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संदेश रासक: ज्ञान चंद बागड़ी

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(Painting courtesy: Aritra Sen)




प्रवासी प्रिय को संदेश भेजने की साहित्य-परंपरा प्राचीन है. पुरानी हिन्दी में रचित अब्दुर्रहमान की कृति संदेश-रासक एक ऐसा ही काव्य है, यही 'प्रवासी'भिखारी ठाकुर के नाटकों में ‘बिदेसिया’ हो जाता है. आज़ादी के बाद भी ऐसे संदेश वाहकों की जरूरत रहती थी जो बाहर नौकरी कर रहे पति को संदेश भेज सकें और पढ़ सकें.

कथाकार ज्ञानचंद बागड़ी की इस कहानी में ऐसी स्त्रियों की ही कथा कही गयी है, जो अपने अकेलेपन में रहती हुई प्रिय की प्रतीक्षा करती हैं,हरियाणवी और राजस्थानी भाषा (राठी भाषा) के प्रयोग ने कथानक की मार्मिकता को और अचूक बना दिया है. ज़ाहिर है इस अकेलेपन में केवल मन नहीं शरीर भी है.

कहानी प्रस्तुत है.   

 

कहानी 
संदेश रासक                                                                                          
ज्ञान चंद बागड़ी

 


कौन यकीन कर सकता है कि जिस रामा भाभी को कभी मैंने देखा था, वो अब इतनी बदल चुकी हैं. मुझे याद है... उनका रंग सोने की तरह दमकता था.  कुएं से जब पानी की जेगड़ लेकर चलती थीं, तो उनकी चाल में एक लय होती थी, एक संगीत होता था, जो आसपास की सभी आँखों को अपनी ओर खींच लेता था. हास-परिहास के बगैर कोई बात उनको कहनी ही नहीं आता थी. उनकी हँसी और परिहास से मोहल्ले में एक नई खनक पैदा होती थी. मोहल्ले में सभी ने उन्हें हमेशा हँसते ही देखा था. एकमात्र मैं ही ऐसा शख्स था, जिसके सामने पति के विरह में उनकी आँखें गंगा-जमुना हो जाती थीं. दूसरा मेरी माँ के सामने भी वह संकेतों में अपना दुख प्रकट कर लेती थीं.  महिलाएं तो वैसी भी बिना कुछ कहे एक- दूसरे का हाल समझ जाती हैं.

 

रामा भाभी अब सांवली हो गई हैं, चेहरे पर झुर्रियां आ गई हैं. अगर वह मुझसे बात करते हुए पहले की तरह छेड़छाड़ नहीं करतीं, तो मैं तो उनको पहचान ही नहीं पाता. वे मुझे अपने घर ले गईं और जल्दी से मेरे लिए चाय बनाकर ले आईं, चाय पीते-पीते ही मैं अतीत की खोह में उतरने लगा....

 

ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात है. चालीस बरस कब बीत गए कुछ पता ही नहीं चला.  हर चीज के भाव कितने कम थे, फिर भी नए राजा को जनता मनहूस ही समझती थी. बाढ़ ने उन दिनों बड़ा कहर बरपाया था. लोग कहते थे कि नया राजा जनता के लिए शुभ नहीं है.  गैर कांग्रेसी शासन का पहला प्रयोग असफल होता प्रतीत हो रहा था. एक दिन स्कूल से घर पहुँचा तो माँ बोली-

 

'आ गया भाई?'

'हाँ, माँ आ गया. गर्मियाँ मैं छुट्टी जल्दी हो जाय सै ना.'

'रोटी खावागो?'

'ना. आधी छुट्टी में खा ली थी.'

'अरे भाई तू रामा बहू की चिट्ठी लिखबा चलो जईये आज.  ऊँका जेठ की छोरी बुलाबा आई थी.'

'ना माँ, तू मना कर दिये उनै.'

'क्यूँ बेटा?'

'रामा भाभी की चिठ्ठी लिखबा मैं बहुत देर लागै सै.  लिखवाती-लिखवाती रोबा लाग ज्यायगी.  मेरो मन और दुखी कर दे सै.'

'अरे ना बेटा महेंद्र. बिचारी को आदमी बाहर रैह्वे सै तो उँको मन ना लागै.  नई छोरी सै, धीरै-धीरै बाण पड़ जाएगी.  पूरा मोहल्ला मैं रामा जैसी एक भी बहू कोन्या.  देखतां ही पावाँ कै हाथ घालैगी.  ऊंतरां भी बेटा आपा कोई बाह्मण-बणिया कोन्या जो सारो मौहल्लो ही पढ्योडो होवै.  बेरो ना बेटा कैन्का भागां सै तू चार आखर पढरो सा.'

 

'तू ठीक कहा सा माँ.  रामा भाभी सै तो बहुत अच्छी, पर दु:खी बहुत रह्वै सै.  मैं चलो जाऊगों चिट्ठी लिखबा.'

