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एक विदुषी पतिता की आत्मकथा (मानदा देवी) : विमल कुमार

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(प्रकाशक : श्रुति बुक्स, गाजियाबाद)

 

मानदा देवी द्वारा लिखित और १९२९ में बांग्ला भाषा में प्रकाशित ‘एक विदुषी पतिता की आत्मकथा’ संभवतः भारत में प्रकाशित किसी वेश्या की पहली आत्मकथा है. जिसका अनुवाद नब्बे साल बाद मुन्नी गुप्ता ने हिंदी में किया है.

गुलाम भारत में गुलामी के कई चेहरे थे, गुलामगीरी के कई प्रकार थे,उनमें से एक विवश स्त्री का देह-व्यापार भी था जो अब भी जारी है. इस आत्मकथा में कथित भारतीय नवजागरण की दरारें साफ़ नजर आती हैं.

यह कृति और इसका अनुवाद बहुत महत्वपूर्ण है. इसकी चर्चा कर रहें हैं सुपरिचित कवि-लेखक विमल कुमार     


एक संभ्रांत गणिका  की आत्मकथा                  

विमल कुमार

 

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क्याआप मानदा या जोशीना बीबी या मिस मुखर्जी या मानू दीदी को जानते है ?इस नाम से भले न उन्हें न जानते हों पर दूसरे नामों से   उन्हें जरूर जानते होंगे  क्योंकि हिंदी के प्रसिद्ध कवि विष्णु खरे के शब्दों में "हर शहर में एक बदनाम औरत होती है. "यह बदनाम औरत कभी उनकी ही कविता  "सोनी"भी होती है या कभी किसी अन्य लेखक की  कहानी की "रामकली"या "राजबाला"भी होती है. वह आज भी शाम ढलते किसी चौराहे पर आपको दिख जाती होगी. उसके पीछे मंडराते ग्राहक भी आपने देखे होंगे. यह हर शहर की आम कहानी है पर इसके अलावा  कई छिपी हुई कहानियां भी हैं जिसके बारे में आपको पता नहीं होगा और वे कहानियां इसी तरह दफ़न भी हो जाती है. 

संभव है आपने हिंदी में  ऐसी औरतों की  कहानियां  उपन्यासों और कथाओं में  पढ़ी हों  पर उन औरतों की आत्मकथा नहीं पढ़ी होगी. इसका कारण यह है कि हिंदी में कोई ऐसी आत्मकथा लिखी ही नहीं गई. और ऐसी आत्मकथाओं के अभाव में आपको उनकी  हकीकत का  बिल्कुल अंदाज़ा नहीं  होगा. 

यूं तो  पूरी दुनिया के साहित्य  में गणिका या वेश्या का उल्लेख  सदियों पहले से  मिलता रहा है. वैदिक काल से लेकर "रामायण"और "महाभारत"काल में भी इनका विवरण मिलता है. दरअसल जबसे लिपिबद्ध साहित्य प्रचलन में आया तब से  अप्सराओं  गणिकाओं और नगरवधुओं का जिक्र मिलता है. इन्हें विभिन्न नामों से पुकारा जाता रहा है चाहे वो  तिलोत्तमा हो या  रूपाजीवा हो या मत्स्यगंधा या शालभंजिका. कालांतर में दुनिया भर के लेखकों ने  उन्हें  साहित्य के पात्र के रूप में भी  चित्रित किया. चाहे एमिला जोला का "नाना"उपन्यास हो (1880 ) जो वेश्या जीवन पर  अब तक की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है. इसके अलावा मोपांसा हो या  टॉलस्टॉय  हो या  डिकेन्स या कुप्रिंन या चेखव या गोर्की  सबने वेश्याओं के दुख दर्द को चित्रित किया है लेकिन बंगला में 1929में प्रकाशित संभ्रांत गणिका  मानदा  देवी की आत्मकथा में जो आप बीती है उसका दर्द सबसे अधिक गहरा है. वह किसी कहानी या उपन्यास से अधिक पीड़ा लिए हुए है. उसमें व्यक्त सच्चाई सीधे आपके दिल को छू लेती है.

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कोलकत्ता के प्रेसिडेंसी विश्वविद्यालय की  सहायक हिंदी प्राध्यापक मुन्नी गुप्ता ने इस गणिका की आत्मकथा का  "एक  विदुषी पतिता की  आत्मकथा "नाम से हिंदी में अनुवाद किया है. यह अनुवाद चार वर्ष पूर्व आया था लेकिन हिंदी की दुनिया में इस किताब पर कोई अपेक्षित चर्चा नहीं हुई और मुख्यधारा के लेखकों का  उस पर ध्यान भी नहीं गया लेकिन मुन्नी गुप्ता ने हिंदी साहित्य को इस दृष्टि से समृद्ध किया है कि उसने एक ऐसे अनछुए विषय पर सबसे अधिक प्रामाणिक अनुभव  पेश किये  हैं.

प्रेमचन्द, आचार्य चतुरसेन, यशपाल जैसे लेखकों ने अपने समय मे लिखा ही था. जहूरबक्श ने भी एक वेश्या की आत्मकथा एक कहानी में लिखी थी. कमलेश्वर की चर्चित कहानी "मांस का दरिया"को भला कौन भूल सकता है. हाल के वर्षों में अब तक दिव्या जैन,  निर्मला भुराड़िया और गीताश्री  जैसी लेखिकाओं ने  वेश्या जीवन पर किताब लिखकर इस  समस्या की ओर  समाज का  ध्यान केंद्रित किया था. लेकिन इस आत्मकथा ने  तो बंगला भद्र लोक की पोल पूरी तरह  खोल कर रख दी है और उसके पाखंड को उजागर कर दिया है तथा  यह दिखा दिया है कि हम जिस बांग्ला नवजागरण में अंतर्निहित आदर्शों, मूल्यों और सांस्कृतिक बोध की चर्चा करते हैं, वह दरअसल भीतर से कितना लिजलिजा,  बोदा, पिल पिलासड़ा  और स्त्री विरोधी भी था.

इस आत्मकथा पर विचार करने से  पहले उस गणिका के बारे में भी थोड़ा  जान लेना बेहतर होगा. मानदा देवी बंगाल की एक संपन्न परिवार की लड़की थी और बचपन में कविताएं भी लिखती  थीं  उसका परिवार  सांस्कृतिक रूप से समृद्ध भी था क्योंकि उसके घर में रवीन्द्रनाथ टैगोर से लेकर बंकिम और शरतचंद्र की किताबों की अलमारियां भरी हुई थी और वह उन्हीं किताबों से साहित्य की तरफ प्रेरित हुई थीं.

मानदा के मां बचपन में ही गुजर गई थी.  उसके पिता एक धनाढ्य वकील थे जिन्होंने जल्द ही एक कमसिन युवती से  दूसरी शादी कर ली थी. ऐसे पारिवारिक माहौल में मानदा बिना माता के कारण थोड़ी उपेक्षित और अकेली रह गई थी और इस अकेलेपन का फायदा उसके पारिवारिक मित्र के बिगड़ैल रईसजादा रमेश दा ने उठाया और प्रेम का नाटक रचते हुए  मानदा  के कैशोर्य और यौन  चंचलता का लाभ उठाकर  वह उसके साथ  घर से फरार हो गया जबकि वह शादीशुदा था.

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मानदा  तब महज 15साल की थी और वह इस कच्ची उम्र में इस यौन आकर्षण की  इस पीड़ादायक परिणति को नहीं समझ पाई. यही उसने अपने जीवन में भयंकर भूल की. उसका नतीजा यह हुआ कि उसके वकील पिता ने उसे पूरी तरह त्याग दिया और उसे स्वीकार नहीं किया. मानदा परिस्थितियों के दुष्चक्र में फंसकर वेश्या बन गई क्योंकि उसका प्रेमी निहायत ही गैर जिम्मेदार, मक्कार और लापरवाह निकला. उसने अपनी प्रेमिका की देह का इस्तेमाल किया लेकिन  उसने कोई जिम्मेदारी नहीं निभाई और  आर्थिक सुरक्षा तथा  संरक्षण नहीं दिया.  वह एक नम्बर का शराबी निकला तथा फरेबी  साबित हुआ. 

ऐसे में  मानदा  को अपना जीवन बसर करना  मुश्किल हो गया. वह  परिस्थितियों के  जाल में फंसती चली गई जिसके कारण उसके पास वेश्यावृत्ति का रास्ता अपनाने के अलावा कोई चारा नहीं बचा क्योंकि उसके पास आजीविका का कोई साधन नहीं रह गया था.  मानदा ने जब आत्मकथा लिखी तो उसकी उम्र महज  29वर्ष थी और इतनी कम उम्र में उसने जीवन के ऐसे कड़वे  अनुभव प्राप्त किए जिसका वर्णन करने पर तत्कालीन भद्र और अभिजन  समाज के चेहरे पर से पर्दा उठ जाता है .

वह दौर राष्ट्रीय आंदोलन का था और आजादी की लड़ाई में बड़े-बड़े लोग शामिल थे. असहयोग आंदोलन अपने उत्कर्ष पर था. महात्मा गांधी से लेकर सुरेंद्र नाथ बनर्जी  देशबंधु चितरंजन दास तक उस में सक्रिय थे. बंगाल में तब टैगोर तथा शरतचंद्र, काजी नजरुल इस्लाम भी सक्रिय थे. मानदा सबके व्यक्तित्व से परिचित थी. वह एक सजग नारी थी और समाज तथा देश के बारे में भी सोचती थी. इस आत्मकथा में इन सभी विभूतियों का उसने जिक्र किया है. इतनी कम उम्र में लिखी गई आत्मकथा इस मायने  में विलक्षण  है कि उसे  पढ़ने  पर यह  नहीं पता चलता है कि लेखिका की  उम्र 30  वर्ष से भी कम  होगी  बल्कि उसकी लेखन की परिपक्वता इतनी नजर आती  है कि लगता है कि  60वर्ष की किसी महिला ने अपनी आत्मकथा लिखी है. 

आत्मकथा मानदा  की परिपक्व  मानसिकता और उसकी बौद्धिकता तथा विचार पक्ष को भी प्रस्तुत करती है. मानदा  एक सामान्य गणिका  नहीं थी बल्कि वह पढी लिखी तथा  रचनात्मकता से भरी हुई थी. वह साहित्य की  गंभीर पाठक तो  थी  ही. संगीत में  भी निपुण थी. उसे बंगाल नवजागरण के हस्तियों की अच्छी खासी जानकारी थी. वह महिलाओं द्वारा आत्मकथा  लिखने का दौर भी था. शायद इसने मानदा  को आत्मकथा लिखने के लिए प्रेरित  किया, अन्यथा कौन महज 29वर्ष की उम्र में आत्मकथा लिखता है.  

मुन्नी गुप्ता बताती हैं कि उस दौर में राम सुंदरी देवी, विनोदनी  देवी, शारदा देवी, निस्तारिणी देवी और प्रसन्नमयी देवी ने अपनी आत्मकथाएं लिखी थीं. मानदा की आत्मकथा  पढ़ने से पता चलता है कि उसे आत्म कथा लिखने का हुनर उपरोक्त आत्मकथा से आया  होगा. 120पेज की आत्म कथा में 10अध्याय हैं जबकि मुन्नी गुप्ता ने 70 पेज की एक लंबी भूमिका लिखी है और वह भूमिका भी कई अध्याय में विभक्त है. वह अपने आप में  एक स्वतंत्र पुस्तिका है. एक तरह  इस किताब में 2पुस्तक समाहित हैं. एक मुन्नी देवी की वह भूमिका जिसमें इतिहास में वेश्यावृत्ति और संस्कृति से लेकर उत्तर आधुनिकता के दौर में रेड लाइट की संस्कृति तक का विवरण  है जबकि उनकी भूमिका एक तरह से एक अलग मुकम्मल किताब के रूप में भी दिखाई पड़ती है.

इस किताब के दूसरे हिस्से में मानदा  देवी की आत्मकथा है. उसके बचप,न कैशोर्य ओर पलायन,  मोहभंग, पाप की राहविक्रय, समाज के चित्र, आग से खेल, टीचर के घेरे में नई राह, मिस मुखर्जी, टी पार्टी, गार्डन पार्टी आदि का जिक्र है. मानदा देवी ने इसे अपने बचपन से लेकर अपनी जवानी तक की कथा को पेश किया है और बताया है कि किस तरह समाज के भेड़िए उसके शरीर को नोचने, खरीदने और लूटने के लिए तैयार रहते थे और उसे यौन आनंद का एक माध्यम मानते रहे. मानदा देवी ने कई पुरुषों के सामने विवाह का प्रस्ताव भी रखा क्योंकि वह सोनागाछी के नारकीय जीवन से मुक्ति पाना चाहती थीं लेकिन बंगाल के रईस जमीदार, शहजादे, नामी-गिरामी बैरिस्टर, समाजसेवी, नेता और लेखक सब मानदा  के शरीर का दोहन करते रहे लेकिन कोई भी उसे अपना जीवनसाथी बनाने  को तैयार नहीं हुआ.

मानदा एक संवेदनशील स्त्री थी  इसलिए  इस आत्मकथा को लिखने के लिए उसने अपनी कलम उठाई अन्यथा उसके साथ चकले घर में रहने वाली अन्य औरतों ने कोई आत्मकथा नहीं लिखी. जाहिर है वे  लेखन में  सक्षम नहीं रही  होंगी यद्यपि उनका दुःख भी बड़ा होगा  लेकिन मानदा बचपन से साहित्य पढ़ती आई थी इसलिए उसके भीतर एक तरह की रचनाशीलता विद्यमान थी और उसने अपनी लेखनकला  का उपयोग किया. इस तरह उसने तत्कालीन समाज के चेहरे को बेनकाब करने की कोशिश की. मानदा  भले ही जीवन भर कष्ट में जीती रही  एक नारकीय  जीवन  जीती रहीं  लेकिन उसने  कम से कम इस  भद्रलोक के चेहरे से नकाब उठाने का काम तो किया ही. यही उसके जीवन और लेखन की साथर्कता है. यही उसका योगदान है.

उसने पुस्तक में ब्रह्म समाज के पतन का भी जिक्र किया और लिखा है कि अगर शिवनाथ शास्त्री जीवित होते तो हमारी यह हालत नहीं होती. पुस्तक में उसने अपने शोषण की कहानी का जिक्र करते हुए एक बड़ा ही मार्मिक प्रसंग  लिखा है

"ऐसी अवस्था में खोला बाड़ी में रहने की वजह से दिनों दिन मेरा स्वास्थ्य गिरता गया. रानी मौसी के परामर्श से मैंने जो गर्भ निरोधक दवा खानी शुरू की थी उसी के कारण मैं नाना रोगों की शिकार बन गई थी. राजबाला ने भी वही दवा  खाई थी लेकिन उस पर इसका कोई बुरा असर नहीं हुआ. मैं बीमार पड़ गई और अतिदुर्बल नजर आने लगी. मेरे सारे शरीर में दर्द रहता हथेली और पांव के तलवे में अति कुपोषित दाग दिखाई पडने लगे. चेहरे और शरीर पर छोटी-छोटी फुंसियां निकलती, घाव में बदल जाती हैं. रानी मौसी ने देखते ही कहा बिना अस्पताल गए, इस रोग से बचना मुश्किल है. मैंने जीवन की आशा छोड़ दी बिस्तर पर पड़े-पड़े दिन-रात आंसू बहाती रही. आंखों के जल से तकिया भीगता रहा. उस रोग  का कष्ट भोगते हुए  मुझे ऐसा प्रतीत हो रहा था कि मृत्यु इस दुख से कहीं अच्छी होगी. न कोई अपना साथी संगी. मकान की अन्य स्त्रियां अपने-अपने कार्य में व्यस्त थीं. शाम ढलते ही अपने व्यवसाय के लिए सब सजधज कर दरवाजे पर आ खड़ी होती. सारी रात मौज मस्ती शराब नाच गान  में बिता कर वे  सुबह 8:00बजे  या नौ बजे जागते मुझे कौन  देखता ?मुझे अपने चारों ओर एक वीभत्स  नरक  दिखाई पड़ता. ऐसा प्रतीत होता है जैसे हम मनुष्य ना हो, माडसा सुअरों  का दल हो, गंदगी में लोटपोट रहे हो. मैं सोच रही थी कि मेरी मौत बहुत निकट है.  रानी मौसी और राजबाला ने मुझे अस्पताल में भर्ती करा दिया. 3महीने बाद जब मैं स्वस्थ होकर लौटी तो मेरे हाथ में एक पैसा भी नहीं था " 
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उससे आगे यह भी लिखा हैमैं जितना पढ़ी लिखी थी उससे बड़ी आसानी से मुझे किसी घर में छोटे बच्चों को पढ़ाने का काम मिल जाता. मैं नर्स बन जाती. संगीत शिक्षिका बन जाती और नहीं तो टेलीफोन दफ्तर में काम करते हुए नीति पथ का अनुसरण करते हुए अपनी जीविका चला लेती लेकिन न तो किसी ने मुझे सही राह दिखाई ना उस पर चलने का मौका दिया. रानी मौसी जैसी सलाहकारों ने रूप और यौवन की दुकान सजाने और बाजारों में घूम  कर उसे बेचने की आकांक्षा  मन में जगाई. मैंने कहा-  रानी मौसी मेरा सुंदर फीका पड़ गया है. अंग प्रत्यंग दुर्बल और सुस्त पड़ गए हैं. सिर के बालों में भी वह पहले वाली शोभा नहीं रही. इस पथ पर चलकर मेरे लिए अब क्या कोई  उपार्जन संभव हो सकेगा. रानी मौसी ने समझाया–

"पतिता के पास केवल रूप ही संपत्ति है ऐसी बात नहीं. लंपट रूप देखकर मतवाले नहीं होते. तुम खुद देखोगी अत्यंत कुरूप वेश्याएं सुंदरियों की अपेक्षा  ज्यादा धन कमा रही हैं. इसलिए कहा जाता है जिसके साथ जिसका मन मिल जाए. पुरुष जब शाम  होते ही वेश्यायों  के मोहल्ले में चक्कर लगाना शुरु करते हैं तब कामदेव उनकी आंखों में पट्टी बांध देते हैं."

मानदा  को एक बार  अपने आश्रम के एक पाखंडी गुरु पर क्रोध आया जो अपनी शिष्य के दैहिक शोषण कर रहा था,तो उसने चीखते हुए कहा-

"महोदय हम पतिता कहलाते हैं आप लोगों की दृष्टि में घृणित  हैं लेकिन आप तो समाज के कर्णधार हैं. आज क्या आप हम से अपमानित होना चाहते हैं? धिक्कार है आपको. आपके लोगों को शर्म भी नहीं आती. गुरु का स्थान पर रहते हुए आपने अपनी सीधी-सादी विधवा  शिक्षा की पवित्रता को नष्ट किया. बिचारी को कलंक कालिमा में डुबोया और आप कैसे स्मृति शास्त्र के पंडित हैं. कहते हैं आप अध्यापन करते हैं. आपकी पंडिताई को धिक्कार है. आपके शास्त्र  ज्ञान तो धिक्कार है. हम तो महापापी वेश्याएं हैं. यह सच है कि हम मर जाएंगे. आप लोग नरक में नहीं जाएंगे क्यों जानते हैं ,आप लोग के लायक इतना बड़ा नरक कुंड अब तक बना ही नहीं है".

इस से पता चलता है वह साहसी भी थी लेकिन हालात ने उसे भीरु भी बना दिया था.

मानदा ने इस आत्मकथा में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन और उसमें महिलाओं की भागीदारी का भी जिक्र  किया है और लिखा है कि जब गांधीजी बंगाल भ्रमण पर थे तब उन्हें पतिता नारी समिति ने आमंत्रित किया था लेकिन महात्मा गांधी उस समिति में नहीं गए. उन्होंने कहा अगर गणिकाएं एक साथ मिलकर समिति गठन करें तो देश के सारे चोर डाकू भी मिलकर समिति का गठन करने लगेंगे.

मानदा  ने अपनी आत्मकथा में इस तरह की नैतिकता और अनैतिकता के प्रश्नों को भी उठाया है. उसने शराबबंदी के आंदोलन में वेश्याओं  के भाग देने का भी जिक्र किया.

मानदा एक ईमानदार लेखिका थी और आत्मकथा में ईमानदारी तथा पारदर्शिता की दरकार होती है. उसने वेश्यावृत्ति के दौरान धन सम्पत्ति अर्जित करने की अपनी चालाकियों का जिक्र भी  किया है. इस अर्थ में मानदा बेबाक  है. वह कहती हैं-  

"जीविका के लिए उसे यह छल करना पड़ा."

इस तरह उसकी आत्मकथा में एक साफगोई भी है. उसने अपने दो दलालों के भी जिक्र किया है जिनके सहारे वह अपने ग्राहकों को फंसाने के काम करती थी.

मानदा ने यह आत्मकथा लिखकर एक तरह से बंगाल के तत्कालीन समाज के अंधेरे  पक्ष का दस्तावेज ही  पेश किया है और एक संक्षिप्त इतिहास भी लिखा है. आमतौर पर इतिहास लेखन में इस तरह के तथ्यों और सामग्री का इस्तेमाल नहीं किया जाता है इसलिए समाज के चेहरे पर पड़े पर्दे उठ नहीं पाते हैं और हकीकत का पता नहीं चल पाता है लेकिन मानदा ने इस किताब के जरिये अपने समय का एक छोटा इतिहास लिखने में भी मदद की है. अगर दुनिया की सारी औरतें अपनी आत्मकथाएं लिखने लगे तो समाज का कच्चा चिट्ठा  सामने आ जायेगा.

सवाल आत्मकथा या इतिहास लेखन का नहीं  है,  सवाल यह है कि इस सभ्यता के इतिहास में आखिर वेश्याएं कैसे अस्तित्व में आईं'और आज भी पूंजीवाद के इस दौर में जहां सब कुछ ग्लोबल और उत्तरआधुनिक होता जा रहा है, दुनिया के हर कोने में वेश्याएं मौजूद हैं और अब तो सेक्स टूरिस्म का जमाना  आ गया है. इस से जाहिर है राजसत्ता इस कलंक को कलंक न मानकर राजस्व उगाही का एक साधन मानने लगी है. यह निश्चित रूप से पितृसत्तात्मक समाज की देन है.

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मुन्नी गुप्ता

(1979, कोलकाता पश्चिम बंगाल) 


प्रकाशन : 'प्रेयसी नहीं मानती', (कविता-संग्रह) तथा 'एक विदुषी पतिता की आत्मकथा' (बांग्ला से हिंदी में सम्पादन एवं अनुवाद.) 

असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, प्रेसिडेंसी विवि, 86/1 कॉलेज स्ट्रीट, कोलकाता

munnigupta1979@gmail.com


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