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अम्बर में अबाबील (उदय प्रकाश) : संतोष अर्श




























अबाबील अम्बर से पुकार रहा है
(उदय प्रकाश का नया कविता संग्रह अम्बर में अबाबील’)
संतोष अर्श



“Roots may be hidden in the ground
But their flowers flower in the open air for all  to see.
It must be so.
Nothing can prevent it.” ____Fernando Pessoa
     

बाबील धरती पर विरले ही उतरता है. वह उड़ता ही रहता है
इस अनंतवर्तुल आकाश की नीलाइयों में. बहुत देर और दूर तक. एक उड़ान में तीन सौ किलोमीटर तकबिना थकेवह छोटा सा पंछी. और कितना सुंदर घर बनाता है ! चिड़ा-चिड़ी मिलकर बनाते हैं. उसका अपना खगीय-विहगीय (सु)-स्थापत्य है. जिसे हम नीड़झोंझाघोंसलाआशियाना किन-किन नामों से पुकारते हैं. अबाबील घर बनाने के लिए तिनके ही नहीं जुटातातालाब से मिट्टी भी भर-भर लाता हैअपनी चोंच में. ग़ज़ब है कि उसके घर में दीवानखाना होता है और शयनकक्ष भी. आह...झरोखे भी. पुराकथाओं के पात्र अबाबील की इसी ख़ूबी को समझते हुए ख़्वाजा अहमद अब्बास ने 1937 में इसी पक्षी के नाम पर कहानी लिखी थी. सूरा-ए-अल-फ़ील के अबाबीलों ने झुण्ड की ताक़त और निष्ठा से यमन और इथियोपिया के राजा अब्राहा-अल-अशराम की हाथी सवार सेना को अम्बर से पत्थर बरसा कर खदेड़ दिया था. एक पक्षीजो अभी उपस्थित है और जिसका नाम कविता के लिए बड़ाअर्थपूर्ण और कलात्मक प्रतीक है. सामूहिक चेतना का मुक्तिकामी प्रतीक. उदय प्रकाश की चेतना के निकट रहने वाले दुखते-कसकते अनुभव का मूल (देखें भूमिका) वाले मुक्तिबोधीय प्रतीक जैसा. पंछियों के यहाँ भी मुक्ति कभी अकेले नहीं मिलती.
      
उदय प्रकाश के इस नये कविता संग्रह में छह खंड हैं. जिनमें अलग-अलग अनुभूतियों की कवितायें मिलती हैं. इनमें देशकालवंचित वर्ग का अल्पचर्चित यथार्थराजनीतिपर्यावरण (वातावरण नहीं)बाज़ारसभ्यतामूलक परिवर्तनों से उपजी त्रासद परिस्थितियाँ और वह सब कुछ हैजो घट रहा है या घट चुका है. किन्तु जो अधिक रागात्मक संवेदन हैवह है कवि का अकेलापन और बेगानगीभाषिक व्यंजनाओं से मुखर हुई कातरता और कविता की बरामदगी. उदय प्रकाश का कथाकार उनके कवि पर हावी रहा है. इस कारण कई बार कहानी में कविता मिल जाती थी और कविता में स्थूल कथा (रेटरिक और मैटर ऑफ फ़ैक्ट) के तत्त्व चले आते थे. उनके पिछले संग्रहों की 'चंकी पाण्डे मुकर गया है' और 'एक भाषा हुआ करती है' जैसी कविताएँ इसकी बानगी हो सकती हैं. 'अम्बर में अबाबीलसंग्रह की कविताएँ इन काव्य-प्रवृत्तियों से मुक्त हैं. यहाँ कविता की सजग संभावना है. उसकी संरचना पुख्ता है. कविता के होने को कविता सिद्ध कर रही है. एक दशक के पश्चात एक संग्रह में कवि फिर लौटा हैप्रौढ़ हो कर. कुँवर नारायण के निश्चय को सार्थकता दे करवृहत्तर हो कर:

"पर इस बार उसका लौटना उसकी परछाईं का लौटना था
कोहरे धुंध पानी की परत में से होते हुए
मेरी आँखों की ओरमेरी देह और आत्मा की ओर लौटना"
(इस शहर में एक किसी रोज़ जब कोई विदा हुआ था)  

