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पेंटिग : Salman Toor |
इरशाद ख़ान सिकन्दर शायर हैं और उनके दो संग्रह भी प्रकाशित हैं. इधर कहानियाँ भी लिख रहें हैं. भाषा अच्छी और चुस्त है. कहानी पढ़ा ले जाती है.
हिन्दू मुस्लिम रिश्तों के तल्ख़ होते जाने के बीच से यह कहानी उठती है और फिर विगत के उनके सम्बन्धों के खट्टे-मीठेपन के ब्योरों में चली जाती है. ऐसा लगता है कथाकार बड़े लिहाज़ में इसे लिख रहा है.
कहानी प्रस्तुत है आप देखें.
लाली मेरे लाल की
इरशाद ख़ान सिकन्दर
"तो क्या हमारी कहानी ख़त्म हो जायेगी?"
"मेरे अज़ीज़ कहानियाँ शुरू ही होती हैं ख़त्म होने के लिए इतना अफ़सोस काहे भाई? मियाँ मेरी मानो तो परे फेंको सारी कहानी, समझो गिर पड़े थे उठो धूल झाड़ो चल पड़ो. ...यहाँ तो किसी के गिरने पर हँसने का भी वक़्त नहीं है किसी के पास, यही नहीं ज़रा नज़र दौड़ाओ तो पाओगे कि किसी की मौत पर भी रोने का वक़्त नहीं है किसी के पास ये चलते-फिरते मुर्दा लोग हैं देखन में आली, जज़्बात से ख़ाली’’!
सरदार बिन्दू सिंह ने बड़ी बूढ़ियों की तरह ख़ास लखनउवा अन्दाज़ में समझाते हुए कहा.
सरदार बिन्दू सिंह ने बड़ी बूढ़ियों की तरह ख़ास लखनउवा अन्दाज़ में समझाते हुए कहा.
‘’बिन्दू भाई इसी लिए तो हम शहर में इतने बरस बिताकर भी शहर को कभी ‘अपना’ नहीं कह पाये जबकि गाँव के लिए अब भी ज़बान पर ‘अपना गाँव’ ही आता है.‘’ कमाल ने ठंडी आह भरकर रुँधे हुए गले से अपना दुख व्यक्त किया.
‘’वो शायद इसलिए कि तुमने बरसों से गाँव नहीं देखा’’! सरदार के जुमले में अनुभव और विश्वास का संगम था.
मुँहफट सरदार की ये बात कमाल के कानों में चुभ सी गयी. वो पल भर को भूल ही गया कि उसकी प्रेमकहानी और नौकरी दोनों पर तलवार लटक रही है. उसने सरदार बिन्दू सिंह को ग़ौर से देखा और सोचा कि दुनिया में सभी चीज़ें जो अभी ‘हैं’ वो एक दिन ‘था’ हो जायेंगी लेकिन सरदार के लिए ‘था’ लफ़्ज़ बना ही नहीं है. सरदार ‘हा है और रहेगा’! कमाल मुस्कुरा उठा और मन ही मन कुछ हिसाब लगाने के बाद उसने लैपटॉप उठाया और गाँव का टिकट बुक किया. टिकट बुक करते हुए लगा कि जैसे लैपटॉप पर कोई फ़िल्म सी चल रही हो. चल भी रही थी लेकिन लैपटॉप पर नहीं,उसके दिमाग़ में. पाँच बरस से अधिक समय हो गया उसे गाँव से बिछड़े हुए. इस दौरानिये में देश की सरकार बदल गयी कितने राज्यों की सरकारें बदल गयीं, लोगों के दिल बदल गये और तो और इस बदलाव से उसकी नौकरी और मुहब्बत दोनों ख़तरे में हैं. नौकरी तो ख़ैर देख ली जायेगी लेकिन मुहब्बत..क्या मुहब्बत भी कोई देख ली जाने वाली चीज़ है?
कितनी मुश्किल से उसने इस सॉफ्टवेयर कम्पनी में अपनी साख बनायी थी लेकिन बीती शाम बॉस ने बुलाकर साफ़-साफ़ कह दिया था-
‘’तुम सोच लो कि तुम्हें नौकरी करनी है या मुहब्बत! तुम्हारे ‘लव जिहाद’ के चक्कर में कम्पनी की रेपो ख़राब नहीं करेंगे हम. एक हफ़्ते का वक़्त है तुम्हारे पास!’’
और यही बात नीलू को भी कह दी गयी थी. हम दोनों एक ही कम्पनी में थे. हमउम्र थे. कुलीग थे. दो जिस्म एक जान थे और मियाँ बीवी होने की जद्दो-जेहद में थे, लेकिन नीलू के हिस्से का फ़ैसला भी मुझे ही करना था. मसअला ये नहीं था कि सारे फ़ैसले मेरे ज़िम्मे थे बल्कि मसअला ये था कि पिछले दिनों नीलू के घरेलू मुआमलात में सियासी दख़ल हद दर्जा बढ़ गया था.
(यहाँ लफ़्ज़ घरेलू को पूरा देश और सियासी दख़ल को सियासी मरज़ कहना ज़ियादा मुनासिब है लेकिन कहानी चूँकि नीलू और कमाल की है सो हम विस्तार में नहीं जायेंगे)
सारे समीकरण का निचोड़ और गुणा-भाग का परिणाम ये निकला कि सबकी भलाई का ख़याल करते हुए या तो मैं नौकरी और ये शहर छोड़ दूँ या ‘घरवापसी’ कर लूँ.
इस शहर में तो मैं आया था नौकरी तलाशने मुझे क्या इल्म था कि नौकरी मिलते ही मुहब्बत हो जायेगी और वो भी एक हिन्दू लड़की से. कमबख़्त! सारी दुनिया प्रैक्टिकल हो रही है अपना आगा-पीछा सोचकर चल रही है लेकिन मुहब्बत अभी भी बेवक़ूफ़ की बेवक़ूफ़ ही है. इसे तो बस हो जाना है और मुसीबत झेलें वो जिसे ये हो जाए. पिछले पाँच साल से झेल ही तो रहे हैं. कभी अपने परिवार को मना रहे हैं तो कभी नीलू के परिवार को मना रहे हैं. इस मान-मनव्वल में कब पाँच साल निकल गये पता ही न चला और अब जब इतनी रियाज़त के बाद सारे सुर कुछ-कुछ सधने लगे थे तो सियासी भेड़ियो ने ये नया राग छेड़ दिया. भेंचो..ये मुहब्बत के दरमियान सियासत कहाँ से टपक पड़ती है?
नीलू का चेहरा साँवला क़द-काठी औसत नैन नक़्श तीखे उम्र बहकने की और दिल धड़कने का था जो कि मेरे लिए लगातार धड़क भी रहा था लेकिन उसकी धड़कन में इज़ाफ़ा कर रहे थे उसके मुहल्ले के कुछ सियासी लोग इन लोगों ने अभी तक इतनी शराफ़त दिखाई थी कि ज़बान के इलावा और किसी चीज़ का इस्तेमाल हम पर न किया था जैसा कि उनके मुताबिक़ देश के अन्य स्थानों पर हो रहा था. उन्होंने नीलू के परिवार के सामने ही हम दोनों को अपनी सारी शर्तें समझा दी थीं और ऐसा ही कोई परचा या मौखिक सन्देश हमारी कम्पनी के बॉस तक भी भिजवा दिया गया था. इस पूरे प्रकरण में नीलू ने फ़ैसला मुझपर छोड़ दिया था हाँ उसकी तरफ़ से ये स्पष्ट था कि वो कोई फ़िल्मी अर्थात क्रांतिकारी क़दम नहीं उठाएगी. यानी बात स्पष्ट थी कि घर से भागने-वागने वाला आइडिया नहीं चलेगा. अब रास्ता तो यही था कि मुझे शर्तें क़ुबूल करके अपनी नौकरी और मुहब्बत दोनों को बचा लेना चाहिए. लेकिन मेरा दोस्त सरदार बिन्दू सिंह लखनवी जो इस शहर में नीलू के बाद मेरी दूसरी बल्कि पहली कमाई था उसकी बात भी क़ाबिले-ग़ौर थी. मुझे कमाल से आ की मात्रा हटाकर कमल कर लेने में कोई आपत्ति न थी लेकिन सरदार का कहना था कि ‘’क्या ये इतना आसान है? और तुम कहाँ-कहाँ से आ की मात्रा हटाते फिरोगे अब ये मात्रा तुम्हारे जीन में समा चुकी है.‘’
वो बोलते-बोलते आक्रोशित हो उठा था-
‘’रहे होंगे कभी तुम्हारे पूर्वज हिन्दू लेकिन क्या तुम्हें इल्म है कि वो वाक़ई हिन्दू ही थे और थे तो क्यों मुसलमान हुए? और हुए भी तो उन्हें हासिल क्या हुआ? और अब तुम्हें ‘घर वापसी’ करके क्या हासिल होगा? एक नौकरी और एक अदद लड़की! जिसे तुम मुहब्बत कहते या समझते हो.’’
मैं कुछ बोलूँ इससे पहले ही वो दुबारा बोल उठा था-...और बात हिन्दू मुसलमान की भी नहीं है आज का नौजवान वैसे भी मज़हब को खूँटी पे टांगकर ही घर से निकलता है ऐसा न करे तो एक क़दम न चल पाये. बात ये है मेरे भाई कि क्या जब-जब सियासत बदलेगी हम मज़हब बदलेंगे? ...और अगर बदलने का जी हुआ भी तो अपनी मर्ज़ी से बदलेंगे यार. किसी के दबाव-वबाव में नहीं! मैं तो कहता हूँ कि आस्था,भोजन और सम्भोग ये तीनों इन्सान की निजी पसन्द या नापसन्द हैं इसमें किसी को भी टांग अड़ाने का कोई हक़ नहीं है भेंण दी...
सरदार हिन्दी उर्दू बोलते हुए कान बन्द कर लो तो बिल्कुल सरदार नहीं लगता था लेकिन गाली का ज़ायक़ा ज़बान पर आते ही समाँ बदल जाता था बदले भी क्यों न हिन्दी उर्दू उसकी सीखी हुई ज़बानें थीं और गाली का असली मज़ा तो मादरी ज़बान में ही आता है ख़ासकर अधिक भावुकता या क्रोध के लम्हों में.
