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शशिभूषण द्विवेदी : मैं उसके फोन का इंतज़ार कर रहा हूँ : हरे प्रकाश उपाध्याय




कथाकार शशिभूषण द्विवेदी के कुसमय चले जाने से हिंदी साहित्यिक समाज अवसाद में है. शशिभूषण द्विवेदी अपनी तीखी बेलौस कहानियों के कारण जाने जाते थे. दिल्ली जैसे महानगर में कलम की बदौलत टिकना आसान नहीं है. इस संघर्ष में हिंदी के कई कथाकार पत्रकार उनके मित्र और साझेदार थे. शशिभूषण द्विवेदी का जीवन खुद उनकी कहानियों के पात्रों की तरह थे अनियंत्रित और अप्रत्याशित था.
शशिभूषण द्विवेदी के मित्र और कथाकार हरे प्रकाश ने यह संस्मरण लिखा है. मार्मिक है और उदास करने वाला. यह कोई उम्र थी ऐसे मित्रों को छोड़ कर जाने की.
प्रस्तुत है. 


मैं उसके फोन का इंतज़ार कर रहा हूँ             
हरे प्रकाश उपाध्याय


कथाकार शशिभूषण द्विवेदी (26 जुलाई 1975-7 मई 2020, सुल्तानपुर, उत्तर प्रदेश) के दो कहानी संग्रह- ‘ब्रह्महत्या तथा अन्य कहानियाँ’ और ‘कहीं कुछ नहीं’ प्रकाशित हैं. उन्हें ‘ज्ञानपीठ नवलेखन पुरस्कार’, ‘सहारा समय कथा चयन पुरस्कार’, ‘कथाक्रम कहानी पुरस्कार’ आदि से सम्मानित किया गया था. सम्प्रति ‘कादम्बिनी’ में वरिष्ठ उप संपादक थे. 



शिभूषण ने जाने से दो दिन पहले फेसबुक पर लिखा कि अतीत में ठीक-ठीक वापसी संभव नहीं है. उसे याद करने में यही मुश्किल है. हालांकि क्या शशिभूषण को याद करने के लिए मुझे अतीत में लौटना होगा?मुझे भरोसा नहीं होता कि वह मेरे लिए कभी अतीत होगा, वह मुझसे अधिक से अधिक दो दिन के लिए नाराज़ हो सकता है, पर वह कभी मेरे लिए अतीत नहीं हो सकता. कतई नहीं. वह या हम, चाहें भी तो ज़ुदा नहीं हो सकते. इस बारे में अब कोई संदेह नहीं है क्योंकि अनेक अवसरों और घटनाओं से यह बात अनेक बार प्रमाणित हो चुकी है. अब इसे और प्रमाणित करने की कोई ज़रुरत नहीं है. अब इस बात पर कोई संदेह नहीं करेगा. आपके लिए शशिभूषण की मौत हो सकती है, मेरे लिए शशिभूषण कभी नहीं मरेगा, न मैं उसके लिए मरूंगा. वह ज़रूर नाराज़ होगा, इसीलिए वह मुझे परेशान करने के लिए यह सूचनाएं खुद ही बँटवा रहा होगा कि हरे प्रकाश को पता तो चले.... मैं इस सूचना पर भरोसा नहीं कर सकता क्योंकि मैं उसकी हरकतों को जानता हूँ. वह कल को आपके सामने आकर आपसे यह भी कह सकता है कि हरे प्रकाश ने ही मुझे मार दिया था, वह तो संयोग कहो कि मैं इस दुनिया से जाने को राज़ी ही नहीं हुआ.... वह आपसे कुछ भी कह सकता है, प्लीज़ आप उस पर भरोसा मत कीजिए.
मैं इंतज़ार करूंगा कि वह मुझे फोन करेगा, हरे प्रकाश, जानते हो दरअसल हुआ क्या.... मैं गुस्से में होऊंगा तो कहूँगा, हाँ मैं सब जानता हूँ. तुम अपनी हरक़तों से बाज़ आओ. बहुत अधिक गुस्सा होऊंगा तो कुछ नहीं बोलूँगा और वह बोलता चला जाएगा... वह पहले दोस्तों की बातें करेगा, फिर नयी लेखिकाओं की बातें करेगा, फिर शराब की बातें करेगा, फिर अपने दफ्तर की बातें करेगा. वह बोलता रहेगा और अगर मैं नहीं बोलूँगा तो बोलेगा- भाड़ में जाओ. शाम तक वह फिर फोन करेगा. मुझे बात करनी होगी, हर हाल में. आप बताइये, बताइये आप, यह आदमी मेरे लिए अतीत कैसे हो सकता है...?कतई नहीं. आप अपनी सूचनाएं अपने पास रखिए, मैं उसी से पूछूँगा. पर मैं बहुत ज़िद्दी हूँ, मैं फोन नहीं करूंगा उसे, वह फोन करेगा मुझे. मैं उसके फोन का इंतज़ार कर रहा हूँ....

शशिभूषण ने मुझे जितनी गलियाँ दी है, उतनी किसी ने नहीं दी. हालांकि ऐसी उसकी कोई छवि नहीं है. शशिभूषण ने जैसे-जैसे संगीन आरोप मुझ पर लगाए हैं, आप उसके बारे में सोच तक नहीं सकते. पर शशिभूषण ने मुझे जितना प्यार किया है, उतना किसी ने नहीं किया है. शशिभूषण से जितना लड़ा हूँ मैं, उतना किसी से नहीं लड़ा. हम दोनों ने संघर्ष के दिन साथ मिलकर काटे हैं और संघर्ष की शामों को साथ मिलकर रसरंजित किया है. रात को अवारा साथ भटके हैं. अनेक लेखकों के पास साथ-साथ मिलने गये हैं. उसने मेरे बारे में भी अनेक क़िस्से गढ़े हैं और लोगों को सुनाये हैं.

ब्रजेश्वर मदान कहा करते थे कि यह जन्मजात क़िस्सागो है. हालांकि उसकी कहानियों में क़िस्सागोई उतनी नहीं है. वह व्यंग्य का भी उस्ताद था, पर अपनी कहानियों में उसका इस्तेमाल नहीं करता है. वह कहानियों में क्राफ्ट पर ज़ोर देता है. कई-कई ड्राफ्ट में अपनी कहानियाँ लिखता है और कहानियों को बहुआयामी बनाने की कोशिश करता है. बीच में व्यंग्य की बात आ गयी तो बता दूँ, नहीं तो भूल जाऊंगा, एक समय उसने कलियुगी वेदव्यासके नाम से ब्लॉगों पर व्यंग्य लिखकर साहित्यिक जगत में बड़ा तूफान खड़ा किया था. अभी तक अनेक लोगों के लिए यह रहस्य ही है किकलियुगी वेदव्यासकौन था. मैं भी सार्वजनिक तौर पर आज पहली बार यह राज़ खोल रहा हूँ. मैं तुम्हारे बहुत सारे राज़ खोल दूँगा शशिभूषण, ...पर उसे घंटा फर्क नहीं पड़ेगा... मुझे पता है.
   
शशिभूषण से मेरा परिचय कोई बहुत पुराना नहीं है. यही कोई चौदह-पंद्रह साल पहले की बात है. वह नोएडा में राष्ट्रीय सहारा में संपादकीय और साहित्य पेजों को निकालने में सहयोग करता था और मैंने अभी हाल में ही में पटना से दिल्ली जाकर बस सड़कें नापना शुरू किया था. रमणिका जी के यहाँ टिका हुआ था और अख़बारों के लिए कुछ-कुछ लिख रहा था, जिसे फ्रीलांसिंग कह सकते हैं. पता नहीं, कहाँ से नंबर लेकर उसने ही एक दिन फोन किया. मैंने उसकी एक-दो कहानियाँ पढ़ी थी. शायद उसे तब तक ज्ञानपीठ नवलेखन का पुरस्कार मिल चुका था और उसका ज्ञानपीठ से पहला कहानी संग्रह- ब्रह्महत्या और अन्य कहानियाँप्रकाशित हो चुका था. उसने बहुत अनौपचारिक तरीक़े से फोन किया, जैसे हम दोनों काफी अरसे से परिचित ही नहीं, दोस्त भी हों- हाँ हरे प्रकाश, कुछ कविताएं लेकर किसी दिन सहारा आ जाओ. मिलते हैं.... यही एक्जेक्ट वर्ड थे या ऐसा ही कुछ था. मैं तो दिल्ली में नया था, जहाँ कहीं भी अख़बारों में कोई सूत्र दिखता था, लपक कर पकड़ता था. 

शायद उसी दिन या अगले ही दिन शाम को पहुँच गया नोएडा. दफ्तर में पहुँचकर मैंने उसकी खोज़-ख़बर की और मिलते ही वह मुझे पहचान गया, जैसे कितने सालों से जानता हो. बहुत आत्मीयता से बल्कि अनौपचारिक तरीके से मिला और कुछ मिनटों के भीतर उसने मुझे विमल झा औरब्रजेश्वर मदान से मिलवाया. मेरी कविताएं ले लीं. इस बीच भागकर अपने डेस्क पर जाकर वह जल्दी-जल्दी अपना पेज भी तैयार कर रहा था. जब मेल-मुलाक़ात के बाद चलने के लिए उससे इज़ाज़त लेने गया, तो कहीं से एक चाय लाकर मुझे पकड़ा गया और एक कोने में पड़े सोफे पर कुछ देर बैठकर इंतज़ार करने को कहा. थोड़ी-थोड़ी देर पर आता और कहता, और थोड़ी देर रुको. वह जितनी आत्मीयता दे रहा था तो मुझे रुकने में कोई बहुत असमंजस नहीं महसूस हो रही थी.