कवि अपने इस संग्रह की आत्मसंघर्ष युक्त
सुलिखित भूमिका में- पुर्तगाली साहित्य में आधुनिकता के प्रस्तोता कवि फ़र्नांदो पेसोवा का स्मरण और उल्लेख करता है. यह स्मरण सोद्देश्य है. यह एक कवि का मुचलका है या अपनी कविताओं की ज़मानतदारी है. या इन कविताओं के अर्थविस्तार की कोई कुंजी या ‘की-वर्ड’ है. पेसोवा सैंतालीस वर्ष की आयु में बिना इतिहास का जीवन जी कर मर गया था और जब जिंदा था तब अपने होने से इनकार करता था: 'मैं हूँ नहींमैं ख़ुद को जानने की शुरुआत कर रहा हूँ.' वह कई ज़ाली नामों से लिखता थाउसके अध्येताओं ने जिनमें से बहत्तर नामों की पहचान कीजो पेसोवा ही था. उसकी एक कविता में बहुत मानीखेज़ बात आती है:

'जो मैं होना चाहता हूँ
और जो दूसरों ने मुझे बना दिया है
मैं उसी के मध्य का अंतराल हूँ.'

अरसे बाद अपनी कविताएँ प्रस्तुत करते समय पेसोवा का यह मार्मिक स्मरण आवेगमय है. पेसोवा की याद कवि के भीतर के उस साधारण (अभि) व्यक्ति की याद है
जिसका कवि प्रतिनिधित्व करता है. जो मुक्तिबोधीय लहजे में 'अनिवारऔर 'आत्मसंभवाहै. पुर्तगाली भाषा में 'पेसोवाका अर्थ ही व्यक्ति है. इस संग्रह में उसी व्यक्ति की ख़ोज है. संग्रह की महत्त्वपूर्ण कविता 'एक ठगे गये मृतक का बयान' में वही व्यक्ति हैजिसकी हँसी में कोई ज़माना है जहाँ वह लाचार हैऔर इस कदर है:

"वह मरने के पहले कोई सट्टा लगा आया था
अब वह जीत गया है
लेकिन वह जीत उधर है जिधर जीवन है जिसे वह खो चुका है

यह व्यक्ति की अभिव्यक्ति पूरे संग्रह में
 ‘सत्योन्मुख वैयक्तिकता’ के साथ प्रवाहमान है. यह व्यक्ति कई रूपों में कई तरह की यातनाओंवंचनाओंसंत्रास और उपेक्षाओं के समंदर में डूबता उतराता हुआ मिलेगा. ‘पेसोवा’ का ‘पर्सन’ यह व्यक्ति इन कविताओं का केंद्रीय पात्र है. यह व्यक्ति हम सभी हैं. हम सभी की मूक अभिव्यक्ति कविताओं में बोल रही है:

जब जलते हुए पेड़ से
उड़ रहे थे सारे परिंदे
मैं उसी डाल पर बैठा रहा.

जब सब जा रहे थे बाज़ार
खोल रहे थे अपनी दुकानें
मैं अपने चूल्हे में
उसी पुरानी कड़ाही में
पका रहा था कुम्हड़ा”   (दुआ) 

भाषा-विमर्श हिन्दी साहित्य में उदय प्रकाश की नितांत मौलिक और अत्यंत सार्थक पहल है. क्या कविता क्या कहानी
 ? वह हर जगह है. पीली छतरी वाली लड़की के हिन्दी विभाग से लेकर एक भाषा हुआ करती है संग्रह के शीर्षक और इन नयी कविताओं तकमुसलसल. वास्तव में उदय प्रकाश की यह चिंता हिन्दी के जड़बर्बर और कुपढ़ सांस्थानिक स्वरूप से पैदा हुई है. हिन्दी को जिस तरह संगठित लोगों ने सांस्थानिक रूप से भ्रष्ट कर दियाविकृत कर दियायह उसकी सही समझ है. अशोक वाजपेयी जिसे अर्थसंकुचन के साथ भाषा के दुरुपयोग के विरुद्ध प्रतिरोध या प्रतिकार कहते हैं. लेकिन बात इतनी सी नहीं है. यह केवल प्रतिरोध न हो कर एक बहुत गंभीर बहस हैजिसमें सभी को सम्मिलित होना है. यह हिन्दी को आधुनिक और उदार बनाए जाने की माँग है. इस संग्रह की कविताओं में यह चिंता मुखर और व्यंग्यपूर्ण आयरनी की भाँति आयी है. अलग-अलग कविताओं की कुछ पंक्तियाँ देखी जा सकती हैं:

1:       
कब कविता लिख जाय
कब उसे कोई पढ़ जाय
कब कर्फ़्यू लग जाय
कब सारी ज़िंदगी की हिन्दी हो जाय

2:जीवित लोगों द्वारा
सदियों पहले ठुकरा दी गयी एक मृत भाषा में
खाते कमाते
ठगते और जीते
उनका दावा हैवे जीवित हैं...अंधी और ठग हो चुकी एक बहुप्रसारित असभ्य भाषा से उठाते हुए
हजारों मारे हुए शब्द...सिद्धार्थमत जाना इस बार कुशीनगर
मत जाना सारनाथ वाराणसी
वहाँ राख़ हो चुकी है प्राकृत
पालि मिटा दी गयी है

3:
 हिंदी के कवियों को दूर से देखा
जैसे तेरसू बैगा देखता है रिलायंस मोज़रवेयर लेंको ऊर्जा कंपनियों को

4:
कब तलक पधारेंगे यहाँ से आप कृपया श्रीमान्
कब तलक चलेगा यह भीषण संभाषण यह षटरस जलपान
तानेंगे कब तक यों भाषा की ड्योढ़ी पर अपनी दूकान

सिधारें तो हम भी गांठ गठरी की खोलें
हम भी तो मंच पर रंच भर अपना रचा बांचें
सभागार खाली हो
जाएं सब आपके संग हाकिम हुक्काम
तो हम भी तनिक नाचें
      
सांस्थानिक हिन्दी का विकृत और आधुनिकउदार मूल्यों से हीन परिदृश्य उदय प्रकाश की इन कविताओं में भले ही व्यंग्यात्मक हैकिन्तु गंभीर विषय है. यह कहीं चोट बनकर है तो कहीं आह बनकर. इस भाषा-विमर्श को समझना हिन्दी के इदारों के लिए जटिल इसलिए हैक्योंकि वे इसे सहना नहीं चाहते. भाषा एक साझी और समाजवादी अवधारणा है. जैसे धूपबरसातहवापानी और मिट्टी. भाषा को वस्तु या निजी संपत्ति में बदल करउसकी सांस्थानिकता का औपनिवेशिकीकरण कर उसे सांप्रदायिकतावर्चस्ववादी हिंसाफ़ासिस्ट राजनीति और संरक्षणवादी मूल्यों से भर देने की साज़िशों के विरुद्ध उदय प्रकाश की ऐसी कवितायें केवल प्रतिरोध भर नहीं हैंबल्कि ये लेखकभाषासाहित्यराजनीति और समाज-संस्कृति के अंतः सम्बन्धों को समझ सकने के सिरे उपलब्ध कराती हैं. उदय प्रकाश जानते हैं कि वे काल-अंबुधि में भाषा की डोंगी में सवार हैं. इस ‘वोयेज़’ में भाषा का साथ कोई लेखक छोड़ देगा तो वह तरण और तारण दोनों ही में असफल रहेगा. उदय प्रकाश का भाषा-विमर्श हाइडेगर और सार्त्र के भाषा-संबंधी विचारों के नज़दीक है. हाइडेगर कहता है कि भाषा वह घर है जिसमें हम रहते हैं या जिसमें हमारा होना हैऔर सार्त्र का दावा है कि उसने भाषा के माध्यम से संसार और समाज को जाना इसलिए भाषा को संसार समझना लेखक का विभ्रम नहींयथार्थ है. नन्दकिशोर नवल ने इस काव्य-गुण को उदय प्रकाश के (उनके अर्थों में अतिरंजित) उपेक्षाबोधअपने प्रति हुये ‘अन्याय का मिथ्या आभास’ तक सीमित करके आलोचकीय संकीर्णता प्रदान की है. उदय प्रकाश की यह तड़प उपेक्षाबोध या लेखकीय जीवन की प्रवंचना नहीं हैअपितु भाषा और उसके साहित्यउसके लेखक और उसके समाज को मुक्ति दिलाने की रचनात्मक आकांक्षा है. वे भाषा के उस मार्ग को समतल करने हेतु कविता में अपनी भाषा में सहन किए गए मान-अपमानकिये गए संघर्ष और प्राप्त हुई उपेक्षाओं को काव्यात्मक संवेदन से जाग्रत करते हैं. यह प्रत्येक ईमानदार और सच्चे लेखक का प्रश्न है. उसके सद्प्रयत्नों पर हुए जबरिया अतिक्रमण का बहिष्कार है. अतः इसे और भी संतुलित दृष्टि से देखा जाना काम्य है.      
      
अरुंधति शृंखला की कविताएँ इस संग्रह का हासिल हैं. ये हमारी चेतना तक पहुँचती हैं. हमारे होने (बीइंग) को रहस्यमय ढंग से प्रस्तुत करती हैं. अरुंधति नक्षत्र के सहारे कवि जीवन का अबूझ मरुस्थल पार करना चाहता है. इस लाल तारे से कभी याद आता है विप्लवी लाल ताराकभी साम्यावस्था का प्रतीक अरुण कमल और अरुंधति राय भी. और कवि की माँ:

जेठ की रात में
छप्पर के टूटे खपड़ैलों से दिखता था आकाश
अपनी खाट पर डेढ़ साल से सोई माँ की मुरझाई सफेद-ज़र्द उंगली उठी थी
एक सबसे धुंधलेटिमटिमातेमद्धिम लाल तारे की ओर

वह देखो अरुंधति !

माँ की श्वासनली में कैंसर था और वह मर गई थी इसके बाद 
उसकी उंगली उठी रह गई थी आकाश की ओर”         (अरुंधति- एक)

कथाकार उदय प्रकाश की कहानी नेलकटर’ की माँ उसके कैंसर के साथ अरुंधति तारे की टिमटिमाहट के सहारे पुनः कविता तक चली आयी है. जिन्होंने कहानी पढ़ी हैवे माँ और उसकी उँगलियाँ चीन्ह लेंगे. फिर इसी कविता में यह कहना किसाठ की उम्र में भी/ मैं माँ की उँगलियाँ भूल नहीं पाता”- जीवन से माँ की स्मृति निचोड़ कर उसकी तरलता की अनुभूति करना और कराना है. स्मृति इस बार की कविताओं का संगीत है. स्मृत जो विस्मृत न कर पाने की विवशता है. विवशता जो चाह है. चाह जो अतीत से प्रेम है. बुद्ध कहते हैं कि मनुष्य दीप की भाँति बुता जाता है. केवल घटनाओं और अनुभवों की सरणियाँ शेष बचती हैं. स्मृति दीर्घ समय पर शेष रह गए चित्र हैं. जिन्हें वर्ड्सवर्थ ने स्पॉट ऑफ़ टाइम बताया था. स्मृति हमारे सांस्कृतिक ढाँचे की सबसे मजबूत थूनी हैओ भाषा में आकर कविता को सांस्कृतिकता प्रदान करती है. कविता की स्मृतियों से निर्मित होती हैइतिहासचेता ऐतिहासिकता. संग्रह की एक कविता में जैसे स्मृति ही की व्याख्या हो:

भाषा से छूटा कपड़े में लगे मैल की तरह
पानी जैसे छूटता है आँख से
किसी न याद आने वाली याद के अचानक याद आने पर
एकाध बूँद में ढल कर नीचे गिरता हुआ. 

संग्रह के अंतिम पृष्ठों पर ‘तिब्बत’ कविता के बहाने से कविता में ऐसी ही न अंटने वाली स्मृतियाँ ललित गद्य का रूप लेती हैं. 
           
