‘कई बार सुबह-सुबह घर से निकलते हैं और सड़क पर रात मिल जाती है.’
साहित्य में रात और दिन अपने प्रतीकात्मक अर्थों में ही अधिक प्रयुक्त होते हैं. ये कविताएँ इसका और विस्तार करती हैं, कभी वे ‘सुकून की स्याही’ बन जाती हैं तो कभी आईनों पर पर्दों की तरह छा जाती हैं. इसमें समय की अपनी हलचल तो है ही.
एक युवा संभावनाशील कवि में देखे हुए अनुभवों को धैर्य से बुनने की जो संजीदगी होती है वह इस कवि में है.
प्रस्तुत है लोकेश मालती प्रकाश की कविताएँ
सम्भव है रात
लोकेश मालती प्रकाश की कविताएँ
1.
अंधेरा
स्याह
गुत्थम-गुत्था साये
जलती-बुझती रोशनियाँ
डरावने कोने
बचपन में सुने क़िस्सों से आए भूत
किसी ने संदूक में रख दी है रोशनी
बाहर निकलने का सुराख़ ढूँढना है
एक लम्बी याद
जिसे बार-बार तोड़ देता है बेरहम सूरज.
2.
मैं रात में उतरता हूँ
जैसे समन्दर में उतरता हूँ
जैसे उतरता हूँ घर से
सड़क पर
रात मुझमें उतरती है
जैसे उतरता हो मुझमें समन्दर
घूँट-घूँट भर
जैसे उतरती है सड़क
घर के दरवाज़े पर.
3.
रात महज़ अंधेरा नहीं
राह भटके लोग अंधेरे में ही भटके हों
ज़रूरी नहीं
बहुत से भरी दोपहर भटक गए
और हुक्काम मुखौटा उतारने को कहाँ करते रात का इंतज़ार
रात के मत्थे नाहक ही मढ़ दिए गए
इतने सारे डर
भूल गए कि रात में गाढ़े होते प्यार के रंग
रात धरती की गति से ज़्यादा धरती की सतह के नीचे बसती है
वहीं बसती हैं जड़ें
जीवन की स्मृतियाँ.
4.
हर रात लौट आती है
मेरे पास
उसके पास
अबूझ भाषा में लिखी
दिन की चिट्ठी होती है
उसी भाषा में
गीत गाती है रात
मेरे सामने बनने लगती
धरती की तस्वीर
मैं देखता
एक शै
धरती की सतह से
तैर रही
सुदूर नेप्च्यून की तरफ़
गर्द-सी उड़ती
आड़ी-तिरछी लकीरें
पृथ्वी के आरपार
छटपटाती धरती
थम जाता रात का गीत
दरवाज़े पर किसी की आहट
चौकन्नी
काग़ज़ के गोले से खेलती बिल्ली
रात मेरे आग़ोश से दूर
आसमान में
महसूस करती होगी शायद
धरती की तड़प.
5.
रात को पता है
बहुत-सी बातें राज़ की
धरती की उदासी
आसमान का सन्नाटा
शहर का अकेलापन
बरसों पहले
डाली से गिरा पत्ता कहाँ अटका है
किसकी आवाज़ पर ठहर गई थी नदी
किस राह भटके हैं मुसाफ़िर
कहाँ सुस्ता रही धूप
किसके हिस्से रख दी गई
कितनी भूख.
रात को सब पता है.
6.
बिना किसी आहट के आई रात
दिन की साज़िशों से
थकी आत्मा के लिए
सुकून की स्याही साथ लिए
आई रात.
बिना किसी आहट के आई रात
पर्दा पड़ गया आईनों पर
थकी हुई आँखों के लिए
अंधेरे की लोरी गुनगुनाती
आई रात.
बिना किसी आहट के आई रात
भाषा का मुखौटा पहने शोर
से टूटते जिस्म के लिए
सन्नाटे का बिस्तर लगाती
आई रात.
7.
रंगीन आईनों से चीखते
आदिम डर
जाने-पहचाने साये
चेहरों पर पुराने चेहरे
बूझो तो जाने!
आभासी दुनिया की ख़ाक छानती
सभ्यता की ख़ाली जगहों में
घुलती है रात.
8.
रात कोई जादूगर है. हवा में लहराती है अपने हाथ
और रोशनी के तिनके चारों ओर बिखर जाते हैं.
धरती की गोद में सो जाती हैं सारी सड़कें
जिन्हें आवारा कुत्ते रह रह कर जगाने की कोशिश करते हैं.
कहीं फूट पड़ता है कोई नगमा. कोई सुबकता है फुटपाथ पर
शायद रात ने याद दिला दिया घर की खोई हुई कोई तस्वीर.
नदी शहर से थोड़ा और दूर चली जाती है. तंग होने लगते हैं हमारे खोह
आसमान से बरसता है काँच. किसी के पास जाने को कहीं नहीं है.
रात के सिवाय.
9.
रात के बारे में लिखने के लिए रात में लिखना ज़रूरी नहीं. भरी दोपहरी में लिखा जा सकता है रात.
दुनिया की सबसे ऊँची दीवार से शायद दिन और रात एक साथ दिख जाएँ. जो न दिख पाए उसे ही रात मान लिया जाए.
10.
कई बार सुबह-सुबह घर से निकलते हैं और सड़क पर रात मिल जाती है.
11.
रात धरती के हर कोने को खंगालती है
जैसे पहली रात हो
या वो पिछली रात का सुराग ढूँढ रही हो
किसी ने उसके नाम कोई ख़त छोड़ रखा हो
जिसके ग़ायब होने से पहले
रात उसे पढ़ना चाहती है.
या फिर
रात ढूँढ रही है
किसी कोने में दुबके दिन को
सुबह होने से पहले जगाना ज़रूरी है उसे.
यह महज़ अधूरी ख्वाहिशों की बेचैनी है
किसी अधूरे लम्हे को बार-बार जीने
धरती पर आती है रात.
12.
दिन के सभी रंग
रात में घुले होते हैं
पेड़ों और हवा की बातचीत में
शामिल होते हैं
दिन के सभी रंग
अनगिनत सपने टूटते
दिन को मिलता उनका रंग
हम प्यार करते हैं
रंगों से
रात से.
13.
रात और दिन ने बाँट ली है आधी-आधी दुनिया
बहुत थोड़े हैं
जगी हुई आधी दुनिया में जगे हुए
सोई हुई आधी दुनिया में सोए हुए
कोई नींद से जागता अचानक
सामने पसरा है
सोई हुई दुनिया का सन्नाटा
सदियों से जगे हुए लोगों के लिए
दिन प्रार्थना करता है
उनकी दुनिया में नींद हो
रात हो.
14.
लिखी हुई कविताओं से बहुत ज़्यादा है
न लिखी कविताओं की संख्या
कायनात एक रात है
जिसमें फूटती हैं
दिन की चिंगारियाँ
रात को पता है
अलिखी कविताओं की भाषा
जिसमें लिखी गईं
दिन की जानी-पहचानी कविताएँ.
15.
दिन में बिखरे मेरे टुकड़ों को
समेटती है रात
कुछ टुकड़े लापता रह जाते हैं
कभी-कभी किसी और के टुकड़े
रात मुझमें जोड़ देती है
दिन में दिख जाते
ख़ुद में अजनबी टुकड़े
बारहा दूसरे चेहरों पर
दिख जाता जाना-पहचाना कोई टुकड़ा.
16.
कभी-कभी लगता है एक बहुत लम्बी रात है जिसमें दिन बुलबुले की तरह उठता है. मैं एक बिन्दु से दूसरे बिन्दु तक जाता हूँ. रात एक दिन से दूसरे दिन को जाती है. रोशनी जिस जगह किसी चीज़ पर गिरती है वह दिन हो जाता है. वह चीज़ न रहे तो रात ही रहेगी. अगर पृथ्वी सूरज की रोशनी से न टकराए तो दिन नहीं होगा. सिर्फ़ रात होगी. दिन के लिए कितनी चीज़ों की मौजूदगी ज़रूरी है. रात के लिए किसी की भी नहीं. शून्य में भी सम्भव है रात.
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कवि, लेखक व अनुवादक लोकेश मालती प्रकाश का समतामूलक तालीम, नागरिक अधिकार, पर्यावरण संकट के मसलों पर चल रहे आंदोलनों से लम्बा जुड़ाव रहा है. यत्र-तत्र कविताएं प्रकाशित हुईं हैं. पिछले कुछ समय से फ़ोटोग्राफ़ी व कविता-वीडियो के क्षेत्र में भी कुछ प्रयोग कर रहे हैं. वर्तमान में एकलव्य, भोपाल के प्रकाशन कार्यक्रम में वरिष्ठ सम्पादक के पद पर कार्यरत हैं. मो.-9407549240