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रंग - राग : योगेन्द्र : चित्र का दृश्य : अखिलेश

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पेंटिग : योगेन्द्र



चित्रकार अखिलेश का लेखन उनके चित्रों की तरह सुगठित और संवेदनशील है.
किसी चित्रकार के गद्य की भाषा इतनी शानदार भी हो सकती है ?  ऐसा कभी-कभी देखने को मिलता है.
विषय की बहुस्तरीयता और जटिलता को धैर्य से खोलते हैं, सरलीकरण की गुस्ताखी न उनके चित्र करते हैं न उनकी भाषा.

योगेन्द्र दृश्य चित्र के लिए जाने जाते हैं. दृश्य चित्र क्या है, उसकी बारीकियां क्या हैं?
और योगेन्द्र के दृश्य चित्रों की विशेषताएं क्या हैं ?
यह ख़ास लेख आपके लिए. 





योगेन्द्र : चित्र का दृश्य                                      
अखिलेश
______________

 


योगेन्द्र ये जानते हुए चित्र बनाता है कि वह जानता है कि जो वह बना रहा है वह दृश्य चित्र नहीं है. वो जानता है कि यह जानना जरूरी है कि दृश्यचित्र किसे कहते हैं जिसे जाने बगैर बहुत से कलाकार दृश्यचित्र बनाते रहते है कि वे दृश्यचित्र नहीं बना रहे हैं किन्तु योगेन्द्र नहीं जानता कि वो जानता है कि वो दृश्यचित्र बना रहा बल्कि वो जानता है कि दृश्यचित्र कैसे बनता है और दृश्यचित्र बनाये बगैर दृश्यचित्र के बाहर कैसे रहा जा सकता है जहाँ एक चित्र की रचना होती है. योगेन्द्र यह भी जानता है कि वो यह नहीं जानता कि चित्र की रचना कैसे होती है, वह अनजाने ही एक चित्र की रचना प्रक्रिया में शामिल हो जाता है जिसे बनाने में वो शामिल नहीं रहता. एक माध्यम की तरह वो अपने को बरतता है और जो बन रहा है वह दृश्य चित्र की तरह उभरना शुरू होता है.
योगेन्द्र

योगेन्द्र यह भी जानता है कि जो दृश्यचित्र की तरह उभर रहा है वह दृश्यचित्र नहीं है किन्तु उसके लक्षणों से भरा हुआ है और ऐसा दृश्य पहली बार ही उभर रहा है जो चित्र है और की तरह जाना जायेगा. दृश्य का लोप हो जाना ही उसके चित्र होने के प्रमाण है. योगेन्द्र यह किसी रणनीति की तरह रचता है ऐसा भी नहीं है और यह भी सही नहीं है कि दृश्यचित्र बनाना अहसासे कमतरी का शिकार होना है. दृश्यचित्र बनाना और बनाते रहना योगेन्द्र की फ़ितरत में शामिल नहीं है और योगेन्द्र यह भी नहीं करता कि वो दृश्यचित्र बनाने के बहाने चित्र बनाता हो. यह योगेन्द्र की मजबूरी है जिसे कुशलता से निभाते हुए योगेन्द्र  अपनी क्षमताओं को तौलता रहता है. इसी मज़बूरी में योगेंद्र की सीमायें प्रकट होती हैं कि दृश्यचित्र से उसका नाता दूर का है. वह चित्र बनाता है जो उसकी मज़बूरी है और उस चित्र में यदि दृश्यचित्र के दर्शन होते हैं तब यह दर्शक की सीमा है. लक्षणों से दृश्यचित्र समझ लेना दरअसल चित्र को नहीं देखना है. दर्शक की इस मजबूरी में कला समीक्षक का दुर्भिक्ष छुपा है.

योगेन्द्र के चित्रों में दृश्य-चित्रण न होना ही उन्हें चित्र संसार में अनूठा बनाता है. इन चित्रों में लक्षण, संकेत और कभी-कभी अवकाश भी दृश्यचित्र की ओर आँखों को ले जाते हैं किन्तु इनकी बनक और मौजूदगी उसे भटका देती है योगेन्द्र यह बात जानता है कि दर्शक चित्र और दृश्यचित्र में फ़र्क नहीं कर पाता है किन्तु उसे यह भी पता है कि दर्शक का पहला अनुभव दृश्यचित्र का ही है. योगेन्द्र अपने "आस-पास"को चित्रों में लेने का कोई इरादा भी नहीं रखता किन्तु वो अपने आस-पास से अनजान भी नहीं है. वह चित्र को दृश्यचित्र की तरह नहीं बनाकर उस दृश्यचित्र की मर्यादा सुरक्षित रखता है. उसके चित्र का सत्य उन दृश्यों में नहीं है जो उसके आस-पास बिखरें हैं बल्कि उस अनुभव में जो इस "आस-पास"में रहने से उपज है. जो दूसरा आस-पास है जिसे दृश्यचित्र की तरह बरसों चित्रित भी किया जाता रहा है, वह योगेन्द्र  के चित्रों में एक असंभव दूरी पर ठहरा है. यह दूरी यथार्थवादी नहीं है इसका सम्बन्ध कल्पना से जुड़ा है. यही वो जगह है जहाँ योगेन्द्र के चित्रों में लक्षण प्रकट होते हैं. इस कल्पना प्रधान कल्पनातीत में योगेंद्र अपने देखे हुए को रचे हुए अनुभव में बदलता है. योगेंद्र के चित्र उस न देखे हुए का आभास हैं जिसे देखा हुआ मान लिया गया. जो अंतस कल्पना के किसी छोर में उजागर है  किन्तु यथार्थ में कहीं नहीं है. यह देखने की जरूरत है कि दृश्य चित्र क्या है ? दृश्य चित्रण क्या है ?


आम तौर पर दृश्य चित्रण कला शिक्षा प्राप्त कर रहे विद्यार्थियों के लिए एक विषय भर है जिसमें उन्हें कॉलेज से बाहर जाने को मिलता और आस-पास के गाँव, नदी तालाब आदि समेटे भू -दृश्यों के लुभावने चित्रण करने के मिले मौके को दृश्य-चित्रण माना जाता रहा है. अगर साथ गए शिक्षक समझदार और ज्ञानी है तब विद्यार्थियों को दृश्य-चित्रण के रास्ते चित्र-कला की बारीकियाँ समझने को मिलती हैं जिन्हें वह आगे चलकर एक चित्रकार की तरह अपनी चित्र-चर्या में शामिल कर लेता है. इस दौरानदृश्य चित्रण करते हुए वह रंग-भेद, रंग-निरीक्षण, रंग-सम्बन्ध, धूप-छाँव, अनुपात, परिप्रेक्ष्य, रंग-परिप्रेक्ष्य, (Colour-Perspective) आदि सीखता है. वह जल-रंगों के बारे में पहली बार जान रहा होता है कि यह मुश्किल माध्यम है. इसी के साथ उसे मालूम होता है चित्र में तात्कालिकता का महत्व, आकस्मिकता का अहसास, एकाग्रता का अनुभव और दृश्य की प्रारम्भिकता से अन्त तक की अक्षुष्णता. 
पेंटिग : योगेन्द्र


वह समझता है रेखांकन की क्षणभंगुरता और इशारों का महत्व. उसे पहली बार दृश्य के रंग में बदलने का अनुभव होता है. दृश्य और चित्र का भेद उसके सामने खुलता है. उसे दिखता है दृश्य और चित्र के रंग का फ़र्क़, देखे और किये का फ़र्क़, अनुभव और प्रमाण का फ़र्क़, मस्ती और गम्भीरता का फ़र्क़. यह सब उसके सामने घटित होता है. जो विहंगम है, विशाल है, विराट  है, वह कैसे एक छोटे से कागज़ पर समा रहा है. वह अनजाने ही यह भी जान रहा होता है कि दृश्य-चित्रण पैमाना है जिसमें नापी जा सकती है उसकी कौशलता. दृश्य-चित्रण में दृश्य हमेशा बाहरी है, अनुभव भीतरी है और चित्रण अभ्यास है. वास्तव में वह दृश्य चित्रण के सहारे अपने को जान रहा होता है. वह जान रहा होता है अभ्यास का सुख, और उसे इस बात का अहसास नहीं होता है कि अब वह अभ्यास से अनुभव तक और अनुभव से चित्रण तक की यात्रा में वह बिला जाने वाला है. प्रकृति का प्रभाव उसे प्रभावशाली लगने लगता है. वह देखना सीखने की शुरुआत करता है. वैन गॉगसे लेकर डी जे जोशीतक अनेक चित्रकारों ने प्रकृति चित्रण किया है. प्रकृति के प्रभाव में रहना और उससे निकलना खासा मुश्किल काम है.


दृश्य-चित्रण के अनेक रूप हमारे सामने आये और उन सबसे हम चमत्कृत हुए. हमारे चन्द्रेश सक्सेना सर भी हमें प्रेरित करते रहे और उनके पढ़ाने के ढँग में ही वो सब शामिल था जो एक सुलझे हुए शिक्षक के भीतर होना चाहिए. वे हर छात्र की क्षमताओं और सीमाओं से परिचित रहते और उसी के मुताबिक उतनी ही बात उससे करते. उनके साथ हम लोग भी अनेक बार दृश्य-चित्रण के लिए गए और इन सब बातों को समझा. खुद सक्सेना सर का दृश्य चित्रण नक़ल मात्र नहीं होता बल्कि वो प्रस्थान बिन्दु होता जहाँ से चित्र बनांने का अनुभव शुरू होता. उनका जोर भी इस बात पर नहीं रहता कि जैसा दीख रहा वैसा बनाओ बल्कि वे बतलाते, समझाते कि इन सारे सम्बन्धो को देखो, समझो और सम्भव हो तो चित्रित करो. सत्तर के दशक में अकबर पदमसीने metascape बनाये. उनका कहना था ये दृश्य बाहरी नहीं है बल्कि भीतरी है. ये देखा हुआ नहीं सोचा हुआ दृश्य है.


दृश्य-चित्रण आसान नहीं है. अक्सर दीख रहे दृश्य की नक़ल को दृश्य-चित्रण मान लिया जाता रहा है. इसमें चित्रकार का कौशल इस बात का माना जाता है कि उसने हू-ब-हू चित्र बना दिया. एक चित्रकार दृश्य चित्रण में अपना देखना पाता है. बन्दर की तरह नक़ल करना उसका उद्देश्य नहीं होगा ये शुरूआती समय में ही जान जाता है. वह जानता है आदमी और बन्दर का फ़र्क़.  
आदमी की फ़ितरत सीखे हुए का विस्तार करने की है सीखे हुए को दोहराना बन्दर की फितरत है.यह विस्तार ही चित्रकार का देखना है. एक ही दृश्य का चित्रण दो चित्रकार करें तो उनमें ज़मीन आसमान का फ़र्क़ होगा. 

डी जे जोशीसपाट हरा रंग लगाते तो उसमें गहरी, अथाह जलराशी का अहसास उनके देखने का अंश है जो सहज ही चला आता. 


ये कोई और चित्रकार नहीं कर पाया. इसी तरह वैन गॉगके चित्रों में मौजूद रेखीय परिप्रेक्ष्य उस स्थूल दृश्य में बहती हवा का अहसास भर देता है. इन दृश्य चित्रों को देखे तो हम जान सकते हैं ये दृश्य चित्र बिलकुल नहीं है ये चित्रकार का देखना है जिससे हम मुखातिब हैं. चित्रकार का वैशिष्ट्य रंग लगाने में, रंग बिछाने में, रंग फ़ैलाने में है. रंग को दूसरे रंग में मिलाने में उसकी नज़र बैठी है. यह सब किया-धरा इतना अनूठा और विश्वसनीय लगने लगता कि हम उस पर अविश्वास करने लगते. 

योगेन्द्र इसी जगह अपने चित्र की रचना में दृश्य को बाहर कर उसे चित्र का दृश्य बना देता है. और हम अविश्वास से उसके चित्र से सम्बन्ध बनाते हैं. अचम्भे से उन्हें देखते है. 
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अखिलेश
56akhilesh@gmail.com

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