This is Not the End of the Book’ डिजिटल संचार के इस दौर में किताबों के भूत, भविष्य और वतर्मान पर ‘अम्बर्तो इको’, ज्यांक्लाउदेकैरिएयर’तथा‘ज्यांफिलिपडेटोनाक’ के बीच का संवाद है. इसके एक अंश का अनुवाद कवि विजयकुमार ने किया है. अम्बर्तो इको की स्मृति में अब यह आपके लिए.
मशीन, ज्ञान और स्मृति : अम्बर्तो इको से एक बातचीत
विजयकुमार
बेहदजीवंत, प्रखरऔरलोकप्रियइतालवीलेखकअम्बर्तोइकोकागत 19 फरवरीको 84 वर्षकीआयुमेंइटलीमेंनिधनहोगया.वेकुछसमयसेकैंसरसेजूझरहेथे.इकोमेंअपनेउपन्यासोंऔरवैचारिकलेखनमेंअतीतकीरहस्यमयताकोभविष्यकीअनिश्चिततासेजोड़देनेकीएकअद्वितीयप्रतिभाथी.उनकेउपन्यास'दिनेमऑफदिरोज़'काविश्वकी 40 सेअधिकभाषाओंमेंअनुवादहुआहै.एकमहत्वपूर्णउपन्यासकारहोनेकेअलावावेइसदौरकेउनगिनेचुनेबौद्धिकोंमेंसेथेजिन्होंनेहमारेसमयमेंसंस्कृति, टेक्नॉलॉजीऔरमानवसभ्यताकेआधारभूतप्रश्नोंपरगहनचिन्तनकियाहै.अम्बर्तोइकोसेइटलीकेनाटककार‘ज्यांक्लाउदेकैरिएयर’तथासम्पादक‘ज्यांफिलिपडेटोनाक’कीएकअद्भुतलम्बीबातचीतहै.इसपुस्तकाकारबातचीतके कुछचुनेहुएअंशोंका अनुवादमैंनेवर्ष 2013 में कियाथाऔरयह एकलघुपत्रिकामेंछपीथी. इसअसाधारणसंस्कृतिचिन्तककीस्मृति मेंउसबातचीतकेकुछअंशयहां पुन: प्रस्तुतहैं.
समय बदलता है और चीज़ों से हमारे रिश्ते भी बदलते जाते हैं. जिसे हम सभ्यता कहते हैं वह चीज़ों को चुनने और छोडने का एक सुदीर्घ और अबाध सिलसिला है. इस प्रश्न से किनारा करना मुश्किल है कि इस डिजिटल क्रांति और साइबर समय में मुद्रित शब्द का क्या होगा ? क्या शब्द केवल इलेक्ट्रोनिक स्क्रीन पर ही बचा रहेगा ? क्या पुस्तकें समाप्त हो जायेंगी और् ग्रंथागार अप्रासंगिक होते जायेंगे ? छवि प्रधान संसार में हमारी पढने की उन पुरानी आदतों का क्या होगा? कागज़ विहीन होते जाते समय का सर्जक या कलाकार से क्या सम्बन्ध बन रहा है?? भविष्य में हमारी स्मृतियों की क्या भूमिका होगी? पुस्तकें अलग से कोई मुद्दा नहीं हैं. वह विकास के तमाम अंतर्विरोधों से भरे हमारे इस समय की दूसरी तमाम चिंताओं का ही एक हिस्सा है. सांस्कृतिक विच्छिन्नताओं के स्थिति के बहुत सारे आयाम हैं और नाना प्रकार की जटिलतायें. कलाकार और बुद्धिजीवी जब इन प्रश्नों से टकराते हैं तो वे भविष्यवेत्ताओं या नज़ूमियों की तरह बात नहीं करते. बीतते समय को लेकर उनके अपने सरोकार होते हैं. विश्व- प्रसिद्ध इतालवी उपन्यासकार और संस्कृति -चिंतक अम्बर्तो इकोसे प्रसिद्ध नाटककार व पटकथा लेखक ज्यां क्लाउदे कैरिएयरतथा लेखक -सम्पादक ज़्यां फिलिप डे टोनाकने एक लम्बी बातचीत की थी जो ‘दिस इज़ नॉट द एंड ऑफ द बुक‘ के रूप में पुस्तकाकर प्रकाशित हुई है.
_____________________________ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : 2008 में दावोस में हुए विश्व आर्थिक सम्मेलन में एक भविष्यवक्ता था जिसने कहा कि अगले पन्द्रह वर्षों में चार चीज़ें मानव - सभ्यता में भारी परिवर्तन ला देंगी. तेल 500 डॉलर प्रति बैरल, दूसरी चीज़ होगी पानी. तेल की तरह वह भी एक कमर्शियल वस्तु बन जायेगा. तीसरी बात होगी कि अंतत: अफ्रीका भी एक आर्थिक शक्ति बन ही जायेगा. इस पेशेवर भविष्यवक्ता के अनुसार चौथा परिवर्तन यह होगा कि पुस्तकें गायब हो जायेंगी. सवाल यह है कि क्या पुस्तकें स्थायी रूप से हमारे जीवन से हट सकती हैं? क्या उन्हें हट जाना चाहिये? क्या उनके हटने का मनुष्य के जीवन पर उसी तरह से असर होगा जैसे पानी की कमी या तेल की उपलब्धता का?
