(आभार सहित फोटो द्वारा youth ki awaaz)
उत्पल बैनर्जी ने बांग्ला भाषा से हिन्दी में स्तरीय अनुवाद किये हैं, वे हिंदी के समर्थ कवि भी हैं. उनका पहला संग्रह ‘लोहा बहुत उदास है’ सन 2000 में प्रकाशित हुआ था.
उत्पल की इन सात कविताओं में कविता तो है ही कारपोरेट वैश्वीकरण से दम तोड़ती इक्कीसवीं शताब्दी की पहले दशक की भारत जैसे देशों की सामाजिक मार्मिकता है. बांधों में डूबती सभ्यताएं हैं, आपदा की तरह फसलों को घेरे किसनों की आत्महत्याएं हैं. निर्वासित होती कौमें हैं. विकल्पहीनता की हिंसा है.
गरज कि कवि अपनी चेतना और चिंता का दायरा वैश्विक रखता है पर वह उन्हें रचता अपनी जमीन पर है. उनमें सौन्दर्य की एक मासूम सी पहचान है जो अंतत: हमें बचायेगी.
उत्पल बैनर्जी की कविताएँ
ll निर्वासन ll
अपनी ही आग में झुलसतीहै कविता
अपने ही आँसुओं मेंडूबते हैं शब्द.
जिन दोस्तों ने
साथ जीने-मरने कीक़समें खाई थीं
एक दिन वे ही होजाते हैं लापता
और फिर कभी नहींलौटते,
धीरे-धीरे धूसर औरअपाठ्य हो जाती हैं
उनकी अनगढ़ कविताएँऔर दुःख,
उनके चेहरे भी ठीक-ठीकयाद नहीं रहते.
अँधेरा बढ़ता ही जाताहै
स्याह पड़ते जातेहैं उजाले के मानक,
जगर-मगर पृथ्वी केठीक पीछे
भूख की काली परछाईअपने थके पंख फड़फड़ाती है,
ताउम्र हौसलों कीबात करने वाले
एक दिन आकंठ डूबेमिलते हैं समझौतों के दलदल में,
पुराने पलस्तर कीमानिन्द भरभराकर ढह जाता है भरोसा
चालाक कवि अकेलेमें मुट्ठियाँ लहराते हैं.
प्रतीक्षा के अवसादमें डूबा कोई प्राचीन राग
एक दिन चुपके सेबिला जाता है विस्मृति की गहराई में,
उपेक्षित लहूलुहानशब्द शब्दकोशों की बंद कोठरियों में
ले लेते हैं समाधि,
शताब्दियों पुरानीसभ्यता को अपने आग़ोश में लेकर
मर जाता है बाँध,
जीवन और आग के उजलेबिम्ब रह-रह कर दम तोड़ देते हैं.
धीरे-धीरे मिटतीजाती हैं मंगल-ध्वनियाँ
पवित्रता की ओट सेउठती है झुलसी हुई देहों की गन्ध,
नापाक इरादे शीर्षपर जा बैठते हैं,
मीठे ज़हर की तरहफैलाता जाता है बाज़ार
और हुनर को सफ़े सेबाहर कर देता है,
दलाल पथ में बदलतीजाती हैं गलियाँ
सपनों में कलदारखनकते हैं,
अपने ही घर में अपनानिर्वासन देखती हैं किसान-आँखें
उनकी आत्महत्याएँकहीं भी दर्ज़ नहीं होतीं.
अकेलापन समय की पहचानबनता जाता है
दुत्कार दी गई किंवदंतियाँराजपथ पर लगाती हैं गुहार
वंचना से धकिया देनेमें खुलते जाते हैं उन्नति के रास्ते
रात में खिन्न मनसे बड़बड़ाती हैं कविताएँ
निःसंग रात करवटबदल कर सो जाती है.
ll हममें बहुत कुछ ll
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था .....
वन्यपथ पर ठिठक कर
अचानक तुम कह सकतीथीं
यह गन्ध वनचम्पाकी है
और वह दूधमोगरा की,
ऐसा कहते तुम्हारीआवाज़ में उतर आती थी
वासन्ती आग में लिपटी
मौलसिरी की मीठीमादकता,
सागर की कोख मेंपलते शैवाल
और गहरे उल्लास मेंकसमसाते
संतरों का सौम्यउत्ताप
तुम्हें बाढ़ मेंडूबे गाँवों के अंधकार में खिले
लालटेन-फूलों कीयाद दिलाता था
जिनमें कभी हार नहींमानने वाले हौसलों की इबारत
चमक रही होती थी.
मुझे फूल और चिड़ियोंके नाम याद नहीं रहते थे
और न ही उनकी पहचान
लेकिन मैं पहचानताथा रंगों की चालाकियाँ
खंजड़ी की ओट मेंतलवार पर दी जा रही धार की
महीन और निर्मम आवाज़मुझे सुनाई दे जाती थी
रहस्यमय मुस्कानोंके पीछे उठतीं
आग की ऊँची लपटोंमें झुलस उठता था
मेरा चौकन्नापन
और हलकान होती सम्वेदनाका सम्भावित शव
अगोचर में सजता दिखताथा मूक चिता पर.
तुम्हें पसन्द थीचैती और भटियाली
मुझे नज़रुल के अग्नि-गीत
तुम्हें खींचती थीमधुबनी की छवि-कविता
मुझे डाली* का विक्षोभ
रात की देह पर बिखरेहिमशीतल नक्षत्रों की नीलिमा
चमक उठती थी तुम्हारीआँखों के निर्जन में
जहाँ धरती नई साड़ीपहन रही होती थी
और मैं कन्दराओंमें छिपे दुश्मनों की आहटों का
अनुमान किया करताथा.
हममें बहुत कुछ एक-सा
और अलग था .....
एक थी हमारी धड़कनें
सपनों के इंद्रधनुषका सबसे उजला रंग ..... एक था.
अकसर एक-सी परछाइयाँथीं मौत की
घुटनों और कंधोंमें धँसी गोलियों के निशान एक-से थे
एक-से आँसू, एक-सीनिरन्तरता थी
भूख और प्यास की,
जिन मुद्दों पर हमनेचुना था यह जीवन
उनमें आज भी कोईदो-राय नहीं थी.
(*डाली - विश्वप्रसिद्धचित्रकार सल्वाडोर डाली)
ll घर ll
मैं अपनी कविता मेंलिखता हूँ ‘घर’
और मुझे अपना घरयाद ही नहीं आता
याद नहीं आती उसकीमेहराबें
आले और झरोखे
क्या यह बे-दरो-दीवारका घर है
बहुत याद करता हूँतो
टिहरी हरसूद यादआते हैं
याद आती हैं उनकीविवश आँखें
मौत के आतंक से पथराई
हिचकोले खाते छोटे-छोटेघर ..... बच्चों-जैसे,
समूचे आसमान को घेरता
बाज़ नज़र आता है ... रह-रह कर नाखू़न तेज़ करता हुआ
सपनों को रौंदतेटैंक धूल उड़ाते निकल जाते हैं
कहाँ से उठ रही हैयह रुलाई
ये जले हुए घरोंके ठूँठ .... यह कौन-सी जगह है
किनके रक्त से भीगीध्वजा
अपनी बर्बरता मेंलहरा रही है .... बेख़ौफ़
ये बेनाम घर क्याअफ़ग़ानिस्तान हैं
यरुशलम, सोमालिया, क्यूबा
इराक हैं ये घर, चिली कम्बोडिया...
साबरमती में ये किनकेकटे हाथ
उभर आए हैं ....बुला रहे हैं इशारे से
क्या इन्हें भी अपनेघरों की तलाश है
मैं कविता में लिखताहूँ ‘घर’
तो बेघरों का समुद्रउमड़ आता है
बढ़ती चली आती हैंअसंख्य मशालें
क़दमों की धूल मेंखो गए
मॉन्यूमेण्ट, आकाशचूमते दंभ के प्रतीक
बदरंग और बेमक़सददिखाई देते हैं.
