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समलैंगिकता, सेक्सुअलिटी और सिनेमा: आशीष कुमार


 


'खामोशी से मुकम्मल होती इबारतों की सुर्ख-स्याह तस्वीरें'
(सेल्यूलाइड पर खामोशी, गुमनामियत और दर्द के लकीरों की पहचान और शिनाख्त की सरहदें)

आशीष कुमार

 

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हते हैंख्वाहिशों के काफ़िले इंसान की ज़मीर से जुड़े होते हैं. दरअसलसपनों की ऊंची उड़ान इंसानी फितरत को भी बयां करती है. ऐसे में मंज़िल के लिए अख्तियार किए गए रास्ते में हमसफ़र बनता कारवां भी सुकून देता हैं. फिर जिंदगी की आपाधापी में बुलंदी का सफ़र इतना आसान भी कहां होता है?समाज की चौतरफ़ा बाड़ेबंदी में इंसान की रंगत अलग है. वर्ण,वर्ग,नस्ल और जिंसियत के अलावा मनुष्यता भी इंसान को जिंदा रखने के लिए जरूरी है . मुख्तसर,यह कि जिनके बारे में बात करना चाहता हूं,वे हमारे समाज में हंसी, मज़ाक,उपेक्षा और फुसफुसाहट के पात्र रहे हैं. अव्वल या तो हम उन पर रहम दिखाते या हम उनके साथ सहज नहीं होते हैं.

 

कई बार खुद को उनसे दूर कर लेते हैं. जबकि उनकी मौजूदगी इतिहास,परम्परा और संस्कृति का अविभाज्य अंग  है. यहां मुझे माइकल एंजेलो, ऑस्कर वाइल्ड,, शेक्सपीयर और फ़िराक साहब याद आते हैं.  इस्मत आपा की 'लिहाफ',अनीता राकेश का 'गुरुकुल'और पंकज बिष्ट के 'पंख वाली नाव'उपन्यास के पात्र बेतरह हलचल मचाए हुए है. अदब की दुनिया से उकताकर मै सेल्यूलाइड की तरफ़ रुख़ करता हूं. इससे पहले रैम्प पर कैटवॉक करते गठीले, सजीले और सुदर्शन नायकों पर निगाह ठहर जाती है .उस चमकीली दुनिया के अंधेरों से भला कौन वाक़िफ नहीं होगा ? कमोबेश, मॉडलिंग की दुनिया का सच यहीं है. 


धड़ल्ले से बनते संबंधों का इस्तेमाल और शोषण का अनवरत सिलसिला बदस्तूर जारी है. दु:खद है कि सिनेमा की दुनिया में समलैंगिक संबंधों खासकर पुरुष समलैंगिकता को अधिकतर 'मसखरे'की तरह देखा गया है. दोस्ताना,कल हो न हो, हनीमून ट्रैवेल्स,मैंगो सुफ्ले और ऐसी कई फिल्में हैं; जिनमें इन किरदारों के नाम पर बेवजह हंसी-मजाक और उपहास भरा जाता है. आज भी समलैंगिक संबंधों पर आधिकारिक फिल्मों का अभाव है. उनके जीवन-संघर्ष , विचारधारा और संवेदना को लेकर गंभीर काम की सख़्त आवश्यकता है. यहां चुने गए तीन फिल्मों में पुरुष समलैंगिकता (गे) को केंद्र में रखा गया है. हिंदी सिनेमा में इन फिल्मों के मार्फ़त उस दुनिया की गुमनामियत, खामोशी और दर्द को देखने की कोशिश है. रोचक है कि इन तीनों फिल्मों की तह में समलैंगिक दुनिया के धूप-छांही रंग बिखरे हुए है. 


ये फिल्में तीन अलग-अलग ज़िंदगियों को दिखाती हैं. जहां लैंगिकता के प्रश्न, संबंधों का मकड़ जाल और संवेदनहीनता उभरकर आईं है. तो आइए,अलीगढ़,आईं एम और मेमोरीज इन मार्च के माध्यम से समकालीन भारतीय सिनेमा के उन ज़िंदगियों के अनछुए पहलुओं पर नज़र डाले,जिसे गाहे-बगाहे हाशिए पर दरकिनार किया जाता रहा है .

 

(एक)

अंधेरे में गुम होती आकृतियों का ख़ौफ उर्फ जख्म जिसके निशान नहीं दिखते !