अम्बर्तो इको : क्या इंटरनेट के परिणामस्वरूप पुस्तकें गायब हो सकती हैं ? मैंने इस पर उस समय लिखा था जब यह बहुत गरमागरम सवाल लगता था. आज जब मुझसे से पूछा जाये तो मैं पुन: अपनी उसी धारणा को दोहराउंगा और उसी लेख को दोबारा लिखूंगा. इस बीच नया क्या हुआ है? इंटरनेट के कारण हम वर्णमाला की तरफ दोबारा लौटे हैं. यदि हम यह सोचते थे कि हमारी यह पूरी तरह एक विजुअल सभ्यता बन चुकी है तो कम्प्युटर हमें गुतेनबर्ग के तारकमंडल में लौटाता है. अब इसके बाद हर किसी को पढना होगा. पढने के लिये आपको एक माध्यम चाहिये. माध्यम केवल कम्प्यूटर स्क्रीन ही नहीं हो सकता. कम्प्यूटर पर किसी उपन्यास को पढते हुए दो घंटे बिताइये, आपकी आंखे टेनिस बॉल में तब्दील हो जायेंगी. घर पर स्क्रीन पर अबाधित रूप पढने हुए आंखों को नुकसान से बचाने के लिये मैं पोलोरॉइड चश्मे का इस्तेमाल करता हूं. और फिर कम्प्युटर बिजली पर निर्भर है. कंप्युटर पर आप बाथरूम में नहीं पढ सकते, लेट कर नहीं पढ सकते. दो मे से एक चीज़ होगी. या तो पढने का माध्यम किताब ही बनी रहेगी या उसका विकल्प उसी तरह का होगा जैसे कि किताब हमेशा से रही है. मुद्रण कला के आविष्कार से भी पहले के समय से और बाद में पिछले 500 वर्षों में किताब को एक वस्तु में बदलने के लिये किये गये तमाम हेर – फेर किये गये हैं पर इससे से न तो उसका कार्य बदला है, न उसका व्याकरण.
किताब किसी चम्मच, कैंची, हथौडे या पहिये की तरह है. एक बार इन चीज़ों का आविष्कार हो गया तो उन्हें और विकसित नहीं किया जा सका. आप अब कोई ऐसा चम्मच नहीं बना सकते जो चम्मच से ज़्यादा चम्मच हो. डिज़ाइनकर्ताओं ने जब कॉर्क स्क्रू जैसी किसी चीज़ में सुधार करना चाहा तो उन्हें बहुत सीमित सफलता मिली, उनके बहुत सारे सुधार किसी काम के नहीं थे. किताब के साथ खूब आज़माइश की जा चुकी है, ऐसा नहीं हुआ है कि उसके वर्तमान उद्देश्य में कोई बडा परिवर्तन आ गया हो. सम्भव है कि उसके घटकों में कुछ सुधार हो जाये, शायद भविष्य उसके पन्ने कागज़ के न हों. पर फिर भी वह किताब ही रहेगी.
किताब किसी चम्मच, कैंची, हथौडे या पहिये की तरह है. एक बार इन चीज़ों का आविष्कार हो गया तो उन्हें और विकसित नहीं किया जा सका. आप अब कोई ऐसा चम्मच नहीं बना सकते जो चम्मच से ज़्यादा चम्मच हो. डिज़ाइनकर्ताओं ने जब कॉर्क स्क्रू जैसी किसी चीज़ में सुधार करना चाहा तो उन्हें बहुत सीमित सफलता मिली, उनके बहुत सारे सुधार किसी काम के नहीं थे. किताब के साथ खूब आज़माइश की जा चुकी है, ऐसा नहीं हुआ है कि उसके वर्तमान उद्देश्य में कोई बडा परिवर्तन आ गया हो. सम्भव है कि उसके घटकों में कुछ सुधार हो जाये, शायद भविष्य उसके पन्ने कागज़ के न हों. पर फिर भी वह किताब ही रहेगी.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : ऐसा प्रतीत होता है कि ई- बुक का नवीनतम संस्करण मुद्रित पुस्तक के साथ सीधी स्पर्धा में है.
अम्बर्तो इको : इसमें शक नहीं कि एक वकील के 25 हज़ार पृष्ठों के दस्तावेज यदि ई- बुक में लोड कर दिये जायें वह आसानी से उन्हें अपने घर ले जा सकता है. बहुत सारे क्षेत्रों में इलेक्ट्रॉनिक पुस्तक असाधारण रूप से सुविधाजनक है. लेकिन मैं अब भी इस बात से सहमत नहीं हूं - आला दर्ज़े की टेक्नॉलॉज़ी उपलब्ध हो जाये तो भी इस बात से सहमत नहीं हूं कि ‘वार एंड पीस‘ ई- बुक के रूप में पढना उचित होगा. यह एकदम सच है कि तॉलस्तॉय के जिस संस्करण को हमने पढा था अब दोबारा कभी उसे हासिल नहीं कर पायेंगे. यहां तक कि हमारे संग्रहों में जो भी किताबें उपलब्ध रहीं हैं उनके वे पुराने संस्करण अब भविष्य में हमें कभी नहीं मिल सकेंगे. वे कागज़ खराब होना शुरु हो चुके हैं. वे टुकडे टुकडे होकर बिखर रहे हैं. लेकिन मैं फिर भी खुद को उन्हीं पुराने संस्करणों से बंधा हुआ पाता हूं. उनके अलग रंगों के भाष्य मेरी अलग तरह के पठन की कहानी कहते हैं.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : हरमन हेस ने 1950 में एक दिलचस्प बात कही थी कि मनोरंजन और मुख्य धारा की शिक्षा की ज़रूरतों को पूरा करने के लिये ज्यों ज्यों नये आविष्कार होते जायेंगे किताब को उतनी ही अपनी गरिमा और गौरव दोबारा हासिल होता जायेगा. हम उस बिन्दु पर अभी नहीं पहुंचे हैं जहां रेडियो, सिनेमा जैसे बाद में आये प्रतिस्पर्धियों ने किताब का कोई ऐसा काम अपने हाथ में ले लिया हो जो वह खोना गवारा नहीं कर सकती.
