किसान आंदोलन और सांस्कृतिक क्रांति की संभावना
विनोद शाही
Image may be NSFW. Clik here to view. ![]() |
किसान आंदोलन का जैसे-जैसे विस्तार हो रहा है, उसके सह समांतर एक नये समाज-सांस्कृतिक इन्कलाब की भूमिका भी बनने लगी है.
इस तब्दीली की प्रक्रिया के आरंभ होने के संकेत मिलने के बावजूद अभी यह कहना मुमकिन नहीं कि यह बात सिरे चढ़ेगी या नहीं.
इससे एक उम्मीद तो पैदा होती है, हालांकि यह भी सही है कि भारतीय समाज की खुद को अपने भीतर से बदलने की रफ्तार इतनी धीमी है कि उससे इन्कलाब का प्रकट होना कठिन लगता है.
इस संदर्भ में वह जो उम्मीद वाला पहलू है, वह यह है कि इस आंदोलन की वजह से किसान अपने समाज में आंतरिक तब्दीली की ज़रूरत को शिद्दत से महसूस करने लगे हैं.
इस बात को समझने के लिये निम्न बातों पर अपना ध्यान केंद्रित किया जाना ज़रूरी लगता है:
1.
आरंभ से ही किसान आंदोलन का किसानों तक सीमित न रह कर, किसान मजदूर गठबंधन की तरह सामने आना.
2.
नेतृत्व के बड़े जमींदारों तक सीमित होने के बावजूद, उसका विविध जत्थे बंदियों की आपसदारियों के सहकारी महा-नेतृत्व में बदल जाना.
3.
स्वयं सामने आने वाली खाप महा पंचायतों के द्वारा आंदोलन के नेतृत्व को प्रजातांत्रिक स्वरूप प्रदान करना.
4.
छोटे किसानों और खेतिहर मज़दूरों के बड़ी तादाद में आंदोलन का हिस्सा होने से प्रतिनिधियों की सरकार से बातचीत करके निर्णय लेने की सामर्थ्य में सामूहिक जन आकांक्षाओं की उपेक्षा करने की गुंजाइश का बहुत कम रह जाना.
5.
आंदोलन में सामूहिक जन की व्यापक भागीदारी के द्वारा ग्रामीण समाज में मौजूद, जाति और धर्मों पर आधारित विभेदों को बहुत महत्व न मिलना.
6.
किसान और दलित समाज में आपसदारी को बढ़ाने के लिये, सर छोटू राम और अंबेडकर के प्रतीकों को संयुक्त रूप में बराबरी के आधार पर उद्बोधित व स्थापित करना.
7.
बाज़ार की अधिक मुनाफा देने की संभावनाओं के मुकाबले, सभी को गुज़र बसर करने लायक बनाने या आत्म निर्भर हो सकने में मदद करने वाली तबदीली या सुधार की ज़रूरत पर बल देना.
8.
पर्यावरण और जीवन को बचाने के सवालों से जुड़ने की प्रक्रिया के आरंभ होने से सांस्कृतिक सवालों का, आर्थिक सवालों के मुकाबले, अधिक महत्वपूर्ण होना. हालांकि 'पराली जलाने के संदर्भ में इस प्रवृत्ति के अंतर्विरोध भी अभी इस चेतना के पूरी तरह ग्राह्य होने पर प्रश्न चिन्ह लगाने दिखाई देते हैं.
यहाँ, जब हम उपर्युक्त प्रवृत्तियों से ताल्लुक रखने वाली समाज-सांस्कृतिक तबदीलियों के कच्चे पक्के नक्शे बनते देखते हैं, तो यह सवाल हमारा पीछा करता है कि क्या इस संक्रमण का किसी मुकाम तक पहुंचना मुमकिन है भी या नहीं?
उम्मीद के वजूहात ऊपर गिना दिये गये हैं, तो एक नज़र उन बातों पर डालनी भी सम्यक होगी, जिन से यह संदेह पैदा होता है कि यह आंदोलन अंतर्विरोध ग्रस्त हो कर अपने उस संभावित माज-सांस्कृतिक रूपांतर से चूक सकता है, जिस वजह ह से इसे इन्कलाबी कहा जा सकता है.
इस संदेह के मुख्य आधार निम्न हैं:
1.
हमारे गांवों की किसानी से ताल्लुक रखने वाला व्यापक जन समुदाय अपनी मूल प्रकृति, सोच और संस्कृति के लिहाज से परंपराजीवी है. इसलिये वह यथास्थितिवाद को बनाये रखता है और हालात के बदलाव के साथ बदल जाने को बहुत कम तैयार होता है.
2.
वह विकास के लिये ज़रूरी आधुनिक तौर तरीके अपना कर भी, सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक चेतना के तल पर परंपरा से रिश्ता बनाये रखता है.
3.
किसान स्वयं को स्वतंत्र उत्पादक की तरह ही देखता है और बाज़ार के तंत्र से अजनबी बना रहता है. ऐसा वह अपनी परम्परागत समाज-सांस्कृतिक संरचना और सोच को बचाये रखने के लिये करता है.
4.
बाज़ार के तंत्र से किसान के अजनबीकरण की मात्रा जितनी बढ़ती है, वह अपने मानवीय होने और कुदरती तौर तरीकों के साथ जी पाने की मूल चेतना को, उतना ही संकट ग्रस्त हुआ पाता है. अपने इस व्यक्तित्व को बचाये रखने की उसकी कोशिशें उसे पिछड़ेपन की ओर धकेलती हैं. इस स्थिति से निकलने का किसान के पास कोई सम्यक विकल्प दिखाई नहीं देता.
5.
विकास की नयी संभावनाओं को खोलने का दावा करने वाला बाज़ार का अर्थ तंत्र, जो मौजूदा दौर में, कार्पोरेट पूंजी पर आधारित है, किसान की सोच को बदल न पाने की वजह से, किसान के मानवीय सार तत्व वाली गुज़र बसर लायक जीवन शैली के व्यवस्थित, सांस्थानिक और संवैधानिक संहार के तंत्र की तरह उसे डराता है. आर्थिक निपुणता से संपन्न हो सकने की संभावना को लुभाती है, पर किसान बाज़ार की निर्ममता और प्रकृति का दोहन करने वाली उसकी आधारभूमि को अपने वजूद के लिये ज़्यादा बड़ा खतरा मानने की वजह से, जैसा है, वैसा ही बना रहने की स्थिति का चुनाव करता है.