दुःख और संत्रास मनुष्य के आत्मबल का इम्तिहान और आत्मसाक्षात्कार की जमीन तैयार करते हैं .यह भी सच है कि वर्ण-वर्ग विभेद के साथ ही अस्मिता की तमाम परिभाषाएं नैतिकताएं ही तय करती हैं. संबंधों का बिखराव
, श्रेष्ठता साबित करने की जद्दोजहद और गलारेत प्रतिस्पर्धा के इस दौर में इंसान की असली सूरत नज़र नहीं आती है .मुग़ीसुद्दीन फ़रीदी कहते हैं - "इस दौर में इंसान का चेहरा नहीं दिखता  कब से नकाबों की तहें खोल रहा हूं."अस्मत और अस्मिता का प्रश्न हमारे समय का भयानक सच है . ख़ासकर लैंगिकता को लेकर उठते सवाल मुझे पशोपेश में डाल देते हैं. किसी भी मंज़िल तक का सफ़र इतना आसान कहां होता है ?सपने,पंख और हौसले के साथ ही उड़ान मकबूलियत पाती है. गर, लड़ाई पहचान के लिए लड़ी जा रही हो,तब ?

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दर्द को दिल में दफनकर मै प्रोफेसर सीरस का जिंदगीनामा 'अलीगढ़ 'के मार्फ़त देख रहा हूं .यानी प्रोफ़ेसर श्रीनिवास रामचंद्र सीरस .अलीगढ़ मुस्लिम विश्ववद्यालय के मराठी विभाग के अध्यक्ष .मै देख रहा हूं विश्वविद्यालय का नाम लेते ही मेरे सामने सिमोन के वालिद जॉर्ज द बुआ आ गए है. अब मैं उनसे मुखातिब हूं. शायद,तुम इस बात से बेखबर हो कि ,'अध्यापक, प्राध्यापक और बौद्धिक किस्म के लोग महान निकम्मे लोग थे .वे नस्ल,वर्ग और परिवार से जुड़े बेवकूफाना मूल्यों का झंडा फहराने में लगे थे .'तो क्या कट्टरपंथियों से ज्यादा भयावह बुद्धिजीवियों का फसाद होता है. अकादमिक राजनीति और पैतरेबाजी के शिकार प्रोफ़ेसर सीरस के प्रति मेरी पूरी सहानुभूति है. क्या सिर्फ इसलिए कि मैं खुद अकादमिक दुनिया का एक हिस्सा हूं .बेशक ! लैंगिकता के मुद्दे पर आज भी मेरे सहकर्मियों की भवें तन जाती हैं. अब असहमति और प्रतिरोध जीवन का हिस्सा हो गया है .मैं आत्मबल से लबरेज़ 'अलीगढ़ फिल्म के रिपोर्टर दीपू सबैस्टियन (राजकुमार राव)के सहारे समलैंगिकों के दुख-दर्द को समझना चाहता हूं.


शामियाने के नीचे स्त्रैण भाव से 'नमक इश्क़ का ...'पर थिरकते लोगों को देख रहा हूं और जेहन में'बधाई हो'फिल्म का वह पात्र बरबस याद आ जाता है जिसे शादी के दो-चार साल बाद भी औलाद नहीं हुआ है और समाज उसकी मर्दाना ताकत पर शक करने लगता है. नामी-गिरामी चेहरों से घिरे हुए प्रोफ़ेसर सीरस (मनोज बाजपेयी) को अपनी कविताएं सुनाते देख रहा हूं. मुरझाए, बेतरतीब और अधपकी दाढ़ी बढ़ाए इस शख्स की मासूमियत और चेहरे पर उभरते भाव को देखकर विस्मित हूं. संवेदनशील,संकोची, संगीत और शराब का शौक़ीन. विशुद्ध साहित्यिक आदमी. कविता का जानकार है. दीपू को कविता समझाते हुए बताता है कि - 'कविता शब्दों में कहां होती है ?कविता शब्दों के अंतराल में होती है . साइलेन्सेज में. पॉसेज में. यानी बिटवीन द लाइंस. दो पंक्तियों के बीच .

 

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वास्तविक घटना को आधार बनाकर हंसल मेहता ने 'अलीगढ़ 'को निर्देशित किया है. यह एक बायोपिक है .मुख्य भूमिका में मनोज बाजपेयी, राजकुमार राव और आशीष विद्यार्थी हैं. यह फिल्म आईपीसी की धारा 377 से जुड़े सवालों को उठाती है . विश्वविद्यालय के आवासीय मकान में अपने साथी इरफ़ान के साथ उनके अंतरंग संबंधों को साजिशगरो द्वारा वीडियो क्लिप्स बनाना,वायरल और सस्पेंड करा देना,फिर एक लम्बी कानूनी लड़ाई के बाद जीत हासिल करना. ऐसे प्रसंग इस फिल्म के बनिस्बत दर्ज़ किए गए है. ऐसा लगता है कि हम फिल्म नहीं बल्कि डॉक्यूमेंट्री देख रहे हैं . यहां रील और रीयल का अंतर लगभग समाप्त हो गया है . बिना संवाद बोले आंखों से अभिनय की अदायगी मनोज बाजपेयी का हुनर है. वे समर्थ अभिनेता है. अपने रोल को बखूबी आत्मसात करते हैं. प्रोफ़ेसर सीरस की जिंदगी को उन्होंने हू ब हू उतार दिया है .दीपू उनके भावनाओ को समझता है . हालांकि,एक जगह उन्हें 


'गे'कहने पर वह उसे समझाते हैं कि 'कोई मेरी फीलिंग्स को तीन अक्षरों में कैसे समझ सकता है. एक कविता की तरह भावात्मक. एक तीव्र इच्छा जो आपके काबू से बाहर होती है .'एक संवेदनशील व्यक्ति की भावनाओं का निदर्शन देखने लायक है. जैसे,जब उन्हें विश्वविद्यालय का आवास खाली करने का निर्देश दिया जाता है. सिर्फ़, चार घंटे बिजली की सुविधा प्रदान की जाती है . कई तरह की मानसिक यातनाएं दी जाती है. यह देखना सुखद है कि इन सबके बीच में वे साहित्य के लिए प्रतिबद्ध नज़र आते हैं. कोर्ट के जिरह के वक्त कविताओं का अनुवाद करते हैं . टूटन, बिखराव और जड हो चुके विचारों से उनकी लड़ाई जारी रहती है. एक समूची कम्युनिटी की समस्याओं को इस फिल्म के मार्फ़त बखूबी समझा जा सकता है. जिनके संकल्प और संघर्ष के कारण जिंदगी थोड़ी आसान हुई है. प्रोफ़ेसर सीरस के पिटीशन को मज़बूत और वजनी बनाने में भी इन लोगों की अहम भूमिका रही है. बड़े ही अदब और तहज़ीब से ये फिल्मांकन किया गया है. बारीकी से फ़िलमाए गए ऐसे कुछ दृश्य बन पड़े है,जिस पर बात किए बगैर ये लेख अधूरा प्रतीत होगा. 


ऐसा ही एक दृश्य सीरस के अकेलेपन को बयां करता है. कैमरा प्रोफ़ेसर सीरस को फ़ोकस करता हुआ आईने में उनकी प्रतिबिंब को दिखाता है. पूरी फिल्म में पीली रोशनी छाई हुई है. दीपू का मासूम और निश्छल चेहरा रास आता है. उसका सीरस के साथ सेल्फ़ी लेना,लंच करना और आदर प्रदर्शित करना,उसके व्यक्तित्व को नया आयाम देते हैं . दरअसल,जब हम यौनिकता को दरकिनार कर व्यक्ति को इंसान के रूप में आंकते है,तो हमारी संवेदनाएं और वृत्तियां बदल जाती हैं. प्रोफ़ेसर सीरस न्याय की लड़ाई जीत जाते हैं लेकिन जीवन की लड़ाई हार जाते हैं. जहां बैचलर आदमी को किराए का घर भी नहीं मिलता और मालिक का रवैया क्रूर हो,तो अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि जीना कितना मुश्किल होगा


जहां व्यक्ति के 'पर्सनल लाइफ 'को आधार बनाकर उसके करियर को धूमिल और दागदार बना दिया जाता है. उसकी आजीविका छीन ली जाती है. घर से बेघर कर दिया जाता है. लैंगिकता के आधार पर मनुष्यता को परिभाषित किया जाता है, वहां भला एक संवेदनशील समलैंगिक व्यक्ति को जीने का अधिकार हासिल हो सकता है ?ऐसे संवेदनहीन समय में सीरस जिंदा नहीं रह पाते और उनकी मौत हो जाती है. एक शोक गीत की तरह यह फ़िल्म यही समाप्त हो जाती है. लेकिन अपने समय के बरक्स कई सवालों को अधूरा छोड़ जाती है. क्या अतिसंवेदशील होना घातक है ? लैंगिकता बड़ी है या व्यक्ति की जिजीविषा?क्या मनुष्य महज प्रोडक्ट है ?दूर तक कानों में ये पंक्तियां गूंज रही है-

 

"तुम नहीं मरे हो बेशक पर तुम्हारा ज़मीर तो मर चुका है,

इस दौर में तुम्हारी चुप्पी इसकी गवाही है."

 

 

(दो)

एक हसीन शाम का खौफ़नाक हादसा यानी जीने की है आरज़ू तो धोखे भी खाइए !


वक्त के शय भी अजीब होते हैं .जिसे करीब रखने की चाहत होती है,वह दूर चला जाता है. जिसे दूर करने की फ़िक्र होती है,वह पास चला आता है .जिनसे उम्मीदें होती हैं, वे कुछ नहीं करते और नाउम्मीदी वाले फरिश्ते निकल जाते हैं. ज़ाहिर है, फ़रिश्ते आसमान से नहीं टपकते और न ही धरती का सीना फाड़कर उगते हैं. ऐसा भी होता है कि फरिश्तों की शक्ल में रिश्तों के फायदे भी उठाए जाते हैं. जिस मुकम्मल जमीन पर रिश्तों के अंकुर फूटने चाहिए, वहां चालाकियां, हेराफेरी और कीमियागिरी के रंग देखने को मिलते हैं. कुछ रिश्ते संबंधों को पनपने के लिए जगह देते हैं.कुछ रिश्ते सरेराह भी बनते है.कुछ रिश्ते बनते भी हैं और पल भर रेत की तरह मुट्ठी से फिसल भी जाते हैं.कुछ रिश्ते समय के साथ रीत जाते हैं. गुलज़ार साहब ताक़ीद भी करते हैं कि, 'हाथ छूटे भी तो,रिश्ते नही छूटा करते.' 


मैं ऐसा ही एक बनता हुआ रिश्ता देख रहा हूं,जो साजिशों और योजनाओं के तहत बन रहा है. दरअसल, मैं गफलत में हूं. जिसे मै रिश्ता समझ रहा हूं,वह 'क्रूजिंग'है . मैं वर्सेटाइल, शीमेल,क्रॉस ड्रेसर,टॉप, बॉटम जैसे शब्दों से परिचित हो रहा हूं. सुना है,यहां कुछ ख़ास शब्दों की कोडिंग एक-दूसरे को पहचानने के लिए भी किया जाता है. पहनावे को लेकर भी यही बातें लागू होती है,जैसे-लो- वेस्ट जीन्स का चलन विदेशों में 'गे'कम्युनिटी का प्रमुख हिस्सा रहा है. ओनिर द्वारा निर्देशित 'आई एम'की बदौलत ओमर (अर्जुन माथुर ) से मुखातिब हूं. 


मामूली टी शर्ट और जींस में रोड पर उसे अजनबी लोगों से बात करते देख रहा हूं. सिगरेट के कश और शिकार खोजती आंखे. चमचमाती लम्बी गाड़ी और शोख लाल रंग के चुस्त शर्ट में मल्टीनेशनल कंपनी का मैनेजिंग डायरेक्टर जय (राहुल बोस ) से उसकी मुलाकात काफी हाउस के टेबल पर होती है. थोड़ी- बहुत तआरुफ़ के बाद दोनों साथ डिनर के लिए जाते हैं. देर रात होने पर जय अपनी गाड़ी में ओमर को लिफ्ट देता है. चूंकि,दोनों एक दूसरे से सहमत हैं. आपसी समझ के साथ वे शारीरिक संबंध की तरफ़ बढ़ते हैं. 

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गहराती रात, सुनसान सड़क और निजता को पार करते चले जाते हैं. ऐन वक्त पर एक पुलिस (अभिमन्यु सिंह )आता है. आपत्तिजनक स्थिति में पकड़े जाने पर दोनों को बाहर निकालती है. जय परेशान है . ओमर नॉर्मल है . पुलिस सख्ती से गाली-गलौज़ के साथ पूछताछ करती है. जय अपनी और ओमर की इज्ज़त बचाने के लिए पैसे देता है. रकम की मांग बढ़ती जाती है. ओमर पुलिस वाले से मुंबईया भाषा में बात करता है. वह पूछता भी है कि,'तुम हिंदी में बात क्यों नहीं कर रहे हो ?'सच्चाई तो यह है कि,ओमर और पुलिस वाले में सांठ-गांठ है. पैसे का मामला और फंसे हुए मुर्गे को हलाल करने ओमर माहिर है. वह जय का कार्ड लेकर कैश लेने जाता है. अंधेरा और एकांत पाकर पुलिस भी जबरदस्ती जय अश्लील हरकत कराती है और धमकी भी देती है कि थाने जाने पर सबको संतुष्ट करना होगा. यक़ीनन,दोनों पार्टनर गे हैं. यहां क्षतिपूर्ति का सिद्धांत नहीं लागू होता है. लेकिन साथी की शक्ल में ड्रैकुला है ओमर. 


इस रिश्ते में कोई वफादारी और प्रतिबद्धता की गुंजाइश नहीं है. यूज एंड थ्रो का नियम. बहरहाल,पैसे लेकर वापस आने पर पूरे पैसे और जय का कीमती मोबाइल पुलिस को दिया जाता है. अंत में,ओमर उसी पुलिस वाले के साथ रात के अंधेरे में गुम हो जाता है. कुल जमा तीन लोगों पर आधारित ये कहानी रिश्ते में दोहरे चरित्र को दर्शाता है. जहां विश्वास,प्रेम और प्रतिबद्धता की दरकती दीवारें नज़र आती हैं.व्यक्ति वस्तु में तब्दील होता है . जहां प्रेम के पीछे का संबंध पैसे से है. सिर्फ एक रात में घटित होने वाली ये घटना समलैंगिक दुनिया के ब्लैक स्पॉट को दिखाती है. महज बीस मिनट की यह फ़िल्म ज़मीनी हकीकत को खोलकर रख देती है. अंतिम दृश्य में, जय दोबारा उसी जगह ओमर से मिलता है.अब वह किसी दूसरे बंदे को फांस रहा है.यहां उसे देखकर घबराया हुआ है. 


जय उससे पूछता भी है कि उस रात वह उसे ढूंढ़ते हुए अपने वकील के साथ पुलिस थाने गया था,लेकिन वहां न तो वह पुलिस दिखी और न ही तुम. ओमर उसे मोबाइल लौटाते हुए पैसे देने का वायदा करता है. टूटन और दरकन की आहट जय के चेहरे पर झलकने लगती है. एक हसीन शाम की रंगीनियत उसके पूरे वजूद को हिला चुकी है . चुप्पी की बारीक चादर उन दोनों के बीच फैल जाती है. बड़े सलीके से यह फ़िल्म समलैंगिक दुनिया के अंधेरे कोने पर रोशनी डालती है. ये फ़िल्म उन फॉर्मूलों को स्पष्ट करती है, जिन्होंने झूठ और फरेब के लिबास पहन रखे हैं. अपने समय,समाज और अनचीन्हे दुनिया के सच को देखने के लिए इसे देखा जाना चाहिए .


*खुमार बाराबंकवी के शेर का एक मिसरा .

 

 

(तीन)

सभी वासनाएं दुष्ट नहीं होती बनाम ऐसा प्रेम जिसका कोई चेहरा नहीं !

 

 

बिखरे, बेदिल और बेरहम होते इस समय की तेज़ ज़िन्दगी में रफ्ता- रफ्ता संबंध सिमट रहे हैं. बाहर पसरा हुआ सन्नाटा भीतर की दुनिया में सेंध लगा रही है .मुझे शिद्दत से राहत इंदौरी याद आ रहे हैं -


"हमने सुनी है सन्नाटे की चीख,

जब भी सन्नाटा होता है तो डर जाता हूं ."

