज-विदेशज की भावुकता के जंजाल में न पड़ें,तो वैदिक संस्कृति और सिंधु सभ्यता,  दोनों, भारत के इतिहास की शान है.”(पृ.87)

लेखक सिंधु सभ्यता की तीसरी गुत्थी उसकी अबूझ लिपि को समझने के प्रयासों का ब्यौरा भी देता है, लेकिन इस संबंध में उसका मत है कि “लिपि का रहस्य सिंधु सभ्यता की खोज के पहले जहां था, आज भी वहीं है.(पृ.89) वृत्तांत के उत्तरार्द्ध में लेखक ने सिंधु घाटी सभ्यता के साहित्य में इस्तेमाल की भी खोज-खबर ली है. उसका कहना है कि “साहित्य के लोगों ने पुरातत्त्व और इतिहास के लोगों की तुलना मेंइस संबंध में ज्यादा लिखा है लेकिन पुरातत्त्व का लाभ न उठा पाने से हिंदी में सांस्कृतिक इतिहास की चर्चा अप्रामाणिक ही नहीं, कही-कहीं नितांतकाल्पनिकहो गई है.”(पृ.93) लेखक ने वासुदेवशरण अग्रवालकी भारतीय कला संबंधी एकाधिक स्थापनाओं को पुरातात्त्विक साक्ष्यों से पुष्ट नहीं होने के कारण गलत माना है. रामविलास शर्माद्वारा किए गए सिंधु सभ्यता और वैदिक संस्कृति के बेमेल गठजोड़ की भी उसने जमकर खबर ली है. रामविलास शर्मा की यह धारणा कि वैदिक संस्कृति सिंधु सभ्यता से प्राचीन थी लेखक के अनुसार बलूचिस्तान की पहाड़ियों में मिले लगभग नौहजार साल पहले के सिंधु सभ्यता के शुरुआती दौर के प्रमाण मिलने से निराधारहो जाती है.(पृ.97) डी. डी. कोसांबी और राहुल सांकृत्यायनकी आर्य आक्रमणों से सिंधु सभ्यता के विनाश की धारणा को भी लेखक पुरातत्त्व सम्मत नहीं मानता. उसके अनुसार हमले की परिकल्पना प्रत्यक्ष और पारिस्थितिक साक्ष्य से निर्मूलसाबित हुई है.(पृ.103) साहित्य में हुए सिंधु सभ्यता के इस्तेमाल के संबंध में अंत में यहीं निष्कर्ष निकलता है कि “इतिहास की गाड़ी को कल्पना के घोड़े लगाकार दलदल में फंसाया जा सकता है.”(पृ.104)

कराची सेमुअनजोदड़ों तक की यात्राका वृत्तांतऔरइस बहाने मुअनजोदड़ों और सिंधु सभ्यताकी यह मीमांसा कईमायनों मेंखास है. यह हमारे ज्ञानऔर समझकोपुर्ननवा करती है और उसमें बहुतकुछनया भीजोड़ती है. वृत्तांत के आरंभमें लेखकने हवामें उडने और जमीनपर चलने में फर्क होने की जो बात कही है, वहअंततक उसके जेहन में रही है. उसने आद्यंत हवा में उडने के बजाय अपने पांव पुरातात्त्विक तथ्यों की जमीन पर मजबूती सेटिकाए रखे हैं. साहित्यिकसंस्कारों के बावजूद उसने अपने कल्पनाके घोड़ों को दौडने नहींदिया है. मुअनजोदड़ो और सिंधु सभ्यता संबंधी अपने विवेचन-विश्लेषणमें वह उन सबमत-मतांतरों और संभावनाओं का ब्योरा देता है, जो अबतक सामने आए हैं. खास बात यह है कि वह न तो झटके से किसी खारिजकरता है और न ही जल्दबाजीमें कुछ स्वीकार करता है. इस संबंध में पुरातत्ववेत्ताओं और इतिहासकारों के बीचजो मामले अभी अनिर्णीत हैं, वह उनका केवलब्योरा देकर आगेबढ़ जाता है. 

इस सभ्यता की लिपि और रुपांतरण को लेकर उसकारवैयाऐसा ही है. अपनी तरफ से कोई टिप्पणीकरने में उसने बहुत संयमबरता है. जहां उसने टिप्पणी की है वहां उसका नजरियाएकदमतथ्यपरक है. इस संबंध में उसने अपने पर्यवेक्षणऔर अनुभवके साक्ष्यदिए है. सिंधु सभ्यता और उसके बादविकसित वैदिक संस्कृतिकी सांस्कृतिकसंरचना अलग-अलग है, लेकिन भारतीय जीवन दृष्टिमें सिंधु सभ्यता की निरंतरतासंबंधी कुछ अंतरसूत्र उउसने अपनी तरफ से दिए हैं. ये अंतर्सूत्र उसके अपने पर्यवेक्षण पर आधारित हैं. शांति, अहं का विलय, कला के लघुरूप और प्रकृति सानिध्य, सिंधु सभ्यता की ये कुछ बातें भारतीय जीवन दृष्टि में लेखक अनुसार आज भी है. लेखक इसके कुछ और मुखर और प्रत्यक्षसाक्ष्य भी देता है. वह कहता है कि “हम आज भी ईंटें उसी आकारमें और वैसे हीसेंक कर बरतते है जैसे5जारसाल पहले बरती गई थी. खेत, हल, सिंचाई, फसलें, बैलगाडियां, गहने, घर, कुएं, जलनिकास, कला व शिल्पकी अनेकपरंपराए आज भी वैसी ही चली आती हैं, जैसी तब थीं. मुअनजोदड़ो की ‘नर्तकी’ के बाएं हाथमेंकलाईसे कंधे तक जो ‘चूड़ा’ है वह भारत और पाकिस्तान के थार में औरतों के हाथों पर आज भी इसी रूप में देखा जा सकता है.”(पृ.112) इन अंतर्सूत्रों को आधार बनाकर यह निष्कर्षनिकालनाआसानहै कि यह सभ्यता खत्मनहीं हुई, इसका रुपांतरण हुआ, लेकिन लेखक ऐसी कोई टिप्पणी करने से भी बचता है. नवीनतम अन्वेषणभी यही कहते है कि सिंधु नदी के बहावमें बदलाव के कारणलोगइस कृषिप्रधान सभ्यता के नगरों को छोडकर भोजनकी तलाश यहां-वहां बिखर गए होंगे और उन्होंने ‘कुछ छोडकर और कुछ जोडकर’ जीवन का सिलसिला जारीरखा होगा. लेखक ने एक जगहलिखा भी है कि “संस्कृतियां इसी तरह कुछ छोड़ते और जोड़ते हुए आगे बढ़तीहै.“ (पृ.112)

वैदिक संस्कृतिसेइस सभ्यताकी भिन्नतासंबंध मेंपुरातत्त्ववेत्ता औरइतिहासकारलगभगएकरायहैं. वैदिक संस्कृति में इस सभ्यता की निरंतरतानहींहोनालेखककोभीविस्मितकरता है. लेखक ने अपने पर्यवेक्षणऔर पुरातत्त्ववेत्ताओं के साक्ष्यसे एक संकेतकिया है कि यह सभ्यता समाजपोषित थी.(पृ.78)  कहीं ऐसा तो नहीं कि वैदिक सभ्यता भी समाज पोषित सभ्यता हो और उपलब्ध साहित्यिक साक्ष्यों की धुंध में उसका यह रूप दब गया हो. यह तो तथ्य है कि वैदिक सभ्यता की अवधारणा के विकास में पुरातात्त्विक साक्ष्यों के साथ साहित्यिक साक्ष्यों की निर्णायक भूमिका है. साहित्यिक साक्ष्यों में कल्पना और आदर्श का पुट आ ही जाता है, यह लेखक ने भी स्वीकार किया है.(पृ.104 ) ब्राह्मण साहित्यिक साक्ष्य दैनंदिन सामाजिक वास्तविकता से कटे हुए थे, यह भी अब सिद्ध हो गया है. वैदिक सभ्यता को साहित्यिक साक्ष्यों से अलग पुरातात्त्विक और ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार नए सिरे से देखा-परखा जाए तो शायद उसके समाजपोषित होने के साक्ष्य वहां भी मिले. उपनिवेशकाल से पहले हमारी संस्कृति की जीवंतता में समाजपोषण की सर्वोपरि भूमिका थी, इधर के नए अन्वेषणों का निष्कर्ष भी यही है.

आर्य बाहर सेआए थे, यह धारणाहिंदुत्ववादी मंसूबों के अनुकूलनहींथी, इसलिएहड़प्पा औरमुअनजोदड़ो की खोजसे वे सक्रिय हो गए. उन्होंने ऋग्वैदिक सभ्यताकोखींच- खांचकर हड़प्पा पर लाद दिया. विडंबना यह है कि इस संबंध मेंहिन्दुत्ववादी, मार्क्सवादी और आर्यसमाजी, सबएकहो गए.(पृ.104)  हिंदी में रामविलास शर्माऔर भगवानसिंह के अन्वेषण की दिशा भी कमोबेश यही थी. यह अच्छी बात है कि लेखक ने सजगतापूर्वक अपनी पडताल की दिशा पुनुरुत्थानवादी नहीं होने दी है. उसने बहुत तार्किंग ढंग से इन सभी प्रयासों की निरर्थकता भी सिद्ध की है. हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा सिंधु सभ्यता को सिंधु-सरस्वती सभ्यता नाम देने का भी उसने विरोध किया है. उसके अनुसारसरस्वती वेदों में जरूर है पर उसका भौतिक और ऐतिहासिक पक्ष अभी खोज के दायरे में है.(पृ97.) वैदिक सभ्यता को हड़प्पा से भी पहले स्थापित करने की रामविलास शर्मा को धारणा भी उसके अनुसार बहुत काल्पनिक है.(पृ.96)  नए पुरातात्त्विक साक्ष्य उसके अनुसार इस धारणा के एकदमउलट है.

मुअनजोदड़ो के ऐतिहासिक औरपुरातात्त्विक महत्वपर तो विश्वभर के विशेषज्ञों कोध्यानगया है, लेकिन लेखककी खूबी यह है कि उसने उसके सांस्कृतिकमहत्व पर भीरोशनीडाली है. उसके अनुसारयह भारतीय उपमहाद्वीप की साझा विरासतहै.(पृ.113)  विभाजन के बादइसका महत्व और बढ़ गया है. यह अलगाव और मतभेदों के बीचभारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश की सभ्यता के एक होने का सबूत है. लेखक के शब्दों में “हमारी विविधता में यह एक केन्द्रीय सूत्र है.” (पृ.113) लेखक ने इस संबंध में सिंध के एक नेता का बहुत अर्थपूर्ण कथन उद्घृत किया है जो कहता है कि “हम चंद दशकों से पाकिस्तानी हैं, कुछ सदियों से मुसलमान, मगर हजारों साल से सिंधी हैं.” (पृ.113)

वृत्तांतका गद्य शानदारहै. विवेचन-विश्लेषण औरविचारके लिएहिंदी मेंइस्तेमाल किए जानेवाले भारीभरकम और जलेबीदार वाक्यों वाले गद्य सेएकदमअलग, यह छोटे-छोटे वाक्यों वाला, बोलचाल की नाटकीयता से भरपूर  बहता हुआ गद्य है. कुछ अटपटे शब्द प्रयोग, जैसे अनुकूलित वायु, अवजलनिकासी आदि चुभते हैं.  ये इस किताब की भाषा की प्रकृति के अनुकूल नहीं हैं. धर्मेन्द्र पारे के रेखाचित्र वृत्तांत को पढने-समझने बहुत मदद करते हैं, अलबत्ता इनके शीर्षक नहीं होने से कई बार मुश्किल जरूर होती है. पाठक को रुक कर इनके संबंध मेंकयास लगाना पड़ता है.
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प्रो.माधव हाड़ा 
संपर्क: कार्यकारी महिलाछात्रावासके पास, पी.डब्ल्यू. डी. क़ॉलोनी, 
सिरोही 307001 राजस्थान
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परख : हत्या की पावन इच्छाएँ (भालचन्द्र जोशी) : राकेश बिहारी

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प्रेम,प्रकृति और पुनर्वास का त्रिकोण       
राकेश बिहारी



थार्थऔर कला हमेशा से हिन्दी कहानी में दो स्कूल या शैली की तरह ही नहीं बल्कि परस्पर प्रतिद्वंद्वी रचनात्मक धाराओं की तरह आमने-सामने होते रहे हैं. जाने अंजाने प्राय: यह भी माना जाता रहा है कि कलात्मकता सामाजिक सरोकारों से विमुख होती है. कई बार कलाविहीनता को जनपक्षधरता की अनिवार्य शर्त की तरह भी पेश किया जाता रहा है. भालचंद्र जोशी की कहानियाँ कला और यथार्थ की परस्पर प्रतिद्वंद्विता से उत्पन्न ऐसे चालू निष्कर्षों का सार्थक और प्रामाणिक विलोम रचती हैं. इनके छठे कहानी-संग्रह हत्या की पावन इच्छाएँमें संकलित कहानियों में भी इनकी ये विशेषताएँ सहज ही रेखांकित की जा सकती हैं. इन कहानियों में यथार्थ न तो किसी ठूंठ अवधारणा की तरह प्रकट होता है न कला सिर्फ कला के अवयवों की तरह उपस्थित होती है. बल्कि कला और यथार्थ का एक ऐसा संतुलित और रचनात्मक सहमेल इन कहानियों में देखा जा सकता है जो  समय और उसकी दरारों में सहजता से स्थित असहज करनेवाली सच्चाईयों को कलात्मक दक्षता के साथ अनावृत करता चलता है. नंगी आँखों से देखा जाने वाला और त्वचा की ऊपरी सतह से महसूस किया जाने वाला यथार्थ कैसे एक प्रभावशाली और दीर्घजीवी कथारूप में परिणत होता है इसकी रचनात्मक समझ विकसित करने के लिए भी इस संग्रह की कई कहानियों को पढ़ा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर मैं यहाँ संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों राजा गया दिल्लीऔर पल-पल परलयको उद्धृत करना चाहता हूँ.

दोनों में से एक गोरी रंगत वाला लंबे कद का जगन्नाथ है जो पचास की उम्र तक आते-आते सम्बोधन की गंवई सुविधा में घिसकर जगन रह गया है. दूसरा औसत ऊंचाई का साँवले रंग का कालू है. वह कालू ही पैदा हुआ था और आज इस संक्षिप्त नाम कालू से जाना जाता है. इस सम्बोधन से उसे कोई एतराज भी नहीं है. हालांकि जगन को भी कभी जगन्नाथ कहलाने की ख़्वाहिश पैदा नहीं हुई लेकिन उसे इतना याद है कि कभी उसका नाम जगन्नाथ हुआ करता था.संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी राजा गया दिल्लीकी इन पंक्तियों में कलात्मकता के भीतर गहरे पैठे उस सामाजिक विमर्श को पहचाना जा सकता है जिन पर यथार्थवादी कहानियों के पैरोकार जाने कब से अपनी कॉपी राइट सुरक्षित कराये रखने के विशिष्टताबोध में जीते रहे हैं. आज जब नामों का संक्षिप्तीकरण एक फैशन होता जा रहा है,नामों की घिसाई के पीछे के तिक्त  सामाजिक यथार्थ को भालचंद्र जोशी यहाँ एक कलात्मक सधाव के साथ अभिव्यक्त करते हैं. कालू का कालू सम्बोधन पर ऐतराज न होना और जगन के भीतर अपने वास्तविक नाम जगन्नाथ से पुकारे जाने की ख़्वाहिश पैदा न होना महज एक ऐसे व्यक्ति का सच नहीं है जो पहचान का महत्व नहीं जानता बल्कि इसके पीछे प्रताड़णा और वंचना की सुनियोजित साजिश की लंबी कहानी है जिसकी जड़ें हमारी मांस-मज्जा में गहरे धँसी हुई हैं. 

यह कहानी जिस तरह वर्ग और नाम के अंतर्संबंधों के पीछे काम करनेवाली संहिताओं के रगो-रेश में उतरने के साथ शुरू होकर शनै:-शनै: शासक और शोषित वर्गों के चरित्र का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन करती है वह बहुत ही प्रभावी है. मंत्री जी के नाम सरपंच की सिफारिशी चिट्ठी और दो-चार दिनों के खाने की पोटली लिए कालू और जगन मंत्री जी से मिलने शहर क्या जाता है,उसके भीतर भय,आशंका,संस्कार,उम्मीद,उपेक्षा,और आशा-निराशा की एक गहरी कश्मकश साथ हो लेती है जिसका पटाक्षेप एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद मंत्री जी द्वारा ठगे जाने के साथ होता है. यह भालचन्द्र जोशी की रचनात्मक कल्पनाशीलता है कि वे लंबी उम्मीद और प्रतीक्षा के बाद ठगे जाने के साथ कहानी का अंत नहीं करते बल्कि जगन और कालू को कुछ और आगे ले जाते हैं दोनों चलते हुये उसी मंदिर के पास से निकले तो आदत अनुसार प्रणाम के लिए दोनों के हाथ उठे फिर सहसा रुक गए,देखा,मंदिर के दरवाजे पर ताला लगा है.लंबी उम्मीद के नाउम्मीदी में बदलेने के साथ जब मनुष्य के भीतर की आस्था क्षतिग्रस्त होती है तो जाने कितने भगवानों के मंदिर पर ताला जड़ जाते हैं. कहानी मंदिर के दरवाजे पर ताला लगाने में नहीं बल्कि प्रणाम के लिए उठे हाथ के रुक जाने में है,वरना बंद पट के बावजूद दंडवत होनेवाले भक्तों की कोई कमी नहीं है.

आर्थिक उदारीकरण के बाद जहां एक खास तबके की दहलीज चमचमाती रोशनी से रोशन हुई है है वहीं प्रलोभनों के जंजाल में फंस कर समाज का एक तबका लगातार निस्तेज भी हुआ है. मांगन मरन समान हैके सिद्धान्त के विपरीत आज कर्ज लेना-देना एक व्यवसाय के रूप में लगातार विकसित हो रहा है. लेकिन विडम्बना यह है कि एक तरफ रोशनी से नहाये वर्ग के लिए सरकार की कर्ज नीति लगातार उदार होती जा रही है तो वहीं स्याह अंधेरे में डूबा व्यक्ति कर्ज लेने के बाद रिकवरी एजेंट्स से बचते-फिरने के बाद एक दिन आत्महत्या को विवश हो जा रहा है. यद्यपि कुछ छोटे-बड़े प्रलोभनों के बूते व्यवस्था उन्हीं लोगों के बीच अपने पैरोकार भी पैदा कर रही है लेकिन प्रलोभन की रोशनी में चमकते उनके तर्क तभी तक मुखर होते हैं  जबतक आग उनके अपने घर में नहीं लगती है. इस व्यवस्था ने सबसे ज्यादा जिसे अपना शिकार बनाया है वह है किसान वर्ग. यह अकारण नहीं है कि एक  तरफ खुद व्यवसायी वर्ग जहां खुद को दिवालिया घोषित कर अपनी समस्त लेनदारियों से मुक्त हो रहा है  तो दूसरी तरफ कर्ज के बोझ से झुका किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहा है. संग्रह की एक और कहानी पल-पल परलयकिसानों की आत्महत्या से जुड़े मसले को बहुत शिद्दत से उठाती है. अधिक पैदावार के प्रलोभन में धरती को बंजर करने वाले बीज और अधिक मुनाफे के प्रलोभन में आत्महत्या को विवश करनेवाली सरकारी कर्ज नीति  ने जिस तरह की त्रासदियों को जन्म दिया है उसे इस कहानी में आसानी से देखा जा सकता है.   

यथार्थ को कला के साथ जोड़ कर घटनाओं के प्रभावी निरूपण की जो कथा-प्रविधि राजा गया दिल्लीऔरपल-पल परलयमें हमें उत्साहित करती है वही अपनी अतिशय कलात्मकता के कारण नदी के तहखाने  में उलझाती भी है. इस कहानी के केंद्र में डूब,प्रेम और पुनर्वास है. लेकिन यदि इसी कहानी की एक पंक्ति को सूत्र के रूप में इस्तेमाल करें तो यह कहानी प्रकृति के सरलतम यथार्थ को अबूझ बनाकर फिलौसफी की ओर टाल देती है.  डूब और पुनर्वास की समस्या में उतरती यह कहानी जिस तरह दार्शनिकता के आवरण में लिपट कर दांपत्य और देह के अबूझ गुंजलक में उलझ जाती है उससे कहानी में कला और यथार्थ का अनुपात बिगड़ जाता है. लेकिन संग्रह की एक अन्य कहानी प्रेम गली अति साँकरीमें भालचन्द्र जोशी प्रेम की विरल अनुभूति को संवेदना के सूक्ष्मतम स्तर पर अभिव्यक्त करते हैं. अपरा और नमिता के सूक्ष्म मानसिक हरकतों को जिस तरह यह कहानी दर्ज़ करती है वह बहुत ही जीवंत और स्पर्शी है. प्रेम,जिसका कोई निश्चित रसायन नहीं होता हमारे जीवन को किस तरह प्रभावित करता है,कामनाओं के कोमल रेशमी तन्तु कब-कैसे तन-सिकुड़ कर हमारे जीवन-व्यवहार को उद्वेलित करते हैं उसे नमिता के भीतर आकार ले रहे बदलावों में महसूस किया जा सकता है. नमिता,जो मूलत: एक पढ़ाकू लड़की है और जिसका प्रेम से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है जब अपने भीतर प्रेम के आलोड़न महसूस करने लगती है तो जैसे उसके अंतस और बहिर्जगत के अंतर्संबंधों के सारे व्याकरण बदल जाते हैं. प्रेम,प्रकृति और मानव मन के बीच घटित होनेवाली अभिक्रियाओं के अनकहे संवादों की मजबूत ध्वनियाँ मौजूद हैं इस कहानी में. 

भालचन्द्र जोशी की कहानियों का मर्म प्रेम में विन्यस्त है. लेकिन यह प्रेम समय और समाज से कटे युगल के बीच का वायवीय भावोच्छवास भर नहीं है बल्कि समय,समाज और मानवीय व्यवहारों के जीवंत तार ही इन कथा-पात्रों को परस्पर आबद्ध रखते हैं. गहरी उम्मीद और रह-रह कर डराती आशंकाओं के बीच जीवन और मृत्यु की संभावनाएं हमारे भीतर प्रार्थना के लिए जगह बनाती हैं. लेकिन एक दूसरे के प्रेम में डूबे दो लोगों के तात्कालिक हित आपस में टकराते हैं तो उनकी प्रार्थनाएँ अलग-अलग उम्मीद और अर्थ-विधान ले कर उपस्थित होती हैं. ऐसे में प्रार्थनाओं की परस्पर अदला-बदली या एक की प्रार्थना में दूसरे की प्रार्थना का विस्तार आस्था और ईश्वर की नईनई परिभाषाएँ गढ़ता है. संग्रह की अत्यंत ही महत्वपूर्ण कहानी प्रार्थनाआलोक और कंचन के प्रेम-व्यवहार के बहाने  प्यार,आस्था,प्रार्थना और नियति की टकराहटों से उत्पन्न ऐसी ही मर्मभेदी स्थितियों को हमारे सामने लाती है.

प्रेम,प्रकृति और पुनर्वास के त्रिकोणीय भूगोल में स्पंदित होती ये कहानियाँ यथार्थ को देखने-परखने का एक ऐसा रचनात्मक परिवेश तैयार करती हैं जहां समकालीनता को तात्कालिता में परिसीमित करने की कोई हड़बड़ी नहीं है. अनुभव और कलात्मकता की संयुक्त आंच पर पकी ये कहानियाँ यथार्थ की जमीन पर खड़ी हो कर यथार्थ के पार जाने का रचनात्मक उद्यम हैं.
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राकेश बिहारी
संपर्क: एन एच 3/सी 76,एनटीपीसी,पो.-विंध्यनगर,जिला - सिंगरौली 486885 (म. प्र.)
मो.- 09425823033   ईमेल - biharirakesh@rediffmail.com

मेघ - दूत : गुंटर ग्रास : विष्णु खरे

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महान जर्मन लेखक गुंटर ग्रास का (१६ अक्तूबर १९२७ - १३ अप्रैल २०१५) भारत से गहरा रिश्ता था. उनकी विख्यात कृति त्सुंगे त्साइगेन (show your tongue)कोलकाता को केंद्र में रखकर रची गयी है. इसका अनुवाद विख्यात साहित्यकार और अनुवादक विष्णु खरेने मूल जर्मन से हिंदी में किया है जो १९८४ में प्रकाशित हुआ.  इस पुस्तक की भूमिका के कुछ हिस्से और उनकी चार कविताओं के अनुवाद यहाँ आप पढ़ेंगे. इसके साथ ही गुंटर के उपन्यास‘टीन का ढोलपर बनी फ़िल्म के माध्यम से सिनेमा और साहित्य पर एक समझ यहाँ आप देख सकेंगे.
जीभ दिखाना’ 1984 में राधाकृष्ण प्रकाशन, द्वारा मैक्स म्युलर भवन, दिल्ली के सहयोग से प्रकाशित हुई थी. तब तक ग्रास को नोबेल पुरस्कार नहीं मिला था. विष्णु खरे संभवतः हिंदी के एकमात्र कवि-अनुवादक हैं जिन्होंने 1990के दशक में  गुंटर ग्रास के साथ मुलाक़ात की है और  लोठार लुत्सेकी मौजूदगी में उनके साथ एक सार्वजनिक काव्य-अनुवाद-पाठ कार्यक्रम में हिस्सा लिया है. एक विराट श्रोता-वर्ग द्वारा दिल्ली में हिंदी में ग्रास का गद्य और कविताएँ जिस तरह सराहे गए थे उससे खुद गुंटर चकित और हर्षित रह गए थे.



(‘जीभ दिखाना’) अनुवाद के बारे में 

यदि यह तथ्य उतना करुण और शोचनीय न होता जितना कि वह है तो सगर्व कहा जा सकता था कि यह अनुवाद गुंटर  ग्रास की किसी भी कृति का हिंदी में पहला सम्पूर्ण अनुवाद है. लेकिन ग्रास पिछले तीस वर्षों से अधिक से विश्वविख्यात है और उनका पहला उपन्यास 'टीन का ढोल'('दि टिन ड्रम" : मूल जर्मन – ब्लेष्ट्रोमेल ) लगभग उसी समय से समसामयिक जर्मन और विश्व साहित्य की एक कालजयी कृति मान लिया गया है जबसे वह प्रकाशित (तथा तत्काल ही प्रमुख विश्व-भाषाओं के अनूदित) हुआ था. यह ठीक है कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद साहित्य का एक नोबेल पुरस्कार जर्मन उपन्यासकार हाहनरिष ब्योलको दिया गया किन्तु इस बात पर सर्वसम्पति सी है कि 1945 के बाद के जर्मन उपन्यास को अस्मिता देने वालों में ग्रास सर्वोपरि हैं. इसलिए अधिक उचित तो शायद यह होता कि ग्रास के कम से कम उस सर्वाधिक चर्चित उपन्यास का अनुवाद हिंदी में आज से एक चौथाई शताब्दी पाले हो गया होता---- या  इन हाल के वर्षों में उनके किसी भी अन्य उपन्यास का.

यहाँ यह भीस्मरण रखा जाना चाहिए कि ग्रास केवल उपन्यासकार ही नहीं कवि तथा नाट्यकार भी है और यदि वे न लिखते और सिर्फ अपने चित्रों और उत्कीर्णन आदि को ही समर्पित होते तो एक कलाकार के रूप में भी उनकी ख्याति शायद कम न रहती. फिर उनके राजनीतिक-सामाजिक लेख और (कम से कम विली ब्रांट की राजनीतिक सक्रियता तक) जर्मनी की सोशल डेमोक्रेट पार्टी के साथ उनके प्रणय-कलह सम्बन्ध भी कम महत्वपूर्ण नहीं : ग्रास अपनी जीवन-शैली, सर्जनात्मकता तथा विचारों को लेकर 67 वर्ष की उम्र में आज तक (कभी-कभी विवादास्पदता की सीमा तक भी) चर्चित हैं. उन्हें और उन जैसे अनेक महत्त्वपूर्ण विश्व-लेखको को कभी का हिदी में आ जाना चाहिए था और लगातार आते रहना चाहिए. इसलिए ग्रास की इस पुस्तक का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत करते हुए आत्माभिनंदन के स्थान पर अपराध-बोध अधिक अनुभव हो रहा है.

अपराध-बोध इसलिए भी होता है कि ग्रास की यह कृति अगस्त 1987 से जनवरी 1988 के बीच उनके तथा उनकी पत्नी के भारत (मुख्यत: कलकत्ता) प्रवास के बारे में है इसलिए अनुवाद के लिए उसे ही चुनने के पीछे ‘भारत-सम्बद्धता'का हीन-भाव भी पढा जा सकता है. यह सच है कि भारतीय पाठको के लिए "त्सुंगे त्साइगेनएक विशेष उत्सुकता और कुतूहल का विषय है लेकिन "भारत-सम्बद्ध'हर विदेशी पुस्तक न तो पठनीय होती है और न ही सार्थक. "भारत"को लेकर लिखे गए अधिकांश विदेशी सर्जनात्मक साहित्य का तो और भी शोचनीय हाल है. जर्मनी में भारत को लेकर एक रूमानी-रहस्यवादी सम्प्रदाय पिछले करीब दो सौ वर्षों से रहा है और आज भी पश्चिम का भारत के प्रति आकर्षण ग़लत कारणों से ज्यादा है, सहीं समझ या उत्सुकता से कम.  हम भारतीय भी, विशेषत: मक्स म्युलर और विवेकानंद के बाद, विदेशियों की भारत की 'ज़गदगुरु'छवि के शिकार होते गए है. एडवर्ड सईद‘ओरिएंटलिज्म’ कहकर जिसकी उचित ही भर्त्सना करते हैं उसके निर्माण और अस्तित्व में हम ओरिएंटलों की विभाजित मानसिकता का भी कम हाथ नहीँ है  किन्तु काली की लपलपाती जीभ से अपना केन्दीय बिम्ब चुनने वाली ग्रास क्रो इस कृति पर शायद कोई और इल्ज़ाम लगाए जा सकते हैं भारत को हिंदूवादी-अध्यात्मवादी रूमानी दृष्टि से देखने का आरोप कतई नहीं. 
बल्कि विडम्बना यह है कि भारतीय और भारतविद् बुद्धिजीवियों के एक वर्ग ने, जिने 'त्सुगे त्साइगेन"को मूल जर्मन में या अंग्रेजी अनुवाद "शो युअर टंग'में पढा है, ग्रास पर भारत-विरोधी होने का वही आरोप लगाया है जो नीरद चौधुरी या वी.एस. नैपाल पर लगता रहा है. जो लोग बंगाल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा कलकत्ता से असामान्य गहरा लगाव महसूस करते हैं उनमें से कुछ को ग्रास की इस पुस्तक ने असमंजस में डाला है या निराश और कुपित किया है. यहाँ न तो चौधुरी. नैपाल और ग्रास का मूल्यांकन संभव या अभीष्ट है और नही उनकी तुलना लेकिन इस हिंदी अनुवाद से एक उम्मीद तो यह है ही कि वह पाठको को भारत के प्रति ग्रास के रुख को स्वयं बांचने-परखने का अवसर देगा, और शायद एक बुद्धिजीवी पर्यवेक्षक के रूप में स्वयं ग्रास के (भले ही आंशिक) मूल्यांकन का भी. 
जीभ दिखाना'को पढने के लिए किसी बड़ी तैयारी की ज़रूरत नही है लेकिन शायद उसके लेखक के बारे में कुछ प्रमुख बाते जान लेना सहायक होगा. ग्रास जर्मन मूल के है लेकिन दान्त्सिगमें जन्मे थे. नात्सी जर्मनी की नृशंसत्ताओं और दूसरे विश्व युद्ध की विभीषिकाओं के वे गवाह और भुक्तभोगी रहे. जर्मनी का विभाजन तथा पूर्वी जर्मनी का. यथार्थ उन्होंने अपनी आँखों देखा. राष्ट्रवाद किस तरह नस्लवाद और फासिज्म में बदल सकते है इसके भी वे प्रत्यक्षदर्शी रहे. धर्मान्धता, अज्ञान अंधविश्वास, नायकपूजा, संकीर्णता, पूर्वग्रह, पाखंड, आलस्य, आदमी का अवमूल्यन किसी समाज को किस नरक में ले जा सकते है यह उनसे छिपा नहीं है. पश्चिम में रहते हुए भी वे पश्चिम के मानव-विरोधी सर्वउभोवतावाद के जुझारू विरोधी रहे और राजनीतिक, सामाजिक, धार्मिक तथा प्रसार-माध्यमों के प्रतिवर्ष उनसे कभी भी प्रसन्न और आश्वस्त नहीं रहे. वे कभी बुर्ज्वा बैठकों के चहेते नहीं रहे और जर्मनी एकीकरण के राष्ट्रीय (और शायद वैश्विक) उत्सवोंमाद के विरुद्ध होने के कारण उन्हें तथा उनके नवीनतम पिछले  उपन्यास ‘उंकेनरूफ़े’ (मेढक पुकाऱ) को खासी अलोकप्रियता और आलोचना नसीब हुई है. इस समय भी (उन्होंने पत्र से सूचित किया है कि) वे बर्लिन की दीवार के पतन पर एक बड़ा उपन्यास लिख रहे हैं जो शायद मई-जून 1995तक पूरा हो जाएगा. इसमें कोई शक ही नहीं कि उसके प्रकाशन पर फिर बावेला मचेगा. यह देखना दिलचस्प होगा कि लम्बी अवधि में कौन अधिक सिद्ध होता है- हेल्मूठ कोल, या गुंटर  ग्रास. 
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ग्रास ने इस पुस्तक का गद्य का हिस्सा 'यात्रा-वृतांत’ 'जर्नल'और डायरी शैली में लिखा है और उसमें कईं तरह की स्मृतियों और एक लगातार तीसरे की उपस्थिति की फंतासी मिली हुई है. ग्रास, उनकी पत्नी ऊटे और अदृश्य फोंटने की मौजूदगी सारे प्रकरण को एक अलग तनाव प्रदान करते हैं.  ग्रास ने अधिकार इंदराज-नुमा संक्षिप्त शैली का प्रयोग किया हालाँकि कभी कभी वे लम्बा आख्यायिका का  रूपाकार भी अपना लेते हैं. अनुवाद में इस शैली और लय को बचाए रखने की कोशिश की गई है. लेकिन ग्रास की यह पुस्तक एक त्रिफलक (ट्रिप्टीश) है जिसे प्रारंभिक और बाद के चित्र, तथा कविताएँ पूरा करते हैं. पहले गद्य –चित्र अनुवादक भी पुस्तक की इस योजना को एक विलासी सनक समझा था लेकिन घीरे-धीरे गद्-चित्र-पद्य की अन्विति का अनुशासित सौन्दर्य उस पर खुला. ग्रास की पुस्तक से आप सहमत हों या असहमत, जब आप उसे ख़त्म करते है तो यह खयाल बारर-बार आता है कि काश, ग्रास उसे इतने जल्दी समाप्त न करते. या फिर यह, जैसी हसरत स्वयं उन्होंने कई बार जाहिर की है कि वे दुबारा आएं और भारत के प्लेगोत्तर नवनिर्माण पर फिर कुछ लिखे- काली और लक्ष्मी के बीच इस प्रतियोगिता के बारे में देखे उनकी जर्मनी सरस्वती क्या कहती है. 



गुंटर ग्रास की दो कविताएँ          
(जो विष्णु खरे द्वारा अनूदित तथा 1983 में प्रकाशित तत्कालीन पश्चिम जर्मन कविता संकलन ‘’हम चीखते क्यों नहीं’’ से ली गई हैं.)

मेरे पास जो भी था सब मैंने बेच दिया, सारा का सारा
चार मंजिल सीढियाँ चढ़कर वे आए,
दो बार घंटी बजाई, हाँफते रहे
और फर्श पर नकद भुगतान किया
क्योंकि टेबिल भी बिक गई थी.

जब मैं सब कुछ बेच रहा था
तो पाँच या छ: गलियाँ छोड़कर
उन्होंने सारे संबंधसूचक सर्वनामों को हथिया लिया
और छोटे निरीह इंसानों की
व्यक्तिगत परछाइयों को आरे से काट दिया.
     
मेरे पास जो भी था, सब मैंने बेच दिया, सारा का सारा
मुझसे अब कुछ भी नहीं लिया जा सकता.
मेरे आखिरी और सबसे छोटे संबंधसूचक अव्यय को भी-
एक निशानी जिसे मैंने भक्तिभाव से बहुत देर तक सँजो कर रखा
                                                       था-
आखिरकार अच्छी कीमत मिल गई.

जो भी मेरा था अब बिक चुका है, सारा का सारा.
मेरी पुरानी कुर्सियां-  मैंने उन्हें ठिकाने लगाया.
कपडों की अलमारी को बर्खास्त किया.
बिस्तरेउन्हें नंगा किया, उघाड़ा
और उनके बाजू में सो गया, संयम से.

आखिर तक जो भी मेरे पास था बिक चुका था.
कमीजों की न कालर थी न उम्मीद
पतलूनों को अब तक बहुत ज्यादा मालूम हो चुका था;
एक कच्ची और शर्मीली जवान बोटी को
मैंने अपना तवा नजर किया

और बचा हुआ अपना नमक.


पाबंदी से                             

एक तल्ले नीचे
हर आध घंटे
एक जवान औरत
अपने बच्चे को पीटती है.
इसलिए
मैंने अपनी घड़ी बेच दी है
और पूरी तरह से
नीचे वाले
सख्त हाथ पर
आश्रित हूँ,
मेरे नज़दीक
गिनी हुई सिगरेटें;
मेरा वक्त सुव्यवस्थित है.



एक                                                  
(‘जीभ दिखाना’ के काव्य-खंड से )

यहाँ तक जीवन ले ही आता है स्वयं को देर-सबेर :
आड़ी- टेढ़ी डालियों का बिस्तरा, टहनियों से ढका हुआ,
तौली गई टहनियां जैसे (बही खाते नुमा)
आखिरी फैसले में इस्तेमाल की जीने वाली हों.
अपनी कीमत है ललछौंही जलाऊ लकडी की
जिसे भफाते हुए सुंदरबन में काटा गया था,
लकडियों लाश से लम्बी होनी चाहिए.

विभिन्न शमशान घाटों पर- जो
गंगा की बहती हुई धारा के बराबर
हुगली के किनारे तक तक चले गए हैँ
बेजान आग पर धुँआते हैं ढेर लकडियों के, जो पानी से
अभी तक सीली हैं, बार बार पैदा की गई
जैसे अचानक प्रसूति में (और शहर को
दुनिया भर के अखबारों में सुर्खियाँ बनाते हुए)
अभी भी हिचकिचाती है कीमती लकडी
और उसे उकसाना पड़ता है धान के पुआल से
उकसाना पड़ता है भले शब्दों से
पुनर्जीवित करना होता है.

धी शवों को चिकनाता है.
ऊपर से फूल, सांस में सुगंधित,
  
सामान्यत: प्रसन्न अवसर के लिए.
अस्तव्यस्त 'पैरों के तलुओं पर लाल आलता.
मृत आँखों पर पत्तियां. (लेकिन वे मुहावरे
जो हम यूरोपियों को मृत्युलेख के लिए आसानी से मिल जाते है---,
दिवंगत, चिरनिद्रा, श्रेष्ठतर संसार को निमंत्रित----
उपलब्ध नहीं है.) मृतक यहाँ
गंभीरता से मृत हैं.
लकडी शवों को पकडे रखती है.
ठूठों के दाँतों से आग भकोस डालती है,
आत्मा शायद कहीं और नई,
राख और जले हुए हिस्से नदी के है
जिसमें सभी कुछ मिलता है : मल,
     पंखुड़ियों, रसायन, स्नानार्थियों की नाजुक
नग्नता, फीके कपडों का पसीना.

लेकिन आज दुर्गा और लक्ष्मी और जाने कौन
भजन-कीर्तन और ढोल-ताशे के साथ हुगली ले जाए जाएँगे
त्यौहार समाप्त हो गया है. सात दिन तक
देवता उतरे : पुआल के पुतले जिन्हें (सूखी
और रंगी हुई) मिट्टी ने शरीर दे दिया है.

प्रदर्शन के लिए पशुलोक प्रस्तुत है : सिंह और उलूक
मूषक, हंस, मयूर. और दस भुजाओं पर
दमकती है शक्ति ताकि पुण्य पाप पर
तथा अन्य मूर्खतापूर्ण कहानियाँ.

हर गंदी बस्ती में : गरीब से ग़रीब भी
अपनी वेदी ऊँची उठाते है.
देखो जैसे खुर्राट मार्क्सवादी
छः हजार भिखारियों को निगाह से परे
शहर के बाहर खदेड़ देते है जब तक कि
पूजा उत्सव समाप्त न हो जाए.

पूजाओं और पुजारियों की, हर जगह की तरह
एक कीमत होती है; भय मुफ्त में बँटता है. काश
गुस्सा भी आए और ठहरे.
  

दो                                
देखीं तीन झाडुएँ, नहीं, चार
खाली कमरे में नाचती हुई, या
कमरे खाली करती हुई नाच रही थी
एक अकेली झाडू
और फिरती हुई दिखाती थी
तस्वीर पर तस्वीर
कैसे रद्दोबदल से परे
उसने करवाई थी कवायद
जिस दौरान हँसते हुए अछूत
अपनी गंदगी खुद साफ़ करो
हैंसते हुए भाग जाते हैं अपने रास्ते.

शहर का पेट उल्टा हुआ. देखा
स्मारकों को सिर के बल खड़े हुए. जो रेंगता है,
पैरों पर था. देखा पवित्रों को
और कुलीन पुत्रियों की पवित्रता को चीथडों में
कबाड़ को समर्पित (और अब न खिलखिलाते हुए).

देखा ब्राह्मणों के दस्तों को पखाने साफ करते हुए
अपने पवित्र यज्ञोंपवीत से पहचाने गए. देखा
प्रेम  पगी हिंदी फिल्मों के नायकों को
खदेड़ा गया पर्दे से निर्वासित जीवन में
जो उनपर डकार लेता है और सिखाता है उन्हें
सूरज के नीचे पतला गूं हंगना.
देखा बही पूँजी को

चिल्लर के लिए भीख माँगते

धीरज अपनी पराकाष्ठा पर बिफरा हुआ,
नारियल के ढेर धडों से कटे सिरों से मिले हुए

जैसे जैसे हिंदू और मुस्लिम कभी (आखिरी ब्रिटिश
मेहरबानी की सुनहरी भौंह वाली निगाह के नीचे) .
चाकुओं से ठीक-ठीक काटे गए थे और
उस देवी के अनुष्ठान के काम में आए थे
जो शिव के बैंगनी उदर पर
उकडूं काली बैठी हुई है : उसकी दृष्टि
निर्निमेष
देश पर लगी है.

काली पूजा आने वाली थी. मैंने देखा
कलकत्ता को हम पर आते हुए,
तीन हजार मलिन बस्तियां
जो अक्सर अपने आप में मगन रहती थीं, दीवारों के
पीछे दुबकी हुई या सीवर के गंदे पानी से सटी हुई
दौड़ पड़ती है बगटूट पूर्णिमा;
रात्रि और देवी उनके पक्ष में है.

अनगिनत मुखविवरों में देखी मैने
कली देवी की लाख वाली जीभ
लाल लपलपाती हुई । मैंने उसे होंठ
चटखारते हुए सुना : मैं,
अनगिनत मैं, सारी नालियों और
डूबे हुए तलघरों से, पाँतों पर से :
मुक्त की गई हैसिए जैसी धारदार- मैं.
जीभ दिखाना : मैं हूँ.
मैं तट पार करती हूँ. . .
मैं करती हूँ निरस्त सीमाएँ.
मैं करती हूँ
अंत. 

सो हम चले गए (तुम और मैं) हालाँकि
अखबार आता रहा और ख़बरें लाता रहा
केरोसीन की किल्लत हाकी के गोलों गोरखालैंड
बुलेटप्रूफ काँच के पीछे विधवा के बेटे
और पानी की; जो धीरे-धीरे मिदनापुर में
और हुगली जिले में धीरे धीरे
 उतर रहा था. 
(और काली देविका के पूजन का त्यौहार
शांतिपूर्वक सम्पन्न हो गया,
कहता है 'दि टेलीग्राफ़')


_________


जर्मन ज़मीर का नक्कारची
विष्णु खरे

अक्सर ठीक ही कहा जाता है कि किसी फिल्म के कथानक को तो एक स्वीकार्य या बेहतर कहानी-उपन्यास में बदला जा सकता है, एक विख्यात कहानी या उपन्यास को बड़ी फिल्म में रूपांतरित कर पाना हमेशा संभव नहीं होता.इसके उदाहरणों और कारणों पर सिनेमा के विदेशी अध्येताओं में लगातार बहस होती आई है. कहा जाता है कि एक महान कथा अपने-आप में एक बड़ी फिल्म भी होती है, वह मनोवैज्ञानिक ही क्यों न हो, पाठकों की सभी ज्ञानेन्द्रियों तथा कल्पनाशीलता पर वह इतना गहरा निजी असर छोड़ चुकी होती है कि वह  उनके किसी भी दूसरे रूपांतर को स्वीकार नहीं करते.उधर कुछ उपन्यास अपने विस्तार और गहराई में इतने जटिल होते हैं कि घुटने टेक कर क़ुबूल कर लिया जाता है कि उन पर अच्छी फिल्म बन ही नहीं सकती.

एक ऐसा ही उपन्यास था और है जर्मनी के महान, नोबेल-पुरस्कार विजेता लेखक और उत्कीर्णक गुंटर ग्रास (16.10.1927 – 13.4.2015) का 1959 में प्रकाशित मूल जर्मन-शीर्षक उपन्यास ‘डी ब्लेख्ट्रोमेल’,जो अपने अनूदित अंग्रेज़ी नाम ‘दि टिन ड्रम’ (‘’टीन का ढोल’’) से संसार-भर में विख्यात है,और विश्व की अनेक बड़ी भाषाओँ में उपलब्ध है. हिंदी में न होने के लिए यहाँ अप्रासंगिक किन्तु कुछ अंतर्कथात्मक ज़िम्मेदारी इस लेखक की भी है. इसमें शक नहीं कि पाठक (गाब्रीएल गार्सीआ) मार्केस और उनके उपन्यास ‘दि हंड्रेड इयर्स ऑफ़ सोलिट्यूड’को ज्यादा जानते होंगे लेकिन वह ग्रास के शाहकार से न सिर्फ आठ बरस बाद छपा था बल्कि ‘जादुई यथार्थवाद’के जनक माने जाने वाले मार्केस ने हमेशा स्वीकार किया कि उनपर ग्रास का इतना गहरा असर है कि शायद उसके बिना उनका उपन्यास जैसा है वैसा संभव न होता.

किसी भी उपन्यास पर अक्षरशः वैसी ही फिल्म बनाना असंभव है, वैसी कोशिश करना सिनेमा और साहित्य दोनों का अपमान करने जैसा है.टीन का ढोल’ वैसे भी कोई आसान उपन्यास नहीं है, वह शुरू 19वीं सदी के अंत में में होता है और ख़त्म यदि होता भी है तो हिटलर और नात्सियों के ज़माने और दूसरे विश्व युद्ध के बाद के 1945 में.लेकिन यह दर्शकों और शायद स्वयं ग्रास का सौभाग्य था कि 1970 के जर्मनी में तब राइनर वेर्नर फस्बिंडर, वेर्न्रर हेर्त्सोग और विम वेंडर्स सरीखे प्रतिभावान युवा फिल्म निदेशकों की पीढ़ी मौजूद थी जिसके एक अन्यतम सदस्य थे फोल्केर श्लोएन्डोर्फ़, जिन्होंने ‘तीन का ढोल’ पर फिल्म बनाने की जोखिम-भरी चुनौती स्वीकार की. 1978 तक श्लोंडोदोर्फ़ ‘यंग टोएर्लेस’,’ए डिग्री ऑफ़ मर्डर’,’मिखाइल कोल्हस’,’दि लॉस्ट ऑनर ऑफ़ काठारीना ब्लूम’ तथा ‘कू द ग्रास’ सरीखी साहित्यिक कृतियों पर आधारित फ़िल्में बनाकर अंतर्राष्ट्रीय प्रसिद्धि हासिल कर चुके थे.श्लोंदोर्फ़ कभी मार्गारेठे फ़ोन ट्रोटासरीखी महान फिल्म-निदेशिका से विवाहित भी रहे. ग्रास इन सब युवतर फिल्मकारों के काम से वाक़िफ थे.

श्लोंडोर्फ़की फिल्म का, जो बहुत दूर तक ग्रास के उपन्यास का साथ निभाती है, खुलासा यह है कि वह शुरू होती है 1899 में नायक ओस्कर मात्सेराठ के पोलैंड में रहने वाले जर्मन नाना, पिता,नानी, माँ, के जीवन से. उसका पिता आल्फ्रेड मात्सेराठ, जो पहले विश्व युद्ध में पुरुष नर्स था. बाद में आग्नेस से शादी करता है और एक पंसारी की दूकान चलाता है. ओस्कर पैदाइश से ही एक बालिग़ दिमाग़ लेकर जनमता है और जब उसे मालूम पड़ता है की बड़ा होकर उसे विरसे में वही दूकान मिलेगी तो वह तीन साल की उम्र के बाद और बड़ा न होने का फैसला कर लेता है. इसके लिए वह एक शारीरिक दुर्घटना को अंजाम देता है. उसके तीसरे जन्मदिन पर उसे वही टीन का ढोल तोहफे में मिलता है जो उपन्यास और फिल्म का शीर्षक है. ओस्कर उसे ज़िंदगी भर नहीं छोड़ता. वह हमेशा के लिए बौना हो जाता है लेकिन उसकी चीख़ इतनी ज़ोरदार और तीखी है कि उससे बड़े-बड़े शीशे चकनाचूर हो जाते हैं. अपने इस चीत्कार और नक्कारे का वह तभी इस्तेमाल करता है जब नाराज़ होकर वह किसी जगह घटना में बड़ा खलल पैदा करना चाहता है.जर्मन में ‘तीन का ढोल बजाना’ मुहाविरे का अर्थ यही है. 

यहाँ तक तो कहानी फिर भी आसान है.इसके बाद ओस्कर के प्रेम और परिवार प्रसंग हैं,दूसरे विश्व युद्ध के ज़माने के उसके कारनामे है, नात्सी हैं,हिटलर की मौजूदगी है.इससे ज़्यादा अष्टावक्र उपन्यास और फिल्म बहुत कम होंगे लेकिन आप न तो उपन्यास बीच में छोड़ सकते हैं और न फिल्म. दोनों के अंत में एक अचम्भा भी है जिसे यहाँ बतलाया नहीं जा सकता.कई विवादास्पद बालिग़ ‘अश्लील’ किन्तु अनिवार्य सीन तो हैं ही.कनाडा में इसके कुछ सीन काटे गए, फिर बच्चों की पोर्नोग्राफी दिखने के जुर्म में इसे प्रतिबंधित ही कर दिया गया. अमेरिका में ओक्लाहोमा ज़िले में भी इसी इल्ज़ाम पर फिल्म पर मुक़दमा चला और शहर में उसके कई प्रिंट जब्त कर लिए गए. दोनों जगह सरकार अदालत में हार गई और फिल्म खूब चली. ओक्लाहोमा काण्ड पर एक डाक्यूमेंट्री ही बना ली गई जो फिल्म की तरह अब भी देखी जा सकती है.

इस फ़िल्म का एक दृश्य
ओस्कर नामक ‘हीरो’ वाली इस फिल्म को 1979 की सर्वश्रेष्ठ विदेशी ऑस्कर मिला और उसी वर्ष फ्रांसिस फ़ोर्ड कोप्पोला की अमरीकी फिल्म ‘अपोकैलिप्स नाउ’ के साथ कान का सर्वोच्च सम्मान ‘पाम द’ओर’.ग्रास के उपन्यास की पहले भी लाखों प्रतियां बिकती थीं, ऑस्कर के बाद और लाखों बिकने लगीं और अभी, मृत्यु के बाद, फिर और लाखों बिक रही हैं और श्लोंडोर्फ़ की फिल्म संसार ,विशेषतः जर्मनी, के सिनेमाघरों और अखबारों में लौट आई है.लेकिन जब वह बन रही थी तब शीत-युद्ध का युग था,जर्मनी का एकीकरण कल्पनातीत था,सो सोवियत रूस और अन्य समर्थक साम्यवादी देशों की आपत्तियों के कारण उसकी शूटिंग असली जगहों और देशों में लगभग न हो सकी,वहाँ उसका प्रदर्शन भी प्रतिबंधित कर दिया गया और खुद ( तत्कालीन पश्चिम ) जर्मनी में प्रतिक्रियावादी तत्वों ने उसका विरोध किया – सबको मालूम था कि ग्रास और श्लोंडोर्फ़ घोषित रूप से समाजवादी हैं.दोनों की सारी कृतियाँ इसी तरह की हैं.ग्रास तो आजीवन ईर्ष्या और निंदा के केंद्र में रहे.जर्मनी और यूरोप के एक सबसे बड़े साहित्य-आलोचक आक्सेल राइष-रानित्स्की ने एक बार ग्रास की एक पुस्तक को बीच से फाड़ते हुए अपना एक चित्र जर्मनी के सबसे बड़े साप्ताहिक ‘डेअर श्पीगल’ के मुखपृष्ठ पर छपाया था.कुछ ही वर्षों पहले यूरोप में यह गंभीर विवाद पैदा हुआ था कि ग्रास ने हिटलर की फ़ौज में अपने सैनिक होने को साठ वर्ष तक क्यों छुपाया.उधर कुछ कुछ ओस्कर मात्सेराठ की ज़िंदगी की याद दिलाते हुए ग्रास की बहन ने बुढ़ापे में अत्यंत मर्मान्तक रहस्योद्घाटन यह किया कि अपने बच्चों को बचाने के लिए ग्रास की माँ को दूसरे विश्व युद्ध में कभी फौजियों की वेश्या भी होना पडा था.

यदि उपन्यास के रूप में ‘टीन का ढोल’अजर-अमर है तो फिल्म के रूप में उसका नक्कारा अब भी संसार-भर में गड़गड़ा रहा है.यह अंग्रेज़ी सब-टाइटल्स के साथ दो संस्करणों में उपलब्ध है – एक 142 मिनट का है और दूसरा स्वयं डायरेक्टर ने अपना ‘कट’ 162 मिनट का तैयार किया है.यह सही है की श्लोंडोर्फ़सारे उपन्यास को फिल्म में न समेट सके, उसके लिए उसकी लम्बाई तीन-चार घंटे से कम न होती और यह महँगी फिल्म थी जिसे अब बनाना तो लगभग असंभव है.पैंतीस बरस बाद भी श्लोंडोर्फ़की फिल्म कतई पुरानी नहीं पड़ी है,बल्कि वर्तमान भारत के समूचे राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में उसकी प्रासंगिकता बढ़ ही रही है.उसे देख कर सीखा जा सकता है कि भारत पर और समूचे दक्षिण एशिया पर किस तरह की फिल्म कैसे बनाई जा सकती है.उसे आप देखते क्यों नहीं ? साथ में ग्रास को भी अनिवार्यतः पढ़िए और देखिए कि वह भारतीय समाज और साहित्य के लिए क्या  नहीं कर सकता है.
(यह आलेख आज के नवभारत टाइम्स मुंबई में प्रकाशित है.संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ)

_________________________

विष्णु खरे 
9833256060
 ईमेल  vishnukhare@gmail.com


सबद - भेद : मेरीगंज का पिछडा समाज : संजीव चंदन

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हिंदी के श्रेष्ठ उपन्यासों में फणीश्वरनाथ रेणु का उपन्यास ‘मैला आँचल’ स्वीकृत है. १९५४ में प्रकाशित यह उपन्यास अपनी चेतना, आंचलिक – रागाताम्कता, रोचकता, मार्मिकता और लोक-संस्कृति के लिए आज भी पढ़ा जाता है. और आज भी इसके ‘पाठों’ की गुंजाईश बची हुई है. यह खोजना और देखना दिलचस्प है कि जो बिहार ‘पिछड़ी जातियों के उभार’ का केंद्र बना क्या उसकी कोई अनुगूँज इस उपन्यास के गाँव मेरीगंज में है, और जे.पी आन्दोलन में सक्रिय रेणु इसे किस रूप में लिखते हैं. उपन्यासों का  समाजशात्रीय अध्ययन बाकायदा आज साहित्य और समाजशास्त्र दोनों में एक अनुशासन है.

संजीव चन्दन पिछले कई वर्षों से स्त्रियों और हाशिये के समाजों को लेकर वैचारिक और रचनात्मक लेखन कर रहे हैं. इस आलेख में संस्कृतीकरण की प्रक्रिया में मैला आंचल में दर्ज़ घटनाओं को परखा गया है.     

