विजया सिंह चंडीगढ़ में अंग्रेज़ी पढ़ाती हैं और फ़िल्मों में रुचि रखती हैं. उनकी किताब Level Crossing: Railway Journeys in Hindi Cinema, Orient Blackswan (2017) से प्रकाशित हुई है. उन्होंने दो लघु फ़िल्मों का निर्देशन भी किया है: Unscheduled Arrivals (2015) और अंधेरे में (2016). साहित्य अकादेमी ने उनका कविता संग्रह ‘First Instinct’ प्रकाशित किया है.
विजया हिंदी में भी कविताएँ लिखती हैं, समालोचन पर आप उन्हें पढ़ते आ रहें हैं. उनकी कुछ नयी कविताएँ प्रस्तुत हैं.
विजया सिंह की कविताएँ
शाहीन बाग की औरतें
शाहीन बाग की औरतों का ज़िक्र छिड़ा
बरगद के नीचे पंच परमेश्वर ने सुनाया फ़ैसला
गुनहगार हैं ये औरतें
बस एक दो दिन और
सड़कें क्या इनके मियाँ की हैं?
हम करदाताओं के पैसों से बनी हैं ये सड़कें
लोगों के चलने
गाड़ियों के आने-जाने के लिए
इनके पसरने के लिए नहीं
औरतों ने कहा :
यहाँ हम अनार छीलेंगी
स्वेटर बुनेंगी
पिलाएँगी चाय
देखेंगीं चाँद
करेंगी बहस
पढ़ेंगी संविधान
बजाएँगी गिटार
लहरायेंगी तिरंगा
देंगी अपना दिल
जो उतना ही लाल है जितना हर किसी का
गाएँगी मर्सिया
उनके लिए
जो जीते जी मर चुके
हम करेंगी पड़ताल
धड़कन की उनकी
जो धकेलने को बेताब हैं हमें
सरहद के उस पार
ये सड़कें हमारी माएँ हैं
इसके किनारे खड़ा यह पेड़
बचाना है इसे कटने से
रात की रानी से महकाना है
इस भारी हवा को
जो ठहर गई है
सेकने हैं भुट्टे
चबाने हैं चने
देना है एक और मौक़ा
उस हिरन को
जो भाग रहा है शिकारी से
वह जो बना रही है सड़क
उसके बच्चों के पास नहीं है स्वेटर
यह सड़क इसने बनाई है
मिलके उसके साथ जिसके पास नहीं हैं गर्म कपड़े और पेट भर खाना.
स्वर्ण चंपा दहक रहे हैं
तुम्हारे अखरोट
हम खा गए
तुम्हारे बादाम
चिल्गोज़े चबा गए
केसर-दूध और दही में घोल पी गए
सेब, आडू , खुमानी
सब पर हमारी नज़र है
तुम्हारे ग़लीचे, शाल
और लकड़ी की नक्काशी वाली अलमारियां
हमें चाहियें अपने घरों के लिये
चाहिये हमें तुम्हारी नदियों का पानी
पहाड़ों, झरनों, और चरागाहों के नज़ारे
गर्मी की छुट्टियों के लिये
रोगन-जोश और कहवा
इनके ज़ायके भी चाहियें
और तो और हमारे एल्बमों के लिये
हमें चाहिए एक फ़ोटो कश्मीरी लिबास में
तुमने मेहमान नवाज़ी के सब कर्तव्य निभाए
अपनी गाड़ियों में तुम हमें ऊँचे –ऊँचे पहाड़ों से लौटा लाये
बदले में हमने क्या दिया ?
प्रजातंत्र ?
जिसके एक हाथ में बंदूक, दूसरे में भोंपू
आँखों की पुतलियों के बराबर छर्रे
भेदने को तुम्हारे बच्चों के आकाश
जवान जिस्मों पर नीले-लाल निशान
तुम्हें उठते ही बैठा दिया जाता है
बैठते ही उठा दिया जाता है
तुम्हारे सवाल हमारे कानों में शोलों की तरह दहकते हैं
और अंगारे बन बरसते हैं स्वर्ण चंपा की पंखुड़ियों पर
तुम्हारी चीखें हमें सुनाई नहीं पड़तीं
तुम्हारे ज़ख़्म हम भरने नहीं देते
हम तुम्हारे बीच ऐसे घूमते हैं कि तुम हमें दिखाई नहीं देते.
बहनें
पूछना है मुझे उनसे
क्या तुमने जाना
कभी भी
सुख
चरम सुख
आलिंगन में उसके
जिसकी बाँह पकड़
गुड़िया सी सजी
गहनों से लदी
तुम घूमीं
अग्नि के चारों और
क्या छुआ कभी अपने आप को
वहाँ जहाँ मना किया सबने छूने से
क्या देखा कभी ख़ुद को
निर्वस्त्र
नहाते हुए नहीं
उत्सुकता से
बेलाज
शीशे में ?
क्या ऐसा कोई शीशा था
तुम्हारे
हमारे घर में ?
कैसे छुआ उसने तुम्हें पहली बार
क्या उसे आता था करना प्यार
क्या कुछ कहा उसने कान में तुम्हारे?
क्या तुम भी कुछ कह पायीं ?
कैसे सौंपती हो अपने को हर बार
क्या उसे पा सकी कभी
बाहर, अंदर, कहीं भी ?
सोने सी काया
बिजली सा दिमाग़
चुस्त हाथ पैर
मृदु मुस्कान
कोकिल कंठ
क्या पढ़ा कभी अश्लील साहित्य
देखी कोई फ़िल्म ऐसी
जिसने जगाया कामना को
और नहीं दिया
अपराधबोध
कितना पाया अपनी देह को?
औरत
यह औरत
इसमें अभी गुंजाइश है
नज़ाकत की
हलांकि
इसके चेहरे की कठोरता यह संकेत नहीं देती
इसके सुडोल, कोमल कंधों की झलक देता
‘कोल्ड शोल्डर कट’ वाला कुर्ता
बताता है
अभी पूरी तरह ध्वस्त नहीं हुई है
नर्म ख़रगोश सा
कुछ बचा है इसके भीतर.
दिल का नगर
दिल
दिल्ली है या आगरा
फतेहपुर सिकरी
या पुराना क़िला
लोग कर रहे हैं जिक्र
पुरानी इमारतों और शहरों का
घूमते जाते हैं गोल-गोल
और तय नहीं कर पाते
कब ठहरना है, कब चलना है
किसी ने कहा
दिल तो टूटना ही था
बाज़ीगर थी वह लड़की
मक्कारियाँ थीं किरदार में उसके
उसने कहा
नहीं कर पाएगा वह फिर से भरोसा
और छोड़ गया सब पीछे
उसके सिरहाने मिला दीवान ग़ालिब का.