6.
बाज़ार के यथार्थ और किसान की वस्तुस्थिति के बीच बढ़ती दूरी के कारण किसानों का आंदोलन सामूहिक आत्मघात की ओर बढ़ता भी प्रतीत हो सकता है. जब से मुक्त बाज़ार ने भारत में 1990 के बाद से धीरे-धीरे खुलना शुरू किया है, किसानों के आत्मघात के हालात उत्तरोत्तर बढ़ते फैलते गये हैं. किसान आंदोलन उन हालात से निजात पाने की उम्मीद में धीरे-धीरे पूरे भारत में फैल रहा है, परंतु हालात समाधान से अधिक सनातन गतिरोध वाले ही अधिक होते जाते हैं.
अब हम किसान आंदोलन से बढ़ती उम्मीदों और गहराते संकटों के बीच से रास्ते निकालने के प्रयासों को खोजने के अपने मुख्य प्रयोजन पर केंद्रित हो सकते हैं.
इस दिशा में आगे बढ़ने के लिये पहली और बुनियादी बात से, संकट के स्वरूप को समझने की. उपर्युक्त रूप में किये गये विवेचन से स्पष्ट हो जाता है कि किसान आंदोलन को संकट ग्रस्त बनाने वाली और उसकी सामर्थ्य हो सकने की संभावना वाली बुनियादी बात है, सांस्कृतिक अजनबीकरण. वह इस आंदोलन को एक ओर सामूहिक आत्मघात की ओर धकेलता है और वही उसके पास मौजूद वह ज़मीन है, जिसके भीतर से वैकल्पिक विकास का ऐसा नक्शा निकलता है, जो क्रांतिकारी परिणाम वाला हो सकता है. अतः, आइये सब से पहले इस सांस्कृतिक अजनबीकरण के स्वरूप को ही समझने की कोशिश करते हैं.
यूरोप में जब औद्योगिक क्रांति ने विकास के एक नये मौडल को व्यावहारिक शक्ल दी, तो अजनबीकरण के अनेक रूप सामने आये. वे उस दौर के संकट की व्याख्या करते हैं. उनमें श्रम के अजनबीकरण की बात केंद्र में है. मानव श्रम के बेचे और खरीदे जाने की वस्तु होने से होता यह है कि पूंजी की व्यवस्था श्रमिक के लिये एक निश्चित आय का स्रोत तो होती है, पर उसकी अपने उत्पाद से दूरी का आधार हो जाती है. वह जो उपजाता है, वह किसी और का हो जाता है. यानी मानव के पास उसकी जो देह है, वह तो उसकी ही होती है, पर उस देह से जो कार्य होते हैं, वो किसी और के लिये किये गये कार्य बन जाते हैं. उसके पास पूंजी का बेहद अपर्याप्त अंश, किराये भाड़े या मेहनताने के रुप में आता है. हाथ में आयी वह अपर्याप्त पूंजी न ठीक से उसका पेट भरती है, न उसे कोई मूल्य प्रदान करती है. इससे आत्म विहीनता का भाव पैदा होता है. इससे उबरने के लिये उस दौर में मज़दूरों के बुनियादी अधिकारों की हिफाज़त के आंदोलन पैदा हुए. पर श्रमिक को उसका आत्म भाव लौटाने के लिये तब से अब तक कोई बड़ा प्रयास सामने नहीं आता. अजनबीकरण की प्रक्रिया का वह अनसुलझा पहलू, अब पहली दफा इतने व्यापक रूप में, मौजूदा किसान आंदोलन की शक्ल लेकर हमारे सामने प्रस्तुत हुआ है.
यह आंदोलन भारतीय किसान के मूलतः एक सांस्कृतिक जीव होने की वजह से, दरपेश संकट के समाधान को इस बात से जोड़ना चाहता है कि आर्थिक प्रगति का कारपोरेटी मौडल, उसके और उसकी प्रकृति के साथ उसके परंपरागत रिश्तों के, आड़े न आये. उसे लग रहा है कि सरकार की ओर से जो नये कानून लाये जा रहे हैं, उनसे होगा ये कि
1.
किसान अपनी ज़मीन की उपज के मालिक नहीं, उसे कार्पोरेट की मर्ज़ी और ज़रूरत के मुताबिक उपजाने वाले बंधुआ मज़दूर हो जायेंगे.
2.
उनसे कार्पोरेट अपनी मर्ज़ी के दाम पर फसल खरीद कर स्टोर कर लेगा और बाद में कीमत बढ़ा कर जो मुनाफा कमायेगा, उसमें उसकी कोई हिस्सेदारी य दखल नहीं रहेगी.
3.
ज़मीन बेशक उसकी होगी, पर वहां जो होगा, उस पर खुद किसान का कोई अधिकार नहीं रह जायेगा. इससे उसे अगर कमाई अधिक भी होती हो, तो भी वह किसान को इसलिये स्वीकार नहीं, क्योंकि इससे उसके और उसकी फसल के बीच के रिश्ते बदल कर 'विशुद्ध व्यावसायिक''हो जायेंगे.
4.
खेतीबाड़ी किसान के लिये उसकी संस्कृति है, उसकी आत्मा का पर्याय है. इससे वह खुद को पाता है. इसलिये चंद रुपयों के लिये वह खुद को खो देने को तैयार नहीं कर पा रहा है.
5.
अपनी इस संस्कृति को बचाने के लिये वह अपने उन अंतर्विरोधों को पाटने की हद तक भी जा रहा है, जो समाज को जातिवादी आधार पर विभाजित करने की वजह रहे हैं और जिन से दलित समाज के प्रति अन्याय करते रहने की व्यवस्था निकली और बद्धमूल हो गयी है.
यहां यह बात रेखांकित करने लायक लगती है कि भारतीय समाज के परंपराजीवी होने से अगर उसकी सामाजिक परिवर्तन की रफ्तार धीमी हुई है, तो वहीं यह भी हुआ है कि सांस्कृतिक अजनबीकरण के हालात के गहराते ही किसान आंदोलन सामाजिक तबदीली की राह पर निकल पड़ा है.
भारत में पूंजीवाद का अमर्यादित और विवेकहीन तरीके का विकास हुआ, जिस वजह से हमारे यहां प्राकृतिक संपदा का विनाश भयावह मात्रा वाला हो गया है. यही नहीं प्रदूषण का स्तर भी ऐसा 'क्रिटिकल'परिमाप वाला हो गया है कि विश्व के सर्वाधिक प्रदूषित नगरों में भारत अग्रणी हो गया है.
ऐसे में अगर किसान का भी उसकी प्रकृति के साथ जो रिश्ता है, वह भी व्यावसायिक हो कर रह जायेगा, तो भारत को आत्मविहीन होने से शायद कोई बचा नहीं पाएगा.
भारत अगर भारत के रूप में बचा है तो कृषि पर निर्भर अपनी उस साठ प्रतिशत आबादी की वजह से बचा है, जो अभी तक किसी तरह अपनी संस्कृति को बचा कर रख पाने में कामयाब रही है.
उसकी इस कामयाबी का एक बड़ा कारण यह है कि बाज़ार उसके प्रकृति के साथ सीधे रिश्तों में इस हद तक दखल नहीं दे पाया है कि उसे नितांत व्यावसायिक और उपभोक्तावादी बना कर लील सके.
इसीलिये भारतीय किसान सर छोटू राम को अपना भगवान मानते हैं. औपनिवेशिक दौर में किसान महाजनों के चंगुल में फंस कर आत्मविहीन होने के कगार पर पहुंच गया था. इस त्रासदी को देखना समझना हो तो हमें प्रेमचंद को पढ़ना चाहिये. पर फिर सर छोटूराम की मंडीकरण की व्यवस्था ने किसानों को बड़ी राहत दी. अब किसान को उसी ढाल को उससे छीन लेने के इंतज़ाम किये जा रहे हैं. इसलिये किसान एक ऐसी आंदोलनधर्मिता के साथ सरकार का प्रतिरोध करने की मुद्रा में आ गये हैं, जो स्वरूपत: सांस्कृतिक है.
उसके मूलतः सांस्कृतिक होने की बात निम्न कारणों से प्रमाणित होती है:
1.
आन्दोलन को लंबे अरसे तक प्रभावपूर्ण बनाये रखने में परंपरागत लंगर प्रथा के सांस्कृतिक आधार का ग्रहण. इसका संबंध अन्न को बेचने की वस्तु या 'माल'की तरह ही ग्रहण न करते हुए, मिल बांट कर खाने की सांस्कृतिक परंपरा से है.
2.
कारसेवा की परंपरागत सांस्कृतिक व्यवहार शैली को आधार बना कर यह आंदोलन सड़कों पर लोगों के रहने खाने की व्यवस्था सहकारी सामुदायिक चेतना के द्वारा करने का उदाहरण प्रस्तुत कर रहा है.
3.
सत्य और अहिंसा के सर्व स्वीकृत सांस्कृतिक मूल्यों को यह आंदोलन, गांधी के अहिंसक सत्याग्रह के रूप में अपने प्रतिरोध को दर्ज कराने का आधार मान कर आगे बढ़ा है. तथापि गांधी ने आमरण अनशन वाली जिस नीति का इस्तेमाल, धैर्य पूर्वक समाज की अंतश्चेतना को जगाने के लिये किया, उसकी बजाय यह आंदोलन स्वेच्छया से आत्म बलिदान करने से जुड़े अधिक बड़े दृढ़ संकल्प का प्रदर्शन कर रहा है. इसके पीछे मृत्यु को चोला बदलने का साधन भर मानने वाली सांस्कृतिक चेतना काम करती प्रतीत हो रही है.
4.
भिन्न विचारों और असहमतियों की निर्भीक अभिव्यक्ति के लिये यह आंदोलन एक तरह का समांतर सार्वजनिक मंच भी बन रहा है. मीडिया के विचारधारात्मक अंतर-विभाजन से उपजे शोर में, 'लोगों की आवाज़'के दब जाने की स्थिति सामने आयी है. इस से उबरने का एक रास्ता इस आंदोलन से निकल रहा है. इससे विचारों के राजनीति दलगत रूप, सामाजिक जातिवादी रूप और धर्मों से जुड़े कट्टर मूलगामी सांप्रदायिक आग्रहों से ऊपर उठ कर लोक मंगलकारी संस्कृति से जुड़ने की चेतना का विस्तार भी हो रहा है.
5.
भारतीय संस्कृति की मूल भूमि का प्रकृति से जो सनातन रिश्ता है, उसे बचाते हुए कृषि के विकास के नये मौडल की तलाश के लिये इस आंदोलन से एक नयी भूमिका भी बन रही है, हालांकि अभी यह आंदोलन सजग रूप में इस महान विकल्प को, भारत के नये भविष्य की रूपरेखा बनाने की हद तक नहीं ले गया है.
अगर हम उपर्युक्त रूप में किसान आंदोलन की सांस्कृतिक अंतर्वस्तु (कंटेंट) को समझने की बात पर केंद्रित हो सकें, तो हमें दिखाई देगा कि
1.
भारत का यह किसान आन्दोलन यूरोप, अमरीका, आस्ट्रेलिया जैसे विकसित पश्चिमी देशों की किसानी से भिन्न परिस्थितियों से पैदा हुआ है, इसलिये इसकी अंतर्वस्तु अन्य देशों की किसानी से अलग है.
2.
भारतीय संस्कृति की परंपरागत विरासत में उस इतिहास को आसानी से खोजा और देखा जा सकता है, जिसका प्रतिफलन, नये रूप में इस किसान आंदोलन के रूप में मुमकिन हुआ है.
उपर्युक्त पहली बात का संबंध इस सवाल से है कि यह आंदोलन पश्चिम से किस अर्थ में भिन्न और विशिष्ट है?
पश्चिम पूंजीवाद के अंतर-विकास के उत्तर आधुनिक वित्तीय पूंजी वाले चरण पर है. पश्चिम में प्रकट हुई औद्योगिक क्रांति, जिसे पूंजीवाद की ज़मीन कहा जा सकता है, मूलतः आर्थिक आधार वाले विकास मौडल को लेकर आगे बढ़ी थी. अब हम उस मौडल के संकटग्रस्त हो जाने के दौर में हैं. वह मौडल प्रकृति के संसाधनों को अकूत मानने की वजह से, उनके अपरिमित दोहन पर खड़ा था. उसके संकट ग्रस्त होने की वजह है, इस सच के ऊपर से पर्दा उठ जाना कि प्रकृति के संसाधनों के भंडार भी खाली हो सकते हैं और उनके बेहिसाब दोहन से प्रकृति का संतुलन बिगड़ सकता है. नतीजतन पृथ्वी पर जीवन के विविध रूपों के विनाश का खतरा पैदा हो सकता है.
दूसरे, मनुष्य का प्रकृति से उत्तरोत्तर और गहराई में टूटता रिश्ता उसे आत्मविहीन बना कर सार्थक होने और आनंदित होने की संभावना से अलहदा कर सकता है.
तीसरे, बढ़ता प्रदूषण के कारण अप्राकृतिक परिवेश जीवन की गुणवत्ता के लिये बड़ी चुनौती हो सकता है.
ऐसे में भविष्य की मानव समाज की आंदोलनधर्मिता का, मूलतः सांस्कृतिक होना, लगभग तय हो गया सा लगता है. वजह यह है कि संस्कृति को बचाना, एक अर्थ में प्रकृति में वापसी का पर्याय भी है.
भारत में प्रकट हुआ मौजूदा किसान आंदोलन अब जब अपनी सांस्कृतिक अंतर्वस्तु के साथ सामने आया है, तो उसे भविष्य की वर्तमान के द्वार पर दी गयी एक दस्तक माना जा सकता है.
यहां यह सवाल उठता है कि यदि ऐसा है, तो भारत से पहले, पश्चिम के किसान को कार्पोरेट पूंजी के प्रकृति और पर्यावरण विरोधी विकास मौडल के खिलाफ लामबंद होना चाहिये, जबकि यह परिघटना भारत में पहले ज़मीन पकड़ती दिखायी दे रही है. इसकी कोई तो वजह होनी चाहिये.
आखिर क्यों कृषि के कार्पोरेटीकरण से यूरोप और अमरीका के किसान आंदोलन करने के लिये सड़कों पर उतरते दिखाई नहीं दे रहे? इसकी वजह यह है कि कृषि का कार्पोरेटीकरण उन्हें उस हद तक 'प्रकृति से बेदखल'नहीं करता, जैसा भारत में नज़र आता है. प्रकृति के दोहन के पूंजीवादी इतिहास का निर्मम निष्ठुर सच यह है कि यूरोप ने अपने उपनिवेशों के प्राकृतिक संसाधनों का तो बेरहमी से दोहन तो किया, पर अपनी प्रकृति और पर्यावरण को यथासंभव बचाये रखा. अपने उस औपनिवेशिक इतिहास से छुटकारा पाने के बावजूद हालात ऐसे हुए कि हमारे पास आगे विकास करते रहना, उसी सूरत में मुमकिन रह गया था, अगरचे हम भी पहले की तरह ही अपने संसाधनों से खिलवाड़ करते रहते. यह एक तरह से हमारी उत्तर औपनिवेशिक नियति थी कि हम अपनी वन संपदा को उजाड़ते रहे और अपने कृषि मूलक विकास के लिये अपनी भूमि की उर्वरता को रासायनिक खाद और कीटनाशकों से भर कर, प्रकृति से अपने नैसर्गिक संबंधों की बलि चढ़ाते रहे. बढ़ती जनसंख्या से ज़मीनें छोटे-छोटे टुकड़ों में बंटती रहीं, जल स्तर नीचे, और नीचे जाते रहे और छोटे किसानों की बहुतायत वाले इस परिदृश्य में बस किसी तरह अपनी ज़मीन के छोटे छोटे टुकड़ों को बचाये रखना ही प्रकृति से रिश्ता बनाये रखने और किसी तरह गुज़र बसर करते रहने का सबब हो गया.
पश्चिम में जब कृषि का कार्पोरेटीकरण होता है, तो वहां के किसान के सम्मुख ये तमाम चुनौतियां नहीं होतीं. कृषि के व्यावसायीकरण के बावजूद, वहां का किसान प्रकृति और पर्यावरण से बेदखल होने के आसन्न खतरे से उस तरह नहीं जूझता, जैसा भारत के किसान को झेलना पड़ता है.
तो जैसे ही भारत के किसान को लगा कि कृषि के कारपोरेटीकरण से हालात मरणांतक जीवन संघर्ष की हद तक संगीन हो सकते हैं, उसने सड़कों पर उतरने और एक लंबी लड़ाई लड़ने का फैसला कर लिया है. वह जानता है कि अपने मंसूबों की पूर्ति के लिये उसे सत्ता परिवर्तन का हेतु होने की हद तक जाने की नौबत आ सकती है.
तो अगर ऐसा होता है, तब यकीनन किसान आंदोलन क्रांतिकारी बदलाव ला सकेगा और भारत विकास के एक नये प्रकृति पूरक मौडल को खोजने और चरितार्थ करने के मुश्किल काम को अपने हाथ में लेता दिखाई देगा.
इस रूपांतर में, उसकी सर्वाधिक मदद, उसकी सांस्कृतिक चेतना करेगी.
अब हम भारत के परंपरागत परिदृश्य में मौजूद अपनी कृषि संस्कृति वाली विरासत की ओर देख सकते हैं. और फिर वहाँ से सूत्र ग्रहण करके हम भारत के भावी प्रकृति पूरक विकास मौडल की ओर बढ़ सकते हैं.
किसान आंदोलन के दौरान यह बात पूरी तरह रेखांकित हो सकी है कि हमारा किसान अन्न को भगवान मानता है और उसे सब के साथ बांट कर खाने के लिये लंगर जैसी प्रथा को अपना आदर्श मानता है. इस मानसिकता की जड़ें हमारे उस सांस्कृतिक इतिहास में हैं, जो वेदों के समय से लेकर अभी तक जीवंत हैं. इसे समझने के लिये हम इस विरासत में ऐसे विचारों के निरंतर हुए उत्तरोत्तर अंतर्विकास पर एक निगाह डाल सकते हैं:
1.
