डिजिटल माध्यम में हिंदी साहित्य को सुरुचि के साथ समृद्ध करने वालों में मनोज पटेल प्रमुखता से शामिल हैं. छोटे से कस्बे में अपने सीमित संसाधनों से विवादों और साहित्य की कूटनीति से दूर रहकर वह कविताओं और सार्थक गद्य को करीने से प्रस्तुत करने का कार्य अनथक करते रहे. यह बड़ी बात है. अनका असमय अवसान भारी क्षति है.
युवा कवि प्रमोद पाठक की ये कविताएँ मनोज पटेल को समर्पित हैं.
युवा कवि प्रमोद पाठक की ये कविताएँ मनोज पटेल को समर्पित हैं.
“मैंइनकविताओंकोमनोजपटेलकोसमर्पितकरनाचाहताहूँ. उन्होंने दुनिया भर कीकविताओंसेपरिचयकरवायाथा. आजसुबहमुझेउनकेनरहनेकीखबरमिलीतब सेमनबेचैनहै. ऐसाकमहीहोताहैकि आपअनजानेकिसी के लिए इतनेबेचैनहों. लेकिन कुछथाजोउनकामुझपरदेयथा. शायदयहदुनियाभरकीकविताकाधागाथाजोउनसेबांधताथा. ऋणीहोनेकीएकबैचेनीहैजिसकाकुछअंशअदाकरनाचाहताहूँ.उनकेअनुवादोंसेकवितावभाषाकोलेकरबहुतकुछसीखनेकोमिलाहै.”
प्रमोद पाठक
प्रमोद पाठक की कविताएँ
जिद जो प्रार्थना की विनम्रता से भरी है
आसमान को हरा होना था
लेकिन उसने अपने लिए नीला होना चुना
और हरा समंदर के लिए छोड़ दिया
समंदर ने भी कुछ हरा अपने पास रखा
और उसमें आसमान की परछाई का नीला मिला
बाकी हरा सारा घास को सौंप दिया
घास ने एक जिद की तरह उसे बचाए रखा
एक ऐसी जिद जो प्रार्थना की विनम्रता से भरी है
मकड़ी
मनुष्य ने बहुत बाद में जाना होगा ज्यामिति को
उससे सहस्राब्दियों पहले तुम उसे रच चुकी होगी
कताई इतनी नफीस और महीन हो सकती है
अपनी कारीगरी से तुमने ही सिखाया होगा हमें
तुम्हें देख कर ही पहली बार आया होगा यह खयाल
तुम्हें देख कर ही पहली बार आया होगा यह खयाल
कि अपने रहने के लिए रचा जा सकता है एक संसार
अंत में तुम्हीं ने सुझाया होगा यह रूपक कि संसार एक माया जाल है.
रेल- 1.
इस रेल में उसी लोहे का अंश है
जिससे मेरा रक्त बना है
मैंने तुम्हारी देह का नमक चखा
उस नमक के साथ तुम्हारा कुछ लोहा भी घुल कर आ गया
अब इस रक्त में तुम्हारी देह का नमक और लोहा घुला है
इस नमक से दुनिया की चीजों में स्वाद भरा जा चुका है और लोहे से गढ़ी जा चुकी हैं इस रेल की तरह तमाम चीजें
मैं तुम्हारे नमक का ऋणी हूँ और लोहे का शुक्रगुजार
अब तुम इस रेल से गुजरती हो जैसे मुझसे गुजरती हो
अपने नमक के स्वाद की याद छोड़ जाती
अपना लोहा मुझे सौंप जाती
मेरा बहुत कुछ साथ ले जाती.
रेल- 2.
रेल तुम असफल प्रेम की तरह मेरे सपनों में छूट जाती हो हर रोज...
नागफनी -1
(के. सच्चिदानंदन की कविता 'कैक्टस 'को याद करते हुए )
रेगिस्तान में पानी की
और जीवन में प्यार की कमी थी
देह और जुबान पर काँटे लिए
अब नागफनी अपनी ही कोई प्रजाति लगती थी
कितना मुश्किल होता है इस तरह काँटे लिए जीना
कभी इस देह पर भी कोंपलें उगा करती थी
नर्म सुर्ख कत्थई कोंपलें
अपने हक के पानी और प्यार की माँग ही तो की थी हमने
पर उसके बदले मिली निष्ठुरता के चलते ना जाने कब ये काँटों में तब्दील हो गईं
आज भी हर काँटे के नीचे याद की तरह बचा ही रहता है
इस सूखे के लिए संचित किया बूँद-बूँद प्यार और पानी
और काँटे के टूटने पर रिसता है घाव की तरह.
नागफनी -2
समय में पीछे जाकर देखो तो पाओगे
मेरी भाषा में भी फूल और पत्तियों के कोमल बिंब हुआ करते थे
मगर अब काँटों भरी है जुबान
ऐसे ही नहीं आ गया है यह बदलाव
बहुत अपमान हैं इसके पीछे
अस्तित्व की एक लंबी लड़ाई का नतीजा है यह
बहुत मुश्किल से अर्जित किया है इस कँटीलेपन को
अब यही मेरा सौंदर्य है
जो ध्वस्त करता है सौंदर्य के पुराने सभी मानक.
चाँद
रात के सघन खेत में खिला फूल है पूनम का चाँद
अपना यह रंग सरकंडे के फूल से उधार लाया है
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प्रमोद जयपुर में रहते हैं. वे बच्चों के लिए भी लिखते हैं. उनकी लिखी बच्चों की कहानियों की कुछ किताबें बच्चों के लिए काम करने वाली गैर लाभकारी संस्था 'रूम टू रीड' द्वारा प्रकाशित हो चुकी हैं. उनकी कविताएँ चकमक, अहा जिन्दगी, प्रतिलिपी, डेली न्यूज आदि पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं. वे बच्चों के साथ रचनात्मकता पर तथा शिक्षकों के साथ पैडागोजी पर कार्यशालाएँ करते हैं. वर्तमान में बतौर फ्री लांसर काम करते हैं.
सम्पर्क :
27 ए, एकता पथ, (सुरभि लोहा उद्योग के सामने),
श्रीजी नगर, दुर्गापुरा, जयपुर, 302018, /राजस्थान