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नंदकिशोर नवल : आलोचक का दायित्व-बोध : विमल कुमार

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श्रद्धा सुमन
नंदकिशोर नवल : आलोचक का दायित्व-बोध      
विमल कुमार





नंद जी खड़ाऊँ पहनते थे. मुझे आज भी उनके खड़ाऊँ की आवाज़ कानों में साफ सुनाई पड़ती रहती  है. वे अपने ऊपर के कमरे से सीढ़ियों से उतरते थे. आंगन के सामने एक छोटे से कमरे में मैं बैठा उनका इंतज़ार करता था. वे अक्सर  सफेद कुर्ता पाजामा या धोती या लुंगी पहने आते  थे. कई बार तो सफेद बनियान और लुंगी.

वे हिंदी के आलोचक थे. वे एक शिक्षक भी थे. वे समकालीन कविता के गहरे प्रेमी थे. तब पटना विश्वविद्यालय में कोई उनके जैसा समकालीन कविता का प्रेमी नहीं था. जब मैं मिला और बताया कि कविताएँ लिखता हूँ तब  उन्होंने मुझसे पूछा था- क्या आपने उदय प्रकाश की कविता पढ़ी है, स्वप्निल श्रीवास्तव की पढ़ी है? वे तब वेणु गोपाल की चर्चा करते थे. ये तीनों नाम मैंने पहली बार उनके मुख से ही सुना था. महेंद्रू के रानी घाट का वह मकान मुझे आज भी याद है. आंगन के ऊपर बैठकी में एक बार श्याम कश्यप को पहली बार उनसे बातचीत करते देखा था. तब मैंने इंटर पास किया था और शहर में किसी ऐसे व्यक्ति की तलाश में था जो मेरा मार्गदर्शन कविता में करें. मुझे आज यह याद नहीं कि किसने मुझे उनसे मिलने की सलाह दी थी या मैं बिना किसी व्यक्ति के रेफेरेंस से मिला था. पटना में एक तरफ मधुकर गंगाधर थे जो रेणुजी के सहयोगी थे दूसरी तरफ शंकर दयाल सिंह का पारिजात केंद्र था पर एक तीसरा केंद्र नवल जी थे.

वे जे पी आंदोलन के दिन थे. जे पी को भाकपा फासिस्ट बता रही थी. पटना के बेली रोड पर  एंटी फासिस्ट सम्मेलन हुआ था जहां आज चिड़िया खाना है. नंदकिशोर नवल जी भी जे पी को लेकर आलोचनात्मक थे. उसका कारण यह था कि वे बिहार प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे और तब पार्टी की ऑफिसियल लाइन इंदिरा जी के साथ थी लेकिन नवल जी इंदिरा जी के उस तरह समर्थक नहीं थे क्योंकि वह एक लेखक भी थे पर जी पी आंदोलन को लेकर वह  संशय में भी थे. बाद में मुझे उसके कारण समझ में आये पर पटना में यह बात साहित्यिक हलको में प्रसिद्ध थी कि नवल जी गंभीर व्यक्ति है और समकालीन कविता में गहरी रुचि रखते है.

आज मुझे याद नहीं आ रहा कि मैं उनसे पहली बार कैसे  मिला था. लेकिन यह मुझे अच्छी तरह याद है कि उनको मैंने अपनी कविताओं की एक छोटी सी कॉपी दिखाई थी जो तब वैशाली-कॉपी में लिखी गयी थी.

उन्होंने तब मुझे कुछ कवियों को पढ़ने की सलाह दी थी. मैं तब साहित्य में नव सिखुआ था. केवल मधुकर गंगाधर और शंकर दयाल सिंह से मिला था पर समकालीन साहित्य विशेषकर कविता में उन लोगों की कोई गति नहीं थी. अरुण कमल का नाम भी पहली बार उनके मुंह से  सुना था और एक दिन अरुण कमल उनसे मिलने आये थे लेकिन मैं उनसे मिला नहीं. उस छोटे से कमरे में बैठा नवल जी का इस बात के लिए इंतज़ार करता रहा कि वे कब सीढ़ियों से उतरकर आएंगे. 

