स्वाधीन भारत में मुस्लिम औरतों ने शाहबानो से सायरा बानो तक लम्बा सफर तय किया है. यह लड़ाई उन्होंने खुद अपने दम पर लड़ी है. अगर शाहबानो केस में तब की सरकार और मुस्लिम बुद्धिजीवियों ने औरतों का साथ दिया होता तो न केवल इन औरतों की स्थिति बेहतर हुई होती, भारतीय राजनीति का यह दक्षिणपंथी उभार भी शायद इस रूप में नहीं दीखता.यह ऐतिहासिक बदलाव है, इसे और आगे बढ़ते जाना है जबतक हर क्षेत्र में औरत और मर्द बराबरी और समान सम्मान के हकदार नहीं हो जाते.लेखिका अपर्णा मनोज इधर मुस्लिम औरतों की स्थिति पर शोध कार्य में व्यस्त हैं. एकमुश्त तीन तलाक पर सुप्रीम कोर्ट के इस रोक की घटना पर उन्होंने नासिर शर्मा के कहानी-संग्रह ‘ख़ुदा की वापसी’ को ध्यान में रखते हुए इससे जुड़े तमाम मसले उठायें हैं.ज़ाहिर है इससे इन मुद्दों पर रौशनी तो पड़ती ही है एक समझ भी विकसित होती है.
ख़ुदा की वापसी
अपर्णा मनोज
शरीयत कानूनों को समझकर दुनियाभर में मुस्लिम स्त्रियाँ अपनी उन्नति के लिए इस्लाम की नवीन व्याख्याएँ कर रही हैं, फ़ातिमा मेरिनिस्सी, रिफ़अत हसन, लीला अहमद, अमीना वदूद, असमा बरलसआदि कुछ उल्लेखनीय नाम हैं जो शरीयत लॉ को समझने के लिए न केवल यत्न करती रहीं बल्कि धर्म में सालों से घुस आई कुरीतियों, प्रथाओं, परम्पराओं के जाले भी साफ़ करती रही हैं, फलतः विश्व स्तर पर आंदोलन चल पड़े हैं और कई देशों ने प्रगतिशील रुख अपनाते हुए जरूरी सुधार किये हैं, जो इस्लाम में तकलीद की जगह इज्तिहाद के फलसफे को तरजीह देने का सकारात्मक प्रयास है. 1943 में मिस्र ने अपने उत्तराधिकार क़ानून में संशोधन किया. 1953 में सीरिया ने निकाह और तलाक कानूनों को दुरुस्त किया. मोरक्को और ईराक ने इस दिशा में कई बेहतर प्रयास किये. मोरक्कोमें मोडावना नई परिवार-संहिता लेकर आया. सन् 2000 में इसका ड्राफ्ट बना और सन् 2003 में यह लागू हुआ. क़ानून बनने के बाद भी उन्हें लागू करना आसान नहीं होता. परम्पराओं, प्रथाओं और क़ानून के बीच तालमेल बैठाने में सालों लग जाते हैं.
भारत में बदलाव की गति बहुत धीमी रही है. ऐसा कोई ठोस आन्दोलन दिखाई नहीं देता जो किसी विचारधारा और प्रारूप को लेकर चल पड़ा हो. कहीं क्रमिकता दिखाई नहीं देती. तात्कालिकता की आग में सपने जलकर राख हो जाते हैं, लेकिन कोई हल नहीं निकलता.
समकालीन परिदृश्य में जब तक एक मिलाजुला संवाद स्थापित नहीं होगा, तब तक किसी भी तरह का विमर्श मुकाम पर नहीं पहुँच सकेगा. अंतः संवाद साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, विधिवेत्ताओं और समाज सुधारकों के बीच स्थापित होने पर ही नए मोर्चे बनेंगे और नया मिजाज़ बनेगा –जहाँ बेहतर तब्दीलियों की संभावनाएं होंगी.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के 22 अगस्त 2017 के ऐतिहासिक फैसले ने संवाद और उम्मीदों का रास्ता खोला है. 365 पेज का यह फैसला भारतीय मुस्लिम स्त्री को राहत देते हुए कहता है कि ‘3:2 के बहुमत से दर्ज की गयी अलग-अलग राय के मद्देनज़र ‘तलाक-ए-बिद्दत’ तीन तलाक को निरस्त किया जाता है.’
