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यशदेव शल्य (26 जून,1928- 31 जनवरी, 2021) हिन्दी में लिखने वाले विश्वस्तरीय मौलिक दार्शनिक थे. आधुनिक दार्शनिकों में यशदेव शल्य इस अर्थ ने अद्भुत थे कि उन्होंने दर्शन की कहीं से कोई सांस्थानिक शिक्षा नहीं ली थी, हेनरी बर्गसां की पुस्तक ‘क्रिएटिव इवोल्यूशन्स’ से उन्हें प्रेरणा मिली और फिर हिन्दी में उन्होंने दर्शन के लिए राह बनाई. उनका समग्र ‘मानवीय सर्जन की तत्वमीमांसा’ शीर्षक से डी. के. प्रिंटवर्ल्ड नई दिल्ली से प्रकाशित हुआ है.
प्रसिद्ध आलोचक रमेशचंद्र शाह यशदेव शल्य को याद करते हुए उनकी दार्शनिक मान्यताओं की यहाँ चर्चा कर रहें हैं.
स्मृति
यशदेव शल्य
रमेशचंद्र शाह
अभी हाल ही में दिवंगत यशदेव शल्य हिंदी में ही सोचने और लिखने वाले ऐसे अप्रतिम दार्शनिक थे, जिन्होंने न केवल एक अनूठे मौलिक दर्शन की रचना की, बल्कि हिंदी को उच्चतम कोटि के मौलिक दार्शनिक चिंतन की भाषा बनाने का भी अतुलनीय पुरुषार्थ संभव कर दिखाया हमारे लिए सौभाग्य की बात यह है कि उनका 'समग्र कृतित्व'प्रकाशित रूप में सुलभ है.
ध्यान देने की बात यह है कि शल्य जी के दार्शनिक चिंतन का नया पड़ाव पारंपरिक वेदांत शास्त्रियों से अलग है और यही उन्हें सचमुच समकालीन और सच्चे अर्थों में सृजनात्मक बनाता है. उनके सृजनात्मक अनुभव का मार्मिक वृत्तांत स्वयंउन्हीं के शब्दों में सुनने योग्य है. वे कहते हैं–
"मैं जैसे ही लिखना आरंभ करता, वही वस्तुवाचक वेदांतिक शब्दावली ही लिखी जाती. तब एक दिन अकस्मात उस पदावली का आविर्भाव हुआ जो मेरे अर्थ को, मेरी दीठ को व्यक्त कर सकता था. पहले वाक्य के साथ ही उस सम्पूर्ण प्रतिपत्ति का सूत्रपात हो गया, जिसका विकास तब से अब तक मेरे लेखन में होता रहा है. वह वाक्य था- ‘हम जगतभाव को प्राप्त चैतन्य हैं. किन्तु यह भाव चेतना के लिए अनिवार्य नहीं है.’
इसी तरह की एक और घटना का भी उन्होंने इसी सिलसिले में जिक्र किया है: 'तो आप बताइए कला क्या है?'के उत्तर में शल्य जी के भीतर इस वाक्य का अकस्मात विस्फोट कि "कला विषयिता का विषयिता-प्रत्यय के स्वरूप में अवगमन है."
इस घटना पर स्वयं शल्य जी की टिप्पणी सुनिए-
"कला की यह परिभाषा मेरी जिह्वा पर जैसे कहीं बाहर से अवतरित हुई थी. यह न तो मेरी चेतना में पहले से थी, और न दृष्टि से रहित भाषा-संस्कार के रूप में, जैसे कि अधिकांशतः हमारे साथ होता है."
शल्य जी की सृजनात्मकता के दोनों लक्षण- 'सत्य दृष्टि का उन्मेष'और 'अपूर्वता'इन उदाहरणों में झलकते हैं. शल्य जी का दर्शन एक अपने ही विलक्षण ढंग से विभिन्न स्तरों पर मनुष्य की अपने आप को लांघने की- आत्मातिक्रमण की क्षमता को उद्घाटित करता है. बशर्ते हम सचमुच उन्हें पढ़ने और आत्मसात् करने को प्रेरित हों- उनके पार्थिव तिरोभाव को उनकी वास्तविक जीवंत उपस्थिति में रूपांतरित करने को प्रेरित हों.
