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त(लाश) : पीयूष दईया

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जो अ-रीति है, अ-पारम्परिक है, नवोन्मेष है वह रीति की आरोपित बाध्यता पर चोट है, इस आघात से बोध और सौन्दर्य के विस्तार का रास्ता निकलता है.

कवि-संपादक पीयूष दईयासाहित्य के साथ इतर कलाओं से भी सुमुख होते रहें हैं. उनका नया कविता संग्रह ‘त(लाश)’ राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित हो रहा है. उनकी कविताओं में भाषा की सर्जनात्मकता का अगला पड़ाव दीखता है. लगभग ८० वर्षों से हिंदी कविता का जो ढांचा तैयार हुआ है जो कमोबेश अभी भी वैसा ही है उसमें कुछ कतर-बयौंत की कोशिश की गयी है. कृष्ण बलदेव वैद के शब्दों में ‘संश्लिष्ट संवेदना’ और ‘संक्षिप्त संरचना’ का सुख है.

यह संग्रह जितना कवि पीयूष दईया का है उतना ही प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश का भी. आवरण तो उन्होंने तैयार किया ही है इसमें उनके रेखांकन भी शामिल हैं.


इस अंक में कविता के साथ कुछ रेखाकंन भी दिये जा रहें हैं. यह ख़ास अंक आपके लिये.  




प्रिय पीयूष,

यह तुम्हारी कविता-पुस्तक, ''त(लाश),''का आमुख है जो मैं तुम्हारे नाम एक पत्र के बहाने या भेस में तुम्हारे पाठकों को भेज रहा हूँ क्योंकि उनका अता-पता मुझे मालूम नहीं और वैसे भी मैंने हमेशा बतौर लेखक अपने या किसी और के 'प्रिय पाठक'या पाठक वर्ग को सीधे संबोधित करने की दीदा-दिलेरी या भूल अभी तक कम ही की है. इस आमुख में मैं तुम्हें संबोधित तो कर रहा हूँ लेकिन मेरी ख्वाहिश यही है कि मैं तुम्हें भी शीघ्र ही भूल जाऊं और ऐसे बोलने या लिखने लगूं जैसे कोई सयाना पागल एक-आलाप बोल या लिख रहा हो.

इस कविता पुस्तक की जान, हर उत्कृष्ट कविता-पुस्तक की तरह, इसकी भाषा और भाषा-संयोजन में है. यूं तो भाषा सारे साहित्य का एक ऐसा अंग होती है जिसकी कलात्मक शक्ति और विशिष्टता के बग़ैर वह साहित्य कहला ही नहीं सकता, लेकिन कविता उसकी सब विधाओं में से सब से अधिक भाषा और भाषा-संयोजन पर निर्धारित है. यह संकेत हमें इसके शीर्षक का श्लेष भी देता है और इसकी कविताओं का भाषा-खेल भी. इस पुस्तक की सारी कविताओं पर तलाश और लाश हावी हैं--जीव अजीव की तलाश में है, अजीव जीव की; और किसी-किसी कविता में इन दोनों का आपसी भेदभाव मिट जाता महसूस होता है.

यूं तो इस पुस्तक की सब कविताएँ पाठक से यह मांग करती हैं कि उन्हें आराम और ध्यान से कई बार पढ़ा जाए  तभी उनका पूरा आनंद लिया जा सकता है लेकिन कुछ कविताओं में क्योंकि तुम ने प्रयोग सब से अधिक किये हैं इसलिए इनका काठिन्य इनकी सादगी के बावजूद बढ़ गया है; और इनकी यह मांग भी अगर ज़यादा जिद्दी हो गयी हो तो मुझे हैरानी नहीं होगी. मैं ने संग्रह की कविताओं को खुद कई बार पढ़ा है और हर पढ़त में पिछली बार की पढ़त से अधिक आनंद आया है. इस पत्रामुख में यही कि तुम्हारी कविताएँ नवाचारी हैं, मौलिक और आला दर्जे की हैं, उनकी संश्लिष्ट संवेदना और संक्षिप्त संरचना मुझे बेहद पसन्द आयी हैं.

कृष्ण बलदेव वैद    


यामा और अन्य कविताएँ                                



1)

वह अपने को मेरे दिल में छोड़ देती है खोलने के लिए
दूसरी गाँठ से एक पाण्डुलिपि में जहाँ मैं खुलता हूँ

प्रवास में
गोया एक भूला शब्द

खिल आया हो ऐसे यामा में
जिसे वह उचारती है

अपने में तिरोहन के लिए


2)

अँधेरी आँख में वह रचती है मार्ग
अपना पहला अक्षर
---निःशब्द

भीतर है
यामा


3)

जिस एक शब्द में अपने को अक्षर ढाल नहीं सके वह उजागर है जहाँ से एक ही बार देखने के लिये ऐसे पूरा हो रहा है शरीर जैसे आवाज़ में अक़्स उतरना हो यामा का

अपने आप में लौट आती साँस के लिये जो औषधि है
वही एकमात्र रिक्त स्थल है निसर्ग में पहले से

जब आँखें पलट जाने में हों
एक शब्द में


4)

वह एक ईमानदार जवाब सुन सका, अपने समापन के समय जब असली नाम की भूमिका समाप्त हो चुकी है, सभी नक़ाबों के भीतर से

जैसे वह कोई ऐसा लिफ़ाफ़ा हो जिस में कभी इबारत का वास न रहा हो, जिसे किसी ग़ैबी ताक़त ने इसीलिए लिखने से रोक रखा हो ताकि ख़ाली रह सके, आज के अभी आने में जहाँ सारी ज़बानों में ख़ामोश

वह

शब्द पाने के लिए एक क्षण तक की पलकें खोलने में पता न चला सके कि जीवन में चीर कहाँ है क्योंकि होनी के वश में नाता ऐसा लिखा है जो केवल यामा का रचाया हो सकता है
आलाप के रेशों से,

नोंक यदि जानो
तो---


5)

आज कविताएँ संग्रह से अलग हो गयी हैं
जैसे अपना छत्ता छोड़ मधुमक्खियाँ उड़ गयी हों

वे कहाँ गयीं किसी को कुछ नहीं कहा

अब काव्य-पोथी ख़ाली है
अकेले खेलती

अपने नाम से


6)

छान मारा पर सुराग़ नहीं मिला
जिस आँख से देखा उसे फिर एक बार देख लेना चाहिए
जब तक सूझता नहीं तब तक बत्ती जलाये रखना चाहिए
या सब ऊपर छत तक धो डालना चाहिए
या सब सूँघते-साँघते टटोलता ही चलूँ

वहाँ जहाँ से
हर शै गोल है

जो बदल जाय एक ताले में जिस में चाबी घुमा
खोल दे कोई और देख-पा लूँ वही
जो कुछ न हो

मुझ में


7)

पाटी की खड़िया बन शून्य को लिखना है
अपना ही (अ)नाम
निर्बन्ध

कातते हुए अन्तिमाक्षर
तक

जब सारा पूर्वाश्रम गल-सा जाय

भाप समान
वर्णन
में

भासता
अलख आँक से

वही जो गेरुआ है डूबे सूरज का : बैरागी-सा

अपना
अपने से बाहर

लिखते हुए
अपनी पारी में

लिख गया जो पाटी पर अब पोंछा नहीं जा सकता


8)

लिखने में सारी स्याही मेरी कालिख में बदल गयी

ऐसे अछूत हो गया है
प(.)त्र यह

मुझ
से


9)

द्वार के पाखे पर झुका हुआ सरल सिर सलोना
लहलहाता जैसे पूरा खेत पक जाने पर हवा में

दीख जायेगा पाही से



10)

धान की हर पोर में बहता जा रहा पवन
पक्षी की काकलि है : प्रातः
                          में
विभोर

जहाँ यामा नहीं है


11)

यह आभास मिला : उस के लिए कोई तुरुप का पत्ता बना ही नहीं. वह मौनावती है, अगोचर
बनाती मुझे

स्फटिक के एक ही क्षण में
दीठ केवल

उड़ान में पीछे छोड़ देती
जहाँ उच्चारण नहीं है


12)

शरीर के मरुथल में प्यासा वह लटका है मकड़जाल-सा
अपने ही सचराचर में

निरुत्तर
यामा से : देखता
           यही अभी-प्रेत है

इहधाम की मिट्टी का


13)

पूरी हो जायेगी वह : बाहर चले आओ---
यहाँ यवनिका नहीं. अपने हाथों
बुझा दिया दीया है

इ ह धा म
की मिट्टी का


14)

जिस चलचित्र में कभी छलती नहीं
उस रूपकथा के अन्तिम परिच्छेद में
हँसती हुई वह

रोशनी का विलोम है

जिसे तज देना है
काकविष्ठा की तरह

अलम के लिए

(छायाकार : सत्यानन्द निरुपम)
_________________________ 

पीयूष दईया
जन्म : अगस्त १९७२, बीकानेर (राज.)


प्रकाशित-कृतियाँ :

दो कविता-संग्रह, एक काव्य-कथा
और अनुवाद की दो पुस्तकें.
चार चित्रकारों के साथ पुस्तकाकार संवाद.
साहित्य, संस्कृति, विचार, रंगमंच, कला और लोक-विद्या पर एकाग्र पच्चीस से अधिक पुस्तकों और पाँच पत्रिकाओं का सम्पादन.

सम्प्रति : रज़ा फ़ाउण्डेशन की एक परियोजना 'रज़ा पुस्तक माला'से सम्बद्ध.
ई मेल : todaiya@gmail.com

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