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मैं और मेरी कविताएँ (७) : तेजी ग्रोवर

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कविता क्योंउर्फ़और है भी क्या करने को?”

मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है.
-- मार्ग्रीत ड्यूरास



एक)
कभी लगता है इस प्रश्न पर अलग से विचार किया ही नहीं जा सकता कि कविता क्यों लिखता है कोई कवि. कवि अपनी कविता के भीतर ही इस प्रश्न को समाहित किये होता है, और इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर उसके पास कभी नहीं होता. होता तो शायद उसे लिखने की ज़रूरत ही महसूस नहीं होती. फिर भी यह ऐसा प्रश्न है जो उसके सनाभि और सहोदर कवि भी उससे कभी-कभी पूछ सकते है, पूछ लेते हैं. और वह इसके बारे में सोचते-सोचते अपने रास्ते से भटक कर या तो कहीं और ही जा निकलता है, या फिर पुन: अपनी कविता के भीतर ख़ुद को पाता है; इस प्रश्न से मुक्त होकर वहीँ पहुँच जाता है जहाँ उसे या उसके कवि को सबसे अच्छा लगता है. (उसे ख़ुद को कहीं और अच्छा लग सकता है, उसके कवि को कहीं और. वह जिद्दोजेहद करता है कि वे जगहें या वे एहसासात कभी एक हो जाएँ, लेकन वे हो नहीं पाते हैं. इसलिए वह अच्छा लगने के समय भी एक चीथड़े की तरह ही तेज़ हवा में थपेड़े खाता-फिरता है.) चैन उसके हिस्से में बदा ही नहीं है. लेकिन कविता क्यों जैसे प्रश्न से अधिकांश बार उसे लगने लगता है उसकी अपनी कविता में कोई कमी होगी, जिसकी वजह से यह सवाल अलग से उससे पूछ लिया जाता है, या फिर उसकी कविता के पाठक को यह बात समझ में नहीं आ रही कि उसकी कविता ऐसे प्रश्नों के शमन या उनके पाठ में नितान्त घुलनशील होने का साक्ष्य प्रस्तुत कर रही है. क्या वाक़ई किसी को किसी कवि विशेष के बार में ऐसी उत्सुकता होती होगी कि बचपन में ऐसी कौन-सी असाधारण घटनाएँ और परिस्थितियां रही होंगी जिन्होंने उसे कविता लिखने की ओर मोड़ दिया होगा? ज़रूर होती होंगी, और किसी कवि को अन्य कवियों को लेकर तो और भी शिद्दत से होती होंगी. किसी कवि के लिए भी कविता-कर्म उतना ही रहस्यमय है, जितना किसी और के लिए. और वह जिन कवियों से बेपनाह प्रेम करता है, उन्हें भी वह मुँह बाये, आँखें फाड़े ऐसे देखता है जैसे वे कोई अजूबा हों, ठीक वैसे ही जैसे वह खुद उनके लिए होता है जो उसकी कविता से प्रेम करते हैं. 
भले ही हर कवि की परिस्थितियाँ अलग-अलग हों, उसे एक भीतरी अन्याय का आभास किसी वक़्त पर आकर इस कदर सालने लगता है कि दुनिया और उसके बीच एक फांक पैदा हो जाती है. कभी-कभी यह फांक इतने नाटकीय ढंग से कवि के देहात्म पर तारी होती है कि उन क्षणों की शिनाख्त वह कई वर्ष के बाद भी कर सकता है, भले ही उस क्षण को वह उसी वक़्त न पहचान पाए. 
ऐसे कुछ क्षणों की एक मिसाल ज़रूर पेश की जा सकती है. मसलन, उस लड़की के बारे में सोचिए जो हाथ में एक सूखी रोटी लिए छत पर खड़ी है, उसे मालूम है इसी एक रोटी को देर तक चबाते रहकर उसे अपना पेट भरना है. वह कोईमामूलीलड़की नहीं है. उसे अच्छे से समझा दिया गया है कि उसे एक कवि का जीवन जीना है, उसके पास इसके सिवा कोई और चारा नहीं है. जिसने उसे यह समझाया है वह खुद भी एक लेखक है, लेकिन लड़की को अभी यह पता नहीं है कि उसके अब्बू लेखक़ हैं और जो अपने लिखे एक-एक शब्द को लकड़ी की एक पेटी में दफ़ना दिया करते हैं... लड़की का एक कमरे का घर किताबों से भरा पड़ा है, एक फ़ोन भी है, कई रिसाले और अख़बार आते हैं, और उत्कृष्ट संगीत की कमी भी इस घर में कतई नहीं है. अभाव है तो सिर्फ पैसे का और स्पेस का. वह हर शाम स्कूल से लौटकर लाल फ़र्श वाले कमरे को चाक से चार हिस्सों में बांटती है. एक हिस्से में अपना नाम लिखती है, और उसी में बैठी रहती है. इस एक चौथाई घर में हर रोज़ अपनी स्टडी को नए सिरे से बनाती इस लड़की का परिवार उसके जन्म से पहले दो बार शरणार्थी हो चुका है... पहले बर्मा और फिर पाकिस्तान ! पुरखों की शानो-शौक़त के किस्से रोज़ घर में सुनने को मिलते हैं. उसे किताबों और संगीत से भरे हुए घर में मुफ़लिसी महसूस नहीं होती, लेकिन एक दिन कौवा जब हाथ से रोटी छीनकर ले जाता है तो माँ उसकी पिटाई कर देती है. किसने कहा था छत पर खड़ी होकर रोटी खाने को? फिर एक और दिन घर में खाने को कुछ भी नहीं है. माँ की तबियत ठीक नहीं है, न वह अब्बू की सेवा कर पा रही है न सिलाई का काम. उसी दिन भूख से बिलबिलाती अपनी नन्ही कवि को अब्बू एलियट की Wasteland पढ़कर सुनाते हैं.“Come under the shadow of this red rock/I will show you fear in a handful of dust.” भाई को नहीं सिर्फ उसी को. 
अभी वह खुद को लेकर अब्बू के स्वप्न को ठीक से समझ भी नहीं पाई है कि एक दिन अब्बू उसके सामने दम तोड़ देते हैं. उस समय जब वह घर में बिलकुल अकेली है. बहुत ऊंची आवाज़ में उसे आवाज़ लगाने के एकदम बाद. जो अन्तिम शब्द उनके मुँह से चीख की शक्ल में निकला वह थाकविताजो उस लड़की के घर का नाम है, अब्बू का दिया हुआ. स्कूल में लड़की का नाम कोई और था. फिर अब्बू के जाने के कुछ दिन के बाद लड़की उस लकड़ी की पेटी को खोलकर बैठ गयी है जिसमे अब्बू का लेखन दफ़न है. उस पेटी के भीतर बहुत सी पांडुलिपियाँ है. लेकिन उन सबको दीमक पढ़ चुकी है. और किसी के पढने को कुछ बच ही नहीं पाया है. उर्दू में अब्बू की मोतियों जैसे लिखाई में लिखा एक उपन्यास है, जिसका सिर्फ़ नाम बचा है: रूसा. बाक़ी ऐसा एक भी जुमला नहीं जिसे दीमक ने अन्त तक पूरा रहने दिया हो. अब उसे ताउम्र उन जुमलों का क़यास लगाते रहना है जिन्हें सिर्फ़ दीमक ने पढ़ा है. उसे बस यही करना है, यही करते रहना है, और कुछ नहीं. उसे इस बात का पूरा इल्म अभी से है: कि यह महज़ एक कहानी है जिसे पेटी के सामने बैठकर गढ़ लिया है. उसे एहसास है कि इसकी जगह कोई और कहानी भी गढ़ी जा सकती है. इस पेटी के सामने बैठी-बैठी वह भाषा से ख़ूब खेलती है. ज़ार-ज़ार रो भी रही है, लेकिन उसे मालूम है वह कविता से कभी नहीं खेल सकती. 


