मनीष गुप्ता आज साहित्यिक-सांस्कृतिक क्षेत्रों में ‘हिंदी कविता’ के YouTube चैनल के कारण जाने, पहचाने और माने जा रहे हैं. इसमें हिंदी-उर्दू के साथ-साथ अन्य भारतीय भाषाओँ के साहित्य का समकालीन ही नहीं अतीत भी मुखर हो उठा है. लगभग २५० शानदार फ़िल्म प्रस्तुतियां आज YouTube के इस चैनल पर उपलब्ध हैं. साहित्य और विशेषकर कविताओं के प्रति लगाव का एक वातावरण तैयार करने में उनका योगदान सराहनीय है. प्रस्तुत है समालोचन से उनकी बातचीत.
मनीष गुप्ता से बातचीत
१. इस प्रोजेक्ट का उद्देश्य और प्रेरणाएं क्या हैं?और आप अपने विषय में भी कुछ बताएं. परवरिश, शिक्षा – दीक्षा आदि
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दो साल पूर्व, पहले दिन तो यह शौक़िया शगल था. एक महीने बाद यह विष्णु खरेजी के मार्गदर्शन में ज़रूरी कवियों का दस्तावेज़ीकरण करने का प्रण बना. पता चला कि प्रबुद्ध पाठकवर्ग इनके लिए भूखा है. धीरे-धीरे फ़िल्मी कलाकार इससे जुड़े और दर्शक वर्ग में उत्साह दिखा तो लगा कि बहुत कुछ किया जा सकता है - बल्कि पूरी की पूरी वस्तुस्थिति ही बदली जा सकती है. वर्तमान में इन चार उद्देश्यों को ले कर चल रहा हूँ:
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क: कोई एक प्रोजेक्ट हिन्दी जैसी समृद्ध भाषा के लिए पर्याप्त नहीं हो सकता. मेरा पहला उद्देश्य यह है कि वातावरण थोड़ा सा अनुकूल बने जिसमें अन्य परियोजनाएं पनप सकें. मैं चाहता हूँ कि लोग प्रेरणा ले कर कई और प्रोजेक्ट्स हाथ में लें.
हम तो सिर्फ़ कविताओं के विडियोज़ बना रहे हैं. इतना सारा काम है इसके पीछे - गद्य पर क्या कुछ नहीं किया जा सकता. पूरा का पूरा मैदान खाली पड़ा है. पत्रिकाएं, कालजयी कहानियों का मंचन / फ़िल्म्स / बहुत बड़े सम्मान / प्रतिस्पर्धाएं क्या कुछ संभव नहीं है, करने वालों के लिए. सरकारी मदद भी उपलब्ध हो सकती है. कॉर्पोरेट का CSR भी उपलब्ध हो सकता है. बस एक अनुरोध है कि उत्कृष्टता बनाए रखें - सिर्फ़ क्लिक्स और सब्सक्राइबर बटोरने के उद्देश्य से कोई चलताऊ काम न करें. हिन्दी साहित्य के छवि परिवर्तन का सवाल है. हमारी लड़ाई इंग्लिश से उतनी नहीं है जितनी चारों ओर व्याप्त मीडियोक्रिटी से है.
ख: 'English is the new normal' यह मेरा नारा है, यह सारभूत खोज रही है मेरे लिए. अब इसी बात को अभिजात्य वर्ग में पैठाने की कवायद कर रहा हूँ. अगर सबसे ऊपर के तबके में लहर चली तो फिर बाक़ी भीड़ तो भेड़चाल की तरह उनके पीछे हो लेती है. समाज के एक विशिष्ट वर्ग ने एक दिन अंग्रजी को अपनाया था आज छोटे-छोटे कस्बों में भी लोग उसे 'कूल'समझ बोलने की कोशिश में लगे हैं. अब उसी प्रबुद्ध वर्ग को बताना है कि इंग्लिश सुनना बड़ा 'बोरिंग'लगता है. इस बात पर बड़ी ख़ुशी है कि कमसेकम फ़िल्मी दुनिया के कुछ दायरों में यह बदलाव आ भी चुका है. फ़िल्मी पार्टियों में जहाँ इंग्लिश ही बोली जाती थी वहां हम कुछ लोग आजकल हिन्दी बोलते हैं तो लोग कहते हैं अच्छा ज्यादा 'कूल'बन रहे हो. सुन कर मज़ा आ जाता है.