ज़्यां फिलिप डे टोनाक : हरमन हेस गलत नहीं थे. सिनेमा, रेडियो और यहां तक कि टेलिविजन भी पुस्तक से ऐसा कुछ भी नहीं छीन पाया जो उसे देना मंजूर नहीं था.
अम्बर्तो इको: समय के किसी मुकाम पर मनुष्य ने लिखे हुए शब्द का अविष्कार किया था.आज हम लेखन को हाथ का विस्तार मानते हैं. और इसलिये वह लगभग बायलोजिकल है. ऐसा संप्रेषण औज़ार है जो शरीर के साथ सर्वाधिक निकटता से जुडा हुआ है. एक बार आविष्कृत हो जाने के बाद उसे त्यागा नहीं जा सकता. पुस्तक उसी तरह से एक आविष्कार थी जैसे पहिया. आज भी पहिया उसी तरह से है जैसे वह प्र्रागेतिहासिक समय में था. सिनेमा, रेडियो, इंटरनेट जैसे हमारे आधुनिक आविष्कार बायलोजिकल नहींहैं.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : अच्छा हुआ आपने यह बात उठायी. आज हम जितना पढ और लिख रहे हैं, यह ज़रूरत पहले कभी इतनी नहीं थी. और आपको पहले के किसी भी समय की तुलना में आज खुद को अधिक तैयार करना होगा. आप ठीक से लिख या पढ नहीं सकते तो आप कम्यूटर का इस्तेमाल नहीं कर सकते. पहले के किसी भी समय की तुलना में आज ज़्यादा जटिल रूप में पढना और लिखना पड रहा है क्योंकि नये चिह्नों और संकेतों का आविष्कार हुआ है. हमारी वर्णमाला फैल गयी है. दिनों-दिन पढना सीखना ज़्यादा मुश्किल होता जा रहा है. यदि हमारा कम्प्यूटर हमारे मौखिक शब्दों को सही सही रूपान्तरित करने में सक्षम हो गया तो उस स्थिति में शायद हम दोबारा वाचिक परम्परा की ओर लौट रहे होंगे. लेकिन एक प्रश्न यहीं यह पर उठता है कि यदि किसी को पढना और लिखना नहीं आता तो क्या वह खुद को ठीक से व्यक्त कर सकता है?
अम्बर्तो इको : होमर निश्चित रूप से इसका जवाब देता – ‘हां‘.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : लेकिन होमर वाचिक परम्परा के थे. उन्होंने उस समय उस परम्परा से सीखा था जब यूनान में कुछ भी लिखा नहीं गया था.
क्या इसकी कल्पना आप आज उस समलालीन लेखक से कर सकते हैं जो अपना उपन्यास डिक्टेशन देकर लिखाये और वह भी तबजब उसे अपने साहित्य की परम्परा के बारे में कुछ भी मालूम न हो? हो सकता है कि उसका उपन्यास बडा लुभावना हो, भोला सा हो, ताज़गी से भरा हो, असाधारण भी हो. पर उसमें वह नहीं होगा जिसे हम यदि एक शब्द में कहना चाहें तो कहेंगे – ‘संस्कृति‘. रिम्बो ने अपनी असाधारण कवितायें तब लिखीं जब वह एकदम युवा था. लेकिन वह स्व चालित प्रबोधन से कोसों दूर था. सोलह वर्ष की आयु में ही उसे एक ठोस क्लासिक किस्म की शिक्षा के लाभ मिल गये थे. वह लैटिन में कविता लिख सकता था.
क्या इसकी कल्पना आप आज उस समलालीन लेखक से कर सकते हैं जो अपना उपन्यास डिक्टेशन देकर लिखाये और वह भी तबजब उसे अपने साहित्य की परम्परा के बारे में कुछ भी मालूम न हो? हो सकता है कि उसका उपन्यास बडा लुभावना हो, भोला सा हो, ताज़गी से भरा हो, असाधारण भी हो. पर उसमें वह नहीं होगा जिसे हम यदि एक शब्द में कहना चाहें तो कहेंगे – ‘संस्कृति‘. रिम्बो ने अपनी असाधारण कवितायें तब लिखीं जब वह एकदम युवा था. लेकिन वह स्व चालित प्रबोधन से कोसों दूर था. सोलह वर्ष की आयु में ही उसे एक ठोस क्लासिक किस्म की शिक्षा के लाभ मिल गये थे. वह लैटिन में कविता लिख सकता था.
ज़्यां फिलिप डे टोनाक : हम एक ऐसे युग में पुस्तक के स्थायित्व की चर्चा कर रहे हैं जब प्रचलित सभ्यता का रुख दूसरी तरफ है- शायद ज़्यादा करतब दिखाने वाले उपकरणों की तरफ. उन मीडिया फॉर्मेटों पर हम क्या सोचते हैं जिनके बारे में कहा जाता था कि वे पाठ – सामग्री और निजी स्मृतियों का स्थायी रूप से संग्रहण कर सकते हैं. मेरा इशारा फ्लॉपी डिस्क, विडियो टेप्स और सीडी रोम्स की तरफ है जो अब बहुत पीछे छूट गये हैं.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : हम अभी भी पांच सौ वर्ष पहले छपी मुद्रित सामग्री को पढ सकते हैं लेकिन उस विडियो या सीडी रोम को अब देखना कठिन हो गया है जो अभी कुछ ही साल पहले प्रचलन में था. यह आप तभी कर सकते हैं जब आपके घर के बेसमेंट में बहुत सारे पुराने कम्युटरों को सहेजे रखने की जगह हो.
