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परिप्रेक्ष्य : 'क'से कविता का एक साल

















कविता पाठ का ख़ास आयोजन ‘क’ से कविता उतराखंड में अपनी स्थापना की पहली वर्षगाँठ मना रहा है. इस अवसर पर २३ अप्रैल को देहरादून में विशेष समारोह का आयोजन किया जा रहा है.
इस सफर पर प्रतिभा कटियार की टिप्पणी .



 'क' से कविता का सिलसिला                     
प्रतिभा कटियार


बारह महीने...छह ऋतुएं..तीन मौसम...और अनजाने लोगों का बनता कारवां...हंसतीखिलखिलाती दोस्तियों के बनने और निखरने का सिलसिला...और सबको जोड़ती हुई कविताएं. 24 अप्रैल 2016 को देहरादून के पहाड़ों से उतरकर कोई मौसम कविताओं की एक शाम में ढल गया था...उस शाम का नाम पड़ा से कविता...याद है मुझको वो पंक्तियां जिनसे इस शाम का आगाज़ हुआ था...उत्तराखण्ड के कवि स्वर्गीय हरजीत जी की थीं वो लाइनें कि आई चिड़िया तो मैंने यह जानामेरे कमरे में आसमान भी था...

जब कविता नाम की यह चिड़िया देहरादून की इस बैठक में चहचहाई थी, तब कहां पता था कि बारह महीनों में यह चहचहाअट एक संगीत बनकर पूरी दुनिया को इस तरह गुंजा देगी. कि इन बारह महीनों के सफर में उत्तराखण्ड में ही उत्तरकाशीश्रीनगरहलद्वानीउधमसिंह नगरटिहरी और खटीमा में से कविता की शामें सजने लगेंगी. क्या पता था कि हिंदुस्तान में हैदराबादइंदौरछिंदवाड़ादिल्ली होते हुए ये बैठकियां रिचमंड (अमेरिका) तक जा सजेंगी.

यह सिलसिला किसी जुनून से शुरू हुआ हो ऐसा भी नहीं. यह सिलसिला एक प्यास से शुरू हुआ थाबहुत प्यार से शुरू हुआ था. प्यास कविताओं की,जिंदगी कीकलाओं की. रोजमर्रा की भागदौड़ से लगातार क्षरित होताउलझाता जीवन जब थकने को था तो कविता की छांह में आराम मिलने लगा. सुकून आने लगा. कोई पूछता कि आखिर क्या खास है इस से कविता में. इतने कार्यक्रम तो हैं साहित्य और कविताओं के एक और क्यों तो हम मुस्कुराते हुएकहते...यहां सुकून हैआराम हैकिसी को कुछ साबित नहीं करना हैबस कविताओं को महसूस करना हैअपनी पसंद की कविता दूसरों से साझा करने का सुख है.

अपनी पसंद की कविता...सादगी....सरलता...यही इस कार्यक्रम के केन्द्रीय तत्व रहे. कितना ही विरोध हुआकुछ लोग नाराज भी हुएकुछ अब तक नाराज हैं. किसी को लगा कि यह कैसा बेवकूफी भरा कार्यक्रम हैं, जहां अपनी रचना पढ़ने की आजादी ही नहीं हैक्यों आयेगा कोई भला. कई बार लगा सचमुच नहीं आयेंगे क्या लोगकभी कभी इतने मासूम इसरार होते कि बस एक अपनी कविता सुना लेने दो नकि मना करते समय दिल ही बैठने लगता...लेकिन समझौता अगर आत्मा से ही हो तो देह का क्या काम. से कविता कार्यक्रम की आत्मा ही यह है कि यहां अपने मैंको उतारकर आना है.
न सिर्फ अपने लिखे को साझा करने के मोह से मुक्त होने की यह शुरुआत थी बल्कि यह शुरुआत थी अपने तमाम सारे और अहंकारों को भी छिटककर दूर करने की. कि अपना लंबा चौड़ा परिचय भी क्यों देना है. आपकी पसंद भी तो आपकी पहचान ही है न?मुझे एक ही कविता क्यों पढने को मिली? मेरी पसंद की कविता पर कम तालियां क्यों बजीं...ऐसे सवाल भी अहंकारही तो थे...मैंही तो थे...जो धीरे-धीरे पिघल रहे थे.