मैं हिंदी का छात्र नहीं था इसलिए तब हिंदी आलोचना के बारे में बिल्कुल नहीं जानता था. केवल शुक्ल जी, रामविलास जी और नामवर जी का नाम सुना भर था. नवल जी तब आलोचना के क्षेत्र में स्थापित हो रहे थे और उनकी कीर्ति फैलने लगी थी. युवा लेखकों में वे लोकप्रिय हो रहे थे. बिहार में नलिन विलोचन शर्मा,डॉ  नागेश्वर लाल, सुरेंद्र चौधरी और चंद्र भूषण तिवारी ये चार नाम ही तब आलोचक के रूप में जाने जाते थे. लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर नवल जी अधिक जाने गए और सबसे अधिक किताबें उन्होंने ही लिखीं. आखिर क्या कारण है कि नवल जी को आज अधिक याद किया जा रहा है. हिंदी आलोचना में आखिर उन्होंने क्या अवदान था ? 

पटना के साहित्यिक जगत में तब यह बात प्रचलित थी कि नामवर जी से नवल जी के मधुर संबंध है और वे उनको बहुत मानते हैं. वैसे तब खगेन्द्र जी और नवल जी की जोड़ी भी  चर्चित थी लेकिन ख्याति अधिक नवल जी की थी. बाद में मैं बी ए इतिहास में आनर्स करने रांची चला गया और 82 में दिल्ली आ गया पढ़ने, तब नवल जी के सम्पर्क में नहीं रहा पर कुछ पत्राचार रहा. उनके पोस्टकार्ड मुझे आज भी याद हैं. किसी बड़े लेखक से यह मेरा पहला पत्राचार था. तब वह ‘आलोचना’ पत्रिका में हिंदी आलोचना का विकास नामकएक श्रृंखला लिख रहे थे. उनके लेखों को पढ़कर एक पत्र लिखा जिसका जवाब उन्होंने दिया था. मेरी जानकारी में आजादी के बाद हिंदी आलोचना के विकास पर वह पहला विस्तृत लेख था जो बाद में उनकी किताब के रूप में छपा. आज वह किताब हिंदी आलोचना के विकास पर  महत्वपूर्ण मानी जाती और छात्रोपयोगी भी. वह एक शिक्षक थे इस नाते वह ऐसी आलोचना के पक्षधर थे जो छात्रों के भी काम आए. दिल्ली आकर मैं अपनी पढ़ाई और नौकरी के संघर्ष में फंस गया जिससे उनके सम्पर्क में नहीं रह पाया, लेकिन पटना जब तब गया तो कभी- कभी उनसे मिलने भी गया. विवाह के बाद पत्नी के साथ भी.  

उनकी कृतियों से परिचित था, जब भी उनकी किताब आई उसे उलटा पलट जरूर. 80 के बाद उनकी कई किताबें आई और वे एक महत्वपूर्ण आलोचक के रूप में उभरे. वे एक लिक्खाड़ के रूप में भी चर्चित थे. दरअसल वह एक पेशेवर आलोचक थे. जीवन में कुछ करना चाहते थे. एक शिक्षक के रूप में भी उनकी बहुत ख्याति थी. पर उन्हें लिखने में आनंद आता था. वे अपने निंदकों और आलोचकों की परवाह नहीं करते थे. वे अपने विचारों में दृढ़ थे. लेखकों के बारे उनकी अपनी स्वतंत्र राय थी. वे कहते थे युवा लोगों को मध्यकाल के कवियों को पढ़ना चाहिए. एक बार उन्होंने मुझसे अपूर्वानंद के बारे में कहा कि वे अज्ञेय आदि में दिलचस्पी लेते हैं लेकिन भक्तिकाल के  कवियों में नही. तब अपूर्वानंद से मेरा परिचय नहीं हुआ था पर उत्तरशती में उनकी एक कविता पढ़ी थी और नवल जी को एक कार्ड भी भेजा था. 

