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समय और साहित्य (विजयमोहन सिंह ): शीतांशु



समय, साहित्यऔरविजयमोहनसिंह
शीतांशु

 

विजयमोहनसिंहकीआलोचना-पुस्तकसमय और साहित्य (2012) पर ज्यादा बातें नहीं हुई हैं. इसका एक कारण शायद यह है कि इसमें संकलित निबन्ध, समीक्षाएँ, टिप्पणियाँ, संस्मरण अलग-अलग विषयों पर केंद्रित हैं और इसमें कोई केंद्रीय विषय नहीं है. लेकिन ऐसी किताबें ही कई बार लेखक के मानस को समझने के लिये बहुत उपयुक्त होती हैं क्योंकि देश-दुनिया के अलग-अलग मुद्दों और घटनाओं पर उसके विचार एक ही साथ मिल जाते हैं. विजयमोहन जी ने भूमिका में इस बात का ज़िक्र किया है कि इस संकलन को तैयार करते हुए उन्होंने वैविध्य का ध्यान रखा है. इससे हमारी और मदद हो जाती है. इसके साथ ही यह पुस्तक उम्र के उस पड़ाव पर तैयार की गई है जब अनुभव और विचार दोनों एक लम्बे दौर से गुजर चुके होते हैं. इक्कीसवीं सदी के पहले-दूसरे दशक के परिपक्व विजयमोहन जी के मानस को समझने के लिए यह किताब उपयुक्त है, इसलिए इसके जरिये अलग से बात होनी ही चाहिए.

(१)

विजय मोहनजी उस साहित्यिक बिरादरी से थे जो लाइम-लाइट से दूर बने रहना चाहते हैं, जिन्हें सहज से अतिरिक्त रोशनी आंखों को परेशान करने लगती है. उनसे आधे काम करके बस प्रचार-तंत्र से कई लेखक ज्यादा सुने-देखे-जाने जाते हैं, हालांकि पढ़े कितना जाते हैं इसमें मुझे संदेह है. प्रचार-तंत्र तत्काल के लिए तो काफी काम का होता है पर सच्चा साहित्य, सच्ची आलोचना समयके थपेड़ों को झेल कर ही अपना स्थान बनातहै. विजय मोहन जी की आलोचना, विशेषकर कथालोचना में समय के साथ अर्जित वही स्थिरता दिखाई देती है. समय और साहित्य पुस्तक में भी उसकी कुछ झलक मिल जाती है. इस संग्रह के पहले ही दो आलेख जयशंकर प्रसाद और जैनेन्द्र के कथालोक पर केन्द्रित हैं. दोनों ही आलेख इतने सुगठित ढंग से और सूक्ष्मता के साथ लिखे गए हैं कि यह हालिया समझ आ जाता है कि विजयमोहनजी को कथालोचना में विशिष्ट स्थान क्यों हासिल है.

प्रसादजी पर केन्द्रित अपने आलेख ‘प्रसाद की कहानियाँ: एक पुनरावलोकन’ में मान्यताओं से विपरीत उनकी प्रारंभिक कहानियों में ही यथार्थ ढूंढना, उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य तथा सामाजिक और मनोवैज्ञानिक आयामों पर समान ढंग से विचार करना, विश्व साहित्य के उदाहरणों से उसे समझने का प्रयास करना और अन्त में संक्षिप्त वाक्यों में ऐसे निष्कर्ष निकालकर लाना जो मानीखेज हों, विजयमोहन जी की कथालोचना को विशिष्ट बनाती है. सुखद यह है कि इतने विस्तार में जाते हुए भी पाठ की डोर को कभी भी हाथ से वे छूटने नहीं देते. यह भाव निरंतर दिखाई देता है कि एक साहित्यालोचक के लिए इतिहास-समाज-मनोविज्ञान आदि पहले पाठ के सत्य को समझने के लिए हैं. और चूंकि उनकी दृष्टि सामाजिक-चेतना संपन्न थी इसलिए उन पाठों और वैसे ही लेखकों की ओर उनकी नज़र ज्यादा रही जिनका समाज से गहरा नाता था. आलोचना की सामाजिकता का आलोचना के शिल्प, उपकरणों और उद्देश्य से विजयमोहनजी एक परिपक्व रिश्ता कायम करते हैं.

जयशंकर प्रसाद का विश्लेषण करते हुए अपनी मितव्ययी शैली में वे कुछ ऐसी प्रभावशाली स्थापनाएँ देते हैं जो अचंभित कर देती हैं. इन छोटे-छोटे वाक्यों को देखिए- प्रसादजी अनेक विधेयात्मक अस्वीकारों के कथाकार हैं[1] या प्रसादजी क्रूर विडंबनाओं के रचनाकार हैं (पृ.10) या प्रसाद जी की जीवन-दृष्टि उस मूलभूत भारतीय जीवन-दृष्टि से जुड़ी हुई है जहाँ त्याग और निषेध ही सर्वोच्च मानवीय मूल्य हैं (पृ.11) या प्रसाद जी की सभी रचनाओं में श्रेय और प्रेय दोनों हैं (पृ.16) या प्रसाद जी के भीतर एक अनिकेतन जिप्सी है जो कहीं विराम या विश्राम नहीं चाहता (पृ.17) या स्वाभिमान हमेशा प्रसाद जी की कहानियों में एक बड़े मूल्य के रूप में स्थापित किया गया है (पृ.20) या नाटककार प्रसाद की कहानियों में नाटकीय तत्व सदैव उपस्थित रहता है (पृ.20), आदि. प्रसाद जी के बारे में ये वाक्य वही आलोचक कह सकता है जो भारतीय जीवन दृष्टि को सांप्रदायिक चेतना से इतर उसके आध्यात्मिक सौंदर्य से पहुँचने की कोशिश करे. जो उसकी अंतश्चेतना तक पहुँचने के लिए प्रयासरत होम सतह पर तैरते विकारों तक नहीं. इसी दृष्टि के कारण प्रसादजी के बारे में वे यह भी कह पाते हैं कि प्रसादजी की कहानियों में वैभव का अस्वीकार प्रायः सब जगह है.[2]