मेरीगंज का पिछडा समाज                 
संजीव चंदन




मैला आँचल का रचनाकार सिद्धहस्त समाजशास्त्री की भूमिका में है, अपनी लेखकीय संवेदना के साथ. वह जिस मेरीगंजकी कहानी कह रहा है, वह पिछड़ी जातियों के बाहुल्य वाला गाँव है- आजादी के २ साल पूर्व और आजादी के २ साल बाद के समय परिवेश का गाँव, जहां विविध जातियों के लोग रहते हैं -  उपन्यासकार के शब्दों में, ‘मेरीगंज बारहो बरन (बारह जातियों) के टोलों में बँटा है- राजपूत टोली, कायस्थ टोली, संथाल टोली, कुर्मी, क्षत्री टोली, धानुक क्षत्री टोली, पोलिया टोली, रैदास टोली, यदुवंशी क्षत्री टोली, कुसवाहा क्षत्री टोली, गहलोत टोली, तन्त्रिमा टोली और दुसाध टोली’.

उपन्यासकार फनीश्वरनाथ नाथ रेणु के दो महत्वपूर्ण उपन्यास हिन्दी साहित्य में मील का पत्थर माने जाते हैं  मैला आँचलऔर परती परिकथा. परती परिकथा का समय परिवेश पहली दूसरी पञ्चवर्षीय योजना तक फ़ैला है. परिकथा में उपन्यासकार ग्रामीण भारत के लिए नेहरू की सपनों भरी आँखों से गरीब, भूखी, दलित पिछड़ी जनता की समस्याओं का सामाधान देखता है, लेकिन मैला  आँचल में वह यथार्थ के ज्यादा करीब है, बल्कि क्रूर यथार्थ को सामने लाता है, उपन्यास के सुखद अंत की सीमाओं में बंधे होकर भी - सुखद अंत, जहां वह लेखकीय रूमानियत के साथ समाधान देने की कोशिश करता है. इसपर मैंने विस्तार से अपने आलेख मैला आंचलमें जाति वर्ग और लिंगलेख ( नया ज्ञानोदय, 2006 ) में लिखा है. इस लेख में तत्कालीन पिछड़ा जाति आन्दोलन और उसके हासिल की परख समाजशास्त्रवेत्ता की भूमिका में रेणू  कितना, कैसे और किस पक्षधरता के साथ रख रहे हैं, इसकी व्याख्या करने की कोशिश की जा रही है ऐसा करते हुए उपन्यास के यथार्थवादी कलेवर को हमेशा ध्यान में रखा जा रहा है.


जनेऊ आन्दोलन और क्षत्रियत्व का दावा

उपन्यास के कालखंड तक बिहार में पिछड़ी जाति अपनी अस्मिता और हक़ की लड़ाई लड़ते हुए लगभग 5दशक जी चुकी थी. पिछड़ों की सामाजिक सांस्कृतिक लड़ाई का  एक चरण के अनुसार 1899-1925 ( मुख्यतः यज्ञोपवित जनेऊ और क्षत्रियत्व पर दावा - प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत, बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम)तक पूरा हो चुका था और राजनीतिक लड़ाई का एक चरण भी त्रिवेणी संघ’ ( 1933- 1942) के माध्यम से भारत छोडो आन्दोलन तक आते हुए अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाते हुए पूरा हो चुका था.  लगभग आधी शताब्दी तक के अपने अब तक के संघर्षों के साथ पिछड़ी जाति के हासिल मैला आँचल के अत्यंत पिछड़े गाँव की कसौटी पर कसे जा सकते हैं.

अगड़ी जातियां पिछड़ों के इस हासिल पर आक्रामकता, क्रोध और उपहास की मुद्रा में थीं: अभी कुछ दिनों से यादवों के दल ने जोर पकड़ा है.जनेऊ लेने के बाद भी राजपूतों ने यदुवंशी क्षत्रियों को मान्यता नहीं दी हैइसके विपरीत समयसमय पर यदुवंशियों के क्षत्रियत्व को वे व्यंग्य विद्रूप के वाणों से उभारते रहे हैं. एक बार यदुवंशियों ने खुली चुनौती दे दी, बात तूल पकड़ने लगी थी. दोनों ओर से लोग लगे हुए थे. यदुवंशियों को कायस्थ टोली के मुखिया, तसीलदार विश्वनाथ प्रसाद मल्लिक ने विशवास दिलाया, “मामले मुकदमे की पूरी पैरवी करेंगे. जमींदारी कचहरी के वकील बसंतो बाबू कह रहे थे, ‘यादवों को सरकार ने राजपूत मान लिया है. इसका मुकदमा तो धूम धाम से चलेगा.खुद वकील साहब कह रहे थे.

राजपूतों को ब्राह्मण टोली के पंडितों ने समझाया, “जब जब धर्म की हानि हुई है, राजपूतों ने ही उनकी रक्षा की है. घोर कलिकाल उपस्थित है, राजपूत अपनी वीरता से धर्म को बचा लें.” .... लेकिन बात बढ़ी नहीं, न जाने कैसे यह धर्मयुद्ध रुक गया, ब्राह्मण टोली के बूढ़े ज्योतिषी जी आज भी कहते हैं – “यह राजपूतों के चुप रहने का फल है कि आज चारो ओर हर जाति के लोग गले में जनेऊ लटकाये फिर रहे हैं भूमफोड़ क्षत्री तो कभी नहीं सुना था. .... शिव हो ! शिव हो! .’ (मैला आँचल, पेज न. १५)

मैला आँचल की इन पंक्तियों में तत्कालीन ५ दशकों का सामाजिक इतिहास दर्ज है. १८९९ से यादवों की अगुआई में पिछड़ों ने भी जनेऊ आन्दोलनशुरू कर रखा था, जिसे अगड़ी जातियां अपने अधिकार क्षेत्र में अतिक्रमण मान रही थीं और खून खराबे पर उतारू थीं. जाति के सांस्कृतिकरण के इस अभियान में जाति और सम्बंधित जाति की स्त्रियाँ एक साथ नए नियमों के दायरे में लाये जा रहे थे सबका दावा क्षत्रियत्व का भी था. इस प्रकरण में अंतिम बड़ा खूनी संघर्ष लाखोचक में 26मई 1925को हुआ . लाखोचक की घटना के बाद पिछड़ी दलित जातियों के जनेऊ धारण करने के खिलाफ उच्च जाति- भू स्वामियों का उग्र सामूहिक विद्रोह लगभग समाप्त हो गया. १८९९ ई. में मनेर के हाथीटोला की घटना जनेऊ धारण करने के खिलाफ सामूहिक हिंसक विरोध की यदि पहली घटना थी, तो लाखोचक अंतिम.’ (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम, वाणी प्रकाशन, 2001, पेज न.  81-82). इसके बाद पूरे बिहार में पिछड़ीदलित जातियों के क्षत्रियत्व और जनेऊ धारण के आग्रह के प्रति हिंसक प्रतिरोध की जगह अगड़ा समुदाय व्यंग्यबोध में रहा और धीरे धीरे इस मांग के प्रति तटस्थता से भरता गया.  इधर ब्रिटीश सरकार अलग अलग पिछड़ी जातियों के क्षत्रियत्व के दावे को स्वीकार करने की मुद्रा में थी. 1931की जनगणना के पूर्व कुर्मियों के क्षत्रियत्व के दावे को स्वीकार करते हुए भारत के तत्कालीन जनगणना आयुक्त ने उनकी जातीय सभा को एक पत्र लिखा.’ (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम पेज न. 51) अब उपरोक्त घटनाओं का  लगभग दो डेढ़ दशक बाद पिछड़ी जातियों के अत्यंत पिछड़े गाँव के लोगों पर क्या असर था, वह मैला आँचल के उपरोक्त उद्धरणों से समझा जा सकता है. गाँव के अधिकाँश लोग अनपढ़ और देश दुनिया के दिनप्रतिदिन के परिवर्तनों से परिचित नहीं हैं, लेकिन अस्मिता आन्दोलनों का स्पष्ट प्रभाव उनपर है. सरकारी निर्णयों की खबरें देरसबेर अपनी सूचना तंत्र हाट-बाजार, कोर्ट कचहरीके रास्ते उनतक पहुंचता रहता है. कायस्थ विश्वनाथ प्रसाद यादवों के क्षत्रियत्व के दावे को अपना समर्थन देते हैं. दरअसल खुद कायस्थों ने काफी कानूनी संघर्ष के बाद शूद्र से क्षत्रियत्व का दर्जा हासिल किया था. ब्राह्मण अपनी सुरक्षित सामाजिक स्थिति की कारण ही इन परिवर्तनों के प्रति काफी प्रतिगामी और प्रतिकूल होते रहे हैं. मैला आँचल का बूढा ज्योतिषी इसी ब्राह्मणमन का प्रतीक है. वह पिछड़ों के जनेऊ धारण और क्षत्रियत्व के दावे को चुनौतीविहीन देखने के लिए तैयार नहीं है. राजपूतों से जो उम्मीद वह लगाये बैठा है, वह लाखोचक की घटना में वहां के भूमिहारों ने पूरी करने की कोशिश की थी, जो अपने ब्राह्मण होने के दावे के पूर्व तक स्वीकृत क्षत्रिय थे.  उपन्यास के भीतर यादवों के वास्तविक प्रतिद्वंद्वी राजपूत ही हैं, कायस्थ और ब्राह्मण दोनो के बीच अपनी उपस्थिति रखते हैं.

एम. एन. श्रीनिवास के अनुसार गैर-ब्राह्मण समुदाय संस्कृतीकरण के अपने प्रयास में सिर्फ ब्राह्मणों के संस्कारों को ही नहीं अपनाता है अपितु ब्राह्मण मूल्यों और संस्थाओं का भी अनुसरण करता है. मेरीगंज के यादवों ने भी यज्ञोपवित करवाया, जनेऊ धारण करना प्रारम्भ किया, जो मूलतः द्विज जातियों का सांस्थानिक संस्कार माना जाता है. यादवों ने स्वयं को यदुवंशी क्षत्रिय भी घोषित किया. समाजशास्त्रियों की स्थापना रही है कि पदानुक्रम में उन्नति प्रायः वर्ण-क्रम में होती है, इसलिए यादव भी   अपने को क्षत्रिय के रूप में उन्नत कर रहे हैं. इतिहास में सर्वाधिक पदानुक्रम उन्नयन के बाद जातियां क्षत्रिय वर्ण में ही शामिल हुई हैं.

क्षत्रियत्व का उनका यह दावा व्यंग्यवाणों के अलावा अनेक तकलीफों के रास्ते से भी गुजरा है. हिंसक प्रतिरोध के बाद उच्च जातियों के लोगों ने नाकाबंदी और तरह तरह से परेशान करने का मार्ग अपनाया. प्रसन्न कुमार चौधरी और श्रीकांत क्षत्रियत्व ने इस दावे के पीछे का यथार्थ बतलाते हुए लिखा है, ‘भूमि केन्द्रित कृषि समाज में क्षत्रिय होने का ध्वन्यार्थ था भूस्वामी होना, बलशाली होना और राजा होना अथवा राजसत्ता का हकदार होना.’ (बिहार में सामाजिक परिवर्तन के कुछ आयाम पेज न. 109)


मेरीगंज की राजनीति : पिछड़ों की राजनीतिक सक्रियता का संकेत

मेरीगंज में राजनीति करने वाले लोग यादव जाति से हैं बालदेव कांग्रेसी है, तो कालीचरण सोशलिस्ट. कालीचरण के पीछे चलने वाले लड़के सुनार और दूसरी पिछड़ी जातियों से हैंअभी हाल तक दूध बेचने वाले खेलावन यादव १०० बीघे की जोत के मालिक हैं, जो रामकृपाल सिंह (राजपूत ) और विश्वनाथ प्रसाद सिंह (कायस्थ) से स्पर्धा रखते हैं. ४७ के आसपास बिहार और देश में हो रहे जमीन संबंधी हलचलों, लगान की वसूली से लेकर, जमींदारी उन्मूलन की चर्चाओं के बीच जमीन पर कब्जे की तिकड़मों का पूरा खेल मेरीगंज में भी एक छोटी हैसियत के बीच ही सही, लेकिन खेला जा रहा है. इन सब हलचलों में सबसे ज्यादा प्रभावित कृषि आधारित जीवन यापन करने वाली पिछड़ीदलित जातियां थीं, जो छोटे मालिकाना से लेकर, बटाईदारी, यजमानी और मजदूरी से जुडी थी. गाँव के लोग एक दूसरे को नाते रिश्तेदारियों के संबोधनों से जुड़े होकर भी एक दूसरे को मात देने में लगे हैं. कायस्थ विश्वनाथ प्रताप सिंह पिछड़ी जातियों के लोगों से चाचा, फूफा, मामा संबोधित होकर भी उनके हक़ मारने में लगे हैं. इधर हिन्दूवादियों का दल अपने गाँव में ऊंची जाति के बीच, राजपूतों ब्राह्मणों के बीच, राजपूत युवा हरगौरी के माध्यम से अपनी पैठ बनाने में लगा है. जाति और वर्ग की संरचनाओं में एक साथ जीने वाला यह गाँव तत्कालीन राजनीतिक घटनाक्रमों का एक छोटा नमूना भी है.

बिहार में पिछड़ी जातियां अंतरिम चुनावों के समय से ही अपना राजनीतिक प्रतिनिधित्व माँगने लगी थीं, लेकिन कांग्रेस ने उनके लिए अपना दरवाजा बंद कर रखा था. अपनी राजनीतिक जमीन तलाशती पिछड़ी जातियों के लिए एक बड़ा दवाब पैदा करने में त्रिवेणी संघ सफल हुआ, जो १९३३ में अपने गठन और १९४२ में अपने पतन के बीच पिछड़ों की बड़ी राजनीतिक चुनौती खड़ी करने में सफल हो गया था. कांग्रेस ने इसी दवाब में पिछड़ों को अपने साथ जोड़ना शुरू किया जबकि  प्रारम्भिक दौर का अनुभव पिछड़ी जाति के नेताओं के लिए कटु था, ‘’पहले ऐलान किया गया कि योग्य व्यक्तियों को लिया जायेगा. जब इन बेचारों ने योग्य व्यक्तियों को ढूँढना शुरू किया, तो कहा गया खद्दरधारी होना चाहिए. जब खद्दर धारी सामने लाये गये तो कहा गया कि जेल यात्रा कर चुका हो. जब ऐसे भी आने लगे तो किसी को झिड़क दिया जाता था, क्या वहां साग भंटा बोना है, तो किसी को कहा जाता कि क्या वहां भैंस दूहना है? तो किसी को व्यंग्य मारा जाता कि क्या वहां  भेड़ें चरानी है? तो किसी को फटकार दिया जाता कि क्या वहां नमक तेल तौलना है ?’’ (त्रिवेणी संघ का बिगुल, पेज 43)

प्रमुख राजनीतिक पार्टियों के केन्द्रीय स्तर का यह अनुभव छोटे छोटे जिला और ताल्लुका स्तर पर भी था. कालीचरण को यह अनुभव अपनी पार्टी में पहली बार पार्टी के जिला सेक्रेटरी एक और पदाधिकारी सैनिक जी की पत्नी के लिए खाना पहुंचाने का काम सौपते हैं, ‘सैनिक जी की पत्नी उसे उसकी जाति की याद दिला देती हैं, ‘अरे जानती नहीं हैं, ग्वाला साठ बरस तक ...सैनिक जी की स्त्री बोली. (मैला आँचल पेज 157)  यद्यपि सैनिक जी भी ग्वाला हैं लेकिन यह प्रसंग छोटेछोटे स्तर पर भी जाति आधारित हैसियत बताने का प्रसंग है.

बालदेव को भी कांग्रेस के दफ्तर में इस हैसियत से आंका जाता है तो बावनदास को पूर्णिया से पटना तक जाति का यह रोग साफ़ दिखता है: यह बीमारी ऊपर से आयी है. यह पटनियां रोग है..... अब तो और धूमधाम से फैलेगा. भूमिहार, राजपूत, कैथ, जादव, हरिजन सब लड़ रहे हैं... अगले चुनाव में तिगुना मेले चुने जाएंगे. किसका आदमी ज्यादे चुना जाएगी इसी की लड़ाई है.’ (मैला आंचल पृ. 290) गाँव में भी ऊंची जाति के लोगों के बीच बालदेव और कालीचरण को वह सम्मान हासिल नहीं है, जो उसकी जाति के लोगों के बीच उन्हें है. खेलावन यादव जरूर इन दोनों के माध्यम से अपने सपनों को साधना चाहते हैं, जिन्हें विश्वनाथ प्रसाद सिंह की तिकडमों के आगे खुद ही अपनी जमीन खो देनी पड़ती है. राजनीति का यह छोटा रूपक, जिला और प्रांतीय स्तर पर ज्यों का त्यों घटता रहा है बिहार की राजनीति में  कायस्थ, भूमिहार और ब्राहमण वर्चस्व का यह छोटा रूपक है, जो कम से कम 90तक चला. 90के बाद बिहार में यादवो और अन्य पिछड़ी जातियों का सत्ता में बना वर्चस्व मैला आँचल के खेलावन यादव के सपनों का साकार होने जैसा है, जो प्रांतीय स्तर पर कितने ही खेलावनों का सपना रहा है , पिछली शताब्दी के प्रारम्भ से, इसके लिए कितने ही कालीचरणों की बली चढी है.

उपन्यास में चलितर कर्मकार के बहाने भी तत्कालीन समय का एक बड़ा सत्य उद्घाटित हुआ है. कई जगहों पर भूख और हक़ की लडाई लड़ते हुए पिछड़ी दलित जनता खेतखलिहान लूट रही थी. कागज़ और पहुँच के धनी लोग जमीनों पर अपना कब्जा जमा रहे थे, तो अपने हक़ से मरहूम आम जन उसका प्रतिरोध सामूहिक रूप से मालिकों के खेत खलिहानों में धावा बोलकर कर रहे थे. चरितर कर्मकार जैसे रोबिन हुड इसी परिवेश की पैदाइश है, जबकि संथालों द्वारा तहसीलदार विश्वनाथ प्रसाद की खेत में लूट तत्कालीन सामूहिक प्रतिरोध का प्रतीक. मैला आँचल का चलित्तर असल में नक्षत्र मालाकार है. अंग्रेजी और देसी राज्य की फाइलों में ए नोटोरियस कम्युनिस्ट डकैतअथवा रोबिनहुडके रूप में चर्चित मालाकार प्रायः 50से हजार के दल में जमींदारों की कचहरी पर धावा बोलते और उनकी संपत्ति जब्त कर उसे गरीब रैयतों में बाँट देते. 28मई (50), को नक्षत्र मालाकार और लक्ष्मण ततवा के नेतृत्व में करीब 300लोगों के दल ने धोबा’, ‘रुपौलीगाँव के मेदनी कुमार की कामत लूट ली, जिसमे एक सौ मन अनाज भी शामिल था. २९ मई को उसने एक हजार ग्रामीणों को संगठित किया, घोड़े पर सवार होकर ढोल बज्जा बाजा , थाना नौगछिया की तीन अनाज की दुकानों को लूटा. अनाज की कीमत करीब ५० हजार रूपये थी. (एक्टिविटीज ऑफ़ दी कम्यूनिस्ट पार्टी इन बिहार पेज १४ ) अलग अलग जिलों में ग्रामीणों के द्वारा संगठित लूट की घटनाएं घट रही थीं. उस दौर में अकेले गया जिले में फसल काटने के 291मामले दर्ज हुए थे.

मैला आँचल न सिर्फ तत्कालीन राजनीतिक और जातीय सत्य को सामने रखता है बल्कि आगत भविष्य का खूनी संघर्ष  भी मैला आंचल के रचनाकाल में ही दिखता है, जो संथालों से होकर गांव के भीतर भी प्रवेश कर जाता है, और जिसके मिथकीय रहनुमा हैं चलितर कर्मकार या कालीचरण. परन्तु जातीय सत्य और सत्यता की तिकड़में इनसे एक-एक कर निपटती हैं- पहले संगठित समुदाय संथालों से और फिर उनके नेता कालीचरण और वासुदेव से. निपटने की प्रक्रिया में साथ देता है राज्य और उसकी मिशनरियां. एक-एक कर संथाल जेल में डाल दिये जाते हैं तथा बाद में कालीचरण जैसे नेता डकैती के आरोप में. गिरफ्तार तो डाक्टर प्रशान्त भी होते हैं, कम्युनिस्ट होने के शक में, परन्तु उनकी आजादी उपन्यासकार की (यद्यपि स्वनिर्मित) नैतिक मजबूरी भी है तथा वर्गीय सत्य भी. 

और अंत में

मैला आँचल का क्रूर यथार्थ यद्यपि एक कालखंड और एक कथा परिवेश का यथार्थ है, तथा उपन्यासकार की अपनी पक्षधरता भी पिछड़ों दलितों, वंचितों के साथ है, वह एक समाजशास्त्री और एक लेखक दोनो की दृष्टि से संपन्न रचनाकार हैं, फिर भी पिछड़ों के राजनीतिक दर्शन की कोई उपस्थिति यहाँ क्यों नहीं है? पिछड़ों की सारी सक्रियता अंत में बिखर क्यों जाती है मैला आँचल में ? क्यों मैला आँचल गांधीवादी ह्रदय परिवर्तनऔर परती परिकथा नेहरू के विकास संकल्प के दर्शन के साथ ख़त्म होते हैं ? रेणु स्वयं एक पिछड़ी जाति (धानुक) के परिवार में पैदा हुए थे, लेकिन पिछड़ों की पूरी की पूरी सत्ता, उनका स्वप्न मैला आँचल में बिखर जाता है खेलावन यादव फिर से भैंस चराने लगते हैं, अपनी १०० बीघे की जमीन गँवाकर, बालदेव भटक जाते हैं, कालीचरण अपनी नियति को प्राप्त होता है, वासुदेव आदि का नैतिक, चारित्रिक पतन हो जाता है शेष बचता है, जातिहीन प्रशांत का प्रक्रम और तिकड़मी विश्वनाथ प्रसाद का ह्रदय परिवर्तन. परती परिकथा में यही पिछड़ा समाज घोर कूपमंडूकता में ग्रस्त है, स्वपनजीवी पराक्रमी (पञ्चवर्षीय योजना के मार्ग में) नायक के चरित्र के आगे बौना है, उसके नेतृत्वकर्ता मुखर लोग तिकड़मी हैं.

उस दौर में लोहिया सक्रिय थे, डा. आम्बेडकर की ब्राह्मणवाद विरोधी राजनीति अपनी धार के साथ उपस्थित थी, लेकिन रेणु के यहाँ इनके दर्शन से संचालित कोई समाधान नहीं है. तो क्या रेणु बिहार में पिछड़ों के अपने संघर्ष से इतने अनभिज्ञ या निर्लिप्त थे, या उन्हें कोई आशा नहीं थी इस संघर्ष से ? ये कुछ सवाल हैं तो मैला आंचल के पिछडे पात्रों पर विचार करते हुए उभरते हैं.

क्या आम्बेडकर, लोहिया  रेणु के लिए अनजानी परिघटना थे या पिछड़ों की समस्याओं का समाधान उन्हें उनमें नहीं दिखता थाऐसे कुछ सवाल जरूर बनते हैं उपन्यास के इस पाठ के साथ.
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संजीव चन्दन 
सम्पादक: स्त्रीकाल, स्त्री का समय और सच
कथादेश, साक्षात्कार , समवेद, पाखी सहित कई पत्र - पत्रिकाओं में कहानियां, आलोचनात्मक निबंध और समसामयिक टिप्पणियाँ प्रकाशित
संपर्क : themarginalised@gmail/ 8130284314

सहजि सहजि गुन रमैं : पंकज पराशर

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सूजा की कृति

















पकंज पराशर का मैथिली में एक कविता –संग्रह प्रकाशित है. इसके साथ ही आलोचना और अनुवाद की कई किताबें प्रकाशित हैं, हिंदी में भी कविताएँ लिखते हैं. सत्ता का आतंक, अहंकार और अतिरेक इन कविताओं के विषय हैं. इस अरण्य में जो असहाय हैं, बेबस लाचार हैं कविता उनके साथ खड़ी है. जब कोई अन्याय के खिलाफ खड़ा होता है, सुंदर हो उठता है और सार्थक भी.



पंकज पराशर की कविताएँ               


दंतकथाओं में स्त्रियाँ

स्त्रियाँ घरों में थी जंगलों में थी
बड़े-बड़े महलों और बड़े-बड़े कोठों पर थी
कुछ कटी-कटी-सी कुछ सोलह सिंगार किए हुए
कुछ तरह-तरह की चीजें बनाती हुई रसोई में
जहां भी थी जैसी भी थी
कहीं-न-कहीं से निर्वासित थीं

कुछ प्रतीक्षारत थी कुछ अपने नरककुंड में
कुलबुलाती हुई कुछ अहल्या
और उर्मिला की तरह प्रतीक्षारत
कुछ यशोधरा की तरह प्रश्न करती हुई
पितृसत्ता के नक्कारखाने में महज तूती भर
जो स्वर्गाकांक्षी पुरुषों को जन्म देकर भी
कबीर-मुख से भुजंग को भी अंधा करने वाली उवाची गई 

उनके पास बातें बहुत थीं यादें बहुत
मगर ज़ुबान की जगह सिर्फ सहिष्णुता थी
और कुलीनता के सात पुश्तों का भार

उन्हें इंतज़ार था यादों की अशोक वाटिका में
सात वचन और सात फेरों का महज कर्मकांड
वह चाहे धर्मग्रंथ में बंद उर्मिला हो या
जीवन की क़ैद में घुटती हुई
कोई इरोम शर्मिला
जिनके हिस्से में हमेशा आया है
सत्ता का अहंकार  
और एक अंतहीन इंतज़ार.




देह

कितने दर्द कितनी चीख़ सहे देह ने
जिससे निकला यह कोमल स्त्री शिशु देह

देह ने देह से लगाया महीनों सालों
रात-रात भर जाग कर अधनींद में भी
देह से देह को मिलता रहा निरंतर पोषण

देह से निकला एक देह बना देव-पुरुष
और स्त्री देह सयानी होकर भी रही महज देह भर

देह से देह के अनंत काल चक्र में भटकती हुई
एक देह जो आग में जलकर सती हुई
मिट्टी में दबकर सीता पत्थर बनी हुई अहल्या रही

शत्रु कहीं बाहर से नहीं आया देह में ही था
जो संदेहों संसर्गों की आशंका मात्र से
अग्निपरीक्षाएं देता देहोत्सर्गी परंपरा में
महज देह ही रहा चंद सिक्कों की खनक के बीच.





चंदबरदाई

इतिहास में जब पृथ्वीराज चौहान होते हैं तो संयोगिता हो या न हो
चंदबरदाई अवश्य होते हैं
जिनकी उपमाएँ असंभवको भाषा-बाहर कर देती है

चौहानों का निशाना एक दिन चूक जाता है
एक दिन समाप्त हो जाता है उनका साम्राज्य
लेकिन चंदबरदाई फीनिक्स पक्षी-सा होता है
जो पैदा होता है हर बार
नई ऊर्जा और नई उपमाओं के साथ
जो ढूंढ लेता है कोई नई सत्ता 
कोई नया पृथ्वीराज

हर युग का अपना होता है मुहावरा
और अपनी भाषा
उपमाएं बदलती हैं नई-नई अतिशयोक्तियों में 
मगर चंदबरदाई कभी नहीं बदलता
कभी नहीं समाप्त होता उसका वंश
न अमिधा में
न व्यंजना में. 






सफल चुप्पी

तुम समझते हो कि चुप रहोगे तो सुरक्षित रहोगे
हर बात में हाँ-हाँ करोगे तो सफल रहोगे

यह सच है कि असहमतों को सत्ता सख्त नापसंद करती है
और चारणों-विदूषकों को करती है मालामाल
परलोक की कौन कहे इहलोक तो बन ही जाता है

एक शिशु जो गर्भ में विकसित होता
घर-भर के स्वप्नों में दाखिल हो चुका होता है
हत्यारी कटार से मार दिया जाता है
जबकि उसे यह तक मालूम न था
कि उसकी आवाज हत्यारों तक पहुँच चुकी है

छोटानागपुर से लेकर बस्तर और उदयगिरि के मूल निवासी
बेख़बर हैं कि दुनिया जंगल के बाहर
जहाँ दिन-रात योजनाएं बनती हैं उनकी दुनिया को उजाड़ने के
जिसे रोकने-टोकने और गुस्से में चीख़ने के बावजूद
वह बचा नहीं पाता
और तमाम दुनियाओं से बाहर निकाल दिया जाता है

वे जो सदियों से ताकत की दुनिया से बाहर रहे
भाषा से बाहर व्याकरण से निष्काषित
जिये जीवन-भर हाशिये पर मुँह पर ताला लगाए 
लेकिन पर मार दिए गए हत्यारों की कटार से

वे कभी नहीं रहे इस दुनिया में
कभी नहीं मांगा अपने लिए कोई योगक्षेम
सहते रहे दमन का अनंत चक्र
चुप्पी के प्रतिदान में
दया की भीख माँगते रहे इस दुनिया में
और मार दिए गए.




तारणहार

धर्म को उबारने सब आते हैं
मनुष्य को उबारने कोई नहीं आता

कोई चिल्लाता है-इस्लाम ख़तरे में
कोई हिंदुत्व पर संकट बताता है
संकट में जब-जब घिरता है मनुष्य
ज़ुबान को लकवा मार जाता है

एक बच्चा चिल्लाता है गर्भ से-
हमें त्रिशूलों से बचाओ
एक बच्ची जन्म से पहले ही माँगती है
जान की भीख अपने ही जनक से

मंदिर के लिए लाखों निकल आते हैं चंद घंटों में
मस्जिद के लिए कभी कमी नहीं पड़ती पैसों की
मनुष्य के लिए सभी बन जाते हैं मितव्ययिता के उपदेशक

धर्म की रक्षा में निकली हुई तलवारें
मनुष्यता की लहू से भी भोथरी नहीं पड़ती
न किसी चीख़ से हिचकिचाती है बाहर निकलने में

एक हाथ में पवित्र ग्रंथ लिए
निकल आते हैं असंख्य हाथ
जिनके पांवों के नीचे मनुष्य
और हाथ में होता है ख़ून-सना तलवार.





चाह

कभी घटे तो मिल जाए एक गिलास चावल
कभी थोड़े-से पैसे उधार
अगले दिन जब मिल जाए दिन की पूरी मजूरी
तो लौटा आता हूँ तुरत सबका बाकी-उधार

किसी दिन मिल जाए अगर दाल-भात-चोखा
और लाल मरिचा का अचार
तो इससे अधिक जीवन में
और क्या चाहिए महाराज?

न किसी उधो से कभी कुछ लिया
न कभी किसी माधो को कभी कुछ लौटाया
न कभी कुछ बड़ा देखा न कभी कुछ बड़ा सोचा
साँस तक ली हमेशा बहुत छोटी-छोटी 
फिर क्या बताऊँ गिरवी-रेहन और ड्योढ़ा-सवाया

मन में रही तो बस इत्ती-सी चाह
कि जब लौटूँ वैशाख की दोपहरी में
अपने ठीहे पर मिल जाए बस एक डली गुड़
और गगरा भर ठंडा पानी

किसी दिन मिल जाए यदि रात में
मिट्टी की खपड़ी में पकी गरम-गरम रोटी
और नोन-तेल साग
तो आधी रात तक विरहा गाते हुए
पुआल पर ही ढेर हो जाते हैं सरकार.

__________
संपर्कः
असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उ.प्र.)

सबद - भेद : विज्ञापन में स्त्रियाँ : राकेश बाजिया

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विज्ञापनों ने हमारे आस-पास अपनी चमकीली चुस्त दुनिया का एक घेरा बना लिया है. हम उसमें  चाहते न चाहते हुए भी रहते हैं. सुबह के अख़बार से शुरू होकर देर रात टी.वी. बंद होने तक हम इसके नागरिक हैं. हमारे वास्तविक समाज के बरक्स इस दुनिया में स्त्रियाँ पर्याप्त रूप से अपने को रेखांकित कर रही हैं.  इस लेख में इस छवि की देखा परखा गया है. क्या यह पारम्परिक छबियां ही हैं ? ऐसे ढेर सारे प्रश्नों से यह आलेख उलझता है. राकेश बाजिया इसी विषय पर शोध कार्य कर रहे हैं. 
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विज्ञापन में स्त्री छवि की पड़ताल            

राकेश बाजिया 


आज सर्वाधिक रचनात्मकता की आवश्यकता मीडिया में विज्ञापन के  क्षेत्र में होती है.  प्रतिस्पर्धा  के  इस दौर में बहुत  कम समय में उपभोक्ता के  मन पर गहरी छाप  छोड़ने की अपेक्षा विज्ञापन से की जाती है.  और विज्ञापन यह काम  बखूबी करता है.  आज विज्ञापनों में स्त्री की एक बहुत बड़ी भूमिका है.  भूमंडलीकरण के दौर में जहाँ  बाजार सीधा महिलाओं के जरिये उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनाता है.  ऐसे में देखने वाली बात यह है की इन विज्ञापनों में स्त्री की छवि को किस रूप में प्रसारित किया जा रहा है.  क्या स्त्रियाँ इनके माध्यम से अपनी परम्परागत छवियों से बाहर आ रही हैं ? या वास्तव में माँ ,पत्नी,और ग्रहिणी की परम्परागत छवि  इनके माध्यम से और पुख्ता हो रही हैएक तरफ जहाँ सामंती अवशेष बचे हुए हैं  वहां वाकई आज भी स्त्री का शोषण हो रहा हैवहीं वैश्वीकरण के दौर में जो स्त्रियाँ घरों से बाहर निकल कर काम कर रही हैं , जिन्हें सशक्त माना जा रहा हैसाथ ही दावे किये जा रहे हैं की वह बाजार को नचाने  का सामर्थ्य रखती हैभले ही लगता हो की बाजार उसे नचा रहा हैक्या वाकई  वो अपनी कीमत खुद तय कर पा रही हैं ? ब्रांड का प्रचार कर अधिकाधिक मुनाफे का लक्ष्य रखने वाले विज्ञापनों में क्या स्त्री छवि केवल बाहयप्रोडक्ट है ? यदि पुरुषों के उत्पादों से सम्बंधित विज्ञापनों में स्त्री की उपस्थिति नितांत अनिवार्य हैतो कितने ऐसे स्त्री उत्पादों  के विज्ञापन हैं जहाँ पुरुष की भी सहज उपस्थिति हो ? आज भी हमारा समाज पुरुषों की अभिरुचियों को ही प्राथमिकता देता है  क्यों ? ऐसे में विज्ञापन जो व्यक्ति के मन मस्तिष्क में सशक्त छाप छोड़ते हैं क्या स्त्रियों पर मनोवैज्ञानिक दबाव नहीं बनाते ?

हालाँकि मीडिया  पुरुष को भी नहीं बख्सता जरूरत पड़ने पर ये उसके भी कपडे उतरवाने में गुरेज नहीं करतावरना सर्वाधिक बिकने वाली चीज़ों में सेक्स और शाहरुख़ही क्यों होते ? आखिर किसी पुरुष का मजबूत (स्ट्रोंग) होना कहाँ तक जरूरी है ? यदि वास्तव में इसके लिए उसपर दबाव है तो क्या उसे भी इस "फेमिनिन"खेमे में नहीं आ जाना चाहिए ? क्यों सेक्स की शुरुआत मर्द ही कर सकता है ? औरत करे तो वह चरित्रहीन क्यों हो जाती है ? क्या बलात्कार का भयदिखाकर उसे घर में फिर से कैद करने की मंशा तो नहीं ?

यदि १९२०  के विज्ञापन पर नजर डाली जाये तो पता चलता है की उस समय उत्पाद से कहीं ज्यादा कंज्यूमर का महत्व होता था.  फिर चाहे वह चोकलेट का विज्ञापन हो या परफ्यूम का.  पर तभी अमेरिका में 'वार ओन फेटशुरू होता है,इससे पहले ढीले ढले कपडे पहने जाते थेये सेक्सी वाली इमेज तब नहीं थी. १९३० तक अमेरिकी विज्ञापनों का स्तर बहुत ठीक था क्योकि वह अपने क्न्ज्युमरों को खुश रखने का प्रयास हमेशा करता था पर धीरे-धीरे विज्ञापन का स्तर बहुत कुछ गिरने लगा.  और इसका कोई विरोध कंज्यूमर नें नहीं किया जिसके फलस्वरूप यह और गिरता चला गया.  १९४० में जब अमेरिका गृह युद्धों से जूझ रहा था,तब वहां स्त्रियाँ बिलकुल अलग ढंग से विज्ञापन में नज़र आनें लगीं थीं.  जहाँ उसकी छवियों में भी परस्पर विरोधाभास था.  एक तरफ वह मसालेदार जायकेदार खाने की बात कर रही थी तो दूसरी और देश कीजिसके लिए उसे खाने की कोई परवाह नहीं.  १९५० में ज्यादातर विज्ञापन दैनिक जीवन में उपयोगी वस्तुओं के आनें लगे और अधिकतर विज्ञापनों में स्त्री की पारम्परिक छवियों को दिखाया गया.  उसे कमजोर सीधी-साधी घरेलू स्त्री के रूप में प्रदर्शित किया गया हमारे यहाँ के हाजमोला आदि के पुराने विज्ञापनों में इन छवियों को देखा जा सकता है.  १९६० में औरतों के पास बहुत सरे सोंदर्य प्रसाधन विज्ञापनों के माध्यम से आने लगेऔर यही वह पायदान था जहाँ  से कंज्यूमर के शोषण की शुरुआत हुई. यहाँ उन्हें बताया जाने लगा की तुम्हें सेक्सी और ज्यादा सेक्सी दिखना है,इस दिखने की होड़ में देखते ही देखते घरेलू स्त्रियों की छवियाँ धीरे-धीरे गायब होने लगीं.  अब कंज्यूमर को सेक्स,पावर इन सब की और धकेला गया.  इसी धकमपेल में विज्ञापन करने वाली स्त्री खुद कब विज्ञापित होने लगी उसे पता ही नहीं चला. अन्डरगारमेंट से लेकर तमाम सोंदर्य प्रसाधनों की जैसे बाढ़ सी आ गयी.

१९७० के दौर में कंज्यूमर के सम्बन्ध में एक नयी चीज़ सामने आई की विभिन्न छवियों के बीच में जो सबसे महत्वपूर्ण छवि है वह है गोरी त्वचा और उसमें भी सफलता और कामुकता के मिले जुले रूप को तवज्जो दी गयी.  अपने यहाँ  के एक क्रीम के विज्ञापन में इसे हम देख सकते हैं जिसमे एक पिंक व्हाइट लड़की इसलिए छोड़ दी जाती हैक्योंकि वह व्हाइट नहीं है. क्रीम के इस्तेमाल से कुछ हुआ हो या नहीं पर लोगों की मानसिकता  में व्हाइट और पिंक व्हाइट का  फर्क जरूर  डाल  दिया गया है. यह  और बात है की  पिंक व्हाइट लड़की के किरदार में कोई और नहीं बल्कि विश्व सुंदरी रह चुकी एक भारतीय अभिनेत्री है.

१९८० के दौर में  स्त्रियाँ स्वतंत्र रूप से अकेली तो रहने लगीं,पर इस समय सुन्दरता औरत के लिए एक अर्हता बन गयी. जिस तरह आदमी को धन से आँका जाता था औरत को सुन्दरता से आँका जाने लगा. १९९० के आसपास समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत कुछ बदल गयी थी  ,जिसमे हर तरह की प्रतिभा रखने वाली स्त्रियाँ आगे थीं.  पर विज्ञापन जगत में अभी भी वही गोरी और पतली स्त्री  दिखाई दे रही थी. और तभी भारत एम. टीवी ,चेनल वी ,और वर्ल्ड वाइड वेब द्वारा दुनिया से जुड़ता है तो देखने वाली स्थिति बनती है ,स्वयं को लेंगिक रूप से तटस्थ बताने वाला बाज़ार इसके जरिये घर घर में पहुँच जाता हैऔर लोगों को बताता है की अगर आप डीओ नहीं लगाते तो आप आउटडेटेड हैं,आपको काला नहीं गोरा दिखना है. फलां  कम्पनी के जूते पहन कर आप कंही भी चढ़ सकते हैं,एक ड्रिंक पीकर आप वहां से वापस कूद सकते हैं,हैप्पी डेंट व्हाइट चबा कर आप अपनी बिजली का कनेक्सन कटवा सकते हैं.  इन सब के साथ  सामाजिक सन्देश देने वाले विज्ञापनों में ‘हम दो हमारे दो’ से शुरू हुआ परिवार नियोजन का मुहावरा ‘हम दो हमारे एक’  पर आकर एकाएक रुक जाता हैहो सकता है आज उसकी जरूरत ही नहीं रही हो क्योकि सबसे बड़ा बाजार जो यहाँ तैयार हो रहा हैआज बाजार के सबसे सॉफ्ट टारगेट स्त्रियाँ और बच्चे हैं.  जिनके जरिये वो सीधा उपभोक्ताओं को लक्ष्य बनता हैघर में सब कुछ स्त्री देखती है,साफ़-सफाई  के विज्ञापन में तो हम देखते हैं की पुरुष उसे बताता है की तुम फला साधारण डिटरजेंट या साबुन इस्तेमाल करती हो तुम्हे ये करना चाहिए, इस तरह पुरुष उसकी बुद्धिमता पर  भी सवाल उठाता  है.  आज जिस तरह की छवियाँ हमे दिखायीं जा रहीं हैं उनमें स्त्री बच्चों को सम्भालने के साथ पति की सेहत का ख्याल भी वह यह कहकर करती है 'आखिर मेरे दोनों बच्चों का ख्याल भी तो मुझे ही रखना पड़ता है'अब देखने वाली बात यह है की इससे कहीं स्त्री की माँ ,पत्नी और ग्रहिणी वाली छवि पुख्ता तो नहीं हो रही ?

भारत की विज्ञापन इंडस्ट्री  २०१६   दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी विज्ञापन इंडस्ट्री बनने जा रही है.  ऐसे कयास लगाये जा रहे हैं.  जापान ११.५ और चीन १४.७   के बाद  भारत का ५.७ बिलियन डॉलर का कारोबार होने का अनुमान है.  देखा जाये तो आज अम्बानी,आडवानी या अरमानी किसी का भी काम बिना विज्ञापन के नहीं चल सकता.  आज भारत में सभी भाषाओं के ७००  से अधिक टीवी चैनल हैं.  और विज्ञापन से सम्बंधित नियंत्रण के लिए एसोसिएसन  ऑफ़ एडवर्टईजिंग स्टैण्डर्ड काउन्सिल ऑफ़ इंडिया जैसी संस्था भी है.  साथ ही सी. सी. सी. ( कंज्यूमर कम्प्लेन कमेठी ) जैसी स्वतंत्र  संस्थाएं भी अस्तित्वमान  हैं.  

इतना सब होने के बावजूद भी आज विज्ञापनों में बहुत  बड़ी भूमिका निभाने वाली स्त्री के हितो की अनदेखी हो रही है.  उन्हें विज्ञापन के जरिये चाहे जैसे परोसा  जा रहा है.  गुड मोर्निंग से लेकर गुड नाईट तक हर किसी उत्पाद में वो है. यहाँ सहज रूप से उपरोक्त दूसरे प्रश्न से रूबरू होना पड़ेगा,  क्या मुनाफे के लिए सिर्फ बने विज्ञापनों में स्त्री - छवि केवल बाईप्रोडक्ट है ?  उसकी जूझती हुई छवि क्यूँ नहीं दिखाई देती हमेशा मिथ्या चेतना को ही क्यों प्रसारित किया जाता है ?

यदि पुरुषों के उत्पादों में उसकी उपस्थिति नितांत आवश्यक हैतो जाहिर है स्त्री के उत्पादों वाले विज्ञापनों में भी पुरुष की सहज उपस्थिति होनी चाहिए जो ढूँढने पर भी एक आधे  विज्ञापन में मिलती है वो भी पिता की छवि में गोण सी जहाँ-तहां. एक विज्ञापन लीजिये -आयुर्वेद के खजाने से ५००० साल पुराना निखार का फार्मूला निकालकर जब पिता बेटी को सौन्दर्य  प्रतिस्पर्धा के लिए भेजता हैतो हर कोई बोल उठता है - हाऊ  चेंज?ये है आयुर्वेद की शक्ति! ये बात और है की बेटी को आधुनिक दिखाने के लिए पिता को ५००० साल पीछे जाना पड़ा. 

कुछ पुरुष उत्पादों के विज्ञापनों में तो कामुकता का चरम है देखकर आभास  होता है जैसे  विवाह की कोई पुरुष निषेध परम्परा ( टूट्या ) का विजन हो वह भी खुले आम. नदी पर नहाने और कपडे धोने गयी स्त्रियों के बीच पुरुष के एक  अंडरवियर ने बवाल मचा रखा है क्योंकि'ये तो बड़ा टॉइंग  है'  अमूल माचो. गेट इट  राइट,गेट इट टाईट  जैसे सूत्र वाक्य बनाकर 18 अगेन बेचीं जा रही हैलोगों की मानसिक बुनावट में विज्ञापन कहीं  न कहीं काम करता है,और रोज़ रोज ये एक जैसी छवियाँ देखकर लोगों में जिस प्रकार की मानसिकता का निर्माण होता है उसका भुगतान अकेली स्त्री जाति  करती है जो कहाँ तक सही है?

वैसे विज्ञापन की दुनिया में स्त्री की यही एक छवि केवल नहीं है उसकी रचनात्मक छवि भी है जो हाल  ही में वीज़ा  डेबिट के स्कूल क्लोजर  वाले विज्ञापन में दिखाई देती है जहाँ राजस्थान के रेगिस्तान में स्त्री शिक्षा की बदतर हालत को देखकर एक जागरूक  महिला कार्यकर्ता परिधानों पर आखर बनवाकर सिद्ध करती है 'की लड़कियां  स्कूल नहीं जा सकती तो क्या हुआ स्कूल तो इनके पास आ सकता है '.

आज  बड़े पैमाने पर विज्ञापनों की पड़ताल यदि की जाये तो एक ख़ास तरह का ‘मर्दवादी नजरिया’ इनसे झांकता है.  दिन भर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों में बहुतेरे विज्ञापन सेक्स को एक खास एंगल  बनाकर प्रदर्शित करते नज़र आते हैं.  फिर चाहे  वह कार होकॉफ़ी हो या कोल्डड्रिंक . मेरे पास लड़की पटाने के दो-दो आइडियाज हैं 'जैसे संवादों के जरिये ऐसे  विज्ञापनों में साफ तोर पर दिखाया जाता है की लड़की पटाने के लिए मोबाईल  जरूरी है.  एक डियो  किसी भी रिश्ते को बनाने बिगाड़ने के लिए काफी हैआइसक्रीम और चोकलेट की आड़ में ऐसे कंडोमों के फ्लेवर बताये जाते हैं जो सोचने पर मजबूर करते हैं की ये रोकथाम के लिए हैं या यौन इच्छा बढ़ाने के लिए.  तिसपर मिडिया से जुड़े लोगों की  दलीलें होती हैं की उन्हें इसके लिए 90 सेकंड सिर्फ मिलते हैं यदि वे सामाजिक संदर्भों में जाने लगे तो उनका मॉल धरा रह जायेगा.  तो क्या वास्तव में विज्ञापन का काम सिर्फ बेचना है ? आज जिस तरह स्त्री को उत्पाद बनाकर विज्ञापन बेचे जा रहा हैक्या उसकी अस्मिता का ख्याल करना इनकी नैतिक जिमेदारी नहीं ?क्या विज्ञापन के बाज़ार का कोई सामाजिक संदर्भ नहीं होना चाहिए ?

यहीं  वाशिंग पावडर निरमा के विज्ञापन पर यदि हम नज़र डालें तो देखते हैं की उसमें दिखने वाली लड़कियां फंसी हुई एम्बुलैंस को निकल कर कीचड से सने कपड़ों में बाहर  आती हैं ,’ये महेश भट्ट की उतर आधुनिक अदाकाराएँ नहीं हैं , ये वे उतर आधुनिक लड़कियां हैं जो दिल्ली में किसी स्त्री के साथ गलत होने पर पूरे देश में एकजुट हो जाती हैं’और ये ही वे स्त्रियाँ हैं जो वास्तविक रूप में पारम्परिक छवियों से बाहर आ रहीं हैं.  

'आज  समाज में सभ्यता का स्तर इतना ऊँचा नहीं है जिसमें सभी पुरुष संयम के स्तर का निर्वाह कर सकें इस समय प्रस्तर काल से लेकर आधुनिक सोच तक सभी प्रकार के लोग समाज में एक साथ रह रहे हैं,यह सही है की सभ्यता किसी भी व्यक्ति की उन्मुक्त स्वतंत्रता पर अंकुश लगाती है लेकिन सभ्यता स्वयं का विकास भी तो नहीं कर सकती. 'पर यदि बनायीं गयी आधुनिक संस्थाएं आज की त्रुटियों को ठीक करने का प्रयास करेंगी ,यदि वे अपने दायित्वों पर खरा उतरेंगी और देखने वाला दर्शक अपनी प्रतिक्रिया खुद से आगे आकर दर्ज़ करवाएगा  तो हो सकता है भविष्य में कोई लक्ष्मण रेखा विज्ञापन में स्त्री छवियों को लेकर बने. जिससे स्त्रियों  की छवि  निर्धारित हो सके साथ ही वे तय कर सकें की दूसरों के विचारों के अनुरूप जाने की बजायउन्हें स्वयं की दृष्टि निरुपित करने की आवश्यकता आज है.
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राकेश बाजिया (जयपुर)
अंग्रेजी एवम विदेशी भाषा विश्वविद्यालय हैदराबाद में शोधार्थी
भूमंडलीकरण विषय पर शोध कार्य
09571690016

परिप्रेक्ष्य : अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह (पटना , २०१५)

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तीन दिवसीय ‘अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह’ पटना में कथाकारों, आलोचकों, श्रोताओं और दर्शकों का जमावड़ा लगा था. भूकम्प के झटकों के बीच सम्पन्न हुए इस समारोह के सभी सत्रों की रिपोटिंग की है युवा कथाकार सुशील कुमार भरद्वाज ने. 


रपट
भूकंप के झटकों के बीच संपन्न हुआ अखिल हिंदी कथा समारोह                            
सुशील कुमार भारद्वाज


साहित्य का सृजन दुःख और दर्द से ही शुरू होता है. उषा किरण खानने येबातें अखिल भारतीय हिंदी कथा समारोह के समापन में धन्यवाद ज्ञापन मेंकहा. वाकई में 25-27अप्रैल 2015तक चले कथा समारोह का उद्घाटन हीभूकंपों के जबरदस्त झटकों के बीच हुआ. परन्तु देश के विभिन्न कोने से आये20प्रसिद्ध साहित्यकार, समीक्षक एवं श्रोता बाहरी झटकों से बेपरवाह होपटना के तारामंडल सभागार में बह रहें विभिन्न भावों की कहानियों एवं उसपरहोने वाले टिप्पणियाँ में खोये रहें. कला, संस्कृति एवं युवा विभाग के मंत्री राम लषण राम रमण ने उद्घाटन भाषणमें फणीश्वर नाथ रेणु एवं प्रेमचंद की प्रासंगिकता की चर्चा करते हुएसाहित्यकारों का आह्वान किया कि वे ऐसी कहानी लिखें जिससे समाज मेंसमरसता बढे. उन्होंने कहा कि सृजन का कार्य समाज पर प्रतिकूल प्रभावडालने वाला न हो. प्रो राम वचन रायने समारोह की खासियत बताते हुए कहा कि यह अपने तरह काएक प्रयोग है. अब तक हुए कथा समारोह में सिर्फ कथा पर विचार विमर्श होताथा परन्तु इसमें कथाकार के साथ -साथ आलोचक भी हैं जो कि कथा पाठ पर अपनीटिपण्णी देंगें. कहानियों के विश्लेषण से पाठकों को समझने में आसानी होतीहै. विभागीय सचिव आनंद किशोर ने इस कथा समारोह को बिहार में आयोजित होने कापहला अवसर बतलाया.

उद्घाटन सत्र फणीश्वर नाथ रेणु सत्र में साहित्यकारगोविन्द मिश्रने ग्रामीण परिवेश में ही रची बसी कहानी फांसका पाठकिया. साथ ही इस कथा की समीक्षा करते हुए साहित्यकार रवि भूषण ने बतायाकी फणीश्वर नाथ रेणु ने अकेले ही उपन्यास के नकारात्मक छवि को तोड़ने मेंकामयाबी पायी. इस सत्र के अंत में उषा किरण खानकी कथा दूबधानकाकनुप्रिया ने सफल कथा मंचन किया.

26अप्रैल 2015के पहले सत्र रामवृक्ष बेनीपुरी सत्र में प्रसिद्धसाहित्यकार रवीन्द्र कालिया ने साम्प्रदायिकता के आवरण में लिखी कथागोरैयाका पाठ किया. कथा पाठ करने से पूर्व कालिया ने बताया कि प्रथमहिंदी कथा समारोह जैनेन्द्र कुमार को केंद्रित करते हुए 1965ई कोकोलकाता में आयोजित किया गया था. जिसमे जैनेन्द्र आदि के साथ वे भी उसकथा विमर्श का हिस्सा बने थे. दूसरे कथा समारोह के बारे में बताया कि यहभी कोलकाता में ही 1980ई में आयोजित किया गया था. उनके साथ इस बार कृष्णसोबती आदि की पीढ़ी मौजूद थी. लंबे अरसे के बाद अखिल भारतीय हिंदी कथासमारोह को एक नए रूप में आयोजित करने के लिए आयोजकों की उन्होंने सराहनाकी. हिंदीउर्दू के कथाकार जकिया मशहदीने पहचान की संकट, बालश्रम, और मजदूरतबके के  लोगों के सपने के बनने और टूटने की पृष्ठभूमि में रची कहानीछोटी रेखा बड़ी रेखाका पाठ किया. वहीँ चंद्र किशोर जायसवाल ने भोर कीकथा में गांवों की गरीबी के बदलते मायनों  को रेखांकित करने की कोशिशकी. सत्र के समीक्षक डॉ सत्यदेव त्रिपाठीने इन कहानियों पर अपनी बेबाकटिप्पणी रखी. उन्होंने कहा कि विभिन्न मौसमों के परिवेश में लिखी इनकहानियों में जहाँ गोरैया कहानी में कथाकार गोरैया पर हावी होकर उसकेसांप्रदायिक और धर्मनिरपेक्षता की बात रखते हैं. वही जकिया संवेदनाओ कोछोटी बड़ी करके सान्तवना देने की कोशिश करती हैं. जबकि जायसवाल भीषण ठंडवाली रात में रेलगाडी के चार सहयात्रियों के संवादों से गांवों में होरहे विकास कार्यों की चर्चा करते हैं.

राजा राधिका रमण सत्र में ममता कालिया, मिथिलेश्वर एवं सोमा बंदोपध्यायने  कहानी पाठ किया. ममता कालिया ने सुरक्षाकर्मियों की नयी जमात कीबेतरतीब होती जिंदगी पर आधारित कहानी सुकर्मी शेर सिंहका पाठ किया. जबकि कहानी पाठ से पहले अपने विचारों को व्यक्त करते हुए ममता कालिया नेबताया कि पटना में सबसे पहले 1970ई में शंकर दयाल सिंह ने एक छोटा साकथा समारोह आयोजित किया था. मिथिलेश्वर ने संवेदनहीन होते समाज कोकेंद्रित करते हुए बारिश की रातकहानी का पाठ किया. जबकि सोमाबंदोपध्यायने मनुष्य एवं प्रकृति के बीच बदलते रिश्ते को दिखने वाली कथासदी का शोकप्रस्तुत किया. सत्र के समीक्षक प्रो तरुण कुमारने कहा किसबसे बड़ी समस्या है कि हम अपने समय को नाम नहीं दे पा रहें हैं. नैतिकबुद्धि के आभाव में हमारा युवा उपापोह की जिंदगी जीने को विवश है. दिन के आखिरी सत्र मधुकर सिंह सत्र में हृषिकेश सुलभने नदीकहानी मेंदादी और नदी का  समाज और सभ्यता से गहरा रिश्ता बताते हुए समय के साथ होरहे परिवर्तन और उसके परिणाम को रेखांकित किया. रामधारी सिंह दिवाकर नेछोटे छोटे बड़े युद्धके जरिये समाज में सामंतवादी सोच के खिलाफ होरहे क्रांति से श्रोताओं को परिचित कराया. उर्मिला शिरीषने बदले हुएसंशयपूर्ण माहौल में अकेलेपन की त्रासद झेल रही माँ की कहानी को राग विरागमें रखा. सत्र के समीक्षक ज्योतिष जोशी ने साहित्य को साहित्य काही विकल्प बतलायाउन्होंने कहा कि साहित्य एक चेतना, विमर्श औरप्रतिरोध है. सत्र के अंत में मशहूर रंगकर्मी विभा रानीने संजीव के लिखेनौरंगी नटिनीका कथा मंचन किया.