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का तहे दिल से स्वागत. इस फैसले का अनुमोदन करते हुए मुझे दो किताबें याद आ रही हैं – एक तोनासिरा शर्माकी ‘ख़ुदा की वापसी’और दूसरी नूर ज़हीरकी ‘डिनाइड बाय अल्लाह’.
नासिरा शर्मा के बहुआयामी लेखन ने इधर कई खिड़कियाँ स्त्रियों के लिए खोली हैं. मधुरेश उनकी कहानियों को महिला लेखन में अंतर्वस्तु के विस्तार का उल्लेखनीय उदाहरण कहते हैं.[v]औरत उनकी कहानियों में अपने समग्र वज़ूद और क़ुव्वत के साथ पैबस्त है. कामगार औरतें, मजदूर औरतें, खुद मुख्तार औरतें अपनी लड़ाई बीच में ही मुल्तवी नहीं करतीं; परिवेश के दबाबों से वे खुद को बरख़ास्त नहीं करतीं, बल्कि कफ़न और दफ़न के बाद भी वे अपना संघर्ष छोड़ जाती हैं. नासिरा शर्मा के केंद्र में औरतें हैं क्योंकि, “कोई भी कहानी औरत के बिना अधूरी है. ख़ुदा के बाद अगर किसी को रचना और सृष्टि की ताकत मिली है, तो वह औरत है. सवाल यह है कि जब अपने आसपास के वातावरण को कहानी में लाते हैं तो उसमें जो प्रगतिशील और गतिशील चीज़ें ही लाते हैं. मर्द का जो व्यक्तित्व है वह पिछले पांच हज़ार साल से उतना बदला नहीं है जितना औरत का और यह बदलाव ही सामाजिक चेतना को प्रेरित करता है.”[vi]
‘शामी कागज़’, ‘पत्थर गली’, ‘संगसार’, इब्ने मरियम’, ‘सबीना के चालीस चोर’, ‘ख़ुदा की वापसी’, ‘बुतखाना’, ‘दूसरा ताजमहल’, ‘इंसानी नस्ल’ उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं.
‘ख़ुदा की वापसी’सन् 2001 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ. इसमें कुल नौ कहानियां हैं. इन कहानियों के केंद्र में शरीयत क़ानून है और बहुत बारीकी से लेखिका स्त्रियों की उन पीड़ाओं की दरयाफ्त करते चलती हैं, जिनकी वजहें या तो शरीयत का कुपाठ है या फिर अंधी तक्लीदें, जिन्होनें सदियों से औरत की दुर्गबंदी की है. कहानियां एक तरह से शरीयत का उत्तर बुनियादी पाठ भी रचती हैं. यानी बुनियाद में रहकर बुनियाद के बाहर निकलती हैं. बुनियाद को डीकंस्ट्रक्ट करके रचनात्मक परिवेश बनाती है ताकि स्त्री अपने अधिकारों का उपयोग करना सीख सके.
