लेखिकाओं के जन्मशताब्दी वर्ष आयोजन को लेकर हिंदी समाज अनुदार दिखता है. कथाकार चन्द्रकिरण सोनरेक्सा का जन्म आज ही के दिन सौ वर्ष पूर्व हुआ था. उनके लेखन पर चर्चाएँ कम देखने में आती हैं. उम्मीद है इस शताब्दी वर्ष में उनके लेखक का मूल्यांकन होगा और संस्थाएं आगे आकर उनपर आयोजन करेंगी.
समालोचन उनके साहित्य पर रीता दास राम और शुभा श्रीवास्तव के प्रस्तुत इन दो आलेखों से इसकी शुरुआत कर रहा है.
जन्मशताब्दी वर्ष
चंद्रकिरण सौनरेक्सा
19 अक्टूबर हिन्दी साहित्य जगत की प्रतिष्ठित लेखिका व लखनऊ आकाशवाणी का अपने समय में लोकप्रिय व चर्चित नाम चंद्रकिरण सौनरेक्सा का जन्मदिवस है. चंद्रकिरण जी का यह जन्म शताब्दी वर्ष है. दिल्ली हिन्दी अकादमी 2001 के 'सर्वश्रेष्ठ महिला कथाकार'पुरस्कार से सम्मानित चंद्रकिरण जी के लिए साहित्य ही जीवन था.
चंद्रकिरण उर्फ़ निक्की का जन्म 19 अक्टूबर 1920 को पेशावर छावनी नौशहरा में हुआ. पिता नाम रामफल मांगलिक और माता का नाम जानकी था. मध्यमवर्गीय परंपरावादी दृष्टिकोण के अनुयायी परिवार वालों के विरोध के कारण वें स्कूली शिक्षा हासिल नहीं कर पाई. किन्तु घर में शिक्षा ग्रहण करने में कोई मनाही नहीं थी. अतः उन्होंने अपनी पढ़ाई खुद घर में पूरी की. उन्हें पढ़ने और लिखने में बचपन से रुचि थी. घर में पुस्तकें पढ़कर 1935 में प्रभाकर और 1936 में साहित्यरत्न की परीक्षाएँ उन्होंने पास की. ग्यारह वर्ष की अल्पायु से ही कविता, गीत और कहानी लिखना उन्होंने शुरू किया. स्थानीय पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होना उनके लिए बड़ी बात थी. जिसने उन्हें बहुत प्रोत्साहित किया.
1933 में कोलकाता से प्रकाशित 'भारत मित्र'पत्रिका में चंद्रकिरण जी की पहली कहानी 'घीसु चमार'प्रकाशित हुई. यहीं से उनके साहित्यिक लेखन का शुभारंभ हुआ. लेखन के शुरुआती दौर में 'छाया'और 'ज्योत्सना'उपनाम से वें कविता और गीत भी लिखती रहीं. पड़ोस में रहते एक धनी परिवार की बेटी से दोस्ती और उनके पुस्तकालय का चंद्रकिरण जी को लाभ मिला. जहाँ शरतचंद, रविन्द्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, विशम्भरनाथ कौशिक, के साथ टोल्स्टोय और गोर्की का कथा साहित्य उनके लिए उपलब्ध था. उन्होंने 300 कहानियाँ, उपन्यास, नाटक, आत्मकथा और बाल साहित्य द्वारा अपना रचनात्मक साहित्यिक योगदान दिया.
30 दिसंबर 1940 को संपादक व समीक्षक कांतिचन्द्र सौनरेक्सा से उनका विवाह हुआ. और साहित्य क्षेत्र का आँगन उनके लिए खुल गया. घर में 'शनिवार समाज'साहित्यिक संगोष्ठी का संचालन और व्यवस्था का दायित्व उन्होंने संभाला. जहां विष्णु प्रभाकर, शिवदान सिंह, रामानंद सागर, उपेंद्रनाथ अश्क, ख़्वाजा अहमद अब्बास, जगन्नाथ, रामचन्द्र तिवारी जैसे साहित्यिक जनों का सान्निध उन्हें प्राप्त हुआ. साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग, निहारिका, हिंदुस्तान टाइम्स, सारिका में उनकी कहानियाँ छपती रही.
सुमित्रानंदन पंत एवं जगदीश्चंद्र माथुर के प्रोत्साहन से 1956-79 तक लखनऊ आकाशवाणी में 'स्क्रिप्ट-राइटर-कम-एडिटर'का कार्यभार संभाला. बालनाटक, परिकथाओं, और गीतों से उन्हें लोकप्रियता मिली.
महिला मजदूर मण्डल, और जनरल कार्यक्रमों में किश्तों में प्रसारित उपन्यासों, नाटकों और परिसंवादों के माध्यम से हर आम श्रोता की वह मनपसंद सृजक हो गई. कई साहित्यकारों के उपन्यास 'और दिया जलता रहा'रवि, शरत बाबू, यशपाल और शिवानी के 'दिव्या'व 'कृष्णकली'का सफल रेडियों रूपान्तरण करना इनका मौलिक योगदान था. सेवानिवृत्त हो 'पायनियर'अँग्रेजी समाचार पत्र के सह-प्रकाशन 'सुमन'की संपादिका रही.
लेखन और सम्मान
'चन्दन चाँदनी'पहला उपन्यास - 1962
वंचिता -1972
'कही से कही नहीं'व 'और दिया जलता रहा' - 2003
समाज और साहित्य - 1944
हिन्दी की प्रतिनिधि कहानियाँ - संपादन और भूमिका -1955
युद्धोत्तर हिन्दी कथा साहित्य - 1956
हिन्दी साहित्य : एक आधुनिक परिदृश्य - 1967
आधुनिक युग की हिन्दी लेखिकाएं - 1969
आत्मकथा - 'पिंजरे की मैना'प्रकाशित हुई.
उनके उपन्यासों में नारी पात्रों पर लघु शोध प्रबंध - 1986-87.
आदमखोर कहानी 'हंस'में प्रकाशित हुई और 1944 में बीबीसी लंदन में अँग्रेजी में अनूदित होकर प्रसारित की गई.
हर्ष ध्वनि और श्रीराम सेंटर दिल्ली, में तीन बार 'मर्द'कहानी का मंचन हुआ.
'हिरणी'साहित्य अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ कहानियों में चुनी गई.
1946 में 'आदमखोर'कहानी को सैक्सेरिया पुरस्कार
1986- सारस्वत सम्मान
1988 - सुभद्रा कुमारी चौहान स्वर्ण पदक उन्हें प्राप्त हुआ.
लगभग 25 वर्ष तक आकाशवाणी लखनऊ में सेवा देने के पश्चात सत्रह मई 2009 को इनका देहान्त हुआ था.
कथाकार चंद्रकिरण सौनरेक्सा
रीता दास राम
चंद्रकिरण जी की कहानियाँ समाज को आईना दिखाती अपनी ज़िम्मेदारी का निर्वाह करती है. पुरुष प्रधान समाज को आड़े हाथों लेती है. पिता द्वारा अपनी बेटी को चार सौ रुपये के लिए बेचे जाने के हादसे से शुरू होती कहानी ‘सौदा’शूल की तरह चुभती है. जहाँ गरीबी लोगों से बच्चियों का सौदा कराने पर मजबूर है. एक अघाया वर्ग बस मौज-मस्ती के लिए हजारों में महीने दो महीने के लिए कुंआरी लड़कियों को वेश्या बनाता है. दस साल की उम्र में सितारा कोठे की बाई द्वारा खरीद ली जाती है हर बार,बार-बार बिकने के लिए. अपने साथ कई को बिकते देखती भीतर ही भीतर कलपती है. प्रश्न से दो-चार होती है कि क्या वह बेटी,बहन,बहू और माँ बनने के लायक नहीं है?बिकने के लिए तैयार होती हुई वह इसे भाग्य का खेल मानती है जो समाज के लिए शर्मनाक है. पहला ग्राहक जिसे वह प्यार कर बैठती है और वह भी उसे दिल दे बैठता है. इस समाज में पैठी क्रूरता,रीति-रिवाजों इस युगल में हिम्मत नहीं जगा पाती कि वें स्वतंत्रता का चुनाव कर पाएँ. कैलाश कहता है,“मैं इधर-उधर झक मारता रहूँ,किन्तु यह कभी बर्दाश्त नहीं करेंगे कि धर्म को साक्षी देकर सदैव को तुम्हें अपने पास रख लूँ. कोई नहीं,न जाति,न समाज और न घर वाले कोई भी यह नहीं सहेगा.”
क्या ये स्थिति आज भी बनी हुई है ?यह महत्वपूर्ण पक्ष है और समाज क्या आज भी वही है. तब तो सिताराएँ बिकती रहेंगी बार-बार धोखे से चालाकी का शिकार होते. पड़ोस की बहू की प्यारी गृहस्थी को देख दुखित होती सितारा सोचती है क्या वह नहीं थी इस लायक?वेश्या समुदाय में नारी की व्यथा,उसकी सोच,उसकी तड़प,हालात जो उसका कसूर बन जाते हैं,की कहानी कहती ‘सौदा’,पाठकों को सोचने पर मजबूर करती है. इस समाज में एक कोना ऐसा भी है जहाँ नारी नित अपमानित होती जिंदगी बसर करती है और बेहद दुख की बात है कि इसी समाज का पुरुष उसके इस अपमान का भागीदार है.
गुनिया’और ‘जीवन’इन पात्रों द्वारा ‘आदमखोर’कहानी भारतीय समाज के निम्न वर्ग की सच्चाई सामने लाती है जिसे उच्चवर्ग आर्ट मूवी या कलात्मक सिनेमा के नाम से पर्दों पर देखकर ताली बजाता है. कहानी में जीवन,पुरुष वादी सशक्त भूमिका में है जो कई शादी कर सकता है. पत्नी प्रसव वेदना सहन नहीं कर पाती और मरती जाती है. बच्चे भी कई मरते है और कई मरते-मरते जी जाते हैं. जिसका कारण गरीबी है. गरीबी उनकी दुश्मन है. जीवन पहले तो पत्नी और बच्चों के हाल पर दुखी होता है पर हालात की दैनंदिन मार उसे हृदय हीन बना देती है. जबकि कुछ कर सकने की स्थिति में भी विपरीत स्थितियाँ उसे मदद करने लायक नहीं छोड़ती और वह कठोर होता जाता है. वह दाई से कहता है कि जब नहीं पीता था तब भी कुछ नहीं कर पाया. पैसे की कमी उसके हालात नहीं सुधार पाते. यह उस दौर की सच्चाई बयान करता है जब गर्भ निरोधक जैसी चीजें नहीं थी और होती तो भी शायद पाप समझी जाती. निरंतर असफलता और विवशता जीवन को शराब पीने पर मजबूर करती है. वहीं औरत हर साल के गर्भधारण और प्रसव वेदना को सहन नहीं कर पाती और भूखी मरने को मजबूर होती है. कहानी में स्त्री और पुरुष दोनों अपनी स्थिति से लड़ रहे हैं. हालात है कि खलनायक बनना नहीं छोड़ता. तकलीफ देता है दृश्य कि प्रसव वेदना में पत्नी के पास जाने के बदले जीवन शराब पीकर पड़ा,बायसकोप देखने का पक्ष लेता सलाह देता है. यहीं वह खुद को अयोग्य घोषित करता मानवता से अलग होता कसूरवार साबित होता है.
युद्ध, दंगा या हो बवाल निशाना स्त्री पर ही होता है. ‘ये भेड़िए’कहानी समाज का घिनौना सच है. स्त्री पुरुष संबंध और संभोग क्रिया को जब तक मान सम्मान से जोड़ा जाता रहेगा तब तक बलात्कार से होते मानसिक आघात से स्त्री को बचाना मुश्किल है. शारीरिक दुख के साथ मानसिक आघात उसे दोहरी मौत देते है. रोष और आतंकित करने के लिए बलात्कार को हथियार की तरह इस्तेमाल करता पुरुष शारीरिक मर्दानगी साबित करने की चेष्टा करता दिखता है. जबकि वह यहीं कमजोरी और बेबसी का प्रदर्शन करता है.
समाज में कब तक उसे सिर्फ़ जवान मिट्टी समझा जाएगा आखिर स्त्री भी एक इंसान है. ‘जवान मिट्टी’में लेखिका अपनी बात कहानी के शीर्षक में ही रखती है. ससुराल जाने से इनकार करते हुए बिंदो अपनी बात रखने में भी सक्षम है कि अपनी इच्छा से जीने का उसे भी अधिकार है. पर घेर-घार कर उसे दोजख की आग में झोंकने का काम समाज के ठेकेदार करते रहे हैं. आदमखोर और जवान मिट्टी द्वारा लेखिका पितृसत्तात्मक समाज को उसका असली चेहरा दिखाती है जो स्त्री का रक्षक के रूप में भक्षक बना बैठा है. नारी को उसके स्वाभाविक जीवन जीने के अधिकार से भी वंचित करता है. पितृसत्तात्मक समाज में नारी वर्ग के लिए प्रयोग में लाए जाते कठोरता के पैतरों को सामने लाती है. समाज की विषमताओं,विडंबनाओं और समस्याओं की ओर पाठकों का ध्यानाकर्षित करती हैं.
किराए की माँ बहुत दर्दनाक कहानी है. एक माँ से उसके बच्चे को पैसे की खातिर अलग किया जा रहा है. गरीबी के कारण वह धाय बनने पर मजबूर है. वहीं उच्च वर्ग गरीब माँ और उसके बच्चे के बारे में सोचता भी नहीं. गरीब का बच्चा माँ के दूध से भी वंचित हो जाता है. सास और खुद पति उसे मारते,जलाते उसके दूध का भी सौदा करते है और बेमन से वह भी उसमें शामिल होने में मजबूर कर ली जाती है. गरीबी इंसान को कितने निचले स्तर तक ले आती है इसका सटीक उदाहरण लेखिका पेश करती है. चंद्रकिरण जी की कहानियाँ समाज में घटित सच और स्त्री की समस्या को पाठकों के समक्ष लाती ही नहीं बल्कि अपने समय के पुरुष प्रधान समाज में भी स्त्री की खामोश आवाज़ को बुलंद करती हैं.
समाज में स्त्री के साथ घटित व उनकी स्थिति को लेखिका बतौर सबूत पेश करती है. पुरुष वर्ग की स्वार्थी प्रवृत्ति को भी दर्शाती है कि वह आखेट करता स्त्री को निशाने पर रखता है. मुख्य बात सिर्फ वर्चस्व साबित करना ही नहीं बल्कि स्त्री को उसका दोयम स्थान बताना भी है. लेकिन मौजूदा समाज में इस सब का ठीकरा सिर्फ पुरुष पर नहीं फोड़ा जा सकता. इसकी कसूरवार कुछ हद तक औरत खुद भी है. कहते हैं जो अपना सम्मान खुद करता है लोग भी उसका सम्मान करने लगते हैं. स्त्री को खुद को इंसान समझना होगा. पितृसत्तात्मक समाज में गुलामी और जानवरों सी स्थिति से ऊपर उठना जरूरी हो जाता जब स्त्री के लिए समाज में कोई सोचने वाला नहीं रह जाता. उसके लिए अपने-पराए का मतलब नगण्य रह जाता जब उसके लिए कुछ सोचने वाली अपनी बस वही रह जाती है. ‘जवान मिट्टी’की नायिका की तरह लंगड़े होने के बाद नहीं बल्कि उससे बहुत पहले अपने लिए आवाज उठाना निहायत जरूरी है. उदाहरण बनकर सामने आना जरूरी है ताकि नारी को अपनी बात रखने की हिम्मत मिले और अपनी खुशी जीने की इच्छा का शुभारंभ हो.
चंद्रकिरण की कहानियों की नारी पात्र शालीनता से अपनी बात भी रखती है उनके व्यवहार में दबे छिपे आक्रोश के साथ व्यवहार की सटीक अभिव्यक्ति करती योद्धा के रूप में सामने आती है. हालात स्त्री पुरुष दोनों पक्ष सामने रखता है. जिसका उद्देश्य सटीक अभिव्यक्ति के साथ निर्णयात्मक फैसला नहीं बल्कि समाज की आँखें खोलना है. समाज के तत्कालीन मुद्दों पर टिप्पणी स्वरूप कहानी रचना चुनौती और हिम्मत का कार्य है जिसे लेखिका सहजता से निभाती है.
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लेखिका चन्द्रकिरण सोनरेक्सा
शुभा श्रीवास्तव
हिंदी का इतिहास शुरू से ही पुरुष केंद्रित रहा है. किसी भी इतिहास में स्त्री साहित्य को खारिज करने की हमेशा कोशिश रही है. सिर्फ उन्ही का उल्लेख हम पाते है जिनसे इतिहास मुँह नहीं मोड़ पाया है. परंतु आज यह बात नहीं है. आज हर जगह स्त्री रचनाकार स्वीकृत है. कुछ रचनाकार अपने उत्कृष्ट योगदान के बावजूद उतनी चर्चित नही हुई जितनी प्रसिद्धि उन्हें मिलनी चाहिए. ऐसी ही रचनाकार है चंद्रकिरण सोनरेक्सा.
चन्द्रकिरण को सर्वाधिक प्रसिद्धि उनकी आत्मकथा 'पिंजरे की मैना'से मिली है. निम्न मध्यवर्गीय परिवार के उतार चढ़ाव, अन्तर्द्वंद्वो के बीच सृजनशील नारी की आत्मकथा है, 'पिंजरे की मैना'. इस आत्मकथा में उनका क्रांतिकारी लेखन और उनकी सामाजिक दृष्टि उभरकर सामने आई है. दो जून की रोटी के लिए भारतीय स्त्रियों की पीड़ा,त्याग और समर्पण को बड़ी कुशलता से उन्होंने स्व के माध्यम से अभिव्यक्त किया है.
वस्तुत: यह आत्मकथा नारी मन की पीडा का शब्दकोश बन पड़ा है. नारी के जीवन का बंधन,उसकी परतन्त्रता,उसकी अधिकार विहीनता आदि सब कुछ मूर्त रूप में 'पिजरे की मैना'में साकार दिखाई देते हैं. पितृसत्ता और समाज का सामंतवादी रूख कैसे स्त्री जीवन को प्रताड़ित करता है, इसका यथार्थपरक रूप पिजरे की मैना में चित्रित हुआ है.
एक लेखिका का दर्द यह भी है कि वह पहले माँ, पत्नी, बहू और बाहर काम करने वाला कर्मचारी है फिर वह सबसे बाद में लेखिका है. एक स्त्री लेखक की इस पीडा को 'पिंजरे की मैना'बखूबी बयां करती है. पिंजरे की मैना परम्परागत दाम्पत्य का, स्त्री विमर्श का पूरा आख्यान प्रस्तुत करती है.
चन्द्रकिरण की कहानियों को हम शरतचंद्र और प्रेमचंद की परंपरा का वाहक कह सकते हैं. इनकी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं से परिपूर्ण है. चन्द्रकिरण की कलम से मानवीय संवेदनाएं पारिवारिक-सामाजिक मूल्य, व्यक्तिगतगत इच्छाएं अपने सहज रूप में पाठकों के सामने आती हैं. इन कहानियों में मध्यवर्गीय जीवन अधिकाशत : उपस्थित हुआ है. चन्द्रकिरण ने उत्तर भारतीय समाज और वर्ग चेतना से सम्बन्धित कहानियों को व्यापक सन्दर्भों में अपनी कहानियों में उतारा है.
खुदेजा अकाली, सितारा सुनीता आदि इनके द्वारा प्रयुक्त पात्र हमारे आस-पास के जीवन में चलते-फिरते दिखाई देते हैं. चन्द्रकिरण के कथा साहित्य में तत्कालीन परिवेश के अनुकूल रिश्तों में घुटन, मूल्य ह्रास का चित्रण मिलता है. इसीलिए अज्ञेयका मानना है कि – “मध्य वर्गीय जीवन में पाखंडों और स्वार्थ पर, आकांक्षाओं पर चन्द्रकिरण इतनी गहरी चोट करती है कि पाठक तिलमिला उठे.”
चंद्र किरण जी स्वयं यथार्थ पर बल देती है और साथ ही अपने लेखकीय दायित्व से पूर्णतः परिचित भी है. लेखन उनके लिए मनोरंजन या व्यवसाय नही है बल्कि के सामाजिक उत्तरदायित्व है. अपने साहित्य लेखन के लिए चन्द्रकिरण जी कहती है-
“मैंने देश के बहुसंख्यक समाज को विपरीत परिस्थितियों से जूझते, कुम्हलाले और समाप्त होते देखा है. वह पीड़ा और सामाजिक आर्तनाद ही मेरे लेखन का आधार रहा है. उन सामाजिक कुरीतियों, विषमताओ तथा बंधनो को मैनें अपने पाठकों तक पहुँचाने का प्रयास किया है जिससे वे भी उनके प्रति सजग हों. “
चन्द्रकिरण ने अपने कथा साहित्य में नारी के विविध रूपों को चित्रित किया है. नारी और उसके जीवन से जुडी हर समस्या को महसूस करने के लिए इनके साहित्य से अच्छा उदाहरण अन्य कहीं नहीं मिलेगा. चन्द्रकिरण के द्वारा चित्रित नारी पुरुष के समकक्ष है. नारी की मनोदशा प्रेम और शरीर की अनुभुतियों की सहज अभिव्यक्ति इनके कथा साहित्य की महत्वपूर्ण विशेषता है. इन्होंने ऐसी नारी का चित्रण किया है खुले और आधुनिक विचारों वाली है. चन्द्रकिरण जी ने नारी स्वतन्त्रता के नये मानदंड का निर्माण किया है. चन्द्रकिरण की नायिका स्त्री देह की बँधी बँधाई परंपरा से अलग छवि रखती है पर वह व्याभिचार की सीमा तक नहीं जाती है. इनके नारी पात्र संयमी और आत्मनिर्भर है. चन्द्रकिरण ने नारी की आत्मनिर्भरता के लिए शिक्षा को सबसे ज्यादा महत्व दिया है.
चन्द्रकिरण की रचनाओं में स्त्री मन की वह दुनिया है जहां पुरूषवादी अहं नहीं पहुंच पाता है. जीवन के हर छोटे से छोटे प्रसंग जो संवेदनात्मक होते है वह स्त्री तो महसूस करती है पर पुरुष नहीं. चन्द्रकिरण के कथा साहित्य में यही छोटे से छोटे प्रसंग अपनी मनोवैज्ञानिक सूक्ष्मता के साथ उपस्थित हुए है. स्त्री की घर और बाहर की जिम्मेदारियाँ,उसका दोहरा जीवन,दोहरा संघर्ष चन्द्र किरण जी की लेखनी से रूपाकार हुआ है. गृहस्थी का सुख जैसी कहानियाँ इन संवेदनात्मक बिन्दुओं पर यथार्थवादी दृष्टि डालती है. चन्द्रकिरण जी के सन्दर्भ श्रीपत राय का मानना है कि –
“निम्नमध्य वर्ग के घरों के अन्दर का विशेषकर स्त्रियो का इतना स्वाभाविक और पैना चित्रण अन्यत्र दुर्लभ है. नारी के स्वभावगत तुच्छता और क्षुद्रता का भी उनका अध्ययन बहुत व्यापक है. आज के कहानीकारों में मैं उनका स्थान ऊँचा मानता हूँ. " (दूसरा बच्चा : कहानी संग्रह)
कहानियों से इतर इनके उपन्यास में नारी पात्र ज्यादा शिक्षित और विद्रोही है. दिया जलता रहा की दीप्ति नारी चेतना का प्रतीक बनकर पाठक के समक्ष आती है. समाज के आडम्बरो, रीति रिवाजों को तोड़ने का साहस इनकी नायिकाएं करती है. चंदन चांदनीउपन्यास में गरिमा दहेज़ जैसे रूढियों पर प्रहार करती है और साथ ही उच्च शिक्षा और नौकरी के कारण स्त्रियों की बदलती स्थिति का भी खाका खींचती है. इनके उपन्यासों में रूढिवादिता,संयुक्त परिवार को मानसिकता, शारीरिक शोषण, विवाह विच्छेद जैसे अनेक प्रश्न पात्रों के माध्यम से पाठकों से टकराते है.
‘वंचिता’ और ‘कहीं से कही नहीं जैसे उपन्यास अपने कथ्य और सरल सम्प्रेषण के लिए सदैव याद किये जा सकते है. डॉ. रामविलास शर्मा चन्द्र किरण के लिए सत्य ही लिखते हैं कि-
"साधारण जिंदगी में भी निर्भिक कितनी हृदय द्रावक घटनाएं होती है,कितने कठिन संघर्ष का सामना आज की स्वतंत्र चेता नारी कर रही है इन सब का चित्रण सिद्ध कलाकार की कलम से हुआ है. जगह-जगह हास्य विनोद के छीटें अचानक मर्म को छूने वाला व्यंग्य वाक्यों के भीतर अनायास रची हुई कहावतें और वह समझो जो बहुत कुछ देखने और ठोकरे खाने के बाद इन्सान में उसकी गिनती होगी. "
चन्द्रकिरण के नाटक भी भाव और भाषा का वैविध्य अपने भीतर समाहित किए हुए है. ‘पीढ़ियों का पुल’ नुक्कड नाटक में वर्तमान युवा पीढी उसकी सतर्कता और कर्तव्य निर्वाह की संघर्षमय स्थिति का चित्रण है. वर्तमान सामाजिक परिवेश और उसका बदलाव तथा उस बदलाव में युवा वर्ग को मानसिकता का संवेदनशील चित्रण इनके नाटकों की विशेषता है. नाटक चाहे स्वर्ण मृग हो या वायदा,इंतजार हो या दहेज सभी नाटक किसी न किसी सामाजिक समस्या को पाठकों के सामने अपने पूरे यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया है. नाटको के माध्यम से भी किरण जी ने नारी की विविध समस्याओं को साहित्य के केन्द्र में वैसे ही किया है जैसे प्रेमचंद ने निर्वाह किया है. ‘अवरोध’ नाटक में विधवा,घर परिवार नाटक में स्त्री स्वास्थ्य दहेज नाटक में दहेज प्रथा तथा इंतजार नाटक में स्त्री पुरुष समस्याओं का अंकन हुआ है. ‘चल रे मनवा देसवां की ओर’ नाटक में गांव और शहरी संस्कृति का चित्रण ठोस धरातल पर किया गया है.
रंग मंचीय दृष्टिकोण से इनके नाटक बड़े सहज है. इनका प्रकाश संयोजन और रंगमंचीयता नाटकों की प्रसिद्धि का कारण है. कथानक और संवाद योजना दीर्घ न होने के कारण इनके नाटक मंचन में सरस व सरल है.
चन्द्रकिरण जी द्वारा लिखित ‘पशु-पक्षी सम्मेलन’ ने प्रसिद्धि में बाल साहित्य का इतिहास रचा है. ‘करनी का फल’, ‘चतुर पंडित’, ‘टिड्डे की काम चोरी’, ‘मेघपरी और सोने की नदी’ जैसी रचनाएं अपने हास्य और बालसुलभ कोमलता के कारण पाठक को अपनी ओर बड़ी सहजता से आकर्षित कर लेती है. ‘घमण्डी का सिर नीचा’, ‘मै तुमसे बड़ा हूँ’ की कहानियां बच्चों के चरित्र निर्माण में सहायक ही नहीं है बल्कि कुछ रचनाएं इतिहास से भी परिचय करवाती है. ऐसी रचनाओं में ‘महारानी अहिल्याई’, ‘रानी पदमनी’, ‘लक्ष्मीबाई’, ‘वीर तात्या टोपे’, ‘नाना साहब पेशवा’, ‘हर्षवर्धन और विक्रमादित्य’ काफी चर्चित रचनाएं रही हैं.
कहानियों के अतिरिक्त चन्द्रकिरण जी ने शीशे का महत्व नामक तिलस्मी और ऐय्यारी केंद्रित बाल उपन्यास का भी सृजन किया है. नल दम्पयन्ति बाल नाटक अपने पौराणिक आख्यान के साथ ही अपने देश की संस्कृति और ऐतिहासकता से भी हमारा परिचय कराता है.
shubha.srivastava12@gmail.com
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