27अप्रैल 2015को विन्दु सिन्हा सत्र नारी को समर्पित सत्र के रूप मेंदेखा गया. मुस्लिम संप्रदाय को आतंक के रूप में देखने के नजरिये से सहमीलड़की और माँ के समरूप अम्मी के माध्यम से एक विभेद को मिटाने की कोशिशकरती और साम्प्रदायिकता पर करारी चोट करती है अवधेश प्रीत की कहानीअम्मी”.  जबकि संतोष दीक्षित पहला चाटा, पहला प्यार, पहला पाठ, माँ केसाथ खेल, तथा माँ के हज़ार रूप जैसी छोटी छोटी कहानियों के सहारे माँ कीदुनियां की कहानीसुनाते हैं. जय श्री रॉय एक अलग जोनर की कहानीदुर्गंधप्रस्तुत करती हैं जो सुन्ना जैसी प्रथा की वजह से नरक बनतीमहिला के जिंदगी पर आधारित है. सत्र के समीक्षक राकेश बिहारी ने इनकहानियों पर अपनी सार्थक एवं सटीक टिप्पणी की.
सुहैल अजीमाबादी सत्र में साहित्यकार नासिरा शर्माने स्पष्ट शब्दों मेंकहा की कथाकार को सिर्फ कथाकार होना चाहिए न की महिला और दलित कथाकार. उन्होंने जीरो रोडउपन्यास के एक हिस्से का पाठ किया था. जबकि बलराम नेअवधी भाषा के संवादों से पूर्ण पारिवारिक रिश्तों पर हावी पूंजीवाद केविभिन्न आयामों को दर्शाती कथा उसका घरका पाठ किया. वहीं इंदु मौआर नेविस्थापन के दर्द और अपनी मिटटी और लोगों से लगाव को समेटे कहानी अपनादेशका पाठ किया. पद्माशा झाने रोमांटिक तत्वों से लबरेज बिखरते प्रेमविवाह पर केंद्रित कहानी मौल श्री बहुत याद आएगीसुनाया. समीक्षकखगेन्द्र ठाकुरके टिप्पणी के साथ सत्र समाप्त हुआ. इसी समय मंच परमज्कूर आलमके कथा संग्रह कबीर का मोहल्लाका लोकार्पण हुआ.

समारोह के अंतिम सत्र अनूप लाल मंडल सत्र में असगर वजाहतने व्यंगात्मककथा गिरफ्तका पाठ किया. वहीँ प्रेम कुमार मणिने प्रकृति और प्रशासनिकतंत्र के बहाने इमलियांको प्रस्तुत किया. जबकि अमानवीयता के बीच सुखदआकांक्षा की आस पर बुनी कथा खबरशिव दयाल ने सुनायी. समीक्षक अखिलेश नेटिप्पणी में बिहार को प्रतिरोध की धरती बताया. इस समारोह के समापन की घोषणा प्रो राम वचन रायने भूकंप पीड़ितों के लिएएक शोक प्रस्ताव एवं मौन के साथ की.
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sushilkumarbhardwaj8@gmail.com

सबद भेद : १९ वीं शताब्दी का भारतीय पुनर्जागरण : नामवर सिंह

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फोटो द्वारा अरुण देव 












व्याख्यान सुनने (यहाँ पढने) का फायदा यह है कि आप एक बैठकी में ही व्याख्याता के वर्षों के अध्ययन, शोध और निष्कर्षों से सामना कर पाते हैं. व्याख्यान अगर नामवर सिंह जैसे बहुपठित का हो और विषय भारतीय नवजागरण है तो व्याख्यान के समृद्ध कंटेंट और दिलचस्पी का आप अंदाज़ा लगा सकते हैं. यह व्याख्यान लगभग १० साल पहले राजकोट विश्वविद्यालय के अंग्रेजी एवं तुलनात्मक अध्ययन विभाग में 19 वीं शताब्दी के पुनर्जागरण विषय पर  दिया गया था, जो अंगरेजी में अनूदित होकर क्रिटिकल प्रैक्टिस में प्रकाशितहुआ. मूल हिंदी में अनुपलब्ध होने पर पंकज पराशर ने अंग्रेजी से इसे अनूदित किया है. अंग्रेजी से इसे हिंदी में अनूदित करते हुए नामवर सिंह की शैली की बनाए रखना अनुवादक ने लिए बड़ी चुनौती है. इस बेहतरीन कार्य  के लिए पंकज पराशर को बधाई दी जानी चाहिए. 

उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण :  यथार्थ या मिथक  
नामवर सिंह


(एक)
पिछले पच्चीस-तीस वर्षों से मैं इस पर सोचता रहा हूं और इस विषय पर कुछ खंड लिख भी चुका हूं. 19वीं सदी के गुजराती साहित्य में और विशेष रूप से नवलराम और गोवर्धनराम के लेखन में मेरी रूचि है. मगर दुर्भाग्य से गोवर्धनराम का सरस्वतीचंद्र हिंदी में उपलब्ध नहीं है. यहां मैं गोवर्धनरामके उस भाषण का खास तौर पर उल्लेख करना चाहता हूं, जो उन्होंने 1892 में विल्सन कॉलेज की लिटरेरी सोसाइटी में अंग्रेजी में दिया था. विषय था-क्लासिकल पोयट्स ऑफ गुजरात. नरसी मेहता, अखो और प्रेमानंद पर वहां उन्होंने भाषण दिया था. 17वीं शताब्दी के दो प्रसिद्ध कवियों प्रेमानंद और शामल भट्ट पर विशेष रूप से उन्होंने टीका प्रस्तुत की थी. मैं यह देखकर आश्चर्यचकित था कि केवल पचास वर्षों के अंतराल के बाद ही कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी ने अपनी किताब गुजराती साहित्य का इतिहास में उनके विचारों का खंडन किया. बाद में मनसुखलाल झावेरी ने अपने गुजराती साहित्य के इतिहास में इसकी ठीक विपरीत व्याख्या की. इस प्रकार शामल भट्ट का यह मूल्यांकन स्पष्ट रूप से तीन परिवर्तनों से गुजर चुका है.

गोवर्धनरामका काम मुझे यह सोचने के लिए विवश करता है कि कितनी खूबसूरती से उन्होंने 15वीं और 17वीं शताब्दी के साहित्यिक परंपराओं का निर्धारण किया. वे खुद भी 19वीं और 20वीं शताब्दी के बीच की कड़ी रहे हैं. उनका जन्म 1855 में हुआ था और मृत्यु 1907 में हुई थी. वे केवल सरस्वतीचंद्रके लेखक के रूप में ही नहीं, बल्कि एक विचारक के रूप में भी याद किये जाते हैं. जो लोग गुजराती भाषी नहीं, मेरी तरह हिंदी भाषी हैं, उनको ध्यान में रखकर मैं यहां 19वीं सदी के गुजराती लेखकों पर पड़े प्रभावों के संदर्भ में कुछ चर्चा करना चाहता हूं. गुजराती साहित्य की आज की यह यात्रा मेरे लिए भी बिल्कुल नई यात्रा होगी.

मैं बात उस प्रश्न से शुरू करना चाहता हूं, जो प्रश्नों की जननी है कि- प्रश्न क्या है?’क्या हम 19 सदी के साहित्य या रेनेसां जैसे शब्द पर ठीक से विचार-विमर्श करते हैं?समस्या तब उत्पन्न होती है, जब साहित्य का कोई विद्वान इतिहास और समाजविज्ञान पर विचार-विमर्श करता हैं. बहुत कम लोग आधुनिक भारत के इतिहास पर लिख रहे हैं. महाराष्ट्र, बंगाल और तमिलनाडु के इतिहासकार साहित्य की अपेक्षा आधुनिक भारतीय इतिहास के संदर्भ में अधिक सफल हैं. इसलिए आज फिर से हम एक ऐसी रंगभूमि में खड़े हैं जहां साहित्य के लोगों को अपनी जिम्मेदारी निभाने के लिए मजबूती से पैर जमाना होगा. इस विषय में जो कुछ लिखा गया है पहले उसका हमें गभीरता से अध्ययन करना चाहिए, फिर इस पर कुछ बात करनी चाहिए.

पहला सवाल यह है कि इस कालखंड को 19वीं शताब्दी कहने की शुरूआत कब हुई?क्या कभी हमने इस विषय पर सोचा है?कुछ समय पहले मैंने एरिक हॉब्सबाम की एक किताब पढ़ी थी जिसमें वे फ्रांसीसी क्रांति के बारे में प्रचलित कहानियों का वर्णन करते हैं और समाजवाद को चार हिस्सों में बांटते हैं. इन चार कालों को वे क्रमशः क्रांति युग, पूंजी युग, सम्राटों का युगऔर अंतिम 20वीं सदी को वे अतिरेकों का युगकहते हैं. हॉब्सबाम कहते हैं कि सन् 1900 में उन्नीसवीं शताब्दी समाप्त नहीं हुई, बल्कि प्रथम विश्वयुद्ध के बाद वर्ष 1919 में 19वीं शताब्दी का अंत हुआ. इसी तरह 20वीं शताब्दी 1999 में समाप्त नहीं हुई. इसका क्या मतलब हुआ?यहां मैं भारतीय संदर्भ में कुछ बातें आपके सामने रखता हूं. हमारी 19वीं शताब्दी की शुरुआत कब हुई, सन् 1800 में या 1857 में?दूसरी बात, क्या हमारी 19वीं शताब्दी का अंत 1900 में या 1920 में लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद हुआ जब गांधीजी राजनीतिक परिदृश्य में आए? 19वीं शताब्दी के प्रारंभ और अंत को यदि हम गौर से देखें, तो पाएंगे कि इसी समय से हमारे देश का इतिहास नये सिरे से दिखाई देने लगता है.

एक इतिहासकार जब इस दौर को देखेगा तो वह सबसे पहले उस दौरान हुए मुख्य परिवर्तनों को देखेगा और तब कुछ कहेगा. इसलिए साहित्यिक वाद-विवाद पर बात करने से पहले हमें उपर्युक्त प्रश्नों के ऊपर विचार कर लेना चाहिए. जैसे 19वींशताब्दी वस्तुतः कब शुरु हुई?हिंदी साहित्य में 19वीं शताब्दी सन् 1800 से शुरू नहीं होती है. इसलिए गुजराती के विद्यार्थियों को भी खुद निर्णय लेने दिया जाए कि उनके यहां 19वीं शताब्दी कब से शुरू हुई?वास्तव में हिंदी में 19वीं शताब्दी की शुरूआत 1857 के बाद मानी जाती है. 1850 में भारतेंदु का जन्म हुआ. 1857 के ठीक बाद से उन्होंने लिखना शुरू किया. 19वीं शताब्दी के विकास तक मैथिलीशरण गुप्त अपना भारत-भारती पूरा कर चुके थे. यद्यपि यह खड़ी बोली में लिखी गई थी और इसका अंत 1917-18 के आसपास हुआ, जब छायावादी कवि और प्रेमचंद साहित्य के ऊंचे शिखर पर पहुंचे. गुजराती साहित्य के अध्येता 20वीं शताब्दी का प्रारंभ 1900 के अंत में निर्धारण करते हैं. मैं समझता हूं कि 20वीं शताब्दी के गुजराती साहित्य का वह सुधार युग था, जो इस युग में अधिक विकसित हुआ. इससे यह स्पष्ट होता है कि 20वीं शताब्दी वर्ष 1900 के बाद शुरू होती है.

अब बचा यह प्रश्न के उस दौर के साहित्य क्या नाम दें?क्या हम इसे रेनेसां कहेंगे?अंग्रेजी के अध्यापक जानते हैं कि अंग्रेजी साहित्य में रेनेसां पर विचार-विमर्श स्टीफेन ग्रीनबेल्टके लेख के बाद शुरू हुआ. नये इतिहासवाद में ग्रीनबेल्ट कहते हैं कि क्या सभ्य बनाने की परंपरा रेनेसां के बाद शेक्सपीयर के समय में शुरू हुई थी?क्या आपको रेनेसां शब्द हिस्ट्री ऑफ इंग्लिश लिटरेचर में मिलता है?इसके लिए हमें लगोइस और केजेमियां के विश्वसनीय हिस्ट्री ऑफ इंग्लिश लिटरेचर को देखना चाहिए. इंग्लैंड में सुधार शब्द ने अपना स्थान प्राप्त कर लिया, लेकिन पुनर्जागरणको सदैव इटालियन पुनर्जागरणमाना गया. फ्रेंच रेनेसां की तरह वहां ऐसी कोई चीज नहीं है. इसलिए रेनेसां ऐसा कोई सार्वभौम विचार नहीं है जिसे आसानी से ग्रहण किया जा सके. जब विश्व साहित्य से संबंधित इतिहास लिखा गया, तो इटालियन रेनेसां उपयुक्त शब्द रहा होगा. यह शब्द दंतकथाओं के युग में उपयुक्त रहा. जैकब बर्चर्डद्वारा रेनेसां की संस्कृति और सभ्यता लिखने के बाद जर्मन लोगों ने इसे इटालियन रेनेसां की तरह संवारा. कभी-कभी ऐसा होता है कि बच्चा पहले पैदा हो जाता है और जन्म-संस्कार जन्म के लंबे समय बाद होता है. उन दिनों इटली में जो कुछ हुआ उसे इटालियन जागरण की तरह नहीं जाना गया. जैकब बर्चर्ड के पहले किसी ने इस नाम से नहीं पुकारा था. 19वीं शताब्दी में उन्हें इसे रेनेसां कहना पड़ा, क्योंकि जर्मन ज्ञान पहले से स्थान ग्रहण कर चुका था और दोनों के बीच एक अंतर मौजूद था. 14वीं शताब्दी में इटली में क्या हुआ और कांट तथा हीगेल के समय जो कुछ हुआ, उन दोनों में बहुत अंतर था. इसलिए पहले वाले को तो रेनेसां कहा गया और बाद वाले को ज्ञान.

रेनेसां के दो अर्थ हैं. अंग्रेजी में एक अर्थ है और फ्रेंच में दूसरा. इन दोनों शब्दों की उत्पत्ति के दो स्थान होने चाहिए, क्योंकि रेनेसां इंग्लैंड में नहीं हुआ. हेनरी अष्टम ने इंग्लैंड को ईसाईयों से पृथक बताया और इस प्रकार रेनेसां का मार्ग प्रशस्त किया. तब जाकर शेक्सपीयर आए. इसलिए मैं अनुरोध करूंगा कि हमारे विद्वान पहले अंग्रेजी का इतिहास पढ़ें, तब हमें हमारा इतिहास बताएं. तथ्य यह है कि जागरण एक सार्वभौम नाम नहीं है.

रेनेसां शब्द अमेरिका में कब पैदा हुआ ?यह 1776 में अमेरिका को स्वतंत्रता मिलने के बाद अस्तित्व में आया. जेफर्सन के समय में जब बोस्टन टी पार्टी हुई थी, वही अमेरिकी जागरण का समय है. अब अगला सवाल यह है कि क्या रेनेसां चीन में हुआ था?क्या यह कभी रूस में हुआ था?चीनी लोगों का विश्वास है कि रेनेसां चींग राजवंश के काल में हुआ, जब वहां मई की चौथी क्रांति हुई.  यह यहयहयययरररररयहररररयह सनयात सेन के समय हुआ, मगर चीन इसके पीछे इतिहास में नहीं जाता, क्योंकि वहां इसका प्रवेश ही देर से हुआ. जापान में रेनेसां मैची के समय शुरू हुआ. जहां यह कायदे से चीन से पहले शुरू हुआ. इसलिए हम बेकार में इस पर वक्त जाया न करें, क्योंकि रेनेसां एक प्रक्रिया है. बंगाली, हिंदी, गुजराती या मराठी में इसे क्या कहा गया यह महत्वपूर्ण नहीं है. मराठी में यह प्रबोधन काल के रूप में जाना जाता है, परंतु इसका अर्थ जागरण है.

दूसरा विंदु जिसे मैं उठाना चाहता हूं, वह मात्र नामकरण की समस्या नहीं है. यह राष्ट्रीय या क्षेत्रीय विचारों पर पर निर्भर करता है. अलग-अलग जातियों और सभ्यता से संबंधित होने के कारण लोगों ने इसको विभिन्न नामों से अभिहित किया. मेरा विश्वास है कि संपूर्ण समस्या का संबंध इसके प्रत्यक्ष होने से है. क्योंकि, एडवर्ड सईदने कहा कि यह एशियावासियों का मृत्यु पत्र द्वारा प्राप्त धन था. जब पाश्चात्य विद्वानों ने पुरातन सभ्यता का अध्ययन किया तो भारत उनमें से एक था. उन लोगों ने अपने विचारों का प्रभाव हमारे ऊपर डालने का प्रयास किया, क्योंकि वे पूरे मानव इतिहास को अपने हाथों में जकड़कर प्रभावी होना चाहते थे, जिसे उन्होंने ज्ञान की शक्तिके नाम से पुकारा और इस प्रयत्न का सबसे अधिक मनोरंजक उदाहरण स्वयं रेनेसां नाम था. इसका प्रयोग सबसे पहले बंगाल में अंग्रेजी लेखन में हुआ और ऐसा कहा जाता है कि इसका प्रयोग सबसे पहले एक अंग्रेज अलेक्जेंडर डेफ ने किया. बाद में राजा राममोहन राय ने इसे स्वीकार कर लिया. इसके बाद बंगाल के लोग इस शब्द का प्रयोग करने लगे.

ईस्ट इंडिया कंपनी का केंद्र कलकत्ता था. इसलिए कलकत्ता भारत की प्रथम संघीय राजधानी हुई. औपनिवेशीकरण का सर्वाधिक प्रभाव बंगाल में था और पुनः बंगाल ही इसको रोकने के लिए मजबूत प्रयास करने का गवाह भी बना. केवल बंगाल में ही बंकिमऔर रवींद्रनाथहो सके. रेनेसां शब्द बंगाली भद्रलोक द्वारा औपनिवेशिक प्रभाव के अंतर्गत आए हुए शब्द के रूप में ग्रहण किया गया. यह औपनिवेशिक विचार उस समय तक मस्तिष्क में बना रहा और किसी ने इस पर नहीं सोचा. फिर लोग भूल गए, जैसे कोई मरने के बाद भुला दिया जाता है. इसका सबसे ताजा और नया उदाहरण है दीपेश चक्रवर्ती की किताब प्रोविंसियल योरोप. बंगाल के बारे में यह काफी परिश्रमपूर्वक लिखी गई किताब है. मुझे यह किताब पसंद आई. प्रोविंसियल योरोप में जो अर्थ सन्निहित है, वह ये कि विश्व की सभी प्राचीन सभ्यताओं में भारत की सभ्यता सबसे पुरानी सभ्यता है. हड़प्पा की सभ्यता भारत में ही फली-फूली. विश्व की पहली पुस्तक ऋगवेदभारत में ही लिखी गई. इसलिए भारत इसका केंद्र हो सकता था. चीन और पश्चिम एशिया भी इसका केंद्र हो सकता था, लेकिन आधुनिक समय में इसका केंद्र न तो भारत है और न चीन. विकासऔर गतिशास्त्रका केंद्र योरोप है, इसलिए सभी देशों को योरोप के अनुसार चलना पड़ेगा.

औपनिवेशिक विचार क्या है?अभी इस उत्तर औपनिवेशिक समय में बंगाली भद्रलोक पूरी तरह से यूरो-एशियाई हो गये हैं. वह बंकिमऔर रवींद्रनाथको पूरी तरह भूल चुके हैं. यह संगोष्ठी भारतीय भाषाओं, जैसे गुजराती और हिंदी की जागृति के विषय में नये सिरे से विचार करने का एक प्रयास है. 19वीं शताब्दी के बारे में मैंने जो कुछ सोचा है उस पर पहले जरा विचार कर लें. यदि यह जागरण है, तो वह क्या है जो कबीरऔर नामदेवके समय हुआ था?इटली की तरह उसी समय स्पष्ट रूप से हमारे देश में भी जागृति फैली. यह बात मैं इटली के साथ समानता का दावा करने के लिए नहीं कह रहा हूं, लेकिन तथ्य यह है कि आधुनिक भारतीय भाषाएं दसवीं –ग्यारहवीं शताब्दी से ही जन्म लेने लगी थी. प्राकृत पहले ही अस्तित्व में थी. संस्कृत की संस्कृति अपनी अवनति के दौर से गुजर रही थी और यह वह समय था जब जनभाषा साहित्यिक भाषाओं की ओर उन्मुख हो रही थी. जैसे गुजराती, हिंदी, मराठी, बंगाली आदि.

उन दिनों आर्थिक हालत बेहद खराब थी. विद्वानों, पंडितों और रियासती राजाओं के बुरे दिन आ गए थे. इस युग के बाद एक नया वास्तुशिल्प, संगीत का एक नया ढंग जो हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीतकहलाया, की शुरुआत हुई. ध्रुपदका स्थान खयालगायकी ने ले लिया. यह एक परिवर्तन था, जिसके परिणामस्वरूप संस्कृति मध्य एशिया का संगम हो गई. घर के दरवाजे कलात्मक होने लगे. इमारतों में गुंबद बनने लगे. रंग-रोगन में परिवर्तन हुआ. वास्तुशिल्प में बिल्कुल नये तरीके से बदलाव होने लगा. अगर अजंता और एलोरा की पेंटिंग देखें और उसकी तुलना छोटे चित्रों से करें, तो एक बड़ा फर्क दिखाई देगा. साहित्य का ढंग भी परिवर्तित हुआ. प्रांतीय कहानियों का मुख्य केंद्र प्रेम था, जिसके प्रभाव से नई परंपरा के अनुसार प्रेमाख्यान हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में लिखा जाने लगा. ध्यान से देखें तो इश्क,श्रृंगाररस के समान नहीं है. इश्कएक नया दर्शन था-सूफी-संतों और स्वदेशी परंपरा के समझौते के फलस्वरूप यह क्रांतिकारी विचार विकसित हुआ. यह श्रीमदभागवतगीताकी भक्ति गीता में नहीं मिलता है. यद्यपि गीता में भक्ति योग है फिर भी इश्क का यह रूप भागवत् की भक्ति गीता में नहीं मिलता. मीरा की भक्ति आर्याशप्तसतीया गाथाशप्तसतीदोनों में नहीं पायी जाती है. इसलिए संगीत की नई शैली, वास्तुशिल्प, पेंटिग और साहित्य में साथ-साथ- एक नयी संस्कृति विकसिति हुई. जिन लोगों ने इसे संभव बनाया वे निम्न श्रेणी के लोग थे. नाई, धोबी, दर्जी इत्यादि. ये लोग हिंदू और मुस्लिम दोनों की नजर में निम्न श्रेणी के थे. इसलिए शिल्पकार, मजदूर और किसानों का एक समूह सामने आया, जिन लोगों ने भारत को एक नया स्वरूप दिया.

यह साधारण लोगों का जागरण इटली के जागरण से कहीं अधिक महान था. ये धनी और शक्तिशाली लोगों द्वारा नहीं चलाया गया, बल्कि मजदूर वर्ग के लोगों ने यह अनोखा कार्य किया. विश्व-साहित्य में यह पहला आश्चर्यजनक प्रभाव था. इसलिए मैं इसे पुनर्जन्म या जागरण कह रहा हूं. यह वह युग है जब संस्कृति, दर्शन और उपनिषद पर चर्चा की गई. पहली बार उपनिषद, ब्रह्म समाज के सदस्यों द्वारा पुनर्जीवित नहीं हुआ था. सच तो यह है कि शंकराचार्यके बाद रामानुजने इस क्रांति को नई दिशा दी थी. उन्होंने मंदिरों के शिखर पर लिखे मंत्रों को आम लोगों के लिए प्रकाशित किया. यह सब उन्होंने कुछ विशेष लोगों के लिए नहीं किया था. इसी युग में वल्लभाचार्यऔर विशिष्टाद्वैतवादसामने आया. यह रेनेसां उन लोगों ने लाया, जो प्राचीन परंपरा का सम्मान करते थे. वे आज के दलितों की तरह नहीं थे, जो ब्राह्मण की बुराई करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि ऐसा करके वे सामाजिक क्रांति ले आएंगे.


(दो)
दक्षिण में भक्ति आंदोलन शुरू हो चुका था. आलवारऔर नमनारने इसकी शुरूआत की थी. जिसमें शैवऔर वैष्णवदोनों मतों के लोग शामिल थे. निर्गुणवादियों का एक पृथक समूह भी था, इसलिए बौद्ध-युग के बाद हमारी सभ्यता में एक बड़ा परिवर्तन हुआ. इतिहासकारों ने इस सामाजिक परिवर्तन को रेखांकित किया है. वास्तव में 13वीं -14वीं शताब्दी में क्या हुआ?डॉ. रामविलासशर्मा ने अपनी आलोचना में उल्लेख किया है कि उसी दौर में हिंदी में एक नया जागरण पैदा हुआ. बकौल डॉ. शर्मा, आधे दर्जन से अधिक सुधार हुए. वह प्रत्येक घटना को एक रेनेसां का नाम देते हैं. क्या कोई अपनी बेटियों का नाम इस तरह रखता है कि पहली पुत्री का नाम सावित्री नं.1 और दूसरी का सावित्री नं.2 हो? यह इंग्लैंड में एक परंपरा हो सकती है, जहां हेनरी-I, हेनरी-IIऔर हेनरी-VIII होते हैं. हम उनकी नकल क्यों करें?केवल एक ही रेनेसां या पुनर्जन्म ने यह स्थान लिया है और वह रेनेसां 13वीं-14वीं शताब्दी का था. जो कुछ बाद में हुआ उसे हमें दूसरा नाम देना पड़ा. अब यह आप पर निर्भर करता है कि मेरे इस विचार से आप सहमत हैं या नहीं हैं, और यदि आप इस ओर जाने के लिए सहमत हैं तो इसे खोजिये और सुधारने की कोशिश कीजिये.

अब हम यह समझने का प्रयत्न करें कि वास्तव में 19वीं शताब्दी में क्या हुआ. 1893 में बांग्ला साहित्य परिषद्का गठन हुआ और बंगला जातीय साहित्यपर पहला भाषण रवीन्द्रनाथठाकुर ने दिया. जो बाद में उनके निबंध संग्रह के रूप में छपा. रवींद्रनाथ ठाकुर ने लक्षित किया कि 19वीं शताब्दी में हमारी संस्कृति का संबंध अतीत से अलग हो गया है. हम फिर भी अतीत के बारे में बात करते हैं, जो सांसारिक अधिक है. यह बिना अभिप्राय के एक मृत संस्कृति बन चुकी है. यह हमारी धमनियों, नसों में नहीं बहती और न हमारे हृदय तक पहुंचती है. इसका संबंध टूट चुका है, हमारे बंधन अलग हो गए हैं. आखिर कैसे और क्यों हमारा संबंध टूटा?हमें इस प्रश्न पर गंभीरतापूर्वक विचार करना चाहिए. इसके कारणों के खोजने के लिए कहीं दूर जाने की जरूरत नहीं है.

19वीं शताब्दी के लोग नहीं जानते थे कि एक राजा अशोकथा, जिसने अपने शासन काल में खंभों पर कुछ अंकित करवाया था. जेम्स प्रिंसेप-Iने अशोक द्वारा खुदवाए गए अक्षरों को स्पष्ट करने का प्रयत्न किया और ऐसे विद्वानों की खोज आरंभ की, जो इस नेक काम में उनकी सहायता कर सके. लेकिन भारत में कोई ऐसा पंडित उन्हें नहीं मिला. लोग ब्राह्मीलिपि को भूल चुके थे. इसी काल में बहुत-सी जगहों की खुदाई आरंभ हुई. हम इतने अनभिज्ञ थे कि हड़प्पा के बारे में भी कुछ नहीं जानते थे. सायण के बाद किसी ने वेद पर टीका लिखने के बारे में नहीं सोचा. बाद में दयानंदने कुछ लिखा. उपनिषद या स्मृत्ति पर इस लंबे अंतराल में क्या आपने किसी का लिखा कुछ देखा या सुना है?हम अपने बीते हुए पांच-छह सौ सालों की पैतृक संपत्ति को भूल चुके थे.

रवींद्रनाथ ठाकुर ने बहुत उचित बात कही कि हमें अपने अतीत को स्थापित करना चाहिए. तब मैंने इस तथ्य पर विश्वास किया कि यह वही समय था जब अभिज्ञानशाकुंतलम्पहली बार आधुनिक भारतीय भाषा में अनूदित होकर आया. सन् 1855-56 के आसपास इस कृति का हिंदी में अनुवाद हुआ. गोविंदचंद्रपांडेय के मुताबिक अभिज्ञानशाकुंतलम्का मराठी अनुवाद बाद में हुआ. हस्तलिखित प्रति तो उपलब्ध नहीं थी. भारतेंदुहरिश्चंद्र ने इसकी हस्तलिपि की नकल ईश्वरचंद्रविद्यासागर को दे दी. जिन्होंने बाद में इसे बांग्ला में रूपांतरित किया. आप जानना चाहेंगे कि मैंने खास तौर पर शकुंतला पर ही क्यों ध्यान दिया?उस समय लोगों को यह बताया गया कि शकुंतला एक रूपकहै. वह खोयी हुई स्मृत्तिकी कोई कहानी है. सच तो यह है कि भारत भी अपनी स्मृत्ति खो चुका था. भारत भी कुछ-कुछ दुष्यंत की ही तरह है. यह विचित्र बात है कि दुर्वासा शाप तो शकुंतला को देते हैं, लेकिन शापग्रस्त दुष्यंत होता है. दुर्वासा ने उसे शाप दिया था कि तुम जिसकी स्मृत्ति में खोई हो और अपने अतिथि का सत्कार नहीं कर रही हो, तुम्हे वही भूल जाएगा. अभिज्ञानशाकुंतलम् में अपनी याददाश्त खोने के ग़म में राजा दुष्यंत कहते हैः

गच्छति पुरः शरीरं धावति पश्चाद्संस्थितं चेतः.
चीनांशुकमिव केतोः प्रतिवातं नीयमानस्य..

आश्रम से रथ पर चढ़कर जाते समय उसके ऊपर का ध्वज हवा में पीछे लहरा रहा है. राजा कहते हैं शरीर तो आगे जा रहा है, लेकिन हवा में पीछे लहराते झंडे की मानिंद मेरा मन पीछे छूटा जा रहा है.

ब्रिटिश शासन काल में भारत भी आगे बढ़ रहा था, लेकिन उसका हृदय उसके अतीत में कहीं पीछे छूटा जा रहा था. शकुंतला जब पंचम दृश्य में मिलने आती है तो कालिदास लिखते हैः

रम्याणि वीक्ष्य मधुरांश्च निशम्य शब्दान्
पर्युत्सुकीभवति यत्सुखितोपि जंतुः.
तच्चेतसा स्मरति नूनमबोधपूर्व
भावस्थिराणि जननांतरसौहृदानि..

यह जननांतर सौहृदानिअभिनवगुप्त द्वारा रस के आधार पर बना है. 19वीं शताब्दी में भारत स्मृत्ति-भ्रंश के दौर से गुजर रहा था. शकुंतला स्मृत्तियों की कहानी है, यह विस्मृत परंतु महत्वपूर्ण तथ्य है कि इस लंबे अंतराल में कालिदास के साहित्य को हमने विस्मृत कर दिया था. ऐसा क्यों है कि 19वीं शताब्दी से पहले लोगों की कालिदास में कभी कोई रुचि नहीं जगी?मैं नहीं समझता हूं कि रामचरितमानसमें तुलसीदास कहीं से भी कालिदास से परिचित लगते हैं. नानकऔर कबीरभी कालिदास को नहीं जानते थे. कालिदास ने क्यों इस युग में अपनी ओर लोगों का ध्यान इतना आकर्षित किया?इसलिए हमें नवजागरण, प्रबोधन, सुधारया किसने समाज सुधार किया?’- ऐसे प्रश्नों पर अधिक ध्यानपूर्वक और लंबे समय तक विचार नहीं करना चाहिए? क्या इस पर भी पुनर्विचार नहीं करना चाहिए कि किसने विधवा विवाहको प्रश्रय देने का निर्णय लिया?इस पर विचार इतिहासकार और समाजशास्त्री करें, परंतु साहित्यिक लोगों को क्या यह देखने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि कहानी, उपन्यास, नाटक और कविता में क्या-क्या परिवर्तन हुए?किसी घटना का प्रभाव उस समय के लेखकों की बुद्धि और चेतना पर कैसा पड़ा?सौंदर्यशास्त्रमें क्या-क्या बदलाव आए?  हमें इन चीजों पर अधिक गौर करना चाहिए. इतिहासकारों को ग्रंथरक्षागृहके सहयोग से शोध करना चाहिए. वे सुधारों और जातीयता के विषय में लिखेंगे. उन्हें विवेकानंद और दयानंद के विषय में अपने विचारों को प्रकट करना चाहिए. हमारी रुचि लेखकों और उनके कार्यों से संबंधित होना चाहिए. हम देखने का प्रयत्न करेंगे कि उनकी बुद्धि और चेतना में क्या परिवर्तन आया और तब हमें देखना चाहिए कि अंग्रेजीऔर अन्य उत्प्रेरकों की क्या भूमिका थी.


अंग्रेजी साहित्य का लगाव हिंदी के साथ बेहद रोचक है. उन दिनों शेक्सपीयर का मर्चेंट ऑफ वेनिसबहुत प्रसिद्ध था. इसका अनुवाद भी हुआ, लेकिन उस समय तक किसी ने किंगलियरया हैमलेटनहीं पढ़ा था. मैकबेथमुख्य था. ये सारे अनुवाद अपरिपक्व और बेस्वाद थे. तत्कालीन अनुवादकों को इससे अधिक और कुछ नहीं मिला. वास्तव में जो अंग्रेज यहां आए थे, वे शेक्सपीयर को भारत लेकर नहीं आए. डिस्कवरी ऑफ इंडियामें नेहरू जी ने लिखा है कि भारत में अंग्रेज दो रूपों में आए. एक ईस्ट इंडिया कंपनीके रूप में और दूसरेशेक्सपीयरके रूप में. नेहरू का यह विचार बहुत दुर्भाग्यपूर्ण है और अपने देश को शत्रुओं के हाथ में बेचने जैसा है. यह दर्शाता है कि उनका इतिहास का ज्ञान कितना उथला था. वे जो कह रहे हैं वह बिल्कुल तथ्यों से परे है. शेक्सपीयर को भारत कौन लेकर आया?शेक्सपीयर के पहले किये गये अनुवादों और बच्चन तथा दूसरे लोगों द्वारा किये गये अनुवादों के बीच भिन्नताओं का एक संसार है. अंग्रेजी के अस्सी वर्षों के अध्ययन के बाद अंग्रेजी के विद्वान पैदा हुए और उन्होंने शेक्सपीयर को एक अलग रूप में जानने का प्रयास किया. विक्टोरियन इंग्लैंड वाले हमारे ऊपर विक्टोरियन नैतिकता डालने चाहते थे. वे अंग्रेजी कविताओं के सार को नहीं हटा सके और महान रोमांटिक चीजों को संग्रहित किया. 20वीं शताब्दी में हमने स्वयं रोमांटिक कवियों को खोजा. रवींद्रनाथऔर निरालाजैसे कवियों ने यह काम किया.

अंग्रेजी शिक्षा हमें केवल भाषा ही सिखलाती है और वह भी एक भ्रष्ट भाषा. जिसके फलस्वरूप आज बहुत से लोग उसी प्रकार की अंग्रेजी लिखने की कोशिश करते हैं और दावा करते हैं कि यही वास्तविक अंग्रेजी है. हाल ही में हमें अमेरिकियों ने एक नई तरह की अंग्रेजी सिखाई. इसलिए मैं कहना चाहता हूं कि अंग्रेजी शिक्षा का कोई महत्व नहीं है. जब मैं यह कहता हूं, तो लोग कह सकते हैं कि आप इसे नहीं समझ सकते, क्योंकि आप अंग्रेजी नहीं जानते हैं. यह विद्वानों तथा अंग्रेजी के अध्यापकों का उत्तरदायित्व है कि वे न्याय करें कि आज स्वतंत्र भारत में वैसी ही अंग्रेजी है जैसी 19वीं शताब्दी में थी?

हमारे विद्वान जिन संस्कृत नाटकों को भुला चुके थे, 19वीं शताब्दी में उसकी पुनर्प्राप्ति में उस समय के संस्कृत कालेजों के योगदान पर ध्यान देना चाहिए. हालांकि वे विद्वान ब्रिटिश लोगों से प्रभावित थे. उस समय संस्कृत कालेज बनारस, मद्रास, कलकत्ता और पुणेमें स्थापित हो चुके थे. संस्कृत विद्वानों द्वारा नाटकों के महत्व को पहचानना और अभिनय द्वारा लोकप्रिय बनाना, उल्लेखनीय कार्य है. हमें यह भूलना नहीं चाहिए कि हमारे यहां के अधिकांश पुराने लेखक, चाहे वे हिंदी के हों या गुजराती के- आज के लेखकों से अच्छी संस्कृत जानते थे. केरल और गुजरात में संस्कृत पांडित्य की संपन्न परंपरा थी. गोवर्धनम्संस्कृत के अच्छे विद्वान थे और शायद नरमद भी. उस युग के हिंदी लेखक भारतेंदु, बालकृष्ण भट्ट और महावीरप्रसाद द्विवेदी भी संस्कृत के विद्वान थे. विभिन्न आधुनिक भारतीय भाषाओं के विकास में संस्कृत लेखकों द्वारा किये गये योगदान का हमें सही-सही मूल्यांकन करना चाहिए. कालिदास के शब्दों में कहना हो तो मैं इसे अभिज्ञानकालकहना पसंद करूंगा. आप इसे प्रत्यभिज्ञानयुग भी कह सकते हैं. यह युग हमारे लंबे अवधि के भूल को सुधारने का युग है. हम नहीं कह सकते कि पहले हम विस्मृतियों में खोए हुए थे. वस्तुतः हम अज्ञानी थे.नूनम् अबोधपूर्वम् तत् चेतसाः स्मृत्ति. हम अपनी अज्ञानता से व्याकुल थे. अभिज्ञानएक विपरीत नाम है. इस शब्द का अंग्रेजी में एक निश्चित शाब्दिक अर्थ नहीं हो सकता है. यह अस्मिता नहीं है. मैं एक बार फिर कहता हूं कि यह निश्चित रूप से अस्मिता नहीं है, बल्कि अभिज्ञानहै. क्योंकि 19वीं शताब्दी वह रंगभूमि है जहां स्मृत्ति की चेतना प्राप्ति का नाटक अनेक तरीके से अनेक विभिन्न भारतीय भाषाओं में प्रस्तुत किया गया.


(तीन)
अब तक मैंने जो कुछ कहा उससे एक बात तो अब तक स्पष्ट हो गई होगी कि भारतीय संदर्भ में जिसे हम रेनेसां कहते हैं, वह विशुद्ध कोरी कल्पना है. आगे यह और स्पष्ट होगा कि 19वीं शताब्दी का रेनेसां भारतीय साहित्य में विचारपूर्वक उत्पन्न एक मिथ्या है, जिससे कभी-कभी हमें वास्तविकता का संदेह हो जाता है. आज जरूरत इस बात की है हम झूठी गाथाओं की इस प्रक्रिया का सूक्ष्म विश्लेषण करें और फिर इसके पीछे छिपे इतिहास को देखने का प्रयत्न करें. हमें यह जानकर आश्चर्य होगा कि भारतीय साहित्य के इतिहास का एक अध्याय 19वीं शताब्दी- जिसे हम भारतीय जागरण का इतिहास मानकर पढ़ते हैं, वह पूर्णतः एक कल्पना है. इस कल्पना को यथार्थ का शक्ल देने में किन-किन लोगों की भूमिका रही? दूसरा प्रश्न यह है कि भारतीय संदर्भ में हम जागृति को काल्पनिक क्यों कह रहे हैं?यदि मैं इसके लिए एक उदाहरण प्रस्तुत करूं तो आप स्वतः समझ जाएंगे.

आजकल लोग गुजरात के गौरव और सम्मान की बात करते हैं और बहुत सारे लोग इस पर गर्व करते हैं. हमें विचार करना चाहिए कि गुजरात का जो इतिहास हमें गर्व करने का विचार देता है, वह उपन्यास संबंधी विवेचनाओं से पैदा हुआ है. जैसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशीका गुजरातनो नाथ, जय सोमनाथ, पृथ्वीवल्लभने हमारे संस्कारों में धीरे-धीरे प्रवेश पा लिया. इस इतिहास के निर्माण में उपन्यासों की बड़ी भूमिका रही है. क्या गुजरात सचमुच वैसा ही है जैसे उसके उपन्यासों के ऐतिहासिक शब्दों में कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के नवलकथा में है?हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वह उपन्यास द्वारा लिखित इतिहास है, जो कुछ नहीं कोरी कल्पना है. हालांकि यह एक सुंदर कल्पना है, जो वास्तविकता जैसी प्रतीत होती है. हम इसमें इस प्रकार मध्यस्थ हैं कि कल्पना एक वास्तविकता हो चुकी है. हम यह भूल जाते हैं कि यह एक कल्पना है और कल्पना प्रत्येक व्यक्ति को बहुत अधिक मोहित करती है. आज इस कल्पना का लोगों के समूह द्वारा आदान-प्रदान किया जा रहा है. हम गलती से इस काल्पनिक रचना और विद्वता को वैज्ञानिक समझते हैं, लेकिन यह सदैव सौंदर्यरूपक नहीं होता है.

साहित्यिक आलोचना भी उपन्यास हो सकता है. उदारण के लिए शेक्सपीयर ने साहित्यिक आलोचना के फार्म में लिखा है. शेक्सपीयर ने इसे किस सीमा तक बदला और यह अब भी बदल रहा है, यह अंग्रेजी के अध्येता जानते हैं. इसलिए 19वीं शताब्दी में जो उपन्यास गुजरात में लिखा गया, वह बंगाल और महाराष्ट्र में भी लिखा गया. बंगाल के लेखकों ने अपना उपन्यास महाराष्ट्र और राजस्थान के आधार पर लिखा. एन्नाल एंड एंटीक्विटीज ऑफ राजस्थान 19वीं शताब्दी में कर्नल टोड ने लिखा. रमेश चंद्र  दत्त अपनी पुस्तक इकॉनामिक हिस्ट्री ऑफ इंडियाके लिए भी विख्यात हैं. जिन्होंने रामायण और महाभारत के दोहों का संक्षिप्त अनुवाद किया.उनकी दो और किताबें हैं, जिसका बाद में अनेक भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ. एक पुस्तक है महाराष्ट्र जीवन प्रभातऔर दूसरी है राजपुर जीवन-संध्या. रमेश चंद्र दत्त बंगाल के थे. उसी समय बंकिमचंद्र भी उपन्यास लिख रहे थे. दुर्गेशनंदिनीकी तरह उनके अधिकांश उपन्यासों में बंगाल की कहानियां नहीं है. ये उपन्यास लिखे तो गए बंगाल में लेकिन इसकी कहानियां राजस्थान से संबंधित हैं. आनंदमठऔर कपाल-कुंडलाबांग्ला भाषा का उपन्यास है, परंतु उनके ऐतिहासिक उपन्यास राजस्थान और महाराष्ट्र से प्रेरित हैं.

महाराष्ट्र जीवन प्रभातऔर राजपुर जीवन-संध्यामें प्रभातऔर संध्याअर्थपूर्ण है. वे शिवाजी के नेतृत्व में मराठों की बढ़ती शक्ति की घटना को नये जीवन प्रभात की तरह देख रहे थे. राजस्थान की आगामी घटनाएं उन्हें राजपुर के इतिहास की गोधूलि-बेला के समान प्रतीत हुई. आप इसे मराठा शक्तिका उदय और राजपुर शक्ति का पतन कह सकते हैं. इस तरह का इतिहास उसी युग के दौरान लिखा गया. इस तरह का इतिहास हिंदी में भी लिखा गया. इस संदर्भ में किशोरीलालगोस्वामी के कामों को देखना समीचीन होगा. मराठी में भी इस तरह के इतिहास लिखे गए. मलयालम में मार्तण्डवर्माका इसी प्रकार का इतिहास है. 19वीं शताब्दी का पुनर्जागरणफिर से लिखा गया इतिहास है, जो वास्तव में इतिहास नहीं, कल्पना है. इसलिए जैसा कि मैंने पहले कहा कि इटली के जागरण ने वास्तविक स्थान नहीं ग्रहण किया था, यह जैकब बर्चर्ड की एक कल्पना थी और इसके बाद हम स्वयं कल्पनाओं की सुंदर दुनिया में खो गए.

आजकल लोग ग्रैब्रियल गार्सिया मार्क्वेज के उपन्यास एकांत के सौ वर्षमें जादुई यथार्थवाद देख रहे हैं. वे भूल गए हैं कि हमारे ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास की उत्पत्ति जादुई यथार्थवाद के रूप में की गई है. अब हम 19वीं शताब्दी के ऐतिहासिक कार्यों को इतिहास के रूप में देखते हैं. परंतु वास्तव में 19वीं शताब्दी एक सुंदर कल्पना है और यह प्रायः सभी भारतीय भाषाओं की कल्पना है. साहित्यिक इतिहासकार तथा आलोचकों ने उपन्यासों की सहायता से इस कल्पना को उत्पन्न किया. कल्पना सदैव वास्तविकता की अपेक्षा अधिक आकर्षक और शक्तिशाली होती है. एक पुस्तक है पावर एंड मिथ,जिसका शीर्षक मेरे तर्क को बल प्रदान करता है. सवाल यह है कि इस कल्पना को उत्पन्न किसने किया?कौन लोग थे इसके पीछे?ब्रिटिश एशियाईयों ने सबसे पहले इस पर विचार किया था. हममें से अधिकांश लोगों ने डेविड कोप्ट की पुस्तक ब्रिटिश ओरियेंटलिज्म एंड द बंगाल रेनेसांपढ़ी है. इस पुस्तक में उन्होंने कल्पना करने वाले उन लोगों के बारे में बताया है. उन्होंने बताया है कि इस तरह की कल्पना की शुरुआत बंगाल के एशियाटिक सोसाइटीसे प्रारंभ हुई थी. यह एक ऐसे व्यक्ति ने किया जिसने ब्रिटिश शासन की शुरुआत की और भारतीय अर्थव्यवस्था को विध्वंस किया. इस व्यक्ति का नाम वारेन हेस्टिंग्स था.

उदय प्रकाश ने वारेन हेस्टिंग्स का सांढ़नाम से एक कहानी लिखी है. इस कहानी को पढ़कर पता लगाया जा सकता है कि जादुई यथार्थवाद कैसे उत्पन्न हुआ. वारेन हेस्टिंग्स वही शासक था जिसने भारत के ऊपरी प्रांत को जीत लिया था. वास्तव में वारेन हेस्टिंग्स ने लार्ड क्लाइव के बाद भारत के अधिकांश भागों पर जीत हासिल की थी. वह ज्ञान का संरक्षक भी था. उसी के समय में विलियम जॉन ने बंगाल में एशियाटिक सोसाइटी की स्थापना की थी. उसने वहां से एशियाटिक सोसाइटी जर्नलप्रकाशित किया और कालिदास के अभिज्ञानशाकुंतलम्का अनुवाद किया. विलियम जॉनने मनुस्मृतिका भी अनुवाद किया. चूंकि वह एक वकील था इसलिए वह यह बात जानता था कि इसका अनुवाद क्यों महत्वपूर्ण है. इस लिहाज से भी यह गौर करने लायक बात है कि बाद में महाराष्ट्र में डॉ. अंबेडकरके अनुयायियों द्वारा जलाया गया. इस प्रकार एक तरफ वारेन हेस्टिंग्स ने विध्वंसात्मक कार्य किये, तो दूसरी ओर पश्चिमी एशिया को जानने का मार्ग प्रशस्त किया. एशियाई विद्वानों का एक समुदाय जिसमें विल्सन, कोलब्रुकआदि शामिल थे, ने आगे चलकर वेद, मनुस्मृति, और अभिज्ञानशाकुंतलम्आदि हमारे प्राचीन ग्रंथों का अध्ययन किया. फिर उसकी सहायता से मिथकों को गढ़ा. उन्होंने पूर्वी भारत का एक रहस्यवादी बिंब गढ़ा, जो पहले से ही पश्चिमी आंखों को जादूगर, सपेरों तथा साधुओं की भूमि प्रतीत होती थी. पश्चिमी लोग अभी भी भारत को साधु, भिखारी, सपेरों और जादूगरी की धरती मानते हैं.


(चार)
भारत की रचना एक कल्पना की तरह की जा रही थी और काल्पनिक भारत के प्रतिबिंब का निर्माण हमारी आंखों के सामने किया जा रहा था. एडवर्ड सईद ने अपना ओरियंटलिज्मबाद में लिखा, जिसमें उन्होंने पूर्वी रहस्यवाद का जो सावधा नी से निर्माण किया गया था, उसे खुले रूप में पेश किया. ये पौराणिक कथाएं, ये मिथक बिल्कुल निर्दोष हों, ऐसा भी नही है. हमारे शासक, हमारे देश का सुंदर व जादुई चित्र बना रहे थे. परंतु इन सुंदर चित्रों के नीचे शोषण की जमीन तैयार हो रही थी. एक नई मिथकीय कहानियां गढ़ी जा रही थी और इसकी आड़ में वारेन हेस्टिंग्स ईस्ट इंडिया कंपनी के व्यापारियों की सहायता से नील के व्यापार पर पकड़ जमा रहा था. इतना ही नहीं बंगाल और बिहार के बाद वह उत्तर को जीतने के लिए आगे बढ़ रहा था. दक्षिण में आक्रमण की तैयारी करके पश्चिमी भाग तथा बंदरगाहों पर कब्जा करने के लिए बंबई और मद्रास से पैदल गया. इस तरह हमें मानसिक रूप से दास बनाया जा रहा था. विडंबना देखिये कि हम लोग इसके बाद भी प्रसन्न थे और यह सोचकर गर्व का अनुभव करते थे कि देखो, हम इतने महान हैं कि हमारी महानता का अध्ययन करके ब्रिटिश लोग हमारी कीर्ति गा रहे हैं. 

प्रेमचंद की एक कहानी है-मंगनी का सुखसाज. प्रतिष्ठा का यह भाव भी उधार लिया गया था और इसकी उत्पत्ति ओरियंटलिज्म द्वारा की गई थी. उन्होंने अकेले इसे पैदा नहीं किया था. सबसे निचली श्रेणी थी दासता, जिसमें दास मालिक के लिए काम करता था. पहला काम उन्होंने यह किया कि बनारस में संस्कृत कालेज की स्थापना की. जिसमें उन दिनों प्रिंसिपल ब्रिटिश लोग ही हुआ करते थे. उन्हीं दिनों ग्रिफिनने ऋगवेदका अंग्रेजी में अनुवाद किया और यह अनुवाद आज भी सबसे अच्छा अनुवाद माना जाता है. इसमें उन्होंने संस्कृत के पंडितों की सहायता ली. इसका प्रयोग वे विधि एवं न्याय में करना चाहते थे. आज कहा जाता है कि ब्रिटिश ने कानून का राज स्थापित करके एक अविस्मरणीय कार्य किया. आखिर कानून का अर्थ क्या है?जहांगीरके दरबार में एक घंटा लगा रहता था. लोग रस्सी खींचते थे तो घंटा बज उठता था. इसके बाद बादशाह खुद आकर शिकायत सुनता था. इस प्रकार बादशाह के पास न्यायिक शक्ति भी थी. वास्तविक शक्ति राजा के पास नहीं होती थी. राजा तो मुकुट धारण करके राजनीतिक शक्तियों का लाभ उठाता था. सेना का संचालन वह कर सकता था, लेकिन नियम के सम्मान में और धर्मशास्त्रके अनुसार न्याय राज-पुरोहित करता था.

याद करिये, जब शकुंतला आयी और उसे पहचानने की बात जब अधूरी रह गई, तो पंडितों की एक सभा हुई और वहां यह विचार किया गया कि क्या न्यायसंगत क्या है ?न्याय की शक्ति राजा के हाथ में नहीं होती थी, मगर वह धर्मशास्त्रऔर न्यायसंहिताकी मदद से निर्णय लेता था. वह अपना निर्णय स्वयं नहीं कर सकता था. ऐसे मामलों में तो उसका न्याय स्वीकार नहीं किया जाता था. पंरतु मुगलकाल में स्थितियां बदल चुकी थी. जरूरत पड़ने पर राजा, पंडित को बुलाता था. यह माना जाता है कि अंग्रेजों ने समानता के आधार पर कानून बनाए. कानून की नजर हर व्यक्ति समान है, चाहे उसका संबंध किसी जाति, धर्म या लिंग से हो. आज के इतिहासकार गर्व से लिखते हैं कि 19वीं शताब्दी में पहली बार आदमी को समानता का अधिकार मिला. चाहे संपत्ति विवाद हो, हत्या या कोई अन्य अपराध, न्याय आईपीसी यानी भारतीय दंड सहिता के अनुसार होता था. जो आज भी उसी रूप में विद्यमान और उसमें आजादी के बाद भी कोई खास परिवर्तन नहीं आया है. यह सब अंग्रेजों की देन है.

इस प्रक्रिया में हम यह भूल गए कि पहले पंडितऔर मौलवीमुकद्दमा सुनने के लिए हाजिर होते थे और एक पंच चुनते थे. यह सिद्ध करने के लिए कि वे न्याय धर्मशास्त्रऔर हदीसके अनुसार कर रहे हैं. ब्रिटिश लोगों ने भारतीय परंपरा को पुनर्जीवित किया. उपनिवेशवादियों ने जो कुछ किया, उसकी परंपरा हमारे यहां पहले से मौजूद थी. हमारे लोग जो न्याय और दंड देने के मामले में कुशल थे. वारेन हेस्टिंग्स के समय में इसी लिए कानून बनाने के मामले में पंडितों और मौलवियों की सहायता ली गई. अंग्रेजों ने उनकी सहायता ज्यादा ली. आज जो पद्म पुरस्कारदिये जाते हैं, वह पुरानी परंपरा के अनुसार ही है. उन दिनों भी ऐसे ही पुरस्कार दिये जाते थे, बस उनके नाम अलग-अलग हैं. संस्कृत के पंडित और हिंदी के विद्वान महामहोपाध्यायके नाम से सम्मानित किये जाते थे. शम्स-उल-उलेमाका बहुत गहरा अर्थ है. शम्स का मतलब होता है सूर्य और उलेमा का अर्थ होता है विद्वान. इस प्रकार शम्स-उल-उलमा का अर्थ होता है विद्वानों के बीच सूर्यहै.

कुछ मिथक मदरसों और संस्कृत कालेजों में भी बने. संस्कृत कालेजों की स्थापना तीन महाप्रांतों में हुई-कलकत्ता, बंबई और मद्रास. बाद में बनारस में भी संस्कृत कालेज स्थापित किया गया. पौराणिक कथाओं को बनाने वाले एशियाईयों ने शिक्षा की एक नई शाखा शुरू की, जिसे ओरियंटलिज्मया ओरियंटल लर्निंगके नाम से जाना गया. यह उस ओरियंटलिज्मके विरुद्ध था, जिस ओरियंटलिज्मको लेकर एडवर्ड सईद ने लिखा है. तत्कालीन संस्कृत कालेजों में अंग्रेजों ने ऐसे मिथक इसलिए गढ़े गए, ताकि सैनिक विजय को स्थायी विजय में बदला जा सके.

असल में ओरियंटशब्द इतना प्रचलित हुआ कि कुछ संस्थाओं के नाम ही ओरियंट के नाम से रखा गया. मसलन स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS). इंडोलाजीऔर ओरियंटलिज्मशब्द 19वीं शताब्दी की कल्पना है. यद्यपि ऑक्सीडेंटल, ओरियंटलशब्द का विलोम है, फिर भी यह नहीं सुना गया न उपयोग किया गया. हममें से कोई ऑक्सीडेंटल कालेज से नहीं आया है. लेकिन कैंब्रिज यूनिवर्सिटी के एशियाई विभाग में हिंदी और संस्कृत पढाई जाती है. लंदन यूनिवर्सिटी में स्कूल ऑफ ओरियंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज (SOAS) है, जिसमें उन्होंने अफ्रीका को ओरियंट से दूर रखा हुआ है. ओरियंट में एशिया और केवल भारत ही शामिल है. उपनिवेशी शासकों ने भारत को तो अपना उपनिवेश बनाया, मगर वे चीन को अपना उपनिवेश नहीं बना सके. वस्तुतः अफीम युद्ध के दौरान वे व्यापार में आए, इसलिए चीन को अपना उपनिवेश नहीं बना सके. सिनो-जापान युद्ध के बाद 1935 के आसपास चीन केवल कुछ ही समय के लिए जापान का उपनिवेश बना था. ओरियंटल, ओरियंटलिज्म और ओरियंट शब्द इतने विख्यात हुए कि इनके नाम पर दुकान, बैंक, पत्रिका और प्रकाशन गृहों तक के नाम रखे गए. अंग्रेजी में ओरियंट इतना प्रसिद्ध हुआ कि आज भी हमारे देश के विभागों और अकादमिक प्रशिक्षण कालेजों में ओरियेंटेशन प्रोग्राम करवाया जाता है. ओरियंट और ओरियंटलिस्ट के द्वारा अंग्रेजों ने प्रस्ताव रखने की कोशिश की, कि हमारे आगमन के साथ ही यहां नये युग का आरंभ हुआ.