अपनी ‘चिद्विमर्श’नामक पुस्तक में शल्य जी ने किसी भी दर्शन-प्रणाली के संतोषदायी हो सकने के लिए तीन कसौटिया बताई हैं:सर्वप्रथम तो यही, कि वह -
'अनुभव के निकट हो'दूसरे,
'वह अनुभव के विविध आयामों को किसी एक आयाम में रिड्यूस किए बिना विवेचित कर सके'और तीसरे यह कि
'ऐसा करने के लिए उसे तदर्थ अवधारणाओं का सहारा लेने की जरूरत न हो'.
जहां तक मेरे जैसे अ-दार्शनिक, मात्र साहित्यिक की हैसियत से दर्शन में थोड़ी बहुत दिलचस्पी रखने वाले पाठक की रीझ-बूझ जा सकती है, वहाँ तक मुझे लगता है कि शल्य जी की दार्शनिकता इन तीनों कसौटियों पर खरी उतरती है और यह भी एक बड़ा कारण है समकालीन दर्शन में उनके महत्त्वपूर्ण स्थान का.
‘सत्ताविषयक अन्वीक्षा’में जहाँ हम उन्हें कबीर के एक प्रसिद्ध दोहे की शब्दावली मेंयहकहते सुनते हैं कि ‘दार्शनिक विचार-वितर्क यही अभिन्न के भिन्न होने, अपने को आप पतियां लिखने का खेल है, अपने को अपने से अलग कर प्यार का स्वाद चखने का उपाय है’, वहीं ‘मूल्यतत्त्वमीमांसा’में हम उन्हें यह दिखाते देखते हैं कि किस प्रकार सब सृजन आत्मसृजनमूलक होते हैं. यह आत्मसृजन उनके अनुसार एक अनिर्वचनीय व्यापार है- जिसमें,‘अपने से अभिन्न, अपने से अव्यवहित चित्सत् अपने में व्यवधान का आक्षेप करता है और इस प्रकार भाव से भाव्य में रूपांतरित होकर अपनी भावरूपता या अव्यवहितत्व को एक दूसरे स्तर पर प्राप्त करने में प्रयत्नशील होता है.’
'आत्म-व्यवहित'और 'आत्मसृजन'इस प्रकार शल्य जी के लिए एक ही व्यापार के दो अवियोज्य पक्ष हैं. उन्हीं के शब्दों में-
"व्यवहितत्व के रूप में जबकि आत्मा में अपने से दूरी और न्यूनता घटित होती है;सृजन के रूप में अर्थलोकों का आविर्भाव होता है, जिसके द्वारा आत्म अपनी इस दूरी को पाटने का प्रयत्न करता है.’इस प्रकार चेतना का संपूर्ण व्यापार सृजनमूलक हो जाता है और संपूर्ण सृजन-व्यापार ज्ञानलक्षी "
सृजनात्मकता की इससे सुंदर और तात्त्विकव्याख्या क्या हो सकती है कि ‘इच्छाएं, उद्वेग, वासनाएं ही आत्मा को आवृत रखती हैं और इन्हीं को आत्मा के स्वरूप की अभिव्यक्ति का माध्यम होना होता है, जो वे धर्म, नैतिकता और कला में बनती हैं.’चेतना की आत्म-सिद्धि के उपक्रमों के रूप में मनुष्य के धार्मिक, नैतिक कलात्मक क्रिया-कलापों की यह व्याख्या और स्वयं मानवीय सृजनशीलता की एक सर्वोच्च मूल्य के रूप में प्रतिष्ठा ये ऐसी बातें हैं, जिनके लिए न तो पारंपरिक वेदांत की भाषा और न आधुनिक पाश्चात्य दर्शन-प्रणालियों ही हमें तैयार करती जान पड़ती हैं. फिर भी वह हमारे अपने अनुभव और संस्कारगत स्मृति को छूती-पकड़ती है. इसलिए कि उसमें कहीं उसी मूल अनुभूति और बोध की टंकार है जो हमारे भीतर गीता-उपनिषद को पढ़ते हुए जागती है. जागती है, मगर टिकती नहीं, क्योंकि हमारे वेदनतंत्र और सुदूर उपलब्धि के बीच एक दूरी पैदा हो गई है: उस परंपरा को अपने बोध और अनुभव के स्तर पर बार-बार अर्जित करने, पुनराविष्कृत करने के प्रति उदासीन रहने या कि, ऐतिहासिक कारणवश उससे विच्छिन्न हो जाने के फलस्वरूप. शल्य जी का प्रतिपादन इतना नव-नवोन्मेषशाली, इतना स्वतंत्र और इतना मौलिक जिज्ञासा से उन्मथित है कि वह दूरी सहसा मिट जाती प्रतीत होती है और इतना ही नहीं, उसमें जो खाली जगहें छूट गई थीं, वे भी भरने लगती हैं.