'अभी दोफऱ मैं ही चल्यो जा, फेर तू भायलां कै साथ खेलकूद मैं मस्त हो ज्यावागो.'

'ठीक सै माँ, मैं अभी थोड़ी देर मैं चलो जाऊंगा.'

 

स्कूल की वर्दी उतारकर मैं सीधा रामा भाभी की चिठ्ठी लिखने चला गया.

 

'नमस्ते भाभी जी.'

'राम-राम देवर जी. राम-राम.'

'मिल गयो गैलो(रास्ता) भाभी का घर को? जैसो तेरो भाई, वैसो ही तू.  दोनुवां नै मेरी तो कोई फिकर ही कोन्या.'

'मूनैं तो माँ इभी बताई सै भाभी.'

'बिना बताये ना आ सको अपणी भाभी सै मिलबा?'

'लाओ भाभी चिट्ठी लिख दूँ.'

'भाभी कनै के चिट्ठी धरी सै.  या ले एक रुपियो और तीन अंतर्देशी पत्र लिया ओमी बाणिया कनां सै.'

 

मैं बचपन में बहुत सुंदर बालक था. पढ़ता तो अभी तीसरी में ही था, लेकिन था बहुत समझदार.  सारे मोहल्ले की चिट्ठी मैं ही लिखता-पढ़ता था. मेरे पिता बड़े नाते में थे, तो भाभियाँ मुझे देवर जी, लाला जी या स्याणा कहकर संबोधित करतीं.  भाभियों से मैं बचता था, क्योंकि सभी मेरी सुंदरता के कारण मेरे गाल खींचती थीं.

 

'लाओ भाभी चिट्ठी लिख दूँ. ले आया मैं अंतर्देशी. '

'लिख दिये.  कोनसी तावळ(जल्दी) सै.  पहले तो बताओ मेरे देवर के लिए क्या बनाऊँ? क्या खाओगे?'

भाभी बड़ी थी तो मैं शर्माता और कहता 'कुछ नहीं भाभी'

'ओ हो शरमा रहा है मेरा देवर...', ऐसा कहकर वह मेरे गाल काट लेती.

 

'तेरो भाई तो मेरी खबर ही कोन्या ले और तू भी पूछण ना आवा.  देख मून्नै कितनी याद आवै सै, देख मेरो दिल कैंतरां मशीन की तरियाँ धडकै सै.'

 

अचानक भाभी मेरा हाथ पकड़कर अपने दिल और छाती पर रखती और हाथों से अपने अंगों को छुवाती.  मैं छोटा था भाभी की बातों का मतलब थोड़ा-थोड़ा समझता था.

 

भाभी मुझे बाहों में भर कर कहती, 'तेरे भाई से तो अच्छो थो मेरो ब्याह तेरे से ही हो जातो तो तू हमेशा मेरा कनै तो रहतो.

 

आप मजाक कर रह हो ना भाभी.  मेरा ब्याह आपके साथ कैसे हो सकता है?'

'क्यूँ ना हो सकै.  मैं पसंद नही देवर जी को?'

 

'अरे नहीं आप इतनी बड़ी हो और मैं तो अभी बच्चा ही हूं.  बच्चों का ब्याह थोड़ी होता है.'

'आप फिकर मत करो देवर जी.  मैं खिला-पिला कर बड़ा कर लूंगी मेरे देवर को.'

उसके बाद भाभी मेरे के लिए कुछ खाने को मीठा लातीं.  बहुत- सी द्विअर्थी बातें करतीं, जो मुझे उन दिनों समझ नहीं आती थी.  लाओ भाभी  चिट्ठी लिख दूं अब.

 

'लिख दो.  के लिखोगा?'

'जो आप कहोगी वही लिख दूंगा.'

'लिख दो होली पर आयो थो वा.  तो के अब आगली होली पै ही आवैगो?'

 

'मैं लिख रहा हूं, भाभी नै थारी याद आ रही सै.  जल्दी आ जाओ संपत भाई साहब.  ठीक सै?'

 

इतना सुनके भाभी ने मेरे फिर से गाल चूम लिए.  'मेरा हाल देखके तू ही लिखदे.'

'ठीक है, यह भी लिख देता हूं कि आपका मन नही लगता.'ऐसा कहकर भाभी की आँखें भर आई.

'क्या हुआ भाभी?'

 

'लिखदे जल्दी आकै मेरी खबर ले ले नहीं तो मैं कोई "कुवो-झेरो"कर लूंगी.'

'ऐसा नही लिखूँगा भाभी.  परदेश में भाई दु:खी हो जायेगा और सबकुछ छोड़कर भागेगा.'

'तो मैं क्या करूं देवर जी?'

