Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

विष्णु खरे : उड़ता पंजाब

$
0
0





फ़िल्म ‘उड़ता पंजाब’ सत्ता-सेंसर से आज़ाद होकर लोक-वृत्त में है. नशा, कला, नियंत्रण, अस्मिता, न्याय, प्रचारऔर व्यवसायकी सीढियों से चढ़ता हुआ यह सफलता के कौन से आसमान पर पहुचेगा? और कितना ‘सार्थक’ है ? यह बहसतलब है.

विष्णु खरे के प्रत्येक दूसरे इतवार के इस रोचक और वैचारिक स्तम्भ में आप इस फ़िल्म से जुड़े तमाम दीगर पहलुओं को जानेंगे.

      



मनोरंजन की ड्रग पर हाइ पंजाबी उड़ान                                    
विष्णु खरे


ह जैसी-जितनी भी बची है,करोड़ों दर्शकों को भारतीय न्यायपालिका का अहसानमंद होना चाहिए कि उसके प्रबुद्ध हस्तक्षेप से वह ‘उड़ता पंजाब’देख पा रहे हैं,भले ही उसे ‘बालिग़’ का सर्टिफ़िकेट मिला हो,जो हमारे छोटे शहरों में कोई मसला ही नहीं, जहाँ वात्सल्यमुग्ध  खाते-पीते माँ-बाप उसे अपने स्कूली जिगर के टुकड़ों को अपने साथ खुल्लमखुल्ला दिखा रहे हों. सब जानते हैं कि इस फ़िल्म की फ़्लाइट को अबॉर्ट करवाने के लिए केंद्रऔर राज्य-सरकारों, सूचना और प्रसारण मंत्रालयऔर सेंसर बोर्ड ने क्या नहीं किया. असहिष्णुता और आसन्न फ़ाशिज़्म का यह अब तक का सबसे बेशर्म और ख़तरनाक उदाहरण है. पहलाज निहलानीऔर उसके बोर्ड में ज़रा सी भी ग़ैरत होती तो उन्होंने अब तक इस्तीफ़ा दे दिया होता क्योंकि अदालत के फ़ैसले की सीधी लात उन्हें  ही पड़ी है. यदि निदेशक अभिषेक चौबेऔर फिल्म के प्रोड्यूसरान पंजाब में होते तो उनपर कई तरह की देशी-विदेशी राजनीतिक-ग़ैर-राजनीतिक माफ़ियाओं द्वारा वैसे ही जानलेवा हमले हो सकते थे – अब भी हो सकते हैं – जैसे ‘उड़ता पंजाब’में प्रमुख पात्रों पर होते दिखाए गए हैं. फ़िल्म का धंधा अब सिर्फ़ मंदी का नहीं, मौत का सौदा भी बन सकता है.

(अनुराग कश्यप)
विभाजन के कुछ वर्षों के बाद से ही अपनी व्यापक स्तर पर सही-या-ग़लत आक्रामक और नीति-विहीन समझी गई आत्म-छवि, गतिशीलता और उन्नत्योन्माद के कारण हिन्दू-सिख पंजाबीभाषी बिरादरी शेष भारत पर ‘पंजाबियत’, ’सिक्खियत’, ’मार्शियल रेस’, ’पटियाला पैग’, ’सवा लाख से एक लड़ाऊँ’, ’कार, कोठी, कुड़ी ते कलब’, ’बल्ले बल्ले’, ’मक्के दी रोटी सरसों दा साग’, ठुमकती शोचनीय महिलाओं वाली मयआलूद बारात, बहन की गाली  आदि नाज़िल करती रही है. फ़िल्म और सॉंग-एंड-डान्स इंडस्ट्री के साथ-साथ वह अखिल-भारतीय स्तर पर हर बिज़नस पर हावी है. हिन्दू और सिख साम्प्रदायिकताएँ भी उसका हिस्सा हैं. भारतीय डायस्पोरा पर उसका ही वर्चस्व है. वह खुद को हरित क्रांति का अग्रदूत और हिंदुस्तान का नानबाई समझता है.

देश के अधिकांश ढाबे, ट्रक और ट्रक-ड्राइवर उसी के हैं. वह वर्तमान भारतीय पूँजीवाद की रीढ़ है. यूपी-बिहारी मेहनतकशों के आव्रजन के कारण उसमें एक अतिरिक्त नस्लवाद और आंतरिक उपनिवेशवाद भी आ गया है. ऐसा नहीं है कि पंजाबीभाषियों का महती राष्ट्रीय योगदान स्वीकार नहीं किया जा रहा है, लोग उनसे प्यार और दोस्ती भी ख़ूब करते हैं, बीसियों पंजाबीभाषी पिछले छः दशकों से मेरे भी मित्र हैं, सामाजिक स्तर पर रोटी-बेटी भी हो रही है, भगत सिंहऔर जलियानवालाके शहीद भी पंजाबी ही थे लेकिन कुल मिलाकर ‘पंजाबी कल्चर’, कुछ लोगों का तो दावा है कि ऐसी कोई शय है ही नहीं, पसंद नहीं किया जाता, उससे परहेज़  ही किया जाता है, जिसका एक मज़ाहिया लेकिन  मानीख़ेज़ उदाहरण यह है कि खुद पंजाबीभाषी मकान मालिक उन्हें यथासंभव किराएदार नहीं रखना चाहते.

‘उड़ता पंजाब’यही करती है जो भारत की कोई भी क़ौम अपने बारे में सुनना-पढ़ना-देखना नहीं चाहती – कि उसके जन्नत की हक़ीक़त क्या है. वह इस तथ्य को रेखांकित करती है कि आज पंजाब के क़रीब 75 फ़ीसद घरों में कोई-न-कोई एक आदमी ग़ैर-शराबी नशा करता है. शराब की समस्या अलग है – पंजाब में हर साल 30 करोड़ बोतल शराब पी जाती है. नशाखोरों में अधिकतर नौजवान हैं जिन्हें पंजाबी में लाड़ से ‘मुंडे’ (बच्चे,छोकरे,लड़के) कहा जाता है. संसार के हर देश में नशा करना अमीरी, बालिगियत, धार्मिक और सामाजिक क़ानूनों से मुक्ति और बग़ावत, मर्दानगी, मौज-मस्ती, हर तरह के फ़्री सैक्स आदि का पासपोर्ट  माना जाता है, पंजाब में तो और ज्यादा. 

पंजाबी युवक खोखले और नशे के गुलाम हुए जा रहे हैं. वहाँ कबूतरबाज़ी होती है सो अलग.ड्रग्स के लिए पाकिस्तान को ही पूरी तरह ज़िम्मेदार माना जा रहा है. यदि इसमें आंशिक सच भी है तो पंजाब को, और लम्बे अरसे में शेष भारत को, तबाह करने के लिए पाकिस्तान को तालिबान, दैश, बोको हराम आदि अन्य ‘’इस्लामी’’ आतंकवादियों की कोई दरकार नहीं है – चाँद-छाप शीशियाँ काफी हैं.पाकिस्तान सहित सभी को मालूम है कि भारतीय ड्रग्स और नार्कोटिक्स विभाग, पुलिस, प्रशासन, शायद कुछ अभागे सैनिक अधिकारी भी, और हर रंग के सारे नेता कितने भ्रष्ट हैं.

कहानी के पाँच प्रमुख पात्र हैं – ड्रग्स की वजह से बर्बाद एक अत्यंत सफल पूर्व मोना-पंजाबी पॉप स्टार, एक कुँवारी बिहारी मजदूरिन लड़की जो पाक-भारत ड्रग-पैड्लिंग माफ़िया की शिकार बन जाती है, एक पंजाबी-सिख असिस्टेंट पुलिस सब-इंस्पेक्टर, जो ख़ुद कुछ करप्ट है, जिसका सगा कॉलेजी छोटा भाई उसके अनजाने ही भयानक, टर्मिनल ड्रग्ची बन चुका है, और एक कुँवारी हिन्दू-पंजाबी लेडी ड्रग-डॉक्टरजो एक एंटी-एडिक्शन और रिहैबिलिटेशन कार्यक्रम चला रही है. जब सरदार ए.एस.आइ.पर  खुलता है कि उसका भाई लगभग पूरी तरह ड्रग्स के नरक में डूब चुका है तब उसका ज़मीर जागता है और वह लेडी डॉक्टर के साथ मिलकर ख़ुफ़िया तरीक़े से एक मरणान्तक ड्रग-विरोधी अभियान पर निकलता है. उधर वह पॉप-स्टार और बिहारिन भी संयोग से मिलकर अपनी ख़तरनाक़ निजात तलाशते हैं. इन पाँचों को अपनी-अपनी मुक्ति मिलती है लेकिन कई लाशों के बिछने और समाज, राजनीति और कुनबे से समूचे मोहभंग के बाद.

‘उड़ता पंजाब’में कई छोटे-बड़े नुक्स निकले जा सकते हैं लेकिन अपनी पूर्णता में वह बहुत प्रभावशाली है. कुल मिलाकर वह अत्यंत यथार्थवादी है और उसमें कोई उबाऊ पल नहीं है. उसका कोई भी तकनीकी पहलू कमज़ोर या लापरवाह नहीं कहा जा सकता. संगीत सशक्त और लोकप्रिय है. पंजाबी के प्रसिद्ध कवि दि. शिवकुमार बटालवीके गीतों का प्रयोग मौजूँ और कल्पनाशील है, दूसरे गीत भी बुरे नहीं हैं. यह फिल्म व्यावसायिक दृष्टि से सफल होगी लेकिन उस तरह की नहीं है कि ड्रग-समस्या के सारे बड़े पहलुओं को छू सके. पाकिस्तान और बड़े अफसर, नेता और राजनीतिक दलों से वह दूर ही रहती है.पंजाब के समाज को वह लगभग बिलकुल नहीं छूती, अंत में वह एक कसी हुई, दिलचस्प  जुर्म-और-पीछा फिल्म बन कर रह जाती है.

पंजाब सरीखे समृद्ध, ’’फ़ौजी’’ सूबे में ड्रग्स इतनी कैसे फैलीं ? क्या यह परंपरा उच्च-वर्ग में अफ़ीम के सैकड़ों वर्ष पुराने चलन से है ? पंजाबी में अफ़ीमची के लिए ‘पोस्ती’ शब्द पीढ़ियों से चला आता है – एक फिल्म भी इस नाम से बन चुकी है. क्या इसका कोई मनोवैज्ञानिक सिलसिला खालिस्तान-आन्दोलन, भिंडराँवाले, ऑपरेशन ब्लू-स्टार, इंदिरा हत्याकांड,1984 के सिख-हत्याकाण्ड, काली पगड़ी, उसके बाद से देश में सिख कौम के थोड़ा अपदस्थ होने आदि से नहीं है ? मुझे लगा कि ‘उड़ता पंजाब’ गुलज़ार-विशाल की फिल्म ‘’माचिस’’ का एक एक्सटेंशन भी है. 

एक सवाल यह भी है कि पंजाब में कितने हिन्दू ड्रग ले रहे है, कितने मोने और कितने सिख? डायस्पोरा में कितने मुंडे सुड़क (‘स्नोर्ट’ कर) रहे हैं ? इस पर ‘’पश्चिमी प्रभाव’’ कितना है ? अरबों-खरबों रुपयों पर बैठे हुए गुरद्वारे और सिख धार्मिक संस्थाएँ इस क़ौमी ख़ुदकुशी को लेकर चुप क्यों हैं ? भारत सरकारों को यह सर्वनाश क्यों नहीं दिखता – मनमोहन ‘‘मुंशी म्याऊँ-म्याऊँ’’ सिंह को क्यों नहीं दिखा ?

‘उड़ता पंजाब’ ने इन सवालों को न सोचा है, न छेड़ा है, न यह एजेंडा उसके बस का था. एक गंभीर समस्या उठाने के बहाने, या उसके सहारे, वह एक कामयाब फ़ास्ट कमर्शियल क्राइम एंड पनिशमेंट फिल्मबनना चाहती थी, जो वह बनी. यूँ पनिशमेंट भी उसमें कुछ कम ही रहा. आज ड्रग्स की अंडरग्राउंड दुनिया इतनी ग्लोबल, हैबतनाक़, जटिल और मौत को सुनिश्चित दावत देने वाली है, एक समान्तर फाशिस्ट विश्व-सरकार है, कि वह व्यक्तियों को क्या, कई राष्ट्रीय सरकारों को ज़मींदोज़ कर सकती है. जब भारत में ‘उड़ता पंजाब’ को लेकर इतने न्यस्त स्वार्थ आनन-फ़ानन एकजुट हो गए तो दक्षिण अमेरिकी ड्रग कार्टेल्स और माफ़िआओं को लेकर, जिनके दूर के तार बेशक़ गाँवों से लेकर महानगरों तक पाक-भारत ड्रग-तिजारत से जुड़े ही होंगे, फ़िल्म बनाना आत्मदाह से क्या कम होगा ?


‘’हैदर’’के बाद शाहिद कपूरने फिर साबित कर दिया है कि उसने सभी प्रतिद्वन्दियों को पछाड़ दिया है. ’’मशाल’’में जो काम दिलीप कुमारने सड़क पर गुहार लगा कर किया था, शाहिद उसे नहर के किनारे दया की भीख माँग कर उतनी ही शिद्दत से करता है. ए. एस. आइ. के किरदार में दिलजीत दोसाँझ ने, जिसका भविष्य उज्ज्वल दिख रहा है, कोई भी क़दम ग़लत नहीं उठाया है. करीना को जैसी-जितनी भूमिका मिली है उसने अपनी पूरी क़ूवत से निभाई है और उसका विडंबनात्मक त्याग मर्मस्पर्शी है. झगड़े की जड़ छोटे भाई बल्ली के रोल  में प्रभज्योत सिंहआखिर तक परेशान करता है. यह फिल्म सतीश कौशिककी दूसरी ईनिंग्स शुरू कर सकती है.  फिल्म में रह-रहकर अप्रत्याशित रूप से परिहास आता है, Keystone Cops की एक पंजाबी-हरियाणवी जोड़ी भी हैऔर यह sense of humour इस तरह की फिल्मों में एक नई संभावना पैदा करता है, बशर्ते कि वह भात में कंकर न बने. 

बेशक़ बिहारिन की भूमिका में आलिया भट्टपूरी फ़िल्म को पोटली बना अपने साथ लेकर भाग जाती है, लेकिन मुझे लगता है कि ‘उड़ता पंजाब’ की कामयाबी में शायद सबसे बड़ा रोल युवा दर्शक-दर्शिकाओं  को लगातार किक देने वाली उसकी स्वाभाविक पंजाबी-उच्चारण वाली बिनधास्त गालियों का है जो सिनेमा-हॉल के अँधेरे में एक सैक्सुअल ड्रग का भी तो काम करती होंगी भैन्चोद. 
 _____________________________
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)


विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>