यूँ तो नाम मेरा कमाल था लेकिन ये नाम फबता सरदार पर था. वैसे मैंने आज तक जितने सरदार देखे सब कमाल ही देखे. सारे सरदार मुझे सरदार बिन्दू सिंह ही लगते हैं. अब जबकि सरदार की बात निकल ही पड़ी है तो क्यों न लगे हाथ मुख़्तसरन उसकी भी तफ़सील बयान हो जाए. सरदार यूँ तो मेरा कुलीग था लेकिन उम्र और तजरुबे में मुझसे चढ़ बढ़कर था. सरदार इसी शहर में अपनी माँ और बीवी बच्चों के साथ रहता था. लेकिन उसका आबाई वतन ये शहर नहीं बल्कि लाहौर था. इस कम्पनी में नौकरी ज्वाइन करते ही सरदार से मेरी दोस्ती हो गयी थी. यानी नीलू के मेरी ज़िन्दगी में दाख़िले से पहले सरदार की इंट्री हो चुकी थी. दोस्ती बढ़ी तो एक दूसरे को जानने का सिलसिला भी बढ़ा, सिलसिला बढ़ा तो मालूम हुआ कि सरदारनी घर पे दारू नहीं पीने देती. तो ऐसे में काम आया मेरा कमरा! चूँकि मैं अकेला रहता था सो मेरे साथ ऐसी कोई प्रॉब्लम नहीं थी. अब जब सरदार दारू पीता तो मैं भी सॉफ्टड्रिंक के साथ चियर्स करता . रफ़्ता-रफ़्ता ये सॉफ्टड्रिंक हार्ड हो गयी लेकिन बहुत अधिक नहीं यानी मैं बीयर पर तो आ गया लेकिन उससे आगे नहीं बढ़ा.
पहले मैं जब कभी सरदार से उसकी फ़ेमिली के अन्य सदस्यों की बात पूछता तो वो मुझे माचिस फ़िल्म का एक संवाद सुना देता जो संभवतः कुछ इस तरह था ‘’आधा सन सैंतालीस खा गया जो बाक़ी बचा चौरासी लील गया.’’
लेकिन दोस्ती में हार्डड्रिंक शामिल होने के बाद बातों-बातों में एक रोज़ उसने बताया कि बँटवारे के वक़्त मुसलामानों ने लाहौर में उसके भरे-पूरे परिवार का बेरहमी से क़त्ल कर दिया था. केवल सरदार के डैडी जो उस वक़्त बच्चे थे किसी तरह बच निकलने में कामयाब रहे थे और दिल्ली आकर एक रिश्तेदार की मदद से दिन-रात एक करके दुबारा घर परिवार कारोबार खड़ा किया. लेकिन दिल्ली को सरदार के डैडी का ये हौसला रास नहीं आया दिल्ली ने चौरासी में जब उनका नशेमन फूँका तो इस बार उन्हें बच निकलने का मौक़ा नहीं दिया अलबत्ता सरदार बिन्दू सिंह और उसकी माँ को एक मुस्लिम परिवार ने बचा लिया. सिर्फ़ बचाया ही नहीं हिफ़ाज़त के साथ लखनऊ अपने पुश्तैनी घर भिजवा दिया और तब से लखनऊ ही सरदार का घरबार हो गया. इस तरह कहानी ख़त्म होते-होते नयी दिशा को मुड़ गयी और वर्तमान में आकर मुझसे जुड़ गयी. सरदार का अतीत इतनी नफ़रत और मारकाट समेटे हुए था लेकिन सरदार का दिल हैरतअंगेज़ तरीक़े से मुहब्बत से लबरेज़ था. उसमें नफ़रत का कहीं ज़र्रा बराबर भी नामोनिशान नहीं था. वो अपने हाल एवं अपनी खाल में मस्त रहता, रोज़मर्रा से वक़्त निकालकर गुरूद्वारे जाकर मत्था टेकता, और लोगों की ख़िदमत में लगा रहता.
मैंने एक रोज़ हैरानी से पूछा कि ‘’बिन्दू भाई आपके दिल में कभी बदला लेने का ख़याल नहीं आया?’’ सरदार इस तरह हँसा जैसे मैंने बचकाना बात कह दी हो वैसे बात थी भी बचकाना.