दिल्ली में मैं नया था पर इतना तो जान ही गया था कि दिल्ली के लिए यह अज़ूबी चीज़ ही है कि आपको अपने पास मनुहार करके बेवजह कोई रोके.अच्छा लग रहा था. मन में दोस्ती जैसी फीलिंग आने लगी. क़रीब घंटे भर रुकवाने के बाद वह फ्री हुआ और मदान साब के पास जाकर अधिकारपूर्वक कुछ पैसे माँगे. उन्होंने थोड़े-बहुत नख़रे के साथ उसे बहुत प्यार से पैसे दे भी दिये. वह मुझे लेकर सीधे ऑफिस से निकलकर सेक्टर बारह के मार्केट में ठेके पर पहुँचा. बिना यह जाने कि मैं पीता हूँ या नहीं, उसने सीधे यह पूछा कि वोदका लोगे या व्हीस्की?मैंने अभी नया-नया ही शौक पाला था और इतना पता भी नहीं था, क्या वोदका, क्या व्हीस्की... और जिस तरह उसने सीधे दुकान पर ही ले जाकर पूछा था, तो मना कर देने का तो ऑपशन भी नहीं था, सो इतना ही कहा- अब आपकी जो मर्ज़ी. अब याद नहीं आता कि वह क्या था, पर इतना पक्का याद है कि वह क्वार्टर ही था, ले आया.

वहीं एक लीटर पानी की बोतल लेकर ठेके के बगल में खड़े हो गये, पहले दो-दो घूँट पानी पी गयी और और फिर पानी में मिलाकर चार-चार घूँट वह द्रव्य ग्रहण किया गया. जब तक यह सब संपन्न हुआ, पीछे से मदान साब भी वहाँ पहुँचे. शशिभूषण ने बहुत प्रशंसा के लहजे में उनके सामने उनकी ख़ासियत बताई, अरे जानते नहीं हो तुम.... मदान साब का यहाँ खाता चलता है. महीने में हिसाब होता है. मदान साब ने तो ठेके के काउंटर पर ही खड़े होकर चार या छह घूँट में हाफ निपटा दिया और पानी की लगभग पूरी बोतल शशिभूषण को हैंडओवर करते हुए सेल्स पर्सन को शशिभूषण को एक क्वार्टर देने का आदेश भी जारी किया. हमारा कार्यक्रम थोड़ा और विस्तारित हुआ. बाद में उसी मार्केट में मदान साब ने हम दोनों को डिनर भी कराया और अपनी ढेर सारी कविताएं भी इस पूरे दौरान सुनाई.

उन दिनों कविता लिखने का नया-नया शौक उन्हें भी चढ़ा था. वे कमाल के कहानीकार और राष्ट्रीय स्तर के फिल्म पत्रकार थे. सहारा समय में उनका कॉलम आता था उन दिनों- राजपथ-जनपथ क्रॉसिंग. मैं भूल नहीं रहा हूँ तो शायद यही नाम था उनके कॉलम का. वे कभी फिल्मी कलियाँ नामक मैगजीन के एडीटर रह चुके थे. बड़े ही मेधावी और सरल आदमी थे. उनके बोलने के लहजे में पंजाबीयत थी. वही उनसे पहला परिचय शशिभूषण के मार्फत हुआ था. वे बातचीत में अक्सर उदय प्रकाश जी की बहुत तारीफ़ करते थे. उसके बाद तो मदान साब से भी उसी तरह के अनौपचारिक संबंध विकसित हुए, जो शशिभूषण के साथ हुए- तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई.
  
मदान साब के साथ के क़िस्से मैं लिखूँगा तो उसमें कुणाल चला आएगा, अभिषेक कश्यप जी आएंगे, प्रभात रंजन आएंगे. वह पूरा एक अलग चैप्टर है. पर एक घटना यहाँ प्रसंगवश बहुत याद आ रही है, वैसे मदान साब के साथ सारी घटनाएं बहुत ही मज़ेदार हैं. वे हम लोगों को प्यार भी बहुत करते थे, हमारा बहुत ख्याल भी रखते थे, उम्र में बहुत लंबा फासला होने के बावजूद हमारे दोस्ताना ताल्लुकात थे. वे बहुत झक्की क़िस्म के भी इन्सान थे और शाम के बाद तो वे बादशाह ही होते थे. उनकी तुनुकमिजाजी इतनी प्यारी थी कि देखते बनती थी. उनकी बहुत तुनुकमिज़ाजियाँ हम लोगों ने झेली है और कुछ तुनुकमिज़ाजियाँ तो बाजाप्ता सीखी भी है. अब वह हमारे अपने जीवन का हिस्सा है.

