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रजनी कोठारी और भारत में राजनीति : प्रांजल सिंह

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‘पॉलिटिक्स इन इंडिया’ और समकालीन राजनीति
प्रांजल सिंह  

यह लेख रजनी कोठारी की कालजयी रचना पॉलिटिक्स इन इंडियाकी गोल्डन जुबली के अवसर पर वर्तमान राजनीति में चल रही नई बेचैनियों को महसूस करते हुए लिखा गया है. यह बेचैनी मूल रूप से राजनीति की परिभाषा को लेकर है. वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए कहें तो राजनीति का आशय केवल दलीय गोलबंदी का पर्याय बन कर रह गया है,जिसका परिणाम यह हुआ है कि राजनीति के अंदर या सामाजिक अन्योन्यक्रिया को भी पार्टी लाइन पर रख कर सोचा समझा जा रहा है.

यह प्रक्रिया राजनीति के अंदर ऐसी भाषा का निर्माण कर रही है जो आम जन के बीच ‘वेऔर हमके विभाजन को बढ़ाती जा रही है. त्वरित रूप से इसके दो नतीजे निकाले जा सकते हैं. एक,विभाजन के प्रकरण में राजनीति अपने निर्धारक तत्वों को खोज पाने में असफल होती हुई नजर आने लगी है. दूसरा, नागरिक अधिकार, मानवाधिकार या फिर कृषक आंदोलनों को समझने के लिए पार्टी लाइन के इतर राजनीति की कोई ऐसी  परिभाषा संभव नहीं हो रही है  जो इन आंदोलनों के संघर्ष को समेटते हुए इन्हें गतिशीलता दे सके.

यद्यपि रजनी कोठारी इस गतिशीलता को वैकल्पिक राजनीति के तौर पर देखते थे. इसकी शिनाख्त के लिए कोठारीराज्य की क्रियाशीलता और उसके व्यवहारों से बाहर निकल कर राज्य का समाज के साथ किस प्रकार का व्यवहार रहा है? इस सवाल को विश्लेषण का केंद्र बनाते हैं. जिसका एक आधार स्वायत्त आयामों से जुड़ा हुआ है, जिसमें अनेक प्रकार के राष्ट्रीय लक्ष्यों और साधनों की प्राथमिकता का निर्धारण शामिल है. लेकिन वर्तमान राजनीति में इस निर्धारण को लेकर एक संशय भी बना रहता है. फिर भी राजनीतिक संस्थाओं का दृश्यमान रूप अपनी एक गतिशीलता और प्रमुखता प्राप्त कर लेता है और समाज के लक्ष्यों को स्पष्ट भी कर लेता है. इसके बावजूद भी राजनीति के पास राजनीतिक संस्थाओं और समाज के लक्ष्यों के मिश्रित स्वरूप को परिभाषित करने का कोई आयत नहीं है. जिससे यह स्पष्ट हो सके कि समाज में राजनीतिक संरचना की वास्तविकता का क्या अर्थ है? मसलन अल्पसंख्यकों पर,आदिवासियों,दलितों पर हो रहे बेवजह हमले तथा हाल ही में हुई पालघर की हिंसा और  सामाजिक ताने-बाने से खेलती सियासत के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले स्वर न जाने किस नक्कारखाने में तूती की तरह बोल रहे हैं.

इसका एक अंदाजा यह भी लगाया जा  सकता है कि वर्तमान सामाजिक कार्यकर्ता या बौद्धिक वर्ग जो ज़मीनी स्तर के संघर्षों में सक्रिय रहने का दावा करते है या इनके लिए लिखते-पढ़ते हैं,वे आज स्वयं राष्ट्रीय या बड़ी राजनीति का हिस्सा बनने का इंतजार कर रहे हैं.दूसरी आधार राजनीति के साथ समाज के संबंधों का है.जिसका मुख्य आग्रह राज्य तथा नेता के हाथों में निर्णय की ताकत देने से नहीं बल्कि निहित स्वार्थों से स्वायत्त होने की स्थिति का निर्माण से है. हुकूमत को ऐसा रास्ता चुनना चाहिए जो इन स्वार्थों की कैदी न बने बल्कि जनसमूहों के हितों को अग्रसर करने के उत्प्रेरक तत्व के रूप में कार्य करें.

