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विष्णु खरे : पवन मल्होत्रा बेनक़ाब

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पवन मल्होत्रा को आप चेहरे से पहचानते होंगे, संभव है उनका नाम न जानते हों. हम फिल्मों के नाम पर केवल ‘मुख्य–धारा’ के नायक, नायिकाओं की चर्चा देखते सुनते रहते हैं. कला की दुनिया में ऐसे तमाम लोग हैं जो ख़ास हैं पर किन्हीं ‘अज्ञात’ कारणों से उन पर बहस नहीं होतीं.

पवन मल्होत्रा का कार्य कितना असरदार है विष्णु खरे का यह आलेख दिखाता है.  
     

पवन मल्होत्रा बेनक़ाब                                                

विष्णु खरे 


किसी कलाकार के सक्रिय जीवन-काल में किस मोड़ या पड़ाव पर पीछे पलटकर उसका मूल्यांकन या पुनरावलोकन किया जाए ? यदि उसमें वाक़ई प्रतिभा है या थी तो ऐसे जायज़े उसकी ज़िन्दगी में ही नहीं,उसके बाद भी,दशकों,शताब्दियों तक लिए जाते हैं.लेकिन यह सवाल भी उठते रहते हैं वह कलाकार उसके लायक़ है भी या नहीं.

57 वर्षीय अभिनेता पवन मल्होत्राको रंगमंच,टेलीविज़न और फ़िल्में करते हुए क़रीब पच्चीस बरस हो गए.रुपहले पर्दे की बेरहम दुनिया में यह एक लम्बा अर्सा होता है जहाँ अधिकांश "आर्टिस्ट’’ क़दम रखते ही हमेशा के लिए ग़ायब हो जाते हैं.यह सही है कि पवन कभी सलमान,आमिर, शाहरुख़, और इमरान भी, नहीं बन पाए, भले ही क़ाबिलियत में वह इनसे वह बीस नहीं तो न्नीसे भी नहीं रहे. सलमान को तो कोई सहीदिमाग़ शख़्स कलाकार मान ही नहीं सकता. दुर्भाग्यवश, जीवन में भाग्य जैसी शय भी होती है. फ़िल्म-लाइन में एक सही या ग़लत ‘ब्रेक’ से वारे-न्यारे हो जाते हैं.

लेकिन एक होती है ‘बॉक्स-ऑफ़िस बिच’और दूसरी होती है अभिनय की देवी. कुछ कलाकारों पर दोनों प्रसन्न होती हैं, कुछ को एक ही का कृपा-कटाक्ष मिलकर रह जाता है. अब देखिए कितने प्रतिभावान एक्टर थे राजेश विवेक, लेकिन व्यापारिक सफलता उनसे अधिकतर कतराती रही या वही उससे कटते रहे. पवन मल्होत्रा का मामला दिलचस्प है. वह भी अपने स्कूल और दिल्ली के हंसराज कॉलेज, फैज़ल अल्काज़ी, मंडी हाउस के नाट्य-वातावरण और फिर राजेश की तरह नैशनल स्कूल ऑफ़ ड्रामासे वाबस्ता रहे, नुक्कड़-नाटक किए, एटनबरो की ‘’गाँधी’’ के पोशाक विभाग में काम किया, यही सईद मिर्ज़ा,  अज़ीज़ मिर्ज़ा,  कुंदन शाहआदि के साथ भी, और  'जाने भी दो यारो’व ‘मोहन जोशी हाज़िर हो’जैसी फिल्मों को बनते हुए देखा.

पवन उन भाग्यशाली अभिनेताओं में से हैं जिन्हें शुरूआती ‘एक रुका हुआ फैसला’ के बाद पहले ‘नुक्कड़’जैसा सीरियल और बाद में ‘सलीम लँगड़े पे मत रो’सरीखी फिल्म मिली. 'बाघ बहादुर’ जैसी असाधारण फिल्म में जब 1990 में बुद्धदेब दासगुप्ताने उनके पूरे शरीर पर बाघ जैसा मुहर्रमी ग्रीज़-पेंट लगाकर ग्राम-कलाकार घुनूराम का रोल दिया, जिसे पवन ने विलक्षण यथार्थ और करुणा के साथ निबाहा, तो भारतीय सिने-जगत में तहलका मच गया. पवन ने उसी बरस दूसरा विस्फोट तब किया जब उन्होंने ‘बाघ बहादुर’ के किरदार से बिलकुल अलग सईद मिर्ज़ाकी महानगरीय फ़िरक़ावाराना माफ़िया फिल्म ‘सलीम लँगड़े पे मत रो’ में सलीम की केन्द्रीय भूमिका निबाही. इन दोनों फिल्मों से पवन पर एक गंभीर एक्टर की स्थायी मुहर लग गई, जबकि उन्होंने लोकप्रिय किमाश वाले रोल किए और अब भी कर रहे हैं.

दिल्ली के इंडिया इंटरनेशनल सेंटर ने अभी 11-21 जनवरी के बीच पवन की छः फिल्मों का देश में शायद ऐसा पहला पुनरावलोकन आयोजित कर एक छोटी, नीम-तसल्लीबख्श लेकिन अच्छी शुरूआत की है. मीरा दीवानद्वारा चयनित-प्रस्तुत (उपरोक्त दो के अलावा) यह फ़िल्में  'ब्रदर्स इन ट्रबल’, ’चिल्ड्रन ऑफ़ वॉर’, ’पंजाब 1984’ तथा ‘एह जनम तुम्हारे लेखे’ हैं और अभिनेता के कला-वैविध्य की एक ललचाने-वाली बानगी देती हैं. अक्सर होता यह है कि आज इतने घटिया घुमंतू "राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय’’उचक्के "एक्सपर्टों’’ द्वारा भ्रष्ट या फ़िल्म-मूर्ख सरकारी अफ़सरों या ग़ैर-सरकारी संस्थाओं  की मिलीभगत से कुछ पाइरेटेड डीवीडी पालिका बाज़ार आदि से ख़रीद कर "फ़िल्म फैस्टिवल’’आयोजित कर लाखों रुपये परस्पर पार कर दिए जाते हैं कि मीरा दीवानजैसी मिहनत और सलाहियत नज़रंदाज़ हो जाती हैं. इन फिल्मों के चुनाव के पीछे मीरा दीवान का साहसिक सामाजिक-सेकुलर-असहिष्णुता-विरोधी राजनीतिक अजेंडा भी स्पष्ट है. 'चिल्ड्रन ऑफ़ वॉर’को तो दर्ज़नों-अंतर्राष्ट्रीय सम्मानों का सिलसिला अब तक थमा नहीं है.

दिल्ली के इस ‘’रेट्रोस्पेक्टिव’’ में सिर्फ फ़िल्में नहीं दिखाई गई थीं बल्कि खालिद मुहम्मद के साथ पवन मल्होत्राको ‘’बेनक़ाब’’करनेवाली एक खुली बातचीत भी थी, साथ में बुद्धदेब दासगुप्ता, सईद मिर्ज़ा, अमित राय, मृत्युंजय देवव्रत, फैज़ल अल्काज़ी और राकेश ओमप्रकाश मेहराके साथ भी आपसी, सार्वजनिक, दोस्ताना, बौद्धिक और सिनेमाई दो-दो हाथ भी आयोजित थे. ऐसे सार्थक और दिलचस्प सेमिनार बहुत कम देखे-सुने जाते हैं. यह फ़िल्में कई शहरों में दिखाई जानी चाहिए, साथ में इस संगोष्ठी की डीवीडी भी. आखिरकार इस ‘’रेट्रो’’ में पवन मल्होत्रा के विभिन्न किरदारों की एक सूझ-बूझ भरी डीवीडी मुफ्त बाँटी ही जा रही है.


लेकिन सच यह है कि पवन की फ़िल्में कई हैं और उनसे उद्धरण चुनना आसान नहीं है. 'अब आएगा मज़ा', 'सौ करोड़', 'अंतर्नाद', 'सिटी ऑफ़ जॉय', 'तर्पण', 'परदेस', 'अर्थ', 'फ़क़ीर', 'दि परफेक्ट हसबैन्ड', 'ब्लैक फ्राइडे',’ 'डॉन – दि चेज़ बिगिन्स अगेन', 'माई नेम इज़ एन्थनी गोंसाल्वेज़', 'दिल्ली-6', 'भेंडी बाज़ार', 'भाग मिल्खा भाग', 'जोरावर', 'बैंग बैंग' आदि उनकी ऐसी फ़िल्में हैं जो चली हों या नहीं, उनके अभिनय को सराहा गया है. एक तथ्य जो बहुत कम ज्ञात है यह है कि उन्होंने 2003-2006 के बीच 'ऐथे', 'अनुकोकुंडा ओका रोजु, आन्ध्रुडु' तथा 'अम्मा चेप्पिंडी' जैसी तेलुगु फिल्मों में भी सफल काम किया है. उन्हें हरफ़नमौला कहा जा सकता है.

वैसे यह स्वाभाविक है कि पवन मल्होत्राके निदेशक उनकी प्रशंसा करें लेकिन सईद मिर्ज़ा कहते हैं कि युवा पवन में अद्भुत ऊर्जा और संकल्प थे.  जब वह एक्टर नहीं थे तब अपने आसपास के सभी कलाकारों का बहुत ध्यान से अध्ययन करते थे.  अब तो वह माहिर अदाकार हो चुका है. बुद्धदेब बसुभी कहते हैं कि 'बाघ बहादुर' के समय पवन लगभग नए एक्टर थे लेकिन उनकी एक्टिंग को राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय दर्शक और समीक्षक अब भी याद करते हैं और उस पर बहस करते हैं. वह बहुत मिहनत से अभिनय करता है और अपना सर्वश्रेष्ठ देना चाहता है.  कह सकते हैं कि पवन निदेशक का एक्टर है. 'एह जनम तुम्हारे लेखे' के निदेशक हरजीत सिंहभी कहते हैं कि पवन खुद को किरदार में डुबो देता है. 'चिल्ड्रन ऑफ़ वॉर' के निदेशक म्रियुन्जय देवव्रत,जो युवक होने के कारण पवन मल्होत्रा को 'सर'कहते हैं, बतलाते हैं की वह मेरी स्क्रिप्ट पढ़ते ही उसमे काम करने के लिए तैयार हो गए थे. अमित रायका कहना है कि उन्होंने मेरी फिल्म 'रोड टू संगम' में अपने किरदार मौलाना अब्दुल क़य्यूमको अमर कर दिया. 'पंजाब 1984' के डायरेक्टर  अनुराग सिंह कहते हैं कि इस फिल्म की कोई पब्लिसिटी नहीं हुई थी लेकिन पवनजी ने खुद होटलों, गुरुद्वारों आदि  में जाकर उसके पोस्टर बाँटे और चिपकाए.

पवन मल्होत्रा स्वयं विनम्रता से कहते हैं : ‘आप मेरी फ़िल्में देखिए और हम सब के भीतर छिपे हुए  पात्रों और चरित्रों की खोज कीजिए. हम सब वह सब हो सकते थे या नहीं भी. मैं अपने डायरेक्टरों और करोड़ों दर्शकों का शुक्रिया अदा करता हूँ कि वह मुझ पर इतना भरोसा करते हैं’.

पवन मल्होत्रा को एक्टिंग करते हुए 25 वर्ष हो चुके हैं. अभी वह साठ वर्ष के भी नहीं हुए हैं और दीखते पचास वर्ष जैसे हैं. अहंकार और आत्म-रति उनमें नहीं हैं.  अभी उनके पास बहुत काम है और इंडस्ट्री को उनकी ज़रुरत है.  वह बुद्धिजीवी हैं और प्रगतिकामी चिंतन और सिनेमा में यक़ीन करते हैं.  उनके साथ कोई स्कैंडल या विवाद नहीं सुने गए.  हम भाग्यशाली हैं कि पवन मल्होत्रा के लायक़ सिनेमा अब भी बन ही रहा है और उसमें काम करने के लिए अभी वह लम्बे अर्से तक अपनी टीम के साथ हमारे बीच मौजूद रहेंगे.

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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल 


विष्णु खरे: 
कवि, आलोचक, अनुवादक, संपादक, फ़िल्म मीमांसक और टिप्पणीकार
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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