नासिरा शर्मा अपनी कहानियों के प्राक्कथन में संग्रह को लेकर अपने डर भी बयां करती हैं, कि जब हर तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा हो, उस समय ये कहानियां कहीं उसी का पाठ न समझ ली जाएँ.[vii]कहानियों को पढ़ते वक्त एक तल्ख़ अहसास होता है कि लेखिका मजहब के पास नहीं गईं बल्कि उस आहत सायकी या चित्त से रू-ब-रू हुईं जिसने दोहरी मार खायी – समाज की मार और शरिये की आड़ में पितृसत्ता और धर्म की मार. जिस शरिये ने उसे गढ़ा है, यह वह शरिया नहीं है जिसने 1400 साल पहले उसे कई अधिकार दिए थे, बल्कि यह वह शरिया है जिसे आदतन अपनी सहूलियत से पुरुष पढ़ता रहा और लोक में ये सहूलियतें स्त्री के लिए चारदीवारी बन गईं. इन कहानियों से नासिरा शर्मा वे ताले खोलती हैं जो मजहब का ज़िक्र करके पुरुष ने उसकी चेतना पर डाल दिए हैं. नासिरा इन कहानियों के संदर्भ में कहती हैं कि, “पिछले कई वर्षों में शरीयत क़ानून का मैंने अध्ययन किया और जो औरत के लाभ में जाने वाले क़ानून –जैसे औरत भी मर्द को तलाक दे सकती है यदि वह विवाह धर्म नहीं निभा पा रहा हो या फिर मेहर क्या है? विवाह के लिए किन चीज़ों का होना अतिआवश्यक है? विवाह में औरत की मर्ज़ी के बिना निकाह स्वीकार नहीं हो सकता है. वह विवाह अवैध माना जाएगा. इन सारे कानूनों को लेकर मैंने कहानियां भी लिखीं, ताकि वह पात्रों की व्यथा द्वारा पाठकों के दिमाग में घर कर जाएँ. सारी कहानियों को एक संग्रह का रूप दिया. इस संग्रह का नाम ख़ुदा की वापसी रखा.”[viii]
मेहर की इस्लामिक विवाह संस्था में महत्त्वपूर्ण स्थिति है. यह मात्र प्रतिफल नहीं है जो विवाह की संविदा के समय सुनिश्चित हो जाता है. यह पति द्वारा पत्नी के प्रति दायित्व एवं सम्मान का प्रतीक है. मेहर मुस्लिम विवाह का अभिन्न अंग है और इसके बिना विवाह शून्य हो जाता है. मुस्लिम विधि के अनुसार, “मेहर वह धनराशि या संपत्ति है जिसका कुछ मौद्रिक मूल्य होता है और इसे प्राप्त करने के लिए पत्नी अधिकृत है. इसे वह विवाह के प्रतिफल स्वरुप प्राप्त करती है.”[ix]मेहर दो तरह से दिया जाता है – तुरंत मेहर (इसका भुगतान विवाह के तुरंत बाद होता है) और स्थगित मेहर( इसका भुगतान पत्नी को विनिर्दिष्ट अवधि के बीतने के पश्चात किया जाता है. विवाह विच्छेद या पक्षकार की मृत्यु होने पर इसका तुरंत भुगतान होता है)
कहानी ‘ख़ुदा की वापसी’ इसी मेहर के इर्द-गिर्द घूमती है. नायिका फरज़ाना पढ़ी-लिखी लड़की है. उसका विवाह जुबैर से होता है और निकाहनामे के साथ पचास हज़ार का मेहर बंधता है. पहली रात है. दूल्हा-दुलहन साथ हैं. जुबैर मज़हब और कानूनी किताबों के हवाले से कहता है कि “वह औरत शौहर के लिए बहुत मुबारक होती है जो पहली रात अपने शौहर का मेहर माफ़ कर देती है. वह बड़ी पाकदामन समझी जाती है.”[x]यही वह पैराडाइम है जहाँ से फरज़ाना की जद्दो-जहद शुरू होती है. बात मेहर अदायगी की नहीं है, बात उस रिश्ते की शुरुआत से है जो एक छद्म बुनियाद पर खड़ा है. फरज़ाना शरीयत क़ानून की छान-बीन करती है और अंत में उसका द्वंद्व उस ज़मीन पर खत्म होता है जब इमाम अली उससे कहते हैं, “किरदार का हथियार दौलत, ताकत, शोहरत के हथियारों से कहीं तेज़ और चमकदार होता है, क्योंकि वह इंसानी वज़ूद को कायम रखता है.”
फरज़ाना जुबैर से अपना हक़ मांगती है. फरज़ाना जुबैर को छोड़कर पीहर चली जाती है. जुबैर हालात से फरार होना चाहता है. वह पांच साल के अनुबंध पर सऊदी चला जाता है. फरज़ाना अकेली है और बार-बार एक सवाल खुद से पूछती है कि “जो बसेरा छोड़ आई उसकी आस क्या? वहां तुझे समझने वाला कौन बैठा था?”लेकिन फरज़ाना की लड़ाई उन स्त्रियों जैसी लड़ाई नहीं है जो मुक्ति की तलाश में युद्ध की भंगिमाओं को अपनाकर खुद को अमानवीकृत पौरुष की उस आखिरी विकृति को निभाने की सज़ा सुना देती हैं जिसका एकमात्र परिणाम आत्महत्या जैसा विशिष्ट मर्दाना अंत है.[xi]फरज़ाना तनहा पर ईमान की जिंदगी का चुनाव करती है और सपना देखती है कि जुबैर बदल रहा है, जैसे आधी दुनिया बदल रही है.