दैनिक जागरण के लखनऊ हेड आशुतोष शुक्लाने कहा था 'हम्म, तो तुम 'convert the king'कर रहे हो!'. जी, बिल्कुल यही प्रयास है - मैं आम आदमी को नहीं, बल्कि वह जिसके पीछे जाता है उसे हिन्दी-विलास-भोगी बनाने की कोशिश में हूँ.
ग: हिन्दी साहित्य में पैसा नहीं है. हिंदी साहित्यकार पहले नौकरी ढूंढता है फिर लिखता है. एक सफल लेखक के रूप में स्थापित होने के बाद भी नौकरी नहीं छोड़ पाता - यह शर्मनाक बात है. ऐसे समाज का पतन ही होना है जहाँ एक अदने से टीवी एक्टर या रेडियो जॉकी का ज़्यादा रसूख है. मैं एक MBA हूँ समाज को धिक्कारने की बजाय बाज़ार में उम्मीद ढूंढी है. वो एक अलग ही लेख होगा जिसमें बाज़ार के बारे में विस्तार से बात कर सकूंगा यहाँ सारांश में बस इतना कहना चाहता हूँ कि बाज़ार वर्तमान स्थिति में भी बाज़ार १० से ५० गुना बड़ा है. हमें इसे भुनाना नहीं आ पा रहा है.
जो भी मंच मिला वहीँ से ये कहना शुरू किया है कि मार्केट-साइज़ १२००-१५०० करोड़ है. इसमें हर तरह के प्रकाशक और लेखक और सामाजिक/ व्यापारिक योजनाओं के लिए अकूत संभावनाएं हैं. मेरा योगदान सिर्फ़ इस बात का ढिंढोरा पीटना है - देखें कौन आगे आता है और कौन सी नयी योजनाएं मंज़िलें पाती हैं. अगर कोई जल्द आगे नहीं आता तो मैंने कुछ स्थापित मार्केटिंग गुरुओं की सलाह से एक योजना भी बनाई है. जहाँ साहित्यकार सब साथ आकर दो साल में ठोस बदलाव ला सकते हैं.
घ: सिर्फ़ अपने कंप्यूटर या फ़ोन पर विडियोज़ देखना पर्याप्त नहीं है. हम दिल्ली, बैंगलूरू, सिडनी, न्यूयॉर्क, सिंगापूर से ले कर छोटे शहरों में भी स्वैच्छिक कार्यकर्ताओं के जत्थे बनाने में जुटे हैं - ताकि स्थानीय लोगों में, खासतौर पर छात्रों में हिन्दी को आकर्षक और वांछनीय बनाया जाए. जो लोग फेसबुक के हिन्दी कविता के पेज से जुड़े हैं उन्हें संकेत मिले होंगे कि किन-किन शहरों में ये गतिविधियाँ चल रही हैं.
पिताजी के कॉलेज प्राध्यापक होने के नाते किताबें नहीं बल्कि पुस्तकालय के पुस्तकालय हिस्से में आये. भाषा के विद्वानों की संगत मिली और साहित्य के प्रति रुझान रहा. अब साहित्य के प्रति रुझान माने जीवन के हर आयाम का अनावरण. जैसे खिलौनों की दुकान पर बच्चा पगला जाता है वैसे ही अभी तक बीती है. वैसे यूनिवर्सिटी टॉपर भी रहा हूँ, खेल और कला में रूचि हमेशा से रही है. एम.बी.ए. किया था पर्यटन में फिर विज्ञापनों की दुनिया ने आकृष्ट किया, आईटी में काम किया था अमेरिका में, फिर नाईट क्लब भी चलाया, फ़िल्म-स्कूल गया, फ़िल्में बनायीं, टीवी सीरियल बनाया, कईयों बार सब छोड़-छाड़ के प्रयोजनहीन दुनिया घूमने निकला फिर बिना किसी योजना के कोई नया शगल अपना लिया.