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एक क़िस्सा बताता हूँ. एक बार सहारा दफ्तर में शशिभूषण के आमंत्रण पर ही पहुँचा था. शशिभूषण फ्रीलांसिंग के बहाने से मुझे नोएडा अपने दफ्तर बुलाता था, और मैं जो भी अगड़म-बगड़म लिखकर देता, उसे वह पूरा का पूरा छाप भी देता था पर उसकी रुचि मेरे लिखे में कतई नहीं थी, मैं जान गया था. बस मेन मकसद वह शाम की अड्डेबाज़ी ही थी. उसी अड्डेबाजी में धीरे-धीरे मदान साब भी बहुत बेतकल्लुफ़ तरीके से शामिल हो गये थे. अड्डेबाजी में कभी-कभी बहुत देर हो जाती. ऐसी-ऐसी बातें निकलतीं कि समय का कुछ ख्याल ही नहीं रहता और लगता कि अब नोएडा से मेरे दिल्ली लोदी कॉलोनी वापस लौटने की कोई बस मिलने की संभावना बिलकुल ही नहीं बची और हमारी हर अड्डेबाजी के पश्चात अक्सर ऐसा ही होता, तो मदान साब अपने घर पर रुकने का ऑफर देते. अपने घर के ऊपरी हिस्से पर जो दो-तीन कमरों का फ्लैट था, वह अकेले ही रहते थे. घर पर कोई कामवाली आती थी. सारी सुविधाएं थीं. किचेन में सारा सामान पड़ा रहता था, पर खाना शायद ही कभी बनता हो. मदान साब देर से सोकर उठते, तैयार होते और ऑफिस के लिए निकल लेते. घर से बस उनका इतना ही भर वास्ता था.

ख़ैर मैं भटक गया....तो वह सर्दियों की कोई शाम थी, हमारी बैठकी जमी और काफी समय हो गया तो हम लोग बाहर ही अपना खाना-वाना खाकर मदान साब के प्रस्ताव पर एक ही रिक्शे में लदकर तीनों उनके घर पहुँचे. वहाँ भी बैठकर तीनों बातें करने लगे. किसी बात को लेकर मदान साब शशिभूषण पर भड़क गये. शशिभूषण भी अपनी बात पर अड़ गया. रात में ठंड काफी बढ़ गयी थी. शशिभूषण के पास हाफ स्वेटर ही थी. मदान साब अपने कमरे में गये, अपना एक नया स्वेटर उठा लाये. शशिभूषण को दिया. शशिभूषण ने उसे मोड़-माड़कर पहन भी लिया. मदान साब लंबे-चौड़े आदमी, शशिभूषण दुबला-पतला छोटा आदमी, वह स्वेटर उसमें क्या आता, पर उसने उसको जैसे-तैसे पहन लिया. बाद में तो अनेक बार देखा कि शशिभूषण उनके शर्ट को भी जैसे-तैसे पहनकर अपने ऑफिस भी पहुँच जाता था, फिर गंदे होने पर उनके घर पर फेंक आता था. तो ख़ैर उस रात स्वेटर पहनने के बाद मदान साब ने उससे सख्त शब्दों में कहा- अब तू मेरे घर से निकल जा. मेरे सामने उनकी इस तरह की तब शायद पहली तुनुकमिजाजी थी. मुझे भी बहुत बुरा लगा. मैंने शशिभूषण को कहा कि चलो, अभी चलो इनके घर से. इन्होंने इस तरह कह कैसे दिया. अब शशिभूषण मुझे समझाने और रोकने लगा. मदान साब अब भी उसी तरह अड़े हुए- तुम दोनों जाओ. अभी जाओ बिलकुल. 

मैं उनके घर से निकल आया. पीछे-पीछे शशिभूषण भी आया. उसका कमरा वहाँ से काफी दूर था और मैं तो ख़ैर बहुत दूर रहता था. कड़ाके की ठंड पड़ रही थी. कॉलोनी के कुत्ते भूँक रहे थे. कोई रिक्शा वगैरह भी मिलने का सवाल नहीं था. फिर शशिभूषण ने कहा कि प्रभात पास में रहता है. उसने प्रभात जी को फोन किया. प्रभात रंजनउस समय अपने पास के फ्लैट में अकेले ही थे. वे रज़ाई ओढ़े हुए, पैदल चलते हुए आ गये. इस सारे घटनाक्रम को मदान साब भी वाच कर रहे थे. वे आये, वापस लौटने को कहने लगे पर हम लोग प्रभात जी के घर गये. वहाँ थोड़ी देर और बैठकी जमी. फिर आवाज़ बदलकर किसी स्त्री आवाज़ में प्रभात जी ने मदान साब से थोड़ी देर बात की, उनकी कविताओं की तारीफ़ की, अपने ऊपर कविता लिखने का मनुहार भी किया. हमलोगों ने बहुत मज़े लिए. अज़ब दिन थे वे भी. अज़ीब सी बेचैनियाँ छाई रहती थीं हम लोगों में. रात-दिन में हमारे लिए ज्यादा फर्क न था.

