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संजीव : मुझे पहचानों : अमरदीप कुमार


 

वरिष्ठ कथाकार संजीव का उपन्यास ‘मुझे पहचानों’ तद्भव (नवम्वर-२०१९) में प्रकाशित हुआ था और तभी से इसकी चर्चा शुरू हो गयी थी. कथा की नयी जमीन और भाषा की तुर्शी के कारण अपनी पठनीयता में भी यह ख़ूब है और सामंती-ग्रामीण परिवेश में जो ख़ूनी संघर्ष यहाँ चलता है वह भी कहीं न कहीं वर्तमान का ही विस्तार लगता  है. अब यह उपन्यास  सेतु प्रकाशन से छप कर आया है. इसकी चर्चा कर  रहें हैं अमरदीप कुमार.


मिथकों का बाजार : रत्नापट्टी                                            
अमरदीप कुमार

 

मिथकों के मूलतः दो रूप दिखते हैं. एक बेहद डरावना और दूसरा उतना ही आश्चर्यजनक. हालाँकि,आकर्षण दोनों के प्रति होता है. अगर,डरावने मिथकों के प्रति सिर्फ़ डर होता और आकर्षण नहीं होता तो वैसे मिथक स्मृतियों से धुल जाते. बच जाते तो सिर्फ़ आश्चर्यचकित करने वाले मिथक. यूँ तो मिथक को लोक निर्मित माना जाता है,पर यह भ्रामक है. मिथकों के अंदर परत-दर-परत प्रवेश करते जाएंगे तो पायेंगे कि उसका केंद्र-बिंदु सत्ता है. लोक भी तो आखिर सत्ता-संचालित है. पर,लोकतंत्र में सम्मिलित मूल्यों ने सत्ता को थोड़ी टक्कर दी है. इसमें ज्ञान-विज्ञान और तर्क की चेतना का सबसे महत्वपूर्ण स्थान है. वरना,हम राजतंत्र के मूल्यों को ही ढोते रहते हैं. सत्ता तो यही चाहेगी कि पुराने मूल्य ही बचे रहे,यथास्थिति बनी रहे. उनकी शान-शौकत और अकर्मण्यता बची रहे. सत्ता अगर इस विरोधाभास को किन्हीं माध्यमों से बचाये रखती है तो शासन करना आसान होता है. चाहे शासक कितना भी अयोग्य हो. सत्ता के लिए डरावने और भावुक मिथक सबसे कारगर यंत्र है. प्रसिद्ध कथाकार 'संजीव'का उपन्यास 'मुझे पहचानो'सत्ता के ऐसे ही यंत्रों की पडताड़ करता है. इससे निर्मित भ्रमों को तोड़कर यथार्थ और ज्ञान-विज्ञान तथा तर्क के सहारे प्रगतिशील दुनिया को निर्मित करने की कोशिश करता है. 

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संजीव

लोक अक्सर मिथकों को सही मान लेता है. दरअसल,लोक को ऐसा मानने के लिए अपरोक्ष रूप से बाध्य किए जाने की राजनीति रही है. पर,आजकल परोक्ष रूप से डरा-धमकाकर और इमोशनल ब्लैकमेल कर के मिथकों को सही मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है. इस क्रिया-व्यापार का रूपक है 'मुझे पहचानो'उपन्यास. देश को विश्व-गुरु और राम लला को सही मानने को लेकर बाध्य किया जा रहा है तो उपन्यास में सत्ता अपनी रियासत को रत्नों की पट्टी और सावित्री कुँवर को दुनिया का श्रेष्ठ सती मानने के लिए बाध्य किया जा रहा है. 

यूँ तो सूत्र रूप में उपन्यास के विषय-वस्तु को लेकर कह दिया गया है. पर,अब मेरा पाठक रूप उपन्यास में प्रवेश करने जा रहा है.'मुझे पहचानो';यह उपन्यास तद्भव पत्रिका के चालीसवें अंक में छापा गया है. किताब के रूप में कब आयेगी,यह लेखक ही बता सकते हैं. ख़ैर,कभी-न-कभी यह उपन्यास अधिक-से-अधिक पाठकों तक पहुँच जाएगा.

लेखक ने कंठा नामक रियासत की स्थिति अजयगढ़ और विजयगढ़ के बीच बताया है. गूगल पर सर्च किया तो पता चला कि इनदोनों गढ़ों के बीच की दूरी पाँच सौ किलोमीटर से ज्यादा है. जबकि,उपन्यास में कंठा एक छोटी सी रियासत है जो रीवा से क़रीब सौ किलोमीटर की दूरी पर है. इस जोड़-घटाव से बेहतर है कि हम इसे मध्यप्रदेश का छोटा सा रियासत मान लेते हैं जिसे लेखक ने कल्पना से रचा है. कंठा की प्रसिद्धि रत्नापट्टी के रूप में है. यह एक मिथक है जो दूर-दूर के क्षेत्रों के लोग को खूब लुभाता है. खासकर भाग्यवादियों को. हालांकि,कभी किसी को रत्न मिला नहीं. पर,रियासत की बंजर ज़मीनों को बेचकर साहबों(राय साहब और लाल साहब)ने अपने खजाने भरे हैं. बिना मेहनत के शान बनी रहे,इससे बेहतर क्या होगा! उदाहरण के तौर पर वर्तमान सरकार को देख सकते हैं. पोस्ट-ट्रूथ रचना और चुनाव जीतकर देश की धज्जियां उड़ाना,लगभग ऐसी ही कोशिश कंठा के साहबों की भी है. जैसे यहाँ राम,वैसे ही वहाँ सती सावित्री कुँवर. यहाँ भी सोने-चाँदी की ईंटे और वहाँ भी सोने चाँदी की ईंटे. यहाँ भी पुरोहिती के लिए झगड़ा,वहाँ भी तकरार और गौमाता तो सर्वज्ञ हैं. कुल मिलाकर यही कह सकते हैं कि,लेखक ने दूसरे प्रतीकों के माध्यम से वर्तमान सरकार की आलोचना की है. 

मैं चरित्रों के माध्यम से इस उपन्यास के बारे में कहना ठीक समझता हूँ. लेखक ने चार तरह के चरित्रों को रचा है. एक तो सत्ता के प्रतिनिधि,दूसरे प्रतिगामी शक्तियों के प्रतिनिधि,तीसरे ज्ञान के अभाववश संशय और बेरोजगारी के कारण जीवन जीने के लिए जुगाड़ ढूँढने वाले और चौथा लोक का चरित्र. इन चार तरह के चरित्रों में से लोक का चरित्र ज्यादातर अपरोक्ष रूप से तो कभी-कभी परोक्ष रूप में भी आते हैं. चूँकि,लोक का कोई स्पष्ट प्रतिनिधि अलग से नहीं है पर,प्रतिगामी शक्तियों के प्रतिनिधि को ही लोक का भी प्रतिनिधि समझना होगा. हालांकि,आजकल विचारधाराओं के अंदर के खोखलेपन ने प्रतिगामिता को ढोंग या अवसर में बदल दिया है. मगर,कुछ लोग आज भी बचे हैं जो पूरी ताकत से संघर्ष कर रहे हैं. इस संघर्ष का प्रतीक सावित्री कुँवर है जिसके साथ मनोज सिंह,अनमोल मल्लाह और इसकी माँ, गया,डॉ. अमिताभ खरे,डॉ. रजनीकांत खरे,मॉडल डॉली,एस पी महमूद आलम इत्यादि. सत्ता का प्रतीक रायसाहब,लाल साहब और इनकी पत्नियों के अलावा मंदिर के बड़े पुजारी. इनके लिए शान और ताकत महत्वपूर्ण है जिसे प्राप्त करने के लिए किसी भी प्रकार के ढोंग रच सकते. मंदिर और रियासत की सत्ता हमें यूरोप का मध्यकाल याद दिलाता है,जहाँ चर्च का शासन हुआ करता था. तीसरे प्रकार के चरित्र जिसे हमने जुगाड़ू कहा है,उनमें दुबे और अवधू है. इसमें दुबे का चरित्र बेहद द्वंदात्मक और बुद्धिमता से पूर्ण है. वह बदलता रहता है. कभी इधर तो कभी उधर. ख़ुद को स्थापित करने के लिए तरह-तरह के हथकंडों का उपयोग करता है,तो कभी मैनेजर मनोज सिंह को बात-बात में आश्चर्यचकित कर देता है. मनोज सिंह को ऐसा भी लगने लगता है कि इस मिथक को सबसे ज्यादा समझने वाला दुबे ही है. मगर,अवधू मूर्खता और बेरोजगारी की हद है. बस किसी तरह लालसाहब को खुश करके सुखी रहना चाहता है. विडंबना तो यह है कि अवधू हिंदी साहित्य से परास्नातक है. लोक का चरित्र सामूहिक रूप में उपस्थित है,जो कि रायसाहब और लालसाहब के झगड़ों और लूट के अलावा झूठी शान के कारण विस्थापन की आग में जल रहा है. कंठा के हर इलाके में ज्यादातर बस्तियों में बुजुर्ग स्त्री-पुरुष ही मिलते हैं या अधिकांश घरों पर ताला लगा है. वरना,सावित्री कुँवर के रहते हुए तो तमाम दलित जातियाँ निवास करती थी. लोक खुश था. इसलिए,अंत समय तक भी लोक की स्मृतियों में सावित्री कुँवर के प्रति अपार श्रद्धा थी और दूसरी तरफ सत्ता के मन में छिपी नफरत. रत्नापट्टी की रत्न थी सावित्री कुँवर,पर साहबों ने बंजर जमीन को रत्नों की पट्टी के रूप में अफवाह फैलाया.       

कविता जैसी प्रतीत होती कुछ पंक्तियाँ देखिए-

"लाल साहब को चाहिए पैसा

रानी साहिबा को चाहिए पैसा

रियासत को चाहिए पैसा

पर पैसा है कहाँ?"

तो यहाँ से बात खुलती है. सारा खेल पैसों का है. पैसे होंगे तब कहीं जाकर राजनीति में कोई पद खरीदा जा सकता है. विधायकों और सांसदों की खरीद-फरोख्त से कोई अंजान नहीं है. एक तो रियासत के नाम पर शान और दूसरा राजनीति में ओहदा. इन्हीं दोनों के बीच झूलते रियासत के साहब. लोकतंत्र में भी राजतंत्र को कायम रखने की चाहत. इसी चाहत के फेर में राय और लाल साहब ने अपने मैनेजरों(दुबे और मनोज सिंह) को दिन-रात लगा रखा है. मैनेजर इस जाल से निकलना तो चाहता है पर रत्नों के लोभ में फँसता ही जाता है. ज़मीन बेचता है,पेड़ कटवाता है,दोनों साहबों में पानी के बंटवारे के लिए सीने पर उड़ता हुआ तीर भी लेता है,मगर साहब तो शान के साथ राजनीतिक पद ग्रहण किये बिना मान ही नहीं सकते. इसलिए, रत्नापट्टी का मिथक गढ़ा गया है.         

उपन्यास को मैं विमर्शों की दृष्टि से भी देखता हूँ. विमर्श के केंद्र में है स्त्री और सती-प्रथा जैसी सामाजिक और राजनीतिक कुव्यवस्था. सावित्री कुँवर एक दलित,पढ़ी-लिखी स्त्री है. युवा अवस्था में राय साहब के छोटे भाई की कुदृष्टि का शिकार होती है. राय साहब से शादी न होने का दूसरा विकल्प था रेप. मगर,सावित्री ने राय साब से शादी अधिकारों की शर्त पर की. जब तक रही,तब तक रियासत की तरक्की होती रही. जनता खुश थी. मगर,महल के अंदर की राजनीति और पुरुष सत्ता का शिकार हो गयी. कोई दलित बाभन के महल में रहकर बराबरी का हक़ चाहे,यह बाभनो के लिए शान के खिलाफ़ था. इस झूठी शान के प्रति मोह स्त्री-पुरुष दोनों को है. तभी तो पुरुषों ने छोटे राय साब यानी अपने छोटे भाई की हत्या कर दी और उसकी पत्नी को बेहोश कर के पति की लाश के साथ जला दिया गया. वह तो संयोग से आँधी-पानी के वजह से सावित्री कुँवर बच गयी. पूरे पाँच साल प्रतिशोध की आग में जलती रही और अंत में रहस्य का पर्दाफाश करती है. विडंबना तो यह है कि सावित्री कुँवर ख़ुद की पूजा करती रही. और पाँच वर्षों के दौरान रियासत में कोई जान न पाया कि सती सावित्री जीवित है. दूसरी तरफ,राय साहब की पत्नियाँ भी सती सावित्री कुँवर की पूजा तो करती थी,मगर छिनरिया और बुर्जरिया कहकर ही याद करती थी. औरत होते हुए भी निम्न जाति की स्त्री के प्रति नफ़रत देखी जा सकती है. उपन्यास के और भी प्रसंगों के सहारे इस विमर्श को बढ़ाया जा सकता है.

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