इसलिए कि वह शल्य जी के प्रतिपादन की अद्भुत तार्किक अंत:संगति हमारी आधुनिक संशयाकुल बौद्धिकता के आर-पार हमें पकड़ती है;और इतना ही नहीं, मनुष्य की सृजन-चेष्टाओं को एक ऐसे विधायक मूल्य से मंडित कर देती है, जो अन्यथा उसमें हमें उस तरह नहीं दिख सकता था. ये सारी बातें मनुष्य की रचनात्मक मुक्ति के पक्ष में घटित होती हैं- मात्र मोक्ष या निर्वाण के उन पारंपरिक अर्थों में नहीं, जिनका हमारे वेदनतंत्र से, और जीवन-बोध से कोई जीवंत संबंध नहीं रह गया है.
शल्य जी का दर्शन इस रूप में भी सृजनात्मक है कि वह औपनिषदिक दृष्टि की नई संभावनाएं खोलता है. ‘सृजन और सत्य: मूल्य की तत्त्वमीमांसा’शीर्षक अध्याय में ऐतरेय उपनिषद् के एक मंत्र में वे आत्मा के एक से अधिक होने में आत्मा का अपने सत्य से व्यवहित होना नहीं, बल्कि 'आत्मा के सत् की अपने सत्य में प्रतिष्ठा'देखते हैं. कहते हैं- ‘यह व्यवधान ही सत् को उसके सत्य से, तथ्य को उसके मूल्य से, अस्तित्व को उसकी अनंत संभावनाओं से और प्रस्तुत को उसके अर्थों से मंडित करता है.’
इसी तरह 'ईशोपनिषद'के ‘कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू’का भी ऐसा ही सटीक-पारदर्शी-अर्थ वे खोजते और पाते हैं: और वह यह, कि ‘वस्तुएं स्वत: अपने सत्य में, अपने यथातथ्य में प्रतिष्ठित नहीं होती. वे उस कवि द्वारा सृजनात्मक चेतना द्वारा, उसमें प्रतिष्ठित होती हैं जो उन्हें उनके अर्थ व स्वरूप में रचता और देखता है’. इसी तरह एक और नई बात, बिलकुल नए तर्क से यहाँ यह भी उपस्थित होती है कि 'सृजन-कर्म की सबसे प्रथम कृति आत्मा ही होती है जो सत् के अपने पर मुड़कर देखने से उत्पन्न होती है.'
यहां शल्य जी का तर्क यह है कि सर्जक तब तक सर्जक कैसे हो सकता है जब तक कि वह आत्मसर्जक नहीं हो? आत्मसृष्ट हुए बिना आत्मा इतर-सृष्टि और उस प्रकार परायत्त हो जाएगा. और इस प्रकार उसका कोई कर्म भी सृजनात्मक नहीं रहेगा. इस प्रकार शल्य जी का दर्शन सृजनात्मकता का और स्वातंत्र्य का दर्शन बन जाता है- एक ऐसे अर्थ में जो दर्शनशास्त्री को ही नहीं, साहित्य या कला के सर्जकों को भी आश्वस्त- संतुष्ट कर सकता है. उन्हें भी अपने कर्म की सार्थकता और प्रामाणिकता का एक ऐसी जगह से समर्थन जुटा सकता है जहां से अमूमन उन्हें वह मिलता नहीं रहा है.
चैत्तकल्मषों को आत्म-सृजन में उपादान बनाकर सृजन के स्वातंत्र्य में प्रतिष्ठित होने वाली ‘आत्मा’तब मात्र एक अमूर्त आध्यात्मिक सत्ता नहीं रह जाती- हमारे अंतरंग अनुभव से आलोकित हो उठती है. इसी तरह जिस मूलगामी विरोधाभास का उल्लेख शल्य जी करते हैं, वह भी कवि-कलाकार का अनुभूत सत्य है: कि सृजन द्वारा अन्वेष्य अर्थ स्वयं सृजन के क्रम में ही आविर्भूत हो;सृजन से पूर्व विद्यमान न हो. शल्य जी के दर्शन में सृजन स्वयं आद्य सत्य और आद्य अर्थ हो जाता है और यह ऐसी बात है जो अपने नयेपन में हमें चौंका देती है. क्योंकि शायद कोईभीदर्शन-व्यवस्था, हमारी अपनी वेदांत धारा भी—हमें इसके लिए प्रस्तुत नहीं करती. वैसा होने पर अन्वेष्य अर्थ सृजन से पूर्ववर्ती हो भी नहीं सकता. शल्य जी के शब्दों में—‘निश्चय ही यह एक विरोधाभास है कि आद्य और आधार ही अन्वेष्य हों, किंतु यह विरोधाभास सृजन का तत्त्व है.’यह अकारण नहीं कि शल्य जी इस सिलसिले में अपनी बात समझाने के लिए कलाकृति का ही उदाहरण भी चुनते हैं.
अब, सृजन के परिवेश का जहाँ तक संबंध है, वह तो समाज और संस्कृति ही हैं, जो अपने आप में स्वयं चेतना की सृजनात्मकता के प्रतिफलन हैं. शल्य जी की दृष्टि में मौलिक सृजनात्मकता वहीं होती है जहाँ उपलब्ध प्रतीक व्यवस्थाओं का अतिक्रमण होता है. परन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि परंपरा का निषेध सृजनात्मकता का अनिवार्य तत्त्व हो. शल्य जी का स्पष्ट अभिमत है कि
"मूल्यों में अथवा किसी भी क्षेत्र में सृजनात्मकता परंपरा के निषेध में निहित नहीं होती, बल्कि चेतना के अपने साथ ऐक्य-लाभ में निहित होती है."
दरअसल,शल्य जी के सृजनात्मक दर्शन में स्वातंत्र्य सबसे बड़ा मूल्य बन कर उभरता है. इसलिए कि आत्मचेतन चेतना या कि प्रेक्षकत्व का अंतः सार ही स्वातंत्र्य है. वह कारण-कार्य नियमाधीनता में प्रवर्तित नहीं होती. इस तथ्य के बावजूद, कि मानव- चेतना में प्रेक्षकत्व-अर्थात् साक्षी भाव-का यह स्तर जैव मानसिकता के अधीन ही और इसीलिए अ-स्वतंत्र ही रहा आता है- ज़्यादातर.
अपने प्रसिद्ध ग्रंथ 'मूल्यतत्व मीमांसा' के अंतर्गत स्वातंत्र्य शीर्षक अध्याय का उपसंहार करते हुए शल्य जी ने जो मंतव्य प्रकट किया है, इस लेख का उपसंहार भी मुझे उसी से करना उपयुक्त लग रहा है :-
“सृजन के संबंध में साधारणतः यह समझा जाता है कि वह सत् की अनुरूपता के विपरीत चेतना की सत् से निरपेक्ष उसकी अपनी स्वैरता से ही चरितार्थ होता है. किंतु ज्ञान और सृजन के संबंध में यह एक लोकधारणा ही है जो लोकबुद्धि की दृष्टि से सही भी है. किंतु आत्मोन्मुख अतिक्रांत चेतना की दृष्टि से यह सही नहीं. सृजन आत्मचेतन चेतना द्वारा सत् में आत्म-प्रतिष्ठा और आत्म-सत्यापन दोनों होता है. यह प्रतिष्ठा ही वस्तुतः चेतना का स्वातंत्र्य है.”
क्या स्वातंत्र्य की यह अवधारणा भी संपूर्ण सत्ता की, सत्तामय जीवन की ही पहचान से प्रेरित नहीं है? शल्य जी उन बिरले विचारकों में हैं जिनका समस्त लेखन इस पहचान से ही प्रेरित और पुष्ट हुआ है. यही हमारे लिए उनकी सदा नवीन और सदा प्रेरक प्रासंगिकता और मूल्यवत्ता है.
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(रमेशचन्द्र शाह और यशदेव शल्य) |
रमेशचन्द्र शाह
एम-4, निराला नगर, भदभदा रोड, भोपाल-462003
(मध्य प्रदेश)