 

उजाड़ मौसम,बिखरी हुई पत्तियां और दूर-दराज तक फैली यादें. मैं सहम जाता हूं . अज्ञात सत्ता का डर. मेरा अज्ञात तुम्हें बुलाता है .कौन था वो तुम्हारा ? यादें वक्त - बेवक्त पहरा दे जाती हैं .यादों का कोई मौसम नहीं होता,फिर गठरी बांधे उन यादों को किस कोने -अतरो में छिपा आऊं ? स्मृतियों के सहारे जीना पागलपन होता है न !मुझे इस तरह की तमाम बातें यादों के समंदर में डूबो देती हैं. याद तो अपने बेटे को आरती (दीप्ति नवल) भी करती है. जिसकी मौत कार एक्सिडेंट में हो गई है. वह दिल्ली से कोलकाता उसके अस्थि-कलश को लेने आई है. मैं मार्च के इस तंगदिल मौसम में सुजॉय नाग निर्देशित 'मेमोरीज इन मार्च 'देख रहा हूं. मेरी संवेदना मां बनी दीप्ति नवल से जुड़ती है लेकिन देखता हूं उतनी ही तेजी से फारिग होकर अर्नब चटर्जी (रितुपर्णो घोष) से जुड़ जाती है .एक मजबूत किरदार के रूप में अर्नब चटर्जी की उपस्थिति माहौल को शांत और गंभीर बना रही है. 


मेमोरीज इन मार्च का पूरा फोकस मां- बेटे के आत्मीय रिश्ते पर हैं. मूल कथा में संगुफित एक उपकथा मुझे अपनी तरफ खींच रही हैं .लेकिन क्यों ?मुझे यहां एक ख़ास तरह का प्रेम दिख रहा है . ऐड कंपनी के क्रिएटिव डायरेक्टर अर्नब का प्रेम .सवाल है किसके साथ? वहीं बेटा सिद्धार्थ जिसकी मृत्यु हो चुकी है .जिसके कलश को लेने मां आईं हुई हैं. यानी समलैंगिक प्रेम. वर्जित विषय.ऐसा प्रेम जिसका कोई चेहरा नहीं. मुझे मुकम्मल ऐसी कोई आकृति नजर नहीं आती.  हाँ,मेट्रो, चर्चगेट स्टेशन और पार्कों में ऐसे कई जोड़े जरूर दिखते हैं. अकसर सोलमेट शब्द का ख्याल इन्हें देखकर आता है. शायद,यही रिश्ता होगा ,कंपनी के बॉस और कुलीग के बीच. फ्लैश बैक में चलती कहानी पूरी फिल्म को परत-दर-परत खोलती जाती है . 

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मां को नहीं पता कि उसका बेटा 'गे'था. वह रिलेशनशिप में था. मां की अपनी दुनिया है.  उल्फतें है .पति से तलाक हो चुका है .वह बेटे को समय नहीं दे पाती है .ये तमाम बातें अंडरटोन है .मुख्य किरदार के रूप में दीप्ति नवल, रितुपर्णो घोष और सहाना चटर्जी बनी राइमा सेंन हैं . पूरी फिल्म इन तीन चरित्रों के इर्द-गिर्द घूमती रहती है. दिलचस्प ये है कि खामोशी से प्रेम की खुशबू फिल्म में बनी हुई है. अपनी यौनिकता पर बड़े सधे ढंग से यह फिल्म संवाद करती है .वैसे तो इस फिल्म में ऐसे कई दृश्य हैं,जो बंद जुबान से बड़ी बातों को अभिव्यक्त कर देते हैं. समलैंगिक प्रेम की यह प्लेटोनिक दास्तान देखने लायक है . रितुपर्णो घोष पार्टनर की भूमिका में है. असल जिंदगी में भी उन्होंने यौनिकता को खुलेआम स्वीकार किया था . इसीलिए इस किरदार को बेहद सहजता से निभा गए हैं. सिद्धार्थ अर्थात बाबू और अर्नब के बीच संबंधों को गहराई से दिखाते ऐसे कई दृश्य हैं,जो सोचने के लिए विवश कर देते हैं. ऐसा ही एक सीन है जिसमें बाबू के घर में रखे हुए 'हाउस कोट'को दीप्ति नवल पहन लेती है . बातचीत के दौरान ये पता चलता है कि ये हाउस कोट अर्नब का है. अर्नब के रोल को इस फिल्म में धीर-गंभीर संवेदनशील दिखाया गया है. वह खूब सोचता है .उसके चिंतन में एक धार है. वह आजादी का हिमायती है. समाज द्वारा बनाए गए नैतिक नियमों के पक्ष मे नहीं है. 