‘’आग से आग का नतीजा राख होता है मेरे दोस्त. बदला किससे और क्यों लेना? उन्हीं बन्दों ने लाहौर में हमारा ख़ात्मा किया था उन्होंने ने ही दिल्ली में हमें ख़त्म होने से बचा लिया. सिर्फ़ नाम और चेहरे बदलते हैं, बन्दे सब एक होते हैं कमाल भाई सब उसके बन्दे.‘’
सरदार की बातों में कई बार दरवेशी छलक पड़ती थी और उस वक़्त मुझे लगने लगता कि शायद कायनात सरदार जितनी ही ख़ूबसूरत है, नहीं है तो होनी चाहिए. लेकिन जल्द ही किसी न किसी कारण मेरा भरम टूट जाता और सरदार से मेरे मतभेद पैदा हो जाते. ख़ैर.. मतभेद कितने भी पैदा होते कभी मनभेद नहीं होता था ठीक वैसे ही जैसे रविन्द्र गुप्ता से मेरे सैकड़ों मतभेद थे लेकिन मनभेद नहीं था रविन्द्र ही क्यों मेरा पूरा गाँव कभी एक मत नहीं होता था तब तक कि जब तक गाँव की इज़्ज़त का सवाल न हो लेकिन मनभेद का तो सवाल ही पैदा नहीं होता, लड़ेंगे मरेंगे लेकिन एक दूसरे का साथ नहीं छोड़ेंगे वाले एकसूत्रीय धागे में पूरा गाँव पिरोया हुआ था. अब जबकि मैंने गाँव का टिकट बना ही लिया था और अपनी ज़िन्दगी की वर्तमान समस्याओं से कुछ दिन का ब्रेक लेकर गाँव जाने का और ठन्डे दिमाग़ से अपने और नीलू के भविष्य का फ़ैसला करने का फ़ैसला कर ही लिया था तो गाँव अचानक मेरे अन्दर अपनी समग्रता के साथ आ पहुँचा था. और मुझे जल्द अज़ जल्द अपनी हुदूद में ले चलने को आतुर था. इच्छा जागी कि मुझे पंख लग जाएँ और मैं उड़ता हुआ पहुँच जाऊँ या कहीं मुझे अलादीन का चिराग़ मिल जाए तो मैं उसे घिसकर जिन्न को बुलाऊं और उससे कहूँ कि चल बेटा गाँव चल. फ़ौरन से पेश्तर.
प्रचंड गर्मी और उमस का आलम था. उसपर कोढ़ में खाज ये हुआ कि रातभर बिजली भी नहीं आई थी सो कमाल की रात कमाल ही गुज़री थी. वैसे भी आधी रात तक बड़े भाई की तक़रीर जारी थी उन्होंने कल इमाम साहब को घर पर दावत दी थी. दावत का मक़सद ये था कि बड़े भाई इमाम साहब के ज़रिये अम्मा अब्बा को भी सामने बिठाकर कमाल को ख़ास दीनी बातें समझाना चाहते थे जिसका लुब्बोलुबाब ये था कि कमाल को नीलू से शादी करने से पहले उसे कलमा पढ़ाकर मुसलमान बना लेना चाहिए. बात बन नहीं पायी क्योंकि कमाल ने अपने ख़यालात ज़ाहिर करते हुए कह दिया.
‘’लकुम दीनकुम वलियदीन..मैं चाहता हूँ न वो मुसलमान बने न मैं हिन्दू वो अपने दीन पर रहे और मैं अपने.‘’
सुबह उठकर जब वो बाग़-बाग़ीचा खेत-खलिहान की परिक्रमा करके लौटा तो सूरज माथे पर चढ़ आया था. थोड़ी पेट पूजा के बाद कमाल नीम के पेड़ तले आकर बंसखट पर पसर गया. उसे देखते ही नीम की शाख़ों से हवाएँ नीचे उतर आयीं और उसके माथे पर शफ़क़त का हाथ फेरते हुए अपनी ममता का ख़ज़ाना लुटाने लगीं. ये शायद हवा के नर्म-नर्म हाथों का ही कमाल था कि जो नींद रातभर उससे कन्नी काट रही थी वो सर के बल भागती हुई आई और आकर कमाल की आँखों में समा गयी. मसल है कि सोया मुर्दा एक बराबर! इस वक़्त कोई कह सकता है कि कमाल के अन्दर कोई भयंकर ज्वारभाटा अपने विकराल रूप में दस्तक दिये हुए है जिसके परिणामस्वरुप बरसों बाद उसे अपनी मिट्टी में आने की फ़ुरसत मिली है! अब कहाँ गये इमाम साहब बड़े भाई लव जिहाद, घरवापसी,नीलू,नौकरी,?
हवा की लोरी सुनकर नींद आई और उसने सब चिंताओं को भाड़ में झोंक दिया. लेकिन बकरे की अम्मा कब तक ख़ैर मनाएगी ज्यों ही ये जागेगा चिंताएँ रक्तबीज की तरह पुनर्जीवित हो उठेंगी और इसके पीछे लग जायेंगी. तो क्या इन्सान को कभी जागना नहीं चाहिए क्या जागना ही सारी समस्याओं की जड़ है? हाँ शायद मुर्दा समाज में जागते रहना एक गम्भीर समस्या ही है. सोते रहो कमाल तुम सोते रहो मुर्दे की तरह निश्चिंत निश्चेत!
‘’अमे उठो ये कोई सोने का वक़्त है! उठो नहाओ धोओ, जुम्मा का टाइम होने वाला है मस्जिद चलो.‘’ बड़े भइया ने कमाल को झकझोर कर जगाया तो कमाल ने आँखें खोलकर पुनः बन्द करते हुए कहा-
‘’आप जाओ न भइया हमें सोने दो नींद आ रही है’’.
‘’काफ़िर के साथ नैन लड़ायके एकदम काफ़िरे हो गये हो? मियाँ हम लोग से नाईं तो कम से कम अल्लाह मियाँ से तो डरो जुम्मा का लिहाज़ तो करो...’’
बड़े भइया बड़बड़ाते हुए जाते रहे उनकी आवाज़ आती रही! मुर्दा जाग उठा. ज्वारभाठा फिर जमुना जी के कालिया नाग की भांति फुंफकारने लगा.
बड़े भइया जो कल तक वुज़ू बनाना नहीं जानते थे आज मौलाना बने घूम रहे हैं. बकरा दाढ़ी रख ली है घुटने से नीचे कुरता और टख़ने से ऊपर पाजामा पहनने लगे हैं जमात में जाते हैं पाँचों वक़्त की नमाज़ पढ़ते हैं शायद तहज्जुद भी पढ़ते हों. अपने बच्चों को दुनिया की नहीं दीन की तालीम पर ज़ोर देने लगे हैं. दीन की तालीम अच्छी बात है लेकिन दुनिया की तालीम से परहेज़ क्यों? उसे ये बात बिल्कुल समझ में नहीं आई ख़ैर उसने जानने की कोशिश भी नहीं की और कोशिश भी क्या करे वो तो ख़ुद बरसों बाद कल ही आया है अपनी उलझनों में जकड़ा हुआ, मुक्ति की खोज में. लेकिन क्या यहाँ आकर उसे कोई रास्ता मिलेगा? उसे अपनी चिंताओं से मुक्ति मिलेगी? उसने कहीं पढ़ा था कि चिंता है चिता समान सो उसने चिंता नहीं चिंतन की राह चुनी थी और ये राह फ़िलवक़्त उसे अपनी मिट्टी में खींच लायी थी. लेकिन यहाँ भी कुछ ठीक नहीं लग रहा था उसे. जब वो छोड़कर गया था तब तो ऐसा नहीं था ये गाँव. यहाँ पक्की सड़कें नहीं थीं शौचालय नहीं थे टूटा फूटा विद्यालय था लेकिन अध्यापक नहीं थे मदरसा था लेकिन मुदर्रिस नहीं थे बिजली के तारों का बिजली से सम्बन्ध नहीं था और भी बहुत कुछ नहीं था.
लेकिन जो था वो बयान से परे था उसी के दम पर वो गाँव को ‘’अपना’’ कहता था लेकिन उसे गाँव से भी अजीब सी शहरी बू आ रही थी कल और आज मिलाकर उसने देखा कि गाँव में बुनियादी ज़रुरतों के साथ-साथ कुछ अतिरिक्त विकास भी हो गया था. मसलन अब तेलियाने से लेकर बभनौली पठनौली दर्जियाने कोइराने और चमरौटी तक सबके घरों की मुंडेर पर डिशएंटीना के साथ-साथ किसी न किसी पार्टी का झंडा भी लगा हुआ है. उसे याद आया कि उसके बचपन में सिर्फ़ राम चन्नर काका के यहाँ टी.वी हुआ करती थी और पूरा गाँव जनरेटर के तेल का जुगाड़ करके उनके दुआरे पर महाभारत देखने इकठ्ठा होता था. अब उसकी नौबत नहीं है ये अच्छी बात है लेकिन इस मुट्ठी भर के गाँव में दो दो मस्जिदें हो गयी थीं. एक बरेलवी मसलक की एक देवबंदी मसलक की. ईदगाह एक ही थी लेकिन उसमें दो बार नमाज़ होती थी और पहले कौन पढ़ेगा इस पर दोनों मसलक हर ईद बकरीद पे झगड़ते थे कई बार नौबत मार-कुटाई तक भी पहुँची और मुआमला बढ़कर पंचायत तक पहुँचा और पंचों की राय से तय पाया गया कि ईदगाह भी दो बना दी जाय और जब तक नयी ईदगाह की ज़मीन पास न हो जाए तब तक दोनों मसलक पाली बाँध लें यानी जो इस बार पहले पढ़े वो अगली बार बाद में पढ़ेगा ख़ैर..यहाँ तक तो ठीक लेकिन सुनकर अजीब लगा कि क़ब्रिस्तान भी दो हो गयी थी और दोनों मसलक एक दूसरे की मय्यत में शामिल नहीं होते थे.
शुक्र है यहाँ मुसलमानों के दो ही मसलक हैं अगर शिया, क़ादियानी, अहमदिया, चिश्तिया वग़ैरह और भी मसलक होते तो क्या होता या भविष्य में हुए तो क्या होगा? कमाल ने सोचा क्या ये सारा बदलाव उसके न रहने के दरमियान ही हुआ है? सिर्फ़ पिछले पाँच छः बरसों में? नहीं ये सिर्फ़ पाँच छः बरस का नतीजा नहीं हो सकता ये बदलाव अन्दर ही अन्दर बहुत पहले से हो रहा होगा जिसे मेरी बालक बुद्धि नहीं देख पायी होगी. पिछले पाँच छह बरसों में उस बदलाव ने शक्ल इख़्तियार कर ली है इसी लिए मैं साफ़-साफ़ देख पा रहा हूँ.
सरदार बिन्दू सिंह होता तो क्या कहता इस सिचुएशन में....?वो सोचने लगा!
पहले शायद वो अपनी मादरी ज़बान में एक मोटी सी गाली देता फिर अपनी सीखी हुई ज़बान में बढ़ी बूढ़ियों की तरह उपदेश देता
‘’मूतना तभी तक बेहतर है जब तक कि आदमी आग न मूतने लगे.’’
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पेंटिग : Salman Toor |
शहरी दोस्त याद आते ही सोच की सुई फिर गाँव के दोस्त रविन्द्र गुप्ता की तरफ़ घूम गयी. रविन्द्र गुप्ता मेरा लंगोटिया यार मेरा दिल गुर्दा कलेजी सब. रविन्द्र मुझे प्यार से कमलुआ कहता और मैं उसे रविन्दरवा कहता प्यार जब क्रोध में बदलता तो मैं उसे तेलिया और वो मुझे कटुआ कहता लेकिन ये उस वक़्त की बात है जब हम जातिसूचक टिप्पणी या भावनाओं का आहत होना जैसे शब्दों से परिचित नहीं थे. मैंने बचपन में एक बार जब वो स्कूल में मेज़ पर ऊंघ रहा था तो चुपके से ब्लेड से उसकी थोड़ी सी चुटिया काटकर उसकी नाक के पास रख दी थी. वो उठा तो अपनी कटी हुई चुटिया पर हाथ रखकर रोने लगा. उसे मालूम नहीं था कि ये सब मेरी कारस्तानी है लेकिन एक बच्चे ने मुझे ऐसा करते देख लिया था और उसने पुजारी गुरु जी से शिकायत कर दी थी. पुजारी गुरु जी ने दण्डस्वरुप मुझे स्कूल ग्राउंड में मुर्ग़ा बनाकर मेरी पीठ पर एक लोटा पानी रख दिया था और हिदायत दी थी कि आधे घंटे तक पानी गिरना नहीं चाहिए यदि गिरा तो अवधि और आधा घंटा बढ़ा दी जायेगी. सज़ा तो मैंने पूरी कर ली लेकिन उस शरारत से आज तक शर्मिंदा हूँ. स्कूल के बाद रविन्द्र ने मुझसे कहा कि यदि उसको पता होता कि ये शरारत मेरी है तो वो रोता नहीं उसका सोचना था कि यदि वो रोता नहीं तो मुझे सज़ा न मिलती. मुझे दुख और ख़ुशी दोनों का आभास हुआ. दुख इस बात का था कि मेरे दुख से वो दुखी था और ख़ुशी इस बात की हुई कि मेरे दुख से वो दुखी था!
कमाल ने स्वयं से प्रश्न किया ‘’कहाँ होगा रविन्द?’’ फिर स्वयं को उत्तर दिया ‘’कहाँ जाएगा कमख़्त. ‘’दैनिक खोजख़बर’’ में होगा अपने बाप के अख़बारी दफ़्तर में पत्रकारिता झाड़ता हुआ! साला बड़ा पत्रकार बना फिरता है चलकर अभी दबोचता हूँ उसे. एक वही कमीना है जो मेरी समस्या सुलझा सकता है उसके पापा जिन्हें मैं काका कहता हूँ के पॉलिटिकल अप्रोच भी तगड़े हैं. सियासी दबाव के जवाब में सियासी दबाव ज़ियादा कारगर सिद्ध हो सकता है. होने को हमारी शादी क़ानूनन भी हो सकती है लेकिन..? इस लेकिन का क्या करूँ? मेरे साथ तो लेकिन पर लेकिन का ताँता सा लगा हुआ है. लेकिन मेरे ज़ेहन में काका का ख़याल पहले क्यों नहीं आया? पिछले दिनों रविन्द्र ने फ़ोन पर बताया था कि नयी सरकार के आते ही काका जी के बालू खनन वाले बिजनेस में सियासी अड़ंगा पैदा हो गया था नौबत जेल जाने तक की आ गयी थी जिसका तोड़ उन्होंने ये निकाला कि पार्टी बदल ली. नयी सरकार की जानिब रुख़ करते ही न सिर्फ़ पुराने सारे अड़ंगे ख़त्म हो गये बल्कि उनकी सारी बड़ी कारोबारी डील अब सी.एम साहब से डायरेक्ट होती है.
ज़ाहिर सी बात है सी.एम तक डायरेक्ट पहुँच का मुख्य कारण बिजनेस कम ‘’दैनिक खोजख़बर’’ की लोकप्रियता अधिक है. सो मेरे लिए भी काका कुछ न कुछ राह ज़रूर निकालेंगे. करना भी क्या है? अगर वो हमारी शादी क़ानूनन करवा देंगे और सी.एम साहब से ‘’घर वापसी गैंग’’ को एक फ़ोन करवा देंगे तो सारा मामला ही ख़त्म हो जाएगा. वैसे भी ये सारे खेल हम आम लोगों को बेवक़ूफ़ बनाने के हैं. गोसाईं जी ने कहा तो है समरथ को नाहीं दोष गोसाईं..पॉवरफ़ुल हिन्दू मुस्लिम में तो अब भी ख़ूब शादियाँ हो रही हैं. वहाँ ये गैंग एक चुप हज़ार चुप के फ़ार्मूले पर अमल करती है.
कमाल को लगा अब सारी समस्या ख़त्म! काका जी भगवान कृष्ण की तरह हमारी मुसीबतों का गोवर्धन अपनी कानी उंगली पर उठा लेंगे और मैं और नीलू उनकी छत्रछाया में ठाठ से जीवन जियेंगे. बिना किसी डर भय के पॉवरफ़ुल लोगों की तरह.
कमाल तेज़ी से उठा नल पर जाकर नहाया और कमरे में जाकर कपड़े पहनने लगा. कपड़े पहनते-पहनते उसका ध्यान बाहर आँगन की तरफ़ रखी ईंधन की लकड़ियों पर गया वहाँ एक पुरानी लकड़ी की पेटी के फट्टे पड़े थे. उन पुराने फट्टों से एक पुरानी याद निकल आई. इस पेटी में तो कुछ बर्तन और बिस्तर रखे होते थे जो हमारे घर आने वाले हिन्दू मेहमानों के लिए होते थे. किसी हिन्दू मेहमान के आने पर खाद्य सामग्री पड़ोस के हिन्दू घर भिजवा दी जाती और हमारा पड़ोसी हिन्दू हमारे घर आये हिन्दू मेहमान को इन अलग रखे बर्तनों में भोजन परोसकर हमारी मदद करता था. ये सब किसी दुर्भावना से नहीं बल्कि ज़रूरत के तहत होता था. जिन मुस्लिम घरों में इस तरह की व्यवस्था न होती थी उनके यहाँ हिन्दू मेहमान आते तो थे किन्तु पानी भी न पीते थे.
इसी तरह यदि हम किसी हिन्दू परिवार में जाते तो हमें केले या अरवी के पत्ते पर भोजन कराया जाता. इसमें कोई बुरा नहीं मानता था. बाप दादे के ज़माने से सब ऐसा ही चला आ रहा था और सभी इसे निभाते थे. वैसे गाँव में अधिकतम चीज़ें इसीलिए चलती चली आती थीं कि उनका सम्बन्ध बाप दादाओं के ज़माने से है. चाहे वो रीतिवाज हों या धरमकरम. किसी नयी मान्यता या नियम को गाँव में जगह बनाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते इस मुआमले में पूरा गाँव एक हो जाता क्योंकि नयी मान्यता और नये नियम उनकी इज़्ज़त का सवाल होते थे. वैसे नियम तो फिर भी बदलके ही रहते थे मुझे याद है पड़ोस के हिन्दू घर में जब कभी मैं खेलता हुआ घुस जाता था तो बुढ़िया दादी मुझे भगाकर पूरा घर गाय के गोबर से लीपती थीं और मैं रोज़ उन्हें परेशान करने की ग़रज़ से उनके घर एक बार ज़रूर जाता था ये और बात है कि किसी कारण एक दो रोज़ न जाऊं तो वो फ़िक्रमन्द सी खोज-ख़बर लेने ख़ुद हाज़िर हो जाती थीं. और मेरी बड़ी अम्मा? वो भी तो बुढ़िया दादी का दूसरा वर्ज़न ही थीं. उनकी खटिया पर अगर कोई हिन्दू बैठ जाए तो उसके जाने के बाद पूरी खटिया गर्म पानी से धुली जाती थी पूरा बरामदा लीपा जाता था. ये सारे प्रकरण मेरे लिए मनोरंजन का साधन हुआ करते थे. किसी अनजान व्यक्ति के आने और खटिया पर बैठने पर मैं झूठ-मूठ बड़ी अम्मा के कान में फूँक देता ‘’बड़ी अम्मा ई मेहमान हिन्दू हैं’’
और बड़ी अम्मा चुपचाप पानी गर्म करने लगतीं. उनसे इन सबका कारण पूछने पर एक अवधी कहावत-
कहते हुए तर्क देतीं कि हिन्दू लोग के कपड़े नापाक रहते हैं वो इस्तिंजा नहीं करते. कुछ ऐसा ही तर्क हिन्दू बुढ़िया दादी का भी होता वो अपने पोपले गालों को भीतर बाहर करते हुए आँख बन्द करके ठठाकर हँसतीं और अपनी ठेठ भाषा में कहतीं-
‘’हिन्दू धरम खोटा धोवें गाँ..मटियावें लोटा..’’
कहते हुए तर्क देतीं कि हिन्दू लोग के कपड़े नापाक रहते हैं वो इस्तिंजा नहीं करते. कुछ ऐसा ही तर्क हिन्दू बुढ़िया दादी का भी होता वो अपने पोपले गालों को भीतर बाहर करते हुए आँख बन्द करके ठठाकर हँसतीं और अपनी ठेठ भाषा में कहतीं-
‘’मुसुलमनवे मलिच्छ होलैं खाली जुम्मा क जुम्मा नहालें..’’.
मुझे याद है अक्सर जब मैं खाना खाने बैठता तो बुढ़िया दादी का पोता घुटनों के बल चलता हुआ मेरे पास आ जाता और मेरे साथ ही खाना खाता ..उसकी माँ उसे झिड़कती ‘’दहिजरू के पूते मुसुलमान हो जइबs..’’ जवाब में वो खिलखिलाकर हँसता उसकी हँसी मानो कह रही हो-
‘’चुप कर माँ साथ खाने से कोई मुसलमान होता है भला?’’
वो घुटनों के बल चलते-चलते पैरों के बल चलने लगा लेकिन मेरे साथ खाना नहीं छोड़ा. फिर भी वो मुसलमान नहीं हुआ. उसकी शादी हो चुकी है और अब उसका बेटा घुटनों के बल चलने लगा है कल मैं उससे मिलने गया तो उसने अपने बर्तन में मुझे पानी पिलाया और अपने बेटे को मेरी गोद में रखते हुए बोला ‘’बाबू देख तोर बड़का अब्बा..’’ मैंने बच्चे को गोद में लिया और उसकी दादी की तरफ़ मुस्कुराकर कहा ‘’का हो चाची लागsता ईहो मुसुलमान हो जाई’’ चाची का ज़ोरदार ठहाका गूँजा और बच्चे की माँ जो दरवाज़े की आड़ लेकर घूंघट किये हुई बैठी थी उसे बच्चे के बाप के मुसलमान होने की कहानी सुनाई जाने लगी...
मैंने ग़ौर किया कि मैं जब वहाँ से चला तो घर लीपा नहीं गया वो शायद इसलिए कि घर लीपने वाली बुढ़िया दादी अब नहीं रहीं या शायद चुपके से वो नियम ही बदल गया हो, या शायद उनकी ये ग़लतफ़हमी दूर हो गयी हो कि मुसलमान सिर्फ़ जुमे के जुमे ही नहाते हैं. तो क्या पुरानी पेटी के ईंधन के लिए रखे फट्टे भी किसी बदलाव की निशानी हैं? या अब वो पुराने लोग हमारे मेहमान नहीं होते जिनके लिए बर्तन अलग रखे होते थे.
‘’अल्लाहु अकबर अल्लाsssहु अकबर ... . जा बेटा अज़ान होइ गयी.‘’
अज़ान की आवाज़ के साथ ही साथ अम्मा की आवाज़ आई और ‘’जा रहे हैं अम्मा’’ कहता हुआ मैं घर से निकल पड़ा. धूप तेज़ थी सो मैंने गमछा सर पे लपेट लिया. सोचा पहले नमाज़ पढ़ लूँ फिर रविन्द्र के पास जाऊँगा लेकिन मस्जिद के नज़दीक जाकर ठिठक गया. दोनों मस्जिदें दस क़दम के फ़ासले पर थीं लोग अपने-अपने मसलक की मस्जिदों में जा रहे थे. मैं खड़ा सोचने लगा. मुझे समझ में ही नहीं आ रहा था कि मेरा किस मसलक की मस्जिद में जाना ठीक रहेगा. नहीं ये बात दुरुस्त नहीं है. दुरुस्त बात ये है कि शायद मैं समझ ही नहीं पा रहा था कि मेरा मसलक क्या है? मैंने इस अजीब सी उलझन से अपने आपको बाहर खींचा, वहीँ धूप में खड़े-खड़े मन ही मन नमाज़ पढ़ी और रविन्द्र गुप्ता से मिलने चल पड़ा. एक मस्जिद के माइक से ख़ुत्बे की आवाज़ आ रही थी, ....क़यामत तक तिहत्तर फ़िरक़े हो जायेंगे और उनमें से जन्नत नसीब होगी सिर्फ़ एक को.. . वहीँ दूसरी मस्जिद से एक सामूहिक आवाज़ आ रही थी या नबी सलामुअलैका..या रसूल सलामु अलैका... .
शाम को मैं और रविन्द्र गाँव के दोराहे पर खड़े ख़ामोशी से सिगरेट पी रहे थे. सिगरेट के धुएँ के साथ मुझे एक ठण्डी आह अन्दर से बाहर निकलती हुई महसूस हो रही थी. काका का असहाय सा जुमला अन्दर ख़लबली मचाये हुए था-
‘’बेटा तुम तो जानते ही हो मैं कोई भेदभाव नहीं करता तुम मेरे बेटे हो और रहोगे लेकिन इस समय मैं तुम्हारी सहायता नहीं कर पाऊंगा समझ रहे हो ना....’’?
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सिगरेट पीकर हम दोनों एक ख़ामोश विदाई के साथ कल मिलने के वादे पर जुदा हुए वो तेलियाने की तरफ़ मुड़ा मैं पठनौली की तरफ़. रविन्द्र का चेहरा उतरा हुआ था. मुझे ख़ुशी भी हुई दुख भी. दुख इस बात का हुआ कि मेरे दोस्त का चेहरा उतरा हुआ है और ख़ुशी इस बात की हुई कि मेरे दुख के कारण मेरे मेरे दोस्त का चेहरा उतरा हुआ है. दूर एक मन्दिर से गाने की आवाज़ आ रही थी ‘’लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल....’’!
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सिगरेट पीकर हम दोनों एक ख़ामोश विदाई के साथ कल मिलने के वादे पर जुदा हुए वो तेलियाने की तरफ़ मुड़ा मैं पठनौली की तरफ़. रविन्द्र का चेहरा उतरा हुआ था. मुझे ख़ुशी भी हुई दुख भी. दुख इस बात का हुआ कि मेरे दोस्त का चेहरा उतरा हुआ है और ख़ुशी इस बात की हुई कि मेरे दुख के कारण मेरे मेरे दोस्त का चेहरा उतरा हुआ है. दूर एक मन्दिर से गाने की आवाज़ आ रही थी ‘’लाली मेरे लाल की जित देखूँ तित लाल....’’!
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इरशाद ख़ान सिकन्दर
(8 अगस्त, 1983 : संत कबीर नगर, उ.प्र.)
'आँसुओं का तर्जुमा'तथा 'दूसरा इश्क़'ग़ज़ल संग्रह प्रकाशित
हिंदी पत्रिका लफ़्ज़ का संपादन
दिल्ली में रहते हैं.
ik.sikandar@gmail.com
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