 

'मैं ठीक से लिख दूंगा.  भाई समझ जायेगा.  संपत भाई साहब का भी मन नहीं लगता होगा आपके बिना.  मजबूरी में पड़े हैं परदेश.  बड़ी जातियों की तरह अपणे भी जमीन-जायदाद होती तो क्यूँ परदेश का धक्का खाणा पड़ता.  उरै ही खेती में गुजारो कर लेता.'

 

'ठीक सै भाभी मैं अच्छी तरह लिख दी सै.  अपणा ख्याल रखना.  कोई काम हो तो किसी टाबर नै भेज कै मूनै बुलवा लियो.'

 

'अब कब आवोगे देवर जी?'

'भाई साहब की चिट्ठी आये तो बता देना. '

'बिना चिठ्ठी भाभी सै मिलबा ना आ सको देवर जी? अच्छा कल फिर आना.  थारी खातर आलू-प्याज की पकौड़ी बनाऊंगी. '

'कल नही भाभी. परसो आऊंगा, मेरी ऐतवार की छुट्टी सै.'

'अपनी भाभी कै हाथ लगाओ.'ऐसा कहकर खुद ही जबरदस्ती मेरा हाथ लगवा लिया.

 

दो दिन बाद फिर भाभी से मिलने गया तो वह मोहल्ले के बहुत बच्चों के साथ बातें कर रही थीं.  मेरे को देखते हुए बोली, 'आओ लाला जी, आओ.'

उसने बच्चों से कहा, 'चलो बच्चो, अब मुझे देवर जी से बात करने दो.'

 

'पाणी पीवोगा?'

'नहीं भाभी अभी घर से ही तो आ रहा हूँ.'

'थोड़ी देर भाभी से बतला लो, थोड़ी छाँव ढलते ही आज मेरे देवर की खातर चटपटी पकौडिय़ाँ बनाऊँगी. आ जाओ कमरे में बैठते हैं. बीजणे(हाथ का पंखा) से हवा करूँगी. '

मैं थोड़ा शरमाया, लेकिन भाभी हाथ पकड़ कर भीतर ले गई.

'एक बात बताऊँ लाला जी. '

'बताओ भाभी. '

 

'दिन तो जेठानियों या इन बच्चों के साथ किसी तरियाँ गुजार ल्यूं सूं, पर रात नही कटती.  सारी रात करवट बदलते निकल जाय सै.  दिन में तो गाँव की जवान छोरियाँ आ जाऐं सैं.  उन्नै दरी बणाणो, कढ़ाई सिखाणा, बीजणा और इंडोली बनाना सिखा देती हूँ.  इस बहाने मेरा भी मन लगा रहता है और वक़्त कट जाता है.  कई बार सोचूँ सूँ जै यह छोरियाँ नही हों तो सारा दिन तेरे भाई नै याद करबा का सिवा मेरा कनै कोई काम ही कोन्या.  और तेरा भाई  की खातिर तो मैं  चाहे  मरूँ या जीऊँ.  एक सलाह दो देवर जी.  मैं अपणा छोटा भाई नै बुला लूं के ? कई बार रात में अकेली नै डर लागै सै.  


ऊंतरां तो मूनैं क्याहां को भी डर ना लागै पर अकेली जवान औरत नै गहणा की गठड़ी की तरह अपनी रखवाली करणी पडै सै.

 

मेरा भाई आ जायेगा तो दो- एक बकरी भी रख लूंगी.  दूध-धार को सहारो हो जायेगो.  कुछ पढना चाहेगा तो स्कूल भी कनै सै ही.'


'अच्छा ख्याल है भाभी.  आपका मन भी लग जायेगा.'


'मन लागण खातर तो मेरो देवर सै ना मेरा कनै.  मैं काल ही चाची जी नै कह दूँगी कि मेरा ब्याह तो महेंद्र से करदो.  फैर तो मेर कनै ही सोणो पडैगो देवर जी.  नई दरी और चादर बिछऊंगी थारी खातर. '

 

ऐसा कहकर उन्होंने मुझे चारपाई पर गिरा लिया और मुझे बुरी तरह चूमने लगी.  मेरे हाथों को सारे शरीर पर फिराती रही.

भाभी ने मेरी नेकर उतार दी और हँसने लगी, 'ब्याह करना है तो बुन्नी बड़ी करो देवर जी.  चलो शर्माओ मत.  मैं कर दूँगी बड़ी.  मूनै करणी आवै सै.  अब बोलो पकौड़ी प्याज की खावोगे या आलू की?'

 

'कैसी भी बणा लो भाभी. '

'भाभी पूरे मोहल्ले में घर की सफाई सबसे जादा आप रखते हो.'