अम्बर्तो इको : यह बढती हुई गति हमारी सांस्कृतिक विरासत को खत्म कर देगी. यह शायद हमारे समय की एक सबसे एक पेचीदा स्थिति है. हम तरह तरह के उपकरण ईजाद करते हैं कि हमारी स्मृतियां सुरक्षित रहें, तमाम तरह के रेकार्डिंग उपकरण और वे तरीके जिनके द्वारा ज्ञान को एक जगह से दूसरी जगह ढोया जा सके. यह एक बडी तरक्की है उन पुराने दिनों की तुलना में जब आप चीजों को सहेजने के लिये केवल स्मृति पर निर्भर थे. तब बहुत सारी चीजें नहीं थीं और लोग चीजों को अपनी उंगलियों पर गिनते थे. पर दूसरी ओर यह भी सच है कि चीजों की स्मृति को सहेजने वाले ये उपकरण बहुत जल्दी व्यर्थ भी हो जाते हैं., नये उपकरण देखते ही देखते उन्हें प्रचलन से बाहर कर देते हैं. लेकिन उससे भी बडी समस्या यह है कि जिन सांस्कृतिक वस्तुओं को हम सहेजना चाहते हैं उनके चयन में भी हम समदर्शी और निष्पक्ष नही हैं.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : आइये हम एक सांस्कृतिक संकट में स्वयं को रख कर देखें. फर्ज़ कीजिये कि किसी भीषण पर्यावरणीय संकट की वज़ह से यह सभ्यता अपने विनाश के कगार पर पहुंच गयी हो है और हम ज़्यादा कुछ बचाने की स्थिति में न हों, हम कुछेक सांस्कृतिक वस्तुओं को ही बचाने की हमें मोहलत दी गयी हो और जल्दी से हमें यह कार्रवाई करनी हो तो हम क्या चुनेंगे? और किस मीडिया में ?
अम्बर्तो इको : हम इस पर चर्चा कर चुके हैं कि कैसे ये आधुनिक मीडिया फोर्मेट बडी तेज़ी से अप्रांगिक होते जाते हैं. तो फिर उन चीजों को चुनने के ज़ोखिम उठाये ही क्यों जायें जो खामोश हो जायेंगी और जिनके अर्थ बूझना सम्भव भी न हो. यह सिद्ध हो चुका है कि हमारा सांस्कृतिक उद्योग हाल के वर्षों में जिन भी चीज़ों को बाज़ार में लेकर आया है, उनमें से कोई भी पुस्तकों से बेहतर नहीं है. इसलिये किसी चीज़ को आसानी से हम दूसरी जगह ढोकर ले जा सकते हों और जो समय के ध्वंस को झेल सकती हो तो मेरा कहना है कि वह चीज़ केवल पुस्तक है. लेकिन पुस्तकों की इतनी ज़ोरदार वकालत करने के बाद भी मुझे यह स्वीकार करना चाहिये कि वह चीज़ जिसे मैं सबसे पहले बचाना चाहूंगा वह मेरा 250 गेगाबाइट का हार्ड ड्राइव होगा जिसमें पिछले तीस वर्षों का मेरा सारा लेखन संग्रहित है.
ज़्यां फिलिप डे टोनाक : हम इसे स्वीकार करें या न करें पर यह सच है कि टेक्नोलॉजी ने ये जो नये उपकरण हमॆ दिये हैं इनका हमारे सोचने के तस्रीकों पर गहरा असर पड रहा है. और सोचने के ये नये तरीके धीरे धीरे उन तरीकों से भिन्न होते जा रहे हैं जो पुस्तक ने हमारे भीतर पैदा किये थे.
अम्बर्तो इको : जिस गति से टेक्नॉलॉजी अपने अपना नवीनीकरण करती जाती है उसने तदनुरूप हमें अपनी मानसिक आदतों को भी जल्दी जल्दी पुनर्गठित करने के लिये बाध्य कर दिया है. हर चंद वर्षों बाद हमें एक नया कम्युटर खरीदने की ज़रूरत हो जाती है. यह इसलिये कि इन कम्युटरों को डिज़ाइन ही इस तरह से किया गया है कि कुछ समय बाद वे पुराने और अव्यवहार्य लगने लगें. और उनकी मरम्मत करवाने बजाय नये खरीद लेना ज़्यादा सस्ता लगने लगे. और टेक्नॉलॉजी का हर नया उपकरण एक नयी तरह की अनुरूपता की मांग करता प्रतीत होता है. वह हमसे नयी तरह के प्रयत्नों अपेक्षा करता है. और यह सब कुछ बहुत जल्दी जल्दी घटित होने लगता है. हर बार पहले से कम टिकाउपन. मुर्गी के चूज़ों को लगभग एक शताब्दी लगी यह सीखने में कि सडक पार करना खतरनाक है. अंतत: उन्होंने नयी यातायात व्यवस्था के अनुरूप खुद को ढाल लिया. लेकिन हमारे पास उतना समय नहीं है.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : अन्यथा भी क्या यह सम्भव है कि उस गति को अपनाया जाय जो इस निरर्थक हद तक पहुंच चुकी है ? आप फिल्म -सम्पादन का उदाहरण लें. संगीत विडियो की वज़ह से सम्पादन की गति इस सीमा तक बढ चुकी है कि अब उसके और आगे नहीं ले जाया जा सकता. उसके आगे आप छवियां देख ही नहीं पायेंगे. मैं आपको बताता हूं कि किस तरह एक ऐसा चक्र निर्मित किया जाता है जिसमें मीडिया फोर्मेट खुद अपनी भाषा को जन्म देता है और यह भाषा बदले में फोर्मेट को बाध्य करती रहती है कि वह लगातार और अधिक और त्वरित गति से तीव्र और उतावले चक्रों में खुलता जाये. आज की हॉलिवुड एक्शन फिल्मों में कोई भी शॉट तीन सेकेंड से अधिक का नहीं होता यह एक प्रकार का नियम बन चुका है.एक आदमी घर जाता है, दरवाजा खोलता है, अपना कोट खूंटी पर टांगता है और सीढियों से ऊपर जाता है. लेकिन इस बीच कुछ नहीं घटता, उस पर कोई आफत नहीं आयी है पर उसके बावजूद इस दृश्य को अठारह शॉटस् में फिल्माया जायेगा. ऐसा लगता है जैसे टेक्नॉलॉजी मनुष्य की क्रिया को निर्देशित कर रही हो, जैसे कि क्रिया किसी और चीज़ को व्यक्त करने की जगह खुद कैमरा बन चुकी हो.
शुरु में फिल्म बनाने की टेकनीक बडी सादा थी. आप कैमरा फिक्स कर एक नाटकीय दृश्य फिल्माते थे. अभिनेता दृश्य में घुसते थे, जो उन्हें करना होता था करते थे और दृश्य से बाहर निकल आते थे. फिर लोगों ने सोचा कि कैमरे को एक चलती ट्रेन पर रख देने से छवियां कैमरे के भीतर से तेज़ी से गुज़रेंगी और स्क्रीन पर भी वैसा दिखायी देगा. इस तरह कैमरा किसी मानवीय क्रिया पर अपना अधिकार जमाने लगा और उसे पुनर्निर्मित करने लगा. वह स्टुडियो से बाहर निकला और फिर धीरे धीरे स्वयं एक पात्र बन गया. वह कभी दांये जाता, कभी बांये और दो छवियों को आपस में सांटने लगा. इस सम्पादन प्रक्रिया ने एक नयी फिल्म भाषा को जन्म दिया. ब्युनेलका जन्म 1900 में उसी समय हुआ जब सिनेमा का जन्म हुआ था. वे बताते थे कि 1907 या 1908 के आसपास जब उन्होंने पहली बार फिल्म देखी तो वहां एक आदमी लम्बी सी छडी लेकर दर्शकों को यह समझाता रहता था कि पर्दे पर क्या घटित हो रहा है. सिनेमा की भाषा अभी लोगों को समझ में नहीं आती थी जबकि अभी उसमें विभिन्न दृश्यों का समायोजन शुरु नहीं हुआ था. आज हम इस भाषा के आदी हो चुके हैं पर उसमें निरंतर सुधार, संशोधन, विकास हो रहा है या कहूं कि उसका निरंतर विकृतिकरण हो रहा है. साहित्य की तरह ही फिल्म की भाषा भी एक गढी हुई भाषा है जो इरादतन भव्य और अलंकृत हो सकती है, सादा हो सकती है, निर्रथक हो सकती है और यहां तक कि देशज संस्कारो वाली या भदेस भी हो सकती है. प्रूस्त ने महान लेखकों के बारे में कहा था कि वे अपनी खुद की भाषा ईजाद करते हैं. महान फिलमकार भी किसी हद तक अपने स्वयं की भाषा ईज़ाद करते रहे हैं.
ज़्यां फिलिप डे टोनाक : शेक्सपियर और रेसिन के यहां दृश्यों के बीच कट नहीं हैं. मंच पर भी समय वही है और वह ठहरा रहता है. मैं समझता हूं कि गोदार उन पहले फिल्मकारों में से थे जिन्होंने ‘ब्रिथलैस‘ जैसी फिल्म में दो व्यक्तियों के दृश्य को एक कमरे में फिल्माया और उसे इस तरह सम्पादित किया कि फिल्म एक लम्बे दृश्य के बावजूद केवल पलों या टुकडों पर केन्द्रित होती थी.
अम्बर्तो इको : हम लोग परिवर्तनों की बात कर रहे थे और उस गति के बारे में जिससे ये घटित होते हैं. पर हमने इस बात को भी स्वीकार किया है कि बहुत सारे ऐसे टेक्नीकल आविष्कार हैं जो बदलते नहीं जैसे कि पुस्तक. हम इसमें साइकिल और चश्मे को को भी जोड सकते हैं. वर्णमाला तो है ही. यदि एक बार किसी चीज़ में सम्पूर्णता आ जाती है तो उसे और अधिक विकसित नहीं किया जा सकता.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : हम लोग शायद अपनी इन वर्तमान मीडिया संरचनाओं की असमर्थता का इस दृष्टि से उपहास कर रहे हैं कि वे हमारी स्मृतियों को विश्वसनीय रूप से लम्बे समय तक बनाये नहीं रख सकतीं. साठ के दशक में मैं ब्युनेल के साथ एक पटकथा पर काम करने मेक्सिको गया था. हम लोग एक दूर- दराज़ के इलाके में काम कर रहे थे . मैने काले और लाल रिबन वाला एक छोटा सा पोर्टेबल टाइपराइटर खरीदा था. यदि वहां रिबन टूट जाता तो ज़िताकुआरो के उस छोटे से कस्बे में कहीं कोई उपाय नहीं था कि मैं वह रिबन बदलवा सकता. मुझे लगता है कि कम्प्युटर के बारे में सोचना तो उस ज़माने में लगभग एक अविश्वसनीय चीज़ थी. लेकिन आज हम इस बात से लाखों मील दूर आ चुके हैं.
ज़्यां फिलिप डे टोनाक : पुस्तक के बारे सबसे असाधारण बात तो यही है कि कोई भी आधुनिकतम टेक्नॉलॉजी उसे अप्रासंगिक नहीं बना सकती. लेकिन साथ ही हमें उस प्रगति को भी देखना चाहिये जो इन प्रोद्योगिक चीजों की वज़ह से हुई है.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : हमारे पास अब दीर्घकालीन स्मृतियां नहीं हैं. इसकी क्या वज़हें हो सकती हैं ? मैं समझता हूं कि एक बडा कारण शायद तो यही है कि निकट भविष्य का अतीत हमारे वर्तमान को दबाव ग्रस्त बनाता रहता है. और उसे निरंतर किसी भविष्य की ओर धकियाता रहता है, वह भविष्य जो कि अब एक बडा प्रशन चिह्न है. हमारे इस वर्तमान का क्या हुआ ? उस अद्भुत क्षण का क्या होता है जो हम अनुभव करते हैं पर जिसे तमाम तरह की ताकतें निरंतर हमसे छीन लेना चाहती हैं. मैं कभी कभी वर्तमान के इस क्षण में पूरी तरह निमग्न हो जाना चहता हूं किसी धीमी रफ्तार की उस रहस्यमयता को अपने भीतर अनुभव करना चाहता हूं जो मुझे वापस अपनी ओर मोडना चाहती है. जो मुझसे कहती है ‘अरे देखो अभी तो सिर्फ पांच बजे हैं”.
अम्बर्तो इको : जिस वर्तमान के अदृश्य हो जाने की बात आप कर रहे हैं वह सिर्फ इस वज़ह से नहीं है कि जो प्रवृतियां पहले तीस वर्षों तक चलती थीं अब उनकी आयु केवल तीस दिन होती है. यह उन बहुत सारी चीजों के पुराने और अप्रासंगिक पड जाने की वज़ह से भी हुआ है जिनकी हम लोग चर्चा कर रहे हैं. मैंने अपने जीवन के कुछ घंटे साइकिल सीखने में बिताये लेकिन एक बार जब साइकिल चलाना सीख लिया तो वह सीखना जीवन भर के लिये हो गया. आज़ भले ही मै किसी नये कम्युटर कार्यक्रम को सीखने में दो सप्ताह खर्च कर दूं क्योंकि मुझे लगता है कि यह सीखना बहुत ज़रूरी है पर जब तक वह कार्यक्रम सीख कर मैं तैयार होता हूं तब तक कोई नया कार्यक्रम बाज़ार में आ जाता है. इसलिये यह सारी समस्या सिर्फ हमारी सामूहिक स्मृतियों के खो जाने की नहीं है. यह वर्तमान के निरंतर बदलते जाने की भी है. हम अपने वर्तमान में सुकून के साथ रहना भूल चुके हैं और लगातार अपने को किसी भविष्य के लिये खर्च करते रहते हैं.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : एक तरफ यह निरंतर बदलता, भागता, नित नूतन होता हुआ स्वल्पायु संसार और ठीक उसी समय विडम्बनात्मक रूप से हमारी जीवनावधियों का बढते जाना. हमारे दादा परदादाओं की जीवन काल हम लोगों से छोटा था लेकिन वे एक अपरिवर्तित वर्तमान में रहते थे. मेरे दादा एक ज़मींदार थे जो जनवरी में ही आगामी वर्ष के खाते तैयार कर लेते थे. पिछले साल के परिणाम ऐसे ठोस आधार होते थे जिन पर नये साल का अनुमान लगाया जा सकता था. लेकिन चीजें अब बदल गयी हैं.
अम्बर्तो इको : उन दिनों स्कूल में आपके सीखने के दिन बहुत जल्दी समाप्त हो जाते थे. दुनिया ज़्यादा बदलती नहीं थी. जो कुछ आपने सीखा वह आपके मरने के समय तक काम आता था. यहां तक कि फिर वही आपके बाद आपके बच्चों के काम भी आता था. लोग अठारह या बीस की उम्र में ही ज्ञान – सेवानिवृति की अवस्था में पहुंच जाते थे. इन दिनों आप यदि लगातार अपने ज्ञान को अद्यतन न बनायें तो शायद आप अपनी नौकरी खो बैठेंगे.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : हम सब शायद अनंतकाल तक विद्यार्थी बने रहने के लिये अभिशप्त हैं. ठीक उसी तरह जैसे ‘द चेरी ऑर्चर्ड‘ में त्रोफिमोव की स्थिति है. यह शायद कभी अच्छी बात रही होगी. पुराने समयों में बुजुर्गों के हाथ में सत्ता और शक्ति संरचनाये थीं. अब दुनिया रोज़ बदल रही है. अब ये बच्चे हैं जो अपने पिताओं को इलेक्टॉनिक टेक्नॉलॉजी सिखा रहे हैं. इनके बच्चे पता नहीं इन्हें क्या सिखायेंगे.
ज़्यां फिलिप डे टोनाक : अभी स्मृतियों को सहेजने वाले विश्वसनीय उपकरणों की बात हो रही थी. पर क्या यह स्मृति का कर्य है कि वह हर चीज़ और किसी भी चीज़ को सहेज जर रखे ?
अम्बर्तो इको : नहीं, बिलकुल नहीं. हमारी स्मृतियां – चाहे वे वैयक्तिक स्मृतियां हों या सामूहिक स्मृतियां जिसे हम संस्कृति कहते हैं- उनका दोहरा कार्य होता है. एक ओर वे कुछ खास चीजों को सहेजती हैं दूसरी ओर उन तमाम चीजों को बिला जाने देती हैं जिनका हमारे लिये कोई उपयोग नहीं होता.अन्यथा वे निरुद्देश्य ढंग से हम पर किसी बोझ की तरह से लदी होंगी. कोई भी वह संस्कृति जो पिछले सदियों से मिली विरासत में से कुछ भी काटने -छांटनेमें असमर्थ है वह बोर्हेस की कहानी ‘फ्यून्स दि मेमोरियस‘* की याद दिलाती है, जिसमें वह किरदार चीजों के किसी भी विवरण को कभी भूल नहीं पाता. लेकिन यह स्थिति संस्कृति के ठीक विपरीत है. संस्कृति अपने मूल रूप में पुस्तकों और तमाम खोयी हुई चीजों की कब्रगाह है. विशेषज्ञ आज इस बात पर शोध कर रहे हैं कि संस्कृति किस रूप में एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें वह अव्यक्त तरीके से अतीत के किन्हीं स्मृति चिह्नों को तजती जाती है और कुछ चीजों को भविष्य के लिये एक रेफ्रीज़रेटर में रखती जाती है. अभिलेखागार और पुस्तकालय वे ‘कोल्ड स्टोरेज़’ हैं जिनमें हम उस सबको सुरक्षित रखते हैं जो पहले आ चुका है ताकि सांस्कृतिक स्पेस बिना उन स्मृतियों को पूरी तरह त्यागे एक भीड- भाड वाली जगह न बन जाये. यदि मूड हो तो हम उन चीजों की तरफ भविष्य मे किसी भी दिन जा सकते हैं.
कोई इतिहासकार शायद वाटरलूकी लडाई में लडे हर सैनिक का नाम याद रकने को विवश हो लेकिन इन नामों को स्कूल या विश्वविद्यालयों में याद नहीं कराया जाता क्योंकि उतना विवरण आवश्यक नहीं है. इंटरनेट हर चीज़ का विवरण दिन - प्रति दिन और मिनट -दर -मिनट के हिसाब से देता है, इस हद तक कि जो बच्चा अपना होमवर्क कर रहा है वह इतने विवरणों के कारण अपने सोचने की क्षमता ही भूल जाये. वहां बिना किसी श्रेणीबद्धता, चयन, या संरचना के हर चीज़ के अत्यधिक विवरण हैं.
इन स्थितियों में सामूहिक स्मृतियां किस तरह से बचायी जायें क्योंकि स्मृति का अर्थ है इरादतन या सांयोगिक रूप से चीजों को चुनना, वरीयता देना, खारिज़ करना और चूक जाना. और इस चीज़ को भी जानना कि हमारे बाद जो आयेंगे उनकी स्मृतियां इसी प्रकार नहीं कार्य नहीं करेगी जैसी हमारी स्मृतियां अपना काम कर रही हैं.
कोई इतिहासकार शायद वाटरलूकी लडाई में लडे हर सैनिक का नाम याद रकने को विवश हो लेकिन इन नामों को स्कूल या विश्वविद्यालयों में याद नहीं कराया जाता क्योंकि उतना विवरण आवश्यक नहीं है. इंटरनेट हर चीज़ का विवरण दिन - प्रति दिन और मिनट -दर -मिनट के हिसाब से देता है, इस हद तक कि जो बच्चा अपना होमवर्क कर रहा है वह इतने विवरणों के कारण अपने सोचने की क्षमता ही भूल जाये. वहां बिना किसी श्रेणीबद्धता, चयन, या संरचना के हर चीज़ के अत्यधिक विवरण हैं.
इन स्थितियों में सामूहिक स्मृतियां किस तरह से बचायी जायें क्योंकि स्मृति का अर्थ है इरादतन या सांयोगिक रूप से चीजों को चुनना, वरीयता देना, खारिज़ करना और चूक जाना. और इस चीज़ को भी जानना कि हमारे बाद जो आयेंगे उनकी स्मृतियां इसी प्रकार नहीं कार्य नहीं करेगी जैसी हमारी स्मृतियां अपना काम कर रही हैं.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : पचास साल पहले जब हम इतिहास पढते थे तो स्मृतियों पर् किसी सन्दर्भ की कालानुक्रमिक तिथियों को याद रखने का भार नहीं रहता था. यदि किसी सन्दर्भ से बाहर उन तारीखों में हमारी दिलचस्पी नहीं थी तो वे हमारे लिये फिज़ूल थीं. लेकिन आज आप इंटरनेट से इस प्रकार कोई जानकारी हासिल नहीं कर सकते. और वहां जो सूचनायें दी जाती हैं उनकी विश्वसनीयता को जांचने की ज़रूरत भी रहती है. यह साधन सभी चीजों और प्रत्येक चीज़ के बारे में अपार जानकारियां देते हुए एक विभ्रम भी पैदा कर देता है. मुझे सन्देह है कि अम्बर्तो इको से सम्बन्धित वेब साइटों पर उनके बारे में दिये गये सभी तथ्य परिशुद्ध होंगे. क्या हमें भविष्य में तथ्यों की जांच करने वाले सचिवों की ज़रूरत पडेगी ? क्या वह एक नयी तरह का प्रोफेशन नहीं होगा ?
अम्बर्तो इको : इन दिनों यह कतई सम्भव है कि फलां फलां महाशय ने यदि कोई जानकारी इंटरनेट से जुटायी है तो वह कुछ कुछ भ्रामक भी हो. लेकिन सच तो यह है कि ऐसी भ्रामक जानकारियां तो तब भी थीं जब इंतरनेट नहीं था. वैयक्तिक और सामूहिक स्मृतियां जो कुछ हुआ उसका फोटोग्राफ नहीं होतीं. वे घटित का पुनर्निर्माण हैं. मुद्रण के आविष्कार ने हमें सक्षम बनाया कि हम उन सभी सांस्कृतिक जानकारियों को फ्रिज़ में, अर्थात किताबों में रख दें जिनके बोझ को हम ढोना नहीं चाहते. इसी चीज़ को अब मशीन के हवाले किया जा सकता है हांलाकि हमें यह भी जानना होगा कि इन उपकरणों का कैसे अधिकतम प्रभावशाली उपयोग किया जाये. इसके लिए हमें अपने मस्तिष्क और स्मृतियों को सजग रखना होगा.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : शायद इसलिये कि ये उपकरण बडी जल्दी पुराने पड जाते हैं .और निरंतर नयी माध्यम भाषाओं और उनके कार्यों को सीखते रहने की ज़रूरत बन गयी है. इसलिये स्मृति की भूमिका बहुत अहम् होगी.
अम्बर्तो इको : हां, परंतु चीजों को सुरक्षित रखने ले लिए आप इन उपकरणों पर एक हद तक ही निर्भर रह सकते हैं. 1983 में पहली बार जब कम्युटर आया तो हम फ्लॉपी डिस्क में जानकारियों का संग्रहण करते थे. फिर हम मिनी डिस्क की तरफ आये, वहां से कॉम्पेक्ट डिस्क की तरफ आये और वहां से अब मेमोरी स्टिक की तरफ आ गये हैं. इस स्थानांतरण में कितना कुछ संग्रहण खो गया है. आज का हमारा कम्प्युटर शुरुआती दौर की उस फ्लॉपी डिस्क को नहीं पढ सकता. वह तो सूचना प्रोद्योगिकी में प्रागैतिहासिक चीज हो गयी है. मैं अपने उपन्यास ‘फूकोज़ पेंडुलम’के पहले ड्राफ्ट को ढूंढता रहता हूं जो शायद 1984 या 1985 में मैंने एक डिस्क पर संग्रहित किया था. वह अब मुझे कहीं नहीं मिलता. यदि मैंने उसे टाइपरइटर पर लिखा होता तो शायद वह अब भी मेरे पास होता.
ज्यां क्लाउदे कैरिएयर : कोई चीज़ है जो शायद कभी नहीं मरती और वह अपनी ज़िन्दगियों के किन्हीं खास दौर से गुज़रने की हमारी स्मृतियां हैं. हमारी सबसे मूल्यवान स्मृतियां जो कि कई बार तो हमारे मनोभावों और संवेदनाओं की प्रवंचनापूर्ण स्मृतियां भी होती हैं. हमारी भावात्मक स्मृतियां.
अम्बर्तो इको : जो कुछ हमने जाना उसका जीवन अनुभव में रूपांतरण ही हमारी प्रज्ञा है. इसलिये शायद इस निरंतर नवीकरण चाहने वाले पांडित्य को मशीनों के हवाले किया जा सकता है और अपनी ऊर्जा को प्रज्ञा पर संकेन्द्रित किया जा सकता है. हमारी समझदारी ही वह चीज़ है जो अंतत: हमारे पास बची रहती है. और वह एक राहत है.
______
______
(* बोर्हेस की कहानी ‘फ्यून्स दि मेमोरियस’में कहानी का नायक फ्यून्स एक 19 साल का लडका है जो स्मृति के अतिरेक का शिकार है . उसके जीवन में और कुछ भी नहीं केवल चीजों के विवरण हैं .एक असहनीय रूप से असंख्य विवरणों और जानकारियो की दुनिया. समय समय पर छाने वाले बादलों के आकार, प्रतिपल बदलती हुई लपट की शक्लों, तमाम सडकों, पक्षियों, फूलों, संगीत तरंगों, स्वादों, संख्याओं, शब्द -क्रीडाओं आदि के विवरण उसकी स्मृति में दर्ज़ हैं. वह सो भी नहीं पाता. केवल विवरणों और जानकारियों को देने से आगे कुछ सोचने, मनन करने, विश्लेषित करने और सम्वेदनागत प्रभावों को नियोजित करने की किसी भी सामान्य क्षमता से वह विरत है.
Image may be NSFW.
Clik here to view.
कहानी का आशय है कि मनन करने का अर्थ एक सीमा के बाद वर्गीकरणों और विवरणों को भूलना और विचार के किसी साधारणीकरण और अमूर्तता की ओर जाना है. ऑस्ट्रेलियाई फिल्मकार क्रिस्टोफर डोयल की 1999 की बहुचर्चित फिल्म ‘अवे विद वर्डस ‘बोर्हेस की इसी कहानी पर आधारित है.)
________
Image may be NSFW.
Clik here to view.

________
विजय कुमार : सुप्रसिद्ध कवि आलोचक
मोबाइल : 9820370825
मोबाइल : 9820370825