अनुवादक की ओर से
सन् 1970 की सर्दियों में हम बिहार के सांसद श्री भोला प्रसाद के फ़्लैट नंबर 166 साउथ एवेन्यू में रह रहे थे. वह फ़्लैट हमें मेरे पति गिरधर राठी के ‘जनयुग’ साप्ताहिक में काम करने की वजह से मिला था. भोला प्रसाद जी बहुत सुलझे हुए सलीक़ेदार व्यक्ति थे. लक्खीसराय से दिल्ली वह केवल संसद सत्र शुरू होने के एक या दो दिन पहले आते और सत्र समाप्त होते ही वापस लक्खीसराय लौट जाते. एक बार उन की पत्नी भी आई थीं जो बेहद सहज और समझदार महिला थीं. हम ने उन के साथ अच्छा वक़्त बिताया था. उन का बेटा नरेश प्रसाद आज भी हमसे संपर्क रखता है.
उसी फ़्लैट में रहते हुए 1 सितम्बर 1970 को हमारे बेटे विशाख का जन्म हुआ. अब वह लगभग 50 वर्ष का है.
एक दुपहर मेरे पति गिरधर राठी का फ़ोन आया, ‘‘कुछ रसगुल्ले और नमकीन मँगवा लो. ऋत्विक घटक आज शाम घर आएँगे.’’
मैं ने नाथू स्वीट हाउस फ़ोन कर रसगुल्ले और समोसे मँगवाए. मैं बेहद उत्साह में थी. उन की फ़िल्म ‘मेघे ढाका तारा’ मैं ने कोलकाता में लोटस सिनेमा हॉल में देखी थी, जो हमारे घर के पास ही था. इतनी अच्छी फ़िल्म का निर्देशक आ रहा है, यह सोच कर मैं कुछ नर्वस भी थी. आख़िरकार मेरे पति, ऋत्विक घटक, मंगलेश डबराल, आनंद स्वरूप वर्मा और अजय सिंह के साथ आए, कुछ और भी मित्र भी थे जिन की मुझे याद नहीं आ रही. अजय सिंह लगातार उन से सवाल किए जा रहे थे, जिस से वे परेशान हो गए, लेकिन उन्होंने अपना आपा नहीं खोया था. उन्होंने सिनेमा की तकनीक पर भी कई बातें की थीं.
मुझे उन से बातचीत करने की क्या, उन की बातें सुनने का भी समय नहीं मिला था. जाते हुए उन्होंने मेरे सिर पर अपना हाथ रखा, लेकिन तमाम आग्रह के बावजूद खाया कुछ भी नहीं. उन की उस गरिमामयी उपस्थिति से मैं अभिभूत थी.
दिसम्बर सन् 1989 में मेरे पति अपने कार्यालयी सहयोगी के बेटे के स्कूटर पर बैठ कर उन के कैंसरग्रस्त पिता को अस्पताल देखने जा रहे थे. तुग़लक रोड पर स्कूटर किसी मोटर गाड़ी से टकरा गया. चालक को तो कुछ नहीं हुआ, लेकिन राठी जी सड़क पर गिर पड़े. उन के पैर की हड्डी टूट गई थी. इस दुर्घटना के बाद वे लगभग आठ-नौ महीने बिस्तर पर ही रहे. इस दौरान एक-एक कर उन के सभी सहयोगी और लेखक मित्र उन से मिलने आते रहे.
इस दौरान हमारी सहायता की दृष्टि से एक दिन मंगलेश डबराल ऋत्विक घटक के पुत्रा ऋत्वान घटक के साथ आए और ‘ऋत्विक घटकेर गल्प’ नामक कहानी-संग्रह दे कर उस के अनुवाद का प्रस्ताव मेरे सामने रखा, जिसे मैं ने सहर्ष स्वीकार किया. यह प्रस्ताव मेरे पास शायद इसलिए आया क्योंकि मैं सत्यजित राय की पुस्तक ‘एबारो बारो’ का अनुवाद कर चुकी थी और वह ‘जहाँगीर की स्वर्ण मुद्रा’ नाम से राजकमल प्रकाशन से छप भी चुका था.
रितवान अपने पिता की तरह ही सहज और सरल लगे थे. अनुवाद की स्वीकृति उन्होंने डाक से भेजने की बात कही और अपने वायदे के अनुसार शीघ्र ही डाक से स्वीकृति भेज भी दी.