ऐसे में पार्टी और राजनीति के रिश्तों को खँगालने की आवश्यकता है. यहाँ उस समझ को भी पकड़ना होगा जो राजनीति को दलीय राजनीति की परिभाषा के रूप में अभिव्यक्त करने लगी है. जबकि कोठारी इस पुस्तक के माध्यम से हमें आगाह करते रहे कि जटिल सामाजिक ढांचे वाले इस देश में अपनाई गई राजनीतिक व्यवस्था का विवेचन करते समय शक्ति या सत्ता के ढांचे और उसकी सोद्देश्यता के संबंध में और गहराई से आकलन किया जाए कि सत्ता और अधिकार के बल पर ही टिका पार्टी पद्धति का ढांचा  सामाजिक संरचना के साथ किस प्रकार सर्वग्राही है. साथ ही क्या यह पार्टी पद्धति वर्तमान राजनीति में सत्ता के इर्दगिर्द चल रहे अधिकार संबंधी आन्दोलन, किसान आन्दोलन, छात्र आन्दोलन को समझने का अवसर देती है? ऐसे में इन आंदोलनों से गुथ कर निकलने वाली राजनीति की परिभाषा को ऐतिहासिकता से देखने की ज़रूरत है. जिसने दल विहीन लोकतंत्र और राजनीति की मांग तक कर डाली थी.

एम. एन. रॉय की लिखी हुई पुस्तक ‘पॉलिटिक्स, पावर ऐंड पार्टीज’  को इस मांग को रखने वाली आवश्यक कृति के तौर पर देखा जा सकता है. जिसके दावे के तहत दलगत राजनीति के बजाय दल-विहीन राजनीति का सूत्रीकरण करते हुए जन समितियों के निश्चित विन्यास को पेश किया जाता है. इसके पीछे रॉय का तर्क था की दलगत राजनीति में लोकतंत्र का निषेध निहित होता है जो लोगकी अवधारणा को ही  पंगु बना देती है. क्योंकि यह लोगों की योग्यता और सृजनशीलता को नकारता है. इस आधार पर रॉय केंद्रीकृत सत्ता के विपरीत रैडिकल डेमोक्रेसी की वकालत करते हुए यह बताते हैं कि पार्टियों की प्रतियोगिता के तहत स्थापित होने वाला लोकतंत्र जनता का जनता के द्वारा न होकर केवल जनता के लिए कुछ नेताओं द्वारा संचालित होता है. जिसमें व्यक्ति की सम्प्रभुता का कोई स्थान नहीं. जिससे जनता राजनीति को लेकर क्या सोचती है? इसका लोप हो जाता है.