कभी-कभी लगता कि लोग कम आ रहे हैं, क्या लोगों को सिर्फ अपनी कविताएं सुनाने में रुचि हैअपनी पसंद की कविताएं सुनाने और दूसरे की पसंद की कविताएं सुनने में कोई रुचि नहीं...फिर लगता...हर समय में नई बात को समझने और स्वीकार करने में वक्त लगा ही है. हम भीड़ के पीछे नहीं भाग रहे थे लेकिन अच्छी कविताओं को सुनने की प्यास लगातार बढ़ रही थी. बिना किसी अवरोध के हम हर महीने बैठते कभी कम, कभी ज्यादा और दो घंटे में जितनी कविताएं हम सुनतेउन कविताओं के अपने जीवन में खास जगह बनने के किस्से सुनते तो लगता कि इस भागती-दौड़ती जिंदगी से कुछ लम्हे चुरा ही लिए हमनेकुछ तो जी ही लिया...ये जिया हुआ हमसे कोई कभी नहीं छीन सकता.

इस बीच दूसरे शहरों में से कविता की बैठकियों की खबरें कानों को आराम देतीं और यह सुकून भी कि देहरादून जिन शामोंको किसी ख़्वाब सा बुना था, वो ख़्वाब अब कई पलकों में सजने लगा हैकई शहरों में खिलने लगा है. बारह महीने बहुत ज्यादा वक्त नहीं होता लेकिन एक छोटे से शहर में छोटी सी बैठकी से शुरू हुआ यह सिलसिला किस तरह न सिर्फ उत्तराखण्ड की सीमाएं लांघ चुका है बल्कि हिन्दुस्तान की सीमा को भी उसने हंसकर ठुकरा दिया है.

रिचमंड में रुचि बड़े प्यार से से कविता की बैठकी सजाती हैं, न्यूज़ीलैंड में जसपाल भी उत्साह से हिंदी और उर्दू की कविताओं का पिटारा खोले बैठे हैं. उधर हैदराबाद में मीनाक्षी और प्रवीण कुछ अलग ही स्तर पर इसे हैदराबाद के दिलों की धड़कन बना रहे हैं. छिंदवाड़ा में रोहित रुसिया की कला ने से कविता के रंगों को सुर और आवाज से अलग ही अंदाज दियादिल्ली में चंदर, पूजा, जावेद ने निशस्तनाम से यहबैठकी सजाईइंदौर की धरा और वैभव ने कविताओं को अपनी पसंद की मुट्ठियों से आज़ाद किया और शहर मुस्कुरा दिया.

उत्तराखण्ड में तो पूरा राज्य ही इस रंग में रंगने लगा. उत्तरकाशी में प्रमोदराजेश, मदन मोहन और रेखा चमोली ने इस कार्यक्रम को सहेजा तो श्रीनगर में नीरज नैथानी ने. हल्द्वानी में प्रभात उप्रेती और भास्कर ने आगे बढ़कर कहाप्यार तो कबसे है कविताओं से तो चलो एक-दूसरे की पसंद की भी सुनते हैंउधमसिंह नगर में हेम पंत ने कार्यक्रम को रचनात्मकता के नये पंख लगाये और यहाँ न सिर्फ कविताएं सुनी-सुनाई जाने लगीं बल्कि कविताओं की किताबों का एक कोना भी बना दिया गया. कविताओं की खुशबू इस कदर फैलने लगी कि टिहरी से संजय सेमवाल और खटीमा से सिद्धेश्वर जी ने भी इसे शहर का हिस्सा बना लिया. शहर के मौसम अब से कविताओं के सुर में सुर मिलाने लगे हैं.

