Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

भूमंडलोत्तर कहानी (४) : अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया (अनुज) : राकेश बिहारी


कथादेश के नवम्बर २०१२ में युवा कथाकार अनुज की  कहानी'अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया'प्रकाशित हुई और परिकथा के मई–जून २०१३ से लेकर जुलाई–अगस्त २०१४ तक  इस पर लम्बी परिचर्चा चली जिसमें मैनेजर पाण्डेय, शम्भु गुप्त, प्रो. तुलसीराम, अरुण होता, डॉ. रामचन्द्रडॉ. रामधारी सिंह दिवाकर, रमणिका गुप्ता, डॉ. खगेन्द्र ठाकुर, डॉ. सूरज पालीवाल, ममता कालिया, राजेन्द्र कुमार, रवि भूषण आदि आलोचक – कथाकारों ने हिस्सा लिया.  युवा आलोचक राकेश बिहारी ने अपनी आलेख श्रृंखला भूमंडलोत्तर कहानी के लिए इस कहानी को चुना है और इस पर विस्तार से चर्चा की है. आप इस आलेख के साथ यह कहानी भी पढ़ सकते हैं. 


विषकुम्भं पयोमुखम् अर्थात
कृत्रिम प्रतिरोध के चिलमन से झाँकती दलित विरोधी मानसिकता
(संदर्भ: अनुज की कहानी ‘अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया’)


राकेश बिहारी 



थादेश (नवंबर, 2002) में प्रकाशित अनुज की कहानी अंगुरी में डँसले बिया नगिनियाकी पृष्ठभूमि मेंबिहार का वह जातीय संघर्ष है जिसके दो छोर पर कभी एम सी सी और रणवीर सेना हुआ करतेथे. नब्बे के दशक में उभरे उस जाति-संघर्ष के दौरान हुये नरसंहारों, रणवीर सेना केक्रिया कलापों, ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या और उसके बाद उसके महिमामंडन की राजनैतिककोशिशों का स्पष्ट प्रभाव इस कहानी पर देखा जा सकता है. न सिर्फ जगह,जातीय सेना और पात्रों केनाम (यथा बाथे,बारा,रणवीर सेना,एम सी सी,बरहम बाबा,रणवीर दादा आदि)बल्कि घटनाओं और उनके राजनैतिक निहितार्थों की समानता के कारण भी यह कहानीकदम-दर-कदम बिहार के उस खूनी जातीय संघर्ष की याद दिलाती है. लेकिन अनुज चाहते हैंकि इस कहानी को उक्त ऐतिहासिक तथ्यों की पृष्ठभूमि में न देखा जाय – 

मैं पाठकों काध्यान इस ओर भी आकृष्ट करना चाहूँगा कि न तो मैंने किसी व्यक्ति विशेष को ध्यान मेंरखकर यह कहानी लिखी है और ना ही मैंने किसी खास गाँव की बात की है. कहानी मेंप्रयुक्त कुछ नाम यदि मिलते-जुलते से लगते  हैं तो यह महज संयोग है.... जहां तकमेरा सवाल है, मैंने तो कभी ब्रहमेश्वर मुखिया को व्यक्तिगत तौर पर देखा भी नहींथा. कहानी लिखने के समय तो मेरे जेहन में ब्रहमेश्वर मुखिया के जीवन का सच था भीनहीं...(अंगुरी मेंडंसले बिया नगिनियाऔर मेरी रचना प्रक्रिया -  अनुज, परिकथा, जुलाई-अगस्त 2014) 

क्या वर्तमान या इतिहास के किसी चरित्र से प्रभावित कहानियाँ लिखने के लिएलेखक का उसे व्यक्तिगत तौर पर देखा होना जरूरी होता है? अनुज की इस मासूम लेखकीयसमझ पर वारी जाने की इच्छा होती है! इतनी सारी समानताओं को महज संयोग बता करसीधे-सीधे यह कहना कि कहानी लिखते हुये मेरे जेहन में ब्रहमेश्वर मुखिया का सच थाहीनहीं अविश्वसनीय और अव्यावहारिक ही नहीं हास्यास्पद भी है. कोई भी कहानी विशुद्धरूप से किसी घटना का शब्दश: ब्योरा नहीं होती, होनी भी नहीं चाहिए, लेकिन यथार्थ कीपुनर्रचना यथार्थ की जमीन से जुड़ कर ही होती है. यथार्थ से पूर्णत:विलग हो करकल्पना के आकाश में यथार्थ की पुनर्रचना की बात का न कोई औचित्य होता है न हीं उसकीकोई उपादेयता. अंगुरी में डँसले बिया नगिनियासचमुच स्त्री और दलित हितों की कहानी हो सकती थी यदि यह जातीयसंघर्ष को अंजाम देने वाले कुख्यात, नृशंस और बर्बर चरित्रों के महिमामंडन कीकुत्सित राजनीति का प्रतिपक्ष रचती, लेकिन प्रथम पाठ में अपनी पठनीयता और चाक्षुष दृश्यविधान के कारण पाठकों को बांध कर रखने वाली यह कहानी एक खास तरह की शब्दावली, अतार्किक घटनाक्रम, कथानक और चरित्रों के अंतर्विरोधी विकास, यथार्थ और कल्पना के सुनियोजित घालमेल, ऐतिहासिक तथ्यों सेछेड़छाड़ आदि के कारण स्त्री-दलित हितों के विरोध में खड़ी हो जाती है. हृदयपरिवर्तन की तकनीक के बेजा इस्तेमाल के द्वारा एक क्रूर और नृशंस पात्र में भीदेवत्व खोज लेने की लेखकीय चालाकी का ही नतीजा है कि यह कहानी वीभत्स हत्याओं कोअंजाम देने वाले कुख्यात अपराधी के महिमामंडन की राजनीति के पक्ष में भी खड़ी नज़रआती है. कहानी के इन कुत्सित राजनैतिक निहितार्थों की कलई खुलती देख कहानी मेंयथार्थ के सायास प्रतिविम्बन को महज संयोग कह कर इसके प्रकाशन के लगभग दो वर्षों के बाद डिसक्लेमरनुमा  फेस सेविंगकी इस हास्यास्पद चालको लेखकीय चालाकी के दूसरे हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए.

कहानी की भाषा लेखक की दलित-स्त्री विरोधी मानसिकता की किस तरह चुगली करती है उसका उदाहरण कहानी के पहले ही पृष्ठ पर मिल जाता है- ‘’पोस्टमार्टम में भी थोड़ा ज्यादासमय लग गया था. दरअसल लाश को चीरने वाला डोम लाश को छूने से आनाकानी कर रहा था.‘’संदर्भ बरहम बाबा की लाश की पोस्टमार्टम का है. यहाँ इस बात पर भी ध्यान दिया जानाचाहिये कि ये वाक्य कहानी के किसी पात्र-विशेष का कथन नहीं बल्कि लेखकीय ब्योरे काहिस्सा हैं. उल्लेखनीय है कि अस्पतालों में पोस्टमार्टम के दौरान लाश को चीरने काकाम अस्पताल के कर्मचारी ही करते हैं, जो किसी भी जाति के हो सकते हैं. संभव है लाशचीरने के काम की वीभत्सता के कारण इस सेवा में सामान्यतया वंचित-दलित ही जाते हों, लेकिनकिसी सरकारी कर्मचारी को उसके जाति सूचक शब्द – ‘डोमसे संबोधित करना कितना उचित है?सी तरह पूरी कहानी में दलितों के लिए मलिन शब्द का प्रयोग किया गया है. आज का दलितखुद को न तो विशिष्ट समझता है न हीं किसी का कृपाकांक्षी.  यही कारण हैं कि गांधीजी द्वारा दिये गए विशिष्टता सूचक शब्द हरिजनको भी अस्वीकार करते हुये इस समुदायने खुद के लिए दलित शब्द अर्जित किया है. गौरतलब  है कि दलित शब्द में केवल उससमुदाय के प्रति हुये अत्याचार का भाव ही निहित है, उनके प्रति किसी तरह की दया याहिकारत का भाव नहीं.  इसके विपरीत मलिन शब्द एक खास तरह के निम्न भाव-बोध का वाहक है.वैसे भी  समाज में मलिन या मलिन बस्ती कहे जाने का कोई उदाहरण भी सामान्यतया नहींदेखने को मिलता है.  

जाहिर है जानबूझ कर किया गया यह प्रयोग लेखक की जाति संबंधी द्वेषपूर्ण समझ का ही परिचायक है. इसी कड़ी में कहानी में प्रयुक्त डोमकचशब्द के अर्थ-संदर्भ पर भीगौर किया जाना चाहिए. मलिन बस्ती से छावनी की ओर सामान्यत: कोई आता-जाता नहींथा, लेकिन विविध सामाजिक और धार्मिक उत्सवों के अवसर पर डोमकच आदि रस्मों के लिएमलिनों की जरूरत पड़ ही जाती थी.उल्लेखनीय है कि डोमकचन तो किसी सामाजिकधार्मिक उत्सव के अवसर पर किया जाने वाला कोई रस्म है न ही इसे दलितों द्वारासंपादित किया जाता है. बल्कि यह कहानी में उल्लिखित अंचल विशेष की एक लोक कला है जिसमें लड़के की बारात जाने के बादशादी की रात में स्त्रियाँ अपनी सुरक्षा और मनोरंजन के उद्देश्यसे रात्रि जागरण करते हुयेस्वांग, नृत्य आदि जैसे कार्यक्रम प्रस्तुत करती हैं.  किसी न किसी रूप में यहलोक-कला उत्तर भारत के सभी अंचलों में विद्यमान है. अमूमन इस तरह के आयोजनों में पुरुषों का प्रवेश वर्जित भी होता है.  हम आपके हैं कौनसिनेमा काबहुचर्चित गीत दीदी तेरा देवर दीवानाएक तरह के डोमकच का ही उदाहरण है. इस लोक-कला कोकेंद्र में रख कर जाने कितनी कहानियाँ हिन्दी में लिखी गई हैं. इस कहानी में डोमकचको दलितों द्वारा संपादित किए जानेवाला रस्म बताना जो सतह पर एक तथ्यात्म्क भूल जैसा  दिखता है, अपने भीतर उस सामंती सोच को छुपाए हुये है  जो दलितों के लिए हिकारत से भरेजाति  सूचक शब्द का इस्तेमाल करता है. यही कारण है कि इस लोक कला कीजानकारी नहोने के बावजूद  डोमकच शब्द के पूर्वार्द्ध डोमके आधार पर लेखक ने इसे दलितों केखाते में डाल दिया है.