यद्यपि सत्तर और अस्सी के दशक में कोठारी वैकल्पिक राजनीति का मर्म भी इसी प्रश्न के इर्दगिर्द खोज रहे थे. कोठारी की इस तलाश को फ्रेड डालमेयरने रेडिकल लोकतांत्रिक मानवतावादी करार दिया था. यहीं पर रजनी कोठारी द्वारा प्रयोग किया गया अराजनीति की अवधारणा का संदर्भ भी आता है जो भारतीय समाज की जाति व्यवस्था की आधारशिला पर राजनीति और समाज के रिश्तों की सुध लेता है. मुखियागीरी और बिरादरी के आधार पर सत्ता की बाज़ी को कोठारी अराजनीतिक करार देते है क्योंकि इस बाज़ीगरी में एकताबद्ध राजनीतिक ढांचे का निर्माण करने की कूबत नहीं थी. इस कूबत के निर्माण के लिए आधुनिकीकरण की चालक शक्ति जिसका नाम राजनीतिकरण है, इसने सत्ता के मानकों को बदल दिया. इस बदलाव का आशय यह नहीं है कि समाज के मूलभूत तरीकों या मानकों को एक सिरे से खारिज कर दिया. बल्कि पुरानी परंपरा और आधुनिकता अलग-अलग देखने के बजाय  परस्पर संबंध की प्रक्रियाओं  के आधार पर अग्रसर होने लगी. मूलतः लोकतांत्रिक राजनीति आवश्यकताओं की राजनीति में परिवर्तित हो गई. इसके दो नतीजे निकले-पहला, जाति प्रथा ने नेतृत्व को राजनीतिक गोलबंदी के लिए संरचनात्मक और विचारधारात्मक आधार प्रदान किया. जिससे राजनीति में विभिन्न तबकों को विभिन्न प्रतिनिधि संगठन मिले और पहचान का वह पैमाना मिला जिसके लिए समर्थन को ज़मीन पर उतरा जा सके. दूसरा स्थानीय दावों के साथ नेतृत्व को रियायती सलूक करना पड़ा. उनके बीच सत्ता की आकांक्षा को लेकर बनी सहमती को मान्यता देनी पड़ी और राजनीतिक स्पर्धा को पारंपरिक शैलियों में संयोजित करना पड़ा. इस तरह जातियां आर्थिक और राजनीतिक उद्देश्यों के लिए संगठित हो गई.

इस राजनीतिकरण की प्रक्रिया में उन पहलुओं को किस प्रकार विश्लेषित किया जायेगा जो सामाजिक समानता पर आधारित और अपनी भूमिका को राजनीतिक सत्ता में परिवर्तित करने के लिए दलीय राजनीति का रूप ग्रहण किये हुए थे वे आज सिर्फ अपनी जाति की चौधराहट को ही स्थापित कर पाए हैं. उत्तर प्रदेश और बिहार के क्षेत्रीय दल इसके प्रमुख उदाहरण हैं जिनके काम करने की प्रणाली आज भी बिरादरी और मुखिया गिरी की चौधराहट को अंजाम देती है. दूसरी ओर इन चौधराहटों में लगातार विकास भी हो रहा है जो धीरे-धीरे सेना का रूप ग्रहण करती हुई संविधान, इतिहास के नाम पर हिंसा की राजनीति को बढ़ावा दे रही है. साथ ही अपनी वैधानिकता हासिल करने के लिए दलीय राजनीति का दामन भी थाम लेती है. ताज्जुब है कि भारतीय राजनीति के विश्लेषक भी इसके समर्थक या विरोधी ही बनते जा रहे है.

आन्दोलन, दल और राजनीति के इस त्रिशंकु को समझने के लिए रजनी कोठारी के विश्लेषण के साथ विनोबा की लिखी हुई किताब फ्रॉम भूदान टू ग्रामदान के मानदंडों  को समझना आवश्यक है. जिससे दो बातें साफ़ तौर पर निकलती हैं-एक, आन्दोलन के द्वारा राजनीति के मायने किस प्रकार परिवर्तित होकर दलीय राजनीति से बाहर की एक समझ बनाते हैं. दूसरी तरफ कोठारी की रचना के अनुसार वर्तमान राजनीति में एक प्रतीक्षालय बना हुआ है. विनोबा ने दलगत प्रणाली पर आधारित निर्वाचन पूरी तरह से खारिज करते हुए राज्य की संस्था द्वारा खुद को समाज पर आरोपित करने के प्रति अपना अविश्वास ज़ाहिर किया. उनका कहना था कि व्यक्ति की निष्ठा, सत्य और अपने अन्तःकरण के प्रति होनी चाहिए ना कि पार्टी के प्रति. विनोबा के इस कथन से वर्तमान राजनीति से कई उदाहरण लिए जा सकते हैं. जहाँ पर व्यक्ति की निष्ठा पार्टी के प्रति ज्यादा दिखती नज़र आती है. मिसाल के तौर पर दो प्रकार के समर्थक देखे जा सकते हैं-एक, अंध-समर्थक और अंध विरोधी. इन समर्थकों के बाहर के लोगों को कभी वामपंथी, संघी, निराशावादी या निष्क्रिय कह कर सम्बोधित किया जाता है. यह सम्बोधन इन दोनों समर्थकों की सुविधा पर आधारित होता है कि आप का विमर्श किससे चल रहा है अंध भक्त समर्थक से या अंध विरोधी से. इस प्रकार का रवैया भारतीय राजनीति के लिए एक चिंता का विषय है लेकिन हैरत की बात यह है कि समाज विज्ञान भी इसकी चपेट में है.