      
अरुंधति’ में कविता की सौंदर्यचेता संरचनाभाषिक ऊष्माप्रकृति की विराट् उपस्थितिउसकी रहस्यमय पदार्थवादी गतिमयता और जैविक सुंदरता देखते बनी है. यहाँ कविता और केवल कविता हैकविता का शुद्धतम सूक्ष्म रूपजिसे देखने हेतु स्थूलताओं से दृष्टि बचाना ज़रूरी नहीं है:

वहाँ एक पहाड़ी नदी चुपचाप रेंगती हुई पानी बना रही थी
पानी चुपचाप बहता हुआ बहुत तरह के जीवन बना रहा था
तोते पेड़ों में हरा रंग भर रहे थे
हरा आँख की रोशनी बनता हुआ दसों दिशाओं में दृश्य बनाता जा रहा था

पत्तियाँ धूप को थोड़ी-सी छांह में बदल कर अपने बच्चे को सुलाती
किसी माँ की हथेलियाँ बन रहे थे
कुछ झींगुर सप्तक के बाद के आठवे-नौवें-दसवें सुरों की खोज के बाद
रेत और मिट्टी की सतह और सरई और सागवन की काठ और पत्तियों पर उन्हें
चींटियों और दीमकों की मदद से
भविष्य के किसी गायक के लिए लिपिबद्ध कर रहे थे

पेड़ों की सांस से जन्म लेती हुई हवा
नींदतितलियाँओस और स्वप्न बनाने के बाद
घास बना रही थी
घास पंगडंडियाँ और बांस बना रही थी
बांस उंगलियों के साथ टोकरियाँछप्पर और चटाइयाँ बुन रहे थे

टोकरियाँ हाट,
छप्पर परिवार
और चटाइयाँ कुटुंब बनाती जा रहीं थीं.         
(अरुंधति- पाँच) 

गहरे पारिस्थितिकीय सौंदर्यबोध ने प्रकृति और मनुष्य के आदिम सम्बन्धों की रागात्मकता को कैसे विलक्षण ढंग से उपरोक्त पंक्तियों ने व्यक्त किया है. ‘अरुंधति’ सीरीज़ की कविताओं ने निश्चय ही संग्रह का वज़न बढ़ाया है. ये संग्रह की प्रतिनिधि कवितायें हैं और इनसे संग्रह जाना जाएगा.
      
इनके अलावा बहुत-सी व्यंजनापूर्णसमय-समाज और राजनीति को पहचानती कविताएँ संग्रह में पाठक को मिलेंगी. नवउदारवाद की फ़ासीवाद क़वायदोंबाज़ार और उपभोग के मध्य पिसते हुए शाश्वत जीवन-मूल्यों और मानवीय गुणों को कुचले जाते देखने से उपजी हताशानिरंकुश सत्ताओं के वैश्विक उभार से आक्रांत नागरिक विवेक को देखकर रचनाकार मन में पैठ गयी ‘एंग्ज़ायटी’ के साथ कवि का अपनी रचना में बार-बार लौटना उसकी उम्मीद हैजहाँ बुद्ध और औलिया उसके रहबर हैं. अलगरज़ उदय प्रकाश की ये कवितायें उनकी पिछली पढ़ी गयी कविताओं से अधिक इंटेन्स लगती हैं. इनकी ज़मीन वास्तव में ‘वेटलैंड’ है. वैश्विक विमर्शों से पुष्ट कविताओं वाला यह संग्रह ऐसे समय आया हैजब हमें विश्वसनीय कवि और कविताओं की बहुत ज़रूरत है. संदिग्ध कवियों और कविताओं, ‘यौन-नैतिक-विवेक’ की समीक्षाओं और आलोचना के ‘एटीएम कार्ड’ रखने वाले लेखकों के मध्य एक वरिष्ठ कवि के इस संग्रह की आमद संतोषप्रद है. यह संग्रह हमारे समय की कविता में एक सचेत उपस्थिति है. इसमें संकलित कवितायें कोई चमत्कार नहीं करेंगी न कोई मिथ्या आश्वासनकोई झूठी उम्मीद देंगीकिंतु कवि की भाषा और संवेदना के कन्विक्शनकमिटमेंट से हमें भर देंगी. अपने स्थान पर मजबूती से खड़े रहना इस बहुत अपरिचितअननुमानितभयावह समय की माँग है. यह संग्रह उस समय से हमें आगाह करता हैरचनात्मक विवेक से निर्मित साहस प्रदान करता है. हिम्मत कविताओं के सिवाय और कहाँ से मिलेगी ?  
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