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आज अशोक वाजपेयी जन्म के अस्सी वर्ष पूरे कर रहें हैं. लेखन, प्रकाशन, संपादन, संस्था-निर्माण और बहुविध आयोजनों की परिकल्पना और संचालन में वह पिछले छह दशकों से सक्रिय हैं. साहित्य, कला और संस्कृति के क्षेत्र में उनका योगदान अप्रतिम, भव्य और महत्वपूर्ण है. साहस और सुरुचि के साथ लेखक की अपनी भूमिका का निभाव वह आज भी बखूबी कर रहें हैं.
शतायु हों और सक्रिय-सार्थक बने रहें, यही कामना है. इस अवसर पर अरुण देव ने उनसे यह ख़ास बातचीत की है.
प्रस्तुत है.
जन्म दिन पर ख़ास
अस्सी के अ शोक
अशोक वाजपेयी से अरुण देव की बातचीत
१.
‘ये न थी हमारी क़िस्मत कि विसाल-ए-यार होता
अगर और जीते रहते यही इंतिज़ार होता’(ग़ालिब)
आपका कवि कर्म सुदीर्घ है. लगभग छह दशको में पसरा हुआ. तीस के आस-पास कविता संग्रह. कवि को अभी भी कविता का इंतज़ार रहता है क्या? क्या है ऐसा कि कभी आस टूटती ही नहीं इस दर से ? कभी ऐसा नहीं लगा कि हो गया यार बहुत अब. या ऐसा कि अब क्या कहा जाए, और कैसे कहा जाए?
कविता पर उम्र का क्या कुछ असर होता है कि ‘कौन जीता है तिरी ज़ुल्फ़ के सर होते तक’.
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मूल संग्रह तो कुल सत्रह हैं और किसी को भी लग सकता है कि काफ़ी हो गये हैं. बाक़ी संचयन हैं, कुछ मेरे किये, कुछ दूसरों के किये जिनमें नन्द किशोर नवल, राजेन्द्र मिश्र, मदन सोनी, अरविन्द त्रिपाठी, यतीन्द्र मिश्र आदि शामिल हैं. इतनी ढेर सारी कविताएँ लिखना लगातार नहीं रहा है: बीच-बीच में बहुत बरस कुछ नहीं लिखी गयीं, पहले और दूसरे संग्रह के बीच 18वर्ष का अन्तराल रहा. मुझे ससंकोच यह कहना पड़ेगा कि मेरे लिए कविता का समापन कभी नहीं होगा: कविता का अन्त आया जो जीवन का भी अन्त होगा. क्या-कैसे कहा जाये इस गुत्थी को सुलझाना हमेशा कठिन रहा है. यह भी कि कई बार जो पहले कहा जा चुका है उसे किसी और से कहने की विवशता लगती है. शायद हर कवि, कुल मिलाकर, कम ही कह पाता है: इस कम का वितान भी इतना फैल जाता है कि अधिक होने का भ्रम पैदा होता है. आयु और काल दोनों की छाया गहराती जाती है पर उससे काव्य-जिजीविषा के शिथिल पड़ने का मुझे कोई अहसास नहीं है. यह कहने का मन अभी नहीं है कि ‘आओ खुसरो, लौट चलें अब, इस नगरी में रात हुई.’ मेरी रात नगरी को तो कविता से जगमगाता ही छोड़ेगी. --ऐसी उम्मीद करता हूँ.
२.
‘एक युवा जंगल मुझे,
अपनी हरी उँगलियों से बुलाता है.'
कवि की स्थानीयता उसकी कविता में रक्त की तरह प्रवाहित होती है. युवा अशोक मध्य-प्रदेश से, उसकी भाषा, बोली परिवेश से अपनी कविता का युवा रंग लेते हैं, उन्हें विन्यस्त करते हैं. इस संभावनाशील कवि को किस तरह समकालीन कवियों और आलोचकों ने लिया. क्या ख़ास चीजें रेखांकित की गयीं.
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मेरे पहले कविता संग्रह का अधिकांश अपने घरू शहर सागर में रहते लिखा गया था: उसमें जितना प्रगट था मेरा एक युवा कवि होना (17से 25बरस होने के बीच) उतना ही प्रगट था एक छोटे शहर का होना. हमारी आलोचना जिन सामान्यीकृत औज़ारों से कविता नापती रही है उनके रहते इस स्थानीयता का दुर्लक्ष्य तो नहीं हुआ पर उसका विश्लेषण बहुत थोड़ा हुआ. अलबत्ता सामान्य पाठकों में ऐसे कई थे जो खुद छोटे शहरों या कस्बों के थे और उन्हें यह स्थानीयता शायद कुछ अपनी लगी थी. उस स्थानीयता से उसी संग्रह में थोड़ा मुक्त होने की जो बेचैनी थी वह तो अलक्षित ही चली गयी. संग्रह छपने के समय मैं दिल्ली में 5साल बिता चुका था और वहाँ उस दौरान लिखी कुछ कविताएँ भी उसमें थीं. जिस कविता पंक्ति पर संग्रह का नाम, नामवर सिंह के सुझाव पर, रखा गया था ‘शहर अब भी सम्भावना है’ वह दिल्ली में ही लिखी गयी थी. संग्रह में प्रगट कई सरोकार लगभग जीवन भर मेरे सरोकार रहे आये हैं. यह बात भी उस समय नोट की गयी थी कि उल्लास-उछाह के बावजूद अवसाद की छाया भी थी: वह अवसाद बना रहा है और इधर अधिक गहरा होकर विफलता और पराजय के अहसास में बदल गया है. वैसे मैं तब तो ध्यान देने योग्य युवा नहीं था और अब तक, कुल मिलाकर,विचारणीय नहीं रहा हूँ.
३.
‘हम अपने पूर्वजों की अस्थियों में रहते हैं !’
हिंदी कविता की परम्परा क्षुब्ध कर देने की हद तक अपनी संस्कृत परम्परा से टूट चुकी है. इसका बड़ा कारण उसकी भाषा है जिसमें तत्सम के लिए जगह कम होती चली गयी है, वह भाषा में ही नहीं संस्कृति में भी अधिकतम तद्भव हो चली है. अशोक वाजपेयी की कविता में सु-संस्कृत स्मृतिओं की बहुलता है वह भाषिकता में भी सांस्कृतिक है. मुक्तिबोध और अज्ञेय के बीच रहते हुए उनके भाषिक प्रभाव से लड़ना तब मुश्किल रहा होगा?
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संस्कृत से हिन्दी कविता की बढ़ती दूरी की ओर ध्यान खींचनेवाला शायद मैं पहला आलोचक था. उसकी ओर ध्यान ख़ास गया नहीं क्योंकि कविता की भाषा पर विचार एक कलावादी हरकत मानी जाती थी और अब भी मानी जाती है: हिन्दी कविता अख़बारीपन से काम लेना काफ़ी मानने लगी थी. तत्सम की विरलता, एक तरह से, स्मृति की भी विरलता होती है. निजी स्मृतियाँ तो कविता में सक्रिय रहीं पर सांस्कृतिक स्मृतियाँ ग़ायब होने लगीं: रघुवीर सहाय जैसे महत्वपूर्ण कवि तक उसका उदाहरण हैं.