'कोई काम ही कोन्या देवर जी.  बखत काटबा की खातिर सफाई ही कर ल्यूं सूं. '

 

यह सफाई भाभी को बहुत बड़े चौक की भी करनी पड़ती है, क्योंकि चार भाइयों की इस साझी हवेली में अब दो भाई ही रहते हैं.  हवेली क्या बाहर के बड़े दरवाजे और पक्की दीवारों से बाहर से जाने वाले लोगों को यह हवेली बहुत बड़ी लगती है, हालांकि भीतर केवल दो ही कमरों पर पक्की छत है.  बाकी के कुछ कमरों पर कच्ची छत है और कुछ छप्पर बने हैं.  चारों भाइयों के हिस्से में दो-दो मकानों की जगह आई है.  जैसा कि बताया बीच में बहुत बड़ा साझा चौक है और चौक के दूसरे हिस्से में मकानों की तरह ही दो- दो मकानों जितनी ही जगह पशुओं के बांधने के लिए है.  रामा भाभी के सबसे बड़े जेठ के दोनों मकान पक्के हैं, लेकिन उन्होंने बड़ा परिवार होने के कारण हवेली के सामने रास्ते के दूसरी तरफ राजपूतों के खेत में से जमीन का एक टुकड़ा लेकर अलग एक बड़ा सा कच्चा छप्पर और पाटोड़ बना ली है और उसका परिवार वहीं रहता है.  

 

इस छप्पर और हवेली के बीच से ही गाँव से बाहर और स्कूल को जाने वाला मुख्य आम रास्ता है. हवेली का दरवाजा रास्ते पर होने के कारण ऊँचाई पर है, जिससे भीतर का कुछ नहीं दिखता.  बड़े से छोटा जेठ भी बाहर ही काम करता है और उसकी पत्नी और एक बेटा रामा भाभी की तरह हवेली में रहते हैं.  उसके सबसे छोटे जेठ ने तीन कमरों का अपना अलग पक्का मकान बाहर बना लिया है. रामा भाभी के पति संपत भाई सबसे छोटे है. उनके हिस्से में आये मकानों में एक की दीवारें पक्की, लेकिन छत मिट्टी की है.  दूसरा मकान एक फूस और लकड़ी का बना छप्पर है. सामने उनके हिस्से के पशुओं के छप्पर में भी उसकी बीच की जेठानी ने गेहूँ का तूड़ा (भूसा) भर रखा है.

 

'ये खावो गरम- गरम पकौड़ी. '

'आप भी खावो ना भाभी. '

'मेरे भोले देवर, भाभी बनायेगी कि खायेगी.  आप खावो, मैं बाद मे खा लूंगी.  नमक - मिर्च देखो. '

'बिल्कुल ठीक.  बहुत सुवाद सै भाभी. '

'बणा भी तो कैन्की खातिर रही हूँ देवर जी. '

'बस भाभी और नही खाऊँगा. '

'बस यह और खालो.  थोड़ा सा रुक जाओ, चाची जी खातर भी ले जाना थोड़ी पकौड़ी. '

 

यह ऐसा समय था जब हमारे पास किसी बात के लिए फुरसत नहीं होती थी. स्कूल का थैला पटकते ही अपने साथियों के साथ किसी छप्पर में ताश की बैठक जमती या नीम के पेड़ पर कानडंका खेलते.  जैसे ही साँझ ढलने को होती तो गाँव के बाहर पीवणे (पानी पीने वाले) कुएं पर जा बैठते और जंगल से लौटते गाँव के पशुओं को देखते. 


सूरज डूबते ही गाँव के दगड़े (आम रास्ता) में गर्मियों का अपना सदाबहार खेल कबड्डी शुरू हो जाता.  उधर पक्षी घोंसलों में घुसते और इधर हम अपने - अपने घरों की ओर लौटते.  घर पहुँचते ही माँ हमेशा की तरह एक ही बात बोलती कि "मिल गयो गैलो घर को बेटा"?

 

एक हफ्ते बाद रामा भाभी का फिर से बुलावा आ गया, क्योंकि संपत भाई साहब की जवाबी चिट्ठी आ गई थी.  चिट्ठी में भाई साहब ने लिखा था की हजार रुपए का मनीआर्डर भेजा है.  सरवण चाची को कहकर महेंद्र को बुलवा लेना और उसे साथ लेकर शंकरिया अहीर से डेढ़ बोरी गेहूं डलवा लेना.  मेरा आना जांटी (जन्माष्टमी) मेले पर ही हो होगा. होली पर आया था, इतनी जल्दी-जल्दी आना नहीं होगा.  अगर मैं आ गया तो मेरी जगह काम पर किसी दूसरे को रख लेंगे और फिर काम मिलना भी मुश्किल हो जाएगा.

 

पत्र सुनकर रामा भाभी फिर से रोने लगीं और घर के भीतर जाकर एक अंतरर्देशी पत्र ले आईं और मुझसे कहा कि लिखो देवर जी.

 

'क्या लिखूँ भाभी?'

'लिखो की मूनैं पैसा ना चहियें.  मूनै तेरो भाई चाहिए.  अगर वा ना आ सकै तो मूनैं ऊठे बुला ले.  एक बात बताओ देवर जी कहीं ऐसा तो नहीं आपके भाई मेरे को  पसंद ही नहीं करते हों ?'