कहानी ‘दिलआरा’ का कथानक विवाह संस्था के कई पहलुओं को लेकर चलती है, यथा इस्लाम में स्त्री को अपनी पसंद से शादी और मर्ज़ी से तलाक (खुला) का अधिकार है. बेवा साजदा बेगमअपना मदरसा चलाती हैं जो वहां के मौलवी के लिए खुली चुनौती है, पर साजदा अटल है. साजदा के पास दिलआरा अक्सर आती है और शरीयत के उसूलों को ध्यान से सुनती है. वह जमाल से विवाह करना चाहती किन्तु जमाल गरीब परिवार से है. दिलआरा का निकाह उसके माँ –पिता कहीं और करना चाहते हैं, लेकिन वह अपनी पसंद पर कायम है और शादी से इनकार कर देती है. जमाल की अपनी मजबूरियां हैं. वह दिलआरा से निकाह नहीं कर सकता और दिलआरा – जिसको वह पसंद नहीं करती, उससे शादी क्यों करे? कहानी इस टोन पर खत्म होती है कि किरदार अपनी कहानी खुद लिखेगा. कहानी का इथॉस एकदम घुटन के बरअक्स खुले आकाश में विचरण करना चाहता है और इस आज़ादी को वह वहीँ से हासिल करता है जब साजदा कहती है कि “जैसी रिवायत है कि हज़रत ख़दीज़ा ने खुद अपनी पसंद का इज़हार करते हुए पैगंबर से शादी की बात कही थी.”[xii]रिवायत यह भी है कि “पैगंबर साहब की एक बीबी असमा थीं. निकाह के बाद हुज़ूर अकरम उनके पास जाते, इससे पहले उन्होंने तलाक की ख्वाहिश ज़ाहिर की और उनकी मर्ज़ी का लिहाज़ कर हुज़ूर ने उन्हें खूलाह की आज़ादी दी.”[xiii]कहानी परम्परा के बहाने समकाल में पैर रखती है और मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियों के लिए स्पेस क्रिएट करती है. कहानी की सीमा है कि वह बागी होकर शरीयत के फ्रेम से बाहर नहीं आ पाती और उसी में प्रतिगामी ताकतों से लड़ने को मजबूर है. वह अपने इतिहास और स्मृतियों में ही जन्म लेती है और वहीँ चुक जाती है.
‘पुराना क़ानून’ कहानी मुस्लिम विधि के स्रोत और निर्वचन ‘इज्मा’ का अप्रत्त्यक्ष रूप से प्रवर्तन करती है, यथा “जब अनेक व्यक्ति जो मुस्लिम विधि में विद्वान हों तथा किसी प्रकार की विधि शास्त्रियों की श्रेणी को प्राप्त किये हों, किसी विशेष प्रश्न पर सहमत हों, उनकी राय बाध्यकारी होती है तथा विधि का बल रखती है. वास्तव में इस सम्बन्ध में पैगंबर मुहम्मद साहब की सुज्ञात परम्परा है कि, मेरे लोग गलती पर सहमत नहीं होंगे.”[xiv]
कहानी में नन्हे माली की बेटी अफसाना का फ़साना है. माली बिरादरी के एक लड़के शमीम से अफ़साना का निकाह होता है. शमीम छोटा-मोटा फ्लोरिस्ट है. उसका सपना है कि उसका अपना फूल कॉर्नर हो. अफ़साना फैशनेबल लड़कियों की तरह रहना सीखे पर अफ़साना की विडंबना है कि यदि वह ऐसा करती है तो उसे मोहल्ला, घर और माहौल तीनों को बदलना पड़ेगा और फिर मालिनों की बिरादरी में उसकी गुज़र कैसे होती? वह बदल नहीं सकती और शमीम उसके साथ निभा नहीं सकता. उसके फूल कॉर्नर पर रुबीना आया करती है. दोनों की मुलाकातें होने लगती हैं पर रुबीना से उसकी शादी असंभव है और अफ़साना के साथ बसर नामुमकिन. शमीम तिहरे तलाक का नोटिस अफ़साना के पास भिजवा देता है और खुद लापता हो जाता है. सारी बिरादरी इस शोक में शामिल है. अफ़साना अब तलाकशुदा है और बिना हलाला के वह शमीम के पास लौट नहीं सकती, यानी अफ़साना किसी और मर्द से निकाह कर उसके साथ रात गुज़ारे. फिर सुबह उसे तलाक लेकर शमीम से दोबारा निकाह पढ़वाया जाए.[xv]