नोएडा में शशिभूषण का बहुत छोटा सा कमरा था. उसने बाद में सहारा से पुरस्कार से मिले पैसे से कंप्यूटर खरीद लिया कि उस पर कहानियाँ लिखेगा मगर उसमें ब्लू फिल्में अधिक देखता था. खुद ही टीवी और कंप्यूटर को खोलकर बना भी लिया करता था. सहारा वालों ने उसका बहुत शोषण किया. इसके पहले वह जागरण और अमर उजाला में अनेक जगहों पर काम किया, वहाँ भी बहुत शोषण हुआ. पर वह बातचीत में इन सब चीज़ों को कभी शिकायत या अफ़सोस के साथ नहीं बताता था. उसे किसी से कोई शिकायत नहीं थी. उसे लगता था कि यह सब स्वाभाविक और सहज ही है.     
मीडिया में अगर आपका गॉडफादर न हो तो आपकी सारी प्रतिभा बस आपके अपमान का ही सबब बनती है. शशिभूषण ने अपनी अर्द्धपक्ष कहानी में बहुत अच्छे से चित्रित किया है कि किस तरह मीडिया घरानों में गुबरैलों और केंचुओं की भरमार है. हालांकि इस कहानी में भी इन गुबरैलों और केंचुओं से उसे व्यक्तिगत तकलीफ हो, ऐसा नहीं प्रकट किया है. वह उस कहानी में अपने को शोषण की जगह प्रेम में मिले धोखे पर खुद को फोकस करता है. बावजूद इसके कहना नहीं होगा कि शशिभूषण हमेशा पत्रकारिता जगत के इन गुबरैलों और केंचुओं से घिरा रहा. वे उसका खून पीते रहे, पर उसे इस बात का कोई अफ़सोस नहीं था. 

वह अपने दोस्तों और शुभचिंतकों से शिकायत रख सकता था. उनके ख़िलाफ किसी हद तक जाने को तत्पर रहता था, उन्हें माफ़ नहीं कर पाता था पर वह उन लोगों से कभी कोई शिकायत नहीं रखता था, जो उसकी प्रगति और प्रतिष्ठा में वास्तविक रूप से बाधक थे. वह उनकी ज्यादा बात भी नहीं करता था. वह दोस्तों से ही लड़ता था, उनसे ही प्रतिस्पर्धा रखता था, उनसे ही ईर्ष्या करता था मगर जो वास्तविक दुश्मन थे, उन्हें वह नज़रअंदाज़ कर देता था. उसने कभी कोई गॉड फादर नहीं बनाया. वह बहुत देर तक किसी की परवाह नहीं करता था. ज्यादा सलाह-मशवीरे और उपदेश देने वालों से वह दूर भागता था. वह अपने ढंग से जीवन जीता था और उसकी शर्तों पर उसके जीवन में शामिल होने वाले लोगों से ही वास्ता रखता था.
वह बहुत महत्वाकांक्षी भी नहीं था. बल्कि उसके भीतर महत्वाकांक्षा जैसी कोई चीज़ थी भी नहीं. वह अपनी मौज़ में जीने वाला आदमी था और अपनी तमाम प्रतिभा के बावजूद अपनी मुश्किल परिस्थितियों से बाहर निकलने और सफल होने जैसी कोई आकांक्षा उसमें शायद ही थी. हालांकि वह हमेशा छोटी-छोटी चीजों के लिए परेशान रहा. अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं की पूर्ति ही उसकी सबसे बड़ी आकांक्षाएं थीं. मैंने बतौर सहकर्मी काम किया है. मैंने देखा है कि अपनी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकाशन संस्थाओं से प्रूफ, अनुवाद, कुछ लिखने आदि के काम जुटाता था. उसको करने के बाद कुछ छिटपुट पैसे मिल जाएं, इन सब में बहुत तत्परता से जुटा रहता था पर अपनी नौकरी में किसी प्रमोशन या बड़े पद पर पहुँचने की बात वह बिलकुल भी नहीं सोचता था. 