मैंने नवमी कक्षा में, बिना किसी के कहे या चाहे, अपने आप हिन्दी के बजाय संस्कृत पढ़ने का विकल्प चुना था और फिर बी.ए. में अंग्रेज़ी और इतिहास के साथ उसे ही चुना था. मुझे लगा था कि संस्कृत में हमारी विशाल और विपुल परम्परा का बहुत मूल्यवान् हिस्सा है और उससे हमें, किसी भी कारण, वंचित नहीं होना चाहिये. आरंभिक प्रयत्न पर अज्ञेय का प्रभाव था, जो आधुनिक हिन्दी कविता के अन्तिम संस्कृत कवि हैं: उनके यहाँ तत्सम और तद्भव को एक साथ साधने का अद्भुत काव्यकौशल था- मुक्तिबोध के यहाँ बहुत तत्सम है पर वैसी तद्भव की समान विपुलता नहीं है जैसी कि अज्ञेय के यहाँ. उस समय जब मेरी काव्यभाषा आकार ले रही थी, अधिक आकर्षण अज्ञेय का था. यह न भूलें कि मुक्तिबोध ने कविता को सांस्कृतिक प्रक्रिया बताया था. एक बात और: जैसे-जैसे हिन्दी का सांस्कृतिक क्षरण होता गया, वैसे-वैसे उसमें से संस्कृत की स्मृति और सुगन्ध भी कम होती गयी. दुर्भाग्य से, आज अधिकांश अच्छी-बुरी हिन्दी कविता स्मृतिहीन कविता है. विडम्बना यह है कि हिन्दी के तद्भव लोकरूपों में अब भी रामायण, महाभारत आदि आख्यानों के रूप में तत्सम बचा हुआ है- रामलीला, पण्डवानी, पण्डून के कड़े, भरथरी, माच आदि को याद किया जा सकता है.
यह जोड़ना ज़रूरी है कि मेरी काव्यस्मृति में कालिदास, भवभूति, प्राकृत के अलावा कबीर, सूरदास, ग़ालिब आदि भी शामिल हैं और मैंने कविता की काया में उनकी उक्तियों, बिम्बों आदि को जगह दी है: इसका अधिक क्या ज़रा भी नोटिस नहीं लिया गया है श्रीराम वर्मा,मदन सोनी को छोड़कर. राजेन्द्र मिश्र ने मेरी कविताओं के अपने संचयन का नाम मेरी एक कविता के शीर्षक से कबीर की उक्ति ‘ताते अनचिन्हार में चीन्हा’ दिया है. यों ‘तत्पुरुष’ और ‘बहुरि अकेला’ दो कविता संग्रहों के शीर्षक पहले से हैं. मैंने स्वयं अपनी कविताओं के संचयन का नाम दिया था ‘विवक्षा’. एक बार मैंने यह गर्वोक्ति की थी कि अगर मुझे कोई नवशास्त्रीय कवि क़रार दे तो मुझे आपत्ति न होगी. मेरे द्वारा स्थापित और संपादित पत्रिकाओं के नाम ‘समवेत’, ‘पूर्वग्रह’, ‘बहुवचन’, ‘कविता एशिया’, ‘समास’, ‘अरूप’, ‘स्वरमुद्रा’ आदि सभी तत्सम हैं.रज़ा की कई एकल प्रदर्शनियों के नाम भी मैंने दिये थे: ‘आवर्तन’, ‘अविराम’, ‘निरन्तर’, ‘विस्तार’, ‘पुनरागमन’, ‘आरम्भ’, ‘उत्तर राग’ आदि.
रूसी कवि जोसेफ़ ब्राडस्की का एक कथन याद आता है: ‘हमें अपने समकालीनों को प्रसन्न करने के लिए नहीं, अपने पूर्ववर्तियों को प्रसन्न करने के लिए लिखना चाहिये.’ ससंकोच कहता हूँ कि कुछ ऐसी कोशिश शायद मैंने की, अलबत्ता शायद प्रसन्न न पूर्ववर्ती हुए, न समवर्ती!
४.
‘तू अपना यौवन, अपनी हंसी
मेरे पास छोड़ गई
और तुझे ले गई
कोयले और पानी से चलती
एक रेलगाड़ी.’
कविता ने आपके प्रेम को भी भरा होगा, इन दोनों को स-मुख रखकर कुछ कविताएँ, कुछ प्रसंग कृपया रेखांकित करें.
(अनुत्तरित)
५.
‘उसके अनुरक्त नेत्र
उसके उदग्र- उत्सुग कुचाग्र
उसकी देह की चकित धूप
उसके आर्द्र अधर
कहेंगे- हाँ
वह कैसे कहेगी हाँ ?’
देह का वस्तुकरण अकादमिक अपराध जैसा माना गया है. कम से कम यह आरोप तो है ही. जिस संस्कृति में ‘काम’ पुरुषार्थ हो,कामसूत्र से पहचाना जाता हो,खजुराहो आदि जगहों पर अकुंठ यौन क्रियाएं उकेरी गईं हों,कालिदास शंकर और पार्वती के संभोग का वर्णन करते हों, जहाँ काम-आख्या एक तीर्थ हो,वहां समकालीन कवि के लिए केलि और काम लिखना दुविधाग्रस्त हो गया है. संशय ने क्या हाथ रोके और कहाँ तक ? कि बिलकुल नहीं.
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आपको याद होगा कि दशकों मेरी निन्दा, मेरे समाज-विमुख या विरोधी होने का आधार मेरी प्रेम-कविताएँ कही जाती थीं. जो हो, मैं शुरू से ही प्रेम का नीचट कवि रहा हूँ. उसमें भी आप मेरी तत्समता स्पष्ट और प्रायः हर बार देख सकते हैं. भारत की श्रृंगार परम्परा संसार की ऐसी महान् परम्पराओं में गिनी जाती है जबकि विक्टोरियन मूल्यों में लिपटी हमारी शिक्षा व्यवस्था और उससे उपजी मध्यवर्गीय मानसिकता ने श्रृंगार और रति को हाशिये पर डाल दिया. उसका यथासंभव यथायोग्य पुनर्वास करना मेरा एक सरोकार ही बन गया. उसमें भदेसपन भी आ सकता है इसलिए तत्समता वहाँ सहायक हुई: एक स्तर पर यह आप ही के शब्दों में कहूँ तो सुसंस्कृत स्मृतियों की बहुलता को थोड़ा-बहुत उनकी ऐन्द्रियता में सहेजने की चेष्टा है.