जब सूख जाता है आँसुओंका सैलाब
तो पलकों के नीचेकई-कई सैलाब घुमड़ आते हैं
जलती आँखों का तापबेचैन कर रहा है
विस्फोट की तरह सुनाईदे रहे हैं
खुरदुरी आवाज़ों केगीत
मेरा घर क्या इन्हींके आसपास है!
ll जिएँगे इस तरह ll
हमने ऐसा ही चाहाथा
कि हम जिएँगे अपनीतरह से
और कभी नहीं कहेंगे -- मजबूरी थी,
हम रहेंगे गौरैयोंकी तरह अलमस्त
अपने छोटे-से घरको
कभी ईंट-पत्थरोंका नहीं मानेंगे
उसमें हमारे स्पन्दनोंका कोलाहल होगा,
दुःख-सुख इस तरहआया-जाया करेंगे
जैसे पतझर आता है, बारिश आती है
कड़ी धूप में दहकेंगेहम पलाश की तरह
तो कभी प्रेम मेंपगे बह चलेंगे सुदूर नक्षत्रों के उजास में.
हम रहेंगे बीज कीतरह
अपने भीतर रचने काउत्सव लिए
निदाघ में तपेंगे.... ठिठुरेंगे पूस में
अंधड़ हमें उड़ा लेजाएँगे सुदूर अनजानी जगहों पर
जहाँ भी गिरेंगेवहीं उसी मिट्टी की मधुरिमा में खोलेंगे आँखें.
हारें या जीतें -- हम मुक़ाबला करेंगे समय के थपेड़ों का
उम्र की तपिश मेंझुलस जाएगा रंग-रूप
लेकिन नहीं बदलेगाहमारे आँसुओं का स्वाद
नेह का रंग ....वैसी ही उमंग हथेलियों की गर्माहट में
आँखों में चंचल धूपकी मुसकराहट ....
कि मानो कहीं कोईअवसाद नहीं
हाहाकार नहीं, रुदननहीं अधूरी कामनाओं का.
तुम्हें याद होगा
हेमन्त की एक रातप्रतिपदा की चंद्रिमा में
हमने निश्चय कियाथा --
अपनी अंतिम साँसतक इस तरह जिएँगे हम
कि मानो हमारे जीवनमें मृत्यु है ही नहीं.
ll लौटना ll
अभी आता हूँ -- कहकर
हम निकल पड़ते हैंघर से
हालाँकि अपने लौटनेके बारे में
किसी को ठीक-ठीकपता नहीं होता
लेकिन लौट सकेंगेकी उम्मीद लिए
हम निकल ही पड़तेहैं,
अकसर लौटते हुए
अपने और अपनों केलौट आने का
होने लगता है विश्वास,
जैसे -- अभी आतीहूँ कहकर
गई हुई नदी
जंगलों तलहटियोंसे होती हुई
फिर लौट आती है सावनमें,
लेकिन इस तरह हमेशाकहाँ लौट पाते हैं सब!
आने का कहकर गए लोग
हर बार नहीं लौटपाते अपने घर
कितना आसान होताहै उनके लिए
अभी आता हूँ -- कहकर
हमेशा के लिए चलेजाना!
असल में
जाते समय -- अभीआता हूँ ... कहना
उन्हें दिलासा देनाहोता है
जो हर पल इस कश्मकशमें रहते हैं
कि शायद इस बार भीहम लौट आएँगे
कि शायद इस बार हमनहीं लौट पाएँगे.
ll विकल्पहीनता ll
जनता के लिए
धीरे-धीरे एक दिनख़त्म हो जाएँगे सारे विकल्प
सिर्फ़ पूँजी तयकरेगी विकल्पों का रोज़गार
अच्छे इलाज के विकल्पनहीं रहेंगे
सरकारी अस्पताल,
न ही सरकारी बसें -- सुगम यात्राओं के
सबसे ज़्यादा हिकारतकी नज़रों से देखी जाएगी
शिक्षा-व्यवस्था
विश्व बैंक की निर्ममता
नहीं बचने देगी बिजलीऔर पानी के विकल्प
विकल्पहीनता के सतत्अवसाद में डूबे रहते
एक दिन हम इसे हीकहने लगेंगे जीवन
और फिर जब खदेड़ दिएजाएँगे
अपनी ही ज़मीन गाँवऔर जंगलों से
तो फिर शहरों मेंआने
और दर-दर की ठोकरेंखाकर मर जाने के अलावा
कौन-सा विकल्प बचेगा!!
हर ज़िम्मेदारी सेपल्ला झाड़ लेंगी सरकारें
वह कभी नहीं दे पाएगी
सोनागाछियों को जीनेका कोई सही विकल्प!
अभिनेत्रियाँ कहनेलगी हैं --
पर्दे और उसके पीछेबेआबरू होने के अलावा
अब कोई विकल्प नहींबचा,
गाँव में घुसपैठकरते कोला-बर्गर का
हम कौन-सा कारगरविकल्प ला पाए हैं!
उजड़ गई हैं हमारीलोक-कलाएँ
हाट, मेले, तीज, त्योहार
राग, रंग, नेह, व्यवहारसब
बिला गए हैं इस ग्लोबल-अंधड़में,
हर शहर बनना चाहताहै न्यूयॉर्क
अर्थ के इस भयावहतंत्र में
महँगी दवाइयों औरसस्ती शराब का कोई विकल्प
हमारे पास मौजूदनहीं है.
पैरों तले संसद कोकुचलते
ग़ुण्डे और अपराधीसरमायेदारों का
कौन-सा विकल्प ढूँढ़सकी है जनता!!
आज
आज़ादी की आधी सदीबाद
उस मोटी किताब कीओर देखता हूँ
और सोचता हूँ --
इस तथाकथित प्रजातंत्रका
क्या कोई विकल्पहो सकता था
हो सकता है.
ll आखेट ll
अलमारी में बंद किताबें
प्रतीक्षा करती हैंपढ़े जाने की
सुरों में ढलने कीप्रतीक्षा करते हैं गीत
प्रतीक्षा करते हैं -- सुने जाने की
अपने असंख्य क़िस्सोंका रोमांच लिए
जागते रहते हैं उनकेपात्र
जिस तरह दुकानोंमें
बच्चों की प्रतीक्षाकरते हैं खिलौने
किताबें, पढ़ने वालोंकी प्रतीक्षा करती हैं
लेकिन जब उन्हेंनहीं पढ़ा जाता
जब वे उन हाथों तकनहीं पहुँच पातीं
जो उनकी असली जगहहै
तो बेहद उदास होजाती हैं किताबें
घुटन भरे अँधेरेमें हाँफने लगते हैं उनके शब्द
सूखी नदी की तरहआह भरती उनकी साँसें
साफ़ सुनाई देती हैं
उन पर समय की धूल-साझरता रहता है दुःख
धीरे-धीरे मिटनेलगते हैं उनके जीवन के रंग
विवर्ण होते जातेहैं उनके सजीले चेहरे
देह सूखकर धूसर होजाती है
वे बदरंग साड़ियाँपहनी स्त्रियाँ हैं
जो जवानी में हीविधवा हो गई हैं,
वे अकसर कोसती हैंअपनी क़िस्मत को
कि आखि़र उन्हेंक्यों लिखा गया
और इस तरह घुट-घुटकर
मरने के लिए धकेलदिया गया क़ब्र में,
रात के सन्नाटे मेंउनका विलाप
नींद की देहरी परसिर पटकता फ़रियाद करता है,
धीरे-धीरे वे बीमारऔर जर्जर हो जाती हैं
ज़र्द होती जाती हैंआँखें
फेफड़ों को तार-तारकर देती है सीलन
उपेक्षा की दीमकउन्हें कुतर कर खा जाती हैं
दरअसल वे लावारिसलाशें हैं जिन्हें लेने कोई नहीं आता
किताबें
गाँव जंगलों से खदेड़दिए गए लोग हैं
जिनका बाज़ार ने आखेटकर लिया है.
उत्पल बैनर्जी,
जन्म 25 सितंबर, 1967,(भोपाल, मध्यप्रदेश)
मूलतः कवि. अनुवाद में गहरी रुचि.
‘लोहा बहुत उदास है’ शीर्षक से पहला कविता-संग्रह वर्ष 2000 में सार्थक प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित.