अपने तमाम सहकर्मियों से प्रतिभा में किसी मायने में तनिक भी उन्नीस न होने के बावजूद उनकी तुलना में अपने बहुत कम वेतन को लेकर उसके भीतर अफसोस, चिंता या शिकायत मैंने कभी नहीं देखी. वह अपनी नौकरी में बहुत सिंसियर भी नहीं था. मन किया तो ऑफिस गये और मन नहीं किया तो नहीं गये. सहकर्मी और बॉस फोन पर ज्यादा परेशान करने लगे तो फोन बंद कर लिया. यह सब उसमें सामान्य बातें थीं. पर दफ्तर में उसके ऊपर चाहे सारे सहकर्मियों का काम सौंप दिया जाए, तो बगैर किसी ना-नुकुर के उसमें जुट जाता था. उसे कोई शिकायत नहीं रहती कि उससे ज्यादा काम क्यों लिया जा रहा है. और मन में आया तो कभी भी बीच में उठकर बिना बताये किसी दोस्त के बुलावे पर अड्डे बाजी के लिए निकल सकता था. अब झख मारें ऑफिस वाले.

सहारा में अनेक वर्षों तक दक्षता के साथ काम करने के बावजूद उसके वरिष्ठों ने उसकी सेवा कंफर्म नहीं की और वह डेली वेजेज वर्कर या फ्रीलांसर ही बना रहा. जबकि अपने दम पर संपादकीय और साहित्य पेजों सहित कई महत्वपूर्ण परिशिष्टों का संपादन वह करता रहा.

जब मैं कादम्बिनी में आया तो एक दिन हमारे संपादक विष्णु नागरजी ने एक दिन मुझे बुलाकर कुछ अच्छे युवा पत्रकारों के बारे में पूछा, उन्हें कादम्बिनी के लिए एक सहयोगी एप्वाइंट करना था. मैंने एक और सिर्फ एक नाम शशिभूषण का बताया. नागर जी ने कहा कि अच्छा, उसका मिलने के लिए बुलवा लो. वह सहारा में ही काम कर रहा था. मैंने उसको फोन किया. हमारा दफ्तर क्नाट प्लेस में के. जी. मार्ग पर था. फोन करने पर उसने कोई बहुत उत्साहजनक प्रतिक्रिया नहीं जाहिर की, कहा कि देखो ऐसा है, मेरे पास बस किराये के पैसे नहीं है. ऐसा करो कि शाम में इधर ही आ जाओ, बात कर लेंगे. मैं उसे जानता था, उसे नौकरी की कोई परवाह नहीं है, उसे बैठकी की परवाह है. उसके साथ बैठकी की मेरी भी ऐसी आदत लगी थी कि मैं भी चाहता था कि वह हमारे दफ्तर में ही काम करने आ जाए तो अपने पास ही लोदी कॉलोनी में ही उसकी रहवास करा देंगे, तो हमारी बैठकी नियमित हो जाएगी. मैंने उससे कहा कि, देखो तुम किसी से बस किराये के पैसे ले लो और चले आओ. नौकरी तो नागर साब देंगे, उनसे बात करनी होगी तुम्हें. और शाम को अपन आज बैठकी इधर ही कर लेंगे. 

वह इस पर आने को बहुत जल्दी राजी नहीं हुआ. काफी मान-मनौव्वल के बाद मैंने जब कहा कि चलो, आ जाओ, बस के आने-जाने के किराये मुझसे ले लेना. फिर वह आया, नागर साब से मिला. मृणाल जी से मिला और संयोग से जल्दी ही उसे यह नौकरी मिल भी गयी. फिर जब नौकरी मिल गयी तो मैंने उसके लिए लोदी कॉलोनी में कमरा ढूँढा. अब जब शिफ्ट करने की बारी आयी तो वह कहने लगा कि मैंने तो नोएडा में तीन महीने का अपना किराया ही नहीं दिया है और मकान मालिक से बचने के लिए मदान साब के यहाँ रह रहा हूँ. उसने कहा कि मैं यह नौकरी नहीं कर सकूँगा, जहाँ हूँ वहीं रहने दो. वहाँ उसको बमुश्किल इतने पैसे मिलते थे कि महीने में दस-बारह दिन के ही ख़र्चे ठीक से चल सकें. फिर मैं नोएडा गया. हमलोगों ने बारह सौ रुपये में नोएडा से लोदी कॉलोनी सामान पहुँचाने की एक छोटी गाड़ी की. मकान मालिक से मिलकर हिसाब-किताब किया और वह लोदी कॉलोनी शिफ्ट हो गया. अब हम दोनों साथ ऑफ़िस जाते.