गौरतलब यह है कि वे अंतश्चेतना में प्रवेश करते वक्त पुनरुत्थानवादी रूमानियत की फिसलन पर फूँक-फूंक कर कदम रखते हैं इसीलिए वे यह भी रेखांकित करते चलते हैं कि प्रसाद जी के यहाँ यह विधेयात्मक निषेध प्रायः स्त्रियों के ही माध्यम से होता है. इस तरह उनकी स्त्री-दृष्टि पर विद्यमान छायावादी भावबोध को भारतीय आध्यात्मिक श्रेष्ठता के पहचान के क्रम में विजयमोहनजी ओझल नहीं होने देते. यह विजयमोहन जी की सतर्कता है जो अंध-राष्ट्रवाद की सीमाओं में कैद आलोचक नहीं पहचान सकते. इन फिसलनों के प्रति सतर्कता के कारण ही वे यह पहचान भी रखते हैं कि एक सीमा तक प्रसाद जी के संस्कार हिन्दू परंपरा वाले थे, इसीलिए वे घीसू कहानी में घीसू का विवाह बिन्दो से तो नहीं करा सकते थे. स्वाधीन चिन्तन से युक्त विजयमोहनजी की आलोचना-दृष्टि पाठक को इसके बाद दुविधाओं में छोड़ कर पलायन नहीं करती. विवेकपूर्ण चिन्तन का परिचय देते हुए वे प्रसादजी को उनकी दार्शनिक चिन्ताओं के मद्देनजर तत्वचिंतक और दार्शनिक कथाकार के रूप में स्थापित करते हैं.

रचनाकार के कालद्रष्टा होने की शक्ति का रेखांकन भी विजयमोहनजी उसकी भविष्योन्मुखी दृष्टि के माध्यम से करते हैं. कालजयी रचनाओं की कई परिभाषाएं दी जाती हैं. एक सुंदर परिभाषा विजयमोहन जी देते हैं- ‘व्याख्याओं की संभावित असीमता किसी रचना को कालजयी बनाती है.’[3]हालांकि, इस वाक्य को जो पाठक पढ़ रहे हैं उन्हें इसकी अर्थछवियों के प्रति सचेत रहने की जरूरत है. व्याख्याओं की संभावित असीमता की बात करते हुए यह ध्यान रखिए कि अच्छे-अच्छे पाठों की समय के साथ मानवता ने ऐसी दुर्व्याख्याएँ की हैं कि उन्हें कालजयी कहना साहित्य के उद्देश्य पक्ष को भुला देना होगा. जब विजयमोहनजी यह वाक्य कह रहे हैं तो वह मूल्यरहित व्याख्याओं के लिए नहीं है बल्कि ऐसी व्याख्याओं के लिए है जो मनुष्यता को और भी सार्थक दिशा देने में समर्थ हो. विखंडनवाद का उत्तरआधुनिकतावादी पक्ष भी व्याख्याओं की असीमता की ओर ले जाने की बात करता है किन्तु वहाँ यह मूल्य पीछे छूटता चला जाता है. विजयमोहनजी की पीढ़ी के कई रचनाकारों को व्याख्याओं की असीमता की यह बात बहुत रोचक लगती है जो पाठ को घिसी-पिटी व्याख्याओं से बाहर लाती है. सतही पाठक जब उनकी ऐसी पंक्तियों तक पहुँचते हैं तो उसे उत्तरआधुनिकतावाद में ही कसने लगते हैं. पाठक को यह ध्यान रखना चाहिए कि रचनाकार को वे कालद्रष्टा उसकी भविष्योन्मुखी दृष्टि के संदर्भ में कह रहे हैं और पाठ उसी दृष्टि की उपज होती है.

शिल्प को किसी एक सीमित वाद में बाँधकर रखने वाले आलोचक नहीं थे विजयमोहनजी, लेकिन मूल्यों और मर्यादाओं के हिमायती थे. वे शिल्प के अभिनव प्रयोग से खासे आकर्षित होते थे और विश्लेषण के वक्त संवेदना को किनारे नहीं छोड़ते थे. उनकी आलोचना में शिल्प और संवेदना एक दूसरे के हाथ में हाथ रख कर चलते हैं, आगे पीछे नहीं. हिन्दी आलोचना में संवेदना के प्रति जितनी चेतनशीलता दिखाई देती है तुलनात्मक रूप से शिल्प के प्रति नहीं, जबकि सब ये स्वीकार करते हैं कि गहन संवेदना की अभिव्यक्ति के लिए गँठा हुआ शिल्प चाहिए. आजकल की आलोचना में संवेदना और शिल्प की दूरी और बढ़ गई है. शिल्प के विश्लेषण की जो कठिनाइयाँ हैं उसका सामना करने से लोग बचते भी रहते हैं, लेकिन विजयमोहनजी इस लिहाज से खासे समृद्ध हैं. कोई भी आलेख हो वह शिल्प को उतनी ही चेतना के साथ परखते चलता है जितना कि संवेदना को. जिन आलोचकों से हम यह सीख सकते हैं कि इनमें कोई अनिवार्य विरोध नहीं है बल्कि ये एक दूसरे के पूरक हैं, उनमें विजयमोहन जी का नाम अग्रणी है. और यह भी सीख सकते हैं कि इस समानता को हासिल करने के लिए गंभीर अध्ययनशीलता और सचेत साहित्य विवेक की निर्मिति का प्रयास अनिवार्य है. इस पुस्तक के छोटे-छोटे लेख और समीक्षाएँ भी इस बात की तसदीक करते हैं.

आलोचना के उपकरणों के संदर्भ में देखें तो वे मूल्यों के प्रति गहरे सचेत थे और रचना को उस पर कसते थे. जिन बातों के लिए वे सार्त्र, प्रसाद या जैनेन्द्र की तारीफ करते मिलते हैं उससे उनके अपने आलोचक का पता चलता है. मजेदार है कि जब वे प्रसाद की आलोचना की ओर बढ़ते हैं तो दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, यथार्थ और आदर्श, भारतीयता के रास्ते प्रवेश करते हैं और जब जैनेन्द्र की ओर बढ़ते हैं तो सबसे पहले आधुनिकता पर केन्द्रित होते हैं. पाठ की गहरी पहचान के रास्ते वे आलोचना के उपकरणों तक पहुँचने वाले थे, न कि पहले ही उपकरण निकाल कर रख लेने वाले आलोचकों में से, भले ही पाठ की माँग कुछ और हो.