उधर शमीम इरफ़ान दर्जी शमीम को घर दमादू के रूप में स्वीकार चुके थे. बिरादरी के कहने पर शमीम की फोटो अखबार में छपवा दी गयी थी. अखबार में शमीम की तस्वीर देखकर इरफ़ान दर्जी सकते में आ जाता है. वह किसी तरह के कानूनी दाँव-पेच में नहीं पड़ना चाहता. मजबूरन शमीम घर लौट आता है. “बैठक शमीम के पिता लुबान के घर के सामने वाले चबूतरे पर बैठी. चाय पानी का खर्चा भी उन्हीं के मत्थे रखा गया. दोनों तरफ के लोग जमा हुए...लम्बे सवाल-जवाब के बाद फैसला सुना दिया गया, जो पहले से तय था कि शमीम अपनी लुगाई साथ रखेगा. यदि उसे पत्नी से शिकायत है तो जांच-पड़ताल की जायेगी. तब उसे शरी तौर पर तलाक लेने की मंजूरी मिलेगी वरना नहीं. चूँकि उसने न केवल शरीयत बल्कि माली रिवायत के विरुद्ध कदम उठाया है. इस जुर्म की सज़ा के तौर पर उसे पांच सौ रुपये बतौर जुर्माना अफ़साना को देना है और सारी बिरादरी से माफ़ी मांगनी है.”[xvi]
लब्बोलुबाब है कि शमीम के मिजाज़ की कमान टूटते टूटते टूट गयी और अब वह बाप की तरह तहमत पहन उसी की तरह सफ़ेद किरोशिया की जालीदार टोपी लगाए, साइकिल के पीछे बड़ा टोकरा बांधे गुलाबबाड़ी की तरफ़ जाता है और अफ़साना का दिल कई दिनों में जाकर मोम हुआ.
कहानी बिरादरी की पंचायत जो विभिन्न मुस्लिम स्थानीय उपसांस्कृतिक समूहों की विशेषता है, उसे भी साथ लेकर चलती है. इसे गंगा-जमुनी प्रभाव के चलते भी देखा जा सकता है, लेकिन पैगंबर साहब के द्वारा की गयी इज्मा की व्यवस्था अधिक अनुकूल जान पड़ती है.
लेकिन इस कहानी की सीमा है कि इसकी ‘अफ़साना’ शायरा बानो, इशरत जहाँ, गुलशन परवीन, आतिया साबरी और आफरीन रहमान की तरह जुझारू नहीं है, बल्कि पीड़िता पूरी तरह बिरादरी की रवायतों और उसूलों के सुरक्षा कवच में कमज़ोर साँसें लेती है. अफ़सानाओं की त्रासदी के कई डिसजॉइंट्स हैं. मैं इम्तियाज़ अहमदद्वारा सम्पादित पुस्तक ‘डाइवोर्स एंड रिमैरिज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया’में आनंदिता दासगुप्ताके लेख ‘बिटवीन टू वर्ल्डस: डाइवोर्स अमंग असमिया मुस्लिम्स ऑफ़ गोहाटी’का उल्लेख करना चाहती हूँ जो असमिया सन्दर्भ में इस्लामिक विवाह को कॉन्ट्रैक्ट की तरह स्वीकार नहीं करता. वह किसी भी तरह के निकाहनामे, मेहर की परम्परा के साथ अपने को जोड़कर नहीं देख पाता. विवाह को वह जीवनभर का रिश्ता मानता है. तलाक यहाँ इतना सामान्य नहीं जितना अन्य प्रान्तों में है. आसाम की ब्रह्मपुत्रा घाटी में तलाक-ए-बिद्दत प्रचलन में नहीं है, जबकि बराक घाटी के ना-असमिया मुसलमानों में तिहरा तलाक सामान्य है. बहु-विवाह भी इसलिए यहाँ प्रचलित है जबकि ब्रह्मपुत्रा घाटी में यह बुरी नज़र से देखा जाता है और इसे हतोत्साहित किया जाता है. घाटी में निकाहनामे पर दस्तख़त और मेहर बाँधने की रस्म तभी की जाती है जब लड़कियों का विवाह गैर-असमिया मुसलमानों के साथ संपन्न होता है.
