"पिछले कुछ वर्षों के दौरान हिंदी कथा जगत में जिन कहानीकारों के आमद की धमक साफ़ सुनाई देती है जयश्री रॉय उनमे से एक हैं. उन्होंने अपने लेखन का सफ़र बेशक अपेक्षाकृत देर से शुरू किया हो मगर अपनी शुरुआत से वे निरंतर चर्चाओं में बनी रही हैं. अपनी कहानियों में उन्होंने स्त्रियोचित साहस के साथ मुखर रचनाधर्मिता के खतरे उठाये हैं. उनकी कहानियों ने न सिर्फ पाठकों के एक बड़े वर्ग को झकझोरा है बल्कि वे आलोचकों के लिए श्लील-अश्लील बहस का भी कारण बनी हैं.एक तरफ जहाँ उनकी काव्यात्मक भाषा की सराहना हुई है वहीँ तमाम नकारात्मक आक्षेप का भी शिकार उन्हें बनना पड़ा है. जयश्री राय की कहानियों में विषय-वैविध्य भी नोट करने लायक है. उनके पास सामजिक और आर्थिक वंचना की परतें उघाड़ने वाली मार्मिक कहानियाँ हैं. इस साक्षात्कार में अपनी आलोचना से आहत या विचलित होने की बजाये पूरी बेबाकी से जवाब दिये जाने का धैर्य सहज ही महसूस किया जा सकता है."सौरभ शेखर
यथार्थ कहानी से अधिक नाटकीय होता है
जयश्री रॉय से सौरभ शेखर की बातचीत
जयश्रीरायजीआपसेसबसेपहलेहमजाननाचाहेंगेकिकहानीहीक्यों?.यानीआपअभिव्यक्तिकीकोईऔरविधाभीतोचुनसकतीथीं.
कहानी ही क्यों,मुझे इस सवाल से वाक़ई उलझन-सी हो रही है. अगर कोई मछली से पूछे पानी ही क्यों? पंछी से पूछे आकाश ही क्यों? चकोर से पूछे चांद ही क्यों?... जाने वे क्या जवाब दे.कहानी सहज मुझ में है. बचपन से मेरा सबसे बड़ा शौक था या तो कहानी कहना या सुनना. तब मनोरंजन के इतने साधन नहीं हुआ करते थे. जब भी हम बाई-बहन साथ बैठते थे या तो एक-दूसरे को तभी बना कर कहानी सुनाया करते थे या बाबूजी से कहानियां सुना करते थे. उनके पास देश-विदेश की कहानियों का पूरा खजाना था. कभी-कभी कहानी सुनते पूरी रात बीत जाया करती थी.
अभिव्यक्ति के लिये मैं उपन्यास भी लिखती हूँ, कविता भी और लघु कथा भी. साथ ही गाती हूं, पेंटिंग करती हूं, बाग़वानी भी. इन सभी चीज़ों के माध्यम से मैं किसी ना किसी रुप में स्वयं को अभिव्यक्त ही तो करती हूं. कहानी के ज़रिये बात लोगों तक सहज पहुंच जाती है. शायद इसीलिये कहानी.
पहले तो एक अहिंदीभाषी पारिवारिक पृष्ठभूमि,फिर हजारीबाग जैसी एक छोटी जगह में शुरुआती पढ़ाई-लिखाई और उसके बात हिन्दी पट्टी से बहुत दूर गोवा के अलग माहौल में रहते हुये कोईलड़कीलिखनाशुरूकरतीहैऔरसमकालीनकथाजगतमेंअपनाएकमुकामबनातीहै. आसाननहींरहाहोगायेसब. अपनीकथायात्राकोमुड़करदेखनेसेकैसालगताहै?
Image may be NSFW.
Clik here to view.
मूलत: बंगला भाषी हूं. बिहार में जन्म और कई वर्षों तक रहना. बच्चे कई भाषायें बड़े आराम से एक साथ सीख सकते हैं. मेरे दोनों बच्चे पांच भाषायें एक साथ बोलते हैं- बंगला, हिन्दी, मराठी, कोंकणी, अंग्रेज़ी,तो हिन्दी हम उसी तरह सीखे जैसे बंगला, हिन्दी के प्रति मेरा झुकाव बचपन से रहा. आपको बताऊं कि पहली कक्षा से ले कर एम. ए. तक मैं हिन्दी में सर्वाधिक अंक प्राप्त करती रही. बारहवीं, बी. ए. तथा एम. ए. में भी राज्य स्तर पर टॉप किया.
Clik here to view.
.jpg)
जहां तक हिन्दी साहित्य जगत में पदार्पण करने और बकौल आपके एक मुकाम बनाने की बात है तो इस में कहीं कोई संघर्ष या परेशानी की बात नहीं. ८४ में एस. एस. सी. में पढ़ते हुये मैंने एक-डेढ़ साल लिखा था और विपुल मात्रा में छपी भी थी. फिर खुद ही लिखना छोड़ द्या था.
२०१० को जब गंभीर रुप से बीमार पड़ गई थी, तब अस्पताल के बिस्तर पर पहली कहानी लिखी जो हंस में छपी. इसके बाद छपती चली गई. मुझे याद नहीं मेरी कोई कहानी कभी कहीं अस्वीकृत हुई. इस मामले में मैं बहुत भाग्यशाली हूं. सुदूर गोआ में हूं. मेरी कोई पहुंच नहीं, पहचान नहीं. मगर मुझे सबका आशीर्वाद और प्रोत्साहन मिला. मैंने हिन्दी से जितना प्यार किया, हिन्दी और हिन्दी जगत ने मुझे उससे कई गुणा ज़्यादा प्यार दिया.
हालांकिमुझेरचनाकारकोस्त्रीऔरपुरुषकेखांचोंमेंरखकरसमझनाठीकनहींलगता,लेकिनएकस्त्रीकाअनुभवजगतअनिवार्यतःपुरुषसेकुछअलगहोताहै.इसलिहाजसेआपकीपीढ़ीकीस्त्रीकथाकारोंमेंफेमिनिज्मया'स्त्रीत्व'कीअनुगूंजअन्यकिसीसरोकारकीतुलनामेंज्यादाहै. आपकीकहानियाँइसअर्थमेंअलगहैंकिआपकेसरोकारोंकादायराकहींबड़ाहै.जैसे'खारापानी'मेंपर्यावरणकेखतरोंकोबहुतशिद्दतसेउठायागयाहै.इसदृष्टिसेआपकीनज़रमेंएकरचनाकारहोनेकेमायनेऔरमहत्त्वक्याहैं? दूसरेशब्दोंमेंक्याकुछलिखाजानाज़रूरीहै?
इसमें कोई संदेह नहीं कि एक स्त्री होने के नाते स्त्री विमर्श के प्रति मैं बहुत प्रतिबद्ध और संवेदनशील हूं मगर इसके साथ-साथ मनुष्य होने के नाते मेरा हर उस बात से सरोकार है जो जीवन और जगत को किसी ना किसी रुप में प्रभावित करती है. एक लेखक को सच के साथ खड़ा होना है, धर्म के साथ खड़ा होना है, मनुष्यता के लिये खड़ा होना है, सारे विश्व के लिये खड़ा होना है. सुन कर शायद यह नाटकीय लगे लेकिन यही मेरी मान्यता और विश्वास है. हर गलत के प्रतिरोध में हमारी क़लम चलनी चाहिये. इस क़लम का कोई मज़हब नहीं होना चाहिये, मगर धर्म ज़रुर होना चाहिये. तो फिर लेखक सबके लिये, सबके हित में लिखे. उसके लिये कोई विषय अछूत नहीं होना चाहिये. मैं एक पुरुष के दुख-दर्द, परेशानियों पर भी उसी तन्मयता और संवेदना के साथ लिख सकती हूं जिस तन्मयता के साथ स्त्री विमर्श पर लिखती हूं. आख़िर यही पुरुष मेरे भाई, पिता, पुत्र, सखा और सहचर भी हैं. क़लमकार को हमेशा निष्पक्ष होना चाहिये. कभी पक्षपात नहीं करना चाहिये.
आपकीकहानियोंकीभाषामेंआंचलिकताकापुटखूबहै.कुछआलोचकोंकामतहैकिकहानीमें'लोकेल'यदिस्वयंपात्रनहोतोकहानीकारको'डाईलेक्ट्स'केप्रयोगसेबचनाचाहिएऔरमानकभाषाकेकरीबहोनाचाहिए.आपकीटिप्पणी?
Image may be NSFW.
Clik here to view.
मेरी सभी तो नहीं मगर कई कहानियों में आंचलिकता का पुट है. आपने गौर किया होगा कि इनका विषय ही कुछ ऐसा है जिसके कारण मैंने सायास ऐसी भाषा का प्रयोग किया. मेरा मानना है कि रचना की भाषा विषयानुरुप होनी चहिये. भाषा विशेष, शब्द विशेष से कहानी का सांस्कृतिक, भौगोलिक, आंचलिक वातावरण जीवंत हो उठता है. उसक फ्लेवर बदल जाता है. इसके उदाहरण के रुप में आप ’बेटी बेचवा’, ’पिंजरा’, ’बंधन’, ’कुहासा’ जैसी कहानियों को ले सकते हैं. लेखन को मैं किसी रूढ़ि या सख़्त नियम के जंज़ीरों में कसने का समर्थन नहीं करती. कुछ नया, अनोखा, अद्भुत रचने के लिये लेखनी को आज़ादी चाहिये. छूट चाहिये, वर्ना इस में बस दोहराव मिलेगा. हम लकीर के फकीर बन कर रह जायेंगे. यहां कोई सोच आख़िरी सोच नहीं, कोई नियम आख़िरी नियम नहीं. होना भी नहीं चाहिये
Clik here to view.
.jpg)
आपअपनीकहानियोंमेंकईदफेपुरुषोंकीवृतियोंऔरअनुभवोंमेंबहुतविश्वसनीयतरीकेसेप्रवेशकरतीहैंऔरउनकीदुर्बलताएं,आदिउधेड़तींहैं. जैसे'छुट्टीकादिन'में. आपकीकईकहानियोंमेंनैरेटरएकपुरुषहीहोताहैऔरबहुतकुशलतासेआपउसकीसोचकेप्रवाह कोपकडतीहै.इसेआपकीविशेषताकहेंयाविशेषज्ञता?
मैं बहुत संवेदनशील हूं. मेरा आबसर्वेशन भी बहुत सशक्त और सूक्ष्म है. मनोविज्ञान मेरा प्रिय विषय रहा है. मैं चीज़ों को बहुत शिद्दत से देखती, महसूस करती हूं. मेरी कई कहनियों में आपको पात्रों का जटिल मनोवैज्ञानिक विश्लेषण मिल जायेगा.
मुझे लगता है एक लेखक में दूसरों को समझने और परखने की सूक्ष्म दृष्टि और संवेदना होनी चाहिये. वर्ना वह काया प्रवेश कैसे करेगा, कैसे अपने पात्रों को विश्वसनीय ढंग से प्रस्तुत करेगा, उनका चरित्र चित्रण करेगा? साहित्य तो जन-जन के मन की बात कहता है. यदि लेखक सबके मन को, चरित्र को समझेगा नहीं तो उन पर लिखेगा कैसे.
मैंने सिर्फ पुरुषों की तरफ से नहीं लिखा. एक सात साल की बच्ची की हैसियत से, एक बूढे, बूढ़ी, आतंकवादी, लम्पट, मरती हुई स्त्री, किशोरी, यहां तक कि एक पत्थर और कुत्ते की तरफ से भी कहानी लिखी है. ऐसा तो सैकड़ों शब्दकर्मी ना जाने कब से करते आ रहे हैं. इसमें अनोखा या नया तो कुछ भी नहीं! यदि एक लेखक दूसरे को ना समझे या काया प्रवेश ना कर सके तो फिर सिर्फ अपने ही बारे में लिख सकेगा, किसी और के बारे में या हैसियत से नहीं. रही बात विशेषज्ञता कि तो ऐसा तो नहीं है कि अगर कोई चलीस चोरों पर कहानी लिखे तो हम उसे चोरों का सरदार अली बाबा मान लें.
आपकीकहानियोंमेंवंचिततबकोंकादुःख-दर्दबहुतमुखरतासेसामनेआताहै. 'सूअरकाछौना'जैसीकहानियाँपाठक कीअत्यंतकोमलसंवेदनाओंकोएकआवेगसेझकझोरतीहैऔरउसेद्रवितकरतीहै.आपनेअपनेआत्मकथ्यमेंभीइसकाहवालादियाहैकिआपअपनेलेखनकेमाध्यमसेबेजुबानोंकोजुबानदेनाचाहतीहै. बहरहाल, वामिकजौनपुरीसाहबकाएकशेरहैकि :"बातकरतेहैंग़म-नसीबोंकी/औरबैठेहैंशहनशीनोंमें."आपवाकिफहोंगीकिवर्तमानसाहित्यमेंविमर्शकीएकधाराहै,जिसकेअनुसारयथार्थकेप्रमाणिकचित्रणकासीधासंबंधउसयथार्थकोजीनेयाभोगनेसेहैऔरबाक़ीकेसभीयथार्थनकलीहैं.आपकीक्यारायहैइसबारेमें?
आपके इस प्रश्न में ही एक तरह का पूर्वाग्रह है. आप पहले से ही यह मान बैठे हैं कि जयश्री भी "बैठे हैं शहंशीनों मे.’ मैंने जीवन को बहुत क़रीब से देखा है और हर रंग, रुप और तेवर में देखा है. जितनी खुशियां भोगी है उससे कहीं ज़्यादा दुख झेले हैं. ज़िन्दगी के अब तक के जिये साल हर मौसम से गुज़रे हैं- गर्मी, सर्दी, बरसात... आज मैं इसे अपना सौभाग्य ही मानती हूं कि मेरा अनुभव जगत इतना व्यापक-विस्तृत है. कुछ रचनायें तो पूरी तरह काल्पनिक है मगर बहुत-सी यथार्थ और अनुभव पर आधारित है. यानी आंखिन देखी.
Image may be NSFW.
Clik here to view.
फिर मैं इस बात को भी स्वीकार नहीं करती कि सिर्फ भोगा हुआ यथार्थ का ही प्रामाणिक चित्रण संभव है. ऐसा होता तो आज विश्व का अधिकांश साहित्य असफल साबित होता. एक सच्चे रचनाकार के ह्रदय में सारी दुनिया समाई होती है. वह अपनी पीड़ा, दुख-सुख के साथ दूसरों की भावनाओं और अनुभवों के प्रति समान रुप से संवेदनशील होता है. यह बहुत ख़ुशी की बात है कि युगों से समाज के हाशिये में धकेले हुये वंचित लोग आज अपना भोगा हुआ यथार्थ, दुख-दर्द स्वयं कहने में सक्षम हैं, वे लिख रहे हैं और बहुत उम्दा लिख रहे हैं. मगर जिस दिन वे अज्ञान के अंधकार में थे, शोषित, वंचित और लाचार थे, उस दिन भी सैकड़ों सहृदयों ने उनके बारे में लिखा, उनके मौन को वाणी दी, उनके हक़ में श्रेष्ठ साहित्य की रचना की. वंकिम, टैगोर, प्रेमचंद जैसे रचनाकारों की रचनाओं को याद कीजिये. उन्हें आप सिर्फ इसलिये नहीं नकार सकते कि वे तथाकथित ऊंची जाति या ऊंचे तबके से सम्बन्ध रखते थे. एक रचनाकार को रचनाकार ही रहने दीजिये, उसे जात-पात, ऊंच-नीच के दायरे में सीमित करके उसकी संवेदना और मानवता के प्रति सच्ची आस्ता और प्रतिबद्धता को कठघरे में खड़ा मत कीजिये. जब भी और जिसने भी सर्वहारा के पक्ष में लिखा अपने वर्ग और समाज के विरोध में जा कर लिखा. आज अगर मै समाज के तलछट मे पड़े हुये लोगों की कहानी लिख रही हूं तो इसलिये कि मैं इसे अपना दायित्व और धर्म समझती हूं. यह मेरी कोई मजबूरी तो है नहीं. पेज थ्री टाइप की रचनाये तो मैं भी लिख सकती हूं, नहीं?
Clik here to view.
.jpg)
आपकीकुछकहानियाँजैसे'अपनापता','एकरात'.'औरतजोनदीहै',इत्यादिमेंवैचारिकीकहानीपरभारीपड़तीदिखतीहै. हालांकिकईमशहूरकथाकारोंनेकहानीकीइसीशैलीकोअपनायाहै,लेकिनइससेइनकारनहींकियाजासकताकिवैचारिकीपरज्यादातवज्जोदेनेसेकहानीबोझिलऔरउबाऊहोजातीहै.विचारतोलेख,निबंधकेज़रियेभीव्यक्तकियेजासकतेहैंकिन्तुकहानीमेंकहानीकाहोनातोज़रूरीहैन! कहानीकिसीआलेखसेपृथकभीइसीअर्थमेंहोतीहैकियहमस्तिष्ककेसाथ-साथह्रदयकोभीछूतीहै.आपका अपनीइनविचार-प्रधानकहानियोंकेविषयमेंक्याकहनाहै?
आपका यह कहना एक हद तक सही हो सकता है. मगर एक लेखक के लिये तो यही चुनौती है कि वह एक विचार प्रधान कहानी को भी रोचक और पठनीय बनाये रखे और उसकी कहानी को भी सुरक्षित रखे. यह लिखने के कौशल पर है कि कैसे लेखक अपनी रचना को विचारों के बोझ से बोझिल न होने दे. कहानी में लेखक के विचार उसके दृश्य, संवाद, वर्णन- सभी के ज़रिये व्यक्त होते हैं. कभी संवाद उबाऊ हो सकता है, कभी द्रुश्य तो कभी भाषा और शैली भी. कहने का तात्पर्य यह कि यदि लेखक योग्य है तो वह अपनी हर तरह की कहानी को रोचक और पठनीय बना सकता है. जिन कहानियों का नाम आपने लिया है उनमें विचार के साथ-साथ पर्याप्त मात्रा में संवेदना है और घटना तथा संवाद भी. ’एक रात’ में तो निरंतर संवाद के ज़रिये विचार व्यक्त हुये हैं और ’अपना पता’ तो विचार से ज़्यादा अनुभूति है. कथा नायक की सोच में उसका हृदय ज़्यादा हावी है, विचार नहीं. कहानी की कहानी को एक सार्थक कहानी बनाने के लिये इसमें विभिन्न माध्यमों से व्यक्त विचार भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं. यह ज़रुरी है, मगर इसकी मात्रा सही हो और सही ढंग से इसका इस्तेमाल हुआ हो.
आपकीतमामकहानियाँसिरेसेदुखांतहैं.बल्किउन्हेंनिराशाजनकभीकहाजासकताहै.रचनाकोयदिजीवनकाप्रतिरूपमानाजायेतोजीवनतोनैराश्यऔरउत्साहकाएकचक्रहै..आपपरिधिकीएकबिंदुपरहीक्योंस्थिरहैं?
सच बात है कि जीवन में नैराश्य भी होता है और उत्साह भी. लेकिन हमेशा समान अनुपात में नहीं. यह बात विशेष कर हमारे देश और समाज के संदर्भ में कहा जा सकता है. हर विषय को रचना में स्थान मिले लेकिन बरीयता बहुजन के जीवन-यथार्थ को मिले और आप जब इन बहुजन की कहानी लिखने बैठते हैं तो आपके पास कहने के लिये इनके अपार दुख और मुट्ठी भर सुख ही होता है. कहां से लाऊं रोशनी, खुशी उम्मीद की बातें जो इनके जीवन में ना के बराबर है. इन काले यथार्थ के अतल गह्वर में एक सर्जक के नाते मैं अपनी ओर से छींट भर रंग, चुटकी भर उजाला घोल सकती हूं. इससे ज़्यादा क्या. ख़ुशी, उम्मीद, सपने शून्य में पैदा नहीं हो सकते. इन्हें एक ठोस आधार चाहिये होता है. मेरे हाथ में क़लम है, लिखने को कुछ भी लिख दूं. पल में हवाई महल खड़ा कर दूं, दुष्टों का नाश कर दूं, लाटरी लगवा दूं... मगर जीवन की समस्याओं का ऐसा सरलीकृत हल देना सही होगा क्या? समाधान सहज-स्वभाविक प्रतीत हो, संभव लगे, तर्कपूर्ण हो. मेरी कहानियों के विषय ज़्यादातर जीवन के बीचो-बीच से उठाये गये हैं, जीवन की तरह ही इनकी एक अपनी दिशा और गति है. इसे मैं सरपट भगा नहीं सकती, ना रेडिमेड सॉल्युशन और छद्म खुशी दे कर पाठकों को भरमा सकती हूं. हां, असीम दुख और गहरी निराशा में भी स्याह बादल के रुपहले कोने की तरह मैं अपने पात्रों में लड़ने, गिर कर भी बार-बार उठने और हतोत्साह ना होने का जज्बा और जीवन के प्रति आस्था और जिजीविषा दिखाने का जहां तक संभव होता है प्रयत्न ज़रुर करती हूं. मगर मेरे पात्र हाड़-मांस के साधारण मनुष्य होते है जिन में उतनी ही अच्छाई-बुराई और कमियां होती हैं जितना की एक आम इंसान में हो सकती है. तो ज़रुरी नहीं कि ये आम लोग किसी महा नायक की तरह हर हाल में अदम्य उत्साह से भरे रहे, कभी हारे ना, निराश ना हो. ये उठते हैं, गिरते हैं, कभी विजयी होते हैं तो कभी हारते भी हैं. दुख होता है तो रोते हैं और ज़िन्दगी से कुछ लम्हें खुशियों के चुरा कर गा भी लेते हैं. जीवन ऐसा ही होता है और कहानियों में प्रतिबिम्बित इसका रुप भी कुछ ऐसा ही. झूठी उम्मीद से खुद को बहलाने के पलायनवादी प्रवृति से बेहतर है जीवन की कड़वी सच्चाई को स्वीकार कर उसका सामना करना. इसे निराशावाद कहना उचित नहीं होगा.
आपकी कहानियों से गुजरने के बाद पाठक खुद को एक जबर्दस्त सम्मोहन में पाता है। सम्मोहन के इस क्रम में आपकी भाषा,कहानी के जीवंत दृश्य,बिम्ब,प्रतीक सब देर तक याद आते हैं. लेकिन यही बात मैं आपकी कहानियों के चरित्र को लेकर नहीं कह सकता. आपकी कहानियों में चरित्रों का विकास क्यों नहीं दिखता?
चरित्रों का विकास कोई अनिवार्य शर्त होता है क्या. यह तो विषय सापेक्ष मुद्दा है. यदि मेरी कहानी का मुख्य चरित्र ही कोई कुएं का मेढक है तो मुझे तो उसकी कूप-मंडुकता वाली प्रवृति पर ही प्रकाश डालना है. उसके चरित्र के अभावत्मक पक्ष को ही उजागर करना है ताकि लोग उसे समझ कर उससे स्वयं को सचेत कर सके, उसकी तरह न बनने की प्रेरणा पा सके. सिर्फ विकासशील चरित्र से ही लोग प्रभावित नहीं होते, निगेटिव चरित्रों से भी उनकी तरह ना बनने का संदेश ग्रहण करते हैं.
मेरी कहानियों का कोई पात्र याद रखने लायक नहीं यह हर पाठक की राय नहीं हो सकती. ’औरत जो नदी है’ की दामिनी, ’खारा पानी’ का देवा, ’हव्वा की बेटी’ की राहिला... ऐसे और कई पात्र जिनका समय और परिस्थितियों के साथ चारित्रिक विकास होता है और वक्त आने पर ये अपने-अपने तरिके से बहुत सशक्त ढंग से व्यवस्था, समाज और रुढ़ियों से टकराते भी हैं और अपना विरोध भी दर्ज़ करवाते हैं. हर जगह अगर ये विकास बहुत झटके या शोर-गुल के साथ ना भी आया हो तो इसके सूक्ष्म संकेत तो मिलते ही हैं. उदाहरण के लिये ’पिंजरा’ की कथा नायिका सूजा जो जीवन भर तो उपेक्षा, अपमान और अकेलेपन का दंश एक कमज़ोर औरत की तरह चुपचाप झेलती है, कभी घर की देहलीज नहीं लांघ पाती लेकिन कथा के अंत तक आते-आते एक पंछी को उसका पिंजरा खोल कर आज़ाद ज़रुर कर देती है. यह उसके व्यक्तित्व के विकास का सूक्ष्म संकेत है. बदलाव ऐसे ही धीरे मगर सधे पांव आता है. उसके लिये हर रोज़ कोई बड़ी क्रांति हो यह न ज़रुरी है ना स्वाभाविक.
दरअसलआपकीकहानियोंमेंदेहऔरसेक्सउसीमहत्ताकेसाथमौजूदहै,जैसावहवस्तुतःजीवनमेंहै.आपउसेनतोअनदेखाकरतीहैंऔरनहीउसकेइर्द-गिर्दकोईपाखंडरचतीहै. मुझेलगताहैकियहअंततःदेह,उससेजुड़ेओबसेशन,औरस्त्री-पुरुषकेमनकेधूसरगलियारोंमेंभटकते-भागतेहुएमुक्तिकाकोईझरोखा,कोईविंडोतलाशनेकीहीकोशिशहै.मगरइसकोशिशकेसाथखतरायहहैकिआपकेलेखनकोअश्लीलठहराएजानेजैसेफतवेऔरएकतरफ़ाआक्षेपआपकेहिस्सेआसकताहै. आपअपनी ,अगरकहेंतोइस'डेयरडेविल्री', कामूल्याङ्कनकैसेकरतीहैं?
सेक्स नैसर्गिक है, मनुष्य के लिये ना सही, मनुष्य जाति या यूं कहें प्राणी जगत के बने रहने के लिये अनिवार्य है. जठर अग्नि की तरह ही देह-मन की यह अग्नि सनातन है. इसका अपना सौंदर्य, औचित्य और आवश्यकता है. इसके महत्त्व और तरल अस्तित्व को हम नकार नहीं सकते. मगर जाने क्यों इसके प्रति हमारे समाज में इतनी कुंठा, ग्रंथि और अपराध बोध क्यों है. क्यों इसे एक स्वस्थ, स्वभाविक जैविक प्रक्रिया की तरह लेने के बजाय एक हौवा में तब्दील कर दिया गया है. पाप और अपराध बना दिया गया है. और यह इस देश और समाज के दोहरे चरित्र का सबसे बड़ा प्रमाण है. यहां सेक्स का चोर बाज़ार है, यह ब्लैक मनी की तरह है या यूं कहें कोढ़ जैसी कोई भयानक बीमारी है जिसे सबसे छिपाना पड़ता है. अपनी सेक्सुआलिटी को लेकर सभी शर्मिंदा हैं, त्रस्त हैं, डिफेंसिव और अपोलोजिस्ट हैं.
जबकि आवरण के नीचे की सच्चाई कुछ और है. आंकड़े बताते हैं इस देश में वेश्या गमन सबसे अधिक होता है. वह भी विवाहित पुरुषों के द्वारा. एशिया का सबसे बड़ा रेड लाइट एरिया भी यही है. एडस, बलात्कार, शिशु यौन शोषण, देह व्यापार, पोर्न फिल्म, पोर्न साहित्य का यह सबसे बड़ा बाज़ार है. और यह शायद इसलिये हुआ है कि हम हमेशा नकार में जीते हैं, झूठ और ढोंग का दोहरा चरित्र अपनाते हैं! इस झूठ के दलदल में विकृतियां जन्म लेती हैं, अपराध पनपते हैं, रुग्ण मानसिकता विकसित होती है...
विडम्बना देखिये कि अपने बच्चों के लिये सेक्स एडुकेशन की बात तो दूर, वयस्कों के साहित्य में भी इसका उल्लेख वर्जित मानते है. जो लोग नेट में रात-दिन पोर्न साइट्स की खाक छानते हैं, गंदी फिल्में देखते हैं, रजाई के नीचे छिप कर हॉट तस्वीरें देखते हैं और फोन पर पैसे दे कर गंदे जोक्स मंगवाते हैं वही दिन के उजाले में सेक्स शब्द से ऐसे बिदकते हैं जैसे यह कोई महापाप या गलीज बीमारी हो. बात-बात पर इनकी कामसूत्र और कोकशास्त्र वाली महान संस्कृति और साहित्य खतरे में पड़ जाती है. यहां बस झूठ को लिखना है, झूठ को पढ़ना है और झूठ ही जीना है. जो होगा वह पर्दे के पीछे होगा. सच पूरा समाज इस संदर्भ में अन्दर ही अन्दर सड़ रहा है, गल रहा है, गंधा रहा है.
मेरी किसी रचना का प्रतिपाद्य सेक्स नहीं है. हम देह से पशु हो सकते हैं मगर हृदय या मस्तिष्क से नहीं. इसलिये पशुवत वासना कभी मेरी किसी रचना का विषय नहीं है. सेक्स खूबसूरत है मगर तभी तक जब तक वह प्रेम की दैहिक अभिव्यक्ति है. इस से इतर यह बस हवस बन कर रह जाता है जो बनैला और आदिम है. उस में हमारी संवेदना, प्रेम, मनुष्यता का नितांत अभाव होता है. सनसनी, सस्ती लोकप्रियता और छपास की भूख के लिये मैंने ऐसा कभी कुछ नहीं लिखा है.
Image may be NSFW.
Clik here to view.
मेरा सरोकाए हर उस विषय से है जो जीवन-जगत को किसी ना किसी रुप में प्रभावित करता है. देह के स्तर पर स्त्री का शायद सबसे अधिक शोषण और दोहन हुआ है. एक तरह से देह ही उसका पिंजरा है. अपनी ही देह के कारागार में वह सदियों से क़ैद है. दूसरी चीज़ों पर तो छोडिये, अपने शरीर पर भी उसका अधिकार नहीं. स्त्री अपनी देह, अपना सम्मान, अपना स्व वापस चाहती है. जो जीवन उसका है, उस पर अपना अधिकार वापस चाहती है. स्त्री स्वतंत्रता की बात उठते ही यह सामंती समाज यह सोच कर त्रस्त हो उठता है कि स्त्री देह की यानी सेक्स की आज़ादी चाहती है. मन आज़ाद हो, रुह आज़ाद हो, विचार आज़ाद हो- कोई बात नहीं. मगर देह!... कभी नहीं! उनके लिये स्त्री बस एक देह है. आज की स्त्री सेक्स की आज़ादी नहीं, बल्कि यह चाहती है कि उससे पशुवत व्यवहार ना किया जाय. उससे उसकी मर्ज़ी पूछी जाय, उसकी हां-ना का सम्मान हो, उसकी देह, जीवन पर उसका अधिकार हो. वह चुन सके, नकार सके, अपनी बात कह सके... उसे सुना जाय, समझा जाय. वह निर्णय लेना चाहती है, महसूस करना चाहती है अपने होने को. स्त्री विमर्श की इन्हीं बातों को सामने रखने के लिये मैंने दो-तीन कहानियां लिखी थी. कुछ लोगों ने इन ज्वलंत मुद्दों को, विचारों को तो अपनी सुविधानुसार अनदेखा कर दिया और दो-चार शब्दों को पकड़ कर बैठ गये. उन्हें यह नहीं देखना यह किस उद्देश्य से, किस संदर्भ में, कथा पात्र की किस मन:स्थिति या परिस्थिति विशेष में लिखा गया. उन्हें आपत्ति है तो इस बात से कि एक स्त्री हो कर इसने ऐसे वर्जित विषय पर मुंह खोलने की हिम्मत कैसे की. यहां सहना, चुप रहना ही मर्यादा है, गरिमा है.
Clik here to view.
.jpg)
मैंने अब तक पचास के क़रीब कहानियां लिखी, चार उपन्यास लिखे, कवितायें, लघु कथायें लिखी. हर तरह के विषय को उठाया. मगर मुझे हैरत यह देख कर होती है कि सुधी जनों की दृष्टि उनकी तरफ नहीं उठती. मक्खी की तरह वे उन्हीं तथा कथित दो-तीन सेक्स की कहानियों पर सालों से बैठे हुये हैं. हम ने एक विमर्श की तरह जिसे ज़रुरी समझा उसे लिखा और आगे बढ़ लिये. अब ये लोग भी आगे बढ़े!
इस संदर्भ में एक आख़िरी बात, मुझ पर कोई अश्लीलता का आरोप लगाये तो मुझे उसकी सोच पर दया ही आयेगी. मैंने जो भी लिखा है बहुत सुंदर और कलात्मक ढंग से लिखा है. शब्द, भाषा और अभिव्यक्ति के मामले में मैं बहुत सतर्क और संवेदनशील हूं.
दुस्साहस मैं नहीं करती, मगर हां, एक नैतिक और सत साहस मुझ में अवश्य है. जो मैं लिखती हूं पूरे कॉनविकशन के साथ लिखती हूं और अपने लेखन के साथ पूरी जिम्मेदारी के साथ खड़ी होती हूं. मैंने कभी कुछ ऐसा नहीं लिखा जिसके लिये मुझे शर्मिंदा होना पड़े.
एकरचनाकारकीसहानुभूतिज़ाहिरतौरपरव्यस्थाकेबजायेव्यवस्थाकेशिकारलोगोंकेप्रतिज्यादाहोतीहै .लेकिनआपकीकहानियोंमेंचाहे वहपितृसत्ताहोयापूंजीवादीतंत्र,उनकेखिलाफआक्रोशकाएकज़ोरदारअंडरकरेंटहै..जो आपकोपढ़तेहुएबार-बारमहसूसहोताहै. बहरहाल.एकरचनाकारकेलिएआक्रोशकीमनोदशाइसलिएअच्छीनहींकिफिरपरिस्थितियोंकेसाधारणीकरणऔरउससेउपजनेवालेपूर्वाग्रहकाअंदेशापैदाहोजाताहै.उदाहरणकेतौरपरआपकायहआक्रोश कहानीकाउचितसन्देशछोड़नेकेलिए'आदमीकाबच्चा'जैसीकहानीमेंकमज़ोरनाटकीयताकासहारालेनेकोविवशकरताहै. उसीतरह'हव्वाकीबेटी'कहानीमेंभीपर्याप्तगहराईकीकमीखलतीहै..तोक्याआपके पाठकयहउम्मीदकरेंकिवक़्तकेसाथआपकायहआक्रोशएकसकारात्मकसृजनात्मकअसंतोषमेंतब्दीलहोगाजोराजनीतिऔरसमाजकेगंभीरसवालोंपरउसीगंभीरतासेचिंतनकरेगाजिसकीउन्हेंदरकारहै?
जीवन और इसके यथार्थ अक़्सर नाटक से अधिक नाटकीय होते हैं. कई बार कहानी में कोई यथार्थ में घटी घटना या प्रसंग को उद्धृत करते हुये मुझे सायास उसे थोड़ा माइल्ड करना पड़ा है अन्यथा वह बहुत नाटकीय बन पड़ेगा. जिन कहानियों का आप उल्लेख कर रहे हैं उन में यदि किसी को परिस्थितियों का साधारणीकरण और पूर्वाग्रह दिखता है, कमज़ोर नाटकीयता तथा गहराई की कमी खलती है तो मैं कहूंगी उसने ज़िन्दगी को बहुत क़रीब या गहराई से जाना ही नहीं. एक संवेदनशील मनुष्य अपने आसपास इन चीज़ों को बड़ी आसानी से घटते हुए देख सकता है. अधिकतर कहानियां इसी जीवन से उठाई गयी हैं. विषय वस्तु भी कमोबेश वही होते हैं. उदाहरण के लिये मैं एक घटना का ज़िक्र करना चाहूंगी. बिहार में जब मैं बहुत छोटी थी और शिशु मंदिर में पढ़ती थी, एक दिन स्कूल जाते हुये मैंने रास्ते के किनारे एक जोड़े को देखा था जो विलाप करते हुये आते-जाते लोगों से अपने मृत बच्चे के क्रिया कर्म के लिये भीख मांग रहा था. एक फटी साड़ी में लिपटा बच्चे का शव, उसके आग बिखरे चंद सिक्के, बच्चे की मां का बिलख-बिलख कर रोना... सब कुछ मेरी स्मृतियों में जस के तस रह गया है. यह तो बहुत बाद में पता चला कि ऐसे नाटक कर के बहुत से लोग कोई लोगों को ठगते हैं. धर्म के नाम पर, खाप पंचायत के फैसले पर, मुल्लों के फतवे पर आये दिन ऑनर किलिंग को अंजाम दिया जाता है, मासूमों, मजलूमों की जान ली जाती है. यदि साहित्य समाज का वास्तव में दर्पण है तो वह यथार्थ को ही प्रतिबिम्बित करता है जो असंभव प्रतीत हो सकता है मगर होता नहीं है.