बहरहाल, विनोबा ने यह भी बताया कि व्यक्ति की निष्ठा जब तक पार्टी से बंधी रहेगी. हालत उन भेड़ो की तरह होगी जिन्हें ना अपना चरवाहा चुनने की स्वतंत्रता होगी ना ही अपने हालात सुधारने की. चरवाहा चुनने की प्रक्रिया में दलीय समर्थकों का एक ऐसा वर्ग भी उभरा है जो पार्टी निष्ठा के नाम पर काटने-मारने के लिए आमादा है. ऐसा क्यों हो रहा है? किस राजनीतिक इतिहास की यह उपज है? इन प्रश्नों पर लगभग कारगर कथन कहना अभी बाकी है. क्योंकि जिस प्रकार दलीय राजनीति वर्तमान में धर्म, जाति और संरचनात्मक हिंसा के आधार पर सत्ता का निर्माण कर रही है. उसी ढर्रे पर लगभग भारतीय समाज विज्ञान की बौद्धिक दुनिया भी है  जो राजनीति की पहचान करने के लिए इन्हीं निर्माण तत्वों का सहारा लेना प्रारम्भ कर चुकी है. रोजमर्रा की जिंदगी से जुड़ी राजनीतिक हिंसा, नौकरशाही प्रभुत्व की अकड़, आंदोलनों से निकलने वाले तेज़ को समझने की चर्चा से ये लगभग चुकते जा रहे है.

हालांकि रजनी कोठारी की रचना से इस आशा का प्रारूप तैयार किया जा सकता है कि राजनीति दल का संगठन करने और चुनाव लड़ने तक ही सीमित नहीं है बल्कि सरकार के विरुद्ध आन्दोलन का भी नेतृत्व कर सकता है. इसके लिए कोठारी राष्ट्रीय आन्दोलन को एक निर्णायक प्रयोगशाला के रूप में देखते हैं;  सत्याग्रह, अनशन, सीधी कार्यवाही हमारी राजनीतिक परंपरा का हिस्सा है जो लोकतंत्र की परिभाषा को भी भारतीय रूप देती है तथा जनता के नाम पर आन्दोलन करने की सहमति को आगे बढ़ाती है.

जे पी के आन्दोलन को इसी सहमति का एक उदाहरण माना जा सकता है. जिसमें उन्होनें सामाजिक समुदाय की थीसिस का प्रतिपादन किया क्योंकि वे पार्टी को व्यक्ति की स्वतन्त्रता, स्वायत्तता का हनन करने वाली संस्था मानते थे. इस अवधारणा को कोठारी बहुत करीब से देखते और समझते हैं क्योंकि कोठारी जे पी के साथ आतताई सत्ता के खिलाफ चल रहे आन्दोलन के साझेदार भी थे. यहाँ कोठारी इस बात को समझते थे कि भारतीय राजनीति में स्थानीय स्वायत्तता को लोकतंत्र का और भू क्षेत्रीय स्वायत्तता को व्यक्तिगत आज़ादी का पर्याय समझने का घपला ही सबसे ज्यादा भ्रामक है. यह भ्रम लोकतंत्र में तब ज्यादा महसूस होता है जब मजबूत सरकार के नाम पर तानाशाही सरकार का निर्माण होने लगता है. इस पक्ष पर कोठारी की भविष्यवाणियों को दोहराने की ज़रूरत है,  

‘भारत की लोकतंत्र की कल्पना यह नहीं है कि, शासक वर्ग एक अव्यवस्थित जनसमूह से शक्ति प्राप्त कर ले. भारत कई बातों में ऐसे जन-राज्य से भिन्न है. साथ ही भारतीय यह भी नहीं मानते कि भारत जैसे पिछड़े देश के लिए मजबूत और तानाशाही सरकार अच्छी है जो चुनाव और वोट के झंझट से बरी हो जाए. कुछ बुद्धिजीवी व्यक्ति ऐसे भी हैं जो लोकतांत्रिक राजनीति की अस्थिरता से ऊब कर मजबूत सरकार को अच्छा समझने लगते हैं. लेकिन ऐसी समसामयिक तानाशाही और मजबूत सरकारों का जो अनुभव हमें पास-पड़ोस में हुआ है उससे पता चलता है कि ये सरकार लोकतांत्रिक सरकार से कम अयोग्य नहीं है. दूसरी तरफ, ये लोकतांत्रिक सरकार की तरह अपने आप को सुधार नहीं सकती और यह एकदम गैर ज़िम्मेदारी और निरंकुशता का रुख अख़्तियार कर सकती है. तानाशाही सरकारें बौद्धिक वर्ग के असंतोष के बल पर एक बार सत्तारूढ़ हो जाने के बाद बौद्धिकता का जामा उतर फेंकती हैं और निहित स्वार्थों की कठपुतली बन जाती है. इस का अंजाम यह होता है कि जनता की स्वतंत्रता का संकट तो होता ही है, शासन की कुशलता भी नहीं बढ़ती’.

कोठारी और पचास वर्ष पूरे करती हुई उनकी पुस्तक का यह वाक्य हमारी राजनीति के लिए आधार वाक्य जैसा ही मालूम होता है. विगत कुछ वर्षों में “मजबूत सरकार बननी चाहिए” या फिर “हमें मजबूत सरकार चाहिए”  जैसे जुमले हमें सुनने को बार-बार मिलते रहे. शायद इन जुमलों के पीछे की उस मानसिकता को पकड़ पाना मुश्किल हो रहा है कि मजबूत सरकार के नाम पर स्थापित सरकारें अधिनायकवादी अभ्यास करने लगती हैं जो राजनीति के प्रारूप में केवल सत्ता प्राप्ति के तिगड़म को ही शामिल करती हैं. हलांकि की यह बात भारतीय राजनीति में नई नहीं है, आपातकाल इसी अधिनायकवाद के अनुभव का परिणाम था.

बहरहाल, आखिर में, ग्यारह अध्यायों में विभक्त यह पुस्तक केवल राजनीति की परिभाषा में दलीय प्रणाली से ही जिरह नहीं करती है बल्कि राजनीति की अवधारणा का राजनीतिक इतिहास भी बताती है. और भविष्य की खुदबुदाहटों को भी शामिल करती है. वर्तमान की राजनीति के सफरनामे में इस किताब को शामिल करते हुए इसके कुछ अधूरे वाक्यों को पूरा करने की ज़रूरत भी महसूस होती है. ऐसे में यह कहना भी ज़रूरी है कि इस किताब को तात्कालिक परिस्थितियों के बरक्स रख कर पढ़ने के लिए ख़ास तरह का बौद्धिक धैर्य भी चाहिए. यह धैर्य सक्रिय जीवन में अनायास अर्जित की गई अवधारणाओं, मान्यताओं, वैचारिक पदों और श्रेणियों पर पुनर्विचार करने के लिए पाठक को तैयार भी करता है. इस मानसिक तैयारी में यह सजगता भी शामिल है कि कोई भी विमर्श अपने समय के समग्र यथार्थ का पर्याय नहीं होता बल्कि यथार्थ के नियामक तत्व हमेशा परिवर्तनशील होते हैं. इसलिए हमें विमर्श की प्रासंगिकता और उसके औचित्य की समय-समय पर समीक्षा करते रहना चाहिए. यह लेख उसी समीक्षा की योजना का एक हिस्सा है.
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