अभी लगभग ढाई बरसों से हिन्दी कविता में डूबा हुआ हूँ - चौबीसों घंटे यही काम है. इतना मज़ा आ रहा है कि अभी एक फ़िल्म डायरेक्ट करनी थी जिसमें एक साल लग जाता तो उसे छोड़ ही दिया. साहित्यकारों और रंगकर्मियों के सानिध्य में जीवन का अलग ही आनंद आ रहा है.
२. हिंदी कविता की तरफ आपका ध्यान कैसे गया.
हिन्दी कितनी समृद्ध भाषा है, लेकिन जब भी इन्टरनेट पर इसे ढूंढना चाहा तो जो भी मिला उसका प्रस्तुतीकरण सामान्य से मामूली दर्जे का ही मिला. अतः हिन्दी के प्रति हमेशा से ही प्रेम रहा है बस इस पर काम करने का मौका अब जा कर मिला. धारणा यही रही है कि कला और तकनीक की दृष्टि से इस तरह के विडियोज़ बनाये जाएँ कि लोग हिंदी के प्रति खुद ही आकर्षित हो सकें. जैसे लोग अंग्रेजी की ओर, उसे 'cool'भाषा समझ कर उसकी तरफ भागते हैं वे हिन्दी को कूल समझें.
३. कविताओं पर आपकी फिल्में सराही जा रही हैं, कविता को इस तरह भी प्रस्तुत किया जा सकता है? और किया जाना चाहिए. कब लगा? इसके लिए किस तरह की तकनीक का इस्तेमाल आप करते हैं.
सौभाग्यवश हमें देश के सबसे सुलझे हुए लोगों का मार्गदर्शन प्राप्त हुआ. इस प्रोजेक्ट के कई आयाम हैं. पहला है कवि और कविता का चयन. फिर आता है फ़िल्म-प्रोडक्शन. इसके अलावा सबसे महत्वपूर्ण पहलू रहा है प्रस्तुत करने वालों को खोजना. मैं अलग से इन आयामों पर बात करता हूँ.
जैसे कवि और कविता के चयन में सबसे पहले पथप्रदर्शन किया विष्णु खरेजी ने. उन्होंने कवियों की एक विवरणिका बनवाई थी जिनमें अशोक वाजपेयी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, विष्णु नागर, लीलाधर मंडलोई, उदयप्रकाशइत्यादि थे. बड़ी लम्बी सूची थी कई दिग्गज कवि थे. उसके बाद जब भी किसी कवि से मिलना हुआ उन्होंने नए नाम सुझाये. आगे चल कर जबलपुर के ज्ञानरंजन जी से भी मिलना हुआ उन्होंने भी साहित्यकारों से परिचय करवाया और सिलसिला चल निकला.
फ़िल्ममेकिंग का तकनीकी आयाम देखें तो शुरुआत से ही इंडस्ट्री के बड़े-बड़े सिनेमेटोग्राफ़र्स, एडिटर्स का साथ और सलाह मिलती रही और आज भी मिलती रहती है. हम बहुत सारे विडियोज़ बनाते हैं लेकिन सिर्फ़ श्रेष्ठ ही अपलोड करते हैं ताकि अब जो लाखों लोगों की उम्मीद हमसे जुड़ी है हम उन्हें निराश न करें. जैसे जैसे हमें सफलता मिलती गयी हम और सतर्क होते गए.