 

'कैसी बातें करते हो भाभी?'

'मेरी माँ तो कहती हैं कि पूरे मोहल्ले में रूप-रंग और चाल-चलन में रामा बहू की कोई भी बहू होड़ नहीं कर सकती.'

'चाची तो कहवै सै.  तेरा भाई की बता?'

 

'पिछली बार संपत भाई साहब आए थे तो जब हम कांकर गाँव के जिंदा बाबा के मेले में गए थे तब बात हुई थी.  भाई साहब ने मुझे दो रुपए भी दिए थे खाने-पीने के खातर.  तीन कोस तक सारे रास्ते आपकी बात करते आ रहे थे.  मुझसे कहते रहे तेरी भाभी अकेली रहती हैं, उसका ध्यान रखना और दुकान से कुछ भी मंगाए तो ला देना.  कुछ भी जरूरत हो तो तू मूनै चिट्ठी लिख दिये.'

 

'तू तो हमेशा अपने भाई के गुण गाते रहणा.  तू भाई की तरफ सा या मेरा कानी ?'

 

'अरे भाभी मैं तो दोनों की तरफ ही हूं.  जो भाई ने मुझे बताया था वह मैं आपको बता रहा हूं.  उसके बाद मैंने भाई से बात की थी कि भाई आप भाभी को दिल्ली क्यों नहीं ले जाते.  भाई ने बताया था की दिल्ली में रहने की कोई उचित व्यवस्था नहीं है.  एक ही कमरे में छह लोग पड़ते हैं.  किसी एक को काम से छुट्टी देते हैं, तो वह दो बख्त का खाना बनाता है.  शहरों में जिंदगी आसान नहीं...  बस मजबूरी है कि गाँव में कोई रोजगार नहीं है तो वहाँ जाना पड़ता है.  भाभी नाराज मत होना.  काम तो सबसे जरूरी है.  मैं कोई ऐसी बात नही लिखूँगा जिससे उनकी चिंता बढ़े. पता नही वे वहाँ किस हालात में रहते होंगे.  मैं लिख रहा हूं कि आप मेले पर आ जाना.  कोई खास बात हो तो बताओ लिख देता हूं.'

 

'रहेगा तो तू भी भाई का ही चमचा ना.  लिख दे जो तेरा मन करे.  हाँ लिख दे जनानी चीज लेतो आवैगो. '

 

'जनाना चीज क्या भाभी?'

'तू तो लिखदे वा समझ जावैगो.'मेरे भोलेपन पर उन्होंने मेरे गाल चूम लिए.  गाल जरूर चूम लिए  लेकिन आज भाभी गुस्से में थी और उन्होंने मेरे से कोई मजाक भी नहीं की.'

 

जन्माष्टमी के मेले पर गाँव के सभी लोग जो बाहर काम करते हैं, गाँव जरूर आ जाते हैं.  संपत भाई साहब भी मेले पर आए थे.  गाँव का यह मेला ही ऐसा अवसर होता है, जब गाँव में सभी से मिला जा सकता है.  गाँव की विवाहित बहन-बेटियाँ भी इस समय गाँव में ही होती हैं और उनके पाहुने भी.  यह लड़कियाँ सावन की तीज पर आती हैं और सलूनों (रक्षाबंधन) के बाद इन्हें अपने ससुराल जाना होता है, लेकिन मेले के कारण उन्हें कुछ दिन और रोक लिया जाता है.  मेले पर इनके पाहुने इन्हें लेने आते हैं.

 

मेला मेली का होता है.  इस बहाने सभी से मिलना हो जाता है.  गाँव में कभी एक साधू खेमदास बाबा ने तपश्या की थी.  उनकी गाँव की बणी (जंगल) में एक समाधी है.  अब सभी उन्हें गाँव में लोकदेवता की तरह पूजते हैं.  बाबा की समाधि के डर से ही गाँव के लोग बणी के पेड़ नही काटते और जानवरों का शिकार नहीं करते.  मेले के दिन सभी के सहयोग से बाबा का लड्डुओं की बूँदियों का भंडारा होता है.  दोपहर के बाद कबड्डी और कुश्ती की प्रतियोगिताएं होतीं है.  इन दिनों चहुँ ओर वर्षा होती है, लेकिन गाँववालों का ऐसा विश्वास है की बाबा कि सेई (सीमा) में उस दिन वर्षा नहीं आ सकती.  उनका यह विश्वास कभी टूटा भी नही है.

 

रामा भाभी के लिए गाँव में बिना पति के अकेले रहना असहाय हो रहा था.  वह मेले के इंतज़ार में गिन-गिनकर दिन काट रही थी.  इस बार उन्होंने मन बना लिया था कि वे किसी भी हालात में अपने पति को उसे शहर ले जाने के लिए मना लेगी.  माँ बता रही थीं कि भाभी ने उनके साथ इस बार बहुत झगड़ा किया था और उनसे कहा कि मुझे भी दिल्ली लेकर चलो.  मेरी माँ ने बड़ी मुश्किल से रामा भाभी को समझाया.  एक अच्छी बात हुई कि मेले पर भाभी का भाई रविंद्र हमारे गाँव आ गया और अब वह यहीं रहने लगा है.


मैं भाभी से मिलता रहता.  अब तो उनके भाई रविंद्र से भी मेरी दोस्ती हो गई.  कोई दो साल बाद मुझे भाभी की बातें समझ आने लगीं, तो मैं उनसे बहुत शर्माता.  उन्होंने भी अब मुझे छूना कम कर दिया था.  वैसे हमेशा द्विअर्थी बातें करतीं.  पहले जो काम वे हाथों से करती थीं, वो अब ज़बान से करती थीं.  भाभी की लम्बाई अच्छी थी, तो उन पर साड़ी और सलवार-सूट दोनों बहुत फबते थे.  भाभी का बदन बहुत कसा हुआ था.  अब मैं बहुत सी बातें समझने भी लगा था.  उनके शरीर के उभार बरबस ही ध्यान खींच लेते थे.

 

भाभी सभी तरह की बातें करतीं, लेकिन मेरे मन में उनके लिए कभी कोई गलत विचार नहीं आया.  मन में उनके लिए बहुत सम्मान रहा.  हाँ अब मुझे उन्हें देखना अच्छा लगता था, विशेषकर आँख बचाकर उनकी छाती पर नजर चली जाती थी.  मैं चिट्ठी लिखने जाता, तो देखता उनके जेठ का बड़ा लड़का कँवर सिंह उनके आस-पास बहुत चक्कर लगाता था.  एक दिन मैंने भाभी से पूछा कि यह क्यों इतने चक्कर लगाता है?

 

'अकेली औरत का रहना बड़ा मुश्किल है देवर जी. मुझे सब पता है कि वह क्या चाहता है.  मेरी जूती कै भी उन्नैं हाथ लगाण नहीं दूँ. '

 

रामा भाभी ही क्या गाँव में बहुत सी महिलाएं इसी तरह विरह में जी रही हैं.  राजपूतों का गाँव है और बहुत से युवक फौज में नोकरी करते हैं.  उन्हें हमेशा पति के छुट्टी पर आने का इंतजार रहता है.  देश का राज एक महिला के हाथ में आ गया, लेकिन देश की महिलाओं की इच्छाओं की किसी को भी कोई परवाह नहीं है.  दो-चार से कुछ ऊंच-नीच हुई भी तो छोटा सा गाँव है, किससे क्या छुपता है.  वैसे भी स्त्रियों की यौन इच्छा और उनका संभोग सुख हमारे यहाँ कभी महत्वपूर्ण नहीं समझा गया.

 

हमारे एक फौजी भाई राजेंद्र सिंह हरियाणा के खेड़ी- तलवाणा से मंजू भाभी को ब्याह करके लाये. उनसे मेरी घिग्गी बँधती थी. वे चिट्ठी लिखवाने मुझे बुलाती और अपने कमरे में अन्दर ले जाती.  उनकी सास हमारी राजपूत ताई जी को दिखाई नहीं देता था.  उनका आशीष लेता, धोक ताई जी ! तो वे जीता रह कहकर बोलती, 'बेटा भाभी की चिट्ठी लिख दिया कर.


भाभी पकड़कर जबरदस्ती कमरे में ले जाती और हरियाणवी बोली में शिकायत करती, 'बड़े भाव बढ़ रे सैं आजकल तेरे.

'भाभी सै डर लागै सै.'

'नहीं भाभी, कुछ नहीं, लाओ चिट्ठी लिख दूं.'

'तनै बड़ी तावळ (जल्दी है) लाग री सै.

 

मुझे जबरदस्ती बिस्तर पर खींचती और  हरकतें करती.  मै कहता भाभी छोड़ो तो कहती, भाभी सोहणी ना लागै के देवर जी.  मंजू भाभी अपने सारे अंगों पर मेरे हाथ फिराती.  सच कहूँ तो मंजू भाभी ने ही मेरा स्त्री शरीर से पहला परिचय करवाया था.  इस आकर्षण के बावजूद भी मैं मंजू भाभी से मिलने से बचता था.  इधर ताई जी को कुछ दिखता तो था नहीं, आवाज होने पर बार-बार पूछती कि क्या हो रहा है. मंजू भाभी जवान और सुंदर थी किंतु रामा भाभी जैसी श्रद्धा उनके लिए नहीं थी.  इतनी गंदी हरकतें करती थी कि मैं उन्हें  लुच्ची भाभी कहता था.