उन्होंने बंगाल के स्वर्ण युग को खोजा. वास्तविकता यह है कि भारत को सोने की चिड़ियाकहा जाता था और अंग्रेज यहां सोने की चिड़िया पकड़ने आए थे. यह उनके आवश्यक था कि वे इस सोने की चिड़िया को अपने अधिकार में रखें. हम यह सुनकर खुश होते रहे कि हम सोने की चिड़िया हैं. जबकि यह सुंदर चिड़िया इस बात से अनजान थी कि धीरे-धीरे उसका गला रेता जाएगा. यह इसलिए कहा गया क्योंकि भारत का अतीत सुनहरा है. यह स्वर्ण युग कौन-सा युग था?इतिहास की किताबें हमें बताती हैं कि यह गुप्त काल था, लेकिन क्या हमने कभी सोचा है कि गुप्त काल ही क्यों स्वर्ण काल था, अशोक का काल क्यों नहीं?गुप्त काल सुधारों का काल था. दूसरी ओर अशोक ने धर्मका राज्य स्थापित किया, जो भारत से लेकर अफगानिस्तान, श्रीलंका तक छाया हुआ था. अशोक का राज्य पहला भारतीय साम्राज्य था. गुप्त मध्यदेश से बाहर कभी नहीं जा सके. अशोक का साम्राज्य चंद्रगुप्त मौर्य के साम्राज्य से बड़ा था, लेकिन गुप्त काल को ही स्वर्ण काल कहा गया. क्योंकि इस काल में हिंदुओं का उत्थान हुआ. यह बौद्ध और जैन के विरुद्ध ब्राह्मणों का उद्धारक था. यह बहुत कुछ उसी के अनुरूप है, जैसे कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी के साम्राज्यों का युगमें गुप्त वंश के युग को भारत के इतिहास में श्रेष्ठ बताया गया है.

अंग्रेजों ने अतीतकालीन भारत पर इसलिए लिखा कि वे ऐसा करके यह सिद्ध करना चाहते थे कि हमारे इतिहास का स्वर्ण युग विक्टोरियाकाल था. हममें से बहुत लोगों ने औपनिवेशिक युग के सोने और चांदी के सिक्के देखे होंगे, जिसमें रानी विक्टोरिया और जार्ज पंचम का एक राजा और रानी के रूप में चित्र अंकित है. इसका यह अभिप्राय है कि दोनों युनाइटेड किंगडम के राजा-रानी थे, लेकिन वे भारत के सम्राट और सम्राज्ञी थे. मुझे 1935 में जार्ज पंचम का वह चित्र याद है, जिसमें में वे सिंहासन पर बैठे हैं. उन दिनों हमलोग स्कूल में एक गीत गाते थे-चिरंजीवी राजा-रानी हमारे. हमलोगों को राजा और रानी अंकित सिक्का दिया गया और यह महसूस कराया गया कि भारत में स्वर्ण युग इन्हीं के कारण आया. इस प्रकार 19वीं शताब्दी नया स्वर्ण युग था या हमलोग जिसे रेनेसां के नाम से जानते हैं? 

स्पष्ट हो गया होगा कि रेनेसां चारों तरफ चेतना प्राप्ति के केंद्र रहा है. लेकिन प्रश्न है कि इस चेतना प्राप्ति का साधक या प्रतिनिधि कौन था?क्या यह ब्रिटिश सम्राट या ब्रिटिश राजा-रानी थे?इतिहास का प्रतिनिधि कौन था?मैंने संक्षेप में जागृति से संबंधित चीजों पर तर्क करने की कोशिश की है और अब आप समझ गये होंगे कि यह परियों की कहानी या काल्पनिक कथा थी. इसलिए मैंने इस रेनेसां को एक कल्पना कहा और यह कल्पना ब्रिटिश शासन काल के विद्वानों द्वारा गढ़ा गया, जिन्हें हम औपनिवेशिक कहते हैं. पहले यह बहुत चर्चित नहीं था, लेकिन आजकल यह बहुत प्रचलित है और हम इस प्रक्रिया में शामिल हैं. यदि हम इसमें शामिल नहीं होते तो यह कभी नहीं होता. हमने अपने आप मान लिया कि यह पुनर्जागरण, चेतना-प्राप्ति तथा जागरण था और 19वीं शताब्दी में हमने पुनः अपने सुनहरे अतीत को पाया. हमें लगा कि हम अपने अतीत को प्राप्त कर रहे थे, लेकिन हमारी स्मरण शक्ति बिल्कुल स्थिर अवस्था में थी और हमारा विवेक एक स्पष्ट दिशा की ओर अग्रसर था. इन सभी को किसने प्रभावित किया?यह तत्कालीन अध्यापकों द्वारा किया गया. इसलिए मैंने कहा पुनर्जागरण एक कल्पना है और यह ओरियंटलिज्म द्वारा रचा गया, जिसमें हम भी शामिल थे. रमेशचंद्र दत्त, बंकिम और कन्हैयालाल माणिकलाल मुंशी का ऐतिहासिक लेख इसके एक भाग हैं. ब्रिटिश लोग अकबर के समय को स्वर्ण युग कहें.

कुछ लोग हिंदू पुनर्जागरणपर बात करते हैं. हम यह न भूलें कि उस वक्त बहावी आंदोलन चल रहा था तथा मुसलमानों का स्वर्णिम अतीत के विषय में बिल्कुल अलग विचार थे और वे इसकी रचना फिर से कर रहे थे. इसी असाधारण विषय के महत्व पर कुछ विद्वान लिख चुके हैं. इसको लेकर इकबाल अहमदऔर एजाज अहमदने थोड़ा-बहुत लिखा है. तारिकअली ने भी मुस्लिम इतिहास के विषय में लिखा है. उनकी एक किताब जिहादभी आ चुकी है. एडवर्ड सईद नेअपनी किताबों में मुख्य रूप से मिस्र और फिलिस्तीन के बारे में लिखा है. टामस मुनरो ने अपनी किताब में अकबर के बारे में जो लिखा है, उसका शीर्षक है- इंडिया अंडर अकबर.

उन्हीं दिनों एक नया शब्द गढ़ा गया-हिंदुइज्म. यह शब्द उसी युग की कल्पना है. मैं नहीं समझता कि इज्मप्रत्यय द्वारा उन्होंने कुछ चीजों को एक विचारधारात्मक रूप दिया, जो केवल एक धर्म था. धर्म समान विचार नहीं रखता था. जैसाकि रिलीजनरखा. लेकिन मैं इसके विस्तार में नहीं जाना चाहता. इसके साथ उन्होंने एक पद हिंदू भारतका परिचय दिया. जो साफ तौर पर निर्दोष और हानिरहित प्रतीत होता है. यह हिंदू भारतक्या है?वे दो पदों का परिचय देते हैं-हिंदू इंडियाऔर हिंदुइज्म. क्या भारतअपने आप में पर्याप्त नहीं था?नयी कल्पना ने इतिहास को तीन बंद डिब्बों में बांट कर रख दिया- हिंदू भारत, मुस्लिम भारतऔर ईसाई भारत. यह सभी नाम इतने निर्दोष और हानिरहित नहीं थे. इसी के फलस्वरूप वीर सावरकर ने हिंदुइज्मका पक्ष लिया जो उन दिनों बहुत प्रसिद्ध हुआ. हमने सोचा कि हम स्वयं को एक नया नाम दे रहे थे, लेकिन वास्तविक तथ्य यह था कि हमने इसे दूसरों से उधार लिया. यहां यह गौरतलब है कि नाम देना एक खतरनाक प्रक्रिया है.

यदि कोई शासन करना चाहता है, तो उसे नया नाम देना चाहिए. बाईबिलमें कहा गया कि ईश्वर ने संसार की रचना की और तब प्रत्येक चीजों को एक नया नाम दिया. सेंट जॉन्स के अनुसार गोस्पेलमें कहा गया है- प्रारंभ में शब्द था और शब्द ईश्वर था. इसका क्या अर्थ है?जंगल में असंख्य पेड़ होते हैं, झाड़ियां होती हैं. वे सुरक्षित हैं. आप उन्हें पहचानकर उसे प्रयोग करना सीखते हैं, तो वे आपके अपने हो जाते हैं. आप उन्हें उगा सकते हैं. इसलिए जब लोग पालतू कुत्ता खरीदते हैं, तो उसे नया नाम देते हैं. जब एक बच्चा पैदा होता है, तो उसका नामकरण संस्कार करते हैं. तब तक वे सबके लिए ईश्वर का वरदान होता है. इसलिए हिंदू भारत जैसे एक काल्पनिक पद के द्वारा उन्होंने देश को दो भागों में विभाजित किया. वे यह परिभाषा देते हैं कि हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई सभी धर्मों के लोग हिंदुओं की तरह ही हैं और यह हिंदू भारतहै. इस आधार पर रेनेसां स्वयं दो भागों में बंटा-हिंदू जागरण और मुस्लिम जागरण.


(पांच)
हमें इस तरह के मिथकीय कार्यों और शब्द-निर्माण के पीछे छिपी राजनीति पर गौर करना चाहिए. जैसाकि हेनरी जेम्स ने अपने उपन्यास हाउस ऑफ फिक्शनमें कहा है कि हमें कालीन के पीछे देखने की कोशिश करनी चाहिए, बजाय उसकी सुंदरता की प्रशंसा करने के. पीछे देखने पर हमें यह पता चलेगा कि यह कालीन बना किस धागे से बना हुआ है. इसी प्रकार 19वीं शताब्दी के रेनेसां रुपी सुंदर कालीन के पीछे देखना चाहिए. हम केवल इसके एक पक्ष की सुंदरता को देखा है. इसलिए इस कल्पना की गहराई से परीक्षा करनी चाहिए और उन तथ्यों की भी, जो इसके लिए जिम्मेदार थे.

1857 का विद्रोह बहुत सारी कल्पनाओं में से एक है, जो उसी युग में हुआ था. कई ब्रिटिश विद्वान इस पर लिख चुके हैं. यह विद्रोह मुख्यतः भारत के उत्तरी भागों तक ही सीमित रहा. उत्तर प्रदेश और बिहार गायों की अधिकता के लिए जाना जाता था-सबसे गंभीर संघर्ष इन्हीं दो प्रांतों में हुआ. दिल्ली और कानपुर में जो कुछ हुआ उसके बारे में ब्रिटिश लोगों ने मिथ्या प्रचार किया. बाद में पता चला कि कुछ घटनाएं इतिहास में कभी घटित ही नहीं हुई. 1857 का विद्रोह हुआ, लेकिन यह विद्रोह कैसा था, जिसे उन्होंने राजद्रोह कहा और हमने इसे पहला स्वतंत्रता संग्राम ?वीर सावरकर ने 1857 को यह नाम दिया और कार्ल मार्क्स भी इससे सहमत थे. हमें भली-भांति यह परीक्षा करने का प्रयत्न करना चाहिए कि किस प्रकार 1857 की कल्पना की रचना हुई.

हमारे देश में अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोग पूरी तरह इन काल्पनिक बातों से सहमत हैं. यदि कोई लंदन की इंडिया हाउस लाइब्रेरीमें रखे उस युग के दस्तावेजों को पढ़े, तो उसकी राय यह बनेगी कि भारतीय बेहद असभ्य और क्रूर थे. उसकी गहराई में यदि कोई जाए तो पता चलेगा कि कानपुर में कई विद्रोही पकड़ लिए गए थे और वहां हुए संघर्ष में चार-पांच सौ अंग्रेज मारे गए थे. जिनमें औरतें और बच्चे भी शामिल थे, जिन्हें बाद में कुंए में फेंक दिया गया. जब वे पकड़े गए तो अंग्रेजों ने उन्हें खून चाटकर साफ करने को कहा. उसके बाद फांसी पर लटका दिया.

अंग्रेज भारतीय लोगों को फांसी देने से पहले उन्हें बुरी तरह अपमानित करते थे. अजीब बात यह है कि वे हमें असभ्य कहते हैं, जबकि वे स्वयं घोर अमानवीय और असभ्य थे. वे लोग भारतीयों के साथ जंगली जानवरों जैसा बर्ताव करते थे. सन् 1857 की मिथ्या बातों से यह सिद्ध करने का प्रयास किया गया कि भारतीय इतने असभ्य और निर्दयी थे कि अंग्रेज औरतों और बच्चों तक के साथ निर्दयतापूर्ण व्यवहार किया. इस प्रकार उन्होंने 1857 के एक मिथक को पैदा किया जो कई नामों से आज जाना जाता है-गदर का विद्रोह, सिपाही विद्रोह, राजद्रोहऔर स्वतंत्रता के लिए किया गया प्रथम संघर्षइत्यादि.

यहां यह बात ध्यान देने लायक है कि जब एक कल्पना उत्पन्न हुई, तो उसके विपरीत एक-दूसरी कल्पना भी निर्मित हुई. दोनों कल्पनाओं के बीच जब टकराव हुआ, तो विश्वस्तर के बुद्धिमान भी प्रभावहीन हो गए. उदाहरण के लिए 1957 में जवाहरलाल नेहरू के शासन काल के दौरान जब 1857 का शताब्दी समारोहहुआ था. उस समय यह अनुभव किया गया कि इस पर एक पुस्तक लिखनी चाहिए और पुस्तक लिखने का जिम्मा इतिहासकार एस.एन.सेन को दिया गया. एक विमर्श इस बात को लेकर भी हुआ कि लिखने के बाद इस पुस्तक का शीर्षक क्या रखा जाएगा. इसे विद्रोह,  ‘राजद्रोहकहना चाहिए या प्रथम स्वतंत्रता संग्रामजैसाकि वीर सावरकर ने कहा था. जब एक विद्वान वैज्ञानिक भी बन जाए, तो बहुत समस्या पैदा होती है. कई अंग्रेजी के विद्वानों ने इस पर सोचा तो बहुत अच्छा, लेकिन शीर्षक नहीं सोच पाये. अंततः मिस्टर सेन ने सुझाव दिया कि इसे केवल 1857ही कहा जाय. इस प्रकार भारत सरकार द्वारा यह पुस्तक 1857नाम से प्रकाशित हुई.

19वीं शताब्दी के पुनर्जागरण साहित्य से संबंधित विचार-विमर्श में जब कोई भाग ले, तो वह इसे केवल 19वीं शताब्दी कह सकता है. इसी वजह से मैंने इशारा किया कि कल्पित बातों के बनाने की इस प्रक्रिया को समझना बहुत अहम है. तभी हम इसकी सही विवेचना कर पाएंगे. अंग्रेजों ने 19वीं शताब्दी की अपने ढंग से प्रशंसा की, तब हमने विपरीत रुख अख्तियार किया. जिसे आप राष्ट्रवादी सोच कह सकते हैं. इसके कारण हमने सोचा कि उन्होंने हमें अपमानित किया, नीचा दिखाया तो हमें 1857 की घटनाओं का ओजस्वी ढंग से वर्णन करना चाहिए.

हिंदी के सुप्रसिद्ध आलोचक डॉ. रामविलासशर्मा ने 1857 पर एक मोटी पुस्तक लिखी है, जिसका संशोधित संस्करण भी प्रकाशित हो चुका है. आपको मालूम है उस पुस्तक में उन्होंने क्या लिखा है?उन्होंने लिखा है 1857 की क्रांति फ्रांस और रूसी क्रांति का मूल है. 1857 की क्रांति इतनी गौरवपूर्ण थी कि उस समय भारतीय इस प्रकार के महान आदर्श, जैसे स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व भूल गए. मानो वह समाजवादी या मार्क्सवादी हों. उन्होंने कहा है कि समाजवादी क्रांति का जो बीज 1917 में रूसी क्रांति में फूट पड़ा, उसका उत्स 1857 में भी मौजूद था. इसे उन्होंने सैद्धांतिक तरीके से सिद्ध भी किया है.

इसलिए मैंने कहा कि जब एक विद्वान वैज्ञानिक भी बन जाए और वकीलों की तरह किसी भी दलील से अपनी बात सिद्ध करने का प्रयत्न करे, तो वह किसी भी तरीके से यह बात मनवाना चाहेगा कि उसका मुवक्किल निर्दोष है. एक औसत वकील ऐसा करता है. वह यह दलील देता रहता है कि उसका मुवक्किल न केवल निर्दोष है, बल्कि वह एक अपूर्व प्राणी है. वह उसे देवतुल्य ठहराने का प्रयास करता है. ब्रिटिश विद्वानों ने 1857 की घटना को असभ्य कहकर विवेचना की, तो डॉ. रामविलास शर्मा ने आगे चलकर यह विचार प्रस्तुत किया कि 1857 की क्रांति एक ओजस्वी क्रांति थी फ्रांसीसी तथा रूसी क्रांति के मूल में थी. कभी-कभी चेला अपने गुरू से भी बहुत आगे चला जाता है. रामविलास जी का इससे तात्पर्य यह है कि रूसियों ने जो काम 1917 में किया, उसे भारतीयों ने 1857 में ही कर दिखाया. सवाल यह है कि तब 1857 में समाजवाद भारत में खुद क्यों नहीं आया? 1858 में यह प्रावधान पास हुआ कि अब हमें ईस्ट इंडिया कंपनी के अधीन नहीं रहना होगा. शासन की बागडोर अब सीधे रानी विक्टोरिया के पास होगी. मगर हमारी अधीनता अभी तक जारी है. इसका ये मतलब है कि हम अधिक समय तक व्यापारिक कंपनी के अधीन नहीं रहे, बल्कि खुद ही साम्राज्ञी के अधीन हो गए.

जैसाकि मैंने पहले कहा है, 19वीं शताब्दी में एक विपरीत जागरण हुआ. जो वास्तव में विपरीत रेनेसां नहीं, बल्कि समानांतर रेनेसां था. हमारे देश का एक अत्यंत प्रशंसनीय बिम्ब उपस्थित किया गया, यद्यपि उस भारत की दशा ऐसी प्रशंसा योग्य नहीं थी. हमने एक तरफ अपने साहित्यकारों को गौरवान्वित किया, तो दूसरी तरफ इंग्लैंड का सम्मान किया. उदाहरण के लिए यदि भारतेंदुने अच्छे नाटक लिखे, तो हमने उन्हें भारत का शेक्सपीयर कहना शुरू किया. फसाना-ए-आजादकी तुलना डॉन क्विकजोटसे की गई. कई लोगों ने यह कहकर सरस्वतीचंद्र की प्रशंसा की, कि यह एक अच्छा उपन्यास है. परंतु यदि कोई कहे कि यह वार एंड पीस से महान है, तो यह अतिशयोक्ति होगी. संभव है कि कुछ लोग फिर भी इसे उसी के बराबर खड़ा करके देखें. कहना न होगा कि अतिशयोक्ति केवल अलंकार नहीं है, यह बुद्धिमान लोगों के समय काटने का एक साधन भी है. इस प्रकार वास्तविक पुनर्जागरण के उत्तर में हमने 19वीं शताब्दी के जागरण को गौरवान्वित किया.


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प्राचीन भारत के बारे में सबसे पहले लिखने वाले महान इतिहासकार दामोदर धर्मानंद कोसांबीकी एक किताब है मिथ एंड रियलिटी.हालांकि वे विद्वान तो गणित एवं सांख्यिकी के थे, लेकिन इतिहास के भी महान ज्ञाता थे. उन्होंने हार्वर्ड में अध्ययन किया था. उनके पिता धर्मानंदजाने-माने मराठी लेखक और संस्कृत के ज्ञाता थे. उन्होंने अहमदाबाद में गांधीजी के साथ कुछ दिन बिताए थे. उन्होंने भी साहित्य की आलोचना के क्षेत्र में प्रशंसनीय कार्य किया है. उन्होंने भर्तृहरिके तीन शतकों का संपादन किया. वे कहा करते थे कि यदि कोई प्राचीन भारत के इतिहास को जानना और समझना चाहता है, तो आधुनिक भारत के गांवों में जाए. वह आज भी आर्य सभ्यता के जैसे हैं. उन्होंने निरंतरता के कुछ रूप को वैदिक काल के पांच हजार साल पुराने गांवों को आधुनिक गांवों में महसूस किया. महाराष्ट्र के गांवों में उन्होंने घूमकर देवी-देवताओं की मूर्तियों को देखा. फिर उसके तारतम्य को स्थापित करके समझने का प्रयास किया कि किस प्रकार खेतों को जोता और सींचा जाता था. उनका विश्वास था कि आधुनिक गांवों के अध्ययन से उनके पूर्वकाल के अवशेष और पांच हजार साल पुराने इतिहास को जाना जा सकता है. यद्यपि कोसांबीने नृतत्वशास्त्र और पुरातत्वविज्ञान की नियमित शिक्षा प्राप्त नहीं की थी, इसके बावजूद मिथ एंड रियलिटीमें संकलित उनके निबंध वैज्ञानिक अध्ययनों के आधार पर लिखे गए हैं.

यदि रेनेसां मिथ्या है तो इतिहास क्या है?जब हम इसके स्वाभाविक तत्वों को देखें तो क्या हम इस जागरण को इतिहास कहें?आप जानते हैं कि वास्तविक इतिहास को देखना इतना क्यों महत्वपूर्ण है. यदि इन दिनों इतना बहुत अधिक नारी उत्थान हो गया है, तो गुजरात, कश्मीर और दिल्ली में क्यों बलात्कार की इतनी अधिक घटनाएं घट रही हैं?यदि हम हिंदू-मुस्लिम के बीच भाईचारे को लेकर इतने अच्छे थे, तो क्यों आज दंगों में निर्दयतापूर्वक एक-दूसरे की जान लेते हैं?उन दिनों यदि हमने वास्तव में जातीयता को त्याग दिया था, तो दलितों पर अन्याय क्यों किये गये?यदि राजा राममोहन राय ने सती प्रथा के विरुद्ध कठोर कानून पारित करवाया था, तो 20वीं शताब्दी में राजस्थान के देवरालामें रुपकुंवरसती की घटना हुई? 19वीं शताब्दी में ही यदि हम सभी समस्याओं का समाधान कर चुके थे तो भारत जैसा था वैसा ही क्यों रह गया?गांधीजी को इतना कठिन परिश्रम क्यों करना पड़ा?यदि क्रांति के द्वारा हम अंग्रेजों को खदेड़ना चाहते थे, तो फिर से गुलाम क्यों बन गए? 1857 के बाद लंबे समय तक हम पराधीन रहे, यहां तक अपने अधिकारों की तरह 1947 में भी हम स्वतंत्रता प्राप्त नहीं कर सके और हमें मात्र शक्ति के स्थानांतरण मात्र पर संतोष करना पड़ा. यह सभी परिलक्षित करते हैं कि 1857 में हमने कोई असाधारण क्रांति नहीं की थी.

राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर के अलावा और जिन लोगों की हमारे इतिहास में प्रशंसा की गई है, असलियत यह है कि उन्हें बहुत अधिक सफलता नहीं मिली. इन आंदोलनों की शुरुआत में शहरी मध्यम वर्ग वास्तव में कुछ सुधार हुआ, लेकिन यह ऐसी क्रांति नहीं थी जिसे हम पुनर्जागरण कहें, प्रशंसा करें. इस प्रकार यदि कोसांबी की दृष्टि से बात करें, तो हमें साफ तौर पर लगेगा कि जो कुछ वर्तमान भारत में हम आज देख रहे हैं, वहे 19वीं शताब्दी में भी था. वर्तमान की सहायता से हम अतीत में जा सकते हैं. यदि हम पीछे देखें तो जो हमारी आंखों के सामने रहता है वह भाग हमें रंगीन और सुनहरा दिखाई देता है, तो कुछ ऐसी भी घटनाएं होती हैं जिनके बारे में हम बात नहीं करना चाहते. यानी मीठा-मीठा खा और कड़वा-कड़वा थू.

हमारे यहां के विद्वान पुनर्जागरण पर ही इतना अधिक ध्यान देते हैं कि यदि हम उसे पढ़ें तो अतीत के विषय में जानने की हमारी लालसा और बढ़ जाती है. हमें यह अनुभव कराया गया कि संपूर्ण भारत रामकृष्ण, विवेकानंदऔर दयानंदजैसे महापुरुषों की मंडली है. हमें यह भी अनुभव कराया गया कि औरतों की दशा बहुत अच्छी थी और जातीयता को प्राणघातक मान लिया गया था. इसके अलावा कुछ दूसरी चीजें भी उस दौरान घटित हुई, जिसके बारे में हम बात नहीं करते. एक हिंदी भाषी प्रांत में दयानंद को जूतों की माला से स्वागत किया गया था. जब आर्यसमाजऔर ब्रह्मसमाजमौजूद था, उसी समय सनातन धर्म सभाऔर भारत धर्मसभाभी स्थापित हुआ. दयानंदशास्त्रार्थ में हरा दिये गये. कट्टरपंथी और रुढिवादी लोगों ने नये विचारों का विरोध किया. बाद में ब्रह्मसमाज भी अत्यधिक पुरातनपंथी हो गया. राजा राममोहनराय के बारे में कहा जाता है कि जब वे मृत्युशय्या पर थे तो उन्हें भागीरथी के तट पर लाया गया. उनके चारों तरफ खड़े लोगों ने उनसे पूछा कि वे लोग उनके लिए क्या कर सकते हैं?तो उन्होंने अपने पूरे शरीर पर राधाकृष्ण लिखने को कहा. राधाकृष्ण लिखते समय जब उनके कान के पास थोड़ा स्थान छूट गया तो उन्होंने वहां भी लिखने के लिए कहा. जिन लोगों ने धार्मिक सुधार के लिए विद्रोह किया वे अत्यधिक पुरातनपंथी निकले. आंदोलन के अंतिम दिनों में ब्रह्मसमाज के अनुयायी हठधर्मी हो गये थे. बाद में बहुत सारे ब्रह्मसमाजी कम्युनिस्ट और मार्क्सवादी हो गए.

सन् 2002 हरियाणा में अनेक दलितों को जिंदा जला दिया गया. उन्हीं दिनों गाय की भी हत्या हुई. आज भी लोगों का मानना है कि गाय को पवित्र मानना चाहिए. 19वीं शताब्दी में गौ-हत्या पर वाद-विवाद इतना बढ़ गया कि हिंदी भाषी प्रांत में लोगों ने हिंदी का पक्ष लेते हुए गौ-हत्या का विरोध किया. उन्होंने नागरी लिपि और हिंदी का चित्रण बिल्कुल नम्र गऊ की तरह किया, तो उर्दू के पक्षधर ने गौ-हत्या का पक्ष लिया. हिंदी के पक्षधरों ने वाद-विवाद को गौ-हत्या के विरुद्ध और भाषा-साहित्य से संबंधित प्रश्नों से जोड़ा. यह सब इस सीमा तक बढ़ गया कि एक तरफ जहां शरतचंद्र वेश्याओं के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करने के लिए श्रीकांतनाम से उपन्यास लिख रहे थे, वहीं दूसरी तरफ हिंदी-संसार में उर्दू को वेश्याओं की भाषा के रूप में देखा जा रहा था.

19वीं शताब्दी में जातिगत क्रांति हुई, लेकिन इसके विरुद्ध प्रतिक्रिया स्वरूप एक प्रतिक्रांति भी विकसित हो गई. यह एक विपरीत जागरण था. आधुनिक भारत में विभिन्न प्रकार की विचारधाराएं एक साथ रहती हैं. यदि कुछ धर्मनिरपेक्ष लोग हैं, तो कुछ सांप्रदायिक भी हैं. आपको क्या लगता है कि 19वीं शताब्दी में सांप्रदायिकता नहीं थी?विचारधाराओं का संघर्ष नहीं था?इसलिए रेनेसां के बारे में एकपक्षीय दृष्टिकोण नहीं रखना चाहिए. विद्वानों को संपूर्णता में इस जटिल मुद्दे को देखना चाहिए. प्रायः विद्वान अत्यधिक स्पष्टीकरण के दोष से मुक्त नहीं हो पाते. स्पष्टीकरण और अत्यधिक स्पष्टीकरण दोनों गलत है. रेनेसां को हमें अत्यधिक सरल बनाने का प्रयास नहीं करना चाहिए. इस घटना की जटिलता, आधुनिकता और अत्याधुनिकता बहुत हैं और प्रभावशाली भी हैं. वे केवल हिंदुत्व में ही नहीं, बल्कि इस्लाम और ईसाईयत में भी दिखाई देती हैं. ऐसे में हमें पुराने लेखों और ग्रंथों पर विश्वास करना चाहिए.

जॉक देरिदा ने एक मनोरंजक निबंध लिखा है, जिसका शीर्षक है आर्काइव फीवर. इस आर्काइव फीवरका प्रयोग परतंत्रों के इतिहास लेखन में किया जाता है. इसलिए मैं कहता हूं कि हमें इतिहास को बहुत सावधानी से देखना चाहिए. हमें उन सुधारविरोधी तत्वों को देखने का भी प्रयत्न करना चाहिए जिसे हम समाज सुधारकहते हैं. उन दिनों भी रुढ़िवादी लोग थे. भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अपने एक निबंध में इस शब्द का प्रयोग किया है. जब हम कुछ लोगों को कंजरवेटिव कहते हैं, तो हमें इंग्लैंड के इतिहास की रोशनी में एक बार देखना चाहिए. लेबर कंजरवेटिव और लिबरल जैसे शब्दों का प्रयोग हमारे देश में भी होता रहा है. आज जब हम अपने राजनीतिक दलों को परिभाषित करते हैं या जब किसी को कंजरवेटिव या लिबरल कहते हैं, तो ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के शब्दकोश से शब्द उधार लेते हैं. सौभाग्य से टोरी शब्द जिसका बार-बार प्रयोग होता था, अब इसका प्रयोग बहुत कम हो गया है. जैसे लिबरल डेमोक्रेट और रिपब्लिकन जैसे शब्दों से अपने आप को दूर रखना चाहिए. स्वयं को परिभाषित करने  के लिए हमें अपना शब्द प्रयोग करना चाहिए. कंजरवेटिव या लिबरल का हमारे संदर्भ में कोई प्रयोग नहीं है. मेजॉरिटी और माइनॉरिटी जैसे शब्दों का प्रयोग बिल्कुल अर्थहीन है, क्योंकि हमारे देश में यदि एक समुदाय एक स्थान पर बहुमत में है, तो दूसरे स्थान पर वह अल्पसंख्यक है. इसके साथ ही अब तो बहुमत का अर्थ भी काफी बदल चुका है. किसी चीज को परिभाषित करने के लिए जिन पारिभाषिक शब्दों का हम प्रयोग करते थे, इन दिनों उसका झुकाव सरलता से ज्यादा जटिलता की ओर है. कबीर कहा करते थेः

‘‘मेरा-तेरा मनुआं कैसे एक होई रे.
मैं कहता हौं आंखिन देखी,
तू कहता कागद की लेखी,
मैं कहता सुरझावनहारी,
तू राख्यौ उरझाई रे.’’

अभी 19वीं शताब्दी के लिए रेनेसां शब्द का प्रयोग करने के बजाय हम इसे सरलतम शब्दों में रखते हैं. मैं इसे अभिज्ञानयुगकहना पसंद करूंगा. मैं युवा विद्वानों से आह्वान करता हूं कि वे उन गलतियों को न दोहराएं जो हमारी पीढी ने किये हैं. चीजों को खुली आंखों से देखने, पुराने मिथकों को समाप्त करके इतिहास को नये तरीके समझने और नये इतिहास को रचने की जरूरत है. अंग्रेजी के विद्वानों को दूसरे की अपेक्षा अधिक सुविधा थी. उनके पास अंग्रेजी भाषा द्वारा प्राप्त ज्ञान का विशाल आकाश था. भारतीय भाषाओं के विद्वानों को गंवार हो जाने का डर ज्यादा था. आज की अंग्रेजी को पूरब और पश्चिम में नहीं बांटा गया है. इसकी अपेक्षा उत्तर औपनिवेशिक काल की अंग्रेजी अधिक लचीली है और उसमें खुलापन भी अधिक है. चूंकि मेरा संबंध हिंदी से है, इसलिए कह रहा हूं कि हिंदी और गुजराती के विद्वानों से मैं बहुत उम्मीद नहीं करता. लेकिन अंग्रेजी के भारतीय विद्वानों से मेरी बहुत उम्मीदें हैं. जब वे अपने साहित्य का अध्ययन करेंगे तो उन्हें भारतीय रेनेसां की वास्तविकता और मिथक के बहुत से नये अर्थ मिलेंगे. जो अब तक हिंदी और गुजराती के विद्वानों की जानकारी से दूर है.
(यह आलेख पक्षधर में प्रकाशित है और इसके संपादक डॉ. विनोद तिवारी के आग्रह से यह संभव हुआ है उनके प्रति आभार-पंकज पराशर)
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पंकज पराशर
इस वर्ष आलोचना की पुस्तक 'रचना का सामाजिक पाठ'प्रकाशित.
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202002 (उ.प्र.)/फोन: +91-9634282886.

सबद - भेद : नामवर सिंह और भारतीय पुनर्जागरण : आशुतोष कुमार

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उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण : यथार्थ या मिथकनामवर सिंह के इस व्याख्यान ने जहाँ पर्याप्त ध्यान खींचा है वहीं इसने कई  प्रश्न भी खड़े कर दिए हैं. यह नामवर सिंह की बौद्धिक उपस्थिति का भी प्रमाण है
पुनर्जागरण समाज और राजनीति को समझने की केन्द्रीय परिघटना है. इसे इतिहास, साहित्य और दीगर अनुशासन अपने-अपने ढंग से देखते परखते हैं. आलोचक आशुतोष इस बहस को आगे बढ़ा रहे हैंऔर एक वाज़िब सवाल यहाँ उठा रहे हैं कि दमित समुदायों का समानता और स्वाधीनता के लिए उनका संघर्ष मिथक कैसे हो सकता हैं? हाँ शासक वर्ग ऐसे यथार्थ को अक्सर मिथक समझ लेता हैं 

नामवर सिंह और भारतीय पुनर्जागरण               
आशुतोष कुमार

क्ति आन्दोलन का समय जनभाषाओं के उत्थान का समय था. इन जनभाषाओं में रचे गये साहित्य में पुरानी  आस्थाओं पर कुछ  कठोर सवाल उठाये गए. नयी सोच, सम्वेदना और शिल्प का उदय हुआ. इसलिए यह एक प्रकार का जन जागरण और जातीय जागरण था. यह स्थापना रामविलास शर्मा की है. पहले अनुच्छेद में गुरुदेव नामवर जी ने इसी को पुनः स्थापित किया है. लेकिन रामविलास जी को  श्रेय देने से परहेज करते हुए. दूसरे अनुच्छेद में उन्होंने रामविलास जी के योगदान की तरफ संकेत किया है. लेकिन यह संकेत भी कुछ मजाक -सा उड़ाते हुए किया गया है. यानी अनेक जागरणों की कल्पना को अनेक बच्चों को एक ही नाम देने की जिद के समतुल्य बताते हुए. गोया इतिहास में किसी जाति का जागरण एक से अधिक बार होना मना हो.१९वीं सदी को  जागरण'करार देने में संकोच का यह भी एक कारण प्रतीत होता हैजागरण तो१४वीं सदी में हो गयाअब एक और जागरण कैसा? गुरुदेव का आदेश यह है कि इसे कोई नाम न दिया जाए, सीधे १९वीं सदी कहा  जायनाम देना ही हो तो 'अभिज्ञान'कहे, जागरण नहीं. अभिज्ञान  इसलिए कि१९वीं सदी एक तरह से खोयी हुई राष्ट्रीय  स्मृति को दुबारा  हासिल करने की कोशिश सरीखे थी. जैसे कालिदासीय  दुष्यंत को शकुन्तला का अभिज्ञान हुआ था. 'अभिज्ञान'की सार्थकता 'अभिज्ञान शाकुंतलम'से भी सहज ही जुड़ जाती है. आखिर अभिज्ञान शाकुंतलम एक ऐसा टेक्स्ट है, जो १९वी सदी के समूचे बौद्धिक उपक्रम के केंद्र में है.

लेकिन अगले अनुच्छेदों में नामवर जी  स्वयं स्थापित करते हैं कि १९ वीं सदी में जिस स्मृति को हासिल किया गया था, वह असल में कोई स्मृति नहीं बल्कि एक कल्पना थी. गल्प था. अगर. कल्पना थी, तो इसे अभिज्ञान कैसे कहा जाय.स्मृति का स्वप्न से जैसा सम्बन्ध है, वैसा ही कल्पना का जागृति से है. कल्पना की उड़ान ही मनुष्य और  मनुष्यता की जागृति  का संकेत है. लेकिन इस पर ज़रा रुक कर लौटते हैं.

जिसे १९  वीं सदी  का नवजागरण कहते हैं, वह कम से कम हिन्दी प्रदेश में प्रतिक्रिया का जागरण अधिक प्रतीत होता है, यह स्थापना थी वीर भारत तलवार की. उनकी चर्चित पुस्तक 'रस्साकशी'में. इसी बात को नामवर जी  'विपरीत जागरण'कह रहे हैं. भारतीय नवजागरण हकीकत नहीं, कल्पना है. यह बात  एडवर्ड सईद की पुस्तक 'ओरिएनटलिज़्म'और  बेनेडिक्ट एंडर्सन की 'इमैजिंड कम्युनिटीज़'में प्रस्तावित विचारों को भारतीय प्रसंग में लागू करने का सुफल है. सुफल इसलिए कि बात अपनी जगह सही है.

समस्या वहाँ शुरू होती है जहां १८५७ को नवजागरण के  औपनिवेशिक गल्प  के बरक्श एक दूसरे गल्प  के रूप में पेश किया जाता है. एक तो ऐसा लगता नहीं कि रामविलास जी ने १८५७ को फ्रांसीसी क्रांति का मूल बताया होगा, जैसाकि गुरुदेव इस व्याख्यान में कह गये हैं. क्योंकि फ्रांसीसी क्रांति तो हो चुकी थी  १७८९ में. रामविलास जी ने अधिक से अधिक १८५७ को फ्रांसीसी और रूसी क्रांतियों के समक्ष ठहराया गया होगा. मजेदार बात यह है कि नामवर जी  इस बात पर जोर देते हैं कि १८५७ केवल बिहार और उत्तरप्रदेश में हुआ. गोया यह कोई छोटा मोटा इलाका हो. क्या फ्रांसीसी और रूसी क्रांतियाँ भी मुख्य रूप से दो एक शहरों में ही केन्द्रित नहीं थी? किसी क्रांतिकारी घटना का असली महत्व उसके द्वारा प्रचलन मेंलाये गये विचारों की महत्ता पर निर्भर करता है. हश्र तो फ्रांसीसी और रूसी क्रांतियों का भी गौरवशाली न रहा. लेकिन फ्रांसीसी क्रांति उदारता, समानता और बंधुत्व के विचार के कारण और रूसी क्रांति समाजवाद के कारण महत्वपूर्ण है. १८५७ दुनिया का पहला महत्वपूर्ण उपनिवेश विरोधी जन विद्रोह या स्वतन्त्रता संग्राम हैविचार के स्तर पर इसके महत्व को कम कर के आंकना भी एक तरह का यूरोकेंद्र्वाद है. अगर यह कम महत्वपूर्ण लगता है तो सिर्फ इसलिए कि यूरोप के बाहर  घटित हुआ.

१८५७ का आख्यान एक दमित  आख्यान है. इसे दबाने का काम मुख्य रूप से यूरोपीय इतिहासकारों ने किया. कार्ल मार्क्स ने इस दमन का प्रतिकार करते हुए १८५७ के साम्राज्यवाद विरोधी चरित्र के  महत्व को रेखांकित किया. रामविलास जी ने इसी काम को आगे बढाया. यह प्रतिरोधी इतिहास लेखन है. इसमें यहाँ वहाँ सुधार की सम्भावनाएं जरूर होंगी, लेकिन इसे एक समांतर गल्प  के रूप में पेश करना तर्कसंगत नहीं  है. सचाई तो यह है कि १८५७ के जिस चरित्र को मार्क्स, सावरकर (हिंदुत्व-वादी होने के पहले) और रामविलास शर्मा जैसे गैर पेशेवर इतिहासकारों ने उद्घाटित किया था, उसे लम्बे विरोध के बाद अब इरफ़ान हबीब जैसे स्थापित इतिहासकारों ने भी स्वीकार कर लिया है.

नामवर जी के इस प्रस्ताव में सचाई का अंश है कि १९ वीं सदी का भारतीय नवजागरण विक्टोरियाई ब्रिटिश परिकल्पना की निर्मिति है. उस नवजागरण की सीमाएं अब अत्यधिक स्पस्ट हैं. अंतर्विरोध भी. लेकिन प्रत्येक युग में प्रगति और प्रतिक्रिया का उत्थान साथ साथ होता है. प्रतिक्रिया के तूफ़ान के सामने प्रगति के दिए की लौ हमेशा बहुत कमजोर और कांपती हुई -सी दिखती है. इतिहास का हर वृत्तांत आधी हकीकत आधा फ़साना होता है ,लेकिन १९ वीं सदी में बहुत कुछ ऐसा हुआ जो युगांतरकारी था, इसे पूरी तरह नकार देना जायज न होगा. १८५७ की क्रांति विदेशी राज के खिलाफ हिन्दुस्तानियों की राष्ट्रीय बगावत का उद्घोष है, उसे गाय और सूअर के मांस के खिलाफ एक धार्मिक प्रतिक्रिया के रूप में पेश करना उपनिवेशी मिथक- रचना को अंतिम सत्य की तरह स्वीकार कर लेने के सिवा और कुछ नहीं है. लोकचेतना के निर्माण में १८५७ के भूमिका को समझने के लिए सम्बद्ध लोक- गीतों, लोक- कथाओं, लोक- स्मृतियों और लोक -परम्पराओं को देखना चाहिए. शास्त्रों में जिस परिघटना को चंद सिपाहियों के गदर के रूप में अवमूल्यित किया गया है, उसे जनता ने विद्रोह और बलिदान के आख्यान के रूप में सहेज रखा है. आगे चलकर भारत में जिस राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ, उसे १८५७ और  पहले के भी किसान-आदिवासी विद्रोहों से काट कर रखना इतिहास लेखन की  औपनिवेशिक परियोजना का एक हिस्सा है. इस स्थापना के पुष्टि के लिए मैं सिर्फ एक साहित्यिक उदाहरण पेश करना चाहूँगा.

क्या ग़ालिब की शायरी को १८५७ से अलगा कर पढ़ा जा सकता है ? ग़ालिब के एक उत्तराधिकारी फैज़ अहमद फैज़ ने 'मुद्दत हुई है यार को मेहमा किये हुए'वाली ग़ज़ल का जो पाठ पेश किया है, उसमें   साफ़ दिखता  है कि ग़ालिब की संवेदना का उत्स फारसी शायरी और सूफी दर्शन में न हो कर उनके समय की राजनीतिक परिस्थितियों में था. 'ना गुले नगमा हूँ, न परदा--साज/मैं हूँ अपनी शिकस्त की आवाज़"उनकी प्रसिद्ध ग़ज़ल है. मैं इसे ग़ालिब के अत्यंत प्रातिनिधिक गजल मानता हूँ. ग़ालिब की शायरी जिस शिकस्त की आवाज़ है, क्या वह एक व्यक्ति या प्रेमी की शिकस्त है ? या वह एक समूची सभ्यता और संस्कृति की शिकस्त है ? क्या इसमें १८५७ के शिकस्त की आवाज़ शामिल नहीं है?

ग़ालिब पर ध्यान देना इसलिए जरूरी है कि ग़ालिब समूची बीसवीं सदी पर छाये हुए हैं. क्या ग़ालिब के बिना इकबाल हो सकते थे ? क्या इकबाल और ग़ालिब के बिना प्रेमचन्द हो सकते थे ? क्या वही खुद्दारी, स्वाभिमान और निर्भीकता रवीन्द्रनाथ और निराला में भी ध्वनित नहीं हो रही, जो ग़ालिब और इकबाल की शायरी की का मर्म है ? क्या ग़ालिब के बिना फैज़ हो सकते थे? फ़िराक हो सकते थे, जिनके एक संग्रह का नाम ही गुले नगमा है? क्या हबीब जालिब हो सकते थे १९ वीं या बीसवीं सदी पर भी क्या बात की जाए, अगर ग़ालिब का ज़िक्र न हो.

क्या ग़ालिब औपनिवेशिक गल्प थे? क्या सारा राष्ट्रीय आन्दोलन औपनिवेशिक गल्प था, जो भले बीसवीं सदी में परवान चढा, लेकिन जिसकी जड़ें उन्नीसवीं सदी में थीं? क्या प्रेस का प्रसार, पत्र-पत्रिकाओं का विस्तार, देसी जनक्षेत्र  का निर्माण, उपन्यास का जन्म, आधुनिक कविता, सुधार, स्वतन्त्रता और समानता की आकंक्षा यह सब गल्प है ? क्या राष्ट्रीय चेतना नाम की कोई चीज विकसित नहीं हुई ? क्या ग़ालिब के समकालीन फुले भी एक ऐतिहासिक गल्प हैं ? क्या यह सब कुछ उधार में मिला था ? क्या ये सब परिघटनाएं हिन्दुस्तान में विकसित नहीं हुईं ? क्या ये  हिन्दुस्तानी लोगों की उपलब्धियां नहीं थी ? खुद गुरुदेव कह रहे हैं कि शेक्सपीयर तक को हमने अंग्रेजों से नहीं पाया, खुद खोजा. अँगरेज़ शेक्सपीयर को ले कर आये, ऐसा कहने के लिए वे नेहरू की निंदा करते हैं. भारतीय अगर शेक्सपीयर को खोज सकते तो, तो क्या राष्ट्रीय चेतना का विकास नहीं कर सकते थे ? १८५७ का स्वातन्त्र्य समर भारत में हो ही नहीं सकता था ?

इतिहास का हर वृत्तांत  आधी हक़ीकत आधा फसाना होता है. हक़ीकत और फ़साने के अनुपात को ठीक से समझने की जरूरत बनी रहती है. इसी अनुपात में समय के सब से बड़े रहस्य छुपे होते हैं. लेकिन उसे पूरी हक़ीकत या पूरा फ़साना बना देना सरलीकरण है, वैसा ही जैसा इस वाक्य में दिखता है --'वे आज के दलितों की तरह नहीं थे, जो ब्राह्मण की बुराई करते हैं और यह मानकर चलते हैं कि ऐसा करके वे सामाजिक क्रांति ले आएंगे."
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आशुतोष कुमार
प्रोफेसर  (हिंदी विभाग)/दिल्ली विश्वविद्यालय
ashuvandana@gmail.com
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(व्याख्यान यहाँ पढ़ें / उन्नीसवीं सदी का भारतीय पुनर्जागरण : यथार्थ या मिथक :: नामवर सिंह) 

रंग - राग : एक छपे रिसाले के लिए विलम्बित मर्सिया : विष्णु खरे

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‘द इंडियन एक्सप्रेस’ ग्रुप की मुंबई से 1951 में शुरू हुई अंग्रेजी की फ़िल्म – पत्रिका ‘स्क्रीन’ के प्रिंट संस्करण के बंद होने की खबर है. ‘स्क्रीन’ कुछ उन पुरानी पत्रिकाओं में है जो धीरे- धीरे  परिवार का हिस्सा बन जाती हैं, तय समय पर उनके आने के प्रतीक्षा और पढने की बेकरारी रहती है. 
किसी पत्रिका का बंद होना उसके किसी पाठक के लिए क्या मायने रखता है इसका अंदाज़ा बिना इस लेख को पढ़े नही लगाया जा सकता है. फिल्मों के मर्मग्य कवि विष्णु खरे ने  आत्मीयता और लगाव से इस पत्रिका से अपने सम्बन्धों के विषय में लिखा है. दरअसल यह भारत में फिल्मी पत्रकारिता के युग पर एक बेचैन कर देने वाला मर्सिया है.


एक छपे रिसाले के लिए विलंबित मर्सिया                
विष्णु खरे 



ज से साठ वर्ष पहले अपने पैदाइशी कस्बे छिन्दवाड़ा में गोलगंज से छोटीबाज़ार जाने वाले रास्ते के नाले की बगल में एक नए खुले पान-बीड़ी के ठेले पर उसे झूलते देख कर मैं हर्ष विस्मित रह गया था. घर पर (एक दिन पुराना डाक एडीशन) ‘टाइम्सऑफ़इंडिया’, ’इलस्ट्रेटेडवीकली’ और ‘धर्मयुग’ नियमित आते थे, हिंदी प्रचारिणी लाइब्रेरी में और कई हिंदी-अंग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाएँ देखने-पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त था, लेकिन वह अंग्रेज़ी अखबार-सा दीखनेवाला जो एक रस्सी से लटका फड़फड़ा रहा था, एक युगांतरकारी, नई चीज़ थी. क्या किसी दैनिक से लगनेवाले इंग्लिश साप्ताहिक का नाम ‘’स्क्रीन’’ हो सकता था ? और जिसके हर एक पन्ने पर सिवा फिल्मों, सिनेमा, उनके इश्तहार ,एक्टर, एक्ट्रेस, उनके एक-से-एक शूटिंग या ग़ैर-शूटिंग फोटो वगैरह के और कुछ न हो ? खुद जिसका नाम सेल्युलॉइड की रील के टुकड़ों की डिज़ाइन में छपा हुआ हो ? मुझे पूरा यकीन है कि उसे सबसे पहले हासिल करने के लिए जिस रफ़्तार से दौड़ कर मैं घर से चार आने लाया था उसे तब रोजर बैनिस्टरया आज ओसैन बोल्टभी छू नहीं पाए होंगे.

स्बे के कुतबखाने में 1950 के दशक में हिंदी-अंग्रेज़ी की कोई ‘’चालू’’ पत्रिका नहीं आती थी, फ़िल्मी मैगज़ीन का तो कोई प्रश्न ही नहीं था. यह एक रहस्य है कि किसने कब बाबूरावपटेलकी अत्यंत विवादास्पद, ’’आपत्तिजनक’’ कार्टूनों, लेखों, टिप्पणियों वाली, आर्ट-पेपर पर छपनेवाली वज़नी, बेहद महँगी, अंग्रेज़ी सिने-पत्रिका ‘’फिल्मिन्डिया’’ को वहाँ मँगाना  शुरू कर दिया था, जिसे पढनेवाले बहुत कम जानकार और शौकीन लोग थे. लेकिन ‘’स्क्रीन’’ के लिए कोई गुंजाइश नहीं थी. लाइब्रेरी के संचालकों के लिए वह एक अजीब चीज़ रही होगी – अखबार-साइज़ के सोलह पेजों के बावजूद  न वह बाक़ायदा अखबार थी न रिसाला, फ़िल्मी फ़ोटो होने के बावजूद वह फिल्म पत्रिका लगती नहीं थी और तुर्रा यह कि अंग्रेज़ी में थी.सो वह कभी टेबिलों पर दिखाई न दी.

लेकिन कहा भी है कि मुद्दई लाख बुरा चाहे तो क्या होता है. 1950-60 का ज़माना वह था जिसमें हिंदी सिनेमा में ‘’आधुनिकता’’ का पहला दौर आया और, नाम गिनाने से क्या फ़ायदा, ऐसे निदेशक, हीरो, हीरोइनें, चरित्र-अभिनेता-अभिनेत्रियाँ,  खलनायक, कॉमेडियन, संगीत- निदेशक, गीतकार, गायक-गायिकाएँ और सभी विभागों के तकनीशियन भी उभरे कि फ़िल्में हमेशा के लिए बदल गईं. उनमें अद्भुत वैविध्य दिखाई देने लगा. इसी ‘’क्रांति’’ ने जुनूबी एशिया में सिनेमा के पहले करोड़ों दर्शक पैदा किए जिनमें, ज़ाहिर है, बहुमत हम-जैसे तत्कालीन किशोरों-नवयुवकों का था. युगांतरकारी परिवर्तन यह था कि हमारी दिलचस्पी महज़ सिनेमा देखने में नहीं थी, वह बनता कैसे है इसे जानने में भी ख़ूब थी ; सिर्फ़ हिन्दुस्तानी फिल्मों में नहीं थी बल्कि अंग्रेज़ी फिल्मों से गुज़रते हुए सारे संसार के सिनेमा की कोई भी झलक देख लेने में थी.तब न कोई विदेशी सिने-पत्रिका देखने को नसीब होती थी और न फ़िल्म पर कोई देशी-विदेशी किताब.(आज भी हिंदी में सिनेमा पर कोई स्तरीय पत्रिका नहीं है और न फिल्म पर किताबों का एक पूरा शैल्फ़.) इस भयावह, पंगुकारी निर्वात को यदि कोई भरता था तो अंग्रेज़ी का ‘’स्क्रीन’’.सब इस बात की बहुत डींग हांकते हैं कि सिनेमा ने हिंदी को बहुत लोकप्रिय और स्वीकार्य बनाया है, लेकिन इस पर कोई खोज नहीं हुई है कि सिनेमा पढ़ने-जानने की भूख हमें कितनी अँग्रेज़ी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों की ओर ले गई,ले जा रही है.

स्क्रीन’’ की देखा-सीखी 1950 के दशक में हिंदी सहित कई भारतीय भाषाओँ में वैसे ही पत्र-पत्रिकाएँ निकले. वह ज़माना अंग्रेज़ी ‘इलस्ट्रेटेडवीकली’, हिंदी ‘धर्मयुग’ और उर्दू ‘शमा’ में आनेवाली वर्ग-पहेली  (Crossword-puzzles) प्रतियोगिताओं का भी था जिनमें लाखों पाठक करोड़ों रुपयों का शुल्क भर कर हिस्सा लेते थे. ’’स्क्रीन’’ में वर्ग-पहेली नहीं होती थी लेकिन उसकी नक़ल करनेवाली कई छोटी पत्रिकाओं ने इसे भी बिक्री का एक हथकंडा बनाया मगर न उनकी वर्ग पहेलियाँ चलीं, न वह स्वयं.’’स्क्रीन’’ का बाल भी बाँका न हुआ बल्कि उसने सारे देश की पत्रकारिता में एक अद्वितीय स्थान बना लिया. वह भारतीय सिनेमा के केंद्र मुम्बई से निकलती थी यानी उसे अपने लिए अनिवार्य सारा कच्चा और पका-पकाया माल कुछ ही मीलों और घंटों के भीतर मिल जाता था. लोग देख नहीं पाते हैं कि अखबार निकालने और फिल्म बनाने में अद्भुत समानता है. फिर ‘’स्क्रीन’’ को अपने प्रकाशन-कुल इंडियनएक्सप्रेससमूहका भी मज़बूत सहारा हासिल था. शायद ’’स्क्रीन’’ की सफलता को देखकर टाइम्स ऑफ़ इंडिया समूह ने भी अपनी फिल्म-पत्रिका ‘’फ़िल्मफेयर’’ शुरू की लेकिन होशियारी यह की कि उसे ‘’स्क्रीन’’ से बिलकुल अलग आकार-प्रकार में निकाला. दोनों के बीच कमोबेश एक शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व बना रहा. यह संयोग नहीं था कि जब बी.के.करंजिया‘’फ़िल्मफ़ेयर’’के सम्पादक-पद से रिटायर हुए तो एक्सप्रेस-स्वामी रामनाथगोयनकाने तत्काल उन्हें ‘’स्क्रीन’’ की संपादकी सौंप दी.

‘स्क्रीन’’ ने बुद्धिमानी यह की कि उसने एक सरल, सहज, लोकप्रिय पत्र बने रहने का फैसला किया क्योंकि उसका विषय भारतीय सिनेमा था, रूसी, फ्रेंच, इतालवी या जर्मन सिनेमा नहीं. उसका पाठक अंग्रेज़ी से परिचित पाठक था,फ़िल्म-थ्योरी का जानकार या अध्येता नहीं. मुझे कुछ याद आता है कि उसमें नैट डैलिंजर नामक फ़ोटोग्राफ़र के चित्रों के साथ  हॉलीवुड की एक कॉलमिस्ट लूएलापार्सन्सका साप्ताहिक स्तम्भ छपा करता था लेकिन अधिकांशतः दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद जैसे युवा-ह्रदय सम्राटों के खेमों में बंटे हुए लाखों नौजवानों की तसल्ली का सहारा ‘’स्क्रीन’’ की हिन्दी फिल्मों की सचित्र कवरेज ही हुआ करती थी.वह शुक्रवार को बाज़ार में आता था लेकिन इतवार तक युवा हाथों में लुग्दी बन जाता था. फिल्मों के विज्ञापनों तक को काट कर रख लिया जाता था. दिलीप,राजऔर देवपर निकाले गए ‘’स्क्रीन’’ के विशेषांक तो सोने की मोहरों में तोले जाने लायक थे.