ज़ाहिर है इस प्रस्तुतीकरण में मंजे हुए कलाकारों का बहुत बड़ा हाथ रहा है. जितने ज़्यादा कलाकारों से मिलना हुआ उतना ज़्यादा सीखने को मिला. मुंबई में रहने का फ़ायदा यह है कि यहाँ सारे देश से आये कलाकार मिल जाते है. हमें थिएटर और फिल्मों के मंजे हुए कलाकार तो मिले ही - उम्दा नए कलाकार भी मिले.
और रहा फॉर्मेट का सवाल तो रोज़ हम कोई कायदा बनाते हैं और दूसरे दिन तोड़ते हैं- यही फ़िल्म-स्कूलों में सिखाया जाता है :)
४. आपकी फिल्मों में हिंदी कविता का पाठ सिनेमा और रंगमंच के सेलिब्रेटी करते हैं. कठिन रहा होगा. ऐसे कलाकरों की तलाश और यह भी कि उन्हें हिंदी कविता से प्रेम हो. जबकि यह सुना जाता है कि फिल्मों के स्क्रिप्ट भी ये लोग रोमन में पढ़ते हैं.
सही है कि फ़िल्म इंडस्ट्री की औपचारिक भाषा अंग्रेजी ही है. मगर लोगों के दिलों में हिन्दी उर्दू के अलावा कई बोलियाँ और क्षेत्रीय भाषाओं के लिए लगाव और प्रेम अगर पल नहीं रहा हो तो दबा हुआ ज़रूर होता है. जैसे ही उन्हें यह मौका मिलता है चिंगारी भड़क उठती है. मगर उनसे मिलना मुश्किल है. सबसे पहले सेलेब थे राजेंद्र गुप्ताजिनसे परिचय मुंबई के कवि विजय कुमार ने करवाया था उसके बाद भी राह कोई आसान नहीं हुई. 'पर धीरे धीरे इंडस्ट्री के कलाकारों में इन विडियोज़ को ले कर उत्साह बढ़ने लगा और चीज़ें आसन हुई हैं. पर कई कलाकार अभी भी ऐसे हैं जिनके पीछे हम साल भर से भी ज्यादा से पड़े हुए हैं - कभी तो उन्हें वक़्त मिलेगा.
५. कमबख्त बाज़ार, हिंदी को न मिला न मिलने की कोई सूरत नज़र आती है. पर हिंदी साहित्य बाजारू नहीं हुआ यह संतोष भी है. बाज़ार में बिना बाजरू हुए टिकना हिंदी के लिए संभव है क्या ? आपके काम को मैं इसी नजर दे देखता हूँ. गरिमा और सुरुचि के साथ कविताएँ प्रस्तुत की जाती हैं पर इन सबके लिए धन तो चाहिए ही. और फिर बाज़ार के अपने तौर तरीके. यह दुखती रग है.
लोगों से सुना था कि प्रकाशक बेइमान हैं, किताबों की क़ीमतें अधिक हैं, लोग पढना नहीं चाहते वगैरह वगैरह. अभी कई तरह से आंकड़े ढूँढने की कोशिश की है - कोई ५० करोड़ का व्यापार होगा अभी. लेकिन मेरा मानना है कि गिरी हालत में भी यह कम से कम १२००-१५०० करोड़ का होना चाहिए. मेरे पास है एक आसान सी योजना - अगर 30बड़े साहित्यकार एक साथ आ जाते हैं तो हम सूरत-ए-हाल बदलने की दिशा में ठोस प्रयत्न कर सकते हैं. यह पूरी तरह संभव है.
आज किताबों की प्रकाशन-संख्या ३०० से ५०० है, जो कि इतने बड़े देश में एक मज़ाक है. कमी लेखन, लेखकों या पढ़ने वालों में नहीं है - बल्कि बाज़ारी ताकतें जो पैसे बनाने के लिए बैठी हैं उनकी समझ में खोट है. बाज़ार को रवैय्या बदलना होगा, नए रास्ते गढ़ने होंगे.