वर्ष 2004 में संवाद प्रकाशन मुंबई-मेरठ से अनूदित पुस्तक ‘समकालीन बंगला प्रेम कहानियाँ’, वर्ष 2005 में यहीं से ‘दंतकथा के राजा रानी’ (सुनील गंगोपाध्याय की प्रतिनिधि कहानियाँ), ‘मैंने अभी-अभी सपनों के बीज बोए थे’ (स्व. सुकान्त भट्टाचार्य की श्रेष्ठ कविताएँ) तथा ‘सुकान्त कथा’ (महान कवि सुकान्त भट्टाचार्य की जीवनी) के अनुवाद पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. वर्ष 2007 में भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली से ‘झूमरा बीबी का मेला’ (रमापद चौधुरी की प्रतिनिधि कहानियों का हिन्दी अनुवाद), वर्ष 2008 रे-माधव पब्लिकेशंस, ग़ाज़ियाबाद से बँगला के ख्यात लेखक श्री नृसिंहप्रसाद भादुड़ी की द्रोणाचार्य के जीवनचरित पर आधारित प्रसिद्ध पुस्तक ‘द्रोणाचार्य’ का प्रकाशन. यहीं से वर्ष 2009 में बँगला के प्रख्यात साहित्यकार स्व. सतीनाथ भादुड़ी के उपन्यास ‘चित्रगुप्त की फ़ाइल’ के अनुवाद का पुस्तकाकार रूप में प्रकाशन. वर्ष 2010 में संवाद प्रकाशन से प्रख्यात बँगला कवयित्री नवनीता देवसेन की श्रेष्ठ कविताओं का अनुवाद ‘और एक आकाश’ शीर्षक से पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित. 2012 में नवनीता देवसेन की पुस्तक ‘नवनीता’का हिन्दी में अनुवाद ‘नव-नीता’शीर्षक से साहित्य अकादमी, दिल्ली से प्रकाशित. इस पुस्तक को 1999 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया था.
संगीत तथा रूपंकर कलाओं में गहरी दिलचस्पी. मन्नू भण्डारी की कहानी पर आधारित टेलीफ़िल्म ‘दो कलाकार’ में अभिनय. कई डॉक्यूमेंट्री फ़िल्मों के निर्माण में भिन्न-भिन्न रूपों में सहयोगी. आकाशवाणी तथा दूरदर्शन केंद्रों द्वारा निर्मित वृत्तचित्रों के लिए आलेख लेखन. इंदौर दूरदर्शन केन्द्र के लिए हिन्दी के प्रख्यात रचनाकार श्री विद्यानिवास मिश्र, डॉ. नामवर सिंह, डॉ. प्रभाकर श्रोत्रिय, मंगलेश डबराल, अरुण कमल, विष्णु नागर तथा अन्य साहित्यकारों से साक्षात्कार. प्रगतिशील लेखक संघ तथा ‘इप्टा’, इन्दौर के सदस्य.
नॉर्थ कैरोलाइना स्थित अमेरिकन बायोग्राफ़िकल इंस्टीट्यूट के सलाहकार मण्डल के मानद सदस्य तथा रिसर्च फ़ैलो. बाल-साहित्य के प्रोत्साहन के उद्देश्य से सक्रिय ‘वात्सल्य फ़ाउण्डेशन’ नई दिल्ली की पुरस्कार समिति के निर्णायक मण्डल के भूतपूर्व सदस्य. राउण्ड स्क्वॉयर कांफ्रेंस के अंतर्गत टीचर्स-स्टूडेंट्स इंटरनेशनल एक्सचेंज प्रोग्राम के तहत मई 2009 में इंडियन हाई स्कूल, दुबई में एक माह हिन्दी अध्यापन.
सम्प्रति -
डेली कॉलेज, इन्दौर, मध्यप्रदेश में हिन्दी अध्यापन.
पता - भारती हाउस (सीनियर), डेली कॉलेज कैंपस, इन्दौर - 452 001, मध्यप्रदेश.
मोबाइल फ़ोन - 94259 62072/ ईमेल : banerjeeutpal1@gmail.com
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