बसे बड़ी बात यह थी कि जब तक वह अखबार की साइज़ में,ब्लैक-एंड-वाइट निकला तब तक ‘स्क्रीन’ एक ‘डेमोक्रेटिक’,यहाँ तक कि ‘प्रोलेतारिअत’ रिसाला था. उसने फिल्म-उद्योग के हर किमाश के छोटे-बड़े के बीच कोई भेद-भाव नहीं किया. उसके संपादकों, लेखकों और पत्रकारों ने आम पाठक को डराया-धमकाया नहीं, उन्हें कोई ‘इन्फ़ीरिओरिटी कॉम्प्लेक्स’ नहीं दिया.साफ़ दीखता था कि उसे निकालने वालों को भी उतना ही मज़ा आ रहा था जितना उसे पढ़नेवालों को.उसकी अंग्रेज़ी स्तरीय थी, जिससे लिखना सीखा जा सकता था. उसके लाखों पाठकों के पास अब भी उसकी कतरनें और फोटो सहेजे हुए होंगे. उसमें स्कैंडल, अफवाहें, रंगीन रातों, गर्भाधान, गर्भपात, प्रसूति, कुच-नितम्ब-जंघा शल्य-क्रिया,नींवि-कंचुकी-बंधन-बाधा,बलात्कार,कास्टिंग-काउच आदि के खोजी,’स्टिंग’,अन्तरंग समाचार नहीं दीखते थे.

सुना है अंतिम दिनों में अपने अतिरंजित टैब्लॉइड अवतार में वह सिर्फ पद्रह-सोलह हज़ार छपने लगा था. 1955-90 के अपने स्वर्णकाल और हिंदी फिल्म-उद्योग की कल्पनातीत ‘’उन्नति’’ के बावजूद इस नियति को वह क्यों प्राप्त हुआ यह कहना कठिन है. उसी के साथ का ‘’फिल्मफ़ेयर’’ अब भी कैसे डटा हुआ है ? कानून की सीमाओं के भीतर हर मालिक को अधिकार है कि वह अपने माल को जैसा चाहे तैयार करे, जिसे चाहे बेचे या बनाना ही बंद कर दे. लेकिन आपका टमाटर बेचनेवाला यदि यह कहे कि सुविधा के लिए मैं उनका कचूमर निकाल कर आपको  सीधा कैचप ही दे रहा हूँ तो आप उसके चेहरे में अपना चेहरा ढूँढते रह जाने के सिवा और कर भी क्या सकते हैं ? 

पिछले दिनों जब लगातार दो हफ्ते ‘’स्क्रीन’’ नहीं आया तो हमने पारिवारिक स्तर पर अखबारवाली एजेंट-बाई को बुलाकर पूरे साठ वर्ष के तपोबल के साथ कई किस्म की धमकियाँ और चेतावनियाँ दीं. वह इतना बोली कि मैं किदर से लाऊँ,’’स्क्रीन’’ अबी बंद हो गई. हमने डपटकर कहा कि उसमें ऐसा कहीं नहीं छपा था, तुम हमारा ‘’स्क्रीन’’ किसी और को बेच रही हो.उसने कहा काकासाहेब, आप तो पढ़े-लिखे हो,कंपनी से तपास करो ना.कंपनी से क्या करते,गूगल किया.

‘स्टार इंडिया नामक कंपनी के अफ़सरद्वय उदय शंकर- संजय गुप्ता ने बताया कि हाँ हमने ‘’स्क्रीन’’ को खरीद लिया है और हम इसे ऑनलाइन डिजिटल बनाने जा रहे हैं जहाँ वह बहुत कामयाब रहेगा’’.ऑव,कम ऑन बॉयज़,गैट रियल.
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(यह आलेख रविवार के नवभारत टाइम्स मुंबई में प्रकाशित है.संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ)
विष्णु खरे 
9833256060
 vishnukhare@gmail.com

अन्यत्र : अंडमान : रामजी तिवारी

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‘अन्यत्र’ के अंतर्गत ‘थाईलैंड’ और ‘लद्दाख’ पर रामजी तिवारी के यात्रा संस्मरण आप पढ़ चुके हैं. अंडमान की इस यात्रा में केवल यात्रा ही नही इतिहास और वर्तमान भी है. रामजी तिवारी ने अंडमान की यात्रा केवल सैलानी बन कर नहीं की है, इस यात्रा में उनका सर्जक मन भी उनके साथ रहा है, स्वाधीनता के संघर्षरत इतिहास से  अमानुषिक दमन-चक्र की चीखें लगातार आपका पीछा करती हैं. एक तरह से यह यातना की यात्रा है. सहज पर सचेत ढंग से यह संस्मरण लिखा गया है. अगर आपकी अपने अतीत में जरा भी रूचि है तब इसे पूरा पढ़े बिना आप नहीं छोड़ पायेंगे. और हाँ इसे पढ़ने के बाद वहां के  लुप्तप्राय जारवा जनजाति के बारे में जरुर सोचियेगा. 

अंडमान – थोड़ी ख़ुशी और ढेर सारे ग़म                
रामजी तिवारी 


एक 
बचपन की स्मृतियों में अंडमान और लक्ष्यद्वीप की छवि भूगोल की पुस्तकों से उभरती है. भारत की मुख्यभूमि से अलग दक्षिण पूर्व में स्थित अंडमान और दक्षिण पश्चिम में स्थित लक्ष्यद्वीप को हम बड़े ही कौतुक भाव से देखा करते थे. समुद्र की इस विशाल जलराशि के बीच इन द्वीपों पर लोग-बाग़ कैसे रहते होंगे, और मुख्यभूमि से इतनी अधिक दूरी होने के बावजूद भारत इन पर कैसे अपनी शासन-व्यवस्था संचालित करता होगा, हमें विशेष रूप से मथता था. और फिर माध्यमिक कक्षाओं में जब इतिहास की पुस्तकों से सामना हुआ, तो यह कौतुहल कम होने के बजाय और बढ़ता गया. अंडमान के साथ अब ‘काला-पानी’ की कहानी भी हमारे जेहन में दर्ज होने लगी थी. सोचकर ही मन सिहर उठता था कि किसी भी व्यक्ति को इतनी दूर एकांत और निर्जन में उठाकर पटक दिया जाए, तो उस पर क्या बीतती होगी. वह तो बिना सजा के ही टूट जाता होगा .... मर-खप जाता होगा. तब के हमारे शिक्षकों के पास पाठ्य-पुस्तकीय जानकारियों के अलावा कोई सीधा या प्रत्यक्ष अनुभव भी नहीं होता था, जो हमारी अनगिनत जिज्ञासाओं का समाधान कर पाते. हम बड़े होते रहे, और जैसा कि भारत में लद्दाख, पूर्वोत्तर, अंडमान और लक्ष्यद्वीप के बारे में सामान्यतया लोगों को होता रहा है, हम भी इसे देश के हिस्से से बाहर का मानकर भूलते से रहे.  

लगभग डेढ़ दशक पहले देशाटन की इच्छा ने हमारे पैरों में चक्कर बाँध दिया. मन में जिस पहली इच्छा ने कुलांचे मारने के लिए सिर उठाया था, उसका रुख लद्दाख और अंडमान की तरफ था. आज इन बातों को शेयर करते हुए अत्यंत गर्व होता है कि जीने के लिए भले ही हमने इस गाँव की सीमाओं को नहीं लांघा है, लेकिन देखने के हिसाब से हमने लद्दाख से लेकर अंडमान तक की दो-चार साँसे अपने दिल में डाल ली है. दोनों जगहों की यात्रा में हवाई मार्ग कामन है. और दूसरे रास्ते के रूप में लद्दाख पहुँचने के लिए, जहाँ हम सड़क मार्ग को चुनते हैं, वहीँ अंडमान की यात्रा के लिए अपनाया जाने वाला दूसरा मार्ग जल-मार्ग है. इसकी राजधानी पोर्टब्लेयर ऎसी भौगोलिक रेखा पर स्थित है, जहाँ से कोलकाता और चेन्नई की दूरी लगभग एक समान, 1200 किलोमीटर के आसपास है. यहाँ पहुँचने के लिए उत्तर-भारतीय लोग कोलकाता का चुनाव करते हैं, और दक्षिण भारतीय लोग चेन्नई का. दोनों शहरों से की जानी वाली हवाई यात्रा दो घंटे में पोर्टब्लेयर पहुंचा देती है, जबकि पानी की जहाज से सामान्यतया तीन दिन का समय लगता है.

पोर्टब्लेयर जाने के लिए विमान जैसे ही ‘उड़ान भरता’ है, वह हिन्द-महासागर की उस विशाल जलराशि के ऊपर कलाबाजियां दिखाने लगता है, जो आसमान की तरह अथाह और अनंत दिखाई देता है. दो घंटे बाद, जब वह नीचे उतरने की शुरुआत करता है, और दूर-दूर तक कहीं किसी जमीन के टुकड़े की आहट नहीं मिलती, तब तमाम जानकारियों को पढ़कर जाने के बाद भी मन में वही अकुलाहट उभरने लगती है, जो ‘लेह हवाई अड्डे’ पर विमान के उतरते समय होती है. जैसे कि इतने विशाल पहाड़ों के बीच इतनी समतल जमीन कहाँ से आयेगी कि कोई विमान उस पर उतर सके. वैसे ही इतने विशाल महासागर के बीच जमीन का वह टुकड़ा कहाँ से आएगा, कि जिस पर विमान उतर सके. विमान थोड़ा और नीचे आता है, और तब उस नीले समुद्र के बीच से असंख्य हरे टुकड़े उभरने शुरू हो जाते हैं. जैसे कि समुद्र के नीले खेत में किसी ने इन हरी फसलों के बीज डाल दिए हों, और अब ये पौधों के रूप में अंकुरित हो गए हों. कहीं-कहीं लगता है कि बीज डालने वाले ने बेहद उदारता दिखाई है, तो कहीं-कहीं अतिशय कंजूसी. विमान थोड़ा और नीचे आता है. और तब लगता है कि इन पौधों की माँ भी वही है, जो हम सबकी है. यात्रियों को तसल्ली होने लगती है कि इस विमान को भी गोद नसीब हो जायेगी.

पोर्टब्लेयर का ‘वीर सावरकर अन्तर्राष्ट्रीय हवाई अड्डा’ बेहद छोटा है. इतना कि इसको यदि आप दिल्ली मुंबई या कोलकाता हवाई अड्डे के बच्चे के रूप में भी चित्रित करना चाहें, तो इसे अतिरंजनापूर्ण ही माना जाएगा. हवाई अड्डे के ‘निकास दरवाजे’ पर नामों की तख्तियां लिए टूर-आपरेटर्स की कतार खड़ी है. ऐसा लगता है, जैसे उतरने वाले प्रत्येक व्यक्ति को रिसीव करने के लिए कोई न कोई जरुर आया है.

“तो क्या हम लोगों ने टूर-आपरेटर की सेवा नहीं लेकर कोई गलती कर दी है?””

जब मैं यह सवाल उस कार वाले से करता हूँ, जो हमें एअरपोर्ट से शहर ले आ रहा है, तो वह हमें चिंताओं के समुन्दर के धकेल देता है. ““बिना टूर-आपरेटर के आप अंडमान में नहीं घूम सकते हैं. यहाँ पर ढेर सारे ऐसे द्वीप हैं, जहाँ पर जाने के लिए पानी की जहाजों की आवश्यकता होती है. उनमें अग्रिम-आरक्षण कराना पड़ता है, जिसके लिए काउंटर पर काफी लम्बी लाइन लगती है. तो आप घूमेंगे, या आरक्षण कराते फिरेंगे. कहीं ऐसा न हो कि आपको इसी पोर्टब्लेयर से घूम फिरकर वापस लौटना पड़े.””

“तो क्या अंडमान हमारे लिए भी ‘काला पानी’ ही साबित होने जा रहा है ...?”
हमारे चेहरे पर हवाइयां उड़ने लगती हैं. कि इतने में वह कार वाला किसी ‘टूर आपरेटर’ से मिलवा देने का प्रस्ताव ठोकता है.

चेहरे की हवाईयां बनारस का एंटिना पकड़ लेती हैं. वहां आने वाले पर्यटकों को रिक्शा वाले, होटल वाले, नाव वाले और पुजारियों की फ़ौज जिस तरह के सत्कार से नवाजती है, ऐसा लग रहा है कि यह पठ्ठा भी हमारा वही सत्कार कर रहा है. कहीं ऐसा तो नहीं कि इसने भी विश्वनाथ गली और दशाश्वमेध घाट से ही ‘सत्कार’ का यह प्रशिक्षण लिया हो.”

दिमाग में यह बात कौंधती है, कि देश में इधर प्रचलित हुए ‘फेंकने के चलन’ को आजमाया जा सकता है .
“यहाँ पर हमारे एक परिचित रहते हैं .””

इस एक छोटे से वाक्य में ही वह ‘पट्ठा’ बोल्ड हो जाता है . ““मेरे कहने का मतलब यह नहीं था कि आप यहाँ अकेले घूम ही नहीं सकते. बल्कि मैं तो यह कह रहा था कि इस तरह आपको परेशानी होगी. और चुकि आप यहाँ आनंद लेने के लिए आये हुए हैं, इसलिए मैं आपको सलाह दे रहा हूँ कि किसी टूर-आपरेटर को ले लेना ठीक होगा.””

‘हूँ-हाँ’ करते हुए हम अबरदीन बाजार के गाँधी चौक पर उतर जाते हैं, और फिर अपने अनुभव के आधार पर एक ठिकाना टीप देते हैं. यह सोचते हुए कि ‘फेंकना’ हमेशा एक नकारात्मक क्रिया ही नहीं होती .

नहा धोकर हम नाश्ते के लिए निकलते हैं. और इस सवाल का पीछा करने के लिए भी, कि अंडमान में बिना ‘टूर-आपरेटर’ के कैसे घूमा जा सकता है. पता यह चलता है कि मुख्यभूमि से दूरी और विमान से आने की मजबूरी के कारण यहाँ घूमने में खर्चा अधिक होता है. इस कारण सामान्य पर्यटकों की संख्या काफी कम आती हैं. सरकारी कर्मचारी ही अधिकांशतः यहाँ आते हैं, जिनके पास सरकार की तरफ से ‘यात्रा रियायत अवकाश’ (एल.टी.सी.) की बैशाखी उपलब्द्ध होती है. 2004 की सुनामी के बाद यह बैशाखी इतनी मजबूत और अच्छी हो गयी है कि उसके सहारे सरपट दौड़ा जा सकता है. चुकि ‘टूर-आपरेटरों’ को दिए गए बिल-भुगतान का सारा पैसा सरकार वहन कर देती है, इसलिए यहाँ आकर हर कोई ‘पैकेज टूर’ की निश्चिन्तता भोगना चाहता है. यह अनायास नहीं है कि 2005 के बाद सरकार द्वारा दी गयी इस सुविधा के कारण यहाँ पर पर्यटकों की संख्या में पांच गुना तक की बृद्धि दर्ज की गयी है. पहले के 30 हजार प्रतिवर्ष के मुकाबले, आजकल डेढ़ लाख प्रतिवर्ष तक.

हमें तसल्ली होती है, कि अंडमान को भी देश की तरह ही आर्थिक मितव्ययिता के साथ घूमा जा सकता है. और इस ख़ुशी के नाम पर चाय के साथ-साथ थोड़ी निश्चिंतता भी गटकी जा सकती है, कि यहाँ पर सामान्यतया प्रचलित एक सप्ताह के ‘टूर-पैकेज’ के बरक्स, हमारे पास पूरे दस दिन का समय उपलब्द्ध है. होटल वापस लौटते समय अंडमान को जानने के लिए एक किताब हमारी तरफ उंगली बढ़ाती है. हम उसे लपककर पकड़ लेते हैं. और जैसा कि सामान्यतया होता है, कि ऐसी किताबों को हाथ में लेते ही नींद आने लगती है, उसके विपरीत इसको हाथ में लेते ही नींद गायब हो जाती है. बेहद सरल भाषा में लिखी हुयी यह किताब अंडमान के कुछ रास्ते तो दिखा ही देती है.

दो
बंगाल की खाड़ी में स्थित ‘अंडमान और निकोबार’ द्वीप समूह लगभग 780 किलोमीटर लम्बाई में फैला हुआ है. 572 छोटे-बड़े द्वीपों से मिलकर बने इस केन्द्रशासित प्रदेश में 2011 की जनसँख्या के आंकड़ों के अनुसार लगभग 4 लाख की आबादी निवास करती है. अधिकतर लोग दक्षिणी अंडमान में, या कहें तो पोर्टब्लेयर के आसपास ही रहते हैं. कुछ द्वीप तो इतने छोटे हैं, कि उन्हें नजरअंदाज भी किया जा सकता है. लेकिन ऐसे द्वीपों की संख्या भी लगभग 300 के आसपास आंकी गयी है, जिन्हें कुल मिलाकर द्वीप कहा जा सकता है. मजे की बात यह है कि इनमें से कुल छत्तीस द्वीप ही ऐसे हैं, जहाँ पर मानव जीवन निवास करता है. 24 अंडमान में और 12 निकोबार द्वीप समूह में. प्रशासनिक दृष्टि से पूरे अंडमान और निकोबार द्वीप समूह को तीन जिलों में बांटा गया है. पहला उत्तरी और मध्य अंडमान, जिसका मुख्यालय ‘मायाबंदर’ है. दूसरा दक्षिणी अंडमान, जिसका मुख्यालय ‘पोर्टब्लेयर’ है. और तीसरा निकोबार द्वीप समूह, जिसका मुख्यालय ‘कार’ द्वीप में है. इस द्वीप समूह का धुर उत्तरी हिस्सा बर्मा से सिर्फ 180 किलोमीटर दक्षिण में है और सबसे दक्षिणी हिस्सा ‘इंदिरा प्वाईंट’ इंडोनेशिया से सिर्फ 150 किलोमीटर उत्तर में.

‘अमेजन’ के जंगलों की तरह यह द्वीप समूह भी दुनिया की साँस चलाने की जिम्मेदारी निभाता है. इसका लगभग समूचा हिस्सा (लगभग 86 प्रतिशत) वनों से ढका हुआ है, और वर्ष के आधे दिनों में यहाँ बारिश जरुर होती है. यहाँ का पर्यटन ले-देकर ‘पोर्टब्लेयर’ के आसपास सात-आठ द्वीपों पर ही सिमटा हुआ है. कारण यह कि एक तो इस द्वीप समूह का अधिकाँश हिस्सा संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत आता है, और दूसरे यहाँ दो द्वीपों के बीच समुन्दर हमेशा खड़ा मिलता है. पर्यटकों के लिए विशेष अनुमति की दरकार और आवागमन के साधनों की कमी समूचे ‘कार-निकोबार’ को उनकी पहुँच से दूर कर देती है. मतलब कहने के लिए ही हम लोग अंडमान और निकोबार आये हुए हैं. वास्तव में हम लोग केवल दक्षिणी अंडमान ही घूमने आये हुए हैं अब चाहें तो इस पर आप दुखी हो सकते हैं, और चाहें तो इसका जश्न मना सकते हैं कि इतना तो बिना ‘टूर आपरेटर’ के भी घूमा जा सकता है.

किताब उंगली पकड़कर हमें सेल्युलर जेल का रास्ता दिखाती है. अंडमान की तीर्थ-स्थल मानी जाने वाली इस जेल को 1969 में ‘राष्ट्रीय स्मारक’ का दर्जा दिया गया था. इतिहास की तमाम स्मृतियाँ अपनी क्रूरताओं और संघर्षों के साथ यहाँ दर्ज हैं. देश और समाज को बनाने वाली एक मुकम्मल दास्तान इसकी काल-कोठरियों में दफ़न है. यह किसी कल्पना लोक की गवाही नहीं है. यह तो बीती शताब्दी की ज़िंदा कहानियों का कोलाज है. जेल का मुख्य द्वार उस प्रशासनिक भवन से होकर गुजरता है, जिसमें बैठकर कभी उसके भीतर की जाने वाली नृशंसताओं की पटकथा लिखी जाती थी. हमारा होटल वाला कह रहा था कि “जेल में क्या देखना है. वह तो एक-आध घंटे में ही हो जाएगा. आपको तीन-चार घंटे पहले जाने की वहां कोई जरुरत नहीं है.” लेकिन यहाँ आकर लगता है कि तीन-चार घंटे का समय कुछ कम ही पड़ गया है. बस तसल्ली इस बात की है, कि हम यहाँ अपनी यात्रा के पहले दिन ही आ धमकें हैं. अब आने वाले दस दिनों में समय निकालकर इसे फिर से देखा जा सकता है.

यह स्थान न चाहते हुए भी हमें इतिहास में लेकर चला जाता है. सिर्फ जेल के इतिहास में ही नहीं, वरन अंडमान के इतिहास में भी. जहाँ इन द्वीपों का जिक्र पहली शताब्दी के आसपास बौद्ध ग्रंथों में मिलता है. और फिर चोलों के इतिहास में भी, जिसके बारे में कहा जाता है कि वह मलेशिया तक फैला हुआ था. इनका जिक्र रोमन और अरबिक ग्रंथों में भी आता है. और फिर यूरोपीय नाविकों के दुनिया भ्रमण के इतिहास में ये द्वीप दुनिया के नक़्शे पर उभरते हैं. 1498 में वास्कोडिगामा के भारत आने से लेकर सत्रहवी-अठारहवी शताब्दी तक इन द्वीपों पर कई यूरोपीय शक्तियों का आगमन होता है. हालाकि इनमें से कोई भी यूरोपीय ताकत यहाँ स्थायी रूप से बस नहीं पाती. एक तो इनकी भौगोलिक स्थिति ऐसी रहती है, और दूसरे यहाँ की जलवायु बाहरी लोगों को यहाँ बसने की इजाजत नहीं देती. यहाँ रहने की सबसे जरुरी शर्त है, प्रकृति से सामंजस्य और तालमेल. वह पहले आपका परीक्षण करती है और फिर स्वीकार. जाहिर है, इसमें पीढियां लगती हैं. ऐसा नही है कि आप यहाँ आये और आराम से बस गए. और फिर सामरिक दृष्टि के अलावा इन द्वीपों से बहुत कुछ मिलने की संभावना भी नहीं थी, जिसकी तलाश में यूरोपीय निकले थे. तो इसलिए जो भी यूरोपीय शक्तियां यहाँ आती रहीं, वे सब के सब, ‘आती के साथ जाती’ भी रहीं. और जिन्होंने टिकने की धृष्टता दिखाई, उन्होंने कुछ-एक सालों के बाद महसूस किया, कि उनसे गलती हो गयी है.

अठारहवीं सदी के मध्य में डेनिश लोगों ने निकोबार में बस्तिया बसाने की पहली कोशिश की थी, जो सफल नहीं हो सकी. फिर अठारहवी सदी के अवसान से पहले ब्रिटिश लोगों ने भारत के साथ-साथ इस द्वीप को भी अपने निशाने पर लिया. अंडमान में बस्ती कहाँ बसायी जाए, इसका सर्वेक्षण करने के लिए वर्ष 1788 में आर.एच. कोलब्रुक के साथ ‘आर्किबाल्ड ब्लेयर’ वहां पहुँचे. बाद में इसी ‘ब्लेयर’ के नाम पर अंडमान के मुख्य नगर ‘पोर्टब्लेयर’ का नामकरण हुआ. हालाकि 1857 के ग़दर होने तक यह द्वीप उपेक्षित ही रहा. लेकिन जब उस ग़दर के बाद आबाद होना शुरू हुआ, तो यह आबाद होना एक ‘दंड भोगने’ के रूप में था. औपनिवेशिक शक्तियों ने इसका इस्तेमाल एक ‘दंड द्वीप’ के रूप में किया. ऐसे नुस्खे वे इतिहास में पहले भी आजमा चुके थे. तो 1857 के गदर के बाद लगभग 500 क्रांतिकारियों को लेकर कोलकाता से पहला जहाज 10 मार्च 1858 को पोर्टब्लेयर पहुंचा. और फिर एक ऐसा सिलसिला शुरू हो गया, जो भारतीय स्वतंत्रता आन्दोलन के अंतिम चरण तक जारी रहा. लोग आते रहे, दंड भोगते रहे, मरते रहे और खपते रहे. किसी को प्रकृति लील गयी, तो किसी को परिस्थितियां. और जिसने इन दोनों को चुनौती दी, उनको हुक्मरानों की क्रूरताएं. 

इन्ही बंदियों से अंडमान की जमीन साफ़ करायी गयी, और उन द्वीपों को नियंत्रण लायक बनाया गया. उष्ण जलवायु, नौ महीने की भीषण बारिश, घने और बियाबान जंगलों के गगनचुम्बी वृक्ष, और सूर्य का प्रकाश पाने के लिए उन पर लिपटी असंख्य बेलों-पौधों को साफ़कर बस्तियां बसाना कितना श्रमसाध्य और दुष्कर रहा होगा, इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है. और फिर यह काम उन लोगों से कराया गया, जिनके जीवन की सारी उम्मीदें इस समुन्दर के रास्ते में दफ़न हो गयी थी. जिनके लिए सारे परिजन रिश्तेदार हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ गए थे. यह अनायास नहीं था, कि यहाँ आने वाले कैदियों में से 20 प्रतिशत का जीवन संघर्ष प्रतिवर्ष असमय ही समाप्त हो जाता था. फिर कुछ समय बाद यहाँ महिला कैदियों को ले आने की शुरुआत हुयी. ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि 1901 के आसपास यहाँ पर लगभग बीस हज़ार बंदियों को बसा दिया गया था. उनके बीच वैवाहिक सम्बन्ध भी बनने दिए गए, जिससे कि ये लोग मुख्यभूमि पर वापस लौटने का ख्याल सदा-सदा के लिए छोड़ दें. ये बंदी सिर्फ भारत से ही नहीं आये थे, वरन बर्मा और श्रीलंका से भी उन्हें यहाँ लाया गया था .

उन्नीसवीं सदी के आते-आते ब्रिटिश शासन को यह महसूस होने लगा, कि बंदियों को यहाँ पर ले आकर छोड़ना ही पर्याप्त नहीं है, वरन अधिक कठोर दंड देने के लिए या कहें तो सबक सिखाने के लिए एक स्थायी और तन्हाई वाली जेल की भी जरुरत है. 1890 में जेल का ब्लूप्रिंट तैयार हुआ, और 1896 से 1906 के मध्य यह विशालकाय जेल तैयार होकर खड़ी हो गयी, जिसे ‘सेल्युलर जेल’ के नाम से जाना जाता है. इस जेल को वास्तुकला के एक उत्कृष्ट नमूने के रूप में भी देखा जा सकता है, जिसे बनाने के लिए अबरदीन समुद्र तल से लगभग सत्तर फीट ऊँचाई वाली किनारे की जगह को चुना गया था. कारण यह, कि यहाँ से मिट्टी को निकालने और भरने की कम से कम जरुरत थी और दूसरा कि यह जगह उस किनारे पर थी, जहाँ से रास द्वीप सीधे दिखाई देता है. 696 कोठरियों वाली यह जेल सात बड़ी स्कंधों के रूप में बनाई गयी थी, जो एक सिरे पर सबसे अलग और दूर होती जाती थीं, और दूसरे सिरे पर एक केन्द्रीय मीनार से जुड़ती थी. इस केन्द्रीय मीनार के उपरी हिस्से से एक व्यक्ति द्वारा भी इसकी निगरानी की जा सकती थी. तीन मंजिला बनी इस जेल की सभी 696 कोठरियां एक दूसरे से पृथक थीं. इनका आकार 13.5 गुणा 7.5 फीट का था, जिनमें पीछे की तरफ केवल एक रोशनदान खुलता था. प्रत्येक स्कंध में एक बड़ा गलियारा इन कोठरियों को एक दूसरे के साथ जोड़ता था. लेकिन इस तरह कि कोई भी कैदी यहाँ एक दूसरे को देख नहीं सके. मतलब हर ‘सेल’ यहाँ पृथक रूप से स्वतन्त्र थी, और कहें तो किसी भी आदमी को तोड़ देने के लिए काफी.

काला-पानी का मतलब होता है मृत्यु का जल. काला मतलब ‘काल’ और पानी मतलब ‘जल’. एक ऐसी सजा, जिसमें आपके जीवन की हर उम्मीद टूट जाए, उसे जीने की हर संभावना छूट जाए. यदि आप विवेकशील हैं, और अपने मन को थोड़ा भी इतिहास में ले जा सकने की क्षमता रखते हैं, तो आपका दिल यहाँ आकर जरुर रोता है. इन बर्बरताओं के बीच भी देश के लिए, समाज के लिए और अपनी पीढ़ियों के भविष्य के लिए संघर्ष जारी रखने वाले लोग, आखिर किस मिट्टी के बने होंगे ...? नहीं नहीं .... ऐसे समझना मुश्किल है. आप एक बार यहाँ जरुर आईये. इन काल-कोठरियों में अपने को दस मिनट बंद कीजिए. और महसूस कीजिए कि उन्हें कैसा लगता होगा, जिनके जीवन में यहाँ से निकलने की दूर-दूर तक कोई उम्मीद नहीं बचती होगी. यहाँ हर एक बंदी को दिन भर में 30 पौंड नारियल का तेल या फिर 10 पौंड सरसों का तेल निकालना होता था. एक सामान्य आदमी के लिए यह लगभग असंभव था. और फिर पूरा नहीं होने पर ‘दंड’ के अनगिनत रास्तों से होकर गुजरना होता था. इस जेल में ऐसी तिरष्कृत कोठरियां भी थीं, जो सीधे-सीधे फांसी घर का दर्शन कराती रहती थीं.

प्रत्येक शाम इस जेल के भीतर ‘लाइट एंड साउंड शो’ का कार्यक्रम होता है. लगभग एक घंटे के इस कार्यक्रम में ओम पुरी, मनोहर सिंह और टाम आल्टर जैसे चिर-परिचित कलाकारों की आवाज में यह जेल अपनी दास्तान बांचती है. दास्तान उस क्रूर आयरिश जेलर ‘डेविड बेरी’ को भी याद करती है, जो कहता था कि दुनिया में तो सिर्फ एक ईश्वर है, लेकिन अंडमान में दो ईश्वर हैं. एक ऊपरवाला और दूसरा मैं. इस दास्तान में क्रूरताओं की अनेक कहानियां दर्ज हैं. सजा देने के लिए बीच की खुली जगह चुनी जाती थी, जो उस पूरे स्कन्ध के कैदियों को दिखाई दे. डर और आतंक को गहरे बैठा देनें के लिए, यह तरीका भी इतिहास में आजमाया गया नुस्खा था. इसमें कई लोगों ने आत्महत्याएं कर लीं, कई फांसी पर चढ़ा दिए गए, कई पागल और विक्षिप्त हो गए. लेकिन इन्हीं क्रूरताओं के मध्य क्रांतिकारियों के संघर्ष और प्रतिरोध की चमकती दास्ताने भी दर्ज हैं. ऐसी दास्ताने, जिनमें अनगिनत जुल्मों को सहते हुए भी उम्मीद और संघर्ष का दामन थामे रहने जज्बा हमेशा बना रहा.  

मुख्यभूमि पर जहाँ-जहाँ से विद्रोह की आवाज तेज होती रही, ‘सेल्युलर जेल’ की कोठरियां उस जगह
के क्रांतिकारियों से भरती रही. इस भरने में व्यक्तिगत अपराध में संलग्न कैदियों की संख्या भी काफी थी. व्यवस्था चाहती थी कि यहाँ आने वाले बंदियों के मन में ब्रिटिश शासन के प्रति समर्पण और निष्ठा का भाव उत्पन्न हो जाए. इसलिए आरम्भ में कैदियों को छः महीने तक तन्हाई वाली कोठरी में रखा जाता था. और फिर तमाम चरणों में दी जाने वाली प्रताड़ना के बाद, जब वे मानसिक रूप से टूट जाते थे, तब उन्हें धीरे-धीरे सामान्य कैदी की सुविधाएँ मिलने लगती थीं. जो कैदी मानसिक रूप से नहीं टूटते थे, वे शारीरिक रूप से टूट जाते थे और मृत्यु को प्राप्त होते थे. और जो कैदी मानसिक रूप से टूट जाते थे, उन्हें कई चरणों में अपने समर्पण और निष्ठा को प्रमाणित करने के बाद एक स्वावलंबी कैदी का दर्जा मिलता था, जिसके अंत में वे ‘टिकट आफ लीव’ के हकदार हो जाते थे. हालाकि बाद में औपनिवेशिक व्यवस्था यह चाहने लगी कि ये कैदी सजा पूरी करने के बाद भी अंडमान में ही रहने लगें. आरम्भ में संयुक्त प्रांत, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र से कैदियों को यहाँ लाया गया, लेकिन जैसे-जैसे देश के अन्य हिस्सों में स्वतंत्रता आन्दोलन फैलता गया, इन कोठरियों का भूगोल भी फैलता गया. बहाबी आन्दोलनकारी, कूका आन्दोलनकारी, मोपला और रम्पा विद्रोही तो यहाँ आये ही, ग़दर आन्दोलनकारी, मानिकतला षड़यंत्र केस, खुलना षड़यंत्र केस और ढाका षड़यंत्र केस के आरोपी भी यहाँ आये.

जेल बंदियों की आत्मकथाएं उन नृशंसताओं को बांचती हैं, जिन्हें आज के कथित ‘सभ्य लोगों’ ने रसीद किया था. ‘बारीन्द्र नाथ घोष’ की आत्मकथा कहती है कि नहाने के बाद कैदियों को बदलने के लिए कोई कपड़ा उपलब्द्ध नहीं होता था. उन्हें नंगे होकर ही कपड़ा बदलना होता था, या फिर स्नान नहीं करने के विकल्प को चुनने का. ‘शचीन्द्रनाथ सान्याल’ ने लिखा है कि एक बंदी उल्हास्कर को तीन दिन तक खड़ी हथकड़ी में बांधकर रखा गया, जिससे कि वे पागल हो गए. ‘सावरकर’ ने लिखा है कि राजनितिक बंदियों ने ऐसी ढेर सारी हड़तालें की, जिसमें उनके साथ मुख्यभूमि के कैदियों जैसा व्यवहार करने की मांग की गयी थी. ‘पृथ्वी सिंह आजाद’ ने भान सिंह और रामरखा बाली की शहादत को याद करते हुए जेल के जीवन पर बहुत कुछ प्रकाश डाला है. आज इस जेल की तीन ‘स्कन्धे’ ही खड़ी हैं. बाकी चार ढहा दी गयी हैं. दो को जापानी सेना ने बंकर बनाने के लिए गिरा दिया था, और दो को बाद में गिराकर सरकार ने उनकी जमीन पर अंडमान का केन्द्रीय अस्पताल बना दिया. 

जेल के भीतर और बाहर अनगिनत संघर्षों, स्वतंत्रता आन्दोलन की बढ़ती हलचलों और दुनिया के स्तर पर हो रहे बदलाओं का परिणाम यह हुआ, कि 1937 के आसपास अंडमान में राजनैतिक बंदियों का आना रुक गया. जो पहले से बंदी थे, उन्हें मुख्यभूमि की जेलों में स्थानातरित कर दिया गया. इसे आप औपनिवेशिक ताकतों के भीतर आ रहे ह्रदय परिवर्तन के रूप में देखने की गलती न करें, वरन सम्पूर्ण स्वतंत्रता आन्दोलन के आधार पर ही समझने का प्रयास करें कि ऐसा परिवर्तन क्यों हो रहा था. दरअसल पूरे देश में इस तरह की परिस्थिति निर्मित होने लगी थी, कि देर-सबेर अंग्रेज यहाँ से चले जायेंगे. और कई संकेत तो अंग्रेजी हुकूमत के भीतर से आते हुए भी दिखाई देने लगे थे. इन्हीं परिस्थितियों में विश्व-युद्ध आरंभ हुआ था, और अंग्रेजी हुकूमत के लिए भारत का सहयोग लेना बेहद महत्वपूर्ण और आवश्यक हो गया था.

द्वितीय विश्व-युद्ध के दौरान एक समय ऐसा भी आया, जब मित्र राष्ट्रों की स्थिति बेहद खराब हो गयी. न सिर्फ यूरोप में उनके पाँव उखड़ने लगे, वरन औपनिवेशिक इलाकों से भी उन्हें भागना पड़ा. जिनका सूरज कभी अस्त नहीं होता था, और जिनका दावा था कि ईश्वर ने उन्हें उपनिवेशों में इसलिए भेजा है कि वे वहां की जनता को सभ्य बना सकें, जब दबाव पड़ा तो भाग खड़े हुए. लगभग पूरा यूरोप जर्मनी के साए में आ गया, और पूर्वी एशिया के अधिकाँश हिस्से पर जापानियों का दबदबा दिखाई देनें लगा. भारत की मुख्यभूमि तो जापान के नियंत्रण में नही आयी, लेकिन उनकी धमक बर्मा तक स्पष्टतया सुनाई देने लगी थी. ऐसे में अंग्रेजों को यह आभास होने लगा, कि वे अंडमान में घिर जायेंगे. वे इस ‘द्वीप-समूह’ को छोड़कर भाग खड़े हुए. और इस तरह बिना किसी प्रतिरोध के, 23 मार्च 1942 को इस पर जापान का कब्जा हो गया.

तीन
समझ में नहीं आता कि, ‘इतिहास अपने आपको दोहराता है’ वाली कहावत ‘क्रूरताओं पर क्यों लागू होती है ? कहीं इसलिए तो नहीं कि आरंभिक यातनाओं के बाद इतिहास, जीवन संघर्षों को पुनः देखना-परखना चाहता है ..? या इसलिए, कि ऐसा होने से पहली वाली क्रूरताएं भुलायी जा सकती हैं ...? खैर ........ जब यह द्वीप-समूह जापानी प्रभुत्व में आ गया, तो प्राथमिक रूप से लोगों के जीवन में सार्थक बदलाव हुआ. लेकिन सुख की यह घड़ी विश्व-युद्ध में जापान की स्थिति अच्छी बनी रहने तक ही रह चल सकी. जैसे-जैसे मित्र-राष्ट्रों का युद्ध पर नियंत्रण बढ़ने लगा, और जर्मनी, इटली, जापान का पराभव होने लगा, अंडमान के लोगों के ऊपर क्रूरताओं का पहाड़ टूटने लगा. अपनी हार से बौखलाए जापानी अधिकारी यहाँ की जनता पर अपना गुस्सा उतारने लगे. इस द्वीप के इतिहास में यह दौर बेहद कठिन और भयानक माना जाता है. जब 7 अक्टूबर 1945 को यहाँ पर जापानी प्रभुत्व का अंत हुआ, उस समय तक सैकड़ों-हजारों लोगों को मौत के घाट उतारा जा चुका था.

यह बड़ा आश्चर्यजनक लगता है कि 1943 के अंत में यहाँ नेताजी सुभाषचन्द्र बोस का आगमन हुआ था, लेकिन उन्हें वहां की जमीनी परिस्थितियों की जानकारी नहीं हो सकी. एक तरफ आम जनता मर रही थी, और दूसरी तरफ वे आजादी के सपने दिखा रहे थे. खैर .... जापानी शासन का अंत होते ही, हमें सभ्य बनाने वाली औपनिवेशिक ताकतें पुनः अपनी जिम्मेदारी संभालने के लिए लौट आयीं. उन्हें इस जिम्मेदारी से इतना मोह रहता था, कि देश की आजादी के समय भी, वे अंडमान को अपने प्रभुत्व में रखने की तमाम नाकाम कोशिशें करती रहीं. अत्यंत कठिनाईपूर्ण और मुश्किल हालत से गुजरते हुए यह ‘द्वीप-समूह’ सन 1950 में भारत का अंग बन गया. 

यहाँ कुछ सवाल पैदा होते हैं. मसलन क्या यदि अंग्रेज भारत नहीं आये होते, तो भी अंडमान भारत का ही हिस्सा होता ? या फिर यदि अंडमान के संघर्ष में दूसरी यूरोपीय शक्तियों ने विजय हासिल कर ली होती, तो क्या होता ? और यदि अंग्रेजों ने भारतीयों को ‘दंड देने’ के लिए इन द्वीपों का चुनाव नहीं किया होता, तो क्या होता ...? यदि भारतीय बंदियों की जगह वहां केवल बर्मी या दक्षिण पूर्व एशियाई बंदी ही लाये गए होते, तो क्या स्वाभाविक रूप से ये द्वीप भारत में शामिल हो पाते  ..? हालाकि इतिहास ऐसे सवालों को काल्पनिक कहकर नजरअंदाज कर देता है. लेकिन इस कल्पना के आधार पर एक निष्कर्ष तो निकाला ही जा सकता है कि अंग्रेजों द्वारा भारतीय बंदियों के लिए इन द्वीपों को चुनने के कारण ही इन द्वीपों पर भारत का स्वाभाविक दावा बना. अन्यथा भौगोलिक दृष्टि के आधार पर अंडमान को बर्मा और निकोबार को इंडोनेशिया के पास होना चाहिए था. मतलब उन बंदियों की शहादत ही इन द्वीपों पर भारतीय अधिकार का स्वाभाविक आधार बनी. हम लोग, जो आज यहाँ आकर इतराते हुए घूम रहे हैं, तो सिर्फ इसलिए हमारे उन अनगिनत पूर्वजों ने अपनी शहादत से हमें यह अवसर उपलब्द्ध कराया है.

अंडमान का पहला दिन अत्यंत यादगार गुजरता है. अब लगता है कि यदि परिस्थितियों ने हमें यहाँ घूमने से वंचित भी किया, तो भी हमने इस ‘तीर्थ-स्थल’ पर याद रखने लायक बहुत कुछ देख सुन लिया है. हम वापस होटल लौटते हैं, और सरकार के उन नियमों को अत्यंत आभारपूर्वक याद करते हैं, जिसने हमारा यहाँ आना संभव बनाया. अगली सुबह हम कुछ ‘अंखफोर’ हो जाते हैं. लगता है कि यह दुनिया भी हमारी अपनी दुनिया की तरह ही है. यहाँ भी हमारे ही तरह के लोग-बाग़ हैं, उनके आचार व्यवहार हैं, नियम क़ानून हैं. और जो कुछ हमारे से अलग है, वह भी इतना अलग नहीं है कि हम उसे पकड़ न सकें, कि छिटककर वः हमसे दूर चला जाए. देशाटन का एक लाभ यह भी है कि हमें अपने अवचेतन को साफ़ करने का अवसर मिलता है. हम जिस दुनिया को देख रहे हैं, जिस दुनिया की चाहरदीवारी में जी रहे हैं, उसके बाहर की दुनिया खासी अलग होगी, और हम उससे तादाम्य स्थापित नहीं कर पायेंगे, जैसी मन में पलने वाली अनेकानेक भ्रांतियों को दूर करने का अवसर मिलता है. जब हम उस अनजानी दुनिया को अपनी आँखों से देख लेते हैं, उसमें कुछ पल बिता लेते हैं, तो ऐसा लगता है कि सारे मनुष्य लगभग एक ही तरह से बने हुए हैं. बतौर इंसान उसमें प्रेम, दया, क्षमा, करुणा और बंधुत्व जैसी भावनाएं ही मिलती हैं. उनका ‘सामूहिक विवेक’ रूसो की उस ‘सामान्य ईच्छा’ से अलग नहीं हो सकता है, जो सामान्यतया सही होता है, जो सामान्यतया सबके हित में होता है. और यदि उसमें कोई विभाजन या अलगाव है भी, तो वह बेहद कृत्रिम और बाह्य आरोपित है .  

अंडमान में पूरे देश के बंदियों के आने, और यहाँ आकर एक पूरा भारत बनाने के कारण देश की लगभग सभी विविधताएं महसूस की जा सकती हैं. चुकि यहाँ आने के दो बड़े केंद्र कोलकाता और चेन्नई रहे हैं, और जो आज भी है, इसलिये स्वाभाविक रूप से यहाँ की आबादी भी उन दो केन्द्रों से अधिक प्रभावित दिखाई देती है. सबसे अधिक संख्या यहाँ बंगाली भाषा-भाषी लोगों की है. लगभग २५ प्रतिशत. उसके बाद उत्तर भारत से १८ प्रतिशत, तमिल १७ प्रतिशत, तेलुगु 12 प्रतिशत, मलयाली 8 प्रतिशत और अंत में निकोबारी लोगों की संख्या आती है, जो यहाँ की कुल आबादी की लगभग 8 प्रतिशत है. इस द्वीप समूह की यह सबसे बड़ी जनजाति भी है. जहाँ तक धर्म का सवाल है, तो इसमें हिन्दुओं का प्रतिशत काफी आगे है और दूसरे नंबर पर ईसाई धर्म (21 प्रतिशत) को मानने वाले लोग निवास करते हैं.

अगली सुबह हमें थोड़ी और ठीक से ठोक-पीटकर तैयार कर देती है. ऐसा लगता है कि अंडमान ने हमें स्वीकार कर लिया है. या कहें तो हमने अंडमान से नाता जोड़ लिया है. सेल्युलर जेल के पास ही राजीव गाँधी वाटर पार्क है, और सामान्यतया लोग बाग़ यहीं से अंडमान को घूमने के लिए अपने दूसरे दिन की शुरुआत करते हैं. हम लोग भी ‘तीन द्वीपों’ की सैर के लिए अपना हांका जोड़ लेते हैं. थोड़ी देर में ‘स्टीमर’ हमें ‘रास द्वीप’ पहुँचा देता है. यह द्वीप सेल्युलर जेल से अधिकतम एक-दो किलोमीटर दूरी पर स्थित है. यहीं से अंग्रेज अपना प्रशासन चलाते थे. आम जनता से अलग, श्रेष्ठ और विशिष्ट होने के एहसास को अर्जित करने का एक यह भी तरीक होता है. मतलब देखभाल भी होती रहे, और अलग होने का श्रेष्ठताबोध भी अक्षुण रहे. हमारे यहाँ ‘लुटियन जोन’ से देश को चलाने वालों ने इतिहास के ऐसे सबक खूब सीखे हैं. लगभग सात-आठ दशकों तक शासन-स्थली के रूप में गुलजार रहे इस ‘रास-द्वीप’ को,  आज प्राकृतिक आपदाओं ने लगभग नेस्तनाबूत कर दिया है. चीफ कमिश्नर का बँगला, अस्पताल, क्लब, स्वीमिंग पूल, चर्च और कब्रिस्तान के खंडहर, उस दौर की गवाही देनें के लिए बस किसी तरह लड़खड़ाते हुए खड़े हैं.

यहाँ पर एक सवाल मन में यह पैदा होता है, कि यदि यहाँ आने वाले बंदियों को प्राकृतिक विभीषिकाओं ने हमेशा परेशान किया और वे इसकी चपेट में आकर मरते रहे, तो उनके आकाओं का क्या हुआ होगा ...? जवाब कोई सुखद संकेत नहीं उपलब्ध कराता. बेशक कि वे शासक थे, बेशक कि उन्हें मानसिक और शारीरिक पीड़ा नहीं झेलनी पड़ती थी. लेकिन थे तो वे भी आदमी ही. प्रकृति की परीक्षा में उन्हें भी बैठना होता था. अकेलेपन का पेपर उन्हें भी देना होता था. यदि वे किसी को मारते-पीटते हुए जी रहे थे, तो ऊपर से देखने में यह जरुर कठोर लगता है. लेकिन अन्दर से टूट-फूट तो उनके यहाँ भी चल रही होगी. अपने देश से इतनी दूर, अपने परिवार और रिश्तेदारों से इतनी दूर, आखिर वे किस चीज को पाने के लिए लड़ रहे थे. किस चीज को बचाने और बढ़ाने के लिए संघर्ष कर रहे थे. बेशक उन्होंने पोर्टब्लेयर से बाहर ‘रास द्वीप’ पर अपना आशियाना बसाया, लेकिन थे तो वे भी अंततः काले पानी में ही. तमाम सुविधाओं और संसाधनों से दूर, एक आदिम जीवन को झेलते हुए.

तो क्या उनकी स्थिति उस ‘गुल्ली-डंडे’ के खेल की तरह ही नहीं थी, जिसमें हारने वाला तो दौड़ता ही है, उसे हराने वाला भी उसके साथ-साथ यह देखने के लिए दौड़ता है कि यह हमारे द्वारा दिए हुए दंड को पूरा कर रहा है या नहीं ...?  आप जरा इस खेल से बाहर निकलकर सोचिये कि जो लोग दंड भोग रहे होते हैं, वे तो इस तथ्य से परिचित भी होते हैं कि इस ‘दंड’ के कारण वे कष्ट पा रहे हैं. लेकिन जो लोग उनके साथ-साथ ‘दंड देने’ के लिए भाग रहे होते हैं, वे तो जान भी नहीं पाते कि अंततः वे भी एक तरह का दंड ही भोग रहे हैं. अंडमान में जाने वाले बंदी यदि उस पीड़ा को उठा रहे थे, मर-खप रहे थे, तो उन पर शासन करने वाले अंग्रेज या जापानी कारिंदों की स्थिति भी बहुत बेहतर नहीं थी. वे लोग भी प्रकृति के कोप के खूब शिकार हुए. अकेलेपन और अवसाद के भँवर में खूब डूबे. अफ़सोस .......! कि शासकों के द्वारा अपने कारिंदों की ऐसी मानसिकता तैयार कर दी जाती है, कि उन्हें न तो अपने ऊपर होने वाले अन्याय का पता होता है, और न ही अपने द्वारा किये जाने वाले अन्याय पर कोई पछतावा. और यदि होता भी है, तो उस प्रक्रिया से गुजर जाने के बाद ही. उस अन्याय को कर जाने के बाद ही. तब, जबकि उनके पास उसे नहीं करने का कोई विकल्प नहीं होता. कभी उन्हें प्रेरित करने के लिए धर्मादेश रास्ता दिखाते हैं, तो कभी जातीय और नस्ली श्रेष्ठता. भारत में जाति-प्रथा के अत्याचार इसके ज्वलंत उदाहरण हैं, जिसे करने वाले यह तक समझ ही पाते, कि वे कौन सा अत्याचार-अनाचार कर रहे हैं. बेशक कि आधुनिक काल में इसमें एक बड़ा बदलाव आया है. अब अत्याचार सहने वाले लोग कम से कम यह समझने लगे हैं कि उन पर अत्याचार किया जा रहा है, और इसके खिलाफ उन्हें आवाज उठानी चाहिए. अब इसे सहन नहीं किया जाना चाहिए. उस मानसिकता से अलग, जिसमें एक लम्बे दौर तक वे भी यही मानते आये थे, कि वे अत्याचार सहने के लिए ही पैदा हुए हैं.

अंडमान की कहानियां इतनी त्रासदपूर्ण हैं कि वे बार-बार हमको अपने भीतर खींच लेती हैं. राहत की बात यह है कि हर उठे हुए कदम के बाद, प्रकृति की नेमतों का आकर्षण भी हमें अपने भीतर बुला लेता है. जैसे ही हम ‘रास द्वीप’ से निकलते हैं और नार्थ बे (कोरल द्वीप) की तरफ पहुँचते हैं, सारा माहौल चहल-पहल और उत्सव का हो जाता है. यहाँ पर समुद्री जीव-जन्तुओं द्वारा बनाए गए घर, अर्थात ‘कोरल्स’ खूब पाए जाते हैं. हर कोई समुद्र में भीतर उतरकर उन्हें देखने की ईच्छा रखता है. इनमें से कुछ लोग डर रहे हैं तो कुछ लोग पैसे की चिंता में कतरा रहे हैं. स्टीमर वाले इन दोनों ही तरह के लोगों के द्वंद्वो को जानते हैं. प्रतिदिन इससे उनका पाला पड़ता है. पहले तो वे इसके हर तरह से सुरक्षित होने की बात समझाते है, जिसे कुछ लोग उत्साह में समझ भी जाते हैं. और फिर जब इन नाविकों को यह लगता है कि बात पैसे की भी है, तो वे उसकी काट में नाव पर बैठाकर ही ‘कोरल्स’ दिखाने का आफर पेश करते हैं. यह सस्ता भी है, और सुविधाजनक भी. कहें तो काम चलाऊं भी. अंतिम पड़ाव के रूप में हमे घुमाने के लिए स्टीमर उस दिन वाइपर द्वीप भी जाता है. इसका महत्व अंडमान की उन त्रासद स्मृतियों से जुड़ता है, जिसमें पोर्टब्लेयर में सेल्युलर जेल के बनने से पहले यहाँ पर एक कामचलाऊ जेल और ‘फांसी घर’ होने का जिक्र आता है.

दूसरे दिन की शाम हम अंडमान में कबड्डी खेलने लायक हो जाते हैं. उसके इतिहास और भूगोल से परिचित होने के बाद, उसके जीवन को देखने समझने की हमारी आँखे और अधिक खुल जाती हैं. ‘रास, कोरल और वाइपर’ द्वीपों ने पोर्टब्लेयर को तटस्थ होकर देखने की नेमतें बख्श दी हैं. इस राजधानी वाले शहर में काफी बड़ी आबादी रहती है. लेकिन बाहर से यह शहर भी पेड़-पौधों वाला एक बड़ा द्वीप ही लगता है, जिसके आसपास ऐसे ही कई और द्वीप भी उगे हुए हैं. कोई पचीस-पचास मीटर उंचाई वाला, तो कोई सौ-दो सौ मीटर की ऊँचाई लिए. इसके नजदीक में सबसे ऊँची चोटी ‘माउन्ट हेरियेट’ है, जहाँ जाने के पानी की बड़ी जहाज लेनी पड़ती है. ऎसी जहाज, जिस पर मोटरसाइकिल, जीप और कार के साथ-साथ बस भी चढ़ा ली जाती है. वहां की जेट्टी पर ‘अंडमान’ के खानपान को जानने वाली एक महत्वपूर्ण घटना घटती है. हम माउन्ट हेरियट के तट पर उतरते हैं, और जब तक हमारी कार उस जहाज से उतर कर सड़क पर नहीं आ जाती, सामने एक खाने-पीने की दूकान की तरफ हम लपकते हैं. वहां गरमागरम समोसे निकल रहे हैं. सबकी जीभ, उस समोसे के स्वाद को सोचकर लटपटाने लगती है.

दुकान वाला समोसे पर हाथ रखते हुए पूछता है कि “आलू वाला या अंडे वाला” ...?
‘मान लीजिये ..... यदि उसने यह सवाल नहीं पूछा होता तो ...?’ उस पूरे दिन यही जुमला हमारे बीच उछलता रहता है.

‘माउंट हेरिएट’ की उंचाई समुद्र तल से 365 मीटर है. इसकी चोटी से पोर्टब्लेयर और उसके आसपास का दृश्य किसी भी अच्छी फिल्म की फोटोग्राफी को मात करता है. प्रकृति यहाँ इतने रूपों में मेहरबान है, कि एक पल के लिए भी उससे नजर नहीं हटती. यहाँ से ‘नार्थ बे’ का जो दृश्य दिखाई देता है, उसी को भारतीय सरकार ने बीस रुपये की नोट के पीछे चित्रित किया है. हम सबका हाथ बीस रुपये की नोट तलाशने के लिए अपनी जेब की तरफ बढ़ता है. और जैसा कि आजकल अक्सर होता है, वह खाली ही लौट आता है. हमारे गाइड का यह रोज का काम है. इस तथ्य को बताने का और फिर नोट निकालकर उसे दिखाने का. जिस भी सलाहकार ने इस दृश्य को यहाँ अंकित करने की सलाह दी होगी, वह बेहद कल्पनाशील और प्रकृतिप्रेमी रहा होगा. लेकिन नोट पर छपे दृश्य को देखकर यह लगता है कि जिस भी चित्रकार ने इसे अपने कैमरे में कैद किया होगा, और जिस किसी ने उसे चयनित किया होगा, उन दोनों के पास न तो कैमरा पकड़ने की तमीज रही होगी, और न ही प्रकृति को समझने का कोई विजन. उस चोटी से इतना ख़राब दृश्य कैसे लिया जा सकता है, अलबत्ता उन्हें इस बात के लिए जरुर शाबासी मिलनी चाहिए. 