वह घर-परिवार की भी बहुत सी बातें मुझसे शेयर करता. हम दोनों आपसे में कभी-कभी बुरी तरह लड़ भी लेते. पर याद नहीं आता कि आठ से दस घंटे से अधिक हमारी कभी बातचीत बंद हुई हो. बात करने का कोई न कोई बहाना निकल ही आता, फिर बात करनी पड़ती. हमारी दोस्ती काफी मशहूर भी हुई. इस बीच कुणाल सिंह भी ज्ञानपीठ में नौकरी लग जाने के कारण लोदी कॉलोनी में ही रहने लगा था. लोदी कॉलोनी में रहते वक्त की सारी तफसील कुणाल कभी लिखेगा, तो अच्छा लिखेगा. सारी बातें मुझे याद भी नहीं रहती, न लिखने कोई बहुत शऊर है मुझे. मैं तो सिर्फ वही बातें लिख रहा हूँ, जिसे मैं ही लिख सकता हूँ.
एक घटना के बारे में बताना बहुत ज़रूरी है. एक बार की बात है, शायद ज्ञानपीठ का कोई कार्यक्रम था. तो प्रभात रंजन, शशिभूषण और मैंने तय किया कि हम तीनों शाम को एक साथ बैठेंगे. तो शाम को मेरे ही कमरे पर बैठकी जमी. थोड़ा-थोड़ा ही रसरंजन हुआ और फिर प्रभात जी ने इच्छा जताई कि वे अब नोएडा अपने रहवास के लिए निकलेंगे. मैंने कहा कि नीचे चलकर मार्केट में साथ खाना खाते हैं. शशिभूषण ने साफ मना कर दिया. वह वही मेरे कमरे में ही लेट गया. मैं और प्रभात जी नीचे आये, खाना खाया. फिर वे निकल गये. मैं शशिभूषण के लिए खाना पैक कराकर ले आया. आया तो देखा कि जो बोतल आधी से अधिक बची थी, वह पूरी साफ़ है. मैंने शशिभूषण को खाना खाने के लिए झकझोर कर जगाया पर वह नहीं उठा. मैं भी सो गया. सुबह उठकर देखता हूँ तो जिस चादर को वह ओढे हुए था, उसमें खून लगा है. मैंने उसको जगाया, तो देखा उसका चेहरा सूजा हुआ है. पूछा, यह क्या हुआ यार... उसने कहा, पता नहीं. थोड़ा-थोड़ा दर्द कर रहा है. फिर अपने कमरे पर चला गया. ऑफिस निकलते समय फोन किया तो उसने कहा कि तुम जाओ, मैं आज आराम कर रहा हूँ. मैं ऑफिस से वापस लौटकर आया तो उसके कमरे पर गया. 

देखता हूँ कि एक गिलास में व्हिस्की डाली है और वह एक पाइप से उसे शिप कर रहा है. बताने लगा, यार देखो मुँह खुल नहीं रहा. दर्द कर रहा था तो दर्द कम करने के लिए इस जुगाड़ से दवा ले रहा हूँ. अगले दिन उसको पास के अस्पताल ले गये. वहाँ उन लोगों ने एक्सरे वगैरह का रिपोर्ट लाने का एडवाइस देकर कुछ दवा लिख दी. इसके बाद ऑफिस पहुँचा तो दो-चार घंटे बाद सहकर्मी एक ब्लॉग दिखाने लगे. उस पर शशिभूषण ने बहुत विस्तार से किस्सा बनाकर लिखा हुआ है कि हरे प्रकाश ने किसी बात पर नाराज़ होकर जबड़ा तोड़ दिया है. इतना ही नहीं उसमें यह साबित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी कि किस तरह हरे प्रकाश अव्वल दर्जे का क्रिमिनल है और उसका लंबा आपराधिक इतिहास है.

मैं हतप्रभ. हमारे संपादक नागर जी तक भी ख़बर पहुँची. उन्होंने भी उस ब्लॉग को पढ़ा. उसे फोन किया जाए तो उसका फोन बंद. उन्होंने मुझे छुट्टी दी, मैं उसके कमरे पर पहुँचा तो वह थोड़ा-बहुत नशे में कमरे में बैठा कुछ लिख रहा है. पूछा तो कहा, यार ... ये फलाना (नाम नहीं लेना चाहता, उन सज्जन का) बहुत चूतिया है. तुम यहाँ से गये तो वे लोग आ गये और ज़बरन बोलने लगे कि हरेप्रकाश ने ही तुम्हारा जबड़ा तोड़ा है. तो मैंने मज़ाक में उन लोगों को तुम्हारे बारे में झूठ-सच बताने लगा. उसने खुद ही लिखकर लगा दिया अपने ब्लॉग पर. सच में पब्लिश कर दिया है क्या, बहुत बड़ा चूतिया है. ख़ैर शशिभूषण ने इलाज़ कराया और दो दिन बाद फिर से मेरे साथ ही ऑफिस जाने लगा. जिन सज्जन ने यह हरक़त की थी, वे उम्रदराज हैं और मेरे ही प्रांत के हैं. उस समय वे भी दिल्ली में रहकर फ्रीलांसिंग कर रहे थे. कविता भी लिखते हैं. उनको लोग बड़ा सज्जन मानते हैं पर वे छुपे रुस्तम हैं.

उन दिनों रवीन्द्र कालिया जी ने नया ज्ञानोदयका युवा लेखन अंक निकाला था, जो बहुत प्रसिद्ध हुआ था. उस अंक में उऩकी रचना न शामिल होने से वे बहुत आहत हुए थे और रवीन्द्र कालिया के खिलाफ बाजाप्ता संगठित आंदोलन चला रहे थे. उनके खिलाफ एक पूरी बुकलेट ही उन्होंने निकाली थी. वे मुझसे उस समय खफा इसलिए थे कि उनका पुराना परिचित होने के बावजूद उस बेहूदा अभियान में उनका साथ नहीं दे रहा था. उन्होंने दिल्ली और पटना के कुछ और लेखकों से भी मुझे लेकर कुछ बेहद घटिया बातें की थीं, जिनसे मेरा कोई लेना-देना न था. उन लेखकों के मन में आज भी मेरे प्रति मलाल है. मगर मैंने कोई सफ़ाई नहीं दी, न इसकी ज़रूरत समझी.

शशिभूषण और मेरी दोस्ती को लेकर बीच में दरार पैदा करने की कोशिश बहुत लोगों ने की, पर उसने कभी भी पूरे दिन का अबोला मेरे साथ नहीं रखा. लोदी कॉलोनी के बाद मैं जब साहिबाबाद रहने चला गया तो वह भी दो सप्ताह के भीतर ही वहाँ ठिकाना ढूँढकर रहने चला आया. फिर हम साथ ही ऑफिस आते-जाते. घर से निकलकर वह फोन करता और हम साथ स्टेशन पहुँचते और वहाँ से पैसेंजर ट्रेन से दिल्ली पहुँचते. एक ही दफ्तर में काम करते बल्कि हमारे बैठने की जगह भी अगल-बगल ही थी. अनेक बार हमने एक ही टिफिन में साथ बैठकर लंच किया. शाम को दफ्तर से हम तीन लोग सुरेश नीरव, शशिभूषण और मैं एक साथ निकलते. शिवाजी ब्रिज से पैसेंजर पकड़ते. कभी ट्रेन लेट होती तो साथ रसरंजन करते हुए ट्रेन का इंतज़ार करते. इस डेली पैसेंजरी पर उसने कहीं बहुत मार्मिक संस्मरण लिखा है.

नागर जी के कादम्बिनी से जाने के बाद हमारे जो नये इंचार्ज आये. उन्होंने हम तीनों को बहुत परेशान किया. जिनसे हम लोगों ने मिलकर लोहा लिया. बाद में मैं लखनऊ आ गया तो शशिभूषण से बातचीत में अंतराल आ गया था पर जब भी मैं दिल्ली जाता तो उससे मिलने की कोशिश करता. अगर एक-दो दिन मुझे रुकना होता तो अक्सर वह मेरे साथ रुकता भी. उसकी कुछ महत्वपूर्ण कहानियाँ तद्भव में छपीं. वह तद्भव के संपादक और कथाकार अखिलेश की बहुत आदर करता था और मैं भी करता हूँ. कभी वह मुझसे नाराज़ होता तो मेरी शिकायत उनसे करता. दरअसल हम दोनों ही उन्हें अपने पारिवारिक सदस्य की तरह मानते हैं. शशिभूषण को लगता और सही ही लगता कि अगर हरे प्रकाश को कोई समझा सकता है तो अखिलेश ही समझा सकते हैं. 

अखिलेश जी जब भी दिल्ली आते तो हम लोगों को ज़रूर बताते थे. हम साथ मिलने जाते थे. कालिया जी भी हमारे अभिभावक की तरह थे और बहुत प्यार करते थे. एक समय दिल्ली में कुणाल, रवीन्द्र स्वप्निल प्रजापति, शशिभूषणऔर मैं एक घनिष्ठ पारिवारिक सदस्य की तरह रहे. हमारा करीब रोज़ का मिलना-जुलना था. वह युवा कवि अविनाश मिश्र को बहुत प्यार करता था. जब भी हमारी बात होती, अविनाश के बारे में ज़रूर बात करता. वह प्रभात रंजन के भी बहुत करीब था, बल्कि प्रभात रंजन से भी उसकी लड़ाई और प्यार दोनों तरह के ताल्लुकात थे. कुल मिलाकर वह इतना अपना था, कि उसके जैसा कोई नहीं हो सकता. और हाँ वह था नहीं बल्कि है. वह इसे पढ़ेगा और मेरी बाट लगा देगा. 
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हरे प्रकाश उपाध्याय
संपादक
मंतव्य (साहित्यिक त्रैमासिक)
204, सनशाइन अपार्टमेंट, बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ-226023
मोबाइल-8756219902                  



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