अब एक ऐसे फ़िल्मकार की कथा लिखना मुझे आसान नहीं लग रहा जिस की सहज-सरल उपस्थिति उन के सृजनात्मक और महान होने का तनिक भी आभास नहीं देती थी. उन के उठने-बैठने, चलने-फिरने में अहम कहीं रत्ती भर भी न था. अलबत्ता जिस शाम का जिक्र मैं ने ऊपर किया उस शाम जब वे अपनी फ़िल्मों पर बोल रहे थे तब अहम तो नहीं लेकिन आत्मविश्वास फूटा पड़ रहा था. मैं अपने बेटे की व्यस्तता के बीच अचंभित उन्हें सुन रही थी.
इस फ़िल्मकार का जन्म 4 नवम्बर 1925 को अविभाजित बंगाल के ढाका में हुआ था. उन के पिता सुरेशचंद्र घटक कवि और लेखक होने के साथ-साथ ढाका में जिला मजिस्ट्रेट थे. माता इंदुबाला देवी एक सुगृहणी थी. उन की नौ संतानें थी जिन में ऋत्विक सब से छोटे थे.
उन की ख्याति ‘मेघे ढाका तारा’ (1960), मधुमती (1958) और जुक्ति तक्को आर गल्पो (1974) से हुई. उन का विवाह वामपंथ के सक्रिय कार्यकर्ता साधना राय चौधरी की पुत्र सुरमा घटक से हुआ था. लेकिन उन का विवाह विच्छेद हुआ और सुरमा अपने पिता के घर लौट गईं. उन के तीन संतानें हुईं रितवान और दो बेटियाँ संहिता और सुचिस्मिता. रितवान अपने पिता की तरह ही फ़िल्मकार हैं और ऋत्विक मेमोरियल ट्रस्ट के संचालक भी. रामकिंकर पर जो फ़िल्म ऋत्विक घटक अधूरी छोड़ गए थे उसे पूरा किया रितवान ने. रितवान ने अपने पिता पर Unfinished Ritwik. नाम से फ़िल्म भी बनाई है. विभूतिभूषण बंदोपाध्याय की ‘इच्छामती’ पर भी काम किया है. पता नहीं वह फ़िल्म पूरी हुई या नहीं.
ऋत्विक घटक की बड़ी बेटी संहिता ने ‘नव नागरिक’ नाम की फ़िल्म बनाई. उन की छोटी बेटी सुचिस्मिता की 2009 में मृत्यु हो गई. उन के बड़े भाई मनीष घटक अपने समय के बड़े लेखक थे और अंग्रेज़ी के सफल अध्यापक भी. इप्टा से उन का गहरा जुड़ाव था. उत्तरी बंगाल के तेभागा आंदोलन में बढ़-चढ़ कर काम किया था. मनीष घटक की पुत्र महाश्वेता देवी ने आदिवासियों के बीच रह कर काम किया.
इस के पहले कि मैं उन की कहानियों पर कुछ कहूँ, जिस की जानकारी हमें बहुत बाद में हुई कि वे कहानियाँ भी लिखते थे, हम मूलतः उन्हें फ़िल्मकार के रूप में ही पहचानते हैं, इसलिए मेरी इच्छा है कि एक झलक उन के सिनेजगत की दिखाऊँ.
1948 में उन्होंने ‘कालो सायर’( The Dark Lake)नामक नाटक लिखा और नबान्न (Nabanna) नाटक में भाग लिया. 1951 में उन्होंने नाटक लिखे और नाटक निर्देशित भी किए. उन्होंने जर्मन लेखक बेर्टोल्ट ब्रेख्ट और रूसी लेखक गोगोल के नाटकों का अनुवाद भी बांग्ला में किया. उन्होंने ‘ज्वाला’ नामक नाटक लिखा और स्वयं ही उस का निर्देशन भी किया.
संगीत निर्देशक दरबार भादुड़ी बांग्लादेश के राजशाही में उन के घर के बगल वाले घर में रहते थे. ऋत्विक उन्हें ‘दादा’ या ‘गुरु’ कहा करते थे. वे उन के प्रेरणास्रोत थे.
1958 में ‘अजांत्रिक’ फ़िल्म ऋत्विक घटक की पहली प्रदर्शित फ़िल्म थी जो एक वैज्ञानिक हास्य कथा थी, जिस का प्रधान चरित्र एक मोटर गाड़ी थी. 1958 में ही रिलीज़ ‘मधुमती’ नाम की हिन्दी फ़िल्म घटक की पहली सफल फ़िल्म थी. जिसकी उन्होंने कथा और स्क्रिप्ट लिखी थी और निर्देशन स्वर्गीय विमल राय ने किया था. ‘मधुमती’ के लिए उन्हें फ़िल्मफेयर का सर्वश्रेष्ठ कथा लेखन पुरस्कार भी मिला था. ऋत्विक घटक ने आठ लंबी फ़िल्मों का निर्देशन किया. उन की सब से चर्चित फ़िल्में थी‘मेघे ढाका तारा’ (1960), ‘कोमल गांधार’ (1961) और ‘सुवर्णरेखा’ (1965). ये तीनों फ़िल्में विभाजन की त्रासदी की कथा कहती हैं लेकिन ये तीनों ही फ़िल्में विवादास्पद रहीं. इनके दृश्य कटु सत्य कहते हैं.
1966 में घटक पुणे स्थित फ़िल्म एंड टेलिविजन इंस्टीट्यूट के अध्यापक हो कर पुणे गए. मणि कौल और कुमार शाहणी जैसे फ़िल्मकार उन के विद्यार्थी थे. उन्होंने विद्यार्थियों के लिए दो फ़िल्में बनाई Fear and Rendezvous.
1970 में एक बार फिर वह फ़िल्म निर्देशन की ओर लौटे. एक बांग्लादेशी फ़िल्म निर्माता ने ‘तिताश एकटी नदीर नाम’ फ़िल्म के लिए वित्तीय सहायता प्रदान की लेकिन टीबी और अत्यधिक शराब का सेवन उन के काम में आड़े आता रहा. श्रीमती इंदिरा गांधी उन की फ़िल्मों की प्रशंसिका थी. जब उन्हें उन की बीमारी की सूचना मिली तब उन्हें वापस कोलकाता लाने के लिए हेलीकॉप्टर भेजा गया.
‘जुक्ति तक्को और गल्पो’ उन की आत्मकथात्मक फ़िल्म है. ‘तिताश एकटी नदीर नाम’ (1973) उन कुछ पहली फ़िल्मों में से एक हैं जिन में Hyperlink Format (भिन्न-भिन्न चरित्रों को एक कथा सूत्र में बांधने की कला) का प्रयोग किया गया.
ऋत्विक घटक अपनी लेखनी का जादू हिन्दी फ़िल्म ‘मधुमती’ में दिखाते हैं. यह उन की सर्वाधिक सफल फ़िल्म थी जिस की कहानी उन्होंने ही लिखी थी. माना यह जाता है कि पूर्वजन्म पर बनी यह फ़िल्म भारतीय और विश्व सिनेजगत के लिए प्रेरणा स्रोत रही है. अमेरिकी फ़िल्म The Reincarnation of Peter Proud (1975) और हिन्दी फ़िल्म ‘कर्ज’ (1980) उन की ही कहानी से प्रेरित दिखाई देती हैं.
बांग्ला फ़िल्म जगत और देश-विदेश के तमाम फ़िल्मकारों पर घटक का प्रभाव पड़ा है. ऋत्विक घटक ने मणि कौल, कुमार शाहणी, अडूर गोपालकृष्णन और केतन मेहता जैसे फ़िल्मकारों पर अपना प्रभाव छोड़ा है. मीरा नायर ने ऋत्विक घटक और सत्यजित राय को अपने फ़िल्मकार होने का श्रेय दिया है.
ऋत्विक घटक की निर्देशकीय क्षमता को पहचान काफ़ी देर से, तक़रीबन, 1990 के शुरुआती दशक में, भारत और भारत के बाहर, देश-विदेश में मिलनी शुरू हुई और तभी उन की फ़िल्मों को पुनर्जीवित करने का काम शुरू हुआ. उन की फ़िल्मों के अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शन हुए और विश्व भर के तमाम दर्शकों ने उन की फ़िल्मों की प्रशंसा की.
सन् 2007 में ब्रिटिश फ़िल्म संस्थान द्वारा लिए गए एक सर्वे में दस प्रमुख बांग्लादेशी फ़िल्मों को चुना गया जिन में ‘तिताश एकटी नदीर नाम’ सर्वोपरि रही. बांग्लादेशी फ़िल्मकार शहनवाज़ काकुली घटक को अपना आदर्श मानती हैं और उन की फ़िल्मों से बेहद प्रभावित हैं. वे कहती है कि सभी बंगालियों की तरह मैं भी ऋत्विक घटक और सत्यजित राय की फ़िल्में देखती हुई बड़ी हुई हूँ. लेकिन मैं सत्यजित राय से अधिक ऋत्विक घटक से प्रभावित हूँ और शायद इसीलिए मेरी फ़िल्म ‘उत्तरेर सुर’ (Northern Symphony)) भी ऋत्विक घटक से ही प्रेरित है.
ऋत्विक घटक केवल फ़िल्मकार ही नहीं थे. वे बड़े सिद्धांतकार भी थे. फ़िल्मों पर उन के विचारों और उन की टिप्पणियों का विद्वानों के बीच बहुत महत्व है. वे जीवन भर मार्क्सवादी विचारधारा से प्रेरित रहे और कम्युनिस्ट पार्टी को अपना सक्रिय योगदान देते रहे, हालाँकि उन के स्वतंत्र विचारों के कारण भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की जिला समिति ने 1955 में उन्हें पार्टी से निकाल दिया था.
ऋत्विक घटक भारतीय व्यावसायिक फ़िल्मों से दूर रहे. केवल उन की सफल फ़िल्म मधुमती ही अपवाद रही. उन के समकालीन सत्यजित राय और मृणाल सेन की फ़िल्मों के दर्शक दुनिया भर में थे लेकिन घटक को अपने जीवन काल में वह सौभाग्य नहीं मिला. वे विद्यार्थियों और विद्वानों के बीच ही चर्चित रहे. सत्यजित राय की अबाध प्रशंसा भी उन्हें साधारण जनों के बीच ख्याति नहीं दिला पायी.
उन की पहली फ़िल्म ‘नागरिक’ थी जो सत्यजित राय की ‘पाथेर पंचाली’ से तीन बरस पहले 1952 में बनी थी. ‘नागरिक’ संभवतः बांग्ला कला फ़िल्मों में पहली फ़िल्म थी लेकिन उसे उस का देय नहीं मिल पाया क्योंकि वह फ़िल्म बनने के चौबीस वर्ष बाद ही थियेटर का मुँह देख पायी. (घटक के निधन (1976) के बाद, 1977 में!)
सन् 1958 में ऋत्विक घटक की फ़िल्म ‘बाड़ि थेके पालिये’ बनी और 24 जुलाई 1959 को रिलीज़ हुई. इस फ़िल्म में घटक ने एक ग्रामीण बच्चे की नज़र से कोलकाता जैसे महानगर को देखा था. परंतु घटक की यह फ़िल्म भी चर्चा से बाहर रही, हालाँकि उसी जैसे कथानक पर आधारित प्रसिद्ध फ्रेंच निर्देशक फ्रांस्वा त्राफ़ो की फ़िल्म The Four Hundred Blow ;1959) को फ्रेंच न्यूवेव सिनेमा का जनक माना गया.
उन की फ़िल्मों पर बहुत कुछ लिखा जा सकता है. अपने यौवन में घटक शराब छूते तक नहीं थे लेकिन इस गहरी उपेक्षा से जन्मी असफलता के कारण वे शराब पीने लगे थे. हालाँकि उन्हें ‘जुक्ति तक्को और गल्पो’ के लिए सन् 1974 में राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार रजत कमल अवार्ड से नवाजा गया. बांग्लादेशी सिने जर्नलिस्ट एसोसिएशन ने ‘तिताश एकटी नदीर नाम’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार दिया. भारत सरकार ने कला के लिए उन्हें 1970 में पद्मश्री प्रदान की.
अब एक नज़र उन की कहानियों पर. रितवान ने जो संग्रह मुझे दिया उस में 16 कहानियाँ थी. मैं सिर्फ़ सात कहानियों का अनुवाद कर पायी. 1989 में कहानियों का अनुवाद शुरू किया. 1990 तक केवल सात कहानियों का अनुवाद कर सकी. कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं में छपती रहीं. फिर घरेलू व्यस्तताओं और आलस्य के कारण संग्रह किताबों में दबा पड़ा रहा. संभावना प्रकाशन के अभिषेक अग्रवाल को जब पता चला तो उन्होंने उसे छापने की इच्छा ज़ाहिर की. काग़ज़ों से ढूँढ कर कहानियाँ निकाली और कहानियाँ उन्हें थमा दीं. उन की इच्छा थी कि मैं ऋत्विक घटक पर एक लंबा लेख लिखूँ जिसे मैं नहीं कर पायी.