हम अंडमान के पास वाले एक और नगीने ‘चिड़िया टापू’ की ओर बढ़ते हैं. दक्षिणी अंडमान के इस सुदूर दक्षिणी हिस्से पर स्थित ‘चिड़िया टापू’ की पोर्टब्लेयर से दूरी लगभग 25 किलोमीटर है. और जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है यहाँ पर अंडमान में पाए जाने वाली चिड़ियों की लगभग सभी प्रजातियाँ निवास करती हैं. मगर वे आपको सर्वसुलभ तरीके से देखने को मिल जाएँ, या आपके दो-चार घंटे के प्रवास के दौरान सामने आकर अपनी चहचहाहट दिखाने के लिए राजी हो जाएँ, तो फिर वे चिड़िया कैसे कहलाएंगी. उन्हें इस बात की कोई परवाह नहीं है, भारत सरकार ने आपको ‘एल.टी.सी.’ की सुविधा प्रदान की है, और आप उन्हें देखने के लिए यहाँ पर हजारों किलोमीटर दूर से चलकर आये हैं. जाहिर है, सड़क पर चलते हुए न तो उन्हें दिखाई देना चाहिए, और न ही वे दिखाई देती हैं. अलबत्ता सड़क के समानांतर जंगलों में उनकी अपनी दुनिया है, और वे उस दुनिया को गुलजार करने में लगी हुयी जरुर सुनी जा सकती हैं. वैसे ‘चिड़ियाटापू’ के रास्ते में जंगलों के बीच से निकलती हुयी सड़क पर छाये अँधेरे को देखने के लिए भी आया जा सकता है. और सड़क के समानांतर चलने वाले समुद्र के साथ चलने के लिए भी. इसका रास्ता इतना खुबसूरत है कि यदि आप ‘फेरारी’ में भी सफ़र कर रहे होंगे, तब भी यही चाहेंगे कि उसकी गति हमारे अपने बलिया में चलने वाली ‘खजड़हिया ऑटो’ से अधिक न हो.

और बात, जब रास्ते की खूबसूरती की आती है, तो फिर पोर्टब्लेयर के ‘कार्बन केव बीच’ की तरफ जाने वाले रास्ते को भी जरुर याद किया जाना चाहिए. समुद्र के समानांतर लगभग दस बारह किलोमीटर तक चलते हुए आप यह भूल ही जाते हैं कि हम भारत में ही हैं. प्रकृति के साथ व्यवस्था की समझदारी भी यहाँ खूब दिखाई देती है. और फिर देखने के हिसाब से पोर्टब्लेयर में कई संग्रहालय और बीच भी हैं, जिन्हें हर होटल वाला, हर गाइड आपसे शेयर करता है. और ‘लार्ड मेयो’ की हत्या की उस रोमांचक कहानी को भी, जो फरवरी 1872 में भारत के गर्वनर जनरल के रूप में यहाँ आया था, और जिसे ‘शेर खान’ नामक कैदी ने ‘माउन्ट हेरियट’ से लौटते समय ‘चेथम द्वीप’ पर छुरा घोंपकर मार डाला था. कहने की जरूरत नहीं है कि ‘शेर खान’ को फांसी दे दी गयी थी.

‘पोर्टब्लेयर’ अब हमें कुछ-कुछ याद होने लगा है. यहाँ ‘गाँधी चौक’ से एक रास्ता जहाज घाट की ओर जाता है और दाहिनी ओर समकोण पर जाने वाला दूसरा रास्ता, थोड़ी सी चढ़ाई के बाद पोर्टब्लेयर के मुख्य बाजार अबरदीन तिराहे की तरफ. इस तिराहे से दो रास्ते और फूटते हैं. बाएं जाने वाला सेल्युलर जेल की तरफ. और उसके ठीक विपरीत में दाहिने जाने वाला रास्ता आगे चलकर इस केन्द्रशासित प्रदेश के सचिवालय और ‘राजभवन’ होते हुए हवाई अड्डे को निकल जाता है. राजभवन का एरिया पोर्टब्लेयर की पहाड़ी का शीर्ष है, और यहाँ से इस शहर का एक यादगार नजारा लिया जा सकता है. इसी रास्ते में ‘अबरदीन’ तिराहे से लगभग 200 मीटर की दूरी पर शाकाहारी लोगों का तीर्थस्थल ‘अन्नपूर्ण होटल’ भी है. मजे कि बात यह है कि ‘अन्नपूर्णा’ वाला भी इस बात से आश्वस्त है, कि पोर्टब्लेयर में आने वाले शाकाहारी भक्त यहाँ माथा टेकने जरुर आयेंगे. तभी तो वह अपने फुल प्लेट में चावल के इतने ही दाने ही परोसता है, जितने को खाने के दौरान गिना भी जा सके.

‘पोर्टब्लेयर’ के आसपास तीन-चार दिन बिताने के बाद, अब यहाँ से उत्तर-पूर्व दिशा में स्थित दो द्वीपों ‘हैवलाक’ और ‘नील’ की तरफ रूख करने का समय आता है. समुद्री जहाज यहाँ के लिए प्रतिदिन सुबह जाते हैं. इनका अग्रिम टिकट लेना पड़ता है, जो तीन दिन पहले बुक किया जा सकता है. जाहिर है, हमारे शहर बलिया के रेल-आरक्षण काउंटर की तरह यहाँ भी दलालों का दबदबा देखा जा सकता है. वे उसी प्रकार की कृत्रिम भीड़ पैदा करते हैं, जैसे कि पाकेटमारों का समूह ट्रेन या बस में चढ़ते समय पाकेट मारने के लिए किया करते हैं. बात यदि अश्लील न लगे तो यह भी, कि जैसे दक्षिणी भारत के मंदिरों में व्यस्थापकों द्वारा हर घंटे आरती और भोग के नाम पर कृत्रिम भीड़ इकठ्ठा करने का ड्रामा खेला जाता है. यात्रा के अनुभव ने मेरी पत्नी रीना को भी अब यह सिखा दिया है कि किस परिस्थिति में किनारे खड़े होकर आनंद लिया जाना चाहिए, और किस परिस्थिति में कमर कसकर मैदान संभाल लेना चाहिए. उसके पराक्रम से पंद्रह मिनट के भीतर हम भी टिकट वाले हो जाते हैं.

चार
अगली सुबह हम ‘हैवलाक’ द्वीप के लिए निकलते हैं. लगभग सौ-डेढ़ सौ लोगों की क्षमता वाले उस जहाज में आरंभिक दस मिनट, अपनी सीटों की छेंकाई और बिछाई में बीतती है. लेकिन जैसे ही ग्यारहवाँ मिनट आता है, पूरी जनता जहाज के सिर पर सवार हो जाती है. सारी सीटें जीवन की तरह ही अंततः खाली हो जाती हैं, कि जिसे भरने के लिए हम अभी तक बेचैन और आतुर रहते हैं. जहाज के डेक से यह दुनिया बिलकुल स्वप्निल नजर आती है. दूर तक फैला हुआ नीला समुद्र और उस पर सूरज की चमकती किरणें वह दृश्य पैदा करती हैं, जिसको व्यक्त करने के लिए भाषाओँ ने अभी तक ठीक-ठीक शब्द नहीं गढ़े. कि जैसे मैं सुन्दर, बेहतरीन, अद्भुत या मोहक कह दूं और वह दृश्य आपके भीतर उतर जाए. लगभग दो घंटे डेक पर बिताने के बाद हैवलाक की आहट मिलने लगती है. यहाँ की ‘जेट्टी’ पर उतरने के बाद ऐसा महसूस होता है, कि पोर्टब्लेयर में चार दिन बिताने के बाद भी मछलियों की इस तीखी गंध से हम अभी महरूम ही रहे हैं.  

भारत की मुख्यभूमि से पोर्टब्लेयर पहुंचकर, जैसे हम प्रकृति का घना साहचर्य महसूस करते हैं, पोर्टब्लेयर से हैवलाक आने पर वही एहसास अपने को दुहराता है. वैसे तो यह पूरा द्वीप ही खूबसूरत है, लेकिन इसके ‘राधानगर बीच’ की बात ही कुछ और है. यह किनारा सम्पूर्ण एशिया में अपनी विशिष्टता के लिए जाना जाता है. भारत के पूर्वी तट के बंजर किनारों से तो इसकी तुलना ही बेमानी है. हां ..... पश्चिमी तट के किनारों को यदि एक साथ जोड़ दिया जाय, तो इससे मुकाबले लायक एक रेखा बनाई जा सकती है. गोवा के तीनों महत्वपूर्ण किनारों – कलिंगुट, कोलावा और पालवोलिम – और केरल के कोवलम किनारे को एक साथ मिलाने पर जो तस्वीर बनती है, उसमें समुद्र का अपने भीतर तक प्रवेश करने देना, पृष्ठभूमि की निखरी खूबसूरती, लहरों का सीधे उठना-गिरना, और बालू का पैरों में कम लगना शामिल होता है . आप इस सबमें ‘सुपरलेटिव डिग्री’ को जोड़कर ‘पानी की सफाई’ और ‘किनारे के एकांत’ से मिला दीजिये, और फिर जो तस्वीर बनती है, उसे राधानगर का ‘किनारा’ समझिये . संभव है, आप उसके कुछ करीब पहुंच पायें . हम यहाँ एक दिन के लिए आते हैं, और दो दिन रुक जाते हैं. और तीसरे दिन जब यहाँ से नील द्वीप के लिए रवाना होते हैं, तो जहाज के समय को ध्यान में रखते हुए एक बार पुनः यहाँ डुबकी लगाने चले आते हैं.

जहाज नील द्वीप की तरफ बढ़ता है, और हम एक विस्मय की तरफ. लगभग डेढ़ घंटे बाद इस द्वीप की आहट मिलने लगती है. इस अत्यंत छोटे द्वीप को नजर की एक फ्रेम में भी समेटा जा सकता है. यहाँ ‘ज्वार’ के समय स्नान करने का सुख उठाया जा सकता है, और ‘भाटा’ के समय समुद्र के भीतरी घर को खुले आकाश के नीचे निहारने का. जिस कोरल्स को देखने के लिए पोर्टब्लयेर के नजदीक इतनी गहमा-गहमी और अफरा-तफरी मची रहती है, वह यहाँ पर ‘यत्र-तत्र-सर्वत्र’ बिखरा पड़ा है. मतलब इस द्वीप को ज्वार-भाटा, कोरल्स और साफ़ नीले-हरे पानी को देखने के लिए जरुर आना चाहिए. लेकिन ये दोनों द्वीप शाकाहारियों के लिए शामत भी लेकर आते हैं. यदि आपके पास अफरात का समय हो, और उसे बर्बाद करने का मन भी, तो यहाँ पर ‘शाकाहारी भोजनालय’ ढूँढने निकल सकते हैं. अन्यथा नारियल पानी, ब्रेड और नमकीन से तो आप परिचित ही हैं.

एक रात नील में गुजारने के बाद हम पोर्टब्लेयर वापस लौटते हैं. यह शहर गहमा-गहमी से भरा हुआ शहर लगता है. प्रकृति से थोड़ा दूर, और थोड़ा जबरदस्ती का व्यस्थित. जाहिर है, अब हमारे पास नापने के लिए ‘हैवलाक और नील’ वाला पैमाना जो आ गया है. अगले दिन हमें ‘बाराटांग’ के लिए निकलना है, जो पोर्टब्लेयर से 105 किलोमीटर उत्तर की तरफ है. इसके रास्ते में लगभग 50 किलोमीटर के संरक्षित क्षेत्र में ‘जारवा जानजाति’ निवास करती है. इस बात को लेकर हम उत्सुक हैं, कि इस यात्रा में पहली बार हम दक्षिणी अंडमान से बाहर निकल रहे हैं. सब जानते हैं कि आज की यात्रा भले ही बाराटांग के नाम पर हो रही है, लेकिन असली मकसद तो ‘जारवा जनजाति’ वाले क्षेत्र से गुजरना है, या कहें तो उन्हें देखना है. लगभग एक घंटे की यात्रा के बाद हम उस चेक पोस्ट पर पहुँच जाते हैं, जहाँ से ‘जारवा जनजाति’ के लिए सुरक्षित क्षेत्र आरम्भ होता है.  

चूँकि यह जनजातीय क्षेत्र आम जनता के लिए प्रतिबंधित है, इसलिये पर्यटन उद्योग ने यहाँ जाने का रास्ता बाराटांग दिखाने के बहाने चुन लिया है. यहाँ का भूगोल कुछ ऐसा है कि सड़क मार्ग से बाराटांग जाने के लिए आपको ‘जारवा क्षेत्र’ से होकर ही गुजरना पड़ता है. इस जनजाति के बारे में सर्वविदित तथ्य यह है, कि ये लोग कपड़े नहीं पहनते. तो क्या इन सैकड़ों गाड़ियों की लगी हुयी कतार में बैठे हजारों लोग, आज की यात्रा इसलिए कर रहे हैं कि उन्हें ‘नंगे’ लोगों को देखना है ? नहीं नहीं ....यह सवाल यदि आप इन लोगों से पूछ देंगे, तो वे उसे गोल-गोल बनाकर चबा जायेंगे, और फिर हजम भी कर जायेंगे. जैसे कहने लगेंगे कि ‘हम तो साहेब ..... यहाँ की संस्कृति को देखने आये हैं.’ जैसे कि ‘हम तो साहेब .... इस रास्ते को देखने के लिए आये हैं.’ जैसे कि ‘हम तो साहेब लाइमस्टोन गुफा और सुप्त ज्वालामुखी को देखने आये हैं.’ और यह भी कि ‘हम तो साहेब इसलिए आये हैं कि सभी लोग यहाँ आ रहे थे.’ ....... अच्छा है. जैसे कि टूर आपरेटर हमें बाराटांग दिखाने के लिए लाये हैं, और सरकार भी इसीलिए हमें यहाँ आने की इजाजत दे रही है कि हम बाराटांग को देख सकें. तो ऐसे में पर्यटकों का इतना ‘हिपोक्रेट’ होना तो चल ही सकता है. क्यों ....?

जारवा जनजाति का उद्भव नीग्रो जाति से जोड़कर देखा जाता है. सभ्यता के विकास से कोसों दूर, अपने में रहने वाली यह जनजाति आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है. सैकड़ों-हजारों साल तक प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाने के बाद आज उनकी जनसंख्या 250 के आसपास सिमट कर रह गयी है. यह तथ्य कितना सालने वाला है कि ‘बाराटांग’ का पर्यटन उनके ‘नंगे रहने’ को दिखाने के नाम पर चल रहा है. और उनके बारे में उपलब्द्ध जानकारियों को किताबों के हवाले या फिर संग्रहालयों के भरोसे छोड़ दिया गया है. तो क्या यह इतना कठिन काम है कि इनकी विशिष्टताओं को आम पर्यटकों के साथ शेयर नहीं किया जा सकता है ...? वहां जाने वाले सभी पर्यटकों को दो पन्ने की एक छोटी सी बुकलेट के सहारे ये सूचनाएं तो उपलब्द्ध करायी ही जा सकती हैं, कि सभ्यता से दूर उनका जीवन किस तरह से चलता है. मसलन उनकी रोटी, जो आज भी प्रकृति के साथ ही चलती है. बीच में सरकार ने उसमें कुछ हस्तक्षेप किया था, और उनके खाने-पीने के लिए कुछ बाहर की चीजें मुहैया कराई थी, तो कैसे हालात बिगड़ गए. पता चला कि उनमें मृत्यु दर अचानक बढ़ गयी. इस बाहर के खाने ने उनकी प्रतिरोधी क्षमता घटा दी, और वे सामान्य बीमारियों में भी मरने लगे. कपड़े वाली जरूरत भी उनकी प्रकृति ही पूरा करती है. मन किया तो पेड़ की छाल और पत्तियां लपेट ली, और मन नहीं किया तो वह भी नहीं. अलबत्ता आवास को लेकर हाल के दिनों में कुछ अवश्य परिवर्तन आया है. सरकार ने घने जंगलों के बीच उनके लिए कुछ ‘सेल्टर’ बना दिए हैं, जिसमें वे रहने लगें हैं. शिक्षा और स्वास्थ्य की बुनयादी जरूरतों से अभी भी वे कोसों दूर हैं. सिवाय इस बात के, कि इधर के वर्षों में जब उनका कोई साथी गंभीर रूप से बीमार पड़ता है, तो वे उसे सड़क के किनारे लिटा जाते हैं, ताकि सरकार उनकी मदद कर सके.

ढेर सारे कौतुहल को लिए हमारा कारवाँ उस ‘संरक्षित क्षेत्र’ में प्रवेश करता है. आगे-आगे वहां की स्थानीय पुलिस की गाड़ी है, और पीछे-पीछे सैकड़ों गाड़ियों का लंबा काफिला. ‘जारवा लोग’ भी काफिले के लिए नियत समय को पहचानते हैं. उनके कुछ सदस्य, जिनमें अधिकतर छोटे-छोटे बच्चे होते हैं, किनारे आकर खड़े रहते हैं. वे बिलकुल नंग-धडंग होते हैं. यदा-कदा युवक युवतियां भी उसी साहकार में दिखाई दे देती हैं. किसी भी प्रकार की खाद्य सामग्री उन्हें देनें की मनाही है. और फोटो लेना तो सख्त रूप से प्रतिबंधित. बावजूद इसके, यहाँ जाने वाली गाड़ियों के भीतर से चमकते कैमरों को प्रतिदिन देखा जा सकता है. अधिकतर पुरुष उचक रहे होते हैं, और अधिकतर महिलायें मुंह फेर शर्मिन्दा. और फिर वर्ष 2011 में वह वीडिओ भी वाइरल हो ही गया था, जिसमें उन्हें खाद्य पदार्थ देनें के एवज में नाचने के लिए बाध्य करते हुए दिखाया गया था. हंगामा संसद तक पहुंचा था, और कुछ दिनों के लिए बाराटांग की यात्रा स्थगित भी रही थी  लेकिन जैसा कि भारत में होता रहा है, बाद में पर्यटन लाबी ने दबाव डालकर उसके भीतर से रास्ता खोज लिया. और वह रास्ता अब ‘बाराटांग’ दिखाने के नाम पर चल रहा है. पहली बार जब हम 2010 में यहाँ पहुँचे थे, तो उनकी बड़ी संख्या सडकों के किनारे दिखाई दी थी. लेकिन पिछले साल की यात्रा का अनुभव कहता है कि अब उन लोगों का सडकों के किनारे आना कम हो गया है. और जहाँ कहीं वे दिखाई भी देते हैं, तो उनके साथ वहां की स्थानीय पुलिस होती है.

हालाकि बाराटांग पहुंचकर लगता है कि ‘मैंग्रूव’ के जंगलों के बीच से स्पीड बोट पर यात्रा करना भी कोई कम रोमांचकारी अनुभव नहीं है. फिर उस सुप्त ज्वालामुखी को देखना भी, जिसमें अभी भी हलके-हलके बुलबुले फूट रहे हैं. और जब हम ‘लाइमस्टोन गुफा’ को देखकर लौटते हैं, तो उस दुर्भाग्य को कोसने की ईच्छा होती है, जिसमें यहाँ के पर्यटन उद्योग ने इस पूरे दिन के भ्रमण को ‘जारवा जनजाति’ के कपड़ों से जोड़ दिया है. वैसे अंडमान की यात्रा उन तमाम जनजातियों की बात के बिना अधूरी ही मानी जायेगी, जिनका यह आदिम घर रहा है, और जो आज विलुप्त होती जा रही हैं. ‘ओंगी’ से लेकर ‘सेंटेनली’ तक और ‘ग्रेट अंडमानी’ से लेकर ‘सोम्पेन’ जैसी जनजातियों तक. ले देकर यहाँ पर निकोबारी जनजाति ही बची है, जिसकी उपस्थिति महसूस की जा सकती है. इनकी आबादी लगभग तीस हजार के आसपास है, और यहाँ पर जनजातियों के अधिकारों के लिए चलाये जाने वाले आन्दोलनों में इनकी भूमिका को रेखांकित किया जा सकता है.

तो यह द्वीप-समूह समूह आखिर किसका है, और आज इस पर कौन काबिज है, यह सवाल तो खड़ा होता ही है. और इसी के साथ-साथ नत्थी होकर यह सवाल भी, कि हम इसे परखने के लिए इतिहास में कितना पीछे जाना चाहते हैं. यदि हम 1947 से 100 वर्ष और पीछे देखने की कूबत रखते हैं, तो फिर आज के अंडमान पर बाहरी लोगों का वर्चस्व ही दिखाई देता है. वहां पर सदियों से रह रहे भूमिपुत्रों के हाथों से यह समूचा ‘द्वीप समूह’ निकल गया है. यदि अंग्रेजों ने स्वतंत्रता आन्दोलन को कुचलने के लिए इसे ‘दंड द्वीप’ के रूप में नहीं बसाया होता, तो इस द्वीप समूह की कहानी कुछ और ही होती. हालाकि यह बात भी उतनी ही सच है कि देश और दुनिया इसी तरह से बनती रहती है, विकसित होती रहती है.  लोग एक जगह से उखड़ते हैं, और उनकी पीढियां दूसरी जगह से उग जाती हैं. जाहिर है, इतिहास को वापस तो नहीं लौटाया जा सकता, लेकिन उसे न्यायपूर्ण जरुर बनाया जा सकता है. आज हमारे सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है, कि वहां के मूल बाशिंदों को मुख्यधारा के साथ कैसे जोड़ा जाए, और कैसे उन्हें अधिकार संपन्न बनाया जाए.

यह अंडमान से वापसी का समय है. इन दस दिनों में जितना देखा सुना है, जीवन की तरह ही हिसाब लगाने पर लगता है, कि उससे कई गुना अधिक छूट गया है . 572 दीपों में से सात-आठ द्वीपों को देखने के हिसाब से तो बहुत कुछ. लेकिन यह सोचकर कि यहाँ सिर्फ 34 द्वीपों पर ही जीवन है, और उसमें से पांच-सात को देखने का अवसर मिल ही गया, थोड़ी तसल्ली होती है. मुख्यभूमि के हिसाब से सात सौ किलोमीटर का विखराव बहुत अधिक नहीं कहा जा सकता है, जिसमें कि यह पूरा अंडमान और निकोबार द्वीप-समूह बसता है. लेकिन जहाँ हर एक-आध किलोमीटर के बाद समुद्र आपकी अगवानी में खड़ा हो, वहां पर यह कोई छोटी दूरी भी नहीं है . दरअसल मुख्यभूमि पर होते हुए हम उस भूगोल को समझ भी नहीं सकते हैं, जो इस ‘द्वीप समूह’ पर बिखरा हुआ है. उसे समझने के लिए, उसे देखना भी होगा. और बजाय इसके कि वहां जाकर हम अपने अदेखे पर दुखी हों, इस बात की तसल्ली की जा सकती है, कि यह ‘द्वीप-समूह’ भारत का हिस्सा है, और हम उस हिस्से के छोटे से ही सही, लेकिन भाग बन आये हैं, उसे आँखों में बसा आ आये हैं. दो वर्ष के अंतराल में, दो बार अंडमान घूम आने के बाद जीवन से इतना आशावादी तो हुआ ही जा सकता है, कि अभी कई और बार इसे देखने का अवसर मिलेगा. और यह भी, कि तब हम शायद दक्षिणी अंडमान से बाहर निकलकर मध्य अंडमान, उत्तरी अंडमान, लिटिल अंडमान, और कार द्वीप होते हुए निकोबार द्वीप की सैर भी कर पायेंगे.

वैसे भी ......... ‘उम्मीद एक जिन्दा शब्द है .’ ................ अलविदा अंडमान .......
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रामजीतिवारी (बलिया, उत्तर प्रदेश)
आस्कर अवार्ड्स पर एक किताब -'यह कठपुतली कौन नचावे'तथा 
एक कविता संग्रह- 'अँधेरे समय के लोग'प्रकाशित
ramji.tiwari71@gmail.com /मो. न. 09450546312  

मैं कहता आँखिन देखी : प्रत्यक्षा

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इधर की हिंदी कहानियों में बतौर कथाकार प्रत्यक्षा खास मुकाम रखती हैं. उनकी कहानियों की बुनावट में धागे अलग रंग के हैं, और ‘प्लाट’ की मिट्टी अलहदा है. कथा के अलावा प्रत्यक्षा कवितायेँ भी लिखती हैं., पेंटर हैं, संगीत में रूचि और गति है. सौरभ शेखर ने उनसे तमाम मुद्दों को लेकर तैयारी के साथ यह दिलचस्प बातचीत की है.  

लिखना एक आत्मीय गुफ्तगू है     
प्रत्यक्षा से सौरभ शेखर की बातचीत


आप झारखंड से दिल्ली आईं. फाइनन्स जैसा प्रोफेशन... और इन सबके बीच साहित्य में एक जगह बनाना,क्या सोचती हैं आप इस पूरे सफर के बारे में

इन्हीं सब के बीच ही साहित्य सँभव है. ये दो दुनियाओं में आवाजाही है, एक से दूसरे में जाना दोनों को और तीखा और जानदार बनाता है, एक कॉन्टेक्स्ट देता है. ये ऊब की एकरसता को सितार के तार सा कस कोई ऐसे संगीत का धुन तैयार करता है जो धीमे धीमे नेपथ्य में बजता ही जाता है. जैसे कैनवास का बड़ा हिस्सा जिसे आपने इसलिये सफेद रख छोड़ा है कि बाकी के रंग अपनी पूरी जीवंतता में निखर आयें. 

इस तरीके से दोनों स्पेस की सार्थकता बनी रहती है. शायद सिर्फ लिखती तो ऊब लिखती, उसके रंग एक होते, उनमें जान फीकी रहती, उसमें दूसरी दुनिया से भाग आने की बेताबी नहीं लिखती, ठहर कर खुशी और गम का आस्वाद नहीं लिखती, बन्द आँखों से खुली दुनिया नहीं लिखती.  

फिर प्रोफेशन और उसके साथ मिली भावात्मक और आर्थिक आत्म निर्भरता भी आपके सेल्फ को डिफाईन करता है ,जो मैं हूँ. और इसी लिये लिखती हूँ कि मैं इतना इतना हूँ,सार्थक हूँ ,दुनिया को हैंडल करने का एक तरीका मिला है,जितना भी,और उस होने में एक सपना देखने की सहूलियत भी,बाहर की दुनिया को अपने भीतर की दुनिया के बरक्स देखने की ज़रा सी काबिलियत भी,उसे पूरे जटिलता और सघनता में देख पाने का नज़रिया भी.    

लिखना फिर अपने साथ ऐसी संगत में रहना है जिसमें सब साफ सच्चा और पारदर्शी है.ये खुद से एक आत्मीय गुफ्तगू है,अपनी वल्नरेबिलिटीज़ को नंगी आँखों देखना और समझना है. ये प्रकिया लगातार अपने भीतर उतरते जाना होता है, भीड़ में भी अपनी दुनिया साथ पीठ पर रकसैक टाँगे घूमना  है,और शायद अचेतन में अब तक, जब तक लिखा नहीं था, तब जहाँ-जहाँ से गुज़रे सब भीतर किसी बड़े गहरे कूँये में इकट्ठा होता रहा ... समय, अनुभूति, लोग, दुख. सब स्मृति में अटका रहा कील. लिखना बार बार उसी दुनिया में लौटना होता है, हर बार नये तरीके से और नये दरवाज़ों से, कि लौटना फिर अपने आप को, अपने परसेप्शन को और उस दुनिया को रीइंवेंट करना  है, हर बार खुरचकर और भीतर जाना, शायद एक आर्कियॉलॉजिकल एक्स्पेडिशन है जहाँ गहराई के हर स्तर पर किसी और दबी हुई स्मृति के अवशेष मिलें.

लिखना एक तरह का डीटैचमेंट भी  है. सब भोगते हुये भी उसके बाहर रह कर दृष्टा बन जाने का. इसी रुटीन रोज़मर्रा के जीवन में एक फंतासी रच लेने का और फिर किसी निर्बाद्ध खुशी से उस फंतासी में नये नवेले तैराक के अनाड़ीपन से डुब्ब से डुबकी मार लेने का. लिखना जितना बड़ा सुख है उतनी ही गहरी पीड़ा भी है, जितना अमूर्त है उतना ही मूर्त भी, जितना वायवीय उतना ही ठोस और वास्तविक भी. और सबके ऊपर , लिखना खुद से सतत संवाद कायम रखने की ज़िद्दी जद्दोज़हद की बदमाश ठान है. किसी सिन्दबाद के कँधों पर ज़बरदस्ती सवार शैतान बूढ़ा है, लिखना. 



आपकी कहानियों का शीर्षक सबसे पहले ध्यान खींचता है. आम स्थूल शीर्षकों की तुलना में उनमे एक प्रकार की तरलता है. इस प्रकार के अनूठे बल्कि  कई बार अजीब से शीर्षक चुनने के बारे में  पाठक आपकी राय जानना चाहेंगे..

मैं शीर्षक नहीं सोचती. बाज़ दफा लिखते लिखते अचानक वो कौंध जाता है. मैं सिर्फ ये कोशिश करती हूँ कि अभिव्यक्ति में ईमानदार रहूँ, उसमें कोई प्रिटेनशन न हो. जो मन और कल्पना के भूगोल में दिखता है उसे सबसे अच्छी तरह से लिख पाऊँ. तरलता उसका सबसे बेसिक एलिमेंटरी तत्व है. मुझे ऐसे शब्द पसंद हैं जो बोलने और सुनने में संगीत सा लय दें, किसी भी भाषा में हो. जैसे रेणु,ऐनी आपा या राही मासूम रज़ा के टेक्स्ट पढ़ कर मुझे उन्हें ज़ोर से बोलने की इच्छा होती है, या फिर विनोद कुमार शुक्ल को पढ़ते किसी सपने को देखने सा एहसास हो. शब्दों के सही उच्चारण के लिये मैं सचेत रहती हूँ,उनकी लयात्मकता के लिये भी. कई बार एक शब्द के संगीत ने पूरी कहानी लिखवा ली है.

मैंजब लिखती हूँ तब शब्द मेरे लिये नदी के किनारे, रेत में चमकते पत्थर होते हैं, उनका अनगढ़पना, उनकी रंगत, उनकी छुअन मेरे लिये कई कई पगडंडियाँ बनाती हैं, उन सुदूर पहाड़ों से पहचान कराती हैं जहाँ से किसी कठिन सफर के बाद वो मुझ तक पहुँची हैं. 


आप की कहानियों में सपाट कथ्य की बजाये प्रतीकात्मकता की बहुतायत है.इस परिप्रेक्ष्य में से कहानी में सहजता और बोधगम्यता के प्रश्न को आप कैसे देखती हैं?

मैं जब लिखती हूँ , मेरा मन टेढ़ी गलियों की महीन सघन दुनिया में उतरता है. सपाट या ओब्वियस कथन में मुझे दिलचस्पी नहीं. मुझे सपाट कथ्य पढ़ने में भी आनंद नहीं आता. हो सकता है ये मेरा खालिस व्यक्तिगत मामला हो. घुमावदार कुहरीले दुनिया की सँभावनायें मुझे आकर्षित करती हैं. जैसे आप पाठक को एक ज़मीन दें जहाँ से वो अपनी उड़ान ले सके ,उस कहानी को अपना क्लेम कर सके. किसी भी लिखाई में अगर एक वाक्य आपके सामनेदस खिड़कियाँ खोलता है मेरे लिये यह ज़्यादा ज़रूरी है.  

कई बार मैं इनटेंशनली एक पर्दा खींच देती हूँ जिसके पार सिर्फ एक संकेत हो.

ये मुझे मालूम है कि ऐसा करने से वो इज़ी रीड नहीं होता. लेकिन अगर मुझे दस भी ऐसे पाठक मिलते हैं जो मेरे लेखन को ठीक उसी बुनावट में ग्रहण कर रहे हैं जिसमें मैं लिख रही हूँ, मैं खुश रहूँगी, बेहद खुश.  

पाठकों की संख्या मेरा ऐम्बीशन नहीं है. अपने भीतर के ‘मैं’ को कैसे संतुष्ट करूँ, उस क्रियेटिव बेचैनी को सम कहाँ दूँ कैसे दूँ, कितने पूरेपन में दूँ, ये मेरी चिंता है. लिखना  भीतर की सबसे इमानदार,सबसे मीठी,सबसे अनमोल चीज़ है,छपने का मोह नहीं है. लिखने का असीम सुख है. इस मामले में निस्संग हूँ सूफी हूँ. जो मिल जाता है अनायास उसमें खुश हूँ.  

बहुत लोग पढ़ें और खुश हों अच्छा लगेगा, मैं खुद कितनी खुशी पाऊँ रचने की प्रक्रिया के दौरान, ये और ज़्यादा अच्छा लगने की बात है ..

कहानी में सहजता फिर उतनी ही  आयेगी जितना जीवन सहज होगा. इस दुरूह अराजक समय की कहानियाँ फिर उतनी ही टेढ़ी और जटिल परत दार होंगी.  

बोर्ख़ेज़ को पढ़ना इसलिये ही इतना स्टिम्यूलेटिंग होता है. लेकिन फिर ये भी कोई कायम बात नहीं कि मैं हमेशा ऐसा ही लिखूँगी. कोई बरसों पीढ़ियों को समेटता विस्तार लिख सकूँ ऐसा भी ख़्याल आता है   फिर भी मैं अगर दुरूह हूँ , मेरे पाठक मुझे माफ करें .


आपने अपनी कहानियों में शिल्प के स्तर पर प्रयोग किये हैं. मगर शिल्प को कथ्य से अलग कर देखना मुमकिन नहीं है. आदर्शतः,कथ्य ही अपना शिल्प चुनता है. जैसे बीसवीं सदी के उत्तरार्ध की शुरुआत में अंग्रेजी साहित्य में 'अब्सर्ड लिटरेचर'का बड़ा जोर था. इसके एक्स्पोनेंट्स की तब तार्किक दलील थी कि आधुनिक जीवन की निरर्थकता को दर्शाने के लिए अमूर्तन की शैली उपयुक्त है. अमूर्तन की शैली में अच्छा साहित्य हिंदी में पहले भी रचा गया है,लेकिन समकालीन कथा परिदृश्य में कहीं-कहीं यूँ लगता है मानो शिल्प ही प्रधान हो गया है. अपने शिल्प संबंधी प्रयोगों के मद्देनज़र आपका इस मुद्दे पर क्या कहना है

कई बार एक उद्दंड इच्छा होती है कि कुछ तोड़फोड़ मचाया जाय. हिन्दी साहित्य के कंवेशनल दुनिया में अनकंवेंशनल की अराजकता मचाई जाय. लेकिन ऐसी इच्छा एक तरीके से उतनी ही बचकानी है जैसे कि आप लिखने के पहले तय करें कि कथ्य ये होगा, शिल्प ये और सामाजिक मुद्दे ये.  लिखना मेरे लिये बहुत इंट्यूटिव चीज़ है. शिल्प उस कथ्य को आगे ले जाने वाला एक औजार मात्र है. इन सब चीज़ों को किसी मैथेमैटिकल फॉर्मुला की तरह नहीं देखती. जो कहानी जिस तरह से मन में आई वैसे लिखी गई. 

विदेशी साहित्य में जिस तरह जुनूनी क्रियेटिवनेस है, एक किस्म की अफलातूनी है, वो कई बार यहाँ सिरे से गायब है. एक परिपाटी का वहन हो रहा है. अगर आपकी रचनात्मकता इस दायरे के बाहर आपको खींच कर ले जाती है तो उसे नकार दिया जाता है.  

एक क्रियेटिव रेंज का स्पेक्ट्रम नहीं है. इसे मैं प्रयोग भी नहीं मानती. सिर्फ एक्स्प्रेशन का एक और तरीका. रचनात्मक खलबली अपना निकास कई तरीकों से पाती है. जैसे पेंटिंग में रियलिज़्म, सर्रियलिज़्म, इम्प्रेशनिस्ट,  ऐब्ट्रैक्ट, उसी तरह लिखने में हम चाहते हैं कि को जो कहें ऐसे कहें जैसे किसी और ने न कहा था. कथ्य तो वही है, जीवन में प्रेम भी वही है सिर्फ देखने की नज़र बदल गई , जताने का तरीका बदल लिया , शब्दों के बुनावट को अलग तरह से सजा लिया. ये एक किस्म का इनोवेशन है, हमारे द्वारा इजाद किया हुआ एक्स्प्रेशन है, कोई नया अलग पागल सुर है. 

ये पाठक पर निर्भर करता है कि इसे अलग अलग देखे या एक सिम्फनी में. कहानी कमज़ोर या विलक्षण हो सकती है, इसे अलग रेशों में, कथ्य शिल्प बुनावट के पच्चीकारी का उधड़ापन देखने की नज़र से न देखें. कोई चीज़ अच्छी है तो सिर्फ अपने किसी तत्व की वजह से नहीं.  

इस तरह की बात तभी कही जाती है जब लिखने को आप एक फिज़िकल ऐक्ट मानते हैं. जबकि कई मायने में लिखना मेटाफिज़िकल भी  है. बिना अंतर प्रवाह के, बिना भीतरी रस के, कथा कही नहीं जा सकती. और कथ्य ही अपना शिल्प खोजता है जैसे पानी बहने के लिये ढलान. 

लेकिन एक बात है कि लिखते वक्त मुझे कई बार कहानी की बजाय किसी भावलोक का अंवेषण भी उतना ही आकर्षित करता है जितना कि कोई पारंपरिक शैली की कहानी जिसमें बकायदा एक शुरुआत,एक बीच और एक अंत हो. इस संदर्भ में जीवन का कोई टुकड़ा ,अ स्लाईस ऑफ लाईफ,जिसके सब सिरे खुलें हों ,को भी लिखना अच्छा लगता है क्योंकि आखिरकार जीवन हमेशा ऐसा ही होता ,सब सँभावनाओं से भरपूर ,जिसमें सब चीज़ें ओपेन एंडेड होती हैं.

  
आपकी भाषा की चित्रात्मकता ख़ासा प्रभावित करती है. मगर शब्दों से तस्वीर बनाने का यह यत्न जोखिम भरा भी है. मसलन आपकी कहानी मोहब्बत'एक किस्म की ‘फिलोसोफिकल मूरिंग है'इससे गुज़र कर ज्यादा कुछ ठोस पाठक के हाथ नहीं आता. ऐसी कहानियों की सार्थकता पर आपके क्या विचार हैं

मैं कभी क्लेम नहीं करती कि मेरे लिखे से पाठकों को कोई ज्ञान मिल जाय. लिखना, जीवन के कुछ पक्ष उनके सामने रखे, उनके दिल का कोई तार उससे जुड़ जाये, एक साझे संवेदनशीलता के अंतरंग में हम साथी बनें, उससे ज़्यादा मेरी अकांक्षा नहीं. 

मोहब्बत मेरी बहुत दिल के करीब की लिखाई है. उसको लिखते मैं जितनी संजीदा, जितनी परिपक्व,जितनी संवेदंशीलजितना सुखी हुई उसका एक अंश भी उसके पढ़ने वाले महसूस करें, बस. जीवन हमेशा आपको ज्ञान नहीं देता. आप बस जीते हैं. टू  द बेस्ट ऑफ वंस अबिलिटी. और मोहब्बत में चित्रामत्कता नहीं है, बस एक जीवन के बेमतलब होने की छोटी पर बेहद आमफहम बात है.

लिखना भी वही है. एक ईमानदार जीते रहने की कोशिश.  

मैं पेंटिंग भी करती हूँ. पेंटिंग करते वक्त कविता दिमाग में होती है, लिखते वक्त रंग. जो मन की आँख से दिखता है उसे सच्चाई से वर्णन करती हूँ. लोग कहते हैं मेरी भाषा अच्छी है,मैं कहती हूँ वो अच्छी या बुरी नहीं, बस मेरी है और उन शब्दों की पीठ पर सवार ,साथ चलते उन भावों को आप देखें जिन्हें मैं आप तक पहुँचाना चाहती हूँ. मेरी भाषा सिर्फ एक मीडियम है. 


कथ्य की बात करें तो आपकी कुछ कहानियों में पाठक हाशिये के उस अंधकारलोक से मुख़ातिब होता है जिस पर मुख्यधारा के मीडिया की नज़र नहीं जाती. उदाहरण के तौर पर 'आईने में','जंगल का जादू तिल तिल','शारुख शारुख! कैसे हो शारुख'जैसी कहानियां....क्या आप ऐसा मानती हैं कि समकालीन हिंदी कहानी में हाशिये की उतनी भी मौजूदगी नहीं है जिसका वह हकदार है? और इसकी भरपाई के प्रयास किये जाने चाहिए?

 हमें अपने चारों ओर की दुनिया के प्रति चौकन्ना रहने की आवश्यकता है. उन समयों के लिये भी जो गुज़र गया  और वो जो आने वाला है. हम एक तरह से कई दुनिया और कई संस्कृति को नज़दीक से देख रहे हैं. आज के समय में कम्यूनिकेशन  का बहाव इतना आसान और ऐक्सेसिबल है कि वो हमें किसी भी पक्ष से अछूता नहीं रहने देता. ऐसे मल्टी डाईमेनशनल समय को हम दर्ज़ नहीं करेंगे तो कौन करेगा.  

इन कहानियों की आदिवासी दुनिया मेरी अपनी ही दुनिया है. कोई आदिवासी चेहरा दिखता है तो मुझे लगता है किसी अंतरंग आत्मीय से मिल लिये. एक सामाजिक और अर्थशास्त्रीय संदर्भ में ये लोग हाशिये पर हैं, पर मेरे मन के विस्तार में वो केन्द्र पर हैं शाहरुख का राफेल तिग्गा मेरा कितना अपना है ये अमूर्तन की बात नहीं . उसमें मेरे पिता हैं,मेरा बचपन है, मेरे शुरुआती दिनों की बुनावट है, मेरा बालू भैया है, मेरी सुज़ान है, मेरा स्कूल है, एक पूरा समय है. जंगल का जादू, मैं मानती हूँ मेरा सबसे अच्छा लेखन है . क्योंकि उसको लिखते जो मैं हूँ, वही सचमुच में हूँ, जंगल के दुख में दुखी एक औरत जिसका एक समय का भूगोल उससे छूट गया हो.

मैं उम्मीद करती हूँ कि हम सब पूरी ज़िम्मेदारी से अपने समय और भूगोल का दस्तावेज़ तैयार करेंगे. इसे बहुत ऑवर्ट तरीके से भी हर बार करने की ज़रूरत नहीं. अगर इमानदार लेखन है,अपने आस पास की संवेदना को भरपूर पकड़ रहा है तो उसमें वो सब बातें आयेंगी जिन्हें हम अमूमन हाशिये का समझते हैं .

मैं चाहती हूँ कि मेरी इन कहानियों पर बात हो जिसमें ऐसे लोगों की बात है जिन्हें कम लोग जानते हैं. मैं जानती हूँ कई लोग ऐसी कहानियाँ लिख रहे हैं .उन सब पर बात हो. एक गँभीर चर्चा जिसमें हम साझे अनुभव बाँटें.
  

आपकी कई कहानियाँ एक कहानी के भीतर कई छोटी-छोटी कहानियों के शिल्प में लिखी गई हैं. कई बार इन कहानियोने में अंतर्निहित अलग-अलग कहानियों मे परस्पर अंतर्संबंध की कमी साधारण पाठकों को उलझाती है. इस तरह के शिल्प की कहानियों में संतुलन और अंतर्संबंध को लेकर आप क्या सोचती हैं

जीवन ऐसा ही होता है न. एक कहानी में सौ कहानियाँ, एक दरवाज़े से दस दरवाज़े और खुलते और एक खिड़की से पचास किस्म की नई दुनिया का अचँभा. फिर कहानी क्यों जीवन से अलग हो संतुलन और अंतर्संबंध की बात जहाँ तक है, अगर उसमें कोई कमी पाठकों को दिखती है तो वो मेरी लिखाई की कमियाँ हैं. होंगी. लेकिन मेरा मानना है कि भरे पूरे रास्ते की बजाय जितनी बीहड़ पगडंडियों में हम उतरते चलेंगे उतना भीतर पैठते जायेंगे. कहानियों का पूरा जँगल हो जहाँ हम , लिखने वाले और पढ़ने वाले , दोनों साथ साथ गुम जायें, क्या आनंद हो


आपकी अधिकतर कहानियों में समाज एक खलनायक की भूमिका में है. एक ओर व्यक्ति की नैसर्गिक वृतियां और सहज आकांक्षाएं हैं तो दूसरी ओर समाज के बेहूदे अंकुश.  इस विडम्बनापूर्ण संबंध की परिणति अनिवार्यतः अवसाद,घुटन और अंततः त्रासदी में होती है. इस लिहाज से आप क्या मानती हैं कि समाजविहीन अस्तित्व एक बेहतर विकल्प हो सकता है?

समाज को, तमाम विद्रूपताओं के बावज़ूद, मैं खलनायक जैसे नाटकीय मुखौटे में नहीं देखती. जीवन के कुछ नियम हैं. सब कुछ अराजक हो ये ठीक भी नहीं. लेकिन समाज अत्याधिक हस्तक्षेप करे ये भी गवारा नहीं. ..कहानियों में फिर डेलिबरेटली या कॉंशसली कुछ नहीं लिखा है. जो दिखता है, जो है, वही है एक संतुलन और ज़िम्मेदारी ज़रूरी है .कोई आदर्श परिस्थिति नहीं होती. न व्यक्तिगत न सामाजिक. इन सब विसंगतियों के बीच हम कैसे सैनिटी बनाये रखें ये ज़रूरी है.
  
बेमेल विवाह, प्रेम-रहित दाम्पत्य  और उससे उपजा त्रास आपकी कई कहानियों जैसे 'सपने का कमरा..','केंचुल', 'बलमवा तुम क्या जानो प्रीत', इत्यादि में प्रमुखता से उजागर होता है. कहना न होगा कि ये बेमेल विवाह समाज और परिवार में स्त्री के दोयम दर्ज़े और शोषण चक्र के मूल में है. लेकिन इससे त्राण की चाहना में हम परिवारों के विघटन और चरम मूल्यहीनता के खतरनाक दौर में तो नहीं प्रवेश कर रहे

हर चीज़ के दो पक्ष हैं. स्त्री अगर कॉम्प्रोमाईज़ करती रहे परिवार बचा रहेगा. स्त्री ने कॉप्रोमाईज़ बन्द कियातो परिवार टूट गया  

हम इवाल्यूशन के उस दौर से गुज़र रहे हैं जहाँ कुछ स्त्रियों को आज़ादी मिल गई है. वो नये नियम गढ़ रही हैं. इन सब बातों को स्टेबलाईज़ होने में वक्त लगेगा. और ये वक्त सचमुच जोखिम भरा है. इसलिये कि अभी भी बहुत सी स्त्रियाँ भयानक शोषण की शिकार हो रही हैं. एक तरीके से मल्टी लेवल एक्सिस्टेंस है, जिसमें स्त्रियाँ अनेक स्तर पर आज़ादी और दोयम दर्ज़े के अस्तित्व के खिलाफ लड़ रही हैं.  

कुछ नया होने के लिये बहुत कुछ तोड़ने की आवश्यकता है. पुरुषों को अपनी मानसिकता और नज़रिये में बदलाव लाने की ज़रूरत है. स्त्रियों को ये समझना है कि बेहतर आज़ादी के लिये ज़्यादा ज़िम्मेदारी से कैसे खुद का निर्वहन करें

समाज की जड़ता और उसकी अमानवीयता के विरुद्ध प्रतिरोध की धाराएँ विभिन्न स्टारों पर चलती रहती हैं.आपकी कहानी प्रतिरोध की उन नामालूम धाराओं की पहचान करती है.आपके यहाँ 'फुलवरिया मिसराइन'और 'हुमरा'जैसे प्रतिरोध के उल्लेखनीय प्रतीक हैं.मगर मुक्ति की यह जुम्बिश उस तरह की रेडीमेड मुक्ति में ख़त्म नहीं होती जैसा कुछ अन्य फेमिनिस्ट कथाकारों के यहाँ है. बल्कि परिस्थितियां एक दलदल के सदृश हैं जिसमे आदमी जितना हाथ-पाँव चलाये उतना फंसता जाता है. मुक्ति के इन  अधूरे संघर्षों के माध्यम से क्या आप यह टिप्पणी कर रही हैं  कि मुक्ति एक छलावा है?

मुक्ति एक स्टेट ऑफ बीईंग है. ये खुद के साथ एक कम्फर्ट ज़ोन में होना, आत्मविश्वास से भरपूर और अपनी काबिलियत से लबरेज़. जिस तबके से  फुलवरिया और हुमरा आती हैं उसमें परिस्थितियाँ उनको और और फँसाती हैं. ये उनके स्पेस का सच है. पहर दोपहर की पिया दूसरे किस्म की औरत है जो प्रेम में भी अपनी स्वायत्ता बनाये रख सकती है. दिलनाज़ की दिलनवाज़ अपने मन का काम करने सब छोड़ कर किसी गाँव में बस सकती है, सोशल वर्क में अपनी आईडेंटिटी खोज सकती है, एक दिल दो नश्तर की लड़कियाँ इतनी आज़ाद और इतने विश्वास से भरी हैं कि आपका जी खुश हो जाये. पाँच उँगलियाँ पाँच प्यार की पाँचों नायिकायें अपने अपने तरीके से खुदमुख्तार हैं,ललमुनिया हरमुनिया (ब्याह) की माँ भी वैसी ही औरत है जिसने पूरा जीवन विद्रोह में जिया फिर बाद में अपनी दुविधा को भी खुद ही हैंडल करती है. भीतर जँगल के दो भाग की औरतें भी अपने कम्फर्टज़ोन में रहने वाली औरतें हैं. इन सब में कोई अदाबाजी नहीं. बस एक सरल विश्वास है मज़बूती है. 

तो बात सिर्फ ये कि जिन औरतों की कहानियाँ मैं कह रही हूँ वो सब अपने लिमिटेशंस के बावज़ूद अपनी लड़ाई लड़ती हैं, बिना नारे बाजी के, बिना नौटंकी के, बिना किसी फतवे के.

मेरा मानना है कि अगर हर स्त्री अपनी जगह अपने लिये बनाने में काबिल हो जाये, चाहे परिवार में,पति के साथ, या फिर दफ्तर में, या अपने सामाजिक दायरे में, अपने बच्चों की संगत में और इसे वो मज़बूती से करे,कुछ महत्त्वपूर्ण बदलाव ज़रूर होंगे. मेरी कहानियों की नायिकायें ऐसी ही स्त्रियाँ हैं. वो सोशल ऐक्टिविस्ट नहीं हैं. वो सब हमारे आसपास की मामूली औरतें हैं जो इस कोशिश में हैं कि जीवन एक ग्रेस और डिग्निटी से जी लें . मैं ऐसी ही स्त्रियों की कहानी लिखती हूँ.  

फेमिनिज़्म मेरे  लिये दिखावे की की चीज़  नहीं,न ही हर रोज़ छत से चिल्लाने वाली बात है. ये जीवन में हर रोज़ जीने की बात है,हर लम्हा हर स्थिति में अपने को तैयार रखने की बात है. किसी भी औरत को कोई चीज़ प्लैटर पर नहीं मिलती. उसे हक की लड़ाई लड़नी पड़ती है. बचपन में घर से,स्कूल और कॉलेज में लड़कों के मंनचलियों में,नौकरी की दुश्वारियों में.  

मुझे भी उनका सामना करना पड़ा जो छोटे शहर में हर लड़की करती है. नौकरी मुझे किसी सिफारिश किसी मेहरबानी किसी नेटवर्किंग से नहीं मिली. ऑल इंडिया कॉम्पीटीशन से नौकरी मिली और उसके बाद अरसे तक अपने दफ्तर में अकेली लड़की रही. तो हर कदम पर अपने को प्रूव करने की आदत बनी और इसे बिना अग्रेशन के किया सहज भाव से किया. एक रेपुटेशन बनाया,खूब काम करने की,अच्छा काम करने की ,कभी नहीं दबने का. ऐसा नहीं कि जेंडर बायस का सामना नहीं किया,लेकिन हार नहीं मानी और अपने भीतर तल्खी नहीं पैदा होने दी.  

जो ये कहते हैं फ्री हो जाओ,वो विक्टोरियन सोच को उसके सर पर खड़ा कर फिर पुरुषों के ट्रैप में स्त्री देह को फँसाने की साजिश में जुटे हैं. स्त्री की देह उसकी है,उसपर नियंत्रण उसका है,मर्ज़ी उसकी है. वो जिसके साथ रहे उसकी मर्ज़ी लेकिन इस आज़ादी के साथ एक ज़िम्मेदारी भी बनती है,खुद के साथ की ज़िम्मेदारी. कोई भी आज़ादी बेलगाम हो,उसके परिणाम खतरनाक होते हैं. ये हम स्त्रियों को समझना है कि जो आज़ादी हम जीत रहे हैं उसका सही उपयोग हम कैसे करें. उछृंखलता में कोई सफलता और वाहवाही कैसे हो सकती है. मैं हर उस औरत के साथ हूँ ,बिना वर्ग भेद केजो खुद्दारी से जीवन जीने में विश्वास रखती है.  

बहुत सारे छोटे कदम लेने हैं और लगातर लेना है. और सबसे बड़ी बात कि पहले खुद इस बात का विश्वास हासिल करना है कि हम बराबरी पर हैं. ये मानसिक मजबूती बेहद ज़रूरी है . उस अद्र्श्य ग्लास सीलींग को तोड़ना पहले अपने मन से शुरु होता है. मेरी कहानियाँ उसी शीशे की छत पर मानसिक प्रहार है.

मेरे ख़याल से आपकी कहानियाँ अन्य बातों के अलावा दो मुख्य वजहों से पढ़ी जानी चाहिए. पहला कि वे यथार्थ का महज निरूपण नहीं करती हैं बल्कि उसके प्रति एक करुणा का भाव जगाती हैं और दूसरा कि किसी भी किस्म के पोल आदर्शवाद  से लगभग पूर्णतः परहेज करती हैं.लेकिन इसी से जुदा यह सवाल भी है कि आख़िर आदर्श भी तो यथार्थ का ही एक रूप है. क्या आदर्शों के बगैर यथार्थ एक कल्पना मात्र नहीं है

व्यक्तिगत तौर पर मैं घोर आदर्शवादी हूँ. मेरे पिता बेहद ईमानदार व्यक्ति थे. उन्होंने ईमानदारी,नैतिक मूल्यों और पारदर्शिता के ऐसे संस्कार दिये जो मेरी खून में रचा बसा है. दुनिया को देखने का नज़रिया फिर इन्हीं चश्मों से तय होता  है. फिर मैं एक किस्म के बोहेमियन नज़र से भी दुनिया देखती हूँ जिसमें बहुत सारा ग्रे एरिया है,सही और गलत के बीच का स्पेस जो परिस्थितियों से नियंत्रित होता है जिसको जज करने के राईटियस अधिकार के शिखर पर मैं खुद को खड़ा  नहीं देखती. जीवन में इतनी वल्नरेबिलिटीज़ हैं उनको सही सही समझ पाना एक जीवन के बूते के बाहर है. उसमें  अनंत सँभावनायें हैं और जो हो सकता है सामाजिक परिपाटी के खाँचे को तोड़ फोड़ करता कहीं आसमान में निकल जाये. मैं इन सब चीज़ों को कौतूहल और संवेदना से देखती हूँ और उम्मीद करती हूँ कि जो लिख रही हूँ वो इन ऐसे अचरज अचँभे हमदर्दी को दर्शाता हो. उनके प्रति एक समझदारी बनाता चलता हो.   

मेरे पात्र अच्छे,गंभीर और संजीदा लोग हैं. जो मेरे प्रोटगोनिस्ट हैं वो सब उन्हीं संस्कारों से रचे बसे लोग हैं. शाहरुख या फिर जंगल का जादू तिल तिल मेरे हिसाब से नैतिक मूल्यों को दर्शाने वाली ही कहानियाँ ही हैं. दिलनवाज़ तो घोर आदर्शवादी है. आईने में,या दिलनवाज़ या फिर जँगल का जादू या फिर शाहरुख़ ..ये सब कहानियाँ एक किस्म के आदर्शवाद को खोजने और गुमने की कहानियाँ ही तो हैं .. 

हम जिस नज़र से अपने समय को देख रहे हैं,उसमें होते बदलाव को महसूस कर रहे हैं,उनको लिखना अपने समय के साथ साथ समय के परे होना भी है. हमारे भीतर जो अंतर्भूत भाव हैं वही लिखे में भी निश्चय दिखेगा.

कई बार मैं एक ऑबसर्वर होती हूँ अपनी लिखाईयों में और कई बार मैं किरदारों के भीतर होती हूँ. ये जो दोनों रोल के बीच की आवाजाही है वही तय करता है कि कितनी करुणा,कितनी परिपक्वता और कितनी गँभीरता से अपने आसपास की दुनिया के प्रति मेरी सचेतनता है और उसे मैं कैसे और कितना दर्ज कर रही हूँ.
(बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित अर्य संदेश के   विशेषांक (अतिथि संपादन- राकेश बिहारी) में भी यह साक्षात्कार आप पढ़ सकते हैं. आभार के साथ.
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सौरभ शेखर
युवा समीक्षक और कवि
saurabhshekhar7@gmail.com

सहजि सहजि गुन रमैं : अच्युतानंद मिश्र

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महाभारत मात्र एक ऐतिहासिक महाकाव्य नहीं है. उसमे वर्तमान भी है. हम सबका वर्तमान. वर्तमान के गर्भ से भविष्य निकलता है और इस अर्थ में हम सबके इस महाभारत में यानि हमारे वर्तमान में,एक भविष्य मौजूद है.एक गतिशील परिदृश्य. न्याय और अन्याय की बदलती बनती परिभाषा. सच और झूठ के ताने बाने में झूलते जान गंवाते, जान लेते हम सब. यह हम सबकी नियति नहीं है. महाभारत यह बोध भी जगाता है और नियति के विरुद्ध होना, अपने समय में यानि वर्तमान में बने रहने की भी कोशिश है. इसलिए अर्जुन और दुर्योधन, भीष्म और कृष्ण का सन्दर्भ मात्र रूढ़ अर्थों में मौजूद नहीं है, वह रूढ़ होने की प्रक्रिया के विरुद्ध एक महाकाव्यात्मक प्रयत्न है. वह देश काल का हिस्सा होते हुए भी उससे परे है. परिस्थितियों के आलोक में मैंने अपने समय के महाभारत यानि अपने वर्तमान को देखने की कोशिश की है. लेकिन यह सवाल मेरे लिए अब भी उतना ही बड़ा सवाल है, क्या इस वर्तमान के भीतर से कोई भविष्य फूट रहा है? अगर हाँ तो क्या यह नियति हमे स्वीकार है ? 
अच्युतानंदमिश्र



अच्युतानंद मिश्र की कवितायेँ          

1
धृतराष्ट्र की तरह तुम तो
अन्धें नहीं थे, अर्जुन
फिर क्यों देखते रहे सिर्फ
मछली की आंख में ?



2
अर्जुन न्याय के लिए लड़ता है
अठारह अक्षौहनी सेना खड़ी हैं
अन्याय की तरफ
सैनिक नहीं लड़ना चाहते थे युद्ध
उन्हें याद दिलाया गया
कर्तव्य सैनिक का
कहा गया कर्तव्य से विमुख होना
अन्याय है

अर्जुन पूछता है कृष्ण से
क्या हर बार जीत न्याय की होती है
हारता है अन्याय ?
नहीं ! कृष्ण ठीक करते हुए कहते हैं-
जो जीतता है
वहीँ न्याय है
हारना अन्याय
अठारह अक्षहौनी सेना खड़ी है
अन्याय की तरफ 
अर्जुन जीत के लिए
नहीं न्याय के लिए लड़ता है.



3
गुरुकुल में
युधिष्ठिर चुप रहने का
अभ्यास करता है
भीम शब्दों की गांठ
पर मुक्का चलाता है
अर्जुन मुस्कुराता है
नकुल ,सहदेव
गिलहरी के पीछे भागते हैं
कौरव हारने का अभिनय करते हैं.



4
कौरव हार गए
क्योंकि अर्जुन को जीतना था
युधिष्ठिर चुप रहे
क्योंकि अर्जुन को जीतना था
भीम ने घटोत्कच को मरने दिया
क्योंकि अर्जुन को जीतना था
भीष्म बाणों की शैय्या से
सब कुछ देखते रहे
क्योंकि अर्जुन को जीतना था
और अर्जुन ?
वह मछली की आंख में देखता रहा
क्योंकि अर्जुन को जीतना था.




5
युद्ध से पहले युद्ध हुआ
युद्ध के बाद भी युद्ध हुआ
लेकिन युद्ध में युद्ध नहीं हुआ
युद्ध में अर्जुन था
युद्ध में कृष्ण थे
कृष्ण अर्जुन को युद्ध के विषय में
बताते रहे

युद्ध में युद्ध नहीं होना था
युद्ध में कृष्ण को होना था
युद्ध में अर्जुन को होना था
युद्ध से पहले युद्ध हुआ
युद्ध के बाद भी युद्ध हुआ
लेकिन युद्ध में युद्ध नहीं हुआ.




6
एक दिन सब मारे जायेंगे 
कृष्ण ने कहा
अर्जुन ने मृत्यु के लिए
तीर चलाया.




7
अर्जुन क्रिया है
कृष्ण विचार
बाकि संज्ञाएँ
नष्ट होनी थी
नष्ट हुयीं.




8
कर्ण की हार तय है
अर्जुन की जीत निश्चित
कर्ण भी जीत सकता था
लेकिन जीत अर्जुन की ही होनी थी

कर्ण के पास मृत्यु के अतिरिक्त
कोई विकल्प नहीं था
विकल्प अर्जुन के पास भी कहाँ था
जीत के सिवा.




9
युद्ध में दो ही बचे
अर्जुन और कृष्ण
युद्ध में दो ही मरे
अर्जुन और कृष्ण
युद्ध दो के बीच ही हुआ
अर्जुन और कृष्ण.




10
युद्धभूमि में 

अर्जुन के ठीक सामने 
खड़े हैं द्रोणाचार्य 

द्रोणाचार्य ने अर्जुन को 
धनुर्धर बनाया है 
क्या द्रोणाचार्य बच सकते थे 
अर्जुन के तीर से !

अर्जुन के तीर से 
कौन बचा है? 
भीष्म मुस्कुराते हैं 
द्रोणाचार्य मारे जाते हैं






11
द्रौपदी चीख रही है
अपनी जांघों पर
उसे बिठाना चाहता है दुर्योधन
दुर्योधन अट्टहास करता है
सभी मूक बैठे हैं सभा में

आगे का किस्सा कोई नहीं जनता
आगे का किस्सा सब जानते हैं
कृष्ण के अतिरिक्त.
  



12
गांधारी की आँखों पर पट्टी थी 
इसलिए वह नहीं देख सकी
दुर्योधन को
पट्टी तो कुंती की आँखों पर भी थी
वह भी कहाँ देख सकी
कर्ण को.




13
अगर द्रौपदी ने
दुर्योधन को अंधे का पुत्र
न कहा होता
अगर कुंती ने कर्ण का
परित्याग न किया होता
अगर गांधारी की आंख पर
सचमुच पट्टी नहीं बंधी होती
अगर भीष्म ने प्रतिज्ञा न ली होती
तो
तो भी महाभारत होता
यही कहा है कृष्ण ने 
गीता में
______________

अच्युतानंद मिश्र
27फरवरी 1981 (बोकारो)
महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में कवितायेँ एवं आलोचनात्मक गद्य प्रकाशित.
आंख में तिनका (कविता संग्रह, २०१३)
नक्सलबाड़ी आंदोलन और हिंदी कविता (आलोचना)
देवता का बाण  (चिनुआ अचेबे, ARROW OF GOD) हार्पर कॉलिंस से प्रकाशित./ प्रेमचंद :समाज संस्कृति और राजनीति (संपादन)
मोबाइल-9213166256/mail : anmishra27@gmail.com

सबद भेद : कैलाश वाजपेयी : ओम निश्चल

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'जो आदमी-आदमी के बीच खाईं हों
ऐसे सब ग्रंथ अश्लील कहे जाएं'


गत एक  अप्रैल को हिंदी के जाने माने कवि चिंतक कैलाश वाजपेयीनहीं रहे. साठोत्‍तर हिंदी कविता में जिस मोहभंग और विक्षुब्‍धता का बोलबाला रहा हैऔर जिसकी आवाज में इस युगीन विक्षोभ की सचेत छायाएं मिलती हैं, कैलाश वाजपेयी उनमें अन्‍यतम हैं.कई काव्‍यकृतियों व चिंतनपरक गद्यकृतियों के लेखकऔर विश्‍व के तमाम देशों में घूमे फिरे कैलाश वाजपेयी की कविता में जिस सनातनमानवीय बोध की उपस्‍थिति दीखती है, वह हिंदी कविता में एक विरल स्‍वर है. उनके अवदान को याद कर रहे हैं हिंदी के सुधी समालोचक डॉ. ओम निश्‍चल .

 आवाज़ों के कोरस में एक विरल स्‍वर: कैलाश वाजपेयी    
ओम निश्‍चल

(प्रथम)
हिंदी की मौजूदा लेखक बिरादरी से पिछले दिनों जो एक शख्‍स और छिटक कर अलग हो गया वे कैलाश वाजपेयी हैं. उनके जाने के बाद उनके संग्रह ‘हवा में हस्‍ताक्षर’ की कविता 'डी 203' अनायास याद हो आई. उन्‍होंने लिखा है : 'जहां मैं रहता हूँ/उस घर का एक नंबर है/नाम लिख कर नहीं टॉंगा/ क्‍या पता कल सुबह/चार लोग आएं/ और उठा कर मुझे फूँक आएं/ घर तो तै है/ न उन्‍हें रोकेगा आने से/ न मुझे जाने से.' आज साकेत का उनका आवास-डी-203 कवि के बिना सूना है जिसकी पहचान केवल कैलाश वाजपेयी से नहीं, बल्‍कि  कवि-चिंतक कैलाश वाजपेयी से थी. एक ऐसा इंसान वहां रहता था जो अपनी पूरी मस्‍ती में कवि था. पर फेसबुक पर दर्ज वरिष्‍ठ पत्रकार लेखक ओम थानवी की इस टीप को पढ़ कर दुख हुआ कि ’उनकी स्मृति में आयोजित सभा में हिंदी के सिर्फ दो साहित्यकार थे - अशोक वाजपेयी और मृदुला गर्ग. मित्रों की ओर से बोलने वाले राजनारायण बिसारिया. बाकी सब दिवंगत कवि के घर-परिवार के लोग थेमित्र-बांधवपत्नी रूपा वाजपेयी और बेटी अनन्या के परिचित. बात चली तो पता चला कि कैलाशजी के अंतिम संस्कार में भी साहित्यकारों की उपस्थिति बड़ी दयनीय थी. इतनी बड़ी दिल्ली और साहित्यकारों का इतना छोटा दिल?’’ क्‍या हो गया है हमारे समाज को? सारे धूप दीप नैवेद्य फेसबुक पर ही चढ़ा कर इतिश्री कर लेने का चलन बढ़ा है. याद आया चाणक्‍य का नीति श्‍लोक : राजद्वारे श्मशाने च यस्तिष्ठति स बान्धवः  और यहां इतने बड़े साहित्‍यिक परिवार कहे जाने वाले समाज से सिर्फ दो या तीन लोग ! यह इस निष्‍करुण और संवेदनहीन होते समाज की एक झॉंकी प्रस्‍तुत करता है.

छरहरी काया या वाले कैलाश वाजपेयी लगभग अंत तक लेखन और आवाजाहियों में सक्रिय रहे. कहा गया हैन सा सभा यत्र न सन्‍ति वृद्धा:. अब सभाएं ऐसे बुजुर्ग लेखकों के सान्‍निध्‍य से वंचित होती जा रही हैं. दिनोंदिन विदा होती इस पीढ़ी को लेकर लिखे रामदरश मिश्र के एक गीत की याद हो आई है: एक-एक जा रहे सभी/ मन बड़ा अकेला लगता है. उनसे एक लंबे अरसे से मुलाकात नहीं हुई थी. यद्यपि उनसे एक लंबी बातचीत बरसों से स्‍थगित चल रही थी. वे हर बार आश्‍वस्‍त करते थे पर वे प्रश्‍न अधूरे ही रहे. पर छिटपुट मुलाकातों के अलावा ऐसी लंबी मुलाकात संभव न हुई जब वह बातचीत पूरी होने का मुहर्त संपन्‍न होता. मैं सोचतालोग तो प्रश्‍न और उत्‍तर स्‍वयं लिखने की उतावली में रहते हैंछपवा देने की गारंटी के साथ और कैलाश जी हैं कि चाहते हुए भी कि यह बातचीत होइसके लिए समय नहीं जुटा पा रहे हैं. यह थी उनकी निष्‍पृहता. आत्‍ममुग्‍धता के इस जमाने में ऐसे लेखक विरल होंगे जो अपने प्रचार को लेकर इतने अपरिग्रही हों. उनका जाना हिंदी की एक विरल काव्‍यधारा का अवसान है. उस तेवर का अवसान है जो प्रतिरोध और प्रतिश्रुति के सहमेल से बनी थी.


(द्वितीय)
कैलाश वाजपेयी का अध्‍ययन जितना विपुल था उनकी लाइब्रेरी भी उतनी ही संपन्‍न थी, जिसमें दस जरथ्रुष्‍ट स्‍पोक से लेकर अनेक बुनियादी ग्रंथ, अंग्रेजी व अन्‍य विदेशी भाषाओं के अनेक लेखकों,कवियों की कृतियां देखी जा सकती थीं. उनका ड्राइंगरूम अपने स्‍थापत्‍य में किसी प्राच्‍य कलाकोविद का बैठका लगता था. चित्र-विचित्र चीजें वहां देखी जा सकती थीं. उनका पहनावा भी किसी सूफी जैसा था. उनकी आंखें सदैव कुछ टटोलती हुई लगतीं. उन्‍होंने बताया थाकविता और साहित्‍यिक चिंतन के शुरुआती दौर में ही कभी ओशो अपनी किताब की भूमिका लिखवाने के लिए उनके पास आए थे. उनकी आवाज़ इतनी मोहक और गंभीर थी कि वे किसी पटकथा का आलेख बांच रहे हों या लाल किले की प्राचीर से बोल रहे हों तो लगता थायह किसी निर्बंधनिस्‍संगनिर्मल सूफी कवि-मन के कंठ से निकले शब्‍दामृत हैं. उनके कंठ में वैसी ही कशिश थीजैसी उनके युवा दिनों में थी. मेरे इसरार पर उन्‍होंने अपना एक बहुत प्रिय गीत गाकर सुनाया था:

जग सुने न इतना धीरे गा
चुपचाप सुलगबाहर मत आ
कब किसका दर्द बंटाया है कोलाहल ने
ये कहा पपीहे से सन्‍यासी बादल ने.
यों नया नया कांटा भी कोमल होता है
पर विगत चुभन की सुधि से ही जग रोता है
जब भला बुरा सब आंका जाता है इति से
तू ही फिर क्‍यों अनभीगे स्‍वप्‍न सँजोता है
ऑंधी आती है आने दे
मन बुझता है बुझ जाने दे
कब ढला सूर्य लौटाया है अस्‍ताचल ने
ये कहा किसी मरणोन्‍मुख से गंगाजल ने.

उत्‍तरवय में भी उनकी आवाज़ का जादू अप्रतिहत था. कहते हैं, उनके गीत का चंदोवा तनता था तो नीरज जैसे सिद्ध कवि की आवाज़ भी फीकी पड़ जाती थी. उनसे कई बार की मुलाकातें हैं. दिल्‍ली में रहा, पटना में, बनारस या कोलकाता मेंदो-तीन महीने के अंतराल पर उनका फोन अवश्‍य आ जाता था. अकादेमी पुरस्‍कार के बाद उनसे एक लंबी बातचीत की योजना भी बनी जिसे मैं चाहता था कि वह ‘’वसुधा’’ में छपे. पर कमला प्रसाद जी इसके लिए राजी नहीं हुए. फिर भी मैने सौ सवाल उनके पास इस प्रत्‍याशा में कई बरसों से छोड़ रखे थे कि कभी उनसे बातचीत की यह सुदीर्घ आयोजना पूरी होगी तो यह साक्षात्‍कार आम इंटरव्‍यूज़ की रस्‍म अदायगी से कितना अलग होगा. पर ये सवाल धरे ही रह गए. हालांकि औचक मुलाकात होने या बातचीत के दौरान वे बार बार आश्‍वस्‍त करते कि ओम जीआपके सवाल मैंने सहेज कर रखे हैंधीरे-धीरे इनके उत्‍तर लिखूंगा. पर बीच बीच में वे किन्‍हीं और रचनात्‍मक कामों में उलझ जाते और वे सवाल अंतत: अनुत्‍तरित ही रह गए .

कविता के प्रति कैलाश वाजपेयी की आसक्‍ति प्रारंभ से ही थी. पर यह जानकर दुख होता था कि हिंदी की दुनिया उन्‍हें कवि मानने से कतराती है. हिंदी आलोचना की संकीर्णता एक तरफ, समकालीन कवियों में भी उन्‍हें  लेकर एक संकोच बना रहा. जबकि उनके सामने अनेक फीके कवियों की दूकानें सदैव सजी-धजी रहीं. ऐसी निस्‍पृहता मैंने और किसी कवि में नहीं देखी कि जिसे लेकर बातचीत की ऐसी विरल योजना बनाई हो, पर उसे छपा हुआ देखने की कोई ललक उसमें न हो. हां जब उन्‍होंने  हवा में हस्‍ताक्षर पर मेरी समीक्षा पढ कर फोन किया तो उनसे उनकी कविता पर एक लंबी बातचीत ही हो गयी. उन्‍हें सुनकर अचरज हुआ कि संक्राततीसरा अंधेरा, देहांत से हटकर, महास्‍वप्‍न का मध्‍यांतरभविष्‍य घट रहा हैपृथ्‍वी का कृष्‍णपक्ष व सूफीनामा से कुछ विरल उदाहरण देने वाला यह शख्‍स आम समीक्षकों से हट कर है. बाद के दिनों में उनसे समय समय पर मुलाकातें होती रहीं. उनकी कई कृतियों डूबा-सा अनडूबा तारा, है कुछ दीखै और आदि पर लिखने का अवसर मिला.  मिलने पर वे अपनी नई आई किताबें जरूर देते. उन्‍हें साहित्‍य अकादेमी पुरस्‍कार अनेक समकालीन कवियों की तुलना में देर से मिला पर इसका उन्‍हें कभी मलाल नहीं रहा. उनकी साहित्‍य साधना के सम्‍मुख कोई भी संस्‍थागत सम्‍मान छोटा प्रतीत होता था. पर विडंबना यह कि जिसके वैदुष्‍य का लोहा विश्‍व भर के प्राच्‍यविद्याविद मानते रहे हों, जिसके काव्‍य में युगीन विक्षोभ और मानववादी चिंतन की छवियां विद्यमान हों, उसे हिंदी की संकीर्ण दुनिया की कितनी उपेक्षा सहनी पड़ी. लिहाजा, उन पर आज एक भी ढंग का आलेख, एक भी ढंग की पुस्‍तक नहीं है जिसे देख कर कहा जा सके कि उन्‍हें, उनके कवि व्‍यक्‍तित्‍व और उनकी कृतिकारिता को पहचानने की कोई संजीदा कोशिश की गयी है.

पर विडंबनाओं के इस दौर में ऐसा है तो आश्‍चर्य क्‍या ?  जिस तरह कबीर की कविता को पहचानने में हमें कोई पॉंच सौ वर्ष लगे , कुछ वैसी ही त्रासदी कैलाश वाजपेयी की कविता के  साथ हुई, जिसे पहचानने में लगभग पचास वर्ष लग गए.  उनके कविता संग्रह हवा में हस्ताक्षर को साहित्य अकादेमी ने पुरस्कॄत कर न केवल देर आयद दुरुस्त आयद की पुष्टि की बल्कि अपनी कविता के बलबूते दुनिया के कुछ इने-गिने कवियों के समकक्ष रखे जा सकने योग्य वाजपेयी के कॄतित्व को चर्चा में लाकर हिंदी आलोचना को भी आत्मालोचन के लिए विवश किया . साठोत्तर कविता-परिदृश्य में उभरे कैलाश वाजपेयी स्वातंत्र्योत्तर मोहभंग के दौर के उन कवियों में हैं जिन्होंने अपनी कविताओं में नेहरूवियन माडल की पुरजोर ढंग से आलोचना की है. उनके पहले ही संग्रह संक्रांत में आजादी के बाद की विक्षुब्धकारी परिस्थितियों की एक काव्‍यात्मक पड़ताल मिलती है. इसकी पहली ही कविता परास्त बुद्धिजीवी का वक़्तव्‍य उस दौर की एक तीखी याद दिलाती है जब कवि को कहना पड़ा: 'न हमारी आँखें हैं आत्मरत/ न हमारे होठों पर शोकगीत/ जितना कुछ ऊब सके ऊब लिये/हमें अब किसी भी व्‍यवस्‍था में डाल दो (जी जाएंगे)'. यही वह दौर था जब राजधानी कविता लिखकर उन्हें सत्ता का कोपभाजन भी बनना पड़ा : मेरा आकाश छोटा हो गया है/ मुझे नींद नहीं आती,  जैसी कविता इन्‍हीं परिस्थितियों की उपज है. कहना न होगा कि पृथ्वी के व्‍यथा-बोध से जन्मे इस संशय --- रोगी की भूख-सा क़्या वह सब जो दिखता है, झूठा है या मेरे ही भीतर फिर कहीं कुछ टूटा है‘----के पीछे केवल खुद से किया गया सवाल भर नहीं थाअनेक वैचारिक क्रांतियोंफासीवादी गतिविधियों से गुजरते विश्व की दरकती हुई आंतरिकता की सीवनें उधेड़ने की एक कोशिश थी. निषेध और प्रतिरोध का यही तेवर देहांत से हटकर और तीसरा अँधेरा तक विद्यमान है. टूटे अक्षरों का विलाप लिखते हुए कैलाश वाजपेयी ने जैसे निज के संताप को भी कविता के अयस्क में ढाल दिया है--यह अधनंगी शाम और यह भटका हुआ अकेलापन/ मैने फिर घबरा कर अपना शीशा तोड़ दिया. महास्वप्न का मध्यांतर आपातकाल की निःशब्द पीड़ा का आख्यान है तो सूफीनामा उनके सूफियाना तेवर की एक मार्मिक बानगी. जबकि पृथ्वी का कृष्ण पक्ष में समय के स्याह संवेदन को कृष्ण के श्लेष में उपनिबद्ध किया गया है. महास्वप्न का मध्यांतर पर दिनमान में रघुवीर सहाय ने लिखा था--संक्रांत से लेकर अब तक के वर्षों में कवि ने अपने को जिस कसौटी पर कसा हैवह तत्वज्ञान की कामना करने वाले अनेक भारतीय कवियों की अपेक्षा कहीं अधिक प्रकृत और निर्मल है. जबकि कवि श्रीराम वर्मा का मानना था कि उनकी कविताएं खौलते पानी में ताजे कमल-जैसी हैं.

हमीरपुर, उ.प्र. में 11 नवंबर1936 में जन्मे एवं पृथ्वीखेड़ाउन्नाव के निवासी कैलाश वाजपेयी की शुरुआती शिक्षा स्थानीय संस्कॄत पाठशाला में हुई. उनका गाँव गढ़ाकोला से महज 3 किमी पर है. महावीरप्रसाद द्विवेदीनिरालारामविलास शर्मा और शिवमंगल सिंह सुमन जैसी विभूतियाँ इसी इलाके में जन्‍मीं. लखनऊ विश्वविद्यालय से एमए,पीएच-डी कर वाजपेयी ने टाइम्स ऑफ इंडियामुम्बई से नौकरी शुरु की. बाद में शिवाजी व हास्तिनापुर कालेजदिल्ली में अध्यापन करते हुए वे रीडर पद से सेवानिवॄत्त हुए. कविता और संगीत का शौक कैलाश को बचपन से ही था जो ननिहाल के सान्निध्य में उत्तरोत्तर परवान चढ़ा. मैत्री पर हुए आघात पर लिखी पहली कविता बड़े मामा ने दैनिक प्रताप में छपवाई. शुरुआत में कैलाश ने सुललित गीतों की राह चुनी किन्तु डॉ. प्रेमशंकर जैसे मित्रों की सलाह पर वे मुक़्त छंद की दुनिया में रम गए. उनकी स्मॄति-दीर्घा में आचार्य नरेन्द्रदेवडॉ.राधाकमल मुकर्जी,डॉ.लोहिया व डॉ.देवराज जैसे मनीषियों और सज्जाद ज़हीरयशपालइलाचंद्र जोशीभगवतीचरण वर्मारघुवीर सहायअमॄतलाल नागर,धर्मवीर भारती और मज़ाज जैसे रचनाकारों की यादें जीवंत थीं. मुम्बई उन्हें अभिनेताओं के कारण रास नहीं आई तो दिल्ली आकर उन्हें अभिनेताओं से भी गए-गुज़रे नेता मिले . पर जीविका के चलते दिली इच्छा न होते हुए भी दिल्ली में बसना पड़ा.
संक्रांतदेहांत से हट करतीसरा अँधेरामहास्वप्न का मध्यांतरसूफीनामापृथ्वी का कृष्ण पक्षभविष्य घट रहा है  हवा में हस्ताक्षर जैसी काव्‍यकॄतियों के रचयिता और आधुनिकता का उत्तरोत्तरशब्द संसारहै कुछ दीखै और  अनहद जैसी चिंतनपरक कॄतियों व युवा सन्यासी (नाटक) के लेखक कैलाश वाजपेयी का कविता लिखने और सोचने-विचारने का साँचा समकालीनों से अलग है.  कविता और चिंतन के एक सतत और स्वनिर्मित वातावरण में रहने वाले कैलाश वाजपेयी की कविताओं पर आस्तित्ववाद का एक झीना-सा असर अवश्य दिखता है. निर्वासनऊबअजनबियत और निषेध की जानी पहचानी शब्दावली से ऐसा आभास होता है किन्तु विचारधाराओं से उनकी अनासक़्ति बराबर बनी रही है. वे कहते हैं,मैं अपने को सार्वभौमिकता से जुड़ा हुआ कवि मानता हूँ जो निरंतर अपने अहं का आत्मशोधन करने में रत है. उनका मानना है विचारधाराओं ने कलाओं को बहुत क्षति पहुँचायी है. पुरस्कार -प्रसंग में वे कहते हैंएक रचना का सहीअभीप्सित रूपाकार में ढल कर कागज पर उतर आना ही रचयिता के लिए स्वयं एक उपहार से कम नहीं होता. उसकी सफल,सटीक अभिव्‍यक्‍ति से कवि को जो सुख मिलता हैवह निर्वचन से परे है. कैलाश वाजपेयी की कविताओं में एक ऐसी मानवीय सभ्यता की झलक मिलती है जो बुरी तरह से क्षत-विक्षत है. देश की राजनीतिक मूल्यहीनता के अलावा दुनिया के पूँजीपरस्त देशों में वैभव के अतिरेक से जन्मी सड़ाँध और खोखली होती जीवनचर्या की आँखिन देखी की जिस अनुभूति से वे गुजरे हैंउनकी कविता इसी आत्‍मपीड़ित मनुष्यता का शोकगीत है. जिस आत्‍मपीड़ा के साथ वे यह कहते हैं कि एक सिल की तरह गिरी है स्वतंत्रता और पिचक गया है पूरा देशउससे कवि के टूटे अक्षरों के विलाप की वजह समझ में आती है.

शब्द संसार की यायावरी में रमे वाजपेयी ने अपने जीवन काल में तमाम देशों की यात्राऍं कीं तथा सांस्कॄतिक विनिमय के तहत अनेक देशों में काव्‍यपाठ किये और व्‍याख्यान दिये. अनेक देशों में वे विजिटिंग प्रोफेसर रहे. प्रसारण के लिए सर्वाधिक प्रभावी आवाज़ के स्वामी वाजपेयी ने अनेक कवियों, चिंतकों--कबीर,हरिदास,सूरदासजे कॄष्णमूर्तिरामकॄष्ण परमहंस और बुद्ध के जीवन दर्शन पर दूरदर्शन के लिए वॄत्तचित्र भी बनाए हैं. स्‍पहानी और अंग्रेजी में कविता संग्रहों के अलावा रुसी,जर्मनडेनिशस्वीडिश और ग्रीक आदि कई भाषाओं में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं. हिंदी अकादमीएस.एस.मिलेनियम एवार्ड व व्‍यास सम्मान सहित साहित्य अकादेमी पुरस्कार से सम्मानित किया जाना उनका नहीं,बल्कि समूची जाग्रत हिंदी मनीषा का सम्मान है.

कैलाश वाजपेयी की चिंता ध्वस्त होती जा रही पारिस्थितिकी और पर्यावरण असंतुलन को लेकर रही है. वध हो रहे वॄक्षों,बाँझ हो रही पृथ्वी और क्षीण हो रही नदियों को लेकर थी. वे अकारण नहीं कहते थे कि भविष्य घट रहा है . कपिल के सांख्य का आखिरी भोजपत्र फँसा फड़फड़ा रहा---अंत हो रहा या शायद पुनर्जन्म पस्त पड़ी क्रांति का. उनकी कविता भारतीय और पाश्चात्य विचार-सरणियोंआर्ष ग्रंथोंमिथकों और आख्यायिकाओं के विपुल अध्ययन-चिंतन का परिणाम है. उनकी प्रज्ञा बहुवस्तुस्‍पर्शिनी है. शब्द संसार और अनहद का विमर्शमय संसार यह बताता है कि वाजपेयी की दिलचस्‍पी साहित्य के अलावा कितने ही साहित्येतर अनुशासनों में है. पूँजीवादी सभ्यता के विकारोंवैश्विक हलचलोंबाजारवादी आक्रामकताओंबर्बरताओं,नस्लवादी स्वार्थपरताओंनैतिक स्खलनोंअतिरेकों और परिवर्तनों की महीन से महीन कसमसाहट को उनकी कविता में सुना जा सकता है. उनकी कविता में भूखे की भाषा भी है और तृप्तात्म की देशना भी . यही कारण है कि समकाल की रट लगाती आलोचना कैलाश वाजपेयी की कविता में समाए काल-दिक़्काल की गहराइयों में उतरने का धीरज नहीं दिखाती. जो लोग अभी भी उनकी कविताओं को नियतिवादी और अध्यात्मवादी लटके-झटकों का इतिवॄत्त-भर मानते हैंवे भुलावे में हैं. दरअसल उनकी कविता ध्वंस का जयगान नहीं हैसर्जना का अग्निपथ है. उसके स्फटिक प्रवाह में सामाजिक सरोकार तैरते नहीं दीखते. उसमें तत्वचिंतन की महक है. पृथ्वी के अस्तित्व को बचाने की प्रार्थना है. उनकी कविता आध्यात्मिकआधिभौतिक और आधिदैविक दुखों से निमज्जित हैजिसे सांख्यकारिका ---दुखत्रयाभिधाताज्जिज्ञासाः के आलोक में पढ़ा जा सकता है.


(तृतीय)
कैलाश वाजपेयी पुस्तकों के सतत सान्निध्य में समय बिताने वाले कवि थे. अपने अध्ययन कक्ष में राजनीतिइतिहासधर्मशास्त्रमहाभारतपुराणदर्शनमिथक और नव्‍य कलाओं सहित नाना प्रकार के विषयों में खोये रहने वाले वाजपेयी के चिंतन में बहुआयामिता थी. उत्तर जीवन में उनकी दो कृतियां आईं--डूबा-सा अनडूबा तारा--प्रबंध काव्‍य और है कुछ दीखै और--गद्यकॄति. डूबा सा अनडूबा तारा  भ्रूणहत्या के उत्स की खोज में महाभारत की पृष्ठभूमि से उठाए गए कथ्य पर आधारित हैजिसके केंद्र में अश्वत्थामा हैं पर न तो वह इस काव्‍य का नायक हैन खलनायकवह मात्र द्रष्टा है. वे इस बात के हामी हैं कि स्मृति में वही कविता जीवित रहेगी जिसमें किसी न किसी रूप में लयात्मकता होगी. यही कारण है कि प्रबंधकाव्‍य डूबा-सा अनडूबा तारा में वे फिर लयात्मकता की ओर लौटे . यही नहीं,उनके आगामी लक्ष्यों में छंद के पुरोधा कवियों और गीतकारों पर एक बड़ी परियोजना शामिल थी . विश्व के अनेक महान लेखकों-चिंतकों से हुई मुलाकातों को भी वे तरतीब देने में जुटे थे. अपने उत्तर जीवन को किसी ऊब और आलस्य के हवाले न कर वे सचमुच कुछ ऐसी कृतियाँ सौंप जाना चाहते थे जो साहित्य की सँकरी पारिभाषिकी में नहीं अँटतीं. यह पूछने पर कि फिर से चुनने को मिले तो क़्या कवि-जीवन का ही वरण करेंगेवे दृढ़ता से हाँ करते हुए कहते थे कि 'इससे अधिक स्वतंत्रचेता जीवन कोई दूसरा नहीं हो सकता. इसलिए राजनीति तो बहुत दूर की चीज है,किसी भी दल के दलदल में फँसने का मन नहीं होता.' अगर आपको सचमुच दुनिया को निस्संग भाव से देख कर उस पर टिप्प्णी करनी है तो आप पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होना चाहिएचाहे वे आार्थिक हों या पद-सत्ता प्रदान करने वाले प्रलोभन हों. उनकी चिंताओं में पृथ्वी को बचाने की आकुलता सर्वाधिक थीक़्योंकि मनुष्य की स्वार्थपरता और मुनाफाखोरी ने पंचमहाभूतों को विकृत कर डाला है. वे कहते थेजो जितना कोमल,विकसित और प्रकॄति प्रदत्त है,उसे मनुष्य नष्ट करता जा रहा है. सत्रह सौ प्रजातियों की चिड़ियों में आज कितनी कम बची हैंवे पूछते थे. इस तरह नष्ट होते मूल्योंप्राणि प्रजातियों से लेकर मनुष्य के क्षीण होते मेटाबालिज्म तक की उन्हें चिंता रही. उनके लिए उस समृद्धि का भी कोई अर्थ नहीं,जिसकी चकाचौंध में जीवन नदारद हो. बकौल वाजपेयीहर कोई मरता नहीं दुख की पीड़ा से/ सतत सुख-शांति भी मार देती है लोगों को.

एक सतत चौकन्नी और सयानी अंतर्दृष्टि के चितेरे कैलाश वाजपेयी ने दुख की छत्रछाया में पलते अप्रतिहत जीवन को उकेरा है तो लगभग अज्ञेय की ही तरह ऊबे हुए सुखियों के विषण्ण संसार की भी धज्जियाँ उड़ाई हैं. एक निर्बंधनिस्संगनिर्मल और सूफी मन वाले कैलाश वाजपेयी दुनिया के तमाम देशों में अपनी आवाजाही के बावजूद आखिरकार यही कहते हैं कि अपनी जड़ों की पड़ताल के बिना क्रांति कहाँ  ?  विश्व के ज्ञान-विज्ञान से संपृक़्त उनका कवि-मन बार-बार श्रीमद्भागवतमहाभारतरामायण के पुरा प्रसंगोंमिथकों और भारतीय दर्शन की ओर लौटते हुए यही जताता है कि अंततः वह इसी महादेश की धूल-मिट्टी और जलवायु का कवि है.

कैलाश वाजपेयी सभ्यता के ध्वंस,मानवीयता के लोपबंजर होते संवेदन और संताप से झुलसते आँसुओं पर विलाप करने वाले कविता के एक ऐसे वरिष्ठ नागरिक हैंजिन्हें भले ही हिंदी के आलोचक कवि के रूप में खास तरजीह नहीं देते---प्रशस्तिपत्रों से लदे-फँदे आलोचकों की सूचियों में उनका नाम प्रायः नहीं मिलतापर उनकी आवाज़ इतनी वेधकप्रखर और सत्वग्राही है कि वह अपने अनहद से निष्करुण होती पृथ्वी तक को कँपा दे. कविता का यह तात्विक-सात्विक स्वर कैलाश वाजपेयी के फहले संग्रह -संक्रांत से लेकर हवा में हस्ताक्षर तक में समाया हुआ है.

महास्वप्न का मध्यांतर  में कवि की विक्षुब्धता का जो स्वरूप हम देखते हैंवह सूफीनामा और भविष्य घट रहा है तक आकर मनुष्य के नैतिक स्खलनों पर धारदार चोट करने वाला सिद्ध हुआ . खत्म होती हुई सदी के साथ जीवन से खत्म होती जीवंततामनुष्य से विलग होती मनुष्यता और निरवधि काल से घटते भविष्य की ओर कवि का इशारा यह जताने के लिए पर्याप्त है कि तकनीकी तौर पर समुन्नत होती हुई दुनिया और सूचना विस्फोट के वैभव से भरे इस दौर में मनुष्य-सॄजित तकनीक ही आज उसके वेदन तंत्र को निष्करुण और अमानवीय बना देने पर आमादा है. दूसरे शब्दों में, यांत्रिकता और मनुष्यतापूँजी और नैतिकता आज आमने-सामने हैं. भूमंडलीकरण और बाजारवाद के पसरते प्रभुत्व ने सदियों की हमारी सांस्कॄतिक विरासत की चूलें हिला दी हैं. हमारी संवेदना को जड़ बनाते पूँजी के प्रेतों ने हमारे इर्द-गिर्द प्रलोभनों का जाल बिझा दिया हैजिसके परिणाम निश्चय ही शुभंकर नहीं हैं. हवा में हस्ताक्षर कवि के कारुण्यविक्षोभ और उसकी कबीरी फटकार की साखी बन गया है.

एक समय थाउन पर अस्तित्ववाद का प्रभाव जबर्दस्त था. मृत्युअवसादऊबअकेलापन इस विचारणा के ही नहींकैलाश वाजपेयी की कविता के निजी लक्षण भी थे. वे नीत्से की तरह क्षुब्ध होकर कहते थे--हम सब अपनी मृत्यु से बहुत पहले ही मर गए हैं. दशकों तक दुनिया के अनेक देशों में घूमे-फिरे कैलाश की चेतना ने वैभव के अतिरेक से जन्मी अति आधुनिकता के प्रतिफल को प्रत्यक्ष महसूस किया था और भीतरी दिक् के अलावा एक और भूख उन्हें पुकारती-सी लगती थीसामाजिकता से जिसका तालमेल बिठा पाना उन्हें कठिन लगता रहा है. एक समय तक धूमिलश्रीकांत वर्माचंद्रकांत देवतालेलीलाधर जगूड़ीजगदीश चतुर्वेदी और कैलाश वाजपेयी लगभग एक तरह के कथ्य और शिल्प के वशीभूत रहे हैं--परन्तु अन्य कवियों पर जहाँ यह मुलम्मा ऊपर से नज़र आता थाकैलाश के यहाँ यह स्वतः अंतर्भुक्त थाक़्योंकि उन्होंने जीवन की धज्जियाँ उड़ते देखींनिज के अनुभव को महसूसा और जिया था. यही वजह है कि अस्तित्ववाद के अनुगायक लगते हुए भी उनकी कविता का प्रतिफल मानवीय और ऊध्वमुखी रहा है.

हवा में हस्ताक्षर की कविताएँ बताती हैं कि सच्चा कवि स्वयं विषपायी होकर भी दुनिया को जीने योग्य बनाने के लिए प्रतिश्रुत रहता है. नवक्रांति में उनका कथन कि तुम अगर परिवर्तन के पक्षधर हो/ मिट्टी से शुरु करनाजो बाँझ हो रही है/ वॄक्षों से शुरू करना जिनका वध हो रहा बेरहमी से-- और गेहूँ में गेहूँ की अभिलाषा कि वह जब पक जाए तो किसी शराबी-अघाए अय्याश की आँत में न जाएकिसी फटेहाल थके पेट की जलती भट्ठी में स्वाहा होता हुआ उसकी तॄप्ति बन सके---वही उसके सुनहरे विकास का मोक्ष होगा--कवि को प्रकॄति और सर्वहारा की चिंता से जोड़ता है. आर्यत्व के हमारे दंभ को चकनाचूर करता हुआ कवि जब यह निष्कर्ष सामने रखता है कि पिछले वर्षों में हमने पचीस लाख बहुएं जलाई हैं/ आप ही तय करें हम आर्य हैं या कसाई हैं ---तो कैलाश वाजपेयी पर चस्पा आध्यात्मिक रुझान और गैरिक-वसना चिंतना का आरोप स्वतः ही निर्मूल हो उठता है. वे दरअसल किसी आध्यात्मिकता के अनुगायक नहींसांसारिकता के कालुष्य पर प्रहार करने वाले कवि हैं. उनकी कविता दुख की पीड़ा से मरते व्‍यक्‍ति  की ही नहींसतत् सुख-शांति से भी मरते लोगों की खबर लेती है. आधुनिकता के घटाटोप से घिरे समाज में उन्हें होरी की कोई जगह नज़र नहीं आती जैसे केदारनाथ सिंह को कुदाल की. इस तरह उनकी कविता आधुनिकतावाद और उत्तर आधुनिकतावाद की व्‍याधि के विरोध में स्वर बुलंद करती है. वधिक संस्कॄति और उपभोकक़्तावादी प्रवॄत्ति के चलते आज हममें दुधारू पशुओं से अपना काम निकालने के बाद उन्हें कत्लगाह तक पहुँचा आने का कोई क्षोभ नहीं रहा ---गैया किसी हिंदू अंतःकरण से उपजी कविता नहीं हैवह हृदय में दबी हुई आह है जिसकाकवि के शब्दों मेंबाजार में कोई मूल्य नहीं. अकारण नहीं कि प्रगतिशील चेतना के कवि भगवत रावत तक ने गाय के हकाल दिए जाने की पीड़ा दर्ज की है तथा उन लोगों पर गहरा व्‍यंग्य किया है जो अपने को उनकी मिठास का पहला वारिस मानते हैं(ऐसी कैसी नींद). राजनीतिक तौर पर भी कैलाश वाजपेयी की कविताएं सचेत हैं--वे लेनिन के ध्वस्त समता महल या कि विलीन तिब्बत का निहितार्थ सत्ता के खेल में देखते हैं और धिक़्कार से गाए जा रहे राग परदेसिया में स्वदेशी गले की कफ भरी घरघराहट नोट करते हैं. बलि का बकरा बनते जनमत और दिनोदिन खत्म होते ज़मीर में उन्हें एक विलक्षण संगति नजर आती है. वे पृथ्वी की कोख में उठती मरोड़ और बाहर पसरे धब्बों के धुँधलके पर अवसन्न दिखते हैं.

हवा में हस्ताक्षर की  उद्भावनामुम्बई ब्लास्टविश्व पुस्तक मेलालाल डोराजीवन बीमातरुदेवो भवप्रत्यावर्तनप्रेमयुद्धमधुमेहन मिले की गाँठत्रिपदीद्रव्‍यद्रवित नींद में हादसा और सर्गविहीन आदि अनेक कविताऍं ऐसी हैंजिन्हें पढ़ कर कविता के वीतरागियों को भी कवि से अनुराग हो जाए .  कवि के शब्दों में-- क्षत-विक्षत होकर भी / सिद्धहस्त है सजने सँवरने में कृति/ निसर्गतः पुनर्जन्मवादी है/ बिगड़ी कहाँ तक बिगड़ेगी/ बार-बार डूब कर तिर आने की युक़्ति जानती है वसुंधरा. यह तो कुटिल सांसारिकता के प्रत्याघातों से बने कैलाश वाजपेयी की कवि-संवेदना है जो लौ में अपना आत्मकथ्य सहेजती हुई किसी ठंडे एकांत में जागती बचपन में लगी लौ से आखिरी लपट की लौ तक पहुँचने की चाह में निर्विकार दिखती है. कैलाश वाजपेयी की कविताओं का स्पेस बड़ा हैजीवन के विरुद्ध रचे जा रहे मानवीयराजनीतिक और वैश्विक षडयंत्रों के विरुद्ध ये एक श्वेतपत्र की तरह हैंजिनमें तार्किकता और जिरह का सहमेल है तो मनुष्यता के कद को पतन की गहरी खाईं में ढकेलती शाक़्तियों के प्रति सात्विक आक्रोश तथा जो कुछ लुप्त हो रहा हैउसे बचा लेने की नैतिक विकलता और दुखी सीने को थपथपाती सहृदयता भी. यद्यपि कहीं कहीं एक सजल किस्म की भावुकता भी इन कविताओं में साँस लेती है.


(चतुर्थ)
कैलाश वाजपेयी की कविता में समाये अध्‍यात्‍मवाद की चर्चा बहुत की जाती है. किन्‍तु उनकी कविताओं में मौजूद जीवन के यथार्थ और मनुष्‍य के संघर्ष की चर्चा नहीं होती. जबकि शिवाकाशी के पटाखा उद्योग में जुते बच्‍चों पर ज्ञानेंद्रपति कविताएं लिखते हैं तो कैलाश वाजपेयी की कविता फिरोजाबाद के चूड़ी बनाने के कारखाने में दहकती भट्ठियों के समीप टकटकी लगाए सैकड़ों बच्‍चों पर है जहां हजारों नन्‍हीं हथेलियां लपटों के सम्‍मुख हैं . उन भट्ठियों से निकलती कांच की चूड़ियां भले सुहागन की कलाइयों की शोभा बनती हैं पर केवल कवि को पता है कि ये किस तरह बच्‍चों के पसीने और श्रम का प्रतिफल हैं. यह जो कैलाश जी के यहां उदासी है , ऊब है, तीखापन है, म्रियमाण होती दुनिया की छाया है, उसके पीछे उनके अवलोकनों का सत्‍यापन है. वे भविष्‍य घट रहा है  की पहली ही कविता में कहते हैं:

कोलाहल इतना मलिन
दुख कुछ इतना संगीन हो चुका है
मन होता है
सारा विषपान कर
चुप चला जाऊँ
ध्रुव एकांत में
           सही नहीं जाती
पृथ्‍वी-भर मासूम बच्‍चों
मॉंओं की बेकल चीख.

भविष्‍य घट रहा है  इस दुनिया को देखने का एक विरल दृष्‍टिकोण है. चकाचौंध और नई जीवनशैली के विराट अंधकार को केवल कवि ही देख सकता है. वही लिख सकता है :

खत्‍म हुई चीजों की खरीद का विज्ञापन
युवा युवतियों को बुला रहा
कि गर्भ की गर्दिश से बचने के
कितने नये ढंग अपना चुकी है
मरती शताब्‍दी
शोर-शोर सब तरफ घनघोर
नेता सब व्‍यस्‍त कुरते की लंबाई बढ़ाने में
स्‍त्रियां
उभारने में वक्ष
किसी को फिक्र नहीं सौ करोड़ वाले
इस देश में
कितने करोड़ हैं जो अनाथ हैं
कुत्‍तों की फूलों में कोई रुचि नहीं 
न मछलियों का छुटकारा
अपनी दुर्गन्‍ध से
यों सारी उम्र रहीं पानी में.

वे खुसरो और गालिब के नाम खत लिखते हैं, तो रैदास, गोरखनाथ, रसखानि व अब्‍दुर्रहीम खानखाना, कार्ल मार्क्‍स से भी उसी आत्‍मीयता से बतियाते हैं. ऐसे में वे प्राच्‍य पुरुष और कवियों के सखा-सरीखे लगते हैं. उनकी कविता राजनीति की कारगुजारियों से लगभग असंतुष्‍ट रहने वाली कविता है, इसीलिए वे कहते हैं, ‘’कोई उलटता नहीं सरकारें/ राजनीति खुद आत्‍मघात करती है.‘’ महास्‍वप्‍न का मध्‍यांतर में एक कविता बांस पर है. तुलसी कह गए हैं, फूलहिं फरहिं न बेंत जदपि सुधा बरसहिं जलद. वाजपेयी बांस को संबोधित कर कहते हैं: ‘’तुममें सुगंध और रंग की एक बेजबान नदी बंद है/ तुम्‍हें अगर खिलना आ जाए/ दुर्दिन नस जाए उपवन का/ ........तुम विस्‍तृत साम हो बांस बेहूदे/.........कैद है तुममे ऐसा आकाश अनवरुद्ध कोख हर सरगम की.‘’ (ऊँचे धरातल से वह) यह वही कैलाश वाजपेयी हैं,  ‘संक्रांत’, ‘तीसरा अंधेरा’  ‘देहांत से हटकर’ संग्रहों तक जिसकी भाषा की तल्‍खी दूर से पहचानी जाती थी. तब उनका मुहावरा विमुक्‍त शती के लोगों से--जैसी कविता को पढ़ कर जाना जा सकता था. यह वही दौर था जब न केवल कवियों में सत्‍ता को लेकर मोहभंग था, बल्‍कि उस दौर के बुद्धिजीवियों से भी एक खास तरह की नफरत थी. सब चुप साहित्‍यिक चुप’ कह कर मुक्‍तिबोध ने बुद्धिजीवियों पर जैसा कटाक्ष किया है, कैलाश वाजपेयी की इस कविता का अंत कुछ ऐसे ही कटाक्ष से होता है: ''दरअसल हम बहुत बड़े ढोंगी थे/ अपने जमाने के / नफरत भी करते थे सत्‍ता से/ क़ायल थे  पूँछ भी हिलाने के/ यों बुद्धिजीवी थे/ घायल थे! ''

उनकी उत्‍तरवर्ती कविताओं के रचाव में प्रारंभिक दौर वाली तल्‍खी नहीं रह गयी थी बल्‍कि मन की मौज में कभी कभी मुक्‍त छंद में मुक्‍तक भी लिख लिया करते थे, कभी कभार एकाधिक गीत भी. एक त्रिपदी में वे लिखते हैं:

दुख को है दुख/ उसको चाहता कोई नहीं
और सुख को दुख
उसकी आंख अनरोयी रही
मार सुख की मार से सोयी नहीं.

इसी तरह एक मुक्‍तक और देखें--

रात अपनी कालिमा से बेखबर
सूर्य पर चिनगारियों का क्‍या असर
लाख तू ठहरे मुसाफिर राह में
बिन चले भी खत्‍म होगा यह सफर !

छोटी छोटी रचनाओं में भी वे अपने होने की छाप छोड़ते हैं. वे देश,काल और जीवन के विराट संदर्भों के कवि हैं. उनकी कविता में तत्वचिंतन की महक है. समकालीनता उनकी कविता के लिए एक छोटा पद है. उनकी कविता में बेशक आध्यात्मिकता का राग-रंग प्रखर हैव्‍यक़्तित्व से कृष्णगंध और वृन्दावनता की प्रतीति होती हैकिन्तु आचरण में वे निपट सूफी लगते हैं. वे शुरू से ही उस आलोक की खोज में लगे हैं जो संक्रांत से लेकर हवा में हस्ताक्षर तक की कविताओं में दिखायी देती है. कुछ बीज शब्दों यथाअग्निमायानिरुक़्तपुनर्जन्ममोक्षभाषादेशना,दुख- नियतिफाँसलालसा और अनहद के सहारे वे कविता में अपने विचारों का वितान रचते हैं. मृण्मय संसार की अनुभूति उनमें समाई थी तो सांसारिकता के खटराग से भी वे अपरिचित नहीं थे. उनके विचारों में तमाम विचारकों की छायाऍं डोलती हैं. व्‍यतीत से वीतराग कैलाश को जब तब समय की अंजलि में थोड़ा-सा जल दिखता तो कभी भीतर से एक पुकार उन्हें मथती ----कहाँ जन्मता मैं कि होने की तॄष्णा हो जाती निरबंसिया ! समय और नियति के संताप को इतने गहरे ढंग से व्‍यक़्त कर सकने वाला कवि हिंदी में शायद दूसरा न हो. दुख है कि आज की आलोचना में वह सदाशयता नहीं हैजो कैलाश वाजपेयी जैसे कवि के महत्व को समझ सके. वह तो कविता की अतल गहराइयों में डूबे बिना ही हमेशा फौरी नतीजे घोषित करने की हड़बड़ी में रही है.  कदाचित कैलाश जैसे कवियों के लिए ही कहा गया है--कालोह्य निरवधिः विपुला च पृथ्वी.\



(पंचम)
कैलाश वाजपेयी उस जमाने में कविता-परिदृश्‍य में अवतरित हुए जब अकविता ने अपने पांव पसारे थे. एक नकली  बौद्धिकता हिंदी में हावी हो रही थी. कविताओं में ओढी हुई अराजक मुद्राओं का बोलबाला बढ़ रहा था. इन कवियों को देख-पढ़ यही लगता था कि वे अपने समय से ही नहीं, खुद से भी नाराज हैं. सार्त्र, कामू काफ्का और गिंसबर्ग के प्रभाव का एक कृत्रिम आच्‍छादन कविता में पनप रहा था. ऐसे समय धूमिल से भी पहले से कैलाश वाजपेयी और श्रीकांत वर्मा की आवाज अपने समय के अँधेरे को अपनी तरह से परिभाषित कर रही थी. 1964 और 68 में आए संक्रांत और देहांत से हट कर जैसे संग्रहों का मिजाज भी बेहद विक्षुब्‍धकारी था. कवि की तल्‍खी शब्‍दों में नुमायां थीं. देहांत से हटकर में वे कह रहे थे: मैं विषण्‍ण देश का ध्‍वस्‍त संस्‍कार हूँ. यों मुझको ज्ञात है/ यह सुविधा-भ्रष्‍ट देश लकड़ी की तरह पड़े सांपों / हरियाली ओढे चोरों / परजीवी लचकदार बेलों से भरा हुआ वन है.(नास्‍तित्‍व के बाद) यहॉं तक कि कवि होने के बावजूद वे लिख रहे थे: जहां सब तरफ इतनी बकवास हैवहॉं कविता ही कहां का सरग-वास है.(गोरखधंधा) इसके बावजूद उनकी कविता अकविता की पैरोकार न होकर मानवीय प्रत्‍ययों और उपस्‍थितियों का प्रतीक बन कर उभरी. वह प्रतिरोध और प्रतिश्रुति का पर्याय थी. हालांकि उसमें कहीं-कहीं एक निरुपायता का बोध भी व्‍याप्‍त था, किसी भी व्‍यवस्‍था में डाल दो --जी जाएँगे की तर्ज पर किन्‍तु वह अपने समय की ताकतवर युवा कविता की एक प्रस्‍तावना कही जा सकती थी जो सत्‍ता के गलियारों में चल रही दलाली, समझौतेपरस्‍ती और बौद्धिक छद्म को अपने निशाने पर रखती थी. कैलाश वाजपेयी की कविता इस तरह अकविता के गुणसूत्रों के नजदीक होकर भी अपने को अराजक होने से बचाये रही. कभी-कभार आत्‍मदया के क्षण भी उनकी कविताओं में आए हैं. वह विमुक्‍तशती के लोगों से कविता हो या आत्‍मदया का क्षण जैसी कविताएंइससे उस दौर के कवियों का काव्‍यबोध समझ में आता है. 

अपने रहन-सहनसोचचिंतनमस्‍ती और बौद्धिकता में कैलाश वाजपेयी जी अपनी मिसाल खुद थे. उन्‍होंने लखनऊ विश्‍वविद्यालय से पढाई लिखाई की और टाइम्‍स आफ इंडिया से पत्रकारिता की शुरुआत की . बाद के दिनों वे दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय आ गए जब कि न उन्‍हें मुम्‍बई रहते हुए न मुम्‍बई रास आई न दिल्‍ली रहते हुए दिल्‍ली. इस तरह एक ऊबे हुए नागरिक की तरह वे सत्‍तर के दशक की शुरुआत में दिल्‍ली आए और फिर यहीं के होकर रह गए. बीच बीच में वे रूस फ्रांसजर्मनीस्‍वीडेन एवं इटली आदि देशों में काव्‍यपाठ के लिए गए. कुछ दिनों मेक्‍सिको में विजिटिंग प्रोफेसर भी रहे और अमरीका के डैलेस विश्‍वविद्यालय में पढाया भी. किन्‍तु अंतत: वे लौट-लौट कर दिल्‍ली आते रहे. वे कभी इंदिरा गांधी के भी काफी नजदीक थे. राजनीति की अनेक शख्‍सियतों के भी वे गहरे संपर्क में थे. समानधर्मा लेखकों में उन्‍हें अज्ञेयभारतीकुंवर नारायणकृष्‍णनारायण कक्‍कड़ठाकुरप्रसाद सिंह सबका अटूट प्‍यार मिला. लखनऊजिन दिनों वहां वे पढ रहे थेतमाम बड़े लेखकों और राजनीतिकों का गढ हुआ करता था. इन सब दिग्‍गजों में अपनी विलक्षणता से उन्‍होंने एक जगह उनके बीच हासिल की. साठोत्‍तर समय जिस मोहभंग के लिए जाना जाता है और जिसकी सबसे तीखी अभिव्‍यक्‍ति धूमिल में देखी गयीबाद में लीलाधर जगूडीश्रीकांत वर्मा की कविताओं में जिसकी धमक सुनाई दीकैलाश वाजपेयी के प्रारंभिक संग्रह संक्रांततीसरा अंधेरा  देहांत से हट कर  ऐसी ही विद्रोही चेतना से लैस हैं.

महास्‍वप्‍न का मध्‍यांतर में भी इस मोहभंग की तहरीरें दिखती हैं. 1980 में आया यह संग्रह अपने गठन में प्रबंधात्‍मक किन्‍तु  स्‍फुट कविताओं का संग्रह था. इससे प्रकट होता था कि उनमें एक किस्‍म की प्रबंधात्‍मकता सांस ले रही है. 1996 में उन्‍होंने श्रीमद्भागवत से प्रेरित अपने काव्‍य पृथ्‍वी का कृष्‍ण पक्ष में इसे विन्‍यस्‍त किया जिसके केंद्र में परीक्षित हैं. उन्‍होंने इस जीवन का एक लंबे संघर्ष की संज्ञा दी है. उनका मानना है कि हर कोई अपना-अपना कुरुक्षेत्र यहां लड़ रहा है. वे यह भी कहते हैं, एक न एक दिन हर संघर्ष, हर महाभारत का अंत हो जाता है; शेष रह जाती है निर्मल निष्‍कलुष धवल तरह चेतनापरीक्षित-सी संवेदना जो निर्माल्‍य का पर्याय है. भले ही कैलाश जी ने स्‍फुट कविताएं लिखी हों, पर उनकी काव्‍यात्‍मक चेतना में लंबी कविताओं और प्रबंधात्‍मकता के गुणसूत्र प्रारंभ से ही अनुस्‍यूत रहे हैं. वे बार बार पुराख्‍यानों की ओर लौटते थे और मानते भी रहे हैं कि पुराख्‍यान हमारी जातीय स्‍मृति का महत्‍वपूर्ण अंग हैं. वह चेतना और रुढि का अंतर्नाट्य है. वे कहते हैं पश्‍चिम ने इतिहास लिखे, हमने पुराख्‍यान जिए. इसलिए कि हमने काल को ताल या कुंआ नहीं माना, एक सदानीरा का संज्ञा दी, जिसका बखान जब भी कोई करेगा, पुराख्‍यान की प्रविधि ही अपनानी  होगी. परीक्षित यहां केवल संज्ञा नहीं, एक ऐसे भाव का नाम है जो असमय अवसान की पीड़ा से उपजती है और कृष्‍ण जिसका होना ही लीला का पर्याय है. कृष्‍ण भी संज्ञा नहीं, एक चेतना का नाम है. उत्‍सवता का नाम है. इतने परिवर्तनशील हैं कृष्‍ण कि उन्‍हें किसी परिभाषा में बांध पाना मुश्‍किल है. परीक्षित होने से क्‍या, वह तो हर घड़ी परीक्षा से गुजर रहा है : यह जो प्रत्‍यभिज्ञा है/ कि मैं देह हूँ/ यहीं से शुरु कर परीक्षित! परीक्षित के बहाने कैलाश वाजपेयी ने दुरुह लगने वाले काल, अवसान और देह की कारा में निमग्‍न परीक्षित की मनोव्‍यथा की लगभग शल्‍य परीक्षा ही कर डाली है.

परीक्षित !
गिरने के लिए
पकना जरूरी है
प्रेम के लिए जैसे
पिघलना
बरसने के वास्‍ते
भाप बन कर
अपने आप फटना.
कभी किसी बच्‍चे से मिला है क्‍या तू
वह नहीं पूछता कभी नाम या वंश
अच्‍छा लगता है तो हँस देता है
बच्‍चे अपने में परमहंस है. (जेल और ताला)


(षष्ठम)
कैलाश वाजपेयी ने हिंदी को दो प्रबंध काव्य दिए हैं. पृथ्वी का कृष्ण  पक्ष एवं डूबा-सा अनडूबा तारा. पृथ्वी का कॄष्ण पक्ष के प्रकाशन के लगभग पंद्रह वर्ष बाद कैलाश वाजपेयी पुनः प्रबंधात्मकता की ओर लौटे और जैसा कि सदियों से महाभारत साहित्य के लिए उपजीव्‍य बना हुआ हैडूबा-सा अनडूबा तारा में भी उन्होंने महाभारत के सौप्तिक पर्व के अश्वत्थामा प्रसंग को काव्‍य-कथानक का आधार बनाया . इस संदर्भ में कुँवर नारायण और धर्मवीर भारती के बाद कैलाश वाजपेयी संभवतः ऐसे विरल कवि हैंजिन्होंने मिथक से अपने काव्‍यचिंतन को समॄद्ध और संवलित किया है. डूबा-सा अनडूबा तारा वाजश्रवा के बहाने( कुँवर नारायण) की ही भाँति जितना प्रबंधात्मक विन्यास में अनुस्यूत हैउतना ही मुक़्त काव्‍य के रूप में विचारणीय एवं पठनीय . अश्वत्थामा के द्वारा द्रोपदी के पॉंच पुत्रों के वध के बाद जब उसका ब्रह्मास्त्र उत्तरा के गर्भ में पल रहे बालक को दग्ध करने लगा तो कृष्ण ने अश्वत्थामा को शाप दिया और भ्रूण रक्षा की. किन्तु भ्रूण हत्या का यह प्रसंग कैलाश वाजपेयी को भी लंबे अरसे से कचोटता और मथता रहा है. डूबा-सा अनडूबा तारा इसी की फलश्रुति है.

महाभारत में कहा गया हैकाल सबकी जड़ है. काल संसार के उत्थान का बीज है. काल ही अपने वश में करके उसे हड़फ लेता है. कभी काल बली रहता हैकभी वह निर्बल हो जाता है. समय बलवान था कि कृष्ण को एक ब्याध के बाण से बिंधना पड़ा. भ्रूण हत्या के निष्फल प्रयत्न से चिरजीवीअभिशप्त अश्वत्थामा शिरोवेदना से ग्रस्त होकर घूम रहा है. अश्वत्थामा बली अवश्य था किन्तु विमूढ़ था. बाद में अपने किये का पछतावा भी उसे होता है. वह चिरजीवी भले हो किन्तु संसार के घटनाचक्र को तटस्थ देखने के लिए अभिशप्त है. अमरता उसके लिए बोझ है. कवि ने महाभारत से भ्रूणहत्या के प्रसंग को उठाया तथा वर्तमान में भ्रूण पर नाना प्रकार के होते अपकृत्यों से खिन्नमन इस काव्‍य की रचना संभव की. फिर भी कितना आश्चर्य है कि पांच पुत्रों के वध और उत्तरा के गर्भोच्छेद के दुष्प्रयत्न के बावजूद पॉंचाली ने उसका वध न कर उसे मुक़्त छोड़ देने का आग्रह किया. वही अश्वत्थामा आज चार अश्वत्थों(प्रभास क्षेत्रबोध गयामाहेश्वर और काशी) के प्रतीक और प्रत्यय के रूप में अस्तित्ववान है. आज भी पीपल के पेड़ को कोई नहीं काटताक़्योंकि उसे चिरजीवन का अभिशाप मिला है.
डूबा-सा अनडूबा तारा में कैलाश वाजपेयी ने अश्वत्थामा, धृतराष्ट्रकॄष्णविदुरदारुकसिद्धार्थसुजाताकुशीनाराभारतीशंकरकबीरलहरतालनीमाबाबा पीतांबरअंधकूप आदि के पारस्परिक तारों को मिलाते और गूँथते हुए चारो पीपल यानी अमर अश्वस्थ की गाथा को विचारों की लड़ियों में गूँथा है. इस काव्‍य के प्रारंभ में कहा गया हैडूबा-सा अनडूबा ताराअश्वत्थामाजिसने देखा सच के पीछे का अँधियारा. अश्वत्थामा इस काव्‍य का नायक अथवा प्रतिनायक नहींबल्कि मात्र द्रष्टा है---घटनाओं का अन्वीक्षक. हमारी जातीय स्मृतियों को चार अश्वत्थों में टटोलते हुए कैलाश वाजपेयी ने न केवल अशरीरी छायातन अश्वत्थामा के प्रभास क्षेत्र में घटित वृत्तांतों का निरूपण किया है बल्कि बुद्ध और सुजाताशंकर और भारतीनीमा और कबीर के प्रसंगों को बूढ़ी आँखों से झाँकते अश्वत्थामा की मनोवेदना की झलक भी यहाँ ध्वनित है जो इस युग में उसकी तरह भटकते लोगों की मनोव्‍यथा का प्रतीक और पर्याय है. कैलाश वाजपेयी ने अश्वत्थ की सांस्कृतिक महिमा का बखान कर अश्वत्थामा के चरित्र को माँजा और परिष्कॄत किया हैउसके आत्मविलाप और आत्मकरुणा को वाणी दी है. वह संजय की तरह महाभारत-द्रष्टा नहींअतिद्रष्टा है---अनगिनत युद्धोंपराभवोंप्रेतीले जीवन का द्रष्टा. अश्वत्थामा के आत्मसंवाद में हम कहीं न कहीं कवि का आत्मालाप भी सुन सकते हैं.

अश्वत्थ का एक और अर्थ है जो इस संसार से जुड़ता है. कैलाश वाजपेयी ने इस अश्वत्थ रूपी संसार को रूपायित करते हुए विभिन्न चरित्रों के माध्यम से जीवन से जुड़ी अनूभूतियों को दर्ज किया है. विदुर के बहाने वे नींद के बारे में कहते हैंकभी-कभी पृथ्वी तक नींद के लिए तरसती है. नींद तो लिहाफ है दिन भर/मजूरी करने वालों के नंगे जिस्म पर फैला आकाश. पर कामी हत्यारोंधनपशुओं से नींद की अदावत है. कवि उन लोगों को बड़ा मानता है जो सारी रात जागते हैं ताकि दूसरे सो सकें. अश्वत्थामा के भीतर अपने अपकृत्य को लेकर अफसोस भी है. वह अपने को कृतघ्न कहता है. कृष्ण देखते हैं कि दुनिया मनोरथ की मारी है. नदी के तो किनारे होते हैंपर मनोरथ का कोई तट नहीं होता. जैसे समय का समुद्र नहीं दीखता. संवादी केशव कुछ पते की बात कहते हैंजैसे कि जिन फूलों को अभी खिलना है,उन्हीं की प्रतीक्षा सही प्रतीक्षा है. ब्याध अपने अपराध को लेकर भीतर से उद्वेलित होता है तो कृष्ण समझाते हैंयहाँ हर किसी का वध हो रहा और हर कोई वध करने में लीन है. कृष्ण का जीवन बताता है कि क्षमा अनुकंपा की छाया में खिला फूल है. यह एक विरल घटना है. कृष्ण कर्तव्‍य के हिमायती हैं. उनका कथन कि हर ग्रंथ ग्रंथि हैशब्द मुर्दा/अनुभव की आग से/ न गुज़रे यदि हों/ वे पगे न हों राग में---कहीं न कहीं कैलाश वाजपेयी के कवि का भी अनुभव-सिक़्त संदेश है. अश्वत्थामा के बहाने कवि ने यह चिंता भी जताई है कि कर्मकांड की काई से जन जन को कैसे मुक़्ति मिले.

कहते हैंयह पृथ्वी किसी अदृश्य की लीला का आख्यान है. कॄष्ण बाण से बिंधेमारे गएयदुवंशियों का नाश हुआ---सबके पीछे नियति की लीला रही है. कृष्ण कहते भी तो हैंवाण तो बहाना था---कृतज्ञ हूँ जरा व्‍याध का---चुकता हो गया/बीते किसी युग के उधार का. इस काव्‍य में पुरुष के अर्धनारीश्वर रूप की कल्पना भी व्‍यंजित है. महापुरुषों के बोध प्राप्त करने के पीछे भी स्त्रियों का योगदान रेखांकित है. बुद्ध को सुजाताशंकराचार्य को भारती और कबीर को नीमा---विभिन्न स्त्री रूपों में अपने स्नेहन से सींचती और उन्हें ज्ञान की सरणियों पर ले जाने में मदद करती हैं. सुजाता तीखे प्रश्नों से सिद्धार्थ को झिंझोड़ती और कहती है,तुमने अभी देखा ही क़्या है सिद्धार्थ  ! तुम तो पलायनवादी हो,महल में पले होव्‍यर्थ देह सुखा रहे हो. देशघरममतासौंदर्य सब कुछ पीछे भले छोड़ आए होपर तुम विरक़्त नहीं हुए हो. काम और भूख जीवन भर मनुष्य का पीछा नहीं छोड़ते-- और जब सुजाता की खीर खाकर सिद्धार्थ तृप्त हुए तभी वे बुद्ध कहलाए. सारनाथ में अपने उपदेशों का सारांश बाँटते हुए चार आर्यसत्यों के उद्घोष के साथ देशना की जिस प्रेमपगी  वाणी में लोगों को जगायाउसने राजाओं को लज्जा से पानी-पानी कर चीवर फहना दिया. हत्यारे अशोक को अहिंसा का अनुयायी बना दिया. भिक़्खुओं को सिखायाऔरों के लिए जीना शुरू करो. बाहर नहींभीतर को बदलोवृक्षों की सेवा-टहल में रहो क़्योंकि के वे जिन्दगी के पहरुवे हैं---और सुनो! नाम में कुछ नहीं रखा है. मृत्यु से भयभीत न होउसका उपचार विपस्सना है. परस्परता में भरोसा रखो --और देखो---

      इस तरह सोचो/ तुम्हारा कौफीन भी
      किसी बुनकर के हाथ का पसीना है
      तुम्हारे खड़ाऊँ भी किसी पेड़ के दिल में धड़कते छिपे बैठे थे
      और यह ध्यान करने की चटाई पता नहीं
      किन बूढ़ी आँखों ने दिये की लौ तले बनाई थी  ( देशना-4)

हम सब जानते हैंबुद्ध ने कुशीनारा में निर्वाण प्राप्त किया. उनके जीवन ने जताया कि सबका अपना अपना कुशीनारा है. सबको अंततः कुशीनारा ही जाना है. समस्त का अस्त हो जाता है कुशीनारा में. तीसरा अश्वत्थ साक्षी है कि माहेश्वर में भारती और शंकराचार्य के बीच शास्त्रार्थ में शंकर की विजय हुई. नालंदा और सोमनाथ ध्वस्त हुए. इतिहास पर पड़े खून की छींटे देखने के लिए वह विवश है. चौथा अश्वत्थ देखता हैकबीर लहरताल में पाए गए. नीरू और नीमा ने पालाअपनी कोख-जने जैसा ममत्व देकर कबीर को करघे के ताने-बाने के साथ जीवन रूपी करघे के ताने-बाने से भी परिचित कराया. कबीर सत्य के खोजी थेकर्मकांड की निस्सारता से अवगत. माँ नीमा ने अज्ञातकुलशील कबीर को बाबा पीताम्बर पीर से मिलायाउन्हें भी किसी और माँ ने पाला था. पीर ने कबीर को राह बताई और कहातुम्हें भी प्रेम की कहानी कहनी है. मन की दिव्‍य अनुभूति को जगाने वाला यह पद कबीरी ठाट का उदाहरण बन गया है--आया यहाँ कौन अपने से/ और किसे कब जाना/ गा रे मन मौलाना. आखिर हम सब भी तो किसी न किसी की इच्छा का ही परिणाम हैं.

कॄष्णबुद्धशंकर और कबीर सबके मन की थाह लेता हुआ अश्वत्थामा पानी में पड़ी मछली-सा उकता जाता है और सर्गविहीन सदी के रेले में जब वह एक अंधे कुएं में उगे नन्हें पीपल से बात करता है तो पाता हैहर कोई इस दुनिया में भोग के रोग से ग्रस्त है. फूँजी और विज्ञान अमरता की खोज में लगे हैं. सभी अमरता के आकांक्षी हैं. जबकि उसे अपनी अमरता से ऊब होने लगी है. मनुष्य पृथ्वी का ऋतुचक्र बदलने पर आमादा है जबकि उसके ध्रुवांत पिघल रहे हैं. नदियों की राहें अवरुद्ध हैं. कृष्णबुद्धशंकर और कबीर की सिखावन के बावजूद कुछ भी नहीं बदला हैमनुष्य की प्रवृत्तियाँ वैसी ही हैं बेलगाम और पारिस्थितिकी के संकट लगातार बढ़ रहे हैं. कैलाश वाजपेयी का यह काव्‍य दिक़्काल की दूरियाँ नापता है. इसका उत्स भले ही भ्रूणहत्या का एक विकल कर देने वाला प्रसंग हो,  इसके विस्तारधायी और समावेशी आख्यान में कृष्णबुद्धशंकर और कबीर के संदेश निहित हैं. वाजपेयी ने अपने स्वभाव और कविसुलभ मस्ती के अनुरूप इसे रचा है. कहते हैंअपने उत्तरवय में हर व्‍यक्‍ति अनुभव में पगी भाषा बोलता है. कैलाश वाजपेयी ने अनुभवसिद्ध भाषा में अश्वत्थामा के अन्तरावलोकन से अपने कवि-मन की खिड़कियाँ खोली हैं और पर्यावरण के संकट से जूझती पृथ्वी को बचाने के लिए आकुल गुहार लगाई है.


(सप्तम)
मैंने कैलाश वाजपेयी को सूफी मन वाला कवि कहा है. 1991 में आया उनका संग्रह सूफीनामा इसका साक्ष्‍य है. इस छोटे से संग्रह में तमाम ऐसी कविताएं हैं जिनसे कैलाश वाजपेयी के  मानवीय चिंतन का वृहत्‍तर फलक दृष्‍टिगत होता है. एक ऐसी ही कविता ' जब तुम्‍हें पता चलता'  यहां है जिसे उनकी कुछ चुनिंदा लोकप्रिय कविताओं में रखा जा सकता है:


अगर तुम्हें गर्भ में पता चलता,
जिस घर में तुम होने वाले हो
नमाज़ नहीं पढ़ता
वहाँ कोई यज्ञ होम
कीर्तन नहीं होता
कोई नहीं जाता रविवार को
गिरिजाघर या ग्रंथपाठ में
अगर तुम्हें यह पता चलता
पेट के निदाघ और
पर्व के हिसाब से
अधेड़ बाप
कभी बनाता है
रंगीन काग़ज़ के ताजिए
ईसा का तारा
कभी दुर्गा गणेश
कभी ऊँचाई को थाहते
सिर्फ़ आकाशदीप
नीले हरे जोगिया
अगर तुम्हें यह पता चलता
तब तुम क्या करते
क्या माँ बदलते?

सूफीनामा कविता में जैसे उनके भीतर का संत बोल रहा हो, वे सदैव एक गैरिकवसना छवि से अभिभूत रहे. वैसा ही ताना वैसा ही बाना, वैसी ही सोच. उनकी पदावलियों को ध्‍यान से सुना गुना जाए तो बेशक इस दुनिया से उनकी विक्षुब्‍धता छुपी न थी, पर जगह ब जगह उनके अनुभवों का सार सत्‍व-रूप में समाया है:

तुम अगर और कहीं कुछ
हो सकते होते तो हो गए होते फिर
यहाँ नहीं होते
इसमें भी उसका शुक्र मानना
आग जले जिस्म का एक ही इलाज है
बिजली गिर जाए
वही धूप बत्ती धन्य होती है
जो अपने को खाये
खाती चली जाए.

और समाधिवेला में कैलाश वाजपेयी का यह सूफियाना तेवर गूँजता है. कवि के मौन को पूरी तरह
मुखर करते हुए और तब लगता है यह एक साधक कवि का कथन है. अनुभूति के रसायन और संवेदनासिद्ध काव्‍यानुभूति से परिपक्‍व :


तुम्हारी हिसाब से वह आदमी आदमी नहीं
शोर न मचाए जो नि:शोक हो
जो सोच की दूरबीन से
घाव गिने पृथ्वी के
दु:ख की प्रदर्शनी लगाए 
इश्तहार दे रोग-जोग का

और कविता का अंत होता है इस सीख से कि ---

                वह आदमी है विचारशील
                   वह आदमी है काम का
                   तुमने सिक्के का यह पहलू अभी-अभी देखा है
                   जलती नहीं कोई आग बिना ईंधन के
                   बीज जब मिटता है
                   अंकुर होता है
                   अभी-अभी मोर नाचा है गूँजी बाँसुरी 
                   अमृत अभी-अभी बरसा है
                   अभी-अभी जला है चिराग़
                   धैर्य धरना
                   हर जन्म दूसरी तरह का देहान्त है
                   हर जीत के आगे-पीछे शिकस्त
                   इसलिए सफलता से डरना
                   डूबना तो तय है इसलिए, नाव नहीं, नदी पर
                   भरोसा करना. (समाधिवेला, सूफीनामा)

(अष्ठम)
कैलाश वाजपेयी कवि होने के साथ साथ अपने समय के एक बड़े चिंतक थे और आज यह अनुमान लगाना मुश्‍किल है कि उनका कवि बड़ा है या चिंतक. अनहदशब्‍द संसारआधुनिकता का उत्‍तरोत्‍तर व है कुछ दीखै और जैसी कृतियां उनके चिंतन की प्रशस्‍त चेतना की नुमाइंदगी करती हैं. विश्‍व की तमाम प्रसिद्ध कृतियोंदार्शनिकोंलेखकोंचिंतकों पर उन्‍होंने लिखा है तथा भारतीय व पाश्‍चात्‍य दर्शन के बारीक से बारीक तत्‍वों को उन्‍होंने आत्‍मसात किया है. है कुछ दीखै और उनकी आखिरी गद्यकृति है जो यह जताती है कि उनके अध्‍ययन का कैनवस किसी प्रकार की संकीर्णता से घिरा न था. उसमें मार्क्‍स भी समा सकते थे और गांधी भी. सार्त्र भी और कणाद भी. पाणिनि भी और जे कृष्‍णमूर्ति भी. बुद्ध का तो पूरा जीवनदर्शन ही उनके चिंतन में समाया था. वे कवि से ज्‍यादा एक दार्शनिक की तरह जीना और दिखना चाहते थे. अनेक देशों की यात्राओं के दौरान यूरोप और पश्‍चिम की व्‍याधियों को उन्‍होंने निकट से देखा और जाना था. एक बार कहने लगे ओम जी एक दिन हम सब वृद्ध लोग अकेले रह जाएंगे या किसी ओल्‍डएज होम के हवाले होंगे. विदेशों में तो बूढे लोगों की घर में जगह नही है. वे शहर के बाहर रहने को अभिशप्‍त हैं. वहां की सभ्‍यता इसकी इजाजत नहीं देती कि वे साथ रह सकें. यहां इस कालोनी के तमाम घरों में केवल बूढे लोग रह रहे हैं. उनके सुयोग्‍य पुत्र विदेशों में हैं. भारत में भी एकल परिवारों के साथ बुजुर्गों को अकेले जीवनयापन करना पड़ रहा है या वे किसी कोने अँतरे या गैरज में अपने दिन काटने को विवश हैं. यह हमारी सभ्‍यता का अकेलापन है. ऐसे में मुझे भी लगता है कभी किसी ओल्‍ड एज होम की शरण न लेनी पड़े. उनके इस कथन में एक गहरी पीड़ा उपनिबद्ध थी.

कैलाश वाजपेयी का स्‍वर जैसे हिंदी कविता में विरल हैवैसे ही उनका तत्‍वचिंतन भी निबंधकारों में सबसे अलग. उनके कविता संग्रहों के शीर्षक एवं सार-तत्‍व से ग़ुज़रते हुए देखें तो यह लगेगा कि वे दुनिया के संकटों को अपनी कविता की कूटभाषा में व्‍याख्‍यायित कर रहे हैं. अनेक कविता संग्रहों के साथ साथ उनके दो काव्‍यात्‍मक आख्‍यान भी आए किन्‍तु उनका चिंतक शुद्ध कविता की खोज में रमा न रह कर विश्‍व वैचारिकी की सतत यात्रा करता रहा है. उनकी कविता न केवल अपने समय के संकटों का भाष्‍य है बल्‍कि वह बुद्ध की-सी  देशना भी है. वह दरअसल मानवीय भूख की तृप्‍ति का उपाय खोजती हुई कविता है. हिंदी आलोचना का दुर्भाग्‍य है कि वह कैलाश वाजपेयी जैसे कालजयी कवि को जैसे लोकोत्‍तर संसार का कवि मानती है और कुछ कुछ अध्‍यात्‍म और तत्‍वचिंतन के खाते में डालकर चुप लगाए बैठी हैलेकिन कैलाश वाजपेयी के पास विश्‍व-यायावरी से अनेक तीखे-मीठे अनुभव हैंदर्शनअध्‍यात्‍मसंत साहित्‍य एवं आधुनिकतावादी चिंतकों के गहरे सान्‍निध्‍य में रहते हुए अपनी ऐकांतिक अध्‍यवसायिता से उन्‍होंने जो कुछ रचा और सिरजा है उसे उन्‍होंने समय समय पर अपने चिंतनपरक निबंधों में समाहित किया है.
अपने वैचारिक निबंधों में उन्‍होंने एक ऐसी दुनिया से साक्षात्‍कार कराया है जो उपनिषद,  देशना, यंत्र- मंत्रदर्शन,  द्वैत द्वैत,  प्रेम,  भक्‍ति,  अस्‍तित्‍व,  सत्‍ता,  नियतिवाद,  सांख्‍य निक्षेपवाद, लोकाचार,  कृष्‍ण,  बुद्ध,
तुकाराम,  दादू,  कणाद,  मार्क्‍स पाणिनि,  तुलसी,  केशवशंकरदेव रामकृष्‍ण परमहंस, मत्‍स्‍येन्‍द्रनाथ,  आयुर्वेद,  रेकी,  नाद-निनाद तथा आस्‍था और जड़ता के तमाम प्रश्‍नों पर ज्ञानोद्दीप्‍त करने वाले चिंतन से भरी है.

वे अपने समय के कुछ विरल लोगों में हैं जिन्‍होंने दुनिया भर की विचारधाराओं को प्रभावित करने वाले पुराणाधुनिक चिंतकों की सैकड़ों पुस्‍तकों का पारायण किया है. शब्‍द-संसार  ऐसी ही कुछ ख्‍यात पुस्‍तकों पर आधारित उनकी स्‍वतंत्र टिप्‍पणियों का सार है जिससे यह प्रकट होता है कि उनका अध्‍ययन विपुल और हमारी परंपरा में उपलब्‍ध साहित्‍य के साथ-साथ देश-देशांतर की सीमाओं का अतिक्रमण करने वाला है. 

जो लोग कैलाश वाजपेयी को जानते हैं वे समझते हैं कि उन्‍होंने अपने व्‍यक्‍तित्‍व का विकास कुछ अलग ढंग से किया है. लखनऊ रहते हुए उनका सान्‍निध्‍य आचार्य नरेन्‍द्रदेव, राधा कमल मुकर्जी एवं यशपाल जैसे लेखकों से रहा तो रुस, फ्रांस, जर्मनी और स्‍वीडन आदि देशों में रहकर उन्‍होंने मनुष्‍य के संकटों को निकट से पहचाना,वैभव और पूँजी के अतिरेक से जन्‍मी व्‍याधियों के दर्शन किए. विचारधाराओं के खोखलेपन से ऊब कर उनका मन अपनी बनायी वैचारिकी की ओर भागता था. भारतीय दर्शन, चिंतन की परंपरा में उन्‍हें मानवीय भूख को तृप्‍त करने की सामर्थ्‍य दीख पड़ती थी. उनकी कविताओं और निबंधों में उनकी यही बेकली भारतीय चिंतन की जड़ों की ओर बार बार उन्‍हें खींच ले जाती रही है. अपनी उद्विग्‍नता के बारे एक जगह उन्‍होंने स्‍वयं कहा है, रोटी आदमी को रुलाती है मगर भीतरी दिक् से कालांतर में एक और भूख आवाज देने लगती है. सामाजिकता और इस भूख के बीच तालमेल बिठा पाना बड़ा कठिन कौशल है. उनकी कविता में भी शायद इसीलिए पैगम्‍बरों, संतों, फ़कीरों, सूफियों और भौतिकता से अघाए उद्विग्‍न व्‍यक्‍ति की वाणी को अभिव्‍यक्‍ति मिली है जिसका परिपाक 'डूबा-सा अनडूबा तारा' में दीख पड़ता है.

उनके चिंतन का कोई ओर छोर नहीं है. जैसे पुराने ढंग के आख्‍यानों में अंतर्कथाओं का जाल मिलता है, उनके साथ  बात करते हुए यह पता ही नहीं चलता था कि वे बोलते बोलते किन किन दिशाओं और अंतर्कथाओं में बिलम गए हैं. लेकिन इन वार्ताओं और बतकहियों में भी वे केंद्रीयता नही खोते थे, विषयेतर नही होते थे. सम्‍यक् का भाव उनके प्रतिपादन में दिखता था. अनेक प्रश्‍नाकुलताओं से घिरा कैलाश वाजपेयी का कवि-व्‍यक्‍तित्‍व अंतत: थक - हार कर बैठ जाने वाला व्‍यक्‍तित्‍व नहीं था, वह प्रश्‍नों के घेरे को तोड़ता हुआ भारतीय चिंतन के अंतर्जाल को भेदता हुआ आगे बढ़ता है और किसी न किसी अनुमन्‍य निष्‍कर्ष तक हमें ले आता है. ऐसा नही कि उनकी उपपत्तियॉं केवल दार्शनिकता का उद्भेदन करती हैं, वे आज के ज्‍वलंत मुद्दों से भी टकराती हैं तथा अपनी लक्ष्‍यभेदी दृष्‍टि से एक तार्किक सन्‍निधि तक पहुँचती हैं. वैदिक वाड़्मय, विश्‍वचिंतन और लोकाचार से गुजरते हुए कैलाश वाजपेयी ने अपने निबंधों की पीठ कहीं पैगंबरों,साधु-संतों, कवियों, दार्शनिकों और वैयाकरणों पर टिकाई है तो कहीं सृष्‍टि के अनिवार्य प्रश्‍नों नियति, कर्म, धर्म, जीवन, भविष्‍य और भूत, ब्रह्मांड आदि पर . अचरज यह कि इतनी सारी आवाजें उनके यहॉं गुँथी पड़ी हैं जिनकी गुत्‍थियॉं वही सुलझा सकते थे. यह दूसरे के वश का नहीं. किसी भी निबंध को आप खँगालें, सारे प्रयुक्‍त संदर्भ करीने से सँजोए और पिरोये हुए मिलते हैं. किसी सूत्र के भाष्‍य या अन्‍वय की-सी रूक्षता यहॉं नहीं है. इतने सारे संदर्भों को आत्‍मसात करने वाले चिंतक को लक्ष्‍य कर के ही कहा गया होगा: न सा सभा, यत्र न सन्‍ति वृद्धा:. ऐसे विद्वत्‍जनों से ही धरा फलवती होती है.

उनकी चिंतनपरक गद्य कृतियों  का विमर्शमय संसार यह बताता है कि वाजपेयी की दिलचस्‍पी साहित्‍य के अलावा कितने ही साहित्‍येतर अनुशासनों में रही है. पूँजीवाद सभ्‍यता के विकारों, वैश्‍विक हलचलों, बाजारवादी आक्रामकताओं,  बर्बरताओं,  नस्‍लवादी स्‍वार्थपरताओं,  नैतिक स्‍खलनों, अतिरेकों और परिवर्तनों की महीन से महीन कसमसाहट को उनके यहॉ बखूबी सुना जा सकता है. उनके वैचारिक निबंधों में तत्‍वचिंतन की महक है. हमारी औपनिषदिक पंरपरा कितनी प्रशस्‍त है पर हम उसके बारे में कितना कम जानते हैं. कैलाश जी ने वैदिक वांड्मय में गहरे संतरण किया है. पर इसे कोई 'इतिहास की शव-साधना' न समझे. उनकी जड़ें जितनी परंपरा में हैं उतनी ही आधुनिकता में. हम देख चुके हैं कि 'शब्‍द संसार' जैसी विलक्षण कृति में उन्‍होंने विश्‍व की चुनिंदा कोई छह दर्जन पुस्‍तकों पर चर्चा के बहाने राजनीति, दर्शन, प्रमात्रा भौतिकी, जैव प्रौद्योगिकी, पारिस्‍थितिकी एवं सभ्‍यता के संकटों पर वैश्‍विक परिदृश्‍य में व्‍याप्‍त विचारणाओं का गहन मंथन किया है.  उन्‍होंने सरस्‍वती के सूखने का भी एक रोचक वृत्‍तांत यहॉं दिया है. पर उनकी दृष्‍टि कोई निरी अध्‍यात्‍मवादी नहीं है. उन्‍होंने वैज्ञानिकों की रहस्‍य-भाषा की भी वैज्ञानिक नज़रिए से पड़ताल की है तथा अणु सिद्धांत से लेकर क्‍वार्क युग्‍म तक की उपलब्‍धियों का बखान किया है. इन निबंधों में केवल गुरु-गंभीर चिंतन ही नहींनाना अंतर्कथाओं के विश्रांति-स्‍थल भी हैं. उदाहरणत:बुद्ध का महानिभिष्‍क्रमण यानी राजमहल छोड़ने और सम्‍यक् सम्‍बुद्ध बनने की रोचक कहानीमास्‍को में थियोसॉफी यानी ब्रह्मविद्या की ओर लौटता रुझानबुद्ध की देशना का ढंगकवि संत तुकारामनाम खुमारी नानकालोकायत दर्शन आदि अनेक निबंधों में उन्‍होंने किस्‍सागोई का सलीका इस्‍तेमाल किया है. ऐसा भी नहीं कि गतानुगतिक ढंग से पुराणउपनिषद और वैदिक प्रसंगों का उन्‍होंने अनुगायन किया हैबल्‍कि जगह ब जगह एक जागरूक लेखक के रूप में लोकाचार और सामाजिक जीवन में समाए कर्मकांड और पाखंड की निंदा भी की है.

'है कुछ, दीखे और' में रोचक कहानियॉं हैं जो पढने वाले को बांध लेती हैं . कनफूसियस के पिता जब सत्‍तर के थे तो वह जनमा और बाद में चलकर अध्‍यापक हुआ. एक बार शिष्‍यों के साथ जाते हुए उसे कब्रगाह से एक स्‍त्री के रोने की आवाज सुनायी दी. यह पूछने पर कि यहॉं कब तक और क्‍यों बैठी रहोगी तो उसने कहा, यहॉं मैं क्रूर शासकों की घिनौनी दृष्‍टि से तो बची रहूँगी. तब कन्‍फ्यूशियस ने शिष्‍यों को उपदेश दिया---'एक क्रूर नेता बाघ और भेड़िये से भी ज्‍यादा खतरनाक होता है.' आगे चल कर उसके उपदेश लोकप्रिय हुए. यह कन्‍फूसियस का ही कथन है कि : 'सच्‍चा प्रज्ञा पुरुष मजमा लगाकर उपदेश नहीं देता.' ऐसी ही रोचक कहानी संत गुर्जिएफ की है जिसकी ध्‍यानपद्धति विस्‍फोटक थी. परमहंस रामकृष्‍ण और धोती का किस्‍सा भी रोचक है. कैसे वे गंगा में ज्‍वार का नज़ारा देख पाए जबकि उनके शिष्‍य अपनी धोती आदि ही सँभालने में रह गए और ज्‍वार उतर गया. खुदापरस्‍ती में शहीद हुए एक सूफी सरमद की कहानी संभवत: पहली बार हम यहॉं पढ़ते हैं जो अल्‍लाह के प्रेम में पागल होकर औरंगजेब के हाथो अपना सर कलम करवा बैठा पर कलमा पढ़ने के हुक्‍म की तामील न की. सूफी संत मंसूर अल-हल्‍लाज मुस्लिम कट्टरता की भेंट चढ़ गए क्‍योंकि कहीं न कहीं वह इस्‍लाम की कुछ बुनियादी अवधारणाओं के सख्‍त विरोध में था. आयुर्वेद के प्रणेता धनवन्‍तरि की दिलचस्‍प कहानी यहॉं उपलब्‍ध है. इसी तरह सुंदरदास, नामदेव, मार्क्‍स, महावीर, तिरुवल्‍लुवर, सरहपा, गोरखनाथ, रज्‍जब, तुलसीदास, पाणिनि, कपिल मुनि जैसी कई महाविभूतियों पर कैलाश वाजपेयी ने अलग ढंग से लिखा है. संतों की सहिष्‍णुता के अनेक उदाहरण उन्‍होंने यहां दिए हैं. एक करोड़ अभंग लिखने वाले तुकाराम पर कुपित होकर भले ही पं.रामेश्‍वर भट्ट ने खौलता पानी डाल दिया हो, उनके त्‍वचारोग से ग्रस्‍त होने पर अभंग गाकर उन्‍होंने ही उसे व्‍याधि-मुक्‍त किया. 'आपद्घर्म' क्‍या है इसे उन्‍होंने भूख से व्‍याकुल विश्‍वामित्र के एक उदाहरण से स्पष्‍ट किया है कि कैसे उन्‍होंने चांडाल के घर बासी भोजन कर अपनी क्षुधा तृप्‍त की. लेकिन जब खाने के बाद वही चांडाल पानी लेकर पहुँचा तो उसे धर्मभ्रष्‍ट कह कर कुपित हो गए. कहा, क्षुधा मिटाना मेरा आपद्धर्म था, पर यह जल पीने से मेरा धर्म भ्रष्‍ट हो जाएगा. गॉंधी के सत्‍य के प्रयोगों की अनेक कहानियॉं प्रचलित हैं. एक का उल्‍लेख यहां भी है. गुड़ खाकर दांत खराब कर लेने वाले बेटे की शिकायत लेकर आई मां की बातें सुन गांधी ने उसे एक हफ्ते बाद आने को कहा. जब वह दोबारा आई तो अपने टूटे दॉंत दिखा कर गॉंधी ने उस बच्‍चे से कहा कि गुड़ खाने से तुम्‍हारा भी ऐसा ही हाल होगा. मॉं ने कहा कि यह तो आप पहले ही बता सकते थे तो गॉंधी ने कहा कि मैं तब खुद गुड़ बहुत चाव से खाता था. इसलिए उपदेश देने से पहले मुझे लगा कि पहले स्‍वयं अपनी आदत से मुक्‍त हो लूँ तभी उस दिन मैं तुम्‍हारे बेटे को ऐसी नसीहत न दे सका. 'है कुछ, दीखे और ' ---ऐसी ही जानकारियों, कहानियों, विचारों और प्रेरक वार्ताओं का सारांश है.


(नवम)
कैलाश वाजपेयी की कविता जैसे सार्वकालिक हैवह केवल समकालीनता के बोध से पीड़ित नही दिखती, वैसे ही उनका चिंतन इस बात से विमुख नही दीखता कि पुरानी चीजों में अब कुछ नया नहीं बचा. बल्‍कि ऐसे चिंतकों की पीढ़ी समाज से लुप्‍त हो रही है जो हमारी ज्ञान-विज्ञान की विरासत को सम्‍हाल कर रखे, जीवन के महनीय तत्‍वों को समाहित करने वाले गौरवग्रंथों से विमुख न हो. वाजपेयी ने अपने एक निबंध 'कूड़ाघर में तब्‍दील होता ब्रह्मांड' में यह जताया है कि वे सूचनाओं के सैलाब से नावाकिफ़ नही हैं. इसीलिए आज के समय को यांत्रिक विकास का चरम चरण मानते हुए वह यह कहना भूल नहीं जाते कि आज ब्रह्मांड में इतने फिजूल के क्षत विक्षत उपकरण घूम रहे हैं कि वह खुद एक कूड़ाघर की शक्‍ल में तब्‍दील होता जा रहा है. अचरज यही कि तकनीक के उन्‍नत शिखरों से लोगों को पतन का ढलान वैसा नहीं दीखता जैसा एक कवि को. उनके सारभूत चिंतन और काव्‍यसृजन का प्रतिपाद्य यही है. उनके धुनी कवि-व्‍यक्‍तित्‍व में जिस तरह की तटस्‍थता और निर्वैयक्‍तिकता सांस लेती थीवैसा निर्बंध, निस्‍संग, निर्मल और सूफी कवि-मन कैलाश वाजपेयी के सिवा भला और कौन हो सकता है. कैलाश वाजपेयी इस दुनिया में नहीं हैं, पर उनके शब्‍द हमारे बीच हमेशा रहेंगे. तमाम दार्शनिक-आध्‍यात्‍मिक अभिवृत्‍तियों के बावजूद उनकी चिंताएं दुनियावी और मानवीय थीं. उनके बारे में सोचते हुए मुझे उनकी जन्‍मफल शीर्षक कविता की ये पंक्‍तियां अक्‍सर मनुष्‍य जाति के लिए एक सनातन संदेश की तरह लगती हैं:

कहीं भी लड़ाई हो
मुझको लगता है गृहयुद्ध हो रहा है
लोगों से दुख का दान माँगता हूँ
बदले में देकर चंदनकपूर,फूल,धूप,अगरबत्तियाँ
मैं चाहता हूँ सब पारपत्र जला दिए जाएं
किसी भी अंकुर का मुरझाना सार्वजनिक शोक हो
जो आदमी-आदमी के बीच खाईं हों
ऐसे सब ग्रंथ अश्लील कहे जाऍं.
-----------------
ओम निश्चल
जी-1/506 ,उत्‍तम नगर,नई दिल्‍ली-110059
मेल: omnishchal@gmail.com
  फोन: 08447289976

रंग - राग : पीकू (Piku) : सारंग उपाध्याय

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'विकी डोनर'और'मद्रास कैफे'के बाद शूजीत सरकार की फिल्‍म 'पीकू'राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बनी हुई है. इस संवेदनशील फ़िल्म की बारीकियों से आपका परिचय करा रहे हैं फ़िल्म समीक्षक सारंग उपाध्याय.  यह फ़िल्म भारतीय परिवार के बीच एक बूढ़े व्यक्ति की व्यथा-कथा के समानांतर तमाम रोचक उपकथाएं भी साथ –साथ लिए चलती है.



बूढ़ी देह के बालमन की कहानी : पीकू      
सारंग उपाध्‍याय 


चपन के फूल बालमन के आंगन में ही नहीं बल्कि बूढ़ी और बीमार देह के भीतर भी खिलते हैं. वृद्धावस्‍था दुखों की त्र‍िवेणी होती है, जहां जीवन के समानांतर चलती आधि, व्‍याधि और उपाधि की स्‍वाभाविक दुख धाराएं मिलती हैं. उम्र के इसी घाट से जीवन के अनंत की महायात्रा शुरू होती है. घर, परिवार के बड़े बूढ़े यात्री होते हैं, वे अतीत की गठरी में जीवन समेटते हैं और यात्रा शुरू होने से पहले बूढ़ी और जर्जर देह के भीतर बैठे मन से बचपन के झूले में झूलते हैं, लड़कपन की पतंगें उड़ातें है और दुनिया को ठेंगा दिखा कर अपने बच्‍चों को चिढ़ाते हैं. निर्देशक शूजीत सरकार की फिल्‍म 'पीकू'वृद्धावस्‍था के घाट पर जीवन की धूप-छांव देखे एक बूढ़े बाल मन की ऐसी ही कहानी है.

'विकी डोनर', 'मद्रास कैफे'के बाद फिल्‍म 'पीकू'शूजीत सरकार का हिंदी सिनेमा को तीसरा सर्वाधिक सुंदर और अप्रतिम उपहार है. यह फिल्‍म हमारे परिवारों में हर बूढ़े, अधेड़, जवान और बालमन के भीतर चल रही रिश्‍तों की भावात्‍मक नोंक-झोंक का प्रेममय चित्रण है. जिन्‍होंने शूजीत सरकार की फिल्‍म 'मद्रास कैफे'देखी होगी, वे निश्चित ही 'पीकू'देख कर इस बात पर यकीं नहीं कर पाएंगे कि एक निर्देशक युद्ध और हिंसा के विभत्स दृश्‍यों और त्रासदियों के लैंडस्‍कैपों से कैमरे को निकाल कर, महज दृश्‍यों और संवादों से सिनेमा बुन सकता है.

सिनेमा की समझ रखने वाले जानते हैं कि कैमरा दृश्‍यों से कहानी बुन लेता है, उसे दृश्‍यों के भीतर कहानी की जरूरत नहीं होती. 'पीकू'फिल्‍म कलात्‍मक रूप से बेहद समृद्ध स्‍क्रीन प्‍ले और आधुनिक होते हिंदी सिनेमा के भीतर बेहतरीन निर्देशन कला की शानदार बानगी है.

ये फिल्‍म पर्दे पर हिंदी कथा साहित्‍य की कुछ बेहद सुंदर कहानियों के भीतर होने का सुखद अहसास पैदा करती है. आप इसे देखते हुए 'फेंस के इधर और उधर'प्रवेश कर सकते हैं, या फिर उस 'पिता'से कम से कम एक बार तो बतिया ही सकते हैं, जो खाट पर देर रात बेचैन होता है और अपने भीतर एक शून्‍य जीता है.

दिल्‍ली के सीआर पार्क के बंगाली एन्क्लेव में 70वर्षीय भास्‍कर भट्टाचार्य (अमिताभ बच्‍चन) बेटी पीकू (दीपिका पादुकोण) का जीवन, उत्‍तर भारत के इस महानगर में कोलकाता के अतीत के साथ रचा-बसा है. घर के भीतर ड्राइंग रूम में दीवारों पर लगी रामकृष्‍ण परमहंस, मां शारदामणि और सत्‍यजीत रे की तस्‍वीर, आधुनिक साज सज्‍जा के बीच ही पारं‍परिक सजावट में बंगाली खाना-पान की खुश्‍बू से भरा हुआ ड्राइंग रूम. दिल्‍ली के मिजाज के बीच बात-बात में कानों में एक बंगाली बूढ़े की सुबह-सुबह की चिढ़चिढ़ाहट, ऑफिस के लिए लेट हो रही, बेटी पीकू की पिता पर झल्‍लाहट, बीच-बीच में अपनी हाजिरी लगाता नौकर. यह फिल्‍म का पहला दृश्‍य है. शूजीत फिल्‍म के पहले ही दृश्‍य में पूरे सिनेमा की लाइन खींच देते हैं. जैसा की पहले कहा, यह फिल्‍म बेहद छोटे, सुंदर और भीतर तक उतर जाने वाले दृश्‍यों की खूबसूरत लड़ि‍यां हैं.

एक लाइन में कहूं तो इस फिल्‍म की कोई कहानी नहीं है, न मैं सुनाना चाहूंगा, सिवाय इसके कि कब्‍ज के रोग को फोबिया मानकर दिनरात उसी में डूबे, हाईब्‍लड प्रेशर की चिंता में घुले जा रहे और बेटी को देखभाल के लिए येन केन प्रकारेण घर बुला लेने वाले एक वृद्ध ने अपने आसपास जो दुनिया खड़ी की है, यह उसी दुनिया के दृश्‍यों का बोलता कोलाज है. वृद्ध जो व्‍याधि के डर में आधि में घुला जा रहा है और बेटी सहित आसपास की दुनिया के लिए उपाधि बन गया है. बेटी जो पिता की बूढ़ी देह के भीतर बैठे, बाल हठ को प्‍यार में डूबी मजबूरी के साथ संभाल रही है. और राणा चौधरी नाम का एक युवा है, जो परिस्थितिवश इनके जीवन में शामिल हुआ है और उनके पारिवारिक जीवन में पिता की बायलॉजी समझते हुए, पिता-पुत्री की कैमेस्‍ट्री का शिकार हो गया है.

निश्चित ही यह फिल्‍म शब्‍दों से परे दृश्‍यों की खूबसूरत श्रृंखला हैं, जिसके भीतर एक बंगाली पिता-पुत्री, छौबी मौसी (मौसी जी के नाम में भूल हो सकती है) (मौसमी चटर्जी) , (इरफान खान) राणा चौधरी, टैक्‍सी एजेंसी मालिक उनके आसपास जी रहे पात्र और चरित्र जीवन के सुंदर और बेहतरीन लम्‍हों के साथ आपके सामने हैं.

फिल्‍मी दृष्टि से कई लोग इसमें संभव हो नायक गढ़ लेंगे, गढ़े भी जा सकते हैं, लेकिन कहूंगा कि फिल्‍म का कोई नायक नहीं, कोई नायिका नहीं है. जैसा की कहा, ये एक जीवन की दृश्‍यात्‍मक कहानी है, जिसे पटकथा लेखिका जूही चतुर्वेदी ने स्‍वाभाविक, महीन और हम सब के जीवन से चुराए गए पलों से स्‍क्रीन प्‍ले में कैद कर लिया है, बेहद खूबसूरती के साथ बुन लिया है. निर्देशक शूजीत सरकार जीवंत दृश्‍यों के चितेरे हैं. उनके पास निर्देशन की एक अद्भुत कलात्‍मक कूची है. उन्‍होंने संवादों के बीच दृश्‍य खड़े किए हैं, और दृश्‍यों के बीच कहानी बुन दी है. हर एक दृश्‍य एक संपूर्ण कहानी है और हर कहानी के बीच से कई कविताएं निकल कर आपके मन में फूल की तरह खिल जाने वाली है.

यह फिल्‍म लेखन की कई विधाओं का कोलाज है. दृश्‍यों के भीतर से संस्‍मरण निकलते हैं, और आपको आपके सुखद अतीत की पगडंडियों पर दूर तक लिये चलते हैं, या फिर आपको उसी क्षण घर लौटा लाते हैं, जहां आपके भी घर बैठा एक वृद्ध दुखों के त्रिवेणी घाट पर बैठकर आपसे उसके बचपने को समझने के लिए कह रहा है. यह आपके जीवन का कोई गुदगुदाता यात्रा वृतांत हो सकता है. मन के किसी खूबसूरत कोने के भीतर आज भी सुगंध बिखेर रहे डायरी के कुछ आत्मिक सौंदर्य में लिपटे हिस्‍से हो सकते हैं.

जी हां, इस फिल्‍म में सबकुछ है. दिल्‍ली से कोलकाता तक का रास्‍ता, सिंघासनी कुर्सी, हाइवे और उस पर बने ढाबे, शौचालय, बनारस की रात, गंगा का घाट, होटल, नींद, कब्‍ज पर डिसकर्शन, मनमुटाव, बाल हठ और युवा मन की खीज, कोलकाता की तंग गलियां, ट्रांप, विक्‍टोरिया मैमोरियल, हुबली के किनारे बूढ़ा होता अतीत, साइकिल पर घूमता समय, कब्‍ज, टिल्‍लू पंप और एक स्‍वभाविक लय में चलता जीवन और बंगाली संवादों के बीच बंगाली संस्‍कृति और पंरपरा में डूबे आप और हम. जूही और शूजीत के पास से आप जो चुरा लाएं, घटनाएं, रिपोतार्ज, कविताएं, कहानियां या फिर कहीं कोई फिल्‍म का टुकड़ा. आपके लिए यहां आगत या विगत की संभावानाओं के बीच घट रहा जीवन है और जीवन के बीच बीत रहा एक समय है, जिसमें एक परिवार है और हम सब हैं.

फिल्‍म के रूप में यह एक किताब है, जिसे आपको पढ़ना होगा, यह किसी आंखों में यह एक बार में उतरकर स्‍मृति का हिस्‍सा नहीं हो सकती. सुझाव यही है कि सरल, सहज, आत्‍मीय भावना में डूबे और रिश्‍तों के बीच 2घंटे 15मिनिट की इस कहानी को आंखों से पढ़ लीजिए और ता उम्र इसे सहेज कर रखिए.

फिल्‍म देखते हुए आपको त्रषिकेश मुखर्जी की फिल्‍मी धारा में एक बार फिर लौटने का अहसास होगा. याद आएगी 'खूबसूरत', 'बावर्ची', 'नरम-गरम''खट्टा-मीठा'जैसी फिल्‍में और उनका दौर. लेकिन याद रखिए, यहां आपको शूजीत सरकार और जूही चतुर्वैदी का वो कॉम्बिनेशन मिलेगा, जहां सबकुछ नया है. कहानी से परे विषय की प्रधानता है.  विषय है, कब्‍ज और उसके ईद-गि‍र्द बिखरा रिश्‍तों और भावनाओं का जाल. परिवार के सदस्‍य की चुंटीली बातचीत, संवाद और बातों ही बातों में एक दूसरे को सरल रूप में काटते चरित्र. यहां प्‍यार का नमक मिलेगा, जिसे घर ले जाकर आप अपने परिवार में प्रेम का जायका बढ़ा सकते हैं.

जूही चतुर्वेदी और शूजीत सरकार की कामकाजी रिश्‍ता काफी पुराना है. कई बार यह अच्‍छा लगता है कि दो रचनात्‍मक लोग निर्देशक और पटकथा लेखक, साथ में मिले और दोनों पहले लंबे समय तक साथ में काम कर चुके हैं, तो आपको पर्दै पर सृजन की खूबसूरती कई रंगों में दिखाई पड़ती है. जूही ने पीकू का स्‍क्रीन प्‍ले रचा है, तो उसमें शूजीत ने निर्देशन की कूची से रंग भरे हैं.

टाइम्‍स ऑफ इंडिया लखनऊ में फ्री लांसर के तौर पर अपना कॅरियर शुरू करने वाली जूही का सफर दिल्‍ली की विज्ञापन एजेंसी से होता हुआ, मुंबई पहुंचकर शूजीत से जा मिला. जिन्‍होंने फिल्‍म 'विकी डोनर'देखी होगी, वह जूही की प्रतिभा को जानते हैं, सो परिचय की नहीं, संवादों और पटकथा की तारीफ की जरूरत समझते होंगे. जाहिर है, इस बार जूही ने बहुत ही आगे जाकर काम किया और महज पटकथा के आधार एक फिल्‍म रच दी है.
 
क्षमा चाहूंगा, लेकिन दोहरा रहा हूं, जिन्‍होंने मद्रास कैफे देखी होगी, उन्‍हें महज दृश्‍यों के जरिये कहानी देखनी पड़ी होगी, लेकिन शूजीत यहां से आगे बढ़ गए हैं. उन्‍होंने एक बार फिर स्थितियों, घटनाओं और प्रसंगों के बीच गुजरते जीवन के बीच संवादों से निर्देशन किया है. आप जानते हैं कि संवाद जूही के हैं.

परिवार में मनमुटाव, झगड़े, बात-बात पर टकराव, और नोंक-झोंक यही सब हमारे रिश्‍तों में प्‍यार की हरियाली है. फिर मौसी जैसा रिश्‍ता पिता की साली का भी बन जाता है तो सब कुछ हरा होता ही है. मौसमी चटर्जी की मुस्‍कुराहट लंबे समय बाद पर्दे पर दिखाई दी है. वे लंबे समय से अभिनय से दूर थीं. 62साल की इस मोहक और बेहद सुंदर अभिनेत्री की आखिरी हिंदी फिल्‍म 'जिंदगी रॉक्‍स'थी, जो 2006में आई थी. इंडस्‍ट्री में रोल देने की वादा खिलाफी से थोड़ी आहत मौसमी इस फिल्‍म की सबसे खूबसूरत पात्र हैं. अनुभव का अभिनय पात्र को अमर बना देता है. चुंटीली, चुलबुली मौसी इस फिल्‍म के एक कोने से आपकी स्‍मृति में कब एक रिश्‍ता बुन देगी आपको पता ही नहीं चलेगा.

अमिताभ बच्‍चन नाम के हिंदी सिनेमा के किसी सदी के महायनायक ने इस फिल्‍म मे काम नहीं किया. एक बूढ़ा है जिसका नाम भास्‍कर बनर्जी है, जो अभिनय करते हुए कुछ कुछ अमिताभ जैसा दिखता है.

मैं पहले ही कह चुका हूं कि इरफान अपने होने मात्र से अभिनय रचते हैं. वे अभिनेता के रूप में अनुपस्‍थित रहते हैं और पात्र व चरित्र में उपस्‍थित. वे अभिनेता नहीं रहते बल्‍कि पात्र हो जाते हैं, उनके वास्‍तविक चरित्र के लक्षण किरदार की फ्रेम में ढूँढना असंभव रहता है. खामोशी में संवाद, कनखियों की नजर, क्रियान्‍वित रहते हुए शरीर की भाषा, परिवेश का इस्तेमाल,वस्‍तुओं से जीवंत संबंध और किरदार से तादात्‍मय, यह अभिनेता अभिनय के सागर में विलीन हो जाने वाला कलाकार है.

पता नहीं आपने दीपिका को आखिरी फिल्‍म में कब देखा होगा. जैसे भी और जिस भी पात्र में देखा हो, लेकिन वे पीकू के किरदार में आपको हमेशा याद आएंगी. उनके अभिनय और खूबसूरती दोनों में ही निखार आया है. रघुवीर यादव की उपस्थिति आपको जरूरी लगेगी. यह पात्र हिंदी सिनेमा की मुख्‍य अभिनय धारा का निनाद है.

फिल्‍म का बैनर एमएसएम मोशन पिक्चर्स, सरस्वती एंटरटेनमेंट, राइजिंग सन फिल्म्स प्रोडक्शन्स है जबकि निर्माता एनपी सिंह, रॉनी लहरी, स्नेहा राजानी हैं. इन सभी को एक बेहतरीन सिनेमाई उपहार देने के लिए बधाई. कलाकारों के बारे में क्‍या कहूं? जाने-पहचाने नाम और मंझा हुआ अभिनय है. मेरे लिए तो नया नाम जीशु सेनगुप्ता का है, उसे आप पहचान जाएंगे. बाकी अमिताभ बच्चन, दीपिका पादुकोण, इरफान खान, मौसमी चटर्जी, रघुवीर यादव हैं, उनके बारे में कह चुका हूं औपचारिकता की जरूरत नहीं. इनसे भी ज्‍यादा प्रशंसा और बधाई इस बार जूही और शूजीत के लिए.

हां, फिल्‍म को लेकर नई बात यह है कि इसने इंटरनेशनल बॉक्‍स ऑफिस पर कमाई के सारे रिकॉर्ड तोड़ दिए हैं जबकि भारत में भी पहले हफ्ते में अच्‍छा धन कमाया है. जो कमाई के हिसाब से फिल्‍म देखने का शौक रखते हैं, वे इसकी जानकारी नेट से निकाल सकते हैं. स्‍वस्‍थ, स्‍वच्‍छ और सुंदर सिनेमा के मानक केवल कलात्‍मक होते हैं, जो बहुआयामी हो सकते हैं. 
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सारंग उपाध्याय
उप समाचार संपादक
 Network18khabar.ibnlive.in.com,New Delhi
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