प्रेम के अनेक पक्ष होते हैं जिनमें काम भी है. प्राचीनों में लेकर भक्त और रीति कवियों ने उसे जगह दी: छायावादियों में भी, विशेषतः प्रसाद और निराला में, ऐन्द्रियता का मोहक तत्व मौजूद है. इसलिए उस परम्परा में लिखने की चेष्टा स्वाभाविक होना चाहिये थी. पर अज्ञेय-शमशेर आदि की ऐन्द्रियता के बावजूद, खेद है कि वह अपवाद बनगयी. हाथ रूका तो नहीं पर सावधान रहा: विचित्र था कि जो लोक या बोलियों में सीधे कहा जा सकता था वह हिन्दी में कहना लगभग असम्भव हो गया. तद्भवताऔर समकालीनता से सर्वथा मुक्त एक तरह का अनन्त रचकर ही बाधा पार हो पायी, जितनी हुई. मेरी कविता की एक पोलिश विशेषज्ञ ने कहा था कि ‘तुम्हारी प्रेम-कविताएँ हिन्दी में लिखी संस्कृत कविताएँ हैं’!
प्रेम-कविताएँ अकसर प्रसंगबद्ध हैं: किसी सम्बन्ध के कारण ही उपजी हैं. पर प्रसंग प्रायः उनमें से ओझल रहे हैं: प्रेम को लेकर जो गोपनीयता हमारे समाज में है उसने और कई बार स्वयं किसी सम्बन्ध की सार्वजनिक रक्षा ने विवश किया. जो अब तक प्रसंगहीन रहा आया, उसके प्रसंग को अब स्पष्ट करना शायद नैतिक न होगा, अनावश्यक तो है ही. यहाँ यह जोड़ना अप्रासंगिक नहीं है कि सारी कविता किसी न किसी अर्थ में और स्तर पर, संसार से अगाध प्रेम से ही उपजती है: वह उसका गुणगान होती है. भाषा जब संसार से निस्संकोच केलि करती है तभी कविता बनती है.
एक और सन्दर्भ याद किया जा सकता है मैंने प्रेमकविताएँ जब लिखीं तब कविता में निजता को लगभग देशनिकाला देकर सामाजिकता, सामाजिक यथार्थ का भयानक आग्रह हो रहा था. इन कविताओं को चालू सोचने और मुहावरे के प्रतिरोध में नहीं देखा-समझा गया जो कि वे थीं. प्रतिरोध की सूक्ष्मताओं और बहुलता को समझने की जो आलोचनात्मक विधियाँ हमारे यहाँ हैं वे निजता में कई बार अन्तनिर्हित प्रतिरोध को समझने का धीरज-जतन नहीं रखतीं-करतीं.
६.
‘तुम चले जाओगे
पर थोड़ा सा यहाँ भी रह जाओगे’
नश्वरता को स्वीकार करते हुए भी उपस्थित का औदात्त. ऐसा लगता है कि आपकी कविता के कुछ रेशे कबीर के करघे से उठाये गयें हैं. आपके प्रिय चित्रकार रज़ा के वृत्त की शून्यता में तिरोहित. कबीर आपके कितने निकट हैं. निर्गुण शून्यता का एहसास होता है कभी-कभी. ख़ासकर रचने के समय.
आपकी एक कविता भी है ‘कोई कबीर नहीं’जिसमें आप ‘अपनी मैली-कुचैली चादर के बारे में’ सोचते तो हैं. कुमार गन्धर्व के बहाने भी कबीर आयें हैं.
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एक तरह का अस्तिमूलक अवसाद जो शुरू से ही है उसके मूल में नश्वरता-बोध ही रहा है. अनुपस्थिति और मृत्यु को लेकर मेरी कविताओं का एक संचयन ही है, ‘जो नहीं है’. इसे प्रायः लक्ष्य नहीं किया गया है कि मैंने जितनी कविताएँ प्रेम-श्रृंगार-रति पर लिखीं लगभग उतनी ही मृत्यु पर भी. प्रेम और मृत्यु मानवीयता के दो परम अनुभव हैं: एक में चरम उपस्थिति, दूसरे में परम अनुपस्थिति. किसी हद तक मैंने इन दोनों को संबोधित करने की चेष्टा की. कई बार प्रेम से अनुपस्थिति और मृत्यु से उपस्थिति को अलगाना सम्भव नहीं होता. जैसे कई कविताएँ प्रेम की, प्रसंगवश लिखी गयी हैं वैसे ही कई शोक-कविताएँ भी: माँ और पिता पर, कुमार गन्धर्व पर 21कविताओं की एक श्रृंखला के रूप में शोकगीत ‘बहुरि अकेला’, कमलेश-फ़ज़ल ताबिश जैसे कविमित्रों पर, अपने एक ड्राइवर सरनाम सिंह पर. कई अन्तर्विरोधी भावों जैसे ‘अन्त के बाद कुछ नहीं’ और ‘अन्त के बाद भी कुछ बचेगा’ आदि भावों को सहेजने की कोशिश की. मेरी कठिनाई यह है कि विषय जो भी हो मैं रागसिवत कविता ही लिख सकता हूँ: मेरी, कम से कम अब तक याने अस्सी बरस का हो जाने के बाद भी, जिजीविषा और अनुराग से मुक्ति नहीं हुई है. चाही भी नहीं है.
उदात्त, मुझे लगता है, मानवीयता का एक मूल्यवान् तत्व है जिसका अगर लोप नहीं हुआ तो वह शिथिल ज़रूर पड़ गया है. मुझे कबीर, तुलसी, सूर से लेकर निराला, अज्ञेय, शमशेर,मुक्तिबोध आदि में उदात्त सक्रिय लगता रहा है. इस उत्तराधिकार को उसकी उज्ज्वलता में सहजेने की कुछ कोशिश की. फिर कुमार गन्धर्व और मल्लिकार्जुन मंसूर के गायन में उसी उदात्त का स्वरित-मुखरित होना महसूस किया.
कबीर की ओर साहित्य से कम, संगीत से अधिक आया, कुमार जी के कबीर-गायन से. यह भी सीखा कि वे निर्गुण को भी अन्ततः भाषा और कविता की सगुणता में ही चरितार्थ करते हैं: जीवन में मृत्यु, मृत्यु में जीवन, ‘खलक चबेना काल का, कुछ मुँह में कुछ गोद’, साधारण, रोज़मर्रा में ब्रह्माण्ड की अनुगूँज, चादर-घट-किवाड़, कागज़ की पुड़िया आदि. कबीर ने सिखाया कविता के लिए साधारण जीवन, अपनी तत्समता और तद्भवता में काफ़ी है. मैंने कबीर की कई पंक्तियों को शीर्षक बनाकर कुछ कविताएँ फ्रान्स के नान्त शहर में लिखी थीं: ‘जोत शब्द उजियारा हो’, ‘खुले नैन में हँस हँस देखूँ’, ‘जागे अरू रोवै’, ‘खुल गये गगन-किवाड़’, ‘अधर मड़ैया छावे’, ‘ताते अनचिन्हार मैं चीन्हा’.
रज़ा को अपना बिन्दु, तम शून्य चित्रित करते कई बार देर तक देखने का सुयोग हुआ: हर बार लगता था कि वे, कबीर की ही तरह से, रंगों से नीरंग को, उपस्थिति से अनुपस्थिति को,भराव से शून्य को रच रहे हैं. लिखते समय निर्गुण शून्यता तो नहीं सगुण शून्यहीनता अलबता महसूस होती है: एक अपार समुद्र है जिसमें से कुछ लहरें भर आप चुन पायेंगे. कई बार तो लगता है कि कुछ घोंघे-सोपियाँ ही हाथ लगी हैं, लहर तक नहीं- आप बालू के घरोंदे बना रहे हैं. पकड़ में शब्दों के बहुत कम आता है, बहुत सारा तो छूटता रहता है.