गर रचना को कोई चीज़ मौलिक, अलग और ख़ास बनाती है तो वह है लेखक की अन्तर्दृष्टि, विषय के प्रति उसका अप्रोच, ट्रीटमेंट, नज़रिया और प्रस्तुतीकरण.
मैं यह स्वीकार करती हूं कि एक अंधा आक्रोश कहानी को हल्की और सतही बना सकता है. मगर यह भी सच है कि जब तक लेखक अपनी कहानी और उसके पात्रों को उनके सुख-दुख और तमाम संवेदनाओं के साथ जी नहीं लेता, उन्हें आत्मसात नहीं कर लेता वह उनकी सशक्त पुनर्रचना नहीं कर पाता. मैंने जीवन और जगत को प्रभावित करने वाले तमाम प्रश्नों को हमेशा ही बहुत गंभीरता से लिया है और संजिदगी से उन पर चिंतन भी क्या है. एक पाठक अगर मेरी इन कहानियों का अध्ययन मनोयोग से करे तो मुझे पूरी उम्मीद है कि उसे यह बात समझ में आयेगी और उसकी शंका या शिकायत दूर हो जायेगी. वैसे आख़िरी फैसला तो पाठक को ही करना है कि एक सर्जक अपनी क़ोशिश में सफल हुआ है या नहीं. रचना में कमियां हो ही सकती हैं और उनके संशोधन की गुंजाइश भी बनी रहती है.
अंतिमसवालमेंमैंआपसेयहजाननाचाहूँगाकिआपअपनीज़ातीज़िन्दगीमेंएकबेहदकष्टसाध्यऔरदुर्दम्यबीमारीसेनिकलकेआईहैं. ऐसीविभीषिकाओंसेगुजरनेकेबादइंसानयातोबहुतनर्म-दिलहोजाताहैयापर-पीड़क. ब्रेस्टकैंसरनेएकइंसानकेरूपमेंआपकीसंवेदनाओंकोकिसप्रकारछुआहै?
आपके अंतिम सवाल के जवाब देते हुये शायद मैं आपको निराश कर दूं. कैंसर ने संवेदना के स्तर पर मुझे ज़रा भी छुआ या प्रभावित नहीं किया है. मेरे लिये यह ऐसा ही था जैसे सर्दी-खांसी का होना. मैं अपनी इस प्रतिक्रिया को एक्सप्लेन नहीं कर पाऊंगी. यह सब को बहुत अस्वाभाविक प्रतीत हो सकता है. शारीरिक स्तर पर मुझे बहुत तकलीफ हुई मगर उनकी मैंने कभी परवाह नहीं की. मैं दर्द से लड़ती नहीं, उसे अपना बना लेती हूं. जब कोई चीज़ आपके जीवन का हिस्सा बन जाती है तब कितनी ही कष्ट प्रद हो, सह जाती है.
Image may be NSFW.
Clik here to view.![]()
मै अपने अब तक के जीवन में इतने सारे हादसों, संघर्ष और दुख से गुज़र चुकी हूं कि यदि उन्हें कभी किसी कहानी में लिख दूं तो फिर से मुझ पर परिस्थितियों के साधारणीकरण, नाटकीयता और गहराई की कमी का आरोप लग जायेगा. जैसा कि मैंने कहा--जीवन के यथार्थ फिकशन से भी अधिक नाटकीय होते हैं.
Image may be NSFW.
Clik here to view.

मै अपने अब तक के जीवन में इतने सारे हादसों, संघर्ष और दुख से गुज़र चुकी हूं कि यदि उन्हें कभी किसी कहानी में लिख दूं तो फिर से मुझ पर परिस्थितियों के साधारणीकरण, नाटकीयता और गहराई की कमी का आरोप लग जायेगा. जैसा कि मैंने कहा--जीवन के यथार्थ फिकशन से भी अधिक नाटकीय होते हैं.
________________
बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित अर्य संदेश के विशेषांक (अतिथि संपादन- राकेश बिहारी) में भी यह साक्षात्कार आप पढ़ सकते हैं. आभार के साथ.
बिहार और झारखंड मूल की स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित अर्य संदेश के विशेषांक (अतिथि संपादन- राकेश बिहारी) में भी यह साक्षात्कार आप पढ़ सकते हैं. आभार के साथ.
सौरभ शेखर
युवा समीक्षक और कवि/ saurabhshekhar7@gmai