इस सबके बीच सुंदर अहसास यह हाथ आया कि हम एक परिवार होते जा रहे हैं. से कविता परिवार. लगता है हर उस शहर में जहां से कविता हो रहा है या होने की तैयारियां चल रही हैं अपना कोई है. कोई ताम-झाम नहींकोई वरिष्ठ नहीं, कोई कनिष्ठ नहीं सब एक से...यानी कविता प्रेमी. कितने ही लोगों ने अपनी देह पर रेंगते हुए उस अहसास को भी बयान किया कि कबसे तो छूट गया था लिखना पढ़ना और यह तो कब का भूल चुके थे कि मेरी भी कोई पसंद हुआ करती थी. कैसे कुछ कविताओं ने दीवाना बना दिया था और कितनी ही कविताओं के पीछे बौराए फिरते थे. वो बीता हुआ दीवानापन लौटा लायी हैं से कविता की बैठकियां.कितने ही युवा साथी इस दीवानेपन में शामिल हुए कितनी गृहिणियांप्रोफेसर,थियेटर आर्टिस्टडाक्टर्सवकीलचार्टड अकाउंटेंटबच्चे...आठ बरस से अस्सी बरस तक के दीवाने सब एक साथ...और इस समूचे दीवानेपन में दूर से यूट्यूब वीडियोज के जरिये रंग भरता सबसे बड़ा दीवाना मनीष गुप्ता...जो जानता है कि यह दुनिया दीवानों ने ही बचाकर रखीहै इसलिए इस दुनिया को दीवानों से भर देना चाहिए. मनीष ने इस दीवानेपन में बॉलीवुड की तमाम हस्तियों को भी शामिल किया तो वरिष्ठ से लेकर नवोदित कवियों को भी. मनीष पिछले चार सालों से कविता के खूबसूरत यूट्यूब वीडियोज बनाकर कविताओं को जिन्दगी से दोबारा से जोड़ने के काम कर ही रहे थे. वो अब तक तकरीबन चार सौ वीडियो बना चुके हैं.जिनके जरिये बालीवुड हस्तियों समेत अनेक कवि लोक संस्कृति, लोकके गीतों को भी वो जोड़ते चल रहे हैं. ‘क’ से कविता की बैठकियों में इन यूट्यूब वीडियो ने भी रंग भरे.

हम आपस में लड़ते हैंझगड़ते हैंमुस्कुराते हैंखिलखिलाते हैं लेकिन एक-दूसरे से खूब सीखते हुए जिंदगी को असल में जीने की कोशिश करते हैं.

लोग पूछते हैं अपने शहर में किस तरह शुरू करें से कविता तो हम सबसे पहले मुस्कुराते हैं. इसे शहर में शुरू करने से आसान तो कुछ भी नहीं क्योंकि इसके लिए न पैसे चाहिए न ताकत, बस प्यार चाहिए कविताओं के लिएजिंदगी के लिए. ध्यान बस इतना रखना है कि सिलसिला टूटे न और मैंइससे दूर रहे.

हमेशा से एक बात लगती रही कि जिंदगी की किसी भी चीज में घालमेल संभव है लेकिन प्रेम में और कविता में नहीं. से कविता तो कविता से ही प्रेम की बात है तो यहां बिना घालमेल के ही आगे बढ़ा जा सकता है. एक शहर में कोई भी चार दोस्त इस सिलसिले को शुरू कर सकते हैं...यह बताते हुए कि यहां अपनी कविता नहीं पढ़ी जाती अपनी पसंद की कविताएं पढ़ी जाती हैं. इससे सरल क्या होगा भला...हांएक बात जरूर याद रखनी है कि से कविता को तनाव नहीं प्यार की तरह अंजाम देना है, जिससे जुड़ी हर बात में सुख मिले...

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आज बारह महीनों के सफर को देखती हूं तो सुकून होता है...ख़्वाब से भरी अपनी आंखों से अब शिकायत नहीं रहती...
(इसमें शामिल हुए नाम तो सिर्फ प्रतीक भर हैं हर शहर में इन बैठकियों से जुड़ने वालों और इसे आगे बढाने वालों की फेहरिस्त तो बहुत लम्बी है)

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प्रतिभा कटियार
9456591379

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