स्त्री  पुरुष को खांचे में डालकर लैगीकृत करना उसे बिल्कुल पसंद नहीं है. वह पक्षियों एवं मछलियों को भी कैद करने के पक्ष में नहीं है. घर में रखे अक्वेरियम को सिद्धार्थ की मां उसे अपने पास रखने के लिए कहती है,तब वह यही तर्क देता है. अपने साथी को याद करके भावुक हो जाना और फूट-फूट कर रोना,ऐसे कई दृश्य हैं जो सीने में धंस जाते हैं. प्रेम और त्याग का टेक्सचर हमेशा एक समान नहीं होता है. अपने समय और परिस्थितियों के मुताबिक़ बदलता रहता है. समलैंगिक प्रेम के अपने खतरे है तो दुश्वारियां भी हैं. भले ही समाज द्वारा ये स्वीकृत नहीं है लेकिन सच है कि आज भी ये मौजूद हैं. प्रेम की यही रवानी 'मेमोरीज इन मार्च 'की खासियत है. 



फ़िल्म में दीप्ति नवल को यह अपराधबोध भी सालता है कि वह अपने बेटे को समझ नहीं सकी है. एकबारगी तो ये लगता है कि बेटे के पार्टनर और मां के बीच सहज और तरल रिश्ता कैसे पनप सकता है थोड़ी- बहुत कहा- सुनी के साथ यह रिश्ता जन्मता है और अंत तक बरक़रार रहता है. 


आजाद ख़्याल वाली मां को अब अपने बेटे के दोस्त में बेटे का अक्स नज़र आने लगा है. वह उसके यादों को अर्नब के साथ सहेजती है . संवारती है. घर में रखे हुए चीज़ो को गौर से देखती है .उनके प्रति लगाव को महसूस करती है. लौटते वक्त शहाना (राइमा सेन) को गिफ्ट भेजती है. गमों को गले लगाकर नहीं, खूबसूरत मोड़ देकर जाती है.

 

 

और अंत में,बात बोलेगी हम नहीं 

 

जीवन की विलंबित लय में जीने की हसरत लिए इन पात्रों में प्रलाप, संलाप और आलाप की स्थिति से अलग संघर्ष और संवेदना भरी हुई है. संबंधों की अकुलाहट के बीच दबे- ढके और बेपर्द घावों का सोता उनके भीतर रिसता रहा है. गाढ़ा होता दुःख अनगढ़ आकृतियों में तब्दील होता दिखता है. इन सबके बावजूद नए दौर के निर्देशकों ने अपने समय,समाज और समस्याओं को नए सिरे से देखना शुरू किया है. यह एक शुभ-संकेत हैं. यहां लिए गए तीनों फिल्मों में 'मेमोरीज इन मार्च'और 'आईं एम 'के निर्देशक रितुपर्णो घोष और ऑनिर घोषित गे  हैं. अलीगढ़ के स्क्रिप्ट राइटर अपूर्व असरानी ने भी अपनी लैंगिकता खुलेआम स्वीकार किया है. यही कारण है कि पटकथा में प्रवाह और वेग के साथ ये फिल्मे विश्वसनीय बन पड़ी है. फिर भी बहुत से सवाल अभी भी ख़ामोश हैं. 


मसलन,क्या भारतीय जनमानस ख़ासकर मेट्रोज को छोड़कर कस्बों और गांव के लोग इन संबंधों को स्वीकार कर पाएंगे ?क्या स्त्री-पुरुष संबंध के आलावा सेक्सुअलिटी के अलग प्रकार ग्रहण किए जाएंगे ? क्या होमोफोबिया का भय आज भी समाज पर तारी नहीं है एक लम्बी लड़ाई और जीत के बाद भी समलैंगिक समुदाय का चित्रण समाज और सिनेमा में हाशिए पर ही है. वैसे भी, हाशिए पर अक़सर उन्हीं को टांक दिया जाता है,जो केंद्र में होते हैं. और अगर ये केंद्र में आते हैं,तो क्या मुश्किल ! आखिर इच्छा से ही तो संकल्प उत्पन्न होते हैं और संकल्प से समाधान के रास्ते !

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आशीष बनारस में रहते हैं, रचनात्मक लेखन और आलोचाना में उनकी रूचि है.
मो:09415863412



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