 

एक दिन गाँव में सभी की जुबान पर दलीपिया बावरिया के कँवर सिंह को बुरी तरह पीटने की बात थी.  उसके सारे शरीर पर नील के निशान और दोनों घुटनों पर चोट के निशान थे.  पता नहीं दोनों में किस बात पर झगड़ा हुआ. से तो दोनों "दांत काटी रोटी"की तरह रहते हैं.  सारे दिन एक दूसरे के साथ ही रहते हैं. जोगी के एक लड़के ने बताया कि उसने दोनों को देवी वाले पहाड़ के पीछे साथ में दारू पीते हुए देखा था. मैंने देखा जब तो दोनों हँस-हँस कर बात कर रहे थे.  उसके बाद क्या हुआ, उसे पता नही. कँवर सिंह का बाप बनवारी, दलीपिया बावारिया के खिलाफ पंचायत बुला रहा था, लेकिन उसने बनवारी के पैरों में गिरकर माफी मांगली और बात आई गई हो गई.

 

एक दिन सायं रविंद्र अपनी बकरियों को लिए हमारे घर के पास से जा रहा था, तो उसने कहा, 'ओय महेंद्र ! तुनै जीजी बुलावै थी. '

'साले नाम लेता है.  तेरा जीजा लगता हूँ.  अच्छा भाभी को बोल देना कल दोपहर के बाद आ जाऊंगा.'

 

'ठीक सै, कह दून्गो. '

अगले दिन रामा भाभी के पास गया तो वे हमेशा की तरह हँसती हुई बाहर आई, 'आवो देवर जी आवो.  आज तेरे भाई नै खींचकर चिट्ठी लिखणी सै.  इसी लिखो लाला जी कि चिट्ठी पढ़तां ही भाग्यो चलो आवै. '

 

'बताओ क्या लिखूँ भाभी?'

 

'स्याणा लिख दे मुन्नै किमी भी ना चहिये.  गाँव मैं कोई बाहर की कम्पनी पहाड़ की खान को ठेको लियो सै. बिहार तक का मजदूर आगा काम करबा.  ऊनै लिख दे उरै ही आकै किमी कर ले.  मैं तो थोड़ा मैं ही गुजारो कर लूंगी.'

 

'बात तो सही है भाभी खान में तीन सौ लोग काम कर रहे हैं. काल मैं भी गयो थो. उनको मैनेजर बुलायो थो. सालों बोल्यों तेरा कुत्ता मुझे दे दे. मैंने मना कर दिया उसको.'

'तो यह बात तेरे भाई को समझाना कि अब तो गाँव में भी काम है.'

 

'ठीक है भाभी मैंने ठीक से लिख दिया.  बात सही है अब तो गाँव में ही काम है.'

'देखो! या बात तेरा बूच भाई कै समझ में आ जाए तो. भगवान भी मेरी खातर या ही गाँव ढूंढ राख्यों थो. ऊपर से अनाड़ी भरतार.'

 

'अरे भाभी आपकी तो किस्मत खुल गई. संपत भाई को लड़कियों की कमी थी क्या?'

'ठीक सै लाला जी मैं धन्य हो गई थारे आकै.  लेकिन अबकै नहीं आयो तो ऊंकी और तेरी दोनुवां की रेल बणा दूँगी.  अब बोलो देवर जी क्या खावोगे.  गुड़ की सेल मंगाऊँ सूं बाणिया का सै. '

 

इतना कहकर भाभी ने अपने ब्लाउज से एक बटुआ निकाला और मेरे सामने बहुत से सौ - सौ के नोट पटक दिये.

 

अरे भाभी इतने पैसे आपके पास कहाँ से आये ?

 

चोरी करके लाई सूं.

 

अरे घबराओ मत देवर जी. शेखावाटी से एक मुसलमान खान आवै सै.  वा हमनै गलीचा बणानौ सिखायो सै. अब मैं ऊंकी खातर गलीचा बणाऊँ सूं.  पिछला दो महीना मैं दो हज़ार रुपया जोड़ लिया.  मेरा साथ मैं मोहल्ला की छोरियाँ नै भी गलीचा बणानौ सिखा रही सूँ.  लड़कियाँ भी चार पैसे कमायेंगी तो मजबूत ही होंगी.  अभी यह बात तेरे भाई को जान-बूझकर नहीं लिखी.  अब तो उनकी मैं भी कुछ मदद कर सकती हूँ.  पता नहीं देवर जी उस खान को मेरा क्या अच्छा लगा.  कहने लगा बहन जी मैं तीस साल से गलीचों का काम कर रहा हूं लेकिन ऐसी हुनरमंद और जल्दी सीखने वाली महिला नही देखी.  वह तो कहने लगा कि आज से तू मेरी  बहन और मैं तेरा भाई.  देवर जी यह कौनसा मुश्किल काम था.  दरियाँ तो मैं पहले बनाती ही थी, वैसी ही गलीचे बनते हैं.