दो) 
कविता क्यों जैसे प्रश्न से उसे उस कवि की स्मृति हो आती है जो गायक भी है, लेकिन रोज़मर्रा की बातचीत में हकलाकर बात करता है. जब वह गाने लगता है तो वह क्यों हकलाकर नहीं गाता? क्या कोई उससे पूछ सकता है कि जब वह गाता है, उसकी हकलाहट कहाँ चली जाती है? क्या कवि की हस्ती ही संदिग्ध होती है, कोई वायावी इकाई जिसे किसी भी क्षण प्रश्नांकित किया जा सकता है? क्या उसका भाषा के साथ हकलाहट का सम्बन्ध है? क्या हर कवि को ऐसा नहीं लगता कि कविता लिखने का रियाज़ नहीं किया जा सकता? क्या कविता लिखने से पहले उसके पास ऐसा कुछ नहीं है, भाषा तक नहीं, जो एक कविता में रूपान्तरित हो पायेगा? क्या हर कविता में उसे नए सिरे से हकलाते हुए गायन तक पहुंचना होता है? आख़िर वह क्या चीज़ है जो भाषा से ठगे हुए मनुष्य को, भाषा से सम्मोहित एक जीव के समूचे अस्तित्व को निष्कवच कर उसे कविता के प्रान्त में स्थित कर देता है? उसे इन प्रश्नों का उत्तर देना नहीं आता, या वह देना नहीं चाहता, या वह जवाब में इतना सच बोलने की कोशिश करने लगता है कि आप उसका विश्वास ही नहीं कर पाते. 
जो उसे मुँह ज़बानी याद हैं, ऐसे कुछ सच हैं: 


§मैं लिखती हूँ क्योंकि मेरे पास कुछ न करने की ताक़त नहीं है. 
                  -- मार्ग्रीत ड्यूरास

§ और है भी क्या करने को? (?)
§यूँ भी जो आप लिखते हैं उसे कोई समझ नहीं पायेगा. फिर आप वही क्यों न लिखें जो आपको ख़ुद भी शायद ही समझ में आता हो
                         -- गुन्नार ब्यर्लिंग
§कहते हैं कि ग़ालिबका है अंदाज़-ए-बयाँ और

§तुमको भी चाहूँ तो छूकर तरंग
पकड़ रखूँ संग
 कितने दिन कहाँ-कहाँ रख लूँगा रंग
      अपना भी मनचाहा रूप नहीं बनता.
                              -- त्रिलोचन

§मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो जहाँ मैं 
एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ. 
                         -- शमशेर

§प्रेम कविताओं के शिल्प अपराध सब मुआफ़ हैं
मुआफ़ हैं शमशेर
मुआफ़ हैं मुआफ़ हैं 
मरीना स्वेतायेवा.  
             -- तेजी ग्रोवर

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