नवल जी को ख्याति निराला रचनावली के सम्पादन से मिली. मुक्तिबोध रचनावली की तरह वह एक व्यवस्थित रचनावली थी. बाद में तो कई खराब रचनावलियाँ आई. वे शुद्ध हिंदी पर बल देते थे और  प्रूफ की गलतियों को बर्दाश्त नहीं करते थे. इस प्रसंग में वे शिवपूजन सहाय की चर्चा करते थे. उन्होंने शिवपूजन जी के गद्य पर एक लेख लिखा था जो इस तरह का पहला लेख था. मुझे याद है कि पूर्वग्रह में नवल जी का एक पत्र छपा तथा जिसमें उन्होंने लिखा था- ‘मेरे जीवन का यह पहला लेख है जो किसी पत्रिका में शुद्ध छपा है.’

निराला को वे बीसवीं सदी के सबसे बड़े कवि मानते थे. एक बार इलाहाबाद में  हिंदी साहित्य सम्मेलन के निराला पर कार्यक्रम में वे आये थे और उनकी ही अध्यक्षता में गोष्ठी थी. मैंने पहली बार कोई लेख मंच से पढ़ा. पर्चा खत्म होने पर उन्होंने  मेरी तारीफ की जबकि उन्होंने कभी मेरी तारीफ नहीं की थी. मुझे आश्चर्य भी हुआ और उनके इस उत्साह से बल भी मिला.

शायद वह निराला के प्रति मेरे अगाध प्रेम को  भांप गए थे. उस कार्यक्रम में सत्यप्रकाश मिश्र और नीलाभ भी थे. नवल जी में एक खासियत थी कि उन्होंने केवल निराला पर ही नहीं बल्कि राष्ट्र वादी कवियों मैथिली शरण गुप्त और दिनकर पर भी लिखा. हमारे वामपंथी आलोचकों ने इन दोनों का मूल्यांकन नहीं किया बल्कि उपेक्षा तक की और उन्हें  दक्षिणपंथी खेमे का नायक बना दिया.

आज के कई समकालीन कवि इन दोनों का नाम सुनकर नाक भौंह सिकोड़ते है लेकिन नवल जी ने बिना किसी पूर्वग्रह के इनका मूल्यांकन किया,विश्लेषण किया. ‘दिनकर’ पर जब भाजपा ने दिल्ली के विज्ञान भवन में एक समारोह किया, जिसमें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने संस्कृति के चार अध्याय पर बोला तो उसे कवर करने मैं गया हुआ था. वह इतना नकली और राजनीतिक कार्यक्रम था कि मुझे इस बात से चिढ़ हुई कि दिनकर का इस्तेमाल किया जा रहा,तब रात मैंने नवल जी को फोन कर उनकी राय दिनकर के बारे में पूछी और बताया कि मोदी ने दिनकर के बारे में क्या-क्या बोला तो नवल जी ने छूटते ही कहा –

"दिनकर दक्षिणपंथी नही थे. भाजपा उनको भुना रही है और उनकी गलत छवि बना रही है."

मैंने अगले दिन दिनकर विवाद पर एक खबर भी चलाई थी. नवल जी टेक्स्ट आधारित आलोचना करते थे हालांकि लेखकों का एक वर्ग उनकी आलोचना पद्धति से खुश नहीं था. दिनमान में एक युवा लेखक ने  नवल जी की आलोचना की थी पर धीरे-धीरे  नवल जी की धाक अपने कार्यों से बनने लगी. रामविलास जी की तरह वे अपने काम में लगे रहे और समारोहों में जाना कम कर दिया. वे उत्तर छायावाद को भी केंद्र में ले आये. हिंदी आलोचना में उत्तर छायावाद पर ध्यान नहीं दिया गया. नवल जी के ससुर रुद्र जी उत्तर छायावाद के कवि थे. उन्होंने उनकी भी रचनावली सम्पादित की. एक बार जब मैं और रामकृष्ण पाण्डेय उनसे मिलने गए तो उन्होंने कहा कि


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"लेखक का काम केवल लिखना नहीं बल्कि उसे छपवाना भी है और उसे पाठकों तक पहुंचना भी.”

असल में नवल जी एक पेशेवर लेखक थे जिन्होंने अपने जीवन का सार्थक इस्तेमाल किया और तुलसी दास से लेकर युवा कवि राकेश रंजन तक को पसंद किया. वे वाम पंथी थे पर केवल वाम पंथी नहीं थे.
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 vimalchorpuran@gmail.com

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