इस संग्रह की लगभग सभी कहानियां शरीयत के इर्द-गिर्द घूमती हैं और स्थापित करती हैं कि, “जो औरतें पिछड़ी हैं, जिन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है, वे दुखी हैं. मर्द को बेलगाम अधिकार इस्लाम ने नहीं दिए. उसने औरत की कमजोरी के कारण धर्म के नाम पर बेलगाम अधिकार प्राप्त कर लिए हैं.[xviii]”
इस तरह इस संग्रह की सभी कहानियां परम्परा को संजोते हुए आधुनिक कलेवर में पाठक तक आती हैं और यही इस संग्रह की ताकत है.
सन्दर्भ
अपर्णा मनोज
फरवरी, सन् 2016 को सायरा बानो की तीन तलाक, निकाह-हलाला और बहुविवाह को लेकर सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गयी याचिका और इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा किन्हीं दो केसों की सुनवाई के दौरान तीन तलाक और बहुविवाह को असंवैधानिक एवं क्रूरतापूर्ण मानते हुए इन्हें मौलिक अधिकारों के प्रतिकूल मानना, फिर से उस प्रस्थान बिंदु की तरफ़ ले जाता है – जहाँ 60 साल की शाहबानो गुज़ारे भत्ते की गुहार लगाती, अपनी पीडाओं के साथ आज भी खड़ी है और सर्वोच्च न्यायालय का उसके हक़ में फ़ैसला मील का पत्थर साबित होने के बाद भी 1986 का विधेयक मुस्लिम स्त्री को उप-मानव में तब्दील कर देता है.
मुस्लिम औरत की लड़ाई मजहब की लड़ाई नहीं है वरन यह उस पितृसत्तात्मक सामाजिक व्यवस्था से लड़ाई है जिसनें मजहब के नाम पर कई मुखौटे पहन लिए हैं और औरत की घेराबंदी की है. औरत ही इस दुर्ग को तोड़ेगी. स्त्री-चिंतन की जो धाराएं मगरिब से मशरिक तक आती हैं या मशरिक से चलकर मगरिब को प्रभावित करती हैं, वे भी अपने आप में नितांत अकेली और सक्षम नहीं हैं –कहीं वे साम्राज्यवाद की दहलीज़ को फांदकर आई हैं तो कहीं उपनिवेशवाद के कैदखानों से लड़कर निकलीं हैं, लेकिन उनके अतीत की लम्बी परछाइयाँ अभी भी उनके साथ हैं. ये लड़ाइयाँ अकेली हौवा की लड़ाई नहीं है –उसका सामना एक समूचे भूगोल से होता है. पूरे इतिहास और कालखंड से वह टकराती है.
इस्लाम में औरत भी हर जगह अलग-अलग मोर्चों पर अपनी तरह संघर्षरत है. बहुसंख्यक मुस्लिम देशों में उसकी स्थिति भिन्न है, शरिया की भ्रामक या पितृसत्तामक व्याख्याएँ उनके विकास में बाधक रही हैं; इसके विपरीत पश्चिम में मुस्लिम निजी विधि न होने से कई बार उनकी स्थिति वंचितों जैसी है. हिंदुस्तान जैसे प्रजातान्त्रिक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र में भी मुस्लिम समाज की महिलाएँ बदहाली में हैं. मुस्लिम स्त्री की इस दशा पर बात करