गीतांजलि श्री के चार उपन्यास- 'माई', 'हमारा शहर उस बरस', 'तिरोहित', 'खाली जगह'और चार कहानी-संग्रह- 'अनुगूँज', 'वैराग्य', 'प्रतिनिधि कहानियाँ', 'यहाँ हाथी रहते थे'तथा अंग्रेज़ी में एक शोध ग्रन्थ और कुछ लेख प्रकाशित हैं. उनकी रचनाओं के अनुवाद भारतीय और यूरोपीय भाषाओं में भी हुए हैं.
उनके नवीनतम उपन्यास 'रेत-समाधि' का अनुवाद फ्रेंच भाषा में भी हुआ है. इस उपन्यास की चर्चा कर रहें हैं कवि और कला-समीक्षक प्रयाग शुक्ल.
रेत समाधि
शब्द भी जहाँ कोई चरित्र हैं, और भाषा की सांसों की भी बसाहट है
प्रयाग शुक्ल
क्याकिसी कथा पर. उपन्यास पर. बिना उसके कुल कथानक या कथा क्रम के बात की जा सकती है?
उत्तर ‘हाँ’ या ‘न’ दोनों में हो सकता है. फिलहाल मैं अपने लिए ‘हाँ’ में कर लेता हूँ. और एक पन्ना पलटता हूँ गीतांजलि श्री के उपन्यास ‘रेत समाधि’ का. संख्या है : 134, और उसमें से ‘चिड़िया’ के नीचे का अंश उद्धृत करता हूँ. पर, पहले बता दूँ कि यह चिड़िया आखीर है क्या? और उनको तो बता ही दूँ जिन्होंने इस उपन्यास के पन्ने अभी नहीं पलटे हैं. यह ‘चिड़िया’ एक मोटिफ़ है, जिसका इस्तेमाल किसी प्रसंग के शुरू होने के लिए किया गया है, और जहाँ वह प्रसंग समाप्त होता है, वहाँ फिर एक ‘चिड़िया’ बैठा दी गयी है. और वहाँ से शुरू हो जाता है, दूसरा प्रसंग. एक ख़त्म होता है, दूसरा शुरू. अब उस अंश पर आता हूँ जिसकी बात कर चुका हूँ :
“सब शान्त है. कुछ नहीं हो रहा. सब तरफ़ का शांत और कुछ नहीं का होना मां को भाता है.
अम्मा, आह करती है.
अरे धीरे, बेटी कहती है.
मां अपने बाजू देख रही है. क्या देख रही हैं अम्मा? धूप सेंक रही हैं अम्मा. बाजू पे मस्सा है. देखो, कहती हैं अम्मा. पहले नहीं था. अच्छा नहीं लगता .दर्द तो नहीं न ? नहीं, पर भद्दा है, चुभता है, मां नखरीली.
भूल जाइये, बेटी बहलाती है.
मां भूल गयी है. वो पीठ पीछे की रार.
डीवी पलुस्कर राग श्री गा रहे हैं हरी के चरण कमाल. उनके स्वर मां बेटी की आपस की बातों में मंद मंद घूम रहे हैं. सूरज अलविदाई अंदाज में झुक गया है. पन्ना पलटा. मेज पर पॉपी रंग की प्लेट थमी हुई है. कुर्सी खींची. मसाले का डब्बा बंद किया. फ्रिज से बोतल निकली. मिक्सी चर्र चली. घड़ी की सुई टिकटिक. सूरज की लाली कल लौटेगी. किताबें आले पर कतारबद्ध. साये जगह जगह आराम से. फुलकारी की शॉल चुप फ़हर. सुई गिरती है. रात का खामोश स्वर. चुप के माने बेस्वर होना नहीं है. उसके मायने चुप स्वर के घेरे में चुप का बसेरा है. उसी का बयार बन के बहना. पीठ पीछे खामोशी घिरती है. अपनी साँस का स्वर सुनाई पड़ता है.”
इसके बाद दूसरी चिड़िया आकर बैठ जाती है. यानी यह उद्धरण समाप्त होता है. इस प्रसंग में भी मां-बेटी एक पात्र हैं. वे उपन्यास में बिंधे हैं. उसके कथानक में भी. पर, हम जैसे किसी पाठक के लिए मानों थोड़ी देर के लिए बाहर आ गये हैं : कोई कविता, चित्र, या किसी उम्दा फ़िल्मकार की किसी फ़िल्म का दृश्य बनकर, किसी ‘साउंडट्रैक’ के साथ. जिसमें कुछ ही ध्वनियाँ हैं, और कई चुप्पियाँ! किसी कथा-प्रेमी, अत्यंत कथा-प्रेमी, कथा का अंत जानने वाले पाठक को लग सकता है, कि भाई आगे बढ़ो. वह उपन्यासकार से कह सकता है, कुछ ऐसा ही. प्रार्थना तक कर सकता है कि बढ़ाइये न मां-बेटी की इस कहानी को. पर, मुझे तो आनंद आ रहा है. कथा कुछ देर रुकी रह सकती है. हाँ, रुकी रहे तो अच्छा. यह दृश्य मुझसे कुछ कह रहा है. और यह कथा से भी अलग कहाँ है !
“अपनी साँस का स्वर सुनाई पड़ता है.”
हाँ, उसकी कीमत किसी ऐसे दृश्य से ही तो सामने आती है, जब हम सोचते हैं कि “सूरज की लाली कल लौटेगी.” यह नहीं कहते-सोचते कि “सूरज डूब रहा है.”
ऐसा कहने वाली लेखक नहीं हैं, गीतांजलि श्री.
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(फ्रेंच में रेत-समाधि) |
(दो)
चलिये अब अगले पन्ने पर चलते हैं, जिसके ऊपर फिर एक ‘चिड़िया’ है. अगला पन्ना यानी 135संख्या का. क्यों कह रहा हूँ चलिये उस पन्ने पर ? क्योंकि वहाँ से भी कुछ पंक्तियाँ उतार कर, मैं फिर कुछ कहना चाहता हूँ.
“उसे तरह तरह से बजाने में लगे, यों मां अपनी साँस के संग करने लगी है. लम्मी लम्बी श्वास निःश्वास. गहराती. और ध्वनियाँ उनमें जोड़ती.
अआ आ अ हा अहा अ आ आ हो. जम्हाई में मुंह फाड़ते हुए. ऊऊ ऊऊ ई ई ई इमा उई उम्मा. कमर झुलाते हुए.
हिस्सअंग एहहहहअ. छड़ी उठा के दीवार पर धूप और हवा छलकाते हुए.
व्हीईईई ईईईई ईई ईई. कान में उंगली डाले कस कस खुजाते हुए.
अपने बदन के अंदर बाहर को कुरेद रही है और उसे बोलों में व्यक्त कर रही हैं.
हर करवट पर आह, बाँह उठाये तो ओह, कदम बढ़ाये तो अईया, घंटी बजे तो ओ ओ, कोई आये तो हुश, रोटी खाये तो कुट, अनाप शनाप शब्द सुनाई पड़ते. साँसों की आरोही अवरोही तानों के साथ.
बदन साँस आवाज़ के नये नये अंदाज.”
उद्धरण समाप्त .
तो फिर साँस प्रसंग.
हाँ, यह साँसों के मोल का भी उपन्यास है. बार बार आते हैं साँस प्रसंग. यह साँस लेता उपन्यास है. और साँस को जो जोर जबरदस्ती से बंद करना चाहते हैं, यह उन्हीं से कई सवाल करता है.
हम अन्य साँस प्रसंगों तक जायें, (जो उपन्यास में सचमुच बहुतेरे हैं,) उससे पहले एक स्पानी लेखक की एक बात का साझा आपसे करता हूँ : लेखक का नाम भूल गया हूँ, इसलिए वह न पूछियेगा. तो उनसे यह पूछा था एक इंटरव्यूकार ने कि “आप पर किस स्पानी, या किस लेखक/लेखकों का प्रभाव है. उन्होंने उत्तर दिया था “जब से स्पानी भाषा बनी है, तब से उसमें जिसने भी जो लिखा, बोला कहा किया उस सबका प्रभाव मेरे ऊपर है.”
हाँ, यही तो कहना चाहा था उन्होंने कि मैं तो ‘भाषा’ का ही प्रयोग करता हूँ, अपनी भाषा का, तो सहज-स्वाभाविक रूप से उसी का प्रभाव मेरे ऊपर सबसे अधिक है. आखीरकार रोज-रोज हजारों-लाखों द्वारा उच्चारे जाने वाले बोल भी शब्द ही होते हैं किसी भाषा समाज के ! हिंदी भाषी समाज के ‘अई-उई’ भी शब्द ही तो हैं.
दरअसल यह उपन्यास भाषा की जिस भित्ति पर खड़ा हुआ है, उसकी हर दीवार, हर खंभे पर ‘भाषा के करतब’ भी लिखे हुए हैं. उसकी साँसें लिखी हुई हैं. हाँ, भाषा की भी साँसें—सिर्फ़ स्त्री-पुरुषों की नहीं. मुझे यह इसलिए भी बेहद पसंद है. यह भाषा को सोचता हुआ, उसे बरतता हुआ, उससे ‘खेलता’ हुआ भी उपन्यास है. भाषा-आनंद का भी एक उपन्यास. यहाँ भाषा ही ‘विधि’ बन गयी है, या कहें विधि के रूप में इस्तेमाल की गयी है. हिंदी भाषा, जिसमें दूसरी भाषाओं के शब्द भी हैं, स्वाभाविक रूप से, जैसे कि प्रायः सभी भाषाओं में होते हैं.
“मेरा अंतर्मन, लेखक-मन, चेतन-अवचेतन, मेरी संवेदना, सूझबूझ, कल्पना-शक्ति, मेरी प्रज्ञा, यह सब मेरी रचना शक्ति को तराशते रहे हैं और अभी भी तराश रहे हैं. मेरा अंतर्मन अनजाने मुझे गाइड करता है. अराजक होने से रोकता है, साहस करने को उकसाता है, जोखिम लेने को भी, मगर धराशायी होने के प्रति चेताता भी है. ज़ाहिर है पांसा ग़लत भी पड़ सकता है. पर वह सृजनधर्म में निहित है. और चैलेंज वही है कि संतुलन मिले पर ऊबा हुआ, रगड़ खाया, सपाट घिसा पिटा अन्दाज़ और ढब न बने.” (गीतांजलि श्री) |
‘उसने कहा था’ कहानी की, ‘परतीःपरिकथा’ उपन्यास की ‘, राग दरबारी’ की और सोबती जी की कृतियों की याद आती है. वैद साहब के उपन्यासों की भी—--इसे पढ़ते हुए. पर, अंततः तो गीतांजलि श्री का ही यह उपन्यास है. इसे वही लिख सकती थीं.
यह याद भी इसलिए आयी कि कथा कहने की विधि के रूप में, शब्द-ध्वनियों के इस्तेमाल की मात्रा, उनकी बढ़त-घटत का, प्रयोग यहाँ भी है, पर, है वह एक अलग अंदाज में.
गीतांजलश्री शब्दों को बच्चा बनाती हैं. चंचल. किशोर. युवा. अल्हड्. गंभीर,. मौनी. मुखर—आदि. बुजुर्ग भी. यह वह करती हैं भाव और स्थिति के अनुसार, कुछ व्यंजित करने के लिए—कोई मर्म उभारने के लिए. और ‘व्यंजना’ को चमत्कारिक बना देती हैं. यथार्थ. अतियथार्थ. मर्म सभी दिशाओं से, सभी तारों के साथ, आप तक पहुँचता है. जीवन जीते हुए जो ध्वनियाँ बदन उच्चारित करता है हारी-बीमारी में, रोग-शोक में, सुख-दुःख में यह उनका भी उपन्यास है. जीवन-मृत्यु का एक झूला. एक हिंडोला है यह. दोनों के बीच का यह ‘व्यंजना-सितार’ है. मन के कई कोनों में पहुँचकर, पाठक के भीतर के कई अनछुए तारों को झंकृत कर देता है.
अभिधा और लक्षणा भी हैं, इस व्यंजना-घेरे में. एक बानगी देखिये :
“बात ऐसी ही. कि कहानी उड़े रुके, चले, मुड़े, होए जब होए. तभी कह गया वो इंतजार कलंदर कि कहानी तो आवारा.
और अवाक हो लो. क्योंकि कहानी चाहे तो एक जगह खड़ी हो जाये और खड़ी रहे. पेड़ होके जो एक और जीव. चिरंजीव. भगवानों से लेकर अब तक का साक्षी. कहानी के मोड़ तोड़ को डंठलों में उगाता, पत्तों में सुलाता, हवाओं को ग़मकीला बनाता.
चित्र-विचित्र जीव. मृतक में भी, शिला में भी. जन्म जन्मांतरों की समाधि में भी. पथरा के द्रव और भाप सिहराये, मौत से बुतपरस्त बनाये. कहानी दुरुस्त उठाये.
होगी हँसी की बढ़त. रुकेगी जहाँ हो रुकना. अधूरे के या पूरे के समापन बिंदु पे. खोये हुए या खोयी हँसी अनहँसी रखते. स्वायत्त.
माली की इजाजत नहीं यहाँ. जो एक नाप एक काट की, झाड़-सरहद बना दे, सैनिक टुकड़ी-सी खड़ी, झूठे गरूर में कि इस ब़ाग को हमने घेरे बंद कर डाला है. ये कथा-बगिया है, यहाँ दूसरी ताब और आफ़ताब वर्षा प्रेमी खूनी परिंद चरिंद पिजन कबूतर लुक देखो आस्मान इस्काई.”
(पृष्ठ 44-45, इटैलिक्स में)"
एक न हँसने वाले पात्र के प्रसंग से, पेड़ को जीव बनाकर गायी गयी उसकी महिमा भला किसे नहीं भाएगी. पाठक कर लेगा ‘इंतजार’ कलंदर नाम के शब्द के साथ ‘इंतजार’, यह मानकर कि कहानी तो ‘आवारा’! तो पूरी कथा के तमाम प्रसंग, तमाम पात्र, और वे शब्द भी जो ‘पात्र’ बन गये हैं या बना दिये गये हैं, चल पड़ते हैं ‘आवारा’—आप तक कोई मर्म, कोई तथ्य, कोई आशय पहुँचाने का: आपके समय का ही. किसी द्वीप-महाद्वीप का. किसी के विभाजन का भी. किसी बाज़ार मॉल का. किसी सामाजिक-राजनीतिक माहौल का. पारिवारिक अनबन-झगड़े-सुलह का. कुछ टूटने-फूटने का. कुछ कूटने का. मनाने-रूठने का महाभारत ! यह उपन्यास है कि आपके समय की, पहले की भी, कुछ इतिहास-पुराण की भी बातों का जखीरा, और आपके समय की हजारहा बातों की धक्का-मुक्की कि मैं भी कहूँगी अपनी बात, मुझे भी कहनी है, मुझे भी कहनी है. तो शांति है. घमासान है. दंगे हैं. दबंगई है. विभाजन के दिनों की. आज की भी. उनकी छायाएँ हैं....
सावधान! सावधान! यह ‘आज’ का और अभी का भी उपन्यास है. और मेरा मानना है कि कई रूपों में यह कल भी ‘आज’ का लगेगा.
कथा. वह कथा जानने वाले उत्साहियों को पहले ही बता दी गयी है, बिल्कुल शुरू में; यह लिखकर कि “एक कहानी अपने आप को कहेगी. मुकम्मल कहानी होगी और अधूरी भी, जैसा कहानियों का चलन है. दिलचस्प कहानी है. उसमें सरहद है और औरतें, जो आती हैं, जाती हैं, आर-पार. औरत और सरहद का साथ हो तो खुदबखुद कहानी बन जाती है. बल्कि औरत भर भी. कहानी है. सुगबुगी से भरी!”
यह उपन्यास है या क्या है? कुछ लोग पूछेंगे. अरे, भाई किसने कहा है कि उपन्यास को, आपके भीतर बैठी उपन्यास की शक्ल जैसा ही होना चाहिए हर बार! उसकी शक्ल बदल भी तो सकती है. बदलनी चाहिए भी. नहीं तो ताजगी नाम की च़ीज गायब हो जाएगी. और भाषा तमाम बातें, तमाम मानवीय मर्म भी नहीं व्यक्त कर पाएगी! तो यह गीतांजलिश्री का ताजा-उपन्यास है, और इसमें ग़ज़ब की ताजगी है. इसमें मेरे लिए बहुत-सी कविताएँ भी हैं. गद्य में सही. नाटक और फ़िल्म दृश्य हैं. चित्र हैं. संस्मरण हैं. यात्राएँ हैं. रोज का उठना-बैठना-चलना फिरना है. चित्रकार रामकुमार भी हैं, रफ़ी-किशोर भी हैं, किसी संदर्भ में. और ‘रीबाक’ जूतों वाला प्रसंग तो आज के सत्ता खेल की खाल उधेड़ देता है. सबको टटका बना दिया गया है. मैं तो कोई भी पन्ना उठाता हूँ, और पढ़ने लगता हूँ : उसमें कुछ देखी-जानी कहानियाँ- बातें भी जुड़ने लगती हैं, मैं भी उसमें कुछ अपना और लिखने लगता हूँ. मन ही मन!
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प्रयाग शुक्ल
Prayagshukla2018@gmail.com