 

फिर तो मेरी भाभी जल्दी ही सेठाणी बन जायेगी.

 

मेरे देवर के लिए तो मैं आज भी सेठाणी ही सूं.

 

'अरे भाभी इस कँवर सिंह को तो बहुत बुरी तरह मारा बावरिये ने.'


भाभी रहस्मयी हँसी से मेरी तरफ देखने लगी, 'थम भी नू ही सोचो सो देवर जी कि ऊँ चोर नै बावरियो पीट्यो सै? मेरा भाई दो दिन खातर म्हारै गाँव गयोडो थो.  उठै खालेटिया को सांग (नौटंकी) थी.  मैं भी बोली कि जा हुईया दो दिन.  ऊँ दिन या बावरिया कै साथ दारू पीई सै.  भीतर गर्मी थी तो मैं बाहर खाट घाल ली चूल्हा कानी.  या तो कई दिन सै मेरी ताक मैं थो ही.  हलवो समझ कै भीतर आ गयो ऊँ दिन.  मैं भी जाणै थी.  लोह की राड थी मेरा कनै.  मैं सांस रोक्यां पड़ी थी.  या तो ज्यूँ ही मेरै हाथ लगायो, मैं खड़ी हो गई.  ऊँका बाद तो ऐन्कै दे राड, दे राड ,सुजा कै धर दियो. जाता का दोनो गोड्डा (घुटने) फोड्या.  वा मेरी ताक मैं थो तो मैं भी ऊन्की ताक मैं थी. '

 

'अरे भाभी यह हाथी जैसा शरीर चुपचाप पिटता रहा?'

'देवर जी चोर और जार बहुत कमजोर और डरपोक होते हैं. वैसे भी यह तो मदुआ के नशे में था.  पिटकर चुपचाप बावरियों के रास्ते से चला गया. '

 

'आप किसी को तो बता देते.  माँ को ही बताते. '

 

'नहीं लाला जी.  जब या कही कि बावरिया को छोरो मारी सै तो मैं भी चुप रह गई.  वैसे भी मूनै कोई डर कोन्या.  देवर जी बिरह मैं जळ कै मर जाऊँगी, पर या शरीर तो तेरा भाई को ही सै.'

 

मैं बस आँख फाड़े सिर्फ भाभी को देखता ही रहा.

 

दिन बीतते रहे, देखते-देखते मैं आठवीं कक्षा में पहुंच गया.  अब मैं बहुत कुछ समझने लगा था.  चेहरे पर हल्की-हल्की मूँछें निकल आई थीं.  एक दिन मैं मंजू भाभी की फौजी को चिट्ठी लिखने गया.  हमेशा की तरह भाभी तो मुझे भीतर कमरे में ले गई.  उस दिन भाभी ने  सारी हदें पार कर दी.  वे अपने आपको नियंत्रित नही कर पा रही थी. आसक्ति में बार-बार मुझे बाहों में लेकर चूमने लगी.  मैंने अपने को छुड़ाकर उन्हें समझाने का प्रयास किया.  भाभी यह सब गलत है.

 

क्या गलत है? शरीर को जब भूख लगेगी तो लगेगी ही.  मैं तो तेरे भाई के इंतज़ार में नहीं जल सकती.  यह मेरा शरीर है, इस पर मेरा हक़ है.  मैं जो चाहूँगी, वो करूँगी.  वैसे भी सारी दुनिया के लिहाज का ठेका हम कम पढी औरतें के जिम्मे ही है क्या? शहरों की पढी-लिखी, कमाने वाली औरतें इस लिहाज की परवाह करती हैं?

 

तेरा भाई ही बता रहा था कि हमारे फौज में कितना खुलापन  होता हैसंबंध उडै कोई हउवा  ना होते, तो हम पर इतनी बंदिशें क्यों?

तू जादा दिमाग मत लगा.  मनैं सब बेरा सै के गलत सै और के सही.  इतना कहकर मंजू भाभी ने मुझे कसकर अपनी ओर खींच लिया. 

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ज्ञान चंद बागड़ी
विगत 32 वर्षों से मानव-शास्त्र और समाजशास्त्र का अध्ययन-अध्यापन.

उपन्यास कहानीयात्रा वृतांत और कथेतर लेखन के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में स्तंभ लेखनमासिक पत्रिका "जनतेवर"मे स्थाई स्तंभ "समय-सारांश"वाणी प्रकाशनदिल्ली से "आखिरी गाँव"उपन्यास प्रकाशित. एक यात्रा वृतांत और दूसरा उपन्यास अंग्रेजी- हिन्दी में छपने हेतु प्रकाशनाधीन.

सम्पर्क :
१७२ स्टेट बैंक नगरमीरा बागपश्चिम विहारनई दिल्ली - ११००६३


gcbagri@gmail.com/मोबाइल : ९३५११५९५४०

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