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सहजि सहजि गुन रमैं : हेमंत देवलेकर (२)

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हेमंत कवि हैं और समर्थ रंगकर्मी भी.
वे उन कुछ लोगों में हैं जो पूर्णकालिक कला होते हैं, यह जीवट और ज़ोखिम उन्हें लगातार लिख रहा है.
पहले भी आप उन्हें समालोचन में पढ़ चुके हैं.

इन छह कविताओं में उनकी कविता की ताकत फिर एक बार आपके सामने है.
संगत पर मंगलेश डबराल की एक कविता है – ‘संगतकार’ जिसमें उन्होंने संगतकार को मुख्य गायक का ‘छोटा भाई’ कहा है. हेमंत की इस कविता में ‘संगत करती स्त्री’
 अदृश्य ही हो जाती है.   

‘दशहरी आम’ की ऐयारी दिल को निचोड़ लेती है. प्रेम पर भी कुछ अच्छी पंक्तियाँ कही गयी हैं.



हेमंत देवलेकर की कविताएँ                       



तानपूरे पर संगत करती स्त्री


पहले - पहल
उसी को देखा गया
साँझ में चमके
इकलौते शुक्र तारे की तरह

उसी ने सबसे पहले
निशब्द और नीरव अन्तरिक्ष में
स्वर भरे और अपने कंपनों से
एक मृत - सी जड़ता तोड़ी
उसे तरल और उर्वर बनाया
ताकि बोया जा सके - जीवन

वह अपनी गोद में
एक पेड़ को उल्टा लिए बैठी है
इस तरह उसने एक आसमान बिछाया है
उस्ताद के लिए

वह हथकरघे पर
चार सूत का जादुई कालीन बुनती है
जिस पर बैठ "राग"उड़ान भरता है

हर राग तानपूरे के तहखाने में रहता है
वह उँगलियों से उसे जगाती है
नहलाती है, बाल संवारती और
काजल आँजती है, खिलाती है

उसने हमेशा नेपथ्य में रहना ही किया मंजूर
अपनी रचना को मंच पर
फलता - फूलता देख
वह सिर्फ हौले-हौले मुसकुराती है

उसे न कभी दुखी देखा ,
न कभी शिकायत करते
वह इतनी शांत और सहनशील
कि जैसे पृथ्वी का ही कोई बिम्ब है

अपने अस्तित्व की फ़िक्र से बेख़बर
उसने एक ज़ोखिम ही चुना है
कि उसे दर्शकों के देखते-देखते
अदृश्य हो जाना है.



परागण

तितली के होंठों में दबे हैं
दुनिया के सबसे सुंदर प्रेम-पत्र

तितली एक उड़ता हुआ फूल है

हंसी किसी फूल की
उड़कर जाती है
एक उदास फूल के पास

उड़कर जाता है मन एक फूल का
एक फूल का स्वप्न
उतरता है किसी फूल के स्वप्न में


दो फूलों के बीच का समय
कल्पना है एक नए संसार की

तितली की तरह
सिरजने की उदात्तता भी होना चाहिए
एक संवदिया में.





दस्ताने

मैं गरम कपड़ों के बाज़ार मे था

मन हुआ
कि स्त्री के लिए
हाथ के ऊनी दस्ताने ले लूँ

पर ध्यान आया
कि दस्ताने पहनने की फुर्सत
उसे है कहाँ

गृहस्थी के अथाह जल मे
डूबे उसके हाथ
हर वक़्त गीले रहते हैं

तो क्या गरम दस्ताने
स्त्री के हाथों के लिए बने ही नहीं...?

"ये सवाल हमसे क्यों पूछते हो..."
तमाम गर्म कपड़े
ये कहते , मुझ पर ही गर्म हो रहे थे.




प्रायश्चित
 
इस दुनिया में
आने - जाने के लिए
अगर एक ही रास्ता होता

और नज़र चुराकर
बच निकलने के हज़ार रास्ते
हम निकाल नहीं पाते

तो वही एकमात्र रास्ता
हमारा प्रायश्चित होता
और ज़िंदगी में लौटने का
नैतिक साहस भी.




प्रेम की अनिवार्यता

बहुत असंभव-से आविष्कार किए प्रेम ने
और अंततः हमें मनुष्य बनाया
लेकिन अस्वीकार की गहरी पीड़ा
उस प्रेम के हर उपकार का
ध्वंस करने पर तुली
दिया जिसने, सब कुछ न्योछावर कर देने का भोलापन
तर्क न करने की सहजता
और रोने की मानवीय उपलब्धि

प्रेम ने हमारी ऊबड़-खाबड़, जाहिल-सी
भाषा को कविता की कला सिखाई
और ज़िंदगी के घोर कोलाहल में
एकांत की दुआ मांगना
संभव नहीं था प्रेम के बिना

सुंदरता का अर्थ समझना प्रेम होना ही सबसे बड़ी सफलता है
कोई असफल कैसे हो सकता है प्रेम में...?




दशहरी आम


लगभग धड़ी भर आम आए थे
उस दिन घर में
मालकिन ने कहा था उससे
कि जल्दी-जल्दी हाथ चला
रस ही निकालती रहेगी
तो पूड़ियाँ कब तलेगी
भजिए भी निकालने हैं अभी
और सलाद काटकर सजाना है तश्तरी
वह दशहरी आमों का रस निकालती रही :
अस्सी रुपए किलो तो होंगे इस वक़्त

"माँ - माँ !! हमें भी खिलाओ न रस
देखें तो कैसे होते हैं दशहरी आम
जब नए-नए आते हैं मौसम में
हम भी खाएँगे आम
हमें भी दो ... रस"

उसे लगा रस की पतीली के इर्द-गिर्द
बच्चे हड़कंप मचा रहे हैं
फिर उसने कनखियो से घूरा
दायें-बाएँ
और उन्हें चुप होने का किया इशारा
फिर कोई जान न पाया उसके हाथों की ऐय्यारी को
मालकिन भी नहीं

उसके हाथ आमों पर
अब उतने सख्त नहीं थे
वह छिलकों और गुठलियों में
बचाती जा रही थी थोड़ा-थोड़ा रस

एक थैली में समेट लिए उसने
सारे छिलके और गुठलियाँ
- "
जाते-जाते गाय को खिला दूँगी "
मालकिन से कहते हुए
वह सीढ़ियाँ उतर गई .

 _______________________

हेमंत देवलेकर
11 जुलाई 1972
रंगकर्म करते हुए नाटकों का लेखन भी.
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं का प्रकाशन
हमारी उम्र का कपास धीरे-धीरे लोहे में बदल रहा है(कविता संग्रह)
उद्भावना से (2012) प्रकाशित.
 
17, सौभाग्य, राजेन्द्र नगर, शास्त्री नगर के पास,
नीलगंगा, उज्जैन पिनकोड- 456010 (म.प्र.)

मोबाईल - 090398-05326

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