इन्द्र: सीतां निगृह्णातु तां पूषानु यच्छत I
सा न: पयस्वती दुहामुत्तरामुत्तरां समाम् ll
(ऋग्वेद 4.57.7)
अर्थात् इंद्र, यानी वर्षा करने वाली प्राकृतिक व्यवस्था, सीता को, यानी जुताई की गयी भूमि का वरण करके उसे पूषा, यानी पोषण करने की सामर्थ्य से युक्त कर देता है. इससे वह ऐसी पयस्धिनी अर्थात् दुधारु गाय जैसी हो जाती है, जिससे उत्तरोत्तर पदार्थों को दुहा जा सकता है. यहां कृषि संस्कृति को जन्म देने वाली कुछ ऐसी बुनियादी बातें आ गयी हैं, जो आगे चल कर एक प्रवहमान परंपरा का रूप लेती हैं. खेत में हल चलाते जनक को जब जोती गयी धरती की सीता में एक मंजूषा में धरी कन्या मिलती है, तो उसे ऋग्वेद की इस ऋचा के आधार पर तीता नाम दे दिया जाता है. सीता से राम का विवाह, कृषि संस्कृति के अगले चरण में, इंद्र की जगह राम को ले आता है. वे बनवास के दौरान कृषि संस्कृति को फैलाने वाले ऋषियों की वन के रक्षकों यानी राक्षसो से रक्षा करते हैं. राक्षस वनों के काटने और वहां खेतीबाड़ी करने वालों से नाराज़ हैं, परंतु विकास की इस प्रक्रिया में कृषि संस्कृति, आखिरकार वन संस्कृति पर विजय हासिल करती है.
2.
शुनं न: फाला वि कृषन्तु भूमिंl शुनं कीनाशा अभियन्तु वाहै:ll
शुनं पर्जन्यो मधुना पयोभि:l शुनासीरा शुनमस्मासु धत्तम्II
(ऋग्वेद 4.57.8)
अर्थात् हमारा फाल से मूमि पर कृषि करने के द्वारा शुभ विकास हो. किसान के द्वारा यंत्रों से की गयी वाही अदला जुताई सुभ विकासकारिणी हो. बादलों के द्वारा की गयी मधु और दुग्ध जैसी बारिश शुभ विकास करे. हल के विकास मूलक स्वरूप से हम सभी समृद्ध हों. यहां हम ऋग्वेद में उस शब्द की मौजूदगी देखते है, जो बाद में किसान वाले तदभव रूप में सामने आया. यह शब्द है 'कीनाश'यानी कुत्सित का नाश करने धाला. उसे सीर या हल धारण करने वाला भी कहा गया पंजाबी में किसान को सीरी और किरसान भी कहा जाता है. संभव है ये संबोधन कीनाश और सीरधर जैसे शब्दों से निकले हों. यहां किसान विकास और समृद्धि के मूल में खड़ा है, जिसकी वैदिक ऋचा में स्तुति की गयी है.
3.
सह नाववतु I सह नौ भुनक्तु I सह वीर्यं करवावहै I तेजस्विनावधीतमस्तु I मा विद्विषावहै॥
(ऋग्वेद 10/347)
अर्थात् हम दोनों साथ साथ बचें, साथ साथ खाएं, साथ साथ वीर्यवान हों यानी श्रम करने लायक हों, साथ साथ शोध करते हुए तेज प्रभाव को बढ़ाएं, ताकि हमें किसी से द्वेष न करना पड़े. ... यह वेद मंत्र सहकारी जीवन शैली को कल्याणकारी बताता है. साथ मिल कर खाने की यह जो सांस्कृतिक धारणा है, वह बाद में लंगर प्रथा का रूप लेती है. उपभोग वाला पक्ष नकारात्मक उपभोक्तावाद में न बदल जाये, इस का समाधान यहां उपभोग, श्रम और शोध वृत्ति के समन्वय में खोजा गया है.
4.
जीवन्ति स्वधयाऽन्नेन मर्त्याःl
(अथर्व वेद 12.1.22)
अर्थात् मरणशील प्राणी स्व को धारण करने वाले अन्न से जीवित रहते हैं. ... यहां अन्न को जीवन और स्व अथवा आत्मभाव के आधार के रूप में देखा गया है. यानी इसके बिना न जीवन मुमकिन है, न आत्मोपलब्धि.
5.
ते कृषिं च सस्यं च मनुष्या उपजीवन्ती l
(अथर्व. 8.10.24)
अर्थात् मनुष्य के जीवन का मूल आधार कृषि और उससे उपजने वाली फसलें हैं.
6.
सीरयुजन्ति कवयो युगा वितन्वते पृथक् l धीरा देवेषु सुम्नयो II
(अथर्व. 3.17.1)
अर्थात् सीरयुज यानी हल को जोतने से, युगा यानी जुए के द्वारा पृथ्वी को पृथक करना कविकर्म है. ऐसे किसान सभी देवताओं में धीर सुमनस सोते सैं.
7.
अन्नानां पतये नमः क्षेत्राणां पतये नमःl
(यजुर्वेद 16.)
अर्थात् अन्नों के मालिकों को हमारा सलाम. खेतों के मालिकों को हमारा सलाम.
8.
कृष्यै त्वा क्षेमाय त्वा रय्यै त्वा पोषाय त्वा l
(यजु. 9.22)
अर्थात् कृषि तुम्हारे कुशल क्षेम, धन धान्य और पोषण के लिये है.
9.
अन्नं ब्रह्मेति व्यजानात् I
अन्नाद्ध्येव खल्विमानि भुतानि जायन्ते I
अन्नेन जातानि जीवन्ति I
अन्नं प्रयन्त्यभिसंविशन्तीति I
तद्विज्ञाय. पुनरेव वरुणं पितरमुपससार I
अधीहि भगवो ब्रह्मेति. तं होवाच I
तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व I
तपो ब्रह्मेति. सतपोऽतप्यत I
सपस्तप्त्वा॥
(तैत्तीरियोपनिषद)
अर्थात् उन्होंने जाना कि अन्न ही 'ब्रह्म'है. क्योंकि ऐसा प्रतीत होता है कि अन्न से ही समस्त प्राणी उत्पन्न होते हैं तथा उत्पन्न होकर ये अन्न के द्वारा ही जीवित रहते हैं तथा अन्न में ही ये पुनः लौटकर समाविष्ट हो जाते हैं. जब उन्होंने यह जान लिया तो वे पुनः अपने पिता वरुण के पास आये और बोले ''हे भगवन् मुझे 'ब्रह्म'की शिक्षा दीजिये.'' उनके पिता ने उनसे कहा, ''तप के द्वारा तुम 'ब्रह्म'को जानने का प्रयास करो.''
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि प्राचीन सांस्कृतिक परिदृश्य में अन्न को ब्रह्म मान कर उसका महिमा मंडन और आदर्शीकरण होता है. इस वजह से अनेक देवता, जो कृषि में सहायक होते हैं, किसानों के लिये पूज्य हो जाते हैं. इनमें इंद्र, वरुण और पूषा मुख्य हैं. पृथ्वी पर किसान उनके प्रतिनिधि के रूप में समाज में अपनी उच्चतर स्थिति और प्रतिष्ठा को पाने लायक हो जाते हैं.
अन्न को ब्रह्म के पर्याय के रूप में देखने की वजह से वह जीवन के आधार और प्राकृतिक संसाधनों के सार की तरह हमारे सामने उपस्थित होता है. अन्न ग्रहण करने से पूर्व ब्रह्म के स्मरण का अर्थ है कि मनुष्य उसकी श्रेष्ठता और पवित्रता को, उसके अन्य रूपों से अधिक महत्व दे. इस सांस्कृतिक चेतना की वजह से अन्न के व्यावसायिक रूपों को, अन्न के प्राकृतिक और दैवी रूपों में दखल की तरह देखा जाता है. इस तरह अन्न समाज में अनेक नैतिक मूल्यों के आधार के रूप में हमारे सामने आता है. किसान को उन नैतिक मूल्यों के स्रोत के रूप में देखने की वजह से, मात्र एक व्यवसायी की तरह ही न देखते हुए, 'अन्नदाता'की तरह देखा जाने लगता है.
प्राचीन काल में कृषि संस्कृति अपने भौतिक आधार से आध्यात्मिक आयाम तक स्वाभाविक रूप में विकास करती दिखाई देती है. उस काल तक अन्न का भौतिक संसार अपनी गहराई में ब्रह्म से जुड़े गहरे स्तरों को अपने भीतर ही छिपाए रहता है. ऊपर तैत्तीरियोपनिषद का जो उदाहरण दिया गया है, भृगु आपने पिता वरुण को कहते हैं कि उन्होंने जान लिया है कि अन्न ही ब्रह्म है. तब वे अपने पुत्र को अन्न के और गहरे स्तरों में उतरने के लिए कहते हैं. सिलसिलेवार तरीके से भीतर उतरते हुए भृगु अन्न से प्राण तक जाते हैं, फिर प्राण से मन तक पहुंचते हैं, मन से विज्ञान तक और अंत में आनंद तक का सफर तय करते हैं. इस तरह ब्रह्म के विविध आयाम हमारे सामने स्पष्ट हो जाते हैं. ब्रह्म अपने भौतिक अस्तित्व में अन्न के रूप में प्रकट होकर जीवन को गतिमान करता है और अपने गहरे स्तर में आनंद की अनुभूति के रूप में सामने आता है. यहां ब्रह्म के अन्न स्वरूप होने और आनंद स्वरूप होने के बीच कोई दरार नहीं है.
इसी तरह वह जो कृषक है, वह पृथ्वी पर एक श्रमिक की तरह अन्न उपजाता हुआ भी, स्वर्ग के देवों के पर्याय के रूप में हमारे सामने रहता है. जिसे स्वर्ग कहा जाता है, वह 'भूर्भुवः स्वः'की अखंड अविभाज्य इकाई का स्व-लोक है. स्वर्ग मानी 'स्व में गमन'का मतलब है,, जहां भू अर्थात् पृथ्वी से संबद्ध मनुष्य की चेतना अपने स्व-भाव को पाती है. वेदों में किसानी से जुड़े हुए देवता इंद्र, वरुण और पूषा हैं, जिन्हें किसानों के स्व-भाव का पर्याय कह सकते है. किसान उन देवों के पार्थिव प्रतिनिधि के रूप में हमारे सामने रहते हैं.
संभवतः इसीलिए इंद्र का नाम आज भी उत्तर भारत के जाट बहुल किसानों में अपनी निरंतरता बनाए हुए है. वह देवेंद्र, सुरेंद्र, बलवेंद्र, नरेंद्र, राजेंद्र आदि विविध नामों के रूप में लगभग सभी के नामों में विद्यमान दिखाई देता है. इससे यह साबित होता है कि भारतीय संस्कृति अपने वैदिक काल से लेकर हमारे समय तक कृषक समाज की चेतना का नियमन करती आ रही है.
उपनिषद काल के बाद प्रकट हुए अनेक दर्शन कृषि से संबंधित विविध धारणाओं को गहरे अर्थ की व्यंजना करने के लिए प्रयोग में लाते हैं. पतंजलि के 'योग दर्शन'में मनुष्य के मन को क्षेत्र कहा गया है. क्षेत्र, खेत का ही तत्सम रूप है. विचारों की फसल को वहां क्षेत्रज के रूप में स्मृतियों और संस्कारों के भंडारघर या खलिहान में एकत्र होने वाला उत्पाद माना गया है. इसका नियमन 'सबीज समाधि'की स्थिति तक पहुंचने से संभव होता है. बीज से आगे उसके निरंतर उत्पाद होते रहते हैं. परंतु योग दर्शन यह कहता है कि मनुष्य के कर्म के संसार में अगर किसी को कर्मों के प्रसवित होते रहने की स्थिति से निजात चाहिए, तो उसे 'प्रति-प्रसव'द्वारा 'निर्बीज समाधि'तक जाना होगा. हम देख सकते हैं कि यह पूरी शब्दावली किस कदर खेतीबाड़ी से जुड़ी हुई है. इससे साबित होता है कि प्राचीन काल में कृषि संस्कृति का स्थान हमारी संस्कृति में कितनी गहराई में ज्ञान के उच्चतर रूपों की उपलब्धि के साथ जुड़ा हुआ है.
बाद में स्वयं कृषि को विज्ञान के रूप में विकसित करने के प्रयास भी हुए. जैसा कि कौटिल्य के अर्थशास्त्र में मौजूद अनेक सूत्रों में दिखाई देता है. वहां 'मधु व शकुद लेपन से'बीजों की बेहतर फसल देने की क्षमता के विकास की बात की गई है.
चौथी शताब्दी ईसा पूर्व के आसपास पराशर ऋषि के द्वारा रचित 'कृषि पराशर'नामक ग्रंथ मिलता है, जो खेतीबाड़ी के वैज्ञानिक विकास का ग्रंथ है. इसके अलावा कश्यप ऋषि का 'कृषि सूक्त'भी कृषि को विज्ञान की तरह ग्रहण करने की दिशा में आगे बढ़ता है.
परंतु बाद में मध्यकाल का जो परिदृश्य हमारे सामने उपस्थित होता है, उसमें कृषि के इस भौतिक और वैज्ञानिक पक्ष की बजाय, उसके आदर्शीकरण और प्रतीकीकरण की बात अधिक सामने आती है.
दूसरा फर्क यह पड़ता है कि मध्यकाल तक व्यापारिक पूंजी के उदय के कारण, कृषि से मुनाफा कमाने की प्रवृत्ति ज़ोर पकड़ती है. इससे कृषि को वन के विकल्प की तरह खोजी गयी कुदरती जीवन शैली की तरह अपनाने की सांस्कृतिक चेतना पृष्ठभूमि में धकेल दी जाती है और उसकी बजाय वह एक व्यवसाय के रूप में ग्रहण करने की बात में बदलने लगती है. परंतु हमारी संस्कृति का वह जो प्राचीन आधार है, वह कृषि को पवित्र मानने पर ज़ोर देता रहता है. उसके आधार पर स्थापित जिन जीवन मूल्यों को ग्रहण करने की बात इस कृषि संस्कृति के केंद्र में दिखाई देती है, वे हैं:
- आपसदारी, सहकारिता, सहयोग मूलक लंगर सेवा
- श्रमशक्ति को तप करने के समकक्ष मानने से संबद्ध साधनाभूमि
- 'जैसा बीजोगे, वैसा काटोगे'से जुड़ी न्याय चेतना
- जीवन को सर्वोपरि बनाने के लिये अन्नमय देह को ब्रह्ममय मानने से जुड़ी आत्मबोधक नैतिकता
व्यापारिक पूंजी के द्वारा कृषि को लाभकारी व्यवसाय में बदलने के लिये जिस व्यावहारिकता की ज़रूरत थी, वह किसान को आत्मविरोधी आचरण लगती थी. अपने फायदे को सर्वोपरि मानने से जुड़ी ऐसी व्यवसाय बुद्धि, इस परंपरागत सांस्कृतिक चेतना से मेल नहीं खाती थी. वणिक बुद्धि के वे लोग, जो कृषि के आधार पर जीने वाले किसान और मजदूर के दोहन और शोषण तक चले गए थे, उस काल के कवियों संतो ने उनकी कड़ी आलोचना की है. वे उन्हें दूसरों का खून पीने वाला कहकर नकारते हैं. गुरू नानक ने उनकी बाबत कहा,,
जे रत्त पीवण मानसा
तिन कउ निर्मल चीत
व्यापारिक पूंजी की आलोचना के संदर्भ में उनके जीवन का एक आख्यान भी काफी प्रचलित है, जिस में मलिक भागो जैसे अमीर व्यापारी की रोटी को निचोड़ने से खून निकलता है, जबकि एक गरीब मेहनतकश की रोटी से निकलने वाली वस्तु दूध होती है.
कबीर को भी उस दौर का बाजार और उसके लिये उत्पादों का व्यवसायीकरण, रास नहीं आता. इस वजह से अब सभी के लिये अन्न सहज उपलब्ध नहीं रह गया है. जबकि परंपरागत कृषि संस्कृति उस दौर में प्रकट हुई थी, जब सभी के लिये कुछ न कुछ खाने की आरण्यक व्यवस्था का अभी अंत नहीं हुआ था. कृषि उसमें सहयोगी और पूरक की भूमिका में थी. पर मध्यकाल में व्यापारिक पूंजी के वर्चस्व के कारण यह संतुलन बिगड़ जाता है. सबके लिये अन्न के उपलब्ध न रह जाने के हालात के मद्देनज़र कबीर साईं से गुहार लगाते हैं:
साईं इतना दीजिए, ता में कुटुम समाय
मैं भी भूखा ना रहूं, साधु न भूखा जाए
इसलिए कुछ दूसरे संत भी भूखे रह जाने की स्थिति में गोपाल का भजन न कर पाने से जुड़ी अपनी असहायता का वर्णन करते दिखाई देते हैं. प्राचीन काल में अन्न की ऐसी अनुपलब्धता नहीं थी. हालात बदल जाने के पीछे मध्यकाल में कृषि के व्यापारीकरण की भूमिका को देखा जा सकता है. पर ऐसे हालात को बदल न पाने के कारण उस दौर के कवि, प्राचीन काल की तरह, कृषि के भौतिक और वैज्ञानिक पक्ष के विकास की ओर रुख नहीं करते. उसकी बजाय वे ऐसे 'यूटोपिया'की रचना करते हैं, जो अतीत में मौजूद 'सभी के लिये अन्न की उपलब्धता'की स्थिति को, भविष्य की संभावना बनाता है.
इसे हम मध्यकाल में उपस्थित हुआ, 'कृषि संस्कृति के अंतर्विभाजन'का लक्षण कह सकते हैं. यह अंतर्विभाजन, संस्कृति को भौतिक और आध्यात्मिक संसाधनों में दोफाड़ करता है. एक तरफ व्यापारिक पूंजी के अंतर्विरोधों से संकटग्रस्त हुआ अर्थतंत्र है, तो दूसरी तरफ है यूटोपिया के रूप में अतीत को भविष्योन्मुख स्वप्न में बदलने का विकल्प.
मध्यकाल में कृषि संस्कृति का अंतर्विभाजन इसलिये हुआ होगा, क्योंकि उस दौर तक आते-आते इस्लामी संस्कृति के वर्चस्व के बरक्स, खुद को किसी तरह बचाने की बात अधिक महत्वपूर्ण हो गयी थी. इस वजह से हमारा सांस्कृतिक परिदृश्य अपने भौतिक और वैज्ञानिक नव विकास के रास्ते से भटक कर, भक्तिमय होकर अपने संकट मोचक नायकों की शरण में जाने को बेहतर विकल्प मान बैठा था.
हालांकि सगुण भक्तों की तुलना में, ज्ञानाश्रयी निरगुन संतों के काव्य में प्रतिरोध के स्वर अवश्य गुंजायमान थे, परंतु उनमें से अधिकांश शिल्पकार थे. कृषि का क्षेत्र उनके लिये, सामान्यतया गौण वरीयता का क्षेत्र था. उस दौर में गुरु नानक और जट्ट धन्ना भगत के अलावा सीधे तौर पर खेती करने वाला कोई महत्वपूर्ण रचनाकार दिखाई नहीं देता. नानक और पलटूदास भी व्यापार की ओर रुख करने को बाध्य हुए थे और इसलिये वे ही ऐसे कवियों की तरह सामने आते हैं, जिनके यहां व्यापारिक पूंजी की सर्वाधिक कड़ी आलोचना दिखाई देती है.
दूसरी ओर शिल्पमूलक रोज़गार से जुड़े रैदास और कबीर, इस संदर्भ में, जब यूटोपिये की ओर आते हैं, तो वे नागर परिवेश से अधिक मुखातिब होते हैं. उनका ध्यान बाज़ार के अंतर्विरोधों पर अधिक जाता है. वर्णधर्म, संप्रदाय और जाति के पतनशील रूपों से निजात पा सकने की संभावना भी नागर परिवेश में अधिक मुखर होती है.
दूसरी ओर उसी परिवेश की उपज होने के बावजूद, ज्ञान की जगह भक्ति को अधिक महत्व देने वाले तुलसी और सूर के राम राज्य और गोकुल के रूप में सामने आया यूटोपिया, वर्णधर्म और जाति की मर्यादा में बंधा रह जाता है. उनकी तुलना में, निरगुन ज्ञानाश्रयी संत वर्ण व जाति विहीन भविष्य की संभावना में झांकने की वजह से सर्वस्पर्शी प्रतीत होते हैं.
नानक में कृषि संस्कृति के तत्कालीन अंतर्विभाजन का सर्वाधिक प्रामाणिक रूप दिखायी देता है. वे इसके समन्वय के लिये कृषि के साधनामूलक रूप की ओर देखते हैं. वे 'मन को खेत के रूप में जोतते हुए, उसमें सदाचार के बीज बोने'की बात करते हैं. इस संदर्भ में वे उपनिषद कालीन भाव बोध के अधिक निकट हैं. एक अलग तरह का यूटोपिया उनके यहां भी है, जिसे वे 'सच खंड'कहते हैं. वहां पहुंचने के लिये रास्ता है, उपभोग वृत्ति यानी भूख को संयमित करना और 'किरत करो, वंड छको'की जीवन शैली को अपनाना. उनका इस संदर्भ में किया गया विश्लेषण गौरतलब है:
भुक्खियां भुक्ख न उत्तरे, जे बन्नां पुरियां भार
यानी 'उपभोग के पदार्थों की ढ़ेरी बांध लेने से भी भूख तृप्त नहीं होती'. नानक एक दार्शनिक की तरह अपने समय की चीर-फाड़ करते हुए, एक समाजशास्त्री की तरह सदाचार पर मोहर लगाते हैं.
दूसरी ओर एक अन्य निरगुन संत रेदास चमड़े का काम करते करते, देह की नश्वर चमड़ी के पार झांकने वाले क्रांतद्रष्टा हो जाते हैं. वे जूता भिगोने वाली अपनी 'कठौती में गंगा'को देखते हैं और विषमता से भरे वर्तमान के पार जाने के लिये, अपने 'बेगमपुर'का रूपक बाँधते हैं. सदानंद शाही ने रैदास के इस 'शब्द'का आधुनिक हिन्दी में काव्यानुवाद किया है, जिसे उनकी किताब 'मेरे राम का रंग मजीठ है'से लिया गया है :
मेरा शहर बेगमपुर
यहाँ न दुःख है न दुःख की चिंता
न माल है न लगान की फिक्र
न खौफ़ न ख़ता न गिरने का भय
मुझे मिल गया है ऐसा खूबसूरत वतन
जहाँ ख़ैरियत ही ख़ैरियत है.
अब यदि हम, कृषि संस्कृति के अंतर्विभाजन वाले इस मध्यकाल से अपने समय तक चले आएं, तो कह सकते हैं कि अब हम व्यापारिक पूंजी के दौर से बहुत आगे के कारपोरेटी पूंजी के चरण तक आ गये हैं.
मध्यकाल में व्यापारिक पूंजी ने कृषि संस्कृति का अंतर्विभाजन किया था, अब हमारे मौजूदा दौर की कारपोरेट पूंजी, उस संस्कृति से किसान के अजनबीकरण का हेतु हो गयी है.
यहां तक आते-आते अब किसानों को यह लगने लगा है कि पूंजी का यह नया रूप उन्हें उनके सांस्कृतिक आधार से अलहदा कर देगा. अब यदि इस संकट को हम ठीक से समझ पा रहे हैं, तो सवाल पैदा होता है कि अब इस स्थिति से निकलने के लिए क्या किया जा सकता है?
यहां एक बड़े अंतर्विरोधपूर्ण तथ्य की ओर ध्यान देना ज़रूरी लगता है. मौजूदा सरकार 2017 में 'परंपरागत कृषि विकास योजना'लेकर आती है. वह जैविक खेती से जुड़ी ऐसी योजना है, जो भारत की परंपरागत कृषि संस्कृति का विकास विस्तार करने वाली है. परंतु 3 बरस में ही इस सरकार की नीतियां बदलकर कारपोरेट के बाजार को केंद्र में ले आने वाली हो जाती हैं. अब जब किसान आंदोलन की राह पर हैं, तो वे पहले लाई गई परंपरागत कृषि विकास योजना को सरकार की ही एक नीति की तरह, सरकार के सामने रखते हुए, पूछ सकते हैं कि उसके दृष्टिकोण में इतने बदलाव की वजह क्या है? परंतु वह सवाल अब शायद उतना अहम नहीं रह गया है. अब बात उससे काफी आगे निकल कर, समाज संस्कृतिक रूपांतर की भूमिका बनने तथा बनाने तक चली गई है. यह किसानों के लिए बहुत मुश्किल का समय होने वाला है. परंतु इस उथल-पुथल से यदि भारत के व्यापक समाज सांस्कृतिक रूपांतर के लिए कोई रास्ता निकलता है, तो निश्चय ही भविष्य इस आंदोलन की समाज को देन के प्रति ऋणी अनुभव करता रहेगा.
मध्यकालीन सांस्कृतिक अंतर्विभाजन के समन्वय के लिये, उस वक्त कुछ यूटोपियायी धारणाएं कारगर सिद्ध हुई थीं. पर अब हालात सांस्कृतिक अजनबीकरण से निजात पाने की हद तक चले गये हैं. इससे उबर पाने का एक ही तरीका बचा है, पूरे समाज का सांस्कृतिक रूपांतर, जो एक नये विकास मौडल को लाने के लिये प्रतिबद्ध सत्ता परिवर्तन के उपस्थित होने तक इंतज़ार कर सकता है.
___