चूंकि मैं सत्यजित राय की कहानियाँ पढ़ चुकी हूँ और उन का अनुवाद भी कर चुकी हूँ इसलिए इन दोनों महान् फ़िल्मकारों की कहानियों पर अपनी तुलनात्मक राय रख देना चाहती हूँ. राय की कहानियों के अधिकतर पात्र असफल हैं उन की कहानियाँ पाठकों को पात्रों के मनोजगत् से परिचित कराती हैं. पाठक को सोचने के लिए विवश करती हैं. लेकिन घटक की कहानियाँ साधारण जन के संघर्ष की कहानियाँ हैं जो पाठक को स्तब्ध करती हैं.
विभाजन की त्रासदी से कभी मुक्त न हो सके ऋत्विक घटक अपने इर्द-गिर्द हो रहे अत्याचारों का वर्णन करते हैं. यहाँ तक कि अत्याचार, दुर्व्यवहार से उकता कर प्रकृति की गोद में सहज, सरल जीवन व्यतीत करने की इच्छा रखते हैं. उन के पात्र अत्याचार सहन करते हुए इस क़दर अपना आपा खो बैठते हैं कि हिंसक हो कर हत्या तक कर डालते हैं.
‘राजा’ नामक कहानी का नायक राजा, जिस का विद्यार्थी जीवन उज्ज्वल था लेकिन कवि और लेखक बनने की इच्छा उसे उद्दंड बना देती है. बरसों बाद जब कॉलेज के मित्र उसे खोज निकालते हैं और मिलते हैं तब वह मनगढ़ंत कहानी सुना कर उन्हें चकमा देता है. कॉलेज के सभी मित्र सफल हैं. असफल है तो केवल वह, जिस के संबंध में सब की धारणा है कि वह निश्चय ही सफल होगा. अपनी असफलता छुपा कर वह एक मनगढ़ंत सफल जीवन की कथा कह डालता है और गहरी निद्रा में सोए हुए एक साथी का पर्स निकाल कर चला जाता है. इस तरह मानवीय कमज़ोरियों को उजागर करती हुई यह कहानी पाठक को स्तब्ध करती है.
पौराणिक कथाओं को आधुनिक संदर्भ में देखने के प्रयास में वे समाज को पुरातन भूमिका दिखाते हैं. अर्जुन द्वारा अपहरण की जा रही सुभद्रा का बचाव समाज करता है, बग़ैर इस की पड़ताल किए कि सुभद्रा को अपहरण किए जाने पर कोई आपत्ति नहीं है, क्योंकि वह अर्जुन से प्रेम करती है और रथ की बागडोर स्वयं थाम कर अर्जुन की सहायता करती है.
जिस प्रकार सिनेमा में दृश्य चित्रित करने की अदभुत क्षमता घटक में थी, उसी तरह वे अपनी कहानियों में शब्द के माध्यम से पाठक के सामने चित्र उभारते चले जाते हैं.
अंत में मैं रितवान घटक को धन्यवाद देना चाहती हूँ, जिन्होंने मुझे अनुवाद करने की स्वीकृति प्रदान की. मंगलेश डबराल के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन आवश्यक है, जो इस के कारक बने. खेद है कि रितवान से फिर मुलाक़ात नहीं हो सकी. हालाँकि पत्रिकाओं में छपी कहानियों की कटिंग्स उन्हें भेजी थी, लेकिन उन की कोई प्रतिक्रिया मुझे नहीं मिली. उम्मीद है इस संग्रह के आने पर शायद उन से संपर्क हो सके. संभावना प्रकाशन के अभिषेक अग्रवाल और उन की पत्नी वरुणा को धन्यवाद देना औपचारिकता होगी. हृदय से उन का आभार. यह संग्रह जब पाठकों के हाथ में होगा तब चाहती हूँ कि मुझे सच्ची प्रतिक्रिया मिले.
चंद्रकिरण राठी