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सहजि सहजि गुन रमैं : अदनान कफ़ील दरवेश

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फोटो : Michael Kenna 

कविता मनुष्यता की पुकार है.
जब कहीं चोट लगती है, दिल दुखता है, हताशा घेरती है मनुष्य कविता के पास जाता है. उसे पुकारता है. उसे गाता है, सुनता है. कविताओं ने सभ्यताएं रची हैं.

हर  कवि उम्मीद है इस धरती के लिए. एक कोंपल जिसमें  कि एक पूरा संसार है.

अदनान कफ़ील दरवेश की ये युवा कविताएँ सदी से मुठभेड़ करती कविताएँ हैं.
कार्पोरेट वैश्वीकरण से यह जो नव साम्राज्य पैदा हुआ है और इसके साथ चरमपंथ और आतंक का जो यह समझौता है उस तक कवि पहुंचता है.

सदियों से साथ-साथ रहते तमाम धर्मों के बीच जो आत्मीय पुल हैं इस देश में वे उसकी स्मृतियों में कसकते हैं.

ये कविताएँ बताती है कि वह प्रेम में है. और इससे सुन्दर बात इस धरती के लिए और क्या हो सकती है.

ख़ास आपके लिए अदनान की ये कविताएँ.







अदनान कफ़ील दरवेश की कविताएँ                          



मेरी दुनिया के तमाम बच्चे

वो जमा होंगे एक दिन  और खेलेंगे एक साथ मिलकर
वो साफ़-सुथरी दीवारों पर 
पेंसिल की नोक रगड़ेंगे 
वो कुत्तों से बतियाएँगे 
और बकरियों से 
और हरे टिड्डों से 
और चीटियों से भी..

वो दौड़ेंगे बेतहाशा 
हवा और धूप की मुसलसल निगरानी में 
और धरती धीरे-धीरे 
और फैलती चली जाएगी 
उनके पैरों के पास..

देखना !                 
वो तुम्हारी टैंकों में बालू भर देंगे 
और तुम्हारी बंदूकों को 
मिट्टी में गहरा दबा देंगे 
वो सड़कों पर गड्ढे खोदेंगे और पानी भर देंगे 
और पानियों में छपा-छप लोटेंगे...

वो प्यार करेंगे एक दिन उन सबसे 
जिससे तुमने उन्हें नफ़रत करना सिखाया है 
वो तुम्हारी दीवारों में 
छेद कर देंगे एक दिन 
और आर-पार देखने की कोशिश करेंगे
वो सहसा चीखेंगे !
और कहेंगे- 
देखो ! उस पार भी मौसम हमारे यहाँ जैसा ही है 
वो हवा और धूप को अपने गालों के गिर्द 
महसूस करना चाहेंगे
और तुम उस दिन उन्हें नहीं रोक पाओगे !

एक दिन तुम्हारे महफ़ूज़ घरों से बच्चे बाहर निकल आयेंगे 
और पेड़ों पे घोंसले बनाएँगे 
उन्हें गिलहरियाँ काफ़ी पसंद हैं 
वो उनके साथ बड़ा होना चाहेंगे..

तुम देखोगे जब वो हर चीज़ उलट-पुलट देंगे 
उसे और सुन्दर बनाने के लिए..

एक दिन मेरी दुनिया के तमाम बच्चे 
चीटियों, कीटों
नदियों, पहाड़ों, समुद्रों 
और तमाम वनस्पतियों के साथ मिलकर धावा बोलेंगे 
और तुम्हारी बनाई हर चीज़ को 
खिलौना बना देंगे..

(रचनाकाल: 2016)






शैतान

अब वो काले कपड़े नहीं पहनता
क्यूंकि तांडव का कोई ख़ास रंग नहीं होता
अब वो आँखों में सुरमा भी नहीं लगाता
अब वो हवा में लहराता हुआ भी नहीं आता
ना ही अब उसकी आँखें सुर्ख और डरावनी दिखतीं हैं
वो अब पहले की तरह चीख़-चीख़कर भी नहीं हँसता
ना ही उसके लम्बे बिखरे बाल होते हैं अब.

क्यूंकि इस दौर का शैतान
इंसान की खाल में खुलेआम घूमता है
वो रहता है हमारे जैसे घरों में
खाता है हमारे जैसे भोजन
घूमता है टहलता है
ठीक हमारी ही तरह सड़कों पर.

इस दौर का शैतान बेहद ख़तरनाक है साथी
वो अपने मंसूबे जल्दी ज़ाहिर नहीं करता
वो दिखाता है एक झूठी दुनिया का ख्वाब
रिझाता है अपनी मीठी-चुपड़ी बातों से
इस दौर के शैतान ने अपने पारंपरिक प्रतीकों और चिन्हों की जगह
इन्सान की तरह मुस्कुराना सीख लिया

जी हाँ श्रीमान !
वो मुस्कुरा रहा है गली के नुक्कड़ पे
सब्ज़ी मंडी में
रेलवे स्टेशनों और एअरपोर्टों पे
वो मुस्कुरा रहा है स्कूलों में
वो मुस्कुरा रहा है ऊँची कुर्सियों पर
यहाँ तक कि वो मुस्कुरा रहा है हमारे घरों में
और हमारे बहुत भीतर भी....
(रचनाकाल: 2014)





अपने गाँव को याद करते हुए

जब मुल्क की हवाओं में
चौतरफ़ा ज़हर घोला जा रहा है
ठीक उसी बीच मेरे गाँव में
अनगिनत ग़ैर-मुस्लिम माएँ
हर शाम वक़्त-ए-मग़रिब
चली आ रही हैं अपने नौनिहालों के साथ
मस्जिद की सीढ़ियों पर
अपने हाथ में पानी से भरे गिलास और बोतलें थामे
अपने बच्चों को कलेजे से चिमटाए
इमाम की किऱअत पर कान धरे
अरबी आयतों के जादू को
भीतर तक सोखती हुयी
नमाज़ ख़त्म होने का इंतज़ार है उन्हें
के नमाज़ियों का जत्था
बाहिर निकले और
और चंद आयतें पढ़कर
उनके पानी को दम कर दे
और उनके लाडलों-लाडलियों पर
कुछ बुदबुदाकर हाथ फेर दे
कुछ को ज़्यादा भरोसा है
खिचड़ी दाढ़ी वाले इमाम साहब पर
मैं सोचता हूँ बारहा कि ये मुसलमानों का ख़ुदा
इनकी मुरादें क्यूँ पूरी करता आ रहा है सदियों से?
मुझे इनकी आस्था में कम
इनके भरोसे में ज़्यादा यक़ीन है
यही मेरा हिन्दोस्तान है
इसे किस कमबख़्त की नज़र लग गयी .....
(रचनाकाल: 2015,दिल्ली)






हँस मेरी जाँ

हँस मेरी जाँ
कि तेरे हँसने से
गुलाब खिलते हैं
बहार आती है
गुलों में रंग भरते हैं
बादल पगलाते हैं
कोयल कूकती है
मयूर नाचते हैं
दरिया में रवानी आती है
माहताब और उजला होता है
तू हँस
कि मुझे साँस आती है
जिस दिन तूने हँसना छोड़ दिया
ये दुनिया बेरंगी हो जाएगी
और कोई कवि मर जायेगा...
(रचनाकाल: 2013,दिल्ली)





ऐ मेरी दोस्त !

मैंने पहाड़ों से
प्रतीक्षा और समर्पण के मर्म को समझा है
मैं किसी थकाऊ लंबी यात्रा में अभी मशगूल हूँ
मुझमें पहाड़ की ख़ामोशी को भर जाने दो
मुझे मत छेड़ो
मुझे ख़ामोश रहने दो
मुझे इतना चुप रहने दो
कि मैं भी एक दिन
पहाड़ बन सकूँ
लेकिन मेरा वादा है तुमसे
मेरी दोस्त !
मैं लौटूंगा तुम्हारे पास
एक दिन ..
एक दिन मैं उतर आऊंगा
अपनी ही ऊँचाइयों से
पानी की तरह
तुम्हारे समतल में
फ़ैल जाऊँगा एक दिन.
(रचनाकाल: 2015,दिल्ली)






जब मैंने तुमसे प्रेम किया

जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मैंने जाना
कि मेरे आस-पास की दुनिया
कितनी विस्तृत है
मैंने हवा को खिलखिलाते हुए देखा
मैंने फूलों को मुस्कुराते हुए देखा
मैंने पेड़ों को बतियाते हुए सुना
मैंने चींटियों को गुनगुनाते हुए सुना
मैंने पानी को एक लय में बहते देखा
मैंने महसूस किया कि हम जिस दुनिया में रहते हैं
वो कितनी छोटी और सिकुड़ी हुयी है
मैंने देखा कि हमारे आस-पास एक अनोखी दुनिया भी है
जो हमसे लगभग ओझल है
मैंने जाना कि मेरे आस-पास कितना कुछ है
जो सूक्ष्म है किन्तु सघन भी
जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मैंने जाना कि
हमारी दुनिया कितनी निष्ठुर और क्रूर है
जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मुझे महसूस हुआ कि
हमारे आस-पास की दुनिया
कितनी सहज और कितनी सुन्दर है
जब मैंने तुमसे प्रेम किया
तब मैंने जाना कि अभी मैं और फ़ैल सकता हूँ ...
(रचनाकाल: 2015,दिल्ली)





एक पेड़ का दुःख

सब पत्ते विदा हो लेंगे
गिलहरियां भी कहीं और चली जाएँगी
चीटियाँ भी जगह बदल देंगी
और सुग्गे नहीं आएंगे इस तरफ
फिर कभी
न बारिश
न हवा
न धूप
बस घने कुहरे के बीच झूल जाऊँगा मैं
किसी दिन
अपनी ही पीठ में
ख़ंजर की तरह धँसा हुआ
सबकी स्मृतियों में !



अदनान कफ़ील दरवेश
(30 जुलाई 1994,गड़वार, बलिया, उत्तर प्रदेश)
कंप्यूटर साइंस आनर्स (स्नातक, दिल्ली विश्वविद्यालय

ईमेल: thisadnan@gmail.com


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