प्रस्तुत है आलोचक सूरज पालीवाल का आलेख- हमारे समय में गांधी
हमारे समय में गांधी
सूरज पालीवाल
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महात्मा गांधी का डेढ़ सौवां जन्म वर्ष जिस तरह दुनिया भर में मनाया गया, उससे हमारे समय में उनकी उपस्थिति की अनिवार्यता प्रमाणित होती है. आज दुनिया वैसी नहीं है, जैसी डेढ़ सौ वर्ष पहले थी, हो भी नहीं सकती. दुनिया का काम समय के साथ बदलना है, इसमें कोई आश्चर्य नहीं कि दोनों एक दूसरे के साथ बदलते रहते हैं. आज महात्मा गांधी जीवित होते तो संभव है, वे वैसे नहीं होते जैसे आज वे हमें दिखाई देते हैं. यह इसलिये भी संभव है कि वे अपने विचारों में जितने दृढ़ थे, सामाजिक जीवन और मानवीय संबंधों में उतने ही उदार. इस अवसर पर यह प्रश्न मेरे मन में बार-बार उठ रहा है कि क्या समय के साथ वे लगातार अपरिहार्य बनते जा रहे हैं ?
रोमां रोला से लेकर ओबामा तक अपने जीवन संघर्षों में उन्हें प्रेरक मानते हैं तो यह संयोग मात्र नहीं है अपितु बहुत कुछ ऐसा है, जिस पर ठहरकर विचार करना आवश्यक हो जाता है. लगभग एक दशक पहले जब मैं पहली बार वर्धा गया था तब मेरे मन में केवल एक इच्छा थी कि और लोगों की तरह मैं भी गांधी आश्रम को देखने जाऊं. इससे पहले मैं साबरमती आश्रम गया था और वहां बहुत देर तक चुपचाप बैठा रहा था.
गांधी वाचाल नहीं थे इसलिये ज्यादा चपल होकर उन्हें नहीं समझा जा सकता. उनके आश्रम में बैठकर बहुत सारे प्रश्न उठते हैं, पर उनके समाधान भी गांधी के आचरण में ही मिलते हैं. जो व्यक्ति रोजाना सवा छह पैसे का सूत कातकर छह पैसे का भोजन करता हो, जो तीन औरतों के बीच एक साड़ी की विवशता को देखकर केवल एक धोती में रहने की प्रतिज्ञा लेता हो और जो उस समय के सर्वशक्तिशाली ब्रिटेन के राजा के आमंत्रण पर आधी धोती और चद्दर ओढ़कर राजमहल में राजा के साथ बैठकर बराबरी के साथ विचार-विमर्श करने का साहस रखता हो, उस आदमी की प्रासंगिकता असंदिग्ध है इसलिये मैं यदि प्रो. सुधीर चंद्रा के शब्दों में कहूं तो यह कि गांधी जी आज के समय में असंभव संभावना हैं.
अभी दो-तीन वर्ष पहले ही पूरे देश ने ‘चंपारण आंदोलन’ की शताब्दी मनाई थी. यह दुर्भाग्य है कि वे आयोजन ऐसे समय में किये गये, जब स्वाधीन भारत में किसान आत्महत्या कर रहे हैं और खेती को अलाभकारी सिद्ध करने की आत्मघाती चालें चली जा रही हैं. किसानों को अन्नदाता कहकर उन्हें भावुक बनाने के प्रयत्न तो किये जाते हैं पर उनकी समस्याओं पर विचार करने का समय किसी के पास नहीं है. क्या यह कहना गलत होगा कि सरकार की नीतियां कारपोरेट जगत को बढ़ावा देने, उसके प्रोत्साहन के लिये तमाम तरह की छूट देने तथा विश्व आर्थिक व्यवस्था के साथ चलने तक सीमित है. किसानों का न तो कोई जीवंत संगठन है और न उनके ऐसे प्रतिनिधि जो तमाम तरह के सरकारी प्रलोभनों को ठुकराकर किसानों के हित की आवाज बनें. कहना न होगा कि 1916-17में जब कांग्रेस के बडे़-बड़े़ नेताओं ने राजकुमार शुक्ल की कमजोर आवाज को यह कहकर अनसुना कर दिया था कि इस समय हम सब मिलकर देश की स्वाधीनता के लिये लड़ाई लड़ रहे हैं, जब देश स्वतंत्र हो जायेगा तब किसानों की समस्या स्वतः सुलझ जायेंगी. यह निर्णय कहने-सुनने में कितना अच्छा लगता है पर राजकुमार शुक्ल इसकी असलियत को समझ रहे थे. उन्होंने अपनी व्यथा-कथा गणेशशंकर विद्यार्थी को सुनाई तब उन्होंने कहा तुम गांधी जी से मिलो, वे शायद तुम्हारी बात सुनेंगे.
उन्होंने गांधी जी से कहा और वे पहली ही बार में उनके साथ चलने को तैयार हो गये. यह आश्चर्यजनक है कि तब-तक गांधी जी ने चंपारण का नाम तक नहीं सुना था, उन्होंने राजकुमार शुक्ल से ही इसकी जानकारी ली. इतिहास में यह ऐसा अनूठा आंदोलन है कि जिन अंग्रेज अधिकारियों ने गांधी जी पर मुकदमा दायर किया था, उन्होंने ही उसे वापस लिया. यह सब गांधी जी के नैतिक साहस के कारण हुआ. मजिस्ट्रेट ने उनसे कहा- तुम चंपारण छोड़कर चले जाओ. गांधी जी ने मना कर दिया. मजिस्ट्रेट ने कहा-सौ रुपया जुर्माना भरो या जेल जाओ. गांधी जी ने कहा वे जेल जाने को तैयार हैं. बाबू राजेंद्र प्रसाद ने लिखा है कि गांधी जी की निडरता देख मजिस्ट्रेट के माथे पर पसीना आ गया और किसी प्रकार का निर्णय देने में असमर्थ रहने की अवस्था में कार्यवाही स्थगित कर दी. कहना न होगा कि यह ऐसा मुकदमा था, जो अंजाम पर पहुंचने से पहले ही वापस ले लिया गया. गांधी जी की इस निडरता के कारण एक तो किसानों में उनके प्रति विश्वास बढ़ा तो दूसरी ओर अंग्रेज सरकार ने डरकर जो समिति गठित की उसमें गांधी जी को भी सदस्य बनाया गया था.
चंपारण के निलहे अंग्रेजों के विरुद्ध इस प्रकार की अहिंसक लड़ाई गांधी जी ही लड़ सकते थे. चंपारण आंदेालन का सबक यह है कि किसानों की समस्याओं के समाधान के लिये इस प्रकार के आंदोलनों की आज भी उतनी ही आवश्यकता है.
कहना न होगा कि हम उत्सव धर्मी लोग हैं इसलिये अवसरों की चुनौतियों के सामने से चुपचाप आंखें चुराकर उत्सवों की भारी-भरकम चकाचोंध में मगन हो जाते हैं. पर गांधी जी से यदि कुछ सीखना हो तो इतना तो सीखना ही चाहिये कि जब देश पहला स्वाधीनता दिवस मना रहा था, जब चारों तरफ हर्ष और आनंद का माहौल था, तब गांधी जी सांप्रदायिकता की आग में जलते हुये कलकत्ता में शांति और सांप्रदायिक वातावरण बनाने के लिये उपवास कर रहे थे. जब ‘टाइम्स आफ इंडिया’ ने उनसे पहले स्वाधीनता दिवस पर दुनिया के नाम संदेश देने के लिये कहा तो उन्होंने जवाब दिया
‘मैं अंदर से खालीपन अनुभव कर रहा हूं’
तथा बीबीसी को उन्होंने कहा कि
‘दुनिया से कह दो गांधी अंग्रेजी नहीं जानता.’
ये दोनों संदेश उन गांधी के हैं, जो स्वाधीनता आंदोलन की धुरी थे, जिनके इर्दगिर्द उस समय की पूरी राजनीति चक्कर काटती रहती थी. जो लोग आज बगैर इतिहास पढ़े इतिहास जानने का पाखंड करते हुये कहते हैं कि ‘गांधी ने देश का बंटवारा कराया था’ उन्हें गांधी के दुखी मन से निकले संदेश की भाषा को भी पढ़ना चाहिये. इस अवसर पर यह अवांछित ही होगा कि मैं यहां देश विभाजन की स्थितियों पर विस्तार से विचार करूं, इसके लिये फिर कई अवसर आयेंगे, जिन पर खुले मन से विचार किया जाना संभव होगा. पर आज देश में जिस प्रकार की सांप्रदायिकता फिर से सिर उठा रही है और धार्मिक कट्टरपन फिर से हावी हो रहा है, उसमें 1946की कट्टरता भयावह रूप में सामने खड़ी दिखाई दे रही है. जाहिर है कि महात्मा गांधी उस हिंसा के मूक दर्शक बने रहना नहीं चाहते थे. जब ग्रामीण बंगाल से हिंसा की पहली खबर आई तो उन्होंने अपना सारा काम छोड़ दिया और सीधे घटनास्थल की तरफ रवाना हो गये. उस समय उनकी उम्र 77वर्ष की थी लेकिन उन्होंने नंगे पांव 116मील की यात्रा की, करीब सौ जगह गांव वालों को संबोधित किया. दुर्भाग्य है कि आज इस संकट के दौर में कोई गांधी हमारे पास नहीं है, जो लोगों के बीच निहत्थे खड़े होकर सौहार्द की आवाज बन जाने का साहस रखता हो. उनकी इस निडरता को देखकर लार्ड माउंटबेटन ने कहा था कि ‘पंजाब में जो काम पचास हजार फौज नहीं कर सकी वह काम बंगाल में अकेले और निहत्थे गांधी जी ने कर दिखाया.’
इसी निडरता के कारण वे यह कह सके कि ‘मैं भारत के दरिद्रतम व्यक्ति के सामने घुटने टेक सकता हूं क्योंकि सदियों तक उनके दमन में सहभागी रहा हूं, मैं उसके पांवों की धूल लेना पसंद करूंगा लेकिन प्रिंस आफ वेल्स के आगे तो क्या स्वयं सम्राट के आगे भी साष्टांग प्रणाम नहीं करूंगा.’
यह गर्वोक्ति नहीं है अपितु विनम्र दृढ़ता है, जो गांधी जी के आचरण की परिभाषा है. गांधी जी का जीवन सांप्रदायिक समन्वय का आदर्श रूप है. वे हिंदू और मुसलमान दोनों को इस देश की गंगा जमनी तहजीब की निशानी मानते थे. इसलिये दोनों में कोई भेद नहीं करते थे. गांधी जी यह बात जानते थे कि 1857में दोनों ने मिलकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाये थे. यह आगरा है जो मुगलकाल में देश की सबसे बड़ी मंडी के रूप में विख्यात था, जिसे लूटकर अंग्रेजों ने मैनचेस्टर आबाद किया, जिसके पास खानवा के केम्प में पहले मुगल शासक बाबर ने अपनी वसीयत लिखते हुये अपने बेटे हुमायूं से कहा था कि ‘गौकुशी मत करना, तलवार के बल पर राज मत करना तथा लोगों पर अपनी भाषा मत लादना.’
यह वही आगरा है जिसमें एक मुगल शासक ने पचास साल राज किया पर गंगा और जमुना जल के अलावा और कोई पानी नहीं पिया. इसी आगरा में गांधी जी का यह संदेश दिया जा सकता है कि सांप्रदायिक लड़ाइयां देश को खोखला करती है, दो धर्मों के बीच नफरत और हिंसा की भावना को भड़काती हैं. सांप्रदायिक सौहार्द देश की पहले भी आवश्यकता था और आज भी है. आज हम धर्म को लेकर अति संवेदनशील हो गये हैं, एक दूसरे के प्रति अविश्वास का वातावरण लगातार गहराता जा रहा है, ऐसे माहौल में गांधी जी की याद आना स्वाभाविक ही है, जिन्होंने धार्मिक आधार पर हो रहे आक्रमणों की कभी परवाह नहीं की. सरदार पटेल द्वारा दी जाने वाली सुरक्षा के लिये भी मना कर दिया.
‘पटेल चाहते थे कि गांधी जी की प्रार्थना सभा या उनसे मिलने जो भी पहुंचे, उसकी समुचित तलाशी ली जाये. लेकिन गांधी जी ने इससे साफ मना कर दिया था. उनका तर्क था कि मेरी प्रार्थना सभा में आने वाले किसी भी शख्स की तलाशी का मतलब होगा ईश्वर के कार्य में अड़ंगेबाजी. ईश्वर की प्रार्थना में आने वाले किसी भी व्यक्ति की तलाशी क्यों की जानी चाहिये.’
गांधी जी के इस तर्क के सामने पटेल निरुत्तर हो गये. लेकिन उनकी हत्या के बाद जब उनसे गांधी जी की सुरक्षा संबंधी प्रश्न पूछा गया तो पटेल ने जवाब में कहा था कि ‘गांधी जी ने सुरक्षा लेने से मना कर दिया था.’ तब फिर प्रश्न पूछा गया कि ‘क्या किसी के कहने पर आप सुरक्षा देंगे’ तो सरदार पटेल ने जवाब दिया कि ‘वे गांधी जी थे, उनके बगैर पूछे इस प्रकार का कोई कदम नहीं उठाया जा सकता था.’ आज जब हमारे नेता पुलिस और कमांडो के संरक्षण को अपनी प्रतिष्ठा मानने लगे हैं तब गांधी जी का यह संदेश कि ‘कोई भी प्रार्थना पुलिस के पहरे में नहीं हो सकती.’ और ‘जब तक मेरा राम मुझे जीवित रखना चाहेगा, मुझे कोई नहीं मार सकता.’
गांधी जी के अधिकांश निर्णय मन के निर्णय होते थे. स्वाधीनता आंदोलन के समय ऐसे कई अवसर आये जब पं. नेहरू और सरदार पटेल जिस निष्कर्ष पर पहुंचते थे, गांधी जी के निर्णय उनसे अलग होते थे पर बाद की स्थितियों में गांधी जी ही सही होते थे. पुणे में 21दिन के उपवास के समय रात के डेढ़ बजे मन ने कहा कि उपवास करो और गांधी जी अप्रत्याशित रूप से उपवास पर बैठ गये. दुनिया ही नहीं बल्कि उनके परिजन भी उनके इस निर्णय से दंग रह गये. मणिलाल की बीमारी के समय चिकित्सकों ने उन्हें अंडा और मछली इत्यादि देने की सलाह दी पर गांधी जी ने स्पष्ट कह दिया कि मेरा मन इसके लिये तैयार नहीं है. बा पुत्र मोह के कारण अनिर्णय की स्थिति में थीं लेकिन वे बापू के सामने कुछ कह नहीं पा रही थीं, मणि की बीमारी को देखते हुये गांधी जी से सिर्फ इतना कहा कि ‘यदि मणि को कुछ हो गया तो मैं तुम्हें कभी माफ नहीं कर पाऊंगी.’ बापू ने शांत मन से उत्तर दिया ‘मेरा ईश्वर कभी मेरा अनिष्ट नहीं करेगा.’ यह ईश्वर और मन पर अकाट्य विश्वास का प्रमाण है जबकि दुनियादार लोग दूसरों पर तो प्रयोग करते हैं पर गांधी जी के सारे प्रयोग पहले अपने और अपने परिजनों पर ही होते थे.
कहना न होगा कि गांधी जी परम वैष्णव और आस्तिक थे पर न वे कभी किसी मंदिर में गये और न अपने आश्रम में मंदिर बनाकर किसी मूर्ति के सामने अगर बत्ती जलाकर पूजा ही की. आज भक्तों की भीड़ जिस प्रकार के सामूहिक कर्मकांडों में लिप्त है, गांधी जी उससे कोसों दूर थे. इसलिये उन्होंने कहा था ‘एक पंद्रह वर्ष का किशोर एक प्रहार में मुझे गिरा सकता है. मैं कुछ नहीं हूं लेकिन भय और वासना से मैंने अपने को मुक्त कर लिया है इसलिये मैं ईश्वर की शक्ति को जानता हूं. मैं कहता हूं कि यदि पूरा संसार ईश्वर का निषेध कर दे तो भी मैं उसका एक मात्र साक्षी बना रहूंगा. मेरे लिये वह एक अनंत चमत्कार है.’
गांधी जी कहा करते थे ‘इस पृथ्वी में दुनिया के सारे मनुष्यों की आवश्यकताओं की पूर्ति करने की क्षमता है पर एक भी लालची आदमी की इच्छा पूरी करने की नहीं.’ यह जो लालच है, उसके भंवर में हम घूम रहे हैं और निकलने का कोई रास्ता नहीं मिल रहा है. हमारे अपने आचरण में ही नहीं बल्कि हम जो कपड़े पहनते हैं उनकी बनावट में भी लालच है. हमारे कपड़ों में कई जेबें हैं, जो उन्हें भरने का लालच पैदा करती हैं इसलिये गांधी जी ने अपनी जेबें ही साफ कर दीं ताकि न रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी. और तब उन्होंने कहा कि ‘मेरा आचरण ही मेरा संदेश है. मनुष्य के जीवन में लालच को परखने के कई अवसर आते हैं, वे अवसर ही उसकी परीक्षा के क्षण होते हैं. दक्षिण अफ्रीका से लौटते समय प्रवासी भारतीयों ने उनका अभिनंदन किया और लाखों रुपये के जेबर तथा नकदी उपहार में दी. 1915के लाखों रुपये आज के हिसाब से कितने होंगे कोई व्यापारिक बुद्धि ही इसका हिसाब लगा सकती है. पर हम हिसाब के चक्कर में न पड़कर यह देखें कि उन उपहारों और नकदी का गांधी जी ने क्या किया? बा चाहती थीं कि जेबर उनके पास रहें जिससे उनकी बहुएं उन्हें पहन सकें. पर गांधी जी ने कहा कि ‘गांधी की कोई बहू ऐसी नहीं होगी जो जेबर प्रिय हो.’ इसलिये उस सबका ट्रस्ट बनाकर भारत चले आये.
आप दक्षिण अफ्रीका जायें तो वे आश्रम और ट्रस्ट आज भी गांधीवादी सिद्धांतों से चलते हुये मिलेंगे. सत्य और ईमानदारी के रास्ते पर चलना कठिन होता है, उसके लिये बार-बार यातनाओं से गुजरना पड़ता है पर गांधी जी इस रास्ते पर दृढ़ता के साथ चले. कई प्रकार के आरोप-प्रत्यारोपों के साथ कई बार वे अपने निर्णयों में अकेले भी पड़े पर हिम्मत नहीं छोड़ी. वे अक्सर कहा करते थे ‘कामनाओं के शासन से मुक्त हो जाओ, प्रभुता और विलास के पीछे मत दौड़ो, सुविधाएं त्याग दो, हर दिन हर पल अपने को ईश्वर से संयुक्त रखो, तब भूख, जेल और हिंसा के सम्मुख अपने लोगों में वह क्षमता विकसित कर पाओगे, जो भय और क्रोध के बिना टिक जाने पर निश्चय ही स्वतंत्रता उपलब्ध करवा देगी.’ इसी कारण जब वे द्वितीय गोलमेज कान्फ्रेस में भाग लेने लंदन गये तो किसी सुविधाजनक जगह पर रहने की अपेक्षा पूर्वी लंदन के किंग्सले हाल में मुरिएल लेस्टर की मेजबानी में ठहरे. मुझे यह बताते हुये खुशी हो रही है कि गांधी जी की एक-एक स्मृति को संजोये हुये मुरिएल ने एक महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी जिसका शीर्षक है ‘गांधी की मेजबानी’. इस पुस्तक में गांधी जी की सादगी और पूरे यूरोप के पत्रकारों में उनकी लोकप्रियता के एक-एक क्षण को मुरिएल ने बहुत ही आत्मीयता से लिखा है. उन्होंने बड़ी बात यह कही कि
‘मैंने बो में उनका स्वागत एक ऐसे महान व्यक्ति के रूप में किया था, जिनकी मैं बहुत प्रशंसक थी लेकिन उन्हें विदा दी, वह एक प्रिय, आनंदप्रद तथा पूर्णतः विश्वसनीय मित्र थे.’
विश्वसनीयता का संकट आज हमारे समाज में सबसे अधिक है, तब भी रहा होगा इसलिये उन्होंने गांधी जी के लिये ऐसा लिखा है. गांधी जी की इसी सादगी से चर्चिल उन्हें अधनंगा फकीर कहा करते थे और उनकी लोकप्रियता से मरणांतक रूप में नफरत करते थे लेकिन संयोग देखिये कि लंदन के पार्लियामेंट स्क्वेयर में गांधी और चर्चिल की मूर्तियां थोड़े ही फासले पर लगी हुई है.
आज जिस प्रकार सांप्रदायिकता फिर से उफान पर है, सत्य के लिये लड़ने वालों की लगातार कमी होती जा रही है, हिंसा और आतंक का चारों ओर तांडव हो रहा है, स्वार्थपरता चरम पर है, जीवन मूल्यों के लिये नहीं बल्कि मूल्यों के बंजर होते जाने को जीवन का उत्स बना दिया गया है तथा राजनीतिक द्वेष को राजनीति का आवश्यक मूल्य मान लिया गया है, ऐसे अंधेरे समय में गांधी जी प्रकाश स्तम्भ की तरह हमारे सामने खड़े दिखाई देते हैं. गांधी जी अपने समय में भी विवादों में रहे और आज भी वे विवाद कम नहीं हुये हैं पर न विवादों से डरने की आवश्यकता है और न विवादों से क्योंकि उन सबके उत्तर उनके आचरण में स्पष्ट दिखाई देते हैं. वे कहा करते थे ‘मेरे मन में किसी के प्रति कोई ईर्ष्या-द्वेष या नफरत नहीं है’ तथा ’सत्य के लिये अपने प्राणों का बलिदान करने के लिये मैं सदैव तैयार रहता हूं.’ मेरा विश्वास है कि जब-जब समाज और राजनीति भयावह संक्रांति के दौर से गुजरेगी, तब-तब गांधी जी ही हमें रास्ता दिखायेंगे.
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सूरज पालीवाल
पूर्व अध्यक्ष एवं अधिष्ठाता
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