प्रतिरोध की रणनीति तो योजनाबद्ध होती है, लेकिनइसकीवृत्ति नियोजित नहीं होती. इस कहानी में पात्रों के प्रतिरोध-व्यवहार इतने कृत्रिम और फिल्मी हैं कि वे  प्रतिरोध के नाम पर एक लचर खानापूरी हो कर रह जाते हैं. एक ऐसे समय में जबअस्मिताबोध का संघर्ष एक ठोस रूपाकार के साथ मुख्य धारा की राजनैतिक लड़ाई का हिस्साबन चुका है, आखिर क्या कारण है कि इस कहानी में कहीं भी सवर्ण वर्चस्ववाद केविरुद्ध दलितों का चैतन्य और प्रत्यक्ष प्रतिरोध नहीं दर्ज होता है? मुख्य रूप सेइस कहानी में तीन ऐसी घटनाएँ या दृश्य हैं जिसे दलितों का प्रतिरोध कहा जा सकता है एक -  पोस्टमार्टम के वक्त बरहम बाबा की लाश चीरने से अस्पताल के दलित कर्मचारियों (लेखकके शब्दों में डोम’) का इंकार, दूसरा -  दलितों के नेता समदिया द्वारा बस्ती के लोगोंको संबोधित करते हुये सवर्ण वर्चस्ववादियों के लिए कहे गए कठोर शब्द और तीसरा - बरहमबाबा की लाश पर बसनी का थूकना. गौर किया जाना चाहिए कि पहले दोनों उदाहरण मेंप्रतिरोध जीवित अत्याचारी के विरुद्ध नहीं उसकी लाश के आगे है और तीसरे उदाहरण मेंअपनी बस्ती में अपने लोगों के बीच. कहने की जरूरत नहीं कि प्रतिरोध के नाम पर कियागया यह प्रतिरोध अपने पूरे स्वरूप में लचर तो है ही, समकालीन दलित-प्रतिरोध औरसंघर्ष की हकीकतों से भी बहुत दूर है. 

इतना ही नहीं लाश के समक्ष किया जानेवाला प्रतिरोध कहींन कहीं बरहम बाबा के प्रति सहानुभूति अर्जित करने की ही एक कोशिश है कारण कि यहलाश उस बरहम बाबा की नहीं जो नृशंस हत्या कांड का मुखिया था. यह लाश तो उस बरहमबाबा की है जो हृदय परिवर्तन के बाद  दलितों के दुख-दर्द का हिमायती हो चला था.  उसक्रूर बरहम बाबा का अवसान तो प्रो. रामाधार की संगति में आने के बाद हृदय परिवर्तनके साथ जेल में ही हो गया था. स्पष्ट है कि नृशंस बरहम बाबा का हृदय परिवर्तन कराकर यह कहानी एक तरफ तो किसी क्रूरतम चरित्र के भीतर भी देवत्व खोजने का जतन करती हैवहीं दूसरी तरफ संत हो चुके बरहम बाबा की लाश के आगे दलितों के तथाकथित प्रतिरोध के बहाने दलितों को ही कठघरे में खड़ा कर देती है जो हृदय परिवर्तन जैसे उच्चतर मूल्यबोधों का अर्थ नहीं समझते और एक न एक दिन अपनी जातदिखा  ही जाते हैं . वे जानबूझ कर भी यह नहीं समझना चाहते कि हृदय परिवर्तन से गुजर चुका व्यक्ति सजा का नहीं सम्मान और सहानुभूति का अधिकारी होता है. जाहिर हैऐसे लोगों के लिए दलित के बदले मलिन शब्द का चुनाव उस  सोची समझी जातीय राजनीति काही हिस्सा है, जिसमें दलितों का परिचय उनके नाम से नहीं उनकी जाति से ही दिया जाता है.तभी तो कहानीकार दलितों के नेता समदिया को सिर्फ उसके नाम से नहीं पुकार के समदियादुसाधकहता है. कहानी में आए किसी संवाद के दौरान किसी पात्र के वर्गीय चरित्र कोउद्घाटित करने के लिए ऐसे शब्दों के प्रयोग का औचित्य तो समझ मेंआता है लेकिन, लेखकया नैरेटर की तरफ से ऐसा कहा जाना उसी मानसिक-राजनैतिक बुनावट की तरफ इशारा करताहै, जिसका उल्लेख अभी ऊपर हुआ है . यदि थोड़ी देर को अनुज के कहे अनुसार इस कहानी कोब्रह्मदेव मुखिया के सच से जोड़ कर न भी देखें तो क्या इस कहानी का रचाव ब्रह्मदेवमुखिया को उसकी हत्या के बाद गांधीवादी साबित किए जाने वाली राजनीति के पक्ष में हीनहीं खड़ा होता?

प्रख्यात आलोचक मैनेजर पाण्डेय के शब्दों में यह कहानी जितनीकल्पना पर आधारित है उससे अधिक तथ्यों पर आधारित है.‘ (पूरी तरह से अग्रगामीराजनीतिक दृष्टिकोण की कहानी - मैनेजर पाण्डेय, परिकथा, मई-जून 2013) मैनेजरपाण्डेय की नज़र में भी यह तथ्य और कुछ नहीं बिहार का जातीय संघर्ष ही है. मैंतथ्यशब्द की जगह सत्यकहना चाहता हूँवह  सत्य जो सिर्फ जातीय हिंसा तकसीमित न होकर हिंसा के बाद की उस राजनैतिक कवायदों  तक फैला है जिसमें एक क्रूर औरनृषंस हत्यारे के महिमामंडन की लगातार कोशिशें की जाती रही हैं.

रही बात तथ्य औरकहानी के अंतर्संबंधों की तो कहानी इतिहास की किताब नहीं होती लेकिन इसका मतलब यहभी नहीं कि लेखक दस्तावेजी तथ्यों को अपनी मनमर्जी से बदल कर कहानी में पेश कर दे.  यह एक ऐतिहासिक तथ्य है कि बिहार में सामंती गठजोड़ के खिलाफ  गोलबंद हुये दलितों औरपिछड़ों के विरोध में 1994 में रणवीर सेना का गठन हुआ था.  रणवीर सेना का नामकरण भीकम दिलचस्प नहीं, जो एक राजपूत विरोधी नायक के नाम पर हुआ है. इस संगठन का नाम 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सुर्खियों में उभरे रिटायर्ड आर्मी मैन रणवीर चौधरीऊर्फ रणवीर बाबा के नाम पर रखा गया. प्रचलित मान्यता के अनुसार रणवीर चौधरी ने हीभोजपुर के इलाके में राजपूत भूमिपतियों के वर्चस्व को खत्म कर भूमिहारों के रुतबेकी स्थापना की थी. (ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या के निहितार्थ, निखिल आनंद, हंस-जुलाई, 2012) अब इन पंक्तियों के समानान्तर अंगुरी में डँसले बिया नगिनियाकी इनपंक्तियों को पढ़ा जाना चाहिए कहते हैं कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में कभीदादा रणवीर ने सामंतों के खिलाफ एक सेना गठित की थी और अंग्रेजों के चहेते एवंपिट्ठू जमींदारों को नाकों चने चबवा दिया था. उन दिनों दादा रणवीर की सेना मेंसामाजिक और आर्थिक रूप से दबी कुचली निचली जातियों के लोग तो थे ही, सामंतों सेत्रस्त उच्च जाति के लोगों ने भी दादा रणवीर का  खुलकर साथ दिया था.  लेकिन बरहमबाबा की यह मौजूद सेना सामंतों के विरुद्ध नहीं, उनके हित में खड़ी थी. 

रणवीर सेनाके गठन और नामकरण के इतिहास के संदर्भ में यह कोई तथ्यात्मक भूल भर नहीं, बल्कि यहसूचना कहानी का वह मोड़ है जहां तथ्यों से खेलते हुये अनुज सवर्ण वर्चस्ववाद कीराजनीति के महिमामंडन की आधारशिला रखते हैं. बरहम बाबा के चरित्र को चमकाने के कईऔर जतन कहानी में मौजूद हैं. जिस बरहम बाबा की छावनी में सत्तासीन मेहमानों और आलाअधिकारियों के लिए दलित स्त्रियों का परोसा जाना आम बात है उस बरहम बाबा कोब्रह्मचारी बताने और कालांतर में एक दलित स्त्री से उसको सच्चा प्यार हो जाने की लेखकीय युक्तियां  सी‘’ह्वाइट वाश- प्रोजेक्टका हिस्सा हैं. और यह प्यार भी इतना निष्कलुष और महान कि बिनाबसनी की इजाजत के वह उसे चूमता तक नहीं जब कभी बाबा उसका हाथ पकड़ते और उसे चूमनेकी कोशिश करते, तो वह अपना चेहरा दूसरी ओर कर लेती और अपने को छुड़ाते हुये अपनेकोप-भवन की ओर दौड़कर भाग जाती और बाबा मुस्कुराते हुये उसे देखते रह जाते. 

गौरतलबहै किहाथ छुड़ा कर जाती हुई बसनीके साथ बरहम बाबा कोई ज़ोर-जबर्दस्ती नहीं करता.बाबा की इस महान सदाशयता और बसनी के कोप भवन में चले जाने को देख कर तो बस महापंडितरावण और अशोक वन में निवास करतीं सीता का प्रसंग ही याद आता है. लेकिन कहानी का अंतर्विरोधतब उजागर होता है जब पाठक बसनी के साथ बरहम बाबा के सहवास के क्रूर दृश्य सेरूबरू होता है. ऐसे में यह प्रश्न उठना बहुत ही स्वाभाविक है कि जो स्त्री चूमनेकी कोशिश करते व्यक्ति का हाथ छुड़ा कर भाग जाती थी क्या उसने यह सब अपने साथ जानबूझकर होने दिया वह भी तब जब उसे अपनी बस्ती में आने जाने की खुली छूट बरहम बाबा ने देरखी थी? या फिर कहानी यह कहना चाहती है कि बरहम बाबा की मर्जी को बसनी की स्वीकृतिमिल चुकी थी? यदि ऐसा है तो फिर कोप-भवन के दिखावे का क्या औचित्य है?

कहानी में वर्णित रणवीर सेना और एम सी सी का खूनी संघर्ष जहां यथार्थ सेसम्बद्ध है वहीं बसनी कहानीकार की कल्पना है. वैसे भी कहानी न पूरी हकीकत होती है न पूराफसाना. यथार्थ और कल्पना का तर्कसम्मत सहमेल ही कहानी में सामाजिक, राजनैतिक और भावनात्मकयथार्थों की पुनर्रचना की ठोस जमीन तैयार करता है. हकीकत और फसाने के मिश्रण का सहीअनुपात और उन दोनों का अंतर्संबंध मिल कर कहानी की सफलता तय करते हैं. दुर्योग सेयह कहानी हकीकत और फसाने के गुंफन में लगातार अंतर्विरोधों का शिकार होती गई हैं.कहानी का सबसे बड़ा अंतर्विरोध बरहम बाबा की हत्या किसने की के उत्तर में दिये गए परस्पर विरोधी तर्कोंऔर उसके उलझाव में निहित है. नतीजतन अंत तक पाठक यह ठीक-ठीक नहीं समझ पाता कि बरहमबाबा की हत्या किसने की.  कहानी की शुरुआत में जहां लेखक बरहम बाबा की हत्या को एकराजनैतिक घटना नहीं बल्कि पारिवारिक दुर्घटना बताता है,वहीं बाद में बसनी केसुनरदेव शर्मा के समानान्तर सत्ता-केंद्र के रूप में उभरने की बात कह के शक की सुईबसनी की तरफ मोदेता है. बरहम बाबा की हत्या को पारिवारिक दुर्घटना कहे जाने केपीछे जहां ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्या से जुड़े तथ्यों का प्रभाव है तो वहीं बाद कीबातों में बसनी को सवर्ण वर्चस्ववादियों की नज़र में खल पात्र की तरह उभारे जाने कीलेखकीय मंशा. 

कहानी का यह अंतर्विरोध कहानी के आखिरी हिस्से  में और मुखर हो उठताहै जब बसनी बरहम बाबा की लाश पर थूक कर अपनी बस्ती की तरफ नंगे पाँव भाग जाती है. यदिलाश पर थूकना बसनी का प्रतिरोध है तो वह भागती क्यों है और यदि भागना ही उसकी नियतिहै तो फिर यह प्रतिरोध कैसे हुआ? प्रतिरोध की आंच भय की नमी को सोख कर व्यक्ति कोसाहसी बनाती है. लेकिन बसनी का भागना तो पलायन है. प्रतिरोध और पलायन परस्पर विरोधीगुण-धर्म हैं, ये साथ-साथ कैसे चल सकते हैं? यदि बसनी नंगे पाँव न भाग कर शान सेअपनी बस्ती में जाती तो इसे प्रतिरोध कहा जा सकता था. लेकिन लेखकीय लापरवाही,नासमझी और संकीर्ण जाति-बोध ऐसा नहीं होने देते.  हकीकत और फसाने के लापरवाह सहमेल से उत्पन्न यहअंतर्विरोध आलोचकों को भी उलझाकर रख देता है.  परिणामत:परस्पर विरोधी आलोचकीयस्थापनाएं भी सामने आती हैं.  उदाहरण के तौर पर वरिष्ठ आलोचक रवि भूषण की निष्पत्तियों को देखा जा सकता है. इस कहानी पर बात करतेहुये शुरू में तो वे यह कहते हैं कि– “बरहम बाबा केवल काल्पनिक पात्र नहीं हैं.  काल्पनिक पात्र है बसनी. कहानी को हम ब्रह्मेश्वरमुखिया और रणवीर सेना से जोड़करभले न देखें, पर इससे आँखें नहीं मूँदी जा सकती. कहानी की अंतर्वस्तु हमें यथार्थमें जाने और उसे समझने को भी बाध्य करती है.लेकिन अंत में अपनी इसी मान्यता केलगभग उलट वे यह कहते हैं कि –“ कहानीकार का काम ब्रहमेश्वर मुखिया को कहानी मेंउसके वास्तविक और यथार्थ रूप में प्रस्तुत करना नहीं है.  यहाँ भिन्न बरहम बाबा है.वास्तविक ब्रहमेश्वर मुखिया कभी नहीं बदलते.जाहिर है इस आलोचकीय अंतर्विरोध काकारण कहानीकार प्रदत्त कल्पना और यथार्थ के बेतरतीब घालमेल में ही निहित है. 

कहानी मेंदृष्टिगत अंतर्विरोधों का यह सिलसिला यहीं नहीं  थमता. इसे  कहानी के शीर्षक, कहानीमें उसके उपयोग और उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यंजना के सहारे भी समझा जा सकता है. कहानी काशीर्षक अंगुरी में डंसलेबिया नगिनियाप्रख्यात भोजपुरी गीतकार महेंदर मिसिरकी एक लोकप्रिय रचना से लिया गया है. सवाल यह है कि नागिन कौन हैइस संदर्भ में कहानी कीशुरुआत में ही आए सुनरदेव शर्मा के इस कथन को देखा जाना चाहिए – “हम बोले थे किनगिनिया है, बच के रहिएगा, बच के रहिएगा... डँसेगी एक-ना-एक दिन”  बसनी के भीतरघातकी तरफ इशारा करतेहुये कहानी में दूसरी जगह सुनरदेव कहता है – “जब से ई नगिनिया आई है, तबही से सेना का लोग मराने लगा है और सेना का हमला खराब होने लगा है...जाहिर हैकहानी बसनी को ही नागिन  समझे जाने के पर्याप्त संकेत उपलब्ध कराती है.  लेकिन कहानीके अंत में इस गीत की आवाज़ का दलितों की बस्ती से आना एक नए तरह  के कन्फ़्यूजन कोजन्म देता है. आखिर इस गाने के दलित-बस्ती में बजने का क्या औचित्य है? नागिन कीसंज्ञा का दलितों द्वारा यह स्वीकार कहीं बसनी के लिए प्रयुक्त उस सम्बोधन पर तंज़तो नहींलेकिन प्रश्न यह भी है कि जिस समुदाय की एक स्त्री को प्रतिपक्षी समूहलगातार नागिन कहता हो वह खुद भला इस नकारात्मक सम्बोधन को कैसे स्वीकार करेगा? बक़ौलअरुण होता – “महेंदर मिसिर ने सुषुप्त भारतीयों को जगाने के लिए, आत्म गौरवप्रतिष्ठित करने के लिए अस्मिता को जाग्रत करने के लिए यह गाना लिखा था. कथाकारअनुज ने अपनी कहानी का शीर्षक अंगुरी में डंसले बिया नगिनियारखकर उपर्युक्तपरिदृश्य को आज के संदर्भ में विश्लेषित किया है.(दलितों और पीड़ितों की हिमायतकरनेवाली कहानी - अरुण होता, परिकथा जुलाई-अगस्त 2013) 

अरुण होता प्रदत्त इस सूत्रको खुद अनुज कुछ इस तरह डीकोड करते हैं अपनी इस कहानी में भी मैंने नगिनिया कहकरएक सामंती और विद्वेष की भावना को सिम्बोलाइजकरने की कोशिश की है. मेरी इस कहानीमें नगिनिया कोई पात्र या व्यक्ति नहीं बल्कि एक सोच और प्रवृत्ति है. (अंगुरी मेंडंसले बिया नगिनियाऔर मेरी रचना प्रक्रिया -  अनुज, परिकथा, जुलाई-अगस्त 2014) 

पहली बात तो यह कि किसी कहानी में प्रयुक्त किसी लोक गीत या संदर्भ कीप्रतीकात्मकता इस बात से तय नहीं हो सकती  कि मूल रूप में वह किस संदर्भ में कहा गयाथा, बल्कि इस बात से तय होनी चाहिए कि उसका इस्तेमाल लेखक ने किन संदर्भों के साथ किया है.  दूसरी बात यह कि प्रतीक विधान कोई अराजक या अनुशासनहीन  व्यवहार नहीं जिसे जब-जैसेचाहे लेखक अपने अनुकूल उसका इस्तेमाल या उसकी व्याख्या कर ले. जब पूरी कहानी औरकहानी के घटनाक्रम बसनी को नागिन कहे जाने की वकालत कर रहे हों उस समय सिर्फ उसगाने को दलित बस्ती में बजता दिखा कर उसे किसी प्रवृत्ति विशेष का प्रतीक कैसेबनाया जा सकता है? थोड़ी देर को यदि अरुण होता और अनुज की इस अवधारणा की कसौटी पर हीकहानी के घटनाक्रम को समझने की कोशिश करें तो बात बरहम बाबा की हत्या संबंधीअंतर्विरोध को एक नए रूप में सामने लाती है उल्लेखनीय है कि कहानी के लगभग अंतमें बसनी बरहम बाबा के लाश के पास अपनी मांग में पहली बार भखरा सिंदूर आदि लगाये नवविवाहिता दुल्हन के वेष में आती है,आज उसने पहली बार बरहम बाबा द्वारा उपहार में दी हुई सैंडल भी पहन रखी है. बसनी पहले तो उस सैंडल को गोबर के टाल पर छप्प से फेंक देती है और फिर बरहम बाबा की लाश पर थूक कर नंगे पाँव अपनी बस्ती की तरफ भाग जाती है. 

कहानीकार इस निहायत ही बचकाने और फिल्मी दृश्य के रचाव से इतना मोहाविष्ट है कि उसे यह भी ध्यान नहीं रहता कि बरहम बाबा ब्रह्मचारी है और बसनी भी कोई ब्याहता नहीं,ऐसे में सिंदूरदान और भखरा सिंदूर घर में कहाँ से उपलब्ध होगा. यह नाटकीयता तब और अपने चरम पर पहुँच जाती है जब बसनी बरहम बाबा की हत्या के उपरांत शोक और आक्रोश के उस माहौल में बिना किसी रुकावट या प्रतिरोध के सुरक्षित भाग जाती है. और तभी लाउड स्पीकर पर वह गीत मलिन बस्ती में बज उठता है.  रविभूषण और अनुज इस प्रसंग को एक नई शुरुआत की तरह देखना चाहते हैं. उनके अनुसार दलित बस्ती में गाने काबजना इस नई शुरुआत के उत्सव का प्रतीक है. प्रश्न है कि यह नई शुरुआत क्या है? क्याबरहम बाबा की हत्या दलित राजनीति और संघर्ष की विजय है? निश्चित तौर पर नहीं, कारणकि जिस बरहम बाबा की हत्या कहानी में हुई है उसका तो  हृदय परिवर्तन हो चुका था.  गौर किया जाना चाहिए कि सुनरदेव और बसनी परस्पर विरोधी दो सत्ता केंद्र बन गए थे ऐसे में बरहम बाबा कीहत्या बर्बरता के प्रतीक का शिथिल पड़ना नहीं बल्कि बर्बरता के नए झंडाबरदार के आगमनका प्रतीक है.

 मतलब यह कि बरहम बाबा की हत्या बसनी नेनहीं सुनरदेव ने कराई थी. इस तरह संत हो चुके बरहम बाबा की हत्या को सुनरदेव के ताकतवर होकर उभरने के  रूप में उस पूर्ववर्ती क्रूर और हत्यारे बरहम के पुनर्जन्म की तरह देखा जाना चाहिए.  बरहम बाबा की हत्या के बाद बसनी के उस तरह दलित बस्तीमें भागने को भी इससे जोड़ कर देखा जा सकता है, कारण कि बरहम बाबा की हत्या के बादछावनी में बसनी के लिए संरक्षण की कोई गुंजाइश नहीं बची थी .यानी  बसनी तबतक छवानी  में थी जबतक वहाँ की परिस्थितियाँ उसके लिए अनुकूल थीं और जैसे ही माहौल प्रतिकूलहुआ वह भाग खड़ी हुई. ऐसे में सनी की मजबूरी को उसका प्रतिरोध और त्याग बताने वाले आलोचक अरुण होता का यह तर्क कितना हास्यास्पद प्रतीत होताहै कि हाँ बसनी ने दरअसल ऐश-ओ-आराम, वैभव आदि को ठुकरा दिया है.(दलितों औरपीड़ितों की हिमायत करनेवाली कहानी - अरुण होता, परिकथा जुलाई-अगस्त 2013) 

अरुण होता के अनुसार लाउड स्पीकर पर बजने वाले गाने का साफ-साफ सुनाई देना औरतेज होना दलित नारी की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होना है. मुक्ति संग्राम में विजयीहोना है(दलितों औरपीड़ितों की हिमायत करनेवाली कहानी - अरुण होता, परिकथा जुलाई-अगस्त 2013)अरुण होता,रवि भूषण और अनुज के अनुसार  यदि बरहम बाबा की हत्या को बर्बरता के प्रतीक की समाप्ति के रूप में देखा जाये तोइसका मतलब यह होगा कि जिन दो सत्ता केन्द्रों का उल्लेख कहानी में हुआ है, उनमेंसुनरदेव की ताकत कमजोर पगई थीयानी बरहम बाबा की हत्या बसनी ने करवाई. ऐसीस्थिति में मजबूत हो कर उभरी बसनी के भाग खड़े होने का तर्क गले नहीं उतरता और अरुण होता द्वारा विश्लेषित प्रतीकार्थ एक नई उलझन खड़ी कर देते हैं. यदि यह दलित अस्मिता संघर्ष के विजय का क्षण है तो फिर नागिन से मुक्तिदिलाने के लिए किसी परवश स्त्री द्वारा भाईयों (पुरुषों)  जगाने का गुहार लगाने वाले इस गीत का इस समय क्या औचित्यहै? महिंदर मिसिर का  यह गीत  उत्सव का नहीं दर्द से भींगी पुकार का  गीत  है.  एकस्त्री के नेतृत्व में विजय प्राप्त करने के बाद  दलित नारी की मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होने के प्रतीक के रूप में उपयोग किएगए गीत में पुरुषों को मदद के लिए पुकारना भी कम हास्यास्पद और अंतर्विरोधी नहींहै. दरअसल बसनी का चरित्र तरह कहानी में उभर कर आता है उसमें दलित और स्त्री दोनों के हितों की  अवमानना निहित है. स्त्रियॉं की अवमानना का एक और वीभत्स उदाहरण कहानी में वर्णित बाथे नरसंहारके दौरान मिलता है जब नृशंसता और वीभत्सता की पराकाष्ठा पर चल रहे हत्याकांड के बीच बसनी परनज़र पड़ते ही लेखक उसकी देह का वर्णन रस ले-ले कर करने लगता है. वीभत्सतम रक्तपात के बीच इस तरह के देह वर्णन की कल्पना भी स्त्री विरोधी,अश्लील और जुगुप्साजनक है.

इस कहानी पर यह टिप्पणी अधूरी होगी यदिइसके समर्पण के राजनैतिक निहितार्थों पर बात न की जाये. अनुज ने इस कहानी को देशभरमें हो रही जातीय हिंसा की घटनाओं में मारे गए लोगों की विधवाओं एवं बच्चों कोसमर्पित किया है. उल्लेखनीय है कि रणवीर सेना के गठन के  बाद बिहार में कुल 37 नरसंहार हुये थे जिनमें 30 रणवीर सेना के नाम दर्ज हैं. लक्ष्मणपुर बाथे हत्याकांडके वक्त भूमिगत ब्रहमेश्वर का एक बयान काफी सुर्खियों में रहा कि हम महिलाओं कोइसलिए मारते हैं कि वो नक्सली  पैदा करती हैं . बच्चों को इसलिए मारते हैं कि वोबड़े होकर नक्सली बनेंगे. हमारे खिलाफ बंदूक उठाएंगे.“ (ब्रहमेश्वर मुखिया की हत्याके निहितार्थ -  निखिल आनंद, हंस-जुलाई, 2012) इसके समानान्तर एक सच यह भी है किनक्सली बच्चों और स्त्रियॉं की हत्या नहीं करते थे. ऐसे में आलोचक शंभु गुप्त का यहप्रश्न बहुत जायज है कि – “लेखक आखिर किन लोगों की विधवाओं और उनके बच्चों को यहकहानी समर्पित कर रहा है? ये विधवाएँ और बच्चे आखिर किस जाति विशेष से ताल्लुक रखतेहैं? (कदम-कदम पर कहानी को अपने शिकंजे में कसता लेखक - शंभु गुप्तपरिकथा, मई-जून 2013)थोड़ी देर को रणवीर सेना और ब्रहमेश्वर मुखिया के कथित बयान से इसकहानी को मुक्त भी कर दें तो भी इस कहानी में वर्णित नरसंहार के दौरान बरहम बाबा कायह कथन इस प्रश्न को उचित और तार्किक बनाए रखता है – “बरहम बाबा ने चीख करसैनिकों का आह्वान किया, रोग का जड़ पर हमला करना चाहिए... ई औरत का जात ही है जोहरामियों को पैदा करती है, आ यही हरामी सब बड़ा होकर बनाता है एम सी सी... सुनरदेव, सबसे पहिले ई सब औरतन अउर ननकिरवन सब के खत्म करो... ना रहिएं बांस न बजिहेंबसुरिया...!अनुज शंभु गुप्त के इस विश्लेषण से आहत हैं. कहानी में वर्णित सैद्धांतिक यथार्थ से विमुख हो कर इससमर्पण को इतनी मासूमियत से नहीं स्वीकारा जा सकता. राजनैतिक संदर्भों की कहानियोंका एक-एक शब्द उनके राजनैतिक निहितार्थों का वाहक होता है.ऐसे में यह कहने की जरूरत नहीं कि लेखक की पक्षधरता जातीय राजनीति के किस स्वरूप के प्रति है.

जातिवाद की वर्चस्ववादी राजनीति के ध्वजवाहकों का महिमामंडन करने वाली कुत्सित मंशाओं को सींचते हुये प्रगतिशील कहलाने की लेखकीय यशाकांक्षा इस कहानी की असफलता का सबसे बड़ा कारण है.बरहम बाबा की लाश के सम्मुख अस्पतालकर्मियों का प्रतिरोध हो या कि बसनी का उस लाश पर थूकना,बसनी की मजबूरी को छद्म प्रतिरोध के रूप में दर्शाने की कोशिश हो या फिर शीर्षक में प्रयुक्त गीत को दलित बस्ती में बजाने की नासमझ चालाकी,इन्हें विष से भरे घट के मुंह पर दूध का लेप लगाने की नाकाम कोशिशों की तरह ही देखा जाना चाहिए जो अपने अंतर्विरोधी गुण-धर्म के कारण हर कदम पर सहज ही कहानी में उजागर होते चलते हैं.  
_____________
कहानी अंगुरी में डँसले बिया नगिनिया यहाँ पढ़े,

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles