आनंद गुप्ता की कविताएं
प्रेम में पडी़ लड़की
वह सारी रात आकाश बुहारती रही
उसका दुपट्टा तारों से भर गया
टेढे़ चाँद को तो उसने
अपने जूडे़ में खोंस लिया
खिलखिलाती हुई वह
रात भर हरसिंगार सी झरी
नदी के पास
वह नदी के साथ बहती रही
इच्छाओं के झरने तले
नहाती रही खूब-खूब
बादलों पर चढ़ कर
वह काट आई आकाश के चक्कर
बारिश की बूंदों को तो सुंदर सपने की तरह
उसने अपनी आँखों में भर लिया
आईने में आज
वह सबसे सुंदर दिखी
उसके हृदय के सारे बंद पन्ने खुलकर
सेमल के फाहे की तरह उड़ने लगे
रोटियाँ सेंकती हुई
कई बार जले उसके हाथ
उसने आज
आग से लड़ना सीख लिया.
प्रेम में रेत होना
रेत की देह पर
नदी की असंख्य प्रेम कहानियाँ है
नदी पत्थर को छूती है
पत्थर काँपता है
एक पैर पीछे करता है
और बिना कुछ सोचे
नदी को चूमता है
नदी उसका आलिंगन करती है
पत्थर उतरता है धीरे-धीरे
नदी के दिल में
गहरे और गहरे
नदी के साथ प्रेम क्रीड़ा करता हुआ
पत्थर बहता है नदी के साथ
पत्थर मदहोश हो
टकराता है पत्थरों से
टूटता है पिघलता है
और रेत बन जाता है
प्रेम में
हर पत्थर,हर चट्टान को
अंततः रेत होना होता है
जिस पर बच्चे खेलते हैं
जिस पर पर एक प्रेमी लिखता है
अपनी प्रेमिका का नाम
जिससे घर बनते है.
सावन का प्रेम पत्र
मानसूनी हवाओं की प्रेम अग्नि से
कतरा-कतरा पिघल रहा है आकाश
सावन वह स्याही है
आकाश जिससे लिखता है
धरती को प्रेम पत्र
मेरे असंख्य पत्र जमा है
तुम्हारी स्मृतियों के पिटारे में
शालिक पंक्षी का एक जोड़ा डाकिया बन
जिसे हर रोज
छत की मुंडेर पर तुम्हे सौंपता है
जिसे पढ़ न लो गर
तुम दिन भर रहती हो उदास
तुम्हारी आँखें निहारती रहती है आकाश
ओ सावन!
तुम इस बार लिख दो न
धरती के सीने पर असंख्य प्रेम पत्र
हर लो
अपने प्रियजनों के चेहरे पर फैली गहरी उदासी
ओ सावन!
कुछ ऐसे बरसो
कि किसी पेड़ से न टंगा मिले कोई किसान.
तुम्हारा प्रेम
तुम्हारा प्रेम बारिश की बूँदें है
कल सारी रात बरसता रहा आकाश
मैं एक पेड़ बन भींगता रहा
तुम मेरी जड़ों में घुलती रही रात भर
देखो न तुम्हारी छुअन से
पत्ती-पत्ती,डाल-डाल,फूल-फूल
दूर तक फैले घास
झिलमिला रहा है सब कुछ
बारिश से धुल कर सुबह की धूप
तुम्हारी कोमल हँसी की तरह पवित्र बन
मेरे चेहरे पर गिरती है
मेरे अंदर खिल उठते हैं कई-कई कमल
तुम खिड़कियों से दूर बहती
हुगली नदी सा उद्दाम
इस वक्त बह रही हो मेरी नसों में
मेरा हृदय वह सागर जहाँ तुम्हें उतरना है
बंगाल की खाड़ी से उठती
मानसूनी हवाओं की नमी
तुम्हारे बालो को भिंगोती
तुम्हारी आँखों में उतर आई है इस वक्त
इस वक्त तुम्हारी आँखें
पड़ोस का 'मीठा तालाब'हो गई है
जहाँ सदा आकाश बन झिलमिलाता हूँ
जिसे तैर पार किया अनगिनत बार
पर आज न जाने कयूँ
मैं डूबा जा रहा हूँ?
तुम्हें प्यार करते हुए
तुम्हें प्यार करते हुए मैंने एक नदी को प्यार किया
तुम्हें प्यार करते हुए मैंने एक पर्वत को प्यार किया
तुम्हें प्यार करते हुए मैंने एक पेड़ को प्यार किया
तुम्हें प्यार करते हुए मैंने सारा आकाश
समूची धरती को प्यार किया
तुम्हें प्यार करते हुए मैंने पार किए
बीहड़ जंगल, निर्जन रेगिस्तान, दुर्गम घाटियाँ
महादेश और महासागर
आकाशगंगाओं की अनगिनत यात्राएँ की
तुम्हें प्यार करते हुए मैंने जाना
कि एक स्त्री को प्यार करना
नदी, पर्वत, पेड़, समूची धरती
समूचे ब्रह्मांड को प्यार करना होता है.
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आनंद गुप्ता
19 जुलाई 1976, कोलकाता
कलकत्ता विश्वविद्यालय से हिंदी साहित्य में स्नातकोत्तर
गली न. 18, मकान सं.-2/1, मानिकपीर ,पोस्ट – कांकिनारा, उत्तर 24 परगना ,
पश्चिम बंगाल - 743126
मोबाइल - 09339487500
ईमेल पता – anandgupta19776@gmail.com