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हिन्दी प्रकाशन का यह दोष है कि वह बाज़ार नहीं ढूंढ पाया. ऐसा नहीं है कि बाज़ार नहीं है. बाज़ार पहले भी था, आज भी है और आगे भी रहेगा. मेरे काम का एक बहुत बड़ा आयाम है बाज़ार की बातें करना - उम्मीद जगाना और रास्ता दिखाना. मैंने कुछ प्रकाशकों से बात की है - उन्हें मुझसे डर लगता है जब मैं कहता हूँ कि आप लोग अपनी सोच बदलें नहीं तो दरकिनार कर दिए जायेंगे. वो पैसा कमाने बैठे हैं - उन्हें तो मुझसे खुश होना चाहिए.
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मैं एक ही बात सबसे बार-बार कहना चाहता हूँ कि हम सबको साथ आना होगा. इसी में हिन्दी साहित्य का हित निहित है. हम हिन्दी की वर्तमान स्थिति पर कतई खुश नहीं हो सकते. अभी व्यापक सोच अपनाने के लिए फिर से उर्वरा भूमि तैयार है. हिन्दीकर्मी अब कमर कस लें - सब साथ आ जाएँ तो बहुत जल्द स्थिति बदली जा सकती है.
दो साल पहले हमने अपने छोटे से दल के साथ यह बात की थी कि हमारी मुहिम का पहला चरण मूक होगा. अब आवाज़ उठाने का वक़्त आया है. अब हमारे पास ठोस प्रमाण हैं कि लोग हिन्दी पढना, अपनाना चाहते हैं. साथ ही मैंने यह भी पाया है कि बहुत से अच्छे लिखने वाले भी हैं - फिर कुशल अलोचक और मेंटर भी हैं. दुर्भाग्य यह है कि लेखक और पाठक के बीच बहुत दूरी है. बीच वाले जिन्हें यह दूरी पाटनी हैं वो अपना दृष्टिकोण बदलें - वर्तमान में वो बेचारे भी हैं और किसी हद तक दोषी भी.
जैसे इस उदाहरण को देखें: कवितायें पहले भी थीं और पाठक भी - हमने उनका स्तरीय प्रस्तुतीकरण किया तो लोगों का साहित्य प्रेम अचानक जाग गया. इस छोटे से प्रोटोटाइप को समझने की आवश्यकता है. आज इसे 'सिर्फ़ एक प्रोजेक्ट'कह कर नहीं नकारें यह धोखे से नहीं हुआ है. जो जुड़े रहे हैं आरम्भ से वो जानते हैं कि नितांत अंधेरों में चलता हुआ मैं हमेशा से आशावादी रहा हूँ. मेरा काम इस प्रोजेक्ट के ज़रिये हिंदी को ले कर आशावाद फैलाना ही है.
६. हिंदी कविता ज़ाहिर है कि जनता से कटी है. ५० करोड़ बोलने वाले १००० प्रतियाँ भी नहीं खरीदते. आप एक सर्वे करें आम हिंदी भाषी घरो में सबकुछ मिलेगा पर नहीं मिलेगा तो हिंदी साहित्य. कहाँ गलती हुई हिंदी से. आप क्या सोचते हैं.
किसी पुस्तक की ५०० प्रतियाँ तो शायद हम एक दिन में बेच लें - हमारे पास सोशल मीडिया में तकरीबन ३०००० हिंदी प्रेमी हैं. सोचिये पचास करोड़ लोगों में तो कितनी संभावनाएं होंगी. हालांकि हम किसी पुस्तक को एंडोर्स करने से बचना चाहते हैं. पर एक बार अनवर जलालपुरीसाहब की एक पुस्तक के मुरीद हो कर उसे अपने सोशल मीडिया पर डाला था तो उनसे पूछियेगा कि उन्हें कितने लोगों ने संपर्क किया है. हम सिर्फ़ कविताओं के विडियो नहीं बनाते हम कवि की विलक्षण छवि बनाने की कोशिश करते हैं जो ज़्यादा ज़रूरी है.
बाक़ी जवाब इस वार्तालाप में अन्यत्र हैं ही.
७. आपने अभी यू ट्यूब पर अनेक हिंदी कविताओं की फिल्में अपलोड की हैं ज़ाहिर यह बड़ा काम हुआ है. बधाई. बहुत सी दुश्वारियों का सामना भी करना पड़ा होगा. कैसा रहा यह सफर.
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YouTube पर अभी तक हिन्दी की १८२ कवितायें हैं भई. उर्दू स्टूडियो की ५५ और दो पंजाबी की भी. तो इस तरह हमारे पास अगला महीना ख़तम होने तक २५० कवितायेँ हो जायेंगी. मैंने बहुत से काम किये हैं ज़िन्दगी में मगर जो संतोष और मज़ा इन्हें बनाने में आया कभी नहीं आया. रही दुश्वारियों की बात तो उनका अहसास जीने के लिए अभी वक़्त नहीं है. आगे कभी फुर्सत मिली तो उन पर विचार किया जाएगा :).
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८. इस यात्रा में बहुत से लोग आप से टकराये होंगे. उनका सहयोग भी मिला होगा. कुछ उनके बारे में भी बताएं.
सभी का सहयोग रहा है. सूचीबद्ध करने पर कोई नाम छूट न जाए. अंदरूनी जोक यह है कि जिस किसी ने मुस्कुरा कर मेरी तरफ़ देख लिया उससे मदद मांग ली गयी :) सुन्दरचंद ठाकुर, स्व. पंकज सिंह, विजय कुमार, हूबनाथ पाण्डे, विष्णु खरे, नरेश सक्सेना, अनामिका, मंगलेश डबराल, आलोकधन्वा, ज्ञानरंजन जैसे लोगों ने अपनी तरफ़ से फ़ोन / मेसेज / शराब / चाय पर ताकत बढ़ाई. दीपक कबीर ने लखनऊ की अदब की दुनिया से रूबरू करवाया. गुरलीन कौर के आंसू, खून और पसीना इसमें लगा है. मालविका, मेरी मित्र ज्यादा पत्नी कम के बिना कुछ नहीं हो सकता था. जेब खाली थी तो एक दिन हूबनाथ पाण्डेने पचासों कविता की किताबें खरीद दीं.. पद्मा सचदेवअभी भी चिंता करती हैं कि इस चक्कर में बरबाद हुए जा रहे हो. राजेश जोशी, विष्णु नागर, अशोक बाजपेयी, बाबुषा कोहली और हालिया व्योमेश शुक्ल - कितने ही नाम हैं जिनसे मिल कर हौसलाअफज़ाई भी हुई और अपना खुद का प्रयास सार्थक लगने लगा.
इस सवाल ने तो भावुक कर दिया बहुत सारे नाम छूट रहे हैं - फ़िल्म इंडस्ट्री के तो किसी शख्स का नाम नहीं लिया. आपका सवाल तो अच्छा है - परन्तु इसका उत्तर ठीक से नहीं दिया जा सकता :)
९. आपने हिंदी के साथ उर्दू को भी जोड़ा है. कोई ख़ास वजह.
सारी भारतीय भाषाओं पर यही काम करने का मन है अभी तो सिर्फ़ हिन्दी और उर्दू पर ही काम कर पाए हैं. वैसे कई जगह तो हिंदी और उर्दू को पृथक करना दूभर है.
१०. हिंदी को उसका पाठक मिलें इसके लिए आपके पास कुछ और भी योजनायें हैं. कुछ का खुलासा करें.
सभी लेखक एक साथ आ जाएँ उस मंच पर सब मिल कर बात करें ये सभी की समस्या है. बात करना पहला कदम होगा - काश मैं भी वहां पर हो पाऊं और अपनी बात सबके सामने रख सकूं तो बात बनेगी. वैसे पिछले जवाबों में इसकी रूपरेखाएँ संकेतिक हैं.
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मनीष गुप्ता : showreel@gmail.com
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