७.
‘वे एक जलप्रपात की तरह
गिरते रहते हैं-
आपकी कविता में देवता,गन्धर्व आते हैं, राक्षस भी आते हैं. यहाँ तक कि चंद्रमा कंचुकी उतार लेता है और सूर्य अधोवस्त्र हर लेता है. सभ्यतागत इतनी लम्बी यात्रा के बाद भी इनमें ख़ासकर देवताओं में बहुत बदलाव नहीं है,क्या कहीं कोई ‘अहिल्या’ भी है पार्श्व में.
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हम व्यक्ति, समाज आदि के बोधों से इस क़दर आक्रान्त रहे हैं कि अकसर भूल जाते हैं कि मनुष्य वह एकमात्र प्राणी है जिसमें ब्रह्मण्ड बोध भी होता है: हम ही हैं प्राणिजगत् में जिन्हें इसका बोध है कि हम एक विराट् सचाई का अंग हैं. इस विराट्ता के वितान में सूर्य-चन्द्र, आकाश और ग्रह-नक्षत्र, आकाशगंगाएँ, देवता आदि सब शामिल हैं. हम सिर्फ़ घर-मुहल्ले, परिवार-पड़ोस, शहर-प्रदेश, देश-विदेश, संसार भर में नहीं रहते हम ब्रह्माण्ड में भी रहते हैं. यों तो सारे संसार में, पर विशेषतः भारत में, वेदों से लेकर प्रसाद-निराला-अज्ञेय-मुक्तिबोध-शमशेर में यह ब्रह्माण्ड बोध सक्रिय रहा है.
मेरा बचपन एक धार्मिक मध्यवर्गीय परिवार में बीता जिसमें तरह-तरह के देवता, पर्व, त्योहार आदि प्रचलित थे. ये सभी साधारण जीवन की कविता जैसे थे और शायद 16-17बरस की उमर में मुझे उनके लोप का अहसास होने लगा था. बाद में मुझे लगा कि यह लोप दुखद है तो मैंने कविता में फिर उन्हें पुकारने की चेष्टा की, उन्हें कोसा-गरियाया भी. पर उनके होने का एहतराम भी किया. कई मायनों में मेरी कविता ईश्वर के न होने पर एक लम्बा विलाप भी है. वह पूरी तरह से लुप्त भी नहीं हुआ है लेकिन उसकी उपस्थिति का कोई प्रमाण नहीं बचा है: कोई मेरी कविता के एक हिस्से को इस गोधूलि पर विलाप की तरह पढ़ सकता है.
देवहीन संसार और घर में मेरी कविता, कभी-कभार, उनसे लौटने की, फिर बसने की प्रार्थना और पुकार है. देवता तो उसे अनसुनी करते हैं पर शायद रसिक जन भी.
८.
‘भूलने से शुरुआत होती है नष्ट
होने की –‘
स्मृति,स्मृति-भंग, स्मृतिहीनता वैश्विक साहित्य-बोध के केंद्र में हैं. सत्ताएं कहती हैं इसकी जरूरत नहीं,और यंत्र कहते हैं कि यह ज़िम्मेदारी हम लेते हैं. नई सदी के मनुष्य के पास शब्द ही नहीं स्मृतियाँ भी सीमित हैं. कवि तो स्मृतियों से ही कविता का सृजन करता है. कविता कहाँ रहेगी ?
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हमारा समय, अभूपूर्व ढंग से, विस्मृति का समय है- राजनीति, सत्ताएँ, बाज़ार, आर्थिक, मीडिया आदि सब एक विचित्र दुरभिसंधि कर हमें स्मृति-वंचित करने के अभियान में लगे हैं. हर दिन हमसे तरह-तरह से कहा जा रहा है कि हम भूल जायें या किसी विकृत अवास्तविक रूप में याद करें. इतिहास, संस्कृति, धर्म आदि की दुर्व्याख्या और बलपूर्वक उस पर आग्रह हमारे समय का स्वभाव ही बन गये हैं. स्मृतिलोप या उसमें कटौती के साथ-साथ हमारे पास शब्द भी कम हो रहे हैं: शब्द हमारी मानवीयता की सबसे बड़ी पूँजी और स्मृति-संग्रह रहे हैं. उनका घटना हमारी मानवीयता में कटौती है. कविता ही नहीं सारा साहित्य स्मृति का ही विविधवर्णी रूपायन होता है. इस पर ध्यान देने की ज़रूरत है कि तथाकथित इतिहास और पुरातत्व से कहीं अधिक हमारी स्मृति साहित्य में सुरक्षित रहती है. कविता का एक ज़रूरी काम याद करना और दिलाना है: वह स्मृति को सजीव रखती है. उसकी जो तथाकथित निरन्तरता है वह स्मृति की ही निरन्तरता होती है. कविता जो हुआ, जो हो रहा है और अकसर हमसे छूट जाता है उसको याद करती है. आक्तावियो पाज़ ने कविता को ‘दूसरा इतिहास’ कहा है. जैसे सपने देखने, कल्पना करने का काम कविता किसी और के ज़िम्मे नहीं कर सकती वैसे ही स्मृति भी उसकी ज़िम्मेदारी, उसका स्वभाव है: उसके लिए कोई और याद नहीं कर सकता. कई बार लगता है कि आज की कविता में हम स्मृति से लगभग अकारण विपन्न हुए जा रहे हैं. अगर स्मृति होगी तो कृतज्ञता भी होगी: क्या हमारी बहुत सी कविता से कृतज्ञता के भाव का लोप नहीं हो गया है?
९.
‘विराम का घर
विलय का घर
विलोप का घर'
आपका कलावंत,चित्रकार,शास्त्रीयता, गान आदि से गझिन साथ रहा है. आपकी कविता में कभी कुमार गन्धर्व आते हैं कभी मल्लिकार्जुन मंसूर. स्वामीनाथन,रज़ा, कारन्त आदि आपके लिखे में नजर आते हैं. यह जो कलाओं का घर है उसमें कविता का इनसे जो रिश्ता बनता है वह अनूठा भी है. कभी लगा कि कविता इनसे स्पर्धा में हैं.
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मेरे लिए दूसरी कलाएँ कविता और साहित्य का अनिवार्य और समृद्ध सहायक पड़ोस शुरू से ही रही हैं. कुछ ऐसा संयोग हुआ कि अपने समय के कई कलामूर्धन्यों के नज़दीक आने का अवसर मिलता रहा. उनमें से कइयों की कला के बारे में लिखने का उपक्रम भी किया. उन पर कविताओं का एक पूरा संचयन भी बन गया. साहित्य और कलाओं के बीच बढ़ती गयी दूरी को किसी हद तक पाटने की चेष्टा अपने साहित्य, सम्पादन, संस्था-निर्माण और संचालन आदि में की. दो बातें: कोई भी कला पूरी तरह से स्वायत्त नहीं होती, उस पर दूसरी किसी कला की छाया या उपस्थिति पड़ती ही है. दूसरे, हर कला की अपनी भाषा और अपना सच होता है. संगीत का सच, ललित कला का सच, नृत्य का सच, रंगमंच का सच और कविता का सच सब अद्वितीय होते हैं. जो चित्र कर सकता है वह कविता नहीं, जो कविता कर सकती है वह संगीत नहीं आदि. उनमें सहकार और संवाद, तनाव आदि हो सकते हैं: हमारी परम्परा में तो अन्तनिर्भरता उन्नीसवीं शताब्दी तक थी पर उसे आधुनिकता ने, लगता है, हमेशा के लिए ध्वस्त कर दिया. कभी मैंने एक ऐसे सौन्दर्यशास्त्र की रूपरेखा प्रस्तावित करने का विचार किया था जिसकी अवधारणाएँ सभी कलाओं और साहित्य पर लगभग समान रूप से लागू हो सकें. यह आलोचनात्मक काम करने से रह ही गया.
स्पर्धा तो नहीं कविता की, अपनी कविता की अपर्याप्तता का बोध ख़ासकर चित्रकला और संगीत के सिलसिले में होता है: दोनों में अमूर्तन इतना सहज और ग्राह्य होता है जबकि कविता में, अगर हो, तो अबूझ माना जाता है. अलबत्ता, कविता में मैंने कलाकारों और कलाओं की स्तुति ही की है: कुछ और कविमित्रों की तरह उनका रूपक की तरह इस्तेमाल नहीं किया है. यों शास्त्रीय संगीत और चित्रकला का मेरी कविता पर गहरा प्रभाव पड़ा है जिसे अकसर ठीक से देखा-पहचाना नहीं गया है. संगीत का समय में रहकर समयातीत को छू लेने का जो विस्मय और रहस्य से भरा कर्म होता है वह मेरी कविता के लिए हमेशा ईष्या का विषय रहा है.
१०.
‘देर हो जाएगी पहचाने में
देर हो जाएगी स्वीकारने में
देर हो जाएगी अवसान में’
साहित्य धीरे-धीर पसरने वाली चीज है. पहचान और स्वीकार में समय लगता है. कविता में अ-शोक का अवसान नहीं होगा. ‘अभी न होगा मेरा अन्त/अभी-अभी ही तो आया है/मेरे वन में मृदुल वसन्त’ (निराला)
साहित्य में खेमे गुट और (कु) नीतियाँ भी हैं. कलावादी होना लांछन था. क्या कोई सिर्फ कलावादी हो सकता है?
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ऐसे समय में जब सभी कुछ द्रुतगति में हो गया है, पहचान और स्वीकार विलम्बित में रहें यह उचित ही है. मैंने अपने पहले संग्रह में टीएस ईलियट की उक्ति आरंभ में ही उद्धृत की थी: ‘मेरे आरम्भ में ही मेरा अन्त है.’ एक अधसदी बीत गयी. अब भी लिखते रहने में कुछ बेशरमी ज़रूर है सो है. निर्लज्ज हूँ पर निर्भय भी हूँ. जो भी किया है उसे लेकर कोई पछतावा या संकोच नहीं होता. वही किया जो कर सकता था. गिला-शिकवा भी नहीं. संसार सुन्दर और भव्य है पर क्रूर और असह्य भी. हर भाषा का साहित्य-संसार भी ऐसा ही होता है. शमशेर का पहला कवितासंग्रह जब छपा वे 50के होनेवाले थे और मुक्तिबोध तो अपने जीते जी अपना पहला संग्रह भी प्रकाशित होते नहीं देख पाये. इधर पहचान और मान्यता जल्दी-जल्दी मिलने लगी हैं और अकसर टिकाऊ नहीं होतीं. आप जानते ही हैं कि अनन्त मेरा प्रिय शब्द है: होड़ काल से नहीं, अनन्त से है. फिर कबीर ने कहा था: ‘हम न मरैं मरिहै संसारा, हमका मिला जियावनहारा.’ मुझे तो साहित्य ही जियावनहारा मिला है: वह जितने समय उचित और उपयुक्त समझेगा रखेगा. अन्यथा इतिहास के कूड़ेदान में, असंख्यों के वहाँ होने के बावजूद, जगह फिर भी हम जैसों के लिए बची होगी.
कई बार यह कहते तंग आ चुका हूँ कि हिन्दी में जीवन से असम्पृक्त या समाज-निरपेक्ष कलावाद कभी हुआ ही नहीं. सारे साहित्य को कथ्य में घटा देने और भाषा तथा शिल्प को अवमूल्यित करने के बरक़्स इन पर ध्यान देने की कोशिश को कलावाद कहकर लांछित किया गया. यह भी याद रखें कि हिन्दी में जनवाद और कलावाद दो ध्रुवान्त मान लिये गये हैं. हमने खुले ख़तरनाक बीच का आग्रह किया. हमने धर्मान्ध, साम्प्रदायिक और जातिवादी दुराग्रहों वाले लेखकों-कलाकारों से परहेज किया पर बाक़ी मध्यममार्गी, वाममार्गी, वामविरोधी, तटस्थ सभी तरह के लेखकों-आलोचकों को जगह दी, अपने आयोजनों, सम्पादन, आकलन-विश्लेषण, सम्मान-पुरस्कारों में. मेरी चालीस साल से ज़िद पर अड़ी वृहत्त्रयी अज्ञेय-शमशेर-मुक्तिबोध उसी दृष्टि और व्यवहार का प्रतिफल है. भूल-चूक हुई होगी पर बदनीयती कभी नहीं. इस अकाट्य सचाई की अवहेलना कर अगर कोई आकलन होता रहा तो उसका दोष मुझ पर नहीं. जो मिला उससे असन्तोष नहीं, जो नहीं मिला, शायद पात्रता के बावजूद, उसका मलाल नहीं. तथाकथित कलावादी के यहाँ जीवन के अभाव का दर्शन अन्धे ही कर सकते हैं जिनकी समझ से यह बाहर है कि शुद्ध कला भी जीवन से ही उपजती और जीवन को भी सत्यापित करती है: कला, भाषा, कविता जीवन के बिना सम्भव नहीं हैं और इन तीनों से ही जीवन हमेशा बड़ा है. यह ज़िक्र करना भी शायद असमीचीन नहीं है कि बाबरी मसजिद ध्वंस के बाद से, 2002के गुजरात नरसंहार, 2015में अवार्ड वापसी द्वारा बढ़ती असहष्णिुता के विरोध और इस समय सत्तारूढ़ धर्मान्ध-साम्प्रदायिक शक्तियों का प्रतिकार करने में कलावादी अग्रिम पंक्ति में रहे हैं.
११.
‘हमारे पास लाचारी के सिवाय
अब कौन सी भाषा बची है ?’
कभी आप कहा करते थे कि कविता कवि की सम्पूर्ण नागरिकता है,कवि से किसी अतिरिक्त की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. आज ‘कविता से दुनिया को समझने, सहने, उसमें शिरकत करने, उसे थोड़ा सही,बदलने की कोशिश की कुल मिलाकर, नाकामी सामने है’
यह कविता की नाकामी है कि समाज का निकम्मापन. समाज तो अंतत: मनुष्यों का समुच्चय है.
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जब यह धारणा बनी थी कि कविता पर्याप्त नागरिकता है तब माहौल कुछ ऐसा था कि जैसे कविता और नागरिकता दो अलग चीज़ें हैं और उनमें कोई संबंध नहीं. कविता की स्वायत्तता पर इसरार करने का यह एक तरीका था कि उसे नागरिकता और पर्याप्त नागरिकता माना जाये. अपनी नागरिकता साबित करने के लिए कवि को कविता से अलग कुछ और आन्दोलन में भाग लेना, प्रदर्शन करना आदि ज़रूरी नहीं होना चाहिये. उसके पीछे यह भोला विश्वास भी था कि नागरिकता में कविता के लिए जगह है. बाद में, धीरे-धीरे यह स्पष्ट होता गया कि आधुनिक भारतीय नागरिकता, कम से कम हिन्दी अंचल में, ऐसे विकसित हुई है कि उसमें कविता की आवाज़ सुनने का अवकाश नहीं है. नागरिकता ने कविता को चाँप सा लिया और कविता नागरिकता को प्रभावित करने में विफल सिद्ध हुई. नागरिकता की जो भी कमियाँ रही हों एक कवि इस दुखद अहसास से आँखें नहीं मोड़ सकता कि हम नागरिकता को प्रभावित करने में नाकाम हुए, उसे बदलने की बात तो दूर. तथाकथित जनधर्मी और बहुनिन्दित कलावादी इस विफलता में समान रूप से शामिल हैं. कितनी ही अप्रिय और अवांछनीय हो,हम अपनी लाचारी को स्वीकार करने से भाग नहीं सकते. हमने कविता से बहुत अधिक उम्मीद लगायी जो यथार्थ से बहुत दूर थी: इस अतिशयता के कारण शायद हमने कविता और नागरिकता दोनों के सहज कर्तव्य नहीं निभाये. जो अध्यात्मशून्य धर्मान्ध, साम्प्रदायिक और जातिवादग्रस्त नागरिकता आकार ले रही और राजनैतिक रूप से सशक्त-सक्रिय हो रही थी उसकी शायद हमने अनदेखी की, कविता में नहीं तो नागरिकता में. उसमें कविता के लिए जगह हो ही नहीं सकती थी, न है. कविता का अरण्यरोदन बनकर रहना लगभग अनिवार्य हुआ. दूसरों को दोष देने से क्या हासिल! हमें अपने ग़रेबाँ में झाँककर देर तक देखना चाहिये.
१२.
‘बातचीत करने का समय बीत चुका है’
आपके नये संग्रह ‘कम से कम’ में दो शब्दों ने मेरा ध्यान खींचा. ‘भेड़ियाधसान’ और ‘छुटभैयों’. पूर्व–अशोक में इसकी कल्पना नहीं की जा सकती थी. यह कविता में समय के हस्तक्षेप की ताकत है. ये दोनों शब्द हमारे समय के दो आक्रामक प्रतीक बन कर उभरे हैं.
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इसमें सन्देह नहीं कि हमारा समय बहुत हस्तक्षेपकारी समय है- ऐसा कुछ भी नहीं रह गया है जिसमें इस समय किसी न किसी शक्ति का हस्तक्षेप न हो और इस हस्तक्षेप का एक बड़ा हिस्सा आपको नियंत्रित करने का खुला लक्ष्य रखता है. ऐसे समय में संवाद सम्भव ही नहीं है: ताक़तवर आदेश देते हैं, फ़तवा जारी करते हैं, गाली-गलौज-झगड़ा करते हैं, आपको बोलने का मौक़ा ही नहीं देते, फ़ैसला करते हैं, राय देते हैं, धड़ल्ले से झूठ बोलते-फैलाते हैं, बन्दनयन भक्त पैदा करते हैं खुली आँखोंवाले शिष्य नहीं, जब अवसर आये ज्ञान का अपमान करते हैं और अज्ञान में जमकर रमते-रमाते हैं. असभ्य, अभद्र, हिंसक होने में उन्हें कोई संकोच नहीं.
आरंभिक दशकों में कविता और जीवन दोनों में स्वप्नशील था: जब दुस्स्वप्नों से आक्रान्त हूँ. मैंने नहीं सोचा था स्वतंत्रता और लोकतंत्र के सत्तर वर्ष बाद ऐसा भेडियाधसान होगा, ऐसे छुटभैये बड़ी संख्या में मसीहा माने जाने लगेंगे. समय ने अपनी सचाई रचने में हमारे सपने नष्ट कर दिये हैं. कई बार लगता है जिसे मैं कविता की रंगभूमि और रणभूमि समझता था वह अब कविता का श्मशान है.
१३.
‘लिखो
ताकि अपनी मृत्यु के कई सदियों बाद
तुम्हारे वंशज यह पहचान पायें
कि भयावह रौरव के समय
उनके एक पुरखे ने याद रखने
दर्ज़ करने,बोलने की कोशिश की थी.’
जिस कवि की राजनीति और सामाजिकता दशकों तक संदिग्ध रही. जिसे परिवर्तन का विरोधी और साहित्य का यथास्थिति-वाद कहा गया. आज वह आततायी, हिंसक, सर्वशक्तिमान सत्ता के सामने सबसे आगे खड़ा है. मुखर है. साहित्य के सत्ता विरोधी उत्तरदायित्व का प्रतीक है. ऐसा कैसे हो गया ?
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राजनीति, सामाजिकता, परिवर्तन और यथास्थितिवाद चारों पद हिन्दी आलोचना और विमर्श में ख़ासे गोलमाल और अस्पष्ट ढंग से समझे-बरते जाते रहे हैं. राजनीति का अर्थ एक ओर तो रहा दलगत राजनीति याने सत्ताकामी प्रयत्न और दूसरी ओर रहा वामपंथी राजनीति जिसके बरक़्स हर तरह की अलग राजनीति प्रतिक्रियावाद क़रार दी जाती रही. लेकिन अगर आप स्वतन्त्रता-समता-न्याय के मूल्यों पर इसरार करें और किसी हद तक उनको अपने काम में चरितार्थ भी करने की चेष्टा करें तो उसे राजनीति की तरह नहीं देखा जाता या समझा गया. मैं सिविल सेवा में 1965से 2001तक रहा और ज़ाहिर है कि उसमें रहकर सीधी राजनीति में भाग लेना संभव नहीं था, न मेरी ऐसी प्रवृत्ति रही. पर मैं उस मूल्य त्रयी का भरसक, कुछ भूल-चूक को छोड़कर, हमेशा साहित्य और प्रशासन में पालन करने की कोशिश करता रहा. जिस व्यक्ति ने दर्जनों पत्रिकाएँ निकालीं, दो हज़ार से अधिक आयोजन किये जिनमें हज़ारों लेखकों-कलाकारों ने शिरकत की, जिसने प्रशासक रहते अनेक नवाचारी संस्थाएँ साहित्य, संगीत, नृत्य, रंगमंच, आदिवासी लोककलाओं, शास्त्रीय अध्ययन अनुसंधान आदि के लिए स्थापित कीं, एक दर्जन से अधिक पत्रिकाएँ निकालीं उससे सामाजिकता का और क्या प्रमाण और किसको चाहिये? संस्कृतिकर्म एक सामाजिक कर्म है और वह टिकाऊ गहरी सामाजिकता को पोसता-बढ़ाता है: उस कर्म में अपने जीवन के सात दशक झोंकने वाले की सामाजिकता किस हिसाब से संदिग्ध हो सकती है यह मेरी तुच्छ बुद्धि को कभी समझ में नहीं आया. परिवर्तन को पढ़ने-समझने की हमारे यहाँ जो भोंथरी विधियाँ रूढ़ और लोकप्रिय हैं, क्या उन्हें कभी यह सचाई दीख पड़ी कि इन प्रयत्नों ने रसिकता, सृजनात्मकता, आलोचना, आयोजन, संपादन आदि में कितने व्यापक परिवर्तन किये? सामाजिकता के नाम पर हिन्दी साहित्य में जो यथास्थितिवाद सत्तारूढ़ था उसे चुनौती देना और उससे अलग अपनी लीक बनाना, भले यह अल्पसंख्यकों की लीक थी और है, क्या एक विकल्प में रूप में नहीं पहचानी जा सकती?
मैंने एक लेखक, संपादक और आयोजक के रूप में कभी किसी प्रतिक्रियावाद का समर्थन या पोषण नहीं किया. धर्मान्धता-साम्प्रदायिकता-जाति विद्वेष आदि के अतिचार का उतना ही विरोध किया जितना वाम-अतिचार का. अपने विरोधी को कभी अपना शत्रु नहीं माना: प्रतिभा को हमेशा सम्मान दिया, फिर उससे कितनी ही वैचारिक असहमति क्यों न हो.
हत्यारी राजनीति और सत्ता का खुलकर विरोध मैंने 2002के गुजरात नरसंहार से शुरू किया और अब उन्हीं शक्तियों के अधिक व्यापक, मान्य, लोकतांत्रिक पद्धति से वैध हो जाने पर उनके विरुद्ध सक्रिय और मुखर हूँ. जैसा तब था वैसा अब भी, बुनियादी संघर्ष स्वतंत्रता-समता-न्याय की मूल्य त्रयी के पक्ष में ही है. सौभाग्य से इसमें बहुत सारे बल्कि बहुसंख्यक लेखक-कलाकार अपने आप एकजुट हैं.
मैं राजनीति, समाज और संस्कृति पर पिछले लगभग 20वर्षों से लिखता रहा हूँ उसका एक संचयन तीन खण्डों में ‘समय के सामने’, ‘अपने समय में’ और ‘समय के इर्दगिर्द’ नाम से लगभग 600पृष्ठों में वाग्देवी प्रकाशन से पुस्तकाकार प्रकाशित हुआ है. तथाकथित समाज और राजनीति को लेकर सैकड़ों कविताएँ हैं जिनका, अगर कविमित्र मंगलेश डबराल की सलाह मानूँ तो एक बड़ा संग्रह बन सकता है.
जहाँ तक हिन्दी साहित्य की अपनी राजनीति का मामला है उसमें मैंने उदार बहुलतावादी स्वायत्तता पर आग्रह करनेवाली पर निजीपन और सामाजिकता के बीच यथोचित सन्तुलन की आकांक्षा करनेवाली भूमिका यति्कंचित निभायी है. इस भूमिका को पूरी तरह अकारथ गया नहीं माना जा सकता, भले उसे निभानेवाले कई लेखकों को अवहलेना और अवमूल्यन का सामना करना पड़ा है. हमारी ज़्यादातर आलोचना अटारी पर बैठकर लिखी गयी आलोचना है, वह रचना और लेखकों के तहख़ानों में जाने का जोखिम उठाने से बचती रही है.
१४.
‘समय है सारे बेईमान और अभद्र शोरगुल के बीच
एक खरी आवाज़ बनकर उभरने का
यह समय इंकार का है.’
‘असहमति’ और ‘अनभै’ ये दोनों शब्द आज आपकी कविता और आपके होने की सार्थकता में हैं. कबीर भी यही तो लिखते थे.
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असहमति और निर्भयता, मुझे यह गर्वोक्ति करने की इजाज़त दीजिये, मुझमें शुरू से थी हालाँकि अपनी सूक्ष्मता के कारण उन्हें पहचाना नहीं जा सका. मैं साहित्य की स्थापित व्यवस्था से असहमत था फिर वह अकादेमिक व्यवस्था हो या कि वाम की. लगातार इतने प्रहारों, विवादों, कुपाठों आदि को झेलता रहा हूँ लेकिन इनसे डर कर मैंने अपनी राह या दृष्टि बदली नहीं. दोनों में बदलाव आया पर उसका कारण ये दबाव नहीं, स्वयं सचाई और समय के दबाव रहे हैं. कम से कम मेरी यही समझ है.
१५.
‘हम कवि हैं और कोई बाद में यह तो नहीं कह पायेगा कि
जब अँधेरा तेज़ी से बढ़ और रौशनी तेज़ी से घट रही थी तो
हम हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे लाचार और हारे-थके.’
आप को क्यूँ लगता है कि ‘आज कविता और नागरिकता के संघर्ष लगभग समान हो गये हैं.’
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कविता और नागरिकता का सम्बन्ध खा़सा जटिल है. इनका सम्बन्ध सर्जनात्मक हो सकता है, तनाव भरा भी. ऐसे अवसर आते हैं जब दोनों समान लक्ष्यों के प्रयत्न में सहचर हो जाते हैं और ऐसे भी जब कविता सिविल नफ़रमानी, सविनय अवज्ञा हो उठती है- हमारे लोकतंत्र के बुनियाद में प्रश्नवाचकता है: कविता जब-तब नागरिकता पर प्रश्न उठाती है. नागरिकता तभी तक वैध और काम्य है जब वह अपने नागरिकों को स्वतंत्र रखे, असहमति के लिए जगह और आदर बनाये, सभी को न्याय देने की चेष्टा करे और सभी नागरिकों को समानता दिलाने की ओर अग्रसर हो. कविता इन मूल्यों की चरितार्थता में नागरिकता की सहचर होती है पर उस पर चौकसी भी रखती है जैसे कि नागरिकता भी कविता पर इन्हीं मूल्यों के सन्दर्भ में, चौकसी करती है.
दुर्भाग्य से हमारी लोकतांत्रिक नागरिकता का एक बड़ा हिस्सा इस समय धर्मान्ध, साम्प्रदायिक, जातिद्वेषग्रस्त होने के साथ-साथ हमारी बुनियादी बहुलता के प्रति असहिष्णु, असहमति और वैचारिक बहस को रोकनेवाला, ‘दूसरों’ के प्रति हिंसक और आक्रामक हो गया है और उसे एक आतयायी सत्ता का पूरा समर्थन प्राप्त है. नागरिकता मुक्ति के रूप में नहीं, बन्दिशों और निषेध के रूप में परिभाषित की जा रही है. कविता, आज की कविता का महत्वपूर्ण अंश, इन विकृतियों-विचलनों को हिसाब में ले रहा है (जिसमें मेरी कविता शामिल है). आज स्वतंत्रता-समता-न्याय, अहिंसा और संवाद, सहकार और सद्भाव के लिए व्यापक नागरिकता जो संघर्ष कर रही है, वही कविता का भी संघर्ष है. इस अर्थ में आज भी कविता नागरिकता है.
१६.
‘क्षमा करो स्वच्छ लोकतंत्र के निर्मल नागरिकों
तुम्हारे स्वच्छता अभियान में तुम्हारे साथ नहीं हूँ’
इधर आपकी कविताओं की भंगिमा कुछ राजनीतिक हुई है. हिंदी में राजनीतिक कविताएँ रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा ने लिखीं हैं. अगर मुक्तिबोध को भी शामिल करें तो जहाँ मुक्तिबोध सत्ता-राजनीति के विरोधी हैं, सहाय के कविताओं में हम लोकतंत्र के तीखे अन्तर- विरोध पाते हैं वहीं श्रीकांत वर्मा तक आते-आते इस तन्त्र की विक्षिप्तता दिखने लगती है आपके यहाँ यह भंगिमा अवसाद में बदल गयी है .
विरोध, अन्तर-विरोध,विक्षिप्तता और अवसाद यह हिंदी राजनीतिक कविताओं के मेरे ख्याल से सोपान हैं. मुक्तिबोध के पास हालाँकि विकल्प का स्वप्न है, आप तक तो आते-आते विकल्प हीनता को स्वीकार कर लिया गया है. असहायता का यह बोध क्या वैश्विक नहीं है.
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दोबातें. एक तो भंगिमा कुछ मुखर रूप से राजनैतिक हुई है, पर अन्तःसलिल तो पहले रही है. दूसरे, अब सिर्फ़ अवसाद भर नहीं है- गहरा विफलता बोध है. कुछ इस तरह का कि निजी और सामाजिक दोनों क़िस्म की विफलता तदात्म तदाकार हो गयी हैं. श्रीकान्त वर्मा ने दशकों पहले कहा था ‘‘मैंने अपनी विफलताओं का प्रणेता हूँ’’. इस बोध में गहरा आत्मालोचन भी है- आखि़र मुक्तिबोध और श्रीकान्त हिन्दी कविता में आत्माभियोग के अप्रतिम कवि रहे हैं. जो कुछ हुआ, सपने राख हुए; अपराधीकरण-हिंसा-हत्या को सामाजिक आचरण की वैध शैली की मान्यता मिली, व्यक्ति और समाज दोनों का लगातार अवमूल्यन होता गया, उदात्त और उदार घूरे पर फेंक दिये गये, न अतीत-बोध बचा, न भविष्य-दृष्टि और एक अनन्त वर्तमान थोप दिया गया; स्वतंत्रता-न्याय-समता में कटौती दैनंदिन की घटना बन गयी! भाषा से मानवीयता, गरमाहट, परस्परता तेज़ी से ग़ायब होने लगीं: टुच्चापन-ओछापन-सनसनियाँ-अफ़वाहों-झूठों का नया राज क़ायम हो गया. विचार, ज्ञान, सत्य सभी अपदस्थ किये जाने लगे; दुर्व्याख्याओं का घटाटोप छा गया. इस भयानक परिणति में हमारी भी भूमिका, दुर्भाग्य से, रही है- वैश्विक विफलता में हमारी निजी और सामाजिक दोनों क़िस्म की शिरकत है. मेरी कविता, किसी हद तक, इस अप्रत्याशित विडम्बना को कुछ हिसाब में लेने की कोशिश करती है. ‘कम से कम’ हम कवि हैं तो इतना तो कर सकते हैं.
मुक्तिबोध के जीवित रहते अरुण स्वप्न, कम से कम उनके नज़दीक, खण्डित नहीं हुआ था. श्रीकान्त वर्मा सत्ता की अन्ततः विफलता को देख पाये थे. उन्हें, फिर भी, ‘तीसरा रास्ता’ दीखता था. रघुवीर सहाय लोकतंत्र के अन्तर्विरोधों को उजागर करते थे पर लोकतंत्र की संभावना पर उम्मीद लगा सकते थे. हम जो लोकतंत्र का भयावह बहुसंख्यकतावादी क्रूर-हिंसक विद्रूप देख रहे हैं कहाँ उम्मीद लगायें? कविता कुछ कर नहीं सकती पर इस ध्रुवान्त पर मानवीयता की स्थिति, दशा-दुर्दशा, निरुपायता, विकल्पहीनता को दर्ज तो कर सकती है. हम रास्ता नहीं दिखा सकते, गवाही दे सकते हैं!
१७.
ऐ 'मुसहफ़ी'शायर नहीं पूरब में हुआ मैं
दिल्ली में भी चोरी मिरा दीवान गया था. (मुसहफ़ी)
दिल्ली में बहुत दिनों से आप हैं. महानगर की ‘निर्मम प्रखरता’ कवि की स्वाभाविक कोमलता और करुणा सोख लेती है. इसका कभी एहसास होता होगा आपको.
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दिल्ली भयावह रूप से बड़ी है, जनाक्रान्त है, सत्ता का केन्द्र है, अपराध-बलात्कार-हिंसा की राजधानी है. इस सबके बावजूद वह, बिना चाहे भी, हिन्दी साहित्य की भी राजधानी है. हिन्दी के सबसे अधिक लेखक, प्रकाशक, पत्रकार, अध्यापक, संपादक आदि दिल्ली में ही बसते हैं. दिल्ली के लेखक-संपादक दूसरे शहरों के लेखकों आदि का शोषण भी जब-तब करते रहते हैं. लेकिन गरमाहट, मदद, सहानुभूति, समझ, साहचर्य के द्वीप और अवसर भी दिल्ली में कम नहीं हैं. मैं (अगर 1960-65की अवधि को हिसाब में न लूँ) 1992के मध्य से दिल्ली में हूँ. जब आया तब उमर 50पार कर चुकी थी. ज़िन्दगी, प्रशासन, शत्रु-मित्र तब तक जितनी कोमलता, करुणा सोख सकते थे, सोख चुके थे. मैंने भरसक दिल्ली की संस्कृति में कुछ सार्थक करने की कोशिश की, सहायता-समर्थन भी मिले. इसलिए दिल्ली को पूरी तरह से निर्मम मानने का कोई कारण नहीं देखता. अगर साहस हो, जोखिम उठा सकते हों, कुछ कल्पनाशीलता हो और सृजनात्मकता बचाये रख और पोस सकते हैं तो दिल्ली में जगह में बन सकती है! कर्महीन नर पावत नहीं!
(प्रश्नों में काव्य-पंक्तियाँ अशोक वाजपेयी के संग्रहों से ली गयी हैं. अ.दे. )
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