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(पेंटिग : Bernardo Siciliano : PANIC ATTACK II) |
कात्यायनी की कविताएँ प्रतिबद्ध और साहसिक हैं, इसलिए असरदार हैं कि उनमें समझौते नहीं हैं न रियायत बरती गयी है. वह वरिष्ठ ही नहीं विरल भी हैं.
इधर की उनकी कविताएँ राजनीति और बुद्धिजीवियों के बीच के रिश्तों पर हैं जो मलिन और दयनीय हो चले हैं. जो घोषित प्रतिबद्ध हैं उनके विचलन को भी ये कविताएँ देखती हैं, इसके साथ ही समाज, सम्बन्ध और सरोकारों पर जो पस्ती है उसे भी ये कविताएँ बयाँ करती हैं.
‘’हमारे समय में प्यार’ में वह लिखती हैं
“इस सीढ़ी से ऊपर चढ़ता है एक उतावला बच्चा
और ऑंसू की एक जमी हुई बूँद तक पहुँचता है
जो दूर से तारे के मानिन्द चमक रहा था.”
कविताओं के इस जल में हमारा चेहरा कितना धूसर नज़र आता है. यह खुद को पहचाने का भी समय है.
कात्यायनी की कविताएँ
भय,शंकाओं और आत्मालोचना भरी एक प्रतिकविता
एक बर्बर समय के विरुद्ध युद्ध का हमारा संकल्प
अभी भी बना हुआ है और हम सोचते रहते हैं कि
इस सदी को यूँ ही व्यर्थ नहीं जाने दिया जाना चाहिए
फिर भी यह शंका लगी ही रहती है कि
कहीं कोई दीमक हमारी आत्मा में भी तो
प्रवेश नहीं कर गया है ? कहीं हमारी रीढ़ की हड्डी भी
पिलपिली तो नहीं होती जा रही है ?
कहीं उम्र के साथ हमारे दिमाग पर भी तो
चर्बी नहीं चढ़ती जा रही है ?
डोमा जी उस्ताद अब एक भद्र नागरिक हो गया है
कई अकादमियों और सामाजिक कल्याण संस्थाओं
और कला प्रतिष्ठानों का संरक्षक,व्यवसायी
राजनेता और प्राइवेट अस्पतालों-स्कूलों का मालिक.
मुक्तिबोध के काव्यनायक ने जिन साहित्यिक जनों और कलावंतों को
रात के अँधेरे में उसके साथ जुलूस में चलते देखा था,
वे दिन-दहाड़े उससे मेल-जोल रखते हैं
और इसे कला-साहित्य के व्यापक हित में बरती जाने वाली
व्यावहारिकता का नाम देते हैं.
वयोवृद्ध मार्क्सवादी आलोचक शिरोमणि आलोचना के सभी प्रतिमानों को
उलट-फेर रहे हैं ताश के पत्तों की तरह
और आर.एस.एस. के तरुण विचारक की पुस्तक का
विमोचन कर रहे हैं.
मार्क्सवादी विश्लेषण पद्धति के क ख ग से अपरिचित
युवा आलोचकों की पीठ थपकते-थपकते
दुखने लगती है.
कवि निर्विकार भाव से चमत्कार कर रहे हैं.
कहानियॉं सिर्फ कहानीकार पढ़ रहे हैं.
फिर भी सबकुछ सब कहीं ठीक-ठाक चल रहा है.
हर शाम रसरंजन हो रहा है,
बचत और सुविधाऍं लगातार बढ़ रही हैं ।
बीस रुपये रोज़ के नीचे जीने वाली 70 प्रतिशत आबादी
और लाखों किसानों की आत्महत्याओं और करोड़ों
कुपोषित बच्चों के बारे में सोचने-बोलने-लिखने वाले
अर्थशास्त्री-समाजशास्त्री ऊँचे संस्थानों और एन.जी.ओ.
में बिराजे हुए धनी मध्यवर्गीय अभिजन बन चुके हैं.
विद्वान मार्क्सवादी तांत्रिक कूट भाषा में आज की दुनिया
की समस्याओं पर लिख-बोल रहे हैं.
निश्चय ही बदलाव के लिए सक्रिय लोगों की दुनिया भी है,
पर वहॉं विचारहीनता और विभ्रम हावी है,
मुक्त चिन्तन का प्रभाव है या लकीर की फकीरी है.
गतिरोध वहॉं भी विघटन को गति दे रहा है ।
इस ठण्ढे समय में हमें भी भय तो रहता ही है
कि हमारी आत्माओं में कहीं से निश्चिन्तता या
ठण्ढापन घुसपैठ न कर लें.
ठीक-ठाक खाते-पहनते-ओढ़ते-बिछाते हुए
कहीं हमारे भीतर भी और बेहतर जीवन जीने का
जुगाड़ बैठाने की चालाकी न घर कर ले.
कहीं ऐसा न हो कि हम अनुभव और उम्र की दुहाई देते-देते
एक निरंकुश अड़ियल नौकरशाह बन जायें
और कुर्सियों में चर्बीली देह धॅंसाये हुए
युवा साथियों को गुजरे दिनों के संस्मरण सुनाने
और निर्देश जारी करने में अपने जीवन की
सार्थकता समझने लगें.
कहीं ऐसा न हो कि हम मूर्ख निरंकुश बन जायें
और मूर्ख निरंकुशता की प्रतिक्रिया अक्सर
प्रबुद्ध निरंकुशता के रूप में भी विकसित होती है.
एक ठण्ढे समय में,आने वाले युद्ध की
ज़रूरी तैयारी करते-करते भी
कब कमज़ोर पड़ जाती है सादा जीवन और कठोर परिश्रम की आदत
और ढीली हो जाती है जनता में अविचल आस्था,
और हमें पता भी नहीं चलता
और जब हम बदल चुके होते हैं
तो अपने बदलाव के बारे में सोचने लायक भी नहीं रह जाते.
निश्चय ही यह मनुष्यता का अंत नहीं है,
लेकिन राजनीतिक शीतयुद्ध अभी लम्बा होगा.
कठिन होगा इस दौरान आत्मा में और कविता में
ईमानदारी,न्यायबोध और साहस की गरमाहट
को बचाये रखना.
ज़रूरी है विचारों और आम लोगों के जीवन के बीच
लगातार होना और कठिन भी.
अपनी शंकाओं,आशंकाओं,भय और आत्मालाचना को
अगर बेहद सादगी और साहस के साथ
बयान कर दिया जाये
और कला और शिल्प की कमज़ोरियों के बावजूद
एक आत्मीय और चिन्तित करने वाली
कामचलाऊ,पठनीय कविता लिखी जा सकती है
भले ही वह महान कविता न हो.
सुप्त पंखों के निकट
त्वरा आयी
सुप्त पंखों के निकट
फड़फड़ाहट
ताज़गी बन भर रही है
आत्मा के विवर में.
कहीं जीवन तरल - सा
अंधी गुफाओं में
प्रवाहित हो रहा है.
लो,कहीं से अब
पुकारा जा रहा है
धार को,या आग को या तुम्हें ?
क्या तुम सुन रहे हो ?
एक कुहरा पारभासी
हवा
कुहरा पारभासी
रोशनी नीली
बरसती जा रही है
जग रहा है
वासना का
व्यग्र वैभव,
यह हृदय का ताप
वाष्पित कर रहा है
अश्रु को या स्वेद को ?
हम नमक की डली हैं
ले चलो हमको उठाकर.
बस यही अपना ...
एक परदा रोशनी का
एक चादर उदासी की
एक गठरी भूल - चूकों की
एक दरवाज़ा स्मरण का
एक आमंत्रण समय का
एक अनुभव निकटता का
बस यही निज का रहा.
शेष सब साझा हुआ
सफर में जो साथ,
उन सबका हुआ.
मौलिकता
सृजन और प्यार और मुक्ति की
गतिकी के कुछ आम नियम होते हैं
लेकिन हर सर्जक
अपने ढंग से रचता है,
हर प्रेमी
अपने ढंग से प्यार करता है
और हर देश
अपनी मुक्ति का रास्ता
अपने ढंग से चुनता है.
2007
ऑंधी से उखड़े पेड़ की औंधी जड़ों की तरह
प्रस्तुत होता है इतिहास.
भविष्य के साथ मुलाकात का क़रार
रद्द कर चुके हैं वे लोग
जिनका समाजवाद बाज़ार के साथ
रंगरलियॉं मना रहा है
और आये दिन नये-नये
नन्दीग्राम रच रहा है.
बमवर्षा से नहीं
सौम्य शान्ति,आप्त वचनों और वायदों के हाथों
तबाह हो चुका
दुनिया का सबसे बड़ा जनतंत्र
एक लंगर डाले जहाज की तरह
प्रतीक्षा कर रहा है.
बीस रुपये रोज़ पर गुज़र करते
चौरासी करोड़ लोगों के हृदय
अपहृत कर छुपा देने की
नयी-नयी तरक्रीबें सोची जा रही हैं.
सुधी जनों से छीन ली गयी हैं उसकी स्मृतियॉं,
भाषा बन चुकी है
व्यभिचार की रंगस्थली,
भविष्य स्वप्न भुगत रहे हैं
निर्वासन का दण्ड
और अपने जीवन की कुलीनता-शालीनता-कूपमण्डूकता में
धुत्त,अंधे और अघाये लोगों के बीच
तुमुल ध्वनि से प्रशंसित हो रही है
वामपंथी कवियों की कविताऍं.
हमारे समय में प्यार
जादुई रस्सी की सीढ़ी आसमान से लटक रही है
(यह धरती को नहीं छूती
मान्यता है कि धरती को छूते ही यह विलुप्त हो जायेगी हवा में
या राख होकर झड़ जायेगी)
इस सीढ़ी से ऊपर चढ़ता है एक उतावला बच्चा
और ऑंसू की एक जमी हुई बूँद तक पहुँचता है
जो दूर से तारे के मानिन्द चमक रहा था.
देवदारु के जंगलों में आदमक़द आईने खड़े किये जाते हैं
रोशनी की एक किरण हिमशिलाओं से टकराकर आईने तक आती है
और फिर परावर्तित होकर गरुड़ शिशुओं को अंधा कर देती है.
ठीक इसीसमय सुनाई देती है घोड़ों की टापें,
बर्बर विचारों का हमला हो चुका होता है.
2014 कुछ इम्प्रेशंस
चिकने चेहरे वाला
वह सुखी-सन्तुष्ट आदमी
कितना डरावना लग रहा है
धीरे-धीरे गहराते अँधेरे की इस बेला में.
#
जो उम्मीदें खो चुका है
बहुत सारी दूसरी चीज़ों के साथ
उसका रोना-झींकना
ऊब और झुँझलाहट पैदा करता है
लेकिन बीच-बीच में उससे मिलने को
जी चाहता है यह पूछने के लिए
कि उसकी गुमशुदा चीज़ों में से
क्या कुछ मिल गयी हैं ?
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जो पराजयों के चयनित इतिहास को
निचोड़कर नयी सैद्धान्तिकी गढ़ रहा है
खण्ड से समग्र की
और पेड़ से जंगल की पहचान करता हुआ,
वह नया इन्द्रजाल रचता कापालिक है बौद्धिक छद्मवेशी.
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सबसे खतरनाक है
जानते-बूझते झूठी दिलासा देने वाला
मिथ्या आशाओं की मृगमरीचिका
रचने वाला आदमी ।
लेकिन नहीं,उससे कम घातक नहीं है वह आदमी
जो चुपचाप इन्तज़ार करने की,
हवा का रुख भॉंपते रहने की सीख देता है
या फिर यह बताता है कि
रोज़-रोज़ धीरे-धीरे बनती हुई यह दुनिया
एक दिन खुद-ब-खुद बदल जायेगी.
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सबसे कुटिल किस्म के बेरहम हैं वे लोग
जो क़त्लगाहों के बाहर
मुफ्त शवपेटिकाऍं बॉंट रहे हैं,
यंत्रणागृहों के बाहर टेबुलों पर
मरहमपट्टी का सामान सजाये बैठे हैं,
और लुटे-पिटे लोगों के बीच
रोटी-कपड़ा-दवाइयॉं और
किताबें बॉंट रहें हैं
और छोटी-छोटी पुडि़यों में
थोड़ी-थोड़ी आज़ादी भी ।
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इन सभी कपट प्रपंचों और दुरभिसंधियों के विरुद्ध
खड़े हैं ईमानदारी से कुछ लोग
जो पुरानी जीतों को
हूबहू पुराने तरीके से ही
लड़कर दुहराना चाहते हैं.
उन्हें मठवासी भिक्षु बन जाना चाहिए
अन्यथा इतिहास में लौटने की
कोशिश करते हुए वे
अजायबघरों में पहुँच जायेंगे
या फिर कुछ अभयारण्यों में देखे जायेंगे.
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समय का इतिहास
सिर्फ रात की गाथा नहीं.
उम्मीदें यूटोपिया नहीं,
यूटोपिया से निर्माण परियोजना तक का
सफ़रनामा होती हैं
और रात की हर गाथा को भी
उम्मीदों के बार-बार आविष्कार के
जादुई यथार्थ को जानने के बाद ही
लिख पाना मुमकिन होता है.
फ़िलिस्तीन - 2015
वहां जलते हुए धीरज की ताप से गर्म पत्थर
हवा में उड़ते हैं,
पतंगें थकी हुई गौरय्यों की तरह
टूटे घरों के मलबों पर इन्तज़ार करती हैं,
वीरान खेतों में नये क़ब्रिस्तान आबाद होते हैं,
और समन्दर अपने किनारों पर
बच्चों को फुटबॉल खेलने आने से रोकता है।
वहां,हर सपने में ख़ून का एक सैलाब आता है
झुलसे और टूटे पंखों,रक्त सनी लावारिस जूतियों,
धरती पर कटे पड़े जैतून के नौजवान पेड़ों के बीच
अमन के सारे गीत
एक वज़नी पत्थर के नीचे दबे सो रहे होते हैं।
फ़िलिस्तीन की धरती जितनी सिकुड़ती जाती है
प्रतिरोध उतना ही सघन होता जाता है.
जब संगीनों के साये और बारूदी धुएँ के बीच
'अरब-बसन्त'की दिशाहीन उम्मीदें
बिखर चुकी होती हैं
तब चन्द दिनों के भीतर पाँच सौ छोटे-छोटे ताबूत
गाज़ा की धरती में बो दिये जाते हैं
और माँएँ दुआ करती हैं कि पुरहौल दिनों से दूर
अमन-चैन की थोड़ी-सी नींद मयस्सर हो बच्चों को
और ताज़ा दम होकर फिर से शोर मचाते
वे उमड़ आयें गलियों में,सड़कों पर
जत्थे बनाकर.
''उत्तर-आधुनिक''समय में ग्लोबल गाँव का जिन्न
दौड़ता है वाशिंगटन से तेल अवीव तक,
डॉलर के जादू से पैदा वहाबी और सलाफ़ी जुनून
इराक़ और सीरिया की सड़कों पर
तबाही का तूफान रचता है.
ढाका में एक फैक्ट्री की इमारत गिरती है
और मलबे में सैकड़ों मज़दूर
ज़िन्दा दफ़्न हो जाते हैं
और उसी समय भारत में एक साथ
कई जगहों से कई हज़ार लोग
दर-बदर कर दिये जाते हैं.
कुछ भी हो सकता है ऐसे समय में।
गुजरात में गाज़ा की एक रात हो सकती है,
अयोध्या में इतिहास के विरुद्ध
एक युद्ध हो सकता है,
युद्ध के दिनों में हिरोशिमा-नागासाकी रचने वाले
शान्ति के दिनों में कई-कई भोपाल रच सकते हैं
और तेल की अमिट प्यास बुझाने के लिए
समूचे मध्य-पूर्व का नया नक्शा खींच सकते हैं.
जब लूट से पैदा हुई ताक़त का जादू
यरुशलम के प्रार्थना-संगीत को
युद्ध गीतों की धुन में बदल रहा होता है,
तब नोबेल शान्ति पुरस्कार के तमगे को
ख़ून में डुबोकर पवित्र बनाने का
अनुष्ठान किया जाता है
और मुक्ति के सपनों को शान्ति के लिए
सबसे बड़ा ख़तरा घोषित कर दिया जाता है.
सक्रिय प्रतीक्षा की मद्धम आँच पर
एक उम्मीद सुलगती रहती है कि
तमाम हारी गयी लड़ाइयों की स्मृतियाँ
विद्युत-चुम्बकीय तरंगों में बदलकर
महादेशों-महासागरों को पार करती
हिमालय,माच्चू-पिच्चू और किलिमंजारो के शिखरों से
टकरायेंगी और निर्णायक मुक्ति-युद्ध का सन्देश बन
पूरी दुनिया के दबे-कुचले लोगों की सोयी हुई चेतना पर
अनवरत मेह बनकर बरसने लगेंगी.
इसी समय गोधूलि,जीवन के रहस्यों,आत्मा के उज्ज्वल दुखों,
आत्मतुष्ट अकेलेपन,स्वर्गिक राग-विरागों,
भाषा के जादू और बिम्बों की आभा में भटकते कविगण
अपनी कविताओं में फिर से प्यार की अबाबीलों,
शान्ति के कबूतरों,झीने पारभासी पर्दों के पीछे से
झाँकते स्वप्नों और अलौकिकता को
आमंत्रित करते हैं और कॉफी पीते हैं,
और बार-बार दस तक गिनती गिनते हैं
और डाकिये का इन्तज़ार करते हैं.
जिस समय विचारक गण भाषा के पर्दे के पीछे
सच्चाइयों का अस्थि-विसर्जन कर रहे होते हैं
इतिहास के काले जल में
और सड़कों पर शोर मचाता,शंख बजाता
एक जुलूस गुज़रता होता है
कहीं सोमनाथ से अयोध्या तक,तो कहीं
बगदाद से त्रिपोली होते हुए दमिश्क और बेरूत तक,
ठीक उसी समय गाज़ा के घायल घण्टाघर का
गजर बजता है
गुज़रे दिनों की स्मृतियाँ अपनी मातमी पोशाकें
उतारने लगती हैं,
माँएँ छोटे-छोटे ताबूतों के सामने बैठ
लोरी गाने लगती हैं
और फ़िलिस्तीन धरती पर आज़ादी की रोशनी फैलाने में
साझीदार बनने के लिए
पूरी दुनिया को सन्देश भेजने में
नये सिरे से जुट जाता है.
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कात्यायनी : 7 मई, 1959, गोरखपुर (उ.प्र.)
शिक्षा : एम.ए. (हिन्दी), एम. फिल.
निम्नमध्यवर्गीय परिवार में जन्म. परम्परा तोड़कर प्रेम और विवाह एक सांस्कृतिक-राजनीतिक कार्यकर्ता से. 1980 से सांस्कृतिक-राजनीतिक सक्रियता. 1986 से कविताएँ लिखना और वैचारिक लेखन प्रारम्भ.
नवभारत टाइम्स, स्वतंत्र भारत और दिनमान टाइम्स आदि के साथ कुछ वर्षों तक पत्रकारिता भी. अंग्रेज़ी, जर्मन, स्पेनिश और नेपाली में कविताएँ अनूदित. बंगला, मराठी, पंजाबी, गुजराती, मैथिल में भी अनेक रचनाएँ अनूदित-प्रकाशित.कई विश्वविद्यालयों में कात्यायनी की कविताओं पर करीब दो दर्जन शोध प्रबंध.
किताबें :
चेहरों पर आँच, सात भाइयों के बीच चम्पा, इस पौरुषपूर्ण समय में, जादू नहीं कविता, राख-अँधेरे की बारिश में, फुटपाथ पर कुर्सी (कविता संकलन)
दुर्ग द्वार पर दस्तक, षड्यन्त्ररत मृतात्माओं के बीच, कुछ जीवन्त कुछ ज्वलन्त, प्रेम, परम्परा और विद्रोह (स्त्री-प्रश्न, समाज, संस्कृति और साहित्य पर केन्द्रित निबन्धों के संकलन).