इस पुस्तक की समीक्षाओं से यह भी पता चलता है कि मनोविज्ञान में उनकी विशेष रुचि थी. यह विषयों और लेखकों के उनके चुनाव से पता चलता है. प्रसाद और जैनेन्द्र के पाठ में इसे एक उपकरण के रूप में वे प्रयोग करते हैं. सार्त्र का भी इस दृष्टि से गंभीर महत्व है. पुस्तक के कई अन्य लेखों में भी मनोविज्ञान और साथ ही अस्तित्ववाद के संदर्भ में भी निरंतर विचार दिखाई देता है. लेकिन यह भी बराबर दिखाई देता है कि इस मनोविज्ञान को वे अपनी सामाजिक चेतना संपन्न दृष्टि में बाधा नहीं बनने देते बल्कि उसे एक माध्यम बना लेते हैं. कहीं कहीं यह समस्या तब बनने लगती है जब पॉपुलर विधाओं और नॉर्मन मेलर जैसे लेखकों के विश्लेषण के क्रम में वे एक पक्ष पर ही ज्यादा जोर देते रह जाते हैं और वह अनुपात डगमगा जाता है जो प्रसाद और जैनेन्द्र के विश्लेषण में दिखाई देता है, भीष्म साहनी, रवीन्द्र कालिया और प्रभा खेतान के विश्लेषण में दिखाई देता है.

एक सतर्क और संवेदनशील आलोचक के अनुरूप भाषा की स्पष्टता, सहजता आदि को लेकर विजयमोहन जी बेहद सचेत थे. समकालीन लेखकों की भाषा की जो समस्या है उस पर विचार करते हुए उन्होंने रेखांकित किया है कि ‘सामान्य हिन्दी गद्य इधर शिथिल, दुरुह और अनावश्यक शब्द विस्फार से ग्रस्त है. विचारों तक पहुँचने के लिए प्रयुक्त भाषा से जूझना पड़ता है जो प्रायः समय से परे होती है.’[4]यहाँ एक बात जोड़ने की जरूरत है कि भाषा की अस्पष्टता का एक बड़ा कारण विचारों की अस्पष्टता है जो समय की पैदाइश है. नवउदारवादी वैश्वीकरण विचारों की अस्पष्टता के प्रचार-तंत्र पर ही टिकी है. दूसरी ओर, विजयमोहनजी के पास मंदाकिनी की तरह प्रवाहित भाषा है, एकदम पारदर्शी, जिसकी दिशा का पता हो लेकिन जगह-जगह जो आपको चमत्कृत करती चले. उन्होंने यह भाषा उक्त कारणों के साथ अपने विचारों की स्पष्टता के कारण भी अर्जित की है. साथ ही वाग्विस्फार से वे खासे क्षुब्ध होते थे. उनके इस क्षोभ से प्रेमचंद भी नहीं बच सके. वे लिखते हैं- ‘उपन्यासकार प्रेमचंद के विपरीत जैनेन्द्र किसी भी प्रेमकथा में अत्यधिक वाग्विस्फार और अतिकथन के विरोधी हैं. वे मितकथन के कथाकार हैं और संक्षिप्तता और सांकेतिकता उनकी रचनाओं की विशेषता है. आधुनिक कथा कला में संक्षिप्तता तथा सांकेतिकता को ही अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम माना गया है. शब्दों की शाहखर्ची और अपव्यय शब्दों की शक्ति को बिखरा देता है. इससे उनकी (शब्दों की) भावात्मक संप्रेषण क्षमता कुंद हो जाती है. इसलिए जैनेन्द्र के पात्र कम से कम शब्दों में बात करते हैं. बड़बोलापन केवल यह नहीं कि कला नहीं है, बल्कि स्वभाव का दुर्गुण भी है. मितकथन से भाषा में चित्रात्मकता, सांकेतिकता तथा प्रतीकात्मकता आती है और आधुनिक कथा साहित्य के ये अनिवार्य गुण हैं.’[5]इसी लिहाज से उन्हें जैनेन्द्र को हिन्दी का पहला ‘आधुनिक’ कथाकार माना जाना उचित लगता है और प्रेमचंद में उन्हें वाग्विस्फार और अतिकथन दिखाई देता है. निश्चित रूप से इस स्थापना से सहमति कठिन है लेकिन स्थिर-चित्त का पाठक उनकी आलोचना पढ़ते वक्त यह सीख सकता है कि अर्थ-संप्रेषण करते हुए मितव्ययी कैसे बना रहा जा सकता है. एक आलोचक के रूप में रचना में मितकथन, चित्रात्मकता, सांकेतिकता और प्रतीकात्मकता उन्हें आकर्षित करती है.

यहाँ दो बातों को लेकर विजयमोहन जी की आलोचनादृष्टि की बुनावट की एक-दो सीमाएँ पहचान में आती हैं. पहला, जब आधुनिकता की बात की जाती है तो उसे पारंपरिक नैतिकता से विशेष रूप से जोड़ कर देखा जाता है और जैसा कि विजयमोहन जी जैनेन्द्र के प्रसंग में रेखांकित करते हैं, इस नैतिकता को प्रेम और मानवीय संबंधों के साथ. प्रेमचंद निश्चित रूप से इस किस्म के आधुनिकता से जुड़े हुए नहीं थे लेकिन आधुनिक कहीं अधिक थे क्योंकि उनकी नैतिकता सिर्फ प्रेम और मानवीय संबंधों के भूलभुलैया (अंग्रेजी का मेज़ शब्द यहाँ ज्यादा उपयुक्त है) में नहीं भटकती बल्कि वह मानवीय नैतिकता को जिम्मेदार बनाकर उन दिशाओं में ले जाती है जहाँ आधुनिकतावाद के नाम पर ढेर सारे लोग नहीं पहुँच पाते और पुनः अपनी इस सीमा को प्रतीकों, मितकथनों, और संकेतों से ढंकने की कोशिश करते हैं. दूसरी ओर, प्रेमचंद की भाषा पर विचार करते हुए हमेशा यह ध्यान रखना होगा कि उन्होंने साहित्य को जिस दायरे में खींचा था शब्दों की जरूरत उन्हें ज्यादा थी- हिन्दी साहित्य को इस नई दुनिया का परिचय देने के लिए भी और संप्रेषण के लिए भी. जब वह दायरा बढ़ गया तो ठाकुर का कुआँ और कफन जैसी रचनाएँ आईं जिनकी मितव्ययिता पर अनेक कहानियाँ कुर्बान की जा सकती हैं.

विषयान्तर होते हुए पुनः यहाँ रेखांकित करना जरूरी है कि मितकथन और प्रतीक निस्संदेह कथा की संरचना को समृद्ध करते हैं लेकिन रचनाकार किस उद्देश्य से मितकथन के पास पहुँचा है यह पहचानना आलोचना की नई जिम्मेदारियों में से एक है. क्या मितकथन एक अनावश्यक मिस्टिसिज्म पैदा करने के लिए प्रयोग में लाया जा रहा है, क्या इस मितकथन के पीछे सिर्फ सीमित नैतिकताबोध और मध्यवर्गीय खालीपन है, कहीं इस मितकथन और प्रतीक का प्रयोग ऐसा तो नहीं है कि वे अर्थ पाठक तक पहुँच ही नहीं पा रहे जो पहुँचने चाहिए और लेखक इसी का सेलिब्रेशन कर रहा है कि वह इतना गूढ़-गंभीर है कि उसे समझा ही नहीं जा सकता! कहीं ऐसा तो नहीं है कि रचनाकार के पास कहने के लिए कुछ खास नहीं है और वह शिल्प की इन विशिष्टताओं की आड़ में छिपा बैठा है! समय के साथ अपने इस उपकरण के प्रति विजयमोहनजी की दृष्टि जितनी सचेत होनी चाहिए थी शायद उतनी हो नहीं पाई और इसका फायदा ऐसे भी लेखकों को मिला जिनकी आधुनिकताबोध का प्रदेश सीमित है.

विचारों की स्पष्टता और उसके ईमानदार संप्रेषण की प्रवृत्ति ने विजयमोहन जी की तर्कशैली के गठन को काफी प्रभावोत्पादक बना दिया है. इसका एक उदाहरण है सुनीता उपन्यास के अंत के संदर्भ में विद्यमान मतभेद. इस मतभेद के संदर्भ में जैनेन्द्र के पक्ष में जिस ढंग से विजयमोहन जी अपनी बात रखते हैं वह बेजोड़ तर्क-शैली का उदाहरण है. जैनेन्द्र की रचनाओं को पढ़ते वक्त यह स्थिति बराबर बनी रहती है कि पाठक पूरी तरह उसमें डूब जाए और अंत में कोई ऐसा प्रश्न उसके सामने आकर खड़ा हो जाए कि उसे यह तय करना पड़े कि वह जैनेन्द्र के साथ में है या उनके विरोध में. इतनी प्रवाहमयी भाषा और इतनी संवेदनात्मक कथावस्तु जैनेन्द्र के पास है कि इससे बचना कठिन हो जाता है. विजयमोहन जी की आलोचना-दृष्टि की परिपक्वता यही है कि वे जैनेन्द्र के पाठ में डूबते भी हैं और उससे अपनी दूरी भी बनाकर चलते हैं. इसका सुफल यह मिलता है कि वे सुनीता की कथावस्तु में घुली हुई जैनेन्द्र की विचारधारा को बहुत बारीकी से निकालकर लाते हैं. क्रान्तिकारी हरिप्रसन्न के चारित्रिक स्वरूप और विकास के माध्यम से वे किस तरह गाँधीवादी दृष्टि की महत्ता का परिचय देते हैं इसे विजयमोहनजी पहचानते हैं. एक तरह से वे हिंसा आधारित विचारधारा में विद्यमान तात्कालिक रूमानी आकर्षण की संभावनाओं का परिचय देते हैं और यथार्थ का सामना होने पर पर उससे पलायन कर जाना उनकी विवशता साबित करते हैं. ऐसा इसलिए क्योंकि जैनेन्द्र की नज़र में वह ठोस जमीन पर वैसे ही आधारित नहीं है जैसे कि गाँधीवाद. निस्संदेह जैनेन्द्र की इस दृष्टि को प्रश्नांकित करने के हमारे पास कई तर्क हो सकते हैं लेकिन वह यहाँ अभिप्रेय नहीं है. अभिप्रेय यहाँ यह समझना है कि किस शानदार तरीके से ऐसे पाठ में से विजयमोहन जी लेखक के विचारधारात्मक पक्ष को दुविधारहति भाषा में निकालकर लाते हैं जहाँ तक पहुँचना कई पाठकों-आलोचकों के लिए संभव ही नहीं है.

इसके साथ-साथ वे उपन्यास के मनोवैज्ञानिक आयाम को भी उसी बारीकी से पकड़ते हैं. सुनीता के हरिप्रसन्न के सामने निर्वस्त्र होने की घटना को वह जिस तरह शुद्ध भारतीय सायकी और पातीव्रत्य और सतीत्व से और अवचेतन से जोड़ते हैं वह आकर्षक है. उनका कहना है कि सुनीता का शुद्ध भारतीय मानस (सायकी) अपने पातीव्रत्य तथा सतीत्व को विसर्जित करने के लिए प्रस्तुत नहीं है. अतः सहसा निर्वस्त्र होना एक अचूक उपाय (डिवाइस) है और सहसा उसका अवचेतन ही यह उपाय खोज निकालता है. इसके बाद निष्कर्ष में वे कहते हैं ‘सुनीता में निश्चित रूप से एक जीवन दर्शन है किन्तु जैनेन्द्र ने उसे कथास्थिति में इस तरह घुला (डिसॉल्व) कर दिया है कि उसकी वैचारिकता, रचनात्मकता के आड़े नहीं आती. रचना में विचारों का इस तरह घुल-मिल जाना किसी कृति की महत्ता की बहुत बड़ी कसौटी है.’[6]

समस्या तब हो जाती है जब सामाजिकता का महत्व समझने पर भी आंतरिक दुनिया के प्रति अतिरिक्त आकर्षण हो जाए. ऐसा नहीं है कि विजयमोहनजी की आलोचना में यह च्युति है. यह सीमा का रूप तभी लेती है जब वह तुलनात्मक हो जाए. यानी तुलनात्मक आलोचना की च्युतियों का शिकार अगर विजयमोहनजी न हों तो उनकी आलोचना जैसा संतुलन विरले ही दिखाई देता है. तुलनात्मक आलोचना के महारथियों ने अतीत में बहुधा यह किया है कि शिल्प का गठन ढूँढकर रचनाकारों को प्रेमचंद के प्रतिपक्ष में खड़ा किया है. ऐसी जगहों पर आलोचक शिल्प और संवेदना के साहचर्य को भूल जाते हैं, देश-काल को भी. असल में प्रेमचंद की संवेदना की कमियों की तुलना की ओर जाना जब संभव नहीं हो पाता तो उसे खंडित कर सिर्फ शिल्प तक लाया जाता है, इस प्रश्न को भुलाते हुए कि जिन संवेदनाओं को जैसे शिल्प में स्वाधीनतापूर्व दौर में प्रेमचंद ने रखा, वैसा कितने लोग उन संवेदनाओं के साथ उस समय कर पाए. किसानों की संवेदनाओं को छूने का साहस ही कितने लोग कर पाए? जैनेन्द्र यह लिखते तो हैं कि ‘गोदान यदि मैं लिखता’, सवाल यह है कि किसने रोक रखा था?

आप किन संवेदनाओं में प्रवेश करने की हिम्मत कर रहे हैं यह शिल्प को गहरे निर्धारित करता है. पता नहीं क्यों प्रेमचंद से दुखी आलोचक इस बात को भूल जाते हैं. एक बार शमशेर की प्रेम कविताओं और उनकी राजनीतिक विचारधारा से प्रेरित कविताओं की तुलना करके, रामचंद्र शुक्ल की आलोचना और उनकी कहानी की तुलना करके, रामविलासजी के वैचारिक निबंधों और प्रोपैगैण्डायुक्त कविताओं की तुलना करके, शिल्प और संवेदना के इस अनूठे रिश्ते को सहज समझा जा सकता है. इसमें संदेह नहीं है कि आंतरिक और बाहरी विश्व में एक तारतम्यता साधने का प्रयास हिन्दी आलोचना को करना है लेकिन एक संतुलन के साथ. यह संतुलन थोड़ा भी विस्थापित हुआ तो स्थापनाएँ विरोधाभासी हो सकती हैं, जैसे कि विजयमोहनजी का यह कथन- ‘बीसवीं सदी के चिन्तन और साहित्य को किसी और व्यक्ति ने इतना आन्दोलित नहीं किया जितना सार्त्र ने.’[7]राजनीतिक चिन्तन और साहित्यिक इतिहास से वाकिफ सामान्य अध्येता भी विजयमोहनजी के इस कथन की अतिवादिता को समझ सकता है. इससे क्षति इस युग को आन्दोलित करने वाले अन्य विचारकों की उतनी नहीं होती जितना कि सार्त्र की. खैर, यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी स्थापनाएँ विजयमोहनजी के साहित्य में प्रक्षेपों की तरह हैं. अन्यत्र प्रेमचंद के महत्व का जो रेखांकन उन्होंने किया है वह इसका प्रमाण है. ‘एक लेखक के पाठ-कुपाठ’ में वे लिखते हैं कि ‘संभवतः भारत में ही नहीं, पूरे विश्व में टॉलस्टॉय, बाल्जाक आदि कुछ उपन्यासकारों को छोड़कर शायद ही किसी अन्य उपन्यासकार के उपन्यासों का क्षेत्र इतना व्यापक और विविधवर्णी हो.’[8]

इस पुस्तक में एक आलेख केदारजी के संग्रह ‘टॉलस्टॉय और साइकिल’ पर भी है, जिसे पढ़कर थोड़ी निराशा होती है. शायद इसलिए भी कि उनकी कथालोचना इतनी मँजी हुई और परिष्कृत है कि जब आस्वादन के अनुरूप पाठ न मिले तो स्वरभंग जैसा भाव पैदा करने लगता है. केदारजी के संग्रह की आलोचना करते हुए भी वे कई ऐसे प्रसंगों की ओर जाते हैं जिससे कविताएँ नहीं खुलतीं. आश्चर्य होता है कि विजयमोहनजी पाठ से इतने दूर क्यों जा रहे हैं, वह भी तब जब केदारजी उनके सबसे प्रिय और निकट के कवियों में से थे. शायद ‘कल्पना’ से काव्य का जो संबंध विजयमोहनजी का टूटा मेरे खयाल से वह उस स्तर तक कभी कायम नहीं हो पाया जो कथा के साथ था. शायद उनके मन में यह कहीं बैठ गया था कि यह दुनिया मेरे लिए नहीं है. उन्होंने लिखा है, ‘बाद में कल्पना में मणि मधुकर आए और उन्होंने भी मेरी कुछ कविताएँ कल्पना में छापीं किन्तु सहसा वे कल्पना में भेजी गई मेरी कुछ कविताएँ लेकर वहाँ से चले गए और उनका उपयोग उन्होंने अपनी एक पत्रिका में कर लिया. इससे पहले मेरा मन खिन्न हो गया और मैंने कविताएँ लिखना ही बन्द कर दिया. इससे पहले बनारस में ही मैं कल्पना से एक बार बहुत निराश हुआ था जब मैंने बड़े श्रम और तन्मयता के साथ तीसरा सप्तक की एक काफी लंबी समीक्षा लिखी थी, जिसे मैंने नामवरजी और केदारनाथ सिंह को सुनाया था. उसे सुनकर नामवरजी ने प्रतिक्रिया अपनी विशेष शैली में यह कह कर व्यक्त की थी कि मैं तीसरा सप्तक की समीक्षा इस तरह और इनते ब्यौरेवार ढंग से नहीं लिखता. केदारजी को वह समीक्षा बहुत अच्छी लगी थी और शायद उन्हीं के कहने पर मैंने उसे कल्पना को भेज दिया था. किन्तु वहाँ से वह हमेशा की तरह बैरंग वापस आ गई.’[9]

विजयमोहनजी की आलोचना-दृष्टि का एक बहुत ही आकर्षक पक्ष है कि उनमें रचनाकार की केन्द्रीय वृत्ति तक पहुँचने की गहरी प्रवृत्ति है. जिस तरह ‘समय और साहित्य’ में वे ब.व.कारंत, रवीन्द्र कालिया, प्रभा खेतान, विद्यासागर नौटियाल, बेबी हालदार, भीष्म साहनी, दूधनाथ सिंह, रज़ा की चेतना में प्रवेश करते हैं उससे साफ हो जाता है कि रचना की व्याख्याओं की असीमता को पहचानने के लिए भी यह जरूरी है कि रचनाकार की मृत्यु की धारणा से बचा जाए. ये आलेख इस बोध को विस्तार देते हैं कि रचनाकार के जीवन-सत्य का रचना की व्याख्याओं की असमीता से कोई विरोध नहीं है बल्कि वह इस प्रक्रिया में जोड़ने का ही काम करता है. ऐसा नहीं है कि ये आलेख विस्तृत आलोचनात्मक टिप्पणियाँ हैं, बल्कि अधिकांश तो संक्षिप्त समीक्षाएँ हैं, जिनका आस्वादन अधूरा ही रह जाता है. लेकिन इन छोटी समीक्षाओं में भी रचनाकार की विश्व-दृष्टि को पहचानने की केन्द्रीय वृत्ति उनमें बनी रहती है, जो आकर्षित करती है.

‘समय और साहित्य’ का महत्व सिर्फ सार्त्र, प्रसाद और जैनेन्द्र पर गंभीर आलोचना-दृष्टि से सिंचित आलेखों के लिए नहीं है बल्कि इसमें ऐसी रचनाएँ भी हैं जो विजयमोहन जी के लेखकीय वैशिष्ट्य के अन्य आयामों को भी उजागर करती हैं. इस दृष्टि से ब.व.कारन्त को केन्द्र में रखकर लिखे गए संस्मरण का भी अलग ही महत्व है. कारन्त के रंगकर्म को समझने के लिए उनके ऊपर लिखे गए कई आलोचनात्मक लेखों की तुलना में यह संस्मरण कहीं भारी है. विजय मोहन जी ने शीर्षक दिया है ‘नीरव रातों में बाढ़ का पानी और एक लंबी रंग यात्रा’. अत्यंत प्रवाहमयी भाषा में और अंतरंगता से सिंचित शैली में पिरोया हुआ इसका गद्य जहाँ एक ओर व्यक्ति कारन्त से पाठक को अभिन्न कर देता है वहीं आत्मीयता से भरी तटस्थता (यह कैसे संभव हुआ पता नहीं) के साथ उनकी रंगदृष्टि की बारीकियों से भी परिचित करा देता है. और पाठ की शुरुआत ऐसी कि नई कहानी के दौर की किसी कहानी का टुकड़ा हो... परिन्दे का कोई अंश हो. देखिए- ‘फ्रिट्ज वेनेविट्ज का टाइपराइटर सुबह छह बजे से ही सुनाई पड़ने लगता- कभी-कभी बारिश की आवाजों से टकराता हुआ (वे बारिश के दिन थे). मुझे जरा देर सोचना पड़ता- मैं कहाँ हूँ और यह कैसी आवाज है?’[10]इसी तरह ‘काशी, कल्पना और मैं’ में तीनों एकाकार हो गए हैं. ये विरले ही लोग कर सकते हैं कि बता रहे थे कल्पना की कहानी और बताते-बताते उस समय के काशी और अपनी दास्तान भी उसी अंतरंगता से बता ले गए. कल्पना पर उनका संस्मरण उनके साहित्यिक व्यक्तित्व, अभिरुचियों, प्रगतिशील मान्यताओं को समझने के लिए बहुत महत्वपूर्ण है. ब्राह्मणवादी रूढ़िवाद के खिलाफ उनका व्यक्तित्व सचेत था और आधुनिक मान्यताओं की ओर अग्रसरित. इसीलिए काशी में उन्हें एक दौर में साहित्यिक शून्यता और पतनशीलता दिखाई देती है तो दिल्ली में बेगानापन, छल-कपट और अवसरवादिता. यह उनकी संवेदनशीलता का परिचायक है. जब रचनाकार बहुत संवेदनशीलता और नैतिकता से परिपूर्ण हो जाए तो बस आजीवन अपने लिए घर ही तलाशता रह जाता है, जहाँ वह पुरसुकूँ रह सके. यही उसकी नियति है.

विजयमोहनजी में भारतीयता का गहरा बोध था और यह बोध आजकल के शोरगुल वाले राष्ट्रवाद में डूबा हुआ विकृत बोध नहीं था बल्कि परंपरा की सरिता में प्रवाहमान था. रूढ़ियों से ग्रस्त नहीं था, नैतिकता से परिपूर्ण प्रगतिशीलता से निर्मित था. कारन्त की पहचान करते हुए वे इसी ढंग की भारतीयता की पेशकश करते हैं. परंपरा से वे इस भारतीयता का जीवन्त और सघन संबंध चाहते हैं रूढ़ और यथास्थितिवादी नहीं. कारंत का महत्व उनकी दृष्टि में साहित्य, संगीत और रंचमंच तीनों की परंपरा से इसी जीवन्त और सघन संबंध के कारण था जहाँ कोई सचेत प्रयास नहीं था बल्कि स्वतः प्रस्फुटन था. इसी क्रम में विजयमोहनजी की दृष्टि में परंपरा और भारतीयता का अर्थ पता चल जाता है जब वे कहते हैं- ‘परंपरा संभवतः कला और संस्कृति कर्म में इसी तरह प्रवेश करती है. यही उसका प्रकृत पथ है. यहीं परंपरा की निरन्तरता, सतत प्रवाहमानता तथा समकालीनता भी दीखती है. कारन्तजी एक ठेठ भारतीय रंगकर्मी थे- बिना किसी घोषणा के या बिना उसे अपना कवच अथवा ‘कमंडल’ बनाए हुए. यही बात आज भारतीयता को लेकर उग्र तांडव में तल्लीन लोगों को समझना चाहिए. कारन्तजी ‘भारतीयता के प्रवक्ता नहीं, प्रतिनिधि थे.’[11]विजय मोहन जी के लेखन को पढ़ते हुए सहज लगता है कि भारतीयता और प्रगतिशीलता में कोई अंतर्विरोध संभव ही नहीं है. सच्चे अर्थों में प्रगतिशील व्यक्ति ही वास्तविक अर्थों में भारतीय हो सकता है और जिसके भीतर भारतीय परंपरा अपने पूरे विस्तार के साथ विद्यमान हो वह प्रगतिशील ही हो सकता है और कुछ नहीं. ऐसे व्यक्ति के भीतर समानता, लोकतंत्र, मानवता, लोकमंगल की भावना सहज ही होगी. ऐसा साहित्य ही विजयमोहनजी को आकर्षित करता है, शायद इसलिए भी क्योंकि ऐसी भारतयीता और प्रगतिशीलता उन्हें आकर्षित करती है.

इस पुस्तक को पढ़ते हुए यह बोध बराबर बना रहता है कि विजयमोहनजी को जितना लगाव भारतीय परंपरा से था उतना ही विश्व साहित्य से. सर्वत्र वे विश्व साहित्य में, अंग्रेजी की दुनिया में विशेषकर वैसे ही संचरण करते रहते हैं जैसे हिन्दी की दुनिया में. सभी आलेखों में विश्व भर के विद्वानों के विचार और साहित्य से उद्धरण ऐसे लिए गए हों जैसे प्रेमचंद या निराला, मुक्तिबोध और नागार्जुन की बात हो रही हो. साहित्यकार की मूल भावभूमि के अनुरूप है यह व्यवहार जहाँ वह किसी एक जाति, समाज, देश, संप्रदाय या देश-काल का नहीं होता बल्कि वह सर्वत्र विचरण करता है- स्कंदगुप्त से अकबर तक, हड़प्पा से इलाहाबाद तक, माचू-पिच्चू से ताजमहल तक, तानसेन से बेथोवेन तक. विजयमोहनजी इस दृष्टि से अनूठे हैं, अप्रतिम हैं. इसी तरह अक्सर वे उचित अभिव्यक्ति की तलाश में अंग्रेजी के शब्दों की ओर चले जाते हैं. उनका आलोचनात्मक लेखन इन शब्दों से भरा पड़ा है. उपयुक्त शब्द की तलाश में वे ऐसा करते हैं और इसलिए भी कि अभिव्यक्ति के प्रति, समझे जाने के प्रति वे विशेष रूप से सचेत हैं. कई बार ऐसा लगता है कि यहाँ एक हिन्दी शब्द रखा जा सकता था, लेकिन शायद विजयमोहनजी को ऐसा नहीं लगता हो!

विजयमोहन जी के बारे में बात करते हुए यह रेखांकित करना जरूरी लगता है (जो पहले किया भी गया है) कि वे वाग्विस्फार और बड़बोलेपन से बेहद चिढ़ते थे. उन्हें  सहजता प्रिय थी और आम बने रहना अच्छा लगता था. उन्हें शोर पसन्द नहीं था, सुकून से भरे घर की तलाश थी. उन्हें दिल्ली इसलिए नापसंद थी क्योंकि दिल्ली में किसी का अपना घर नहीं था. दिल्ली शोर की जगह थी, जहाँ कबीले अपना किला बना रहे थे जबकि विजयमोहनजी को ऐसी जगह की तलाश थी जहाँ सुंदर और सजीव भावनाएँ पनप रही हों. दिल्ली के बारे में वे लिखते हैं कि ‘दिल्ली ने कभी किसी को सुना नहीं, केवल ‘कहा-सुनी’ करती रही, चाहे वह राजनयिक स्तर पर हो अथवा सांस्कृतिक और जीवन-पद्धति के स्तर पर. ...दिल्ली हजार बार रौंदी गई है, इसलिए लगातार रौंदती रहती हैः काइयाँ, कठमुल्ले, लोलुप-पद के पिल्ले यहाँ हमेशा पनपते रहते हैं.’[12]इस वाक्य में उन्होंने जिस तरह अपनी संयत भाषा पर आपा खोया है, वह इस बात का प्रमाण है कि मूल्यहीनता और अवसरवादिता से उन्हें कैसी नफरत थी और निश्चित रूप से यह दृष्टि आलोचना के लिए लेखकों के चयन को प्रभावित कर रही थी.

उन्होंने खुद को ‘रुचियों का राजा’ कहा है. ऐसे लेखकों की तलाश वे करते रहते थे जो रूढ़ियों और कठमुल्लेपन के खिलाफ खड़े होकर सुन्दर और सजीव के पक्ष में खड़े हों. सार्त्र के प्रति उनका अतिरिक्त आकर्षण इसलिए भी था. सार्त्र की असफलताएँ भी तमाम सफलताओं पर भारी थीं क्योंकि उसका उद्देश्य एक यूटोपिया का सृजन था. विरोधी परिवेश में सार्त्र लगातार संघर्षरत रहे, अपने अलग विचारों के साथ अपने मोर्चे पर डटे रहे, विरोध सहते रहे और काम करते रहे. विजयमोहनजी का सार्त्र का आकर्षण सिर्फ उनके विचारों के लिए नहीं बल्कि उनके व्यक्तित्व के लिए भी था. यही बात जैनेन्द्र के लिए, भीष्म साहनी के लिए, कारन्त के लिए के लिए कही जा सकती है कि वे बने-बनाए साँचे में फिट बैठने वाले लोग नहीं थे, इसलिए विजयमोहनजी को प्रिय थे. लेकिन ध्यान रखें सिर्फ फिट न बैठने से काम नहीं होगा बल्कि नैतिक मूल्यों से संपन्न कला का पारखी भी होना होगा. प्रभा खेतान के लेखन से उनकी निराशा इसी आलोचकीय दृष्टि के कारण थी. उन्होंने यह कहने में संकोच नहीं किया कि ‘यह आत्मकथा (अन्या से अनन्या) न तो किसी नारीवादी लेखन का उदाहरण बन पाती है, न किसी ‘प्रामाणिक जीवन’ जीने की कोशिश. यह परंपरा, रूढ़ि और आधुनिकता के बीच कहीं झूलती रह जाती है.’[13]आत्मकथा में डॉक्टर से प्रभाजी के प्रथम संपर्क को विजयमोहनजी का देखने का नज़रिया कुछ यूँ है- ‘जाहिर है, यहाँ शुद्ध दैहिकता और यौन उत्ताप है, जो उन्हें पुरुष के पहले स्पर्श में ही विगलित कर देता है. यह सब उनकी दुर्बल मानसिकता दर्शाता है. प्रेम क्रमशः तथा उत्तरोत्तर विकसित होता है. यहाँ पिपासा है लेकिन प्रेम नहीं है. अतः इसके बाद जीवन भर साथ रहने के बावजूद सचमुच उनके बीच प्रेम है, इसका ठीक-ठाक पता नहीं चलता. कहीं विवशता, कहीं असुरक्षा की भावना और पति न सही, एक पुरुष की छाँह अनिवार्य लगती है. फिर शुरू होता है स्त्री-पुरुष के बीच का एक कभी न सुलझ पाने वाला द्वैत, द्वंद्व और कभी न भरने वाली ऐसी दरार जो प्रेम को असम्भव बना देती है. यहाँ तो खेतान मुक्ति की कामना में खुद को और परतंत्र बना देती हैं.’[14]

साहित्य और विचारधारा के संबंध को देखने का तरीका भी उनका सतर्कतापूर्ण था. विचारधारा जब कठमुल्लेपन का रूप ले ले तो किस तरह वह किसी रचना को नष्ट कर सकती है इसका उन्हें गहरा बोध था. लेखक के विचारधारात्मक होने से उन्हें परहेज नहीं था, उनकी आकांक्षा थी कि लेखक रचना तक अपनी संवेदनशीलता के साथ पहुँचे चाहे विचारधारा उसमें कितनी भी घुली हुई हो. प्रतिबद्ध मार्क्सवादी रचनाकारों में उन्हें भीष्म साहनी विशेष आकर्षित इसीलिए करते हैं क्योंकि वह विचारधारा की ओर आस्था के साथ नहीं जाते विचार के साथ जाते हैं. भीष्म साहनी के लेखन में विचारधारा के संदर्भ में विजयमोहनजी की टिप्पणी है ‘उनके पहले कहानी संग्रह ‘भाग्य रेखा’ से लेकर अन्तिम उपन्यास ‘नीलू नीलिमा नीलोफर’ तक को देखें तो पता चलता है कि भीष्म जी की सभी रचनाओं में जीवन को खुली आँखों से देखना ही प्रधान रहा है और उसमें विचारधारा चुपके से ‘हृदय की राह’ प्रवेश करके उनकी ‘जीवन दृष्टि’ का निर्माण करती है. ‘मस्तिष्क’ की नहीं, इस हृदय की राह की भूमिका ही उनके सारे कृतित्व का चरित्र और व्यक्तित्व निर्धारण करती रही है.’[15]विचारधारा हृदय के रास्ते आनी चाहिए रचना में, मस्तिष्क के माध्यम से आने पर रचना प्रोपैगेण्डा बन जाती है और जिस उद्देश्य से प्रोपैगैण्डा लिखा गया वह उद्देश्य भी उस रचना की तुलना में कम ही पूरा होता है जो हृदय के रास्ते लिखी गई थी. इसी आलोचनात्मक उपकरण के माध्यम से वे झूठा सच और तमस की तुलना करते हैं और कहते हैं कि ‘वह (तमस) ‘रचना’ है, ‘झूठा सच’ का रिपोर्तज नहीं और न फ्रायड और मार्क्स के सिद्धांतों का मुलम्मा.’[16]जैनेन्द्र के परवर्ती दौर की रचनाओं को जब विजयमोहनजी कमजोर साबित करते हैं तब भी उनका एक तर्क यही है कि यह रचनाएँ सिद्धांतों का मुलम्मा ज्यादा हैं. भीष्मजी सिद्धांतों को आत्मसात कर संवेदनाओं के माध्यम से अभिव्यक्त करते हैं इसलिए शुरू से अंत तक पैम्फलेट लिखने से बचे रहते हैं. उनकी रचनाएँ पार्टी लाइन के लिए नहीं थीं बल्कि उन उद्देश्यों और संवेदनाओं के निहितार्थ थीं जिसपे पार्टियाँ चलने का दावा करती हैं. ऐसी रचनाएँ कभी भी पार्टी लाइन का अतिक्रमण कर सकती हैं. सार्त्र साम्यवाद को आत्मीयता के साथ देखते रहे लेकिन उनकी स्वतंत्र चेतना पार्टी लाइन के लिए दिक्कत भरी रही. ऐसे स्वतंत्र चेता लेकिन मूल्यों से संपन्न प्रगतिशील रचनाधर्मिता के प्रति विजयमोहनजी का लगाव था. आखिरी कलाम का उनका पाठ इन मूल्यों के प्रति उनकी सचेतनता को ही दिखाता है. ‘एक लेखक के पाठ-कुपाठ’ में प्रेमचंद पर कब्जे की लड़ाई की चिन्ता ही केन्द्र में है. बजरिए प्रसाद वे यह संदेश देते हैं कि प्रत्येक स्वर्ग बनाने की कल्पना धरती पर एक नरक हो सकती है. स्वर्ग की परिकल्पनाओं ने किस तरह विश्वयुद्धों और नाजीवाद को जन्म दिया इसके प्रति विजयमोहन जी सतर्क करते हैं. साम्यवादी आकांक्षाएँ विजयमोहनजी में पूरी हैं लेकिन इसके नाम पर जनता को दिग्भ्रमित किया जाना उन्हें स्वीकार नहीं. उनकी बस इतनी सी इच्छा है कि हर रचना पाठक तक पूरी ईमानदारी से पहुँचे, प्रेम के साथ, बिना किसी छल-छद्म के. आलेख इस सवाल पर छोड़ देना शायद ठीक हो कि कविताएँ लिखने वाले आलोचकों की भरमार वाली आजकल की साहित्यिक दुनिया में उपन्यास लिखने वाले आलोचकों की संख्या इतनी कम क्यों है...!

 

संदर्भ-


[1]विजयमोहन सिंह, समय और साहित्य, राधाकृष्ण प्रकाशन,  दिल्ली, 2012, पृ.10
[2]वही, पृ.11
[3]वही, पृ.11
[4]वही, पृ.5
[5]वही, पृ.26
[6]वही, पृ.28
[7]वही, पृ.38
[8]वही, पृ.161
[9]वही, पृ.171
[10]वही, पृ.73
[11]वही, पृ.76
[12]वही, पृ.85
[13]वही, पृ.138
[14]वही, पृ.137
[15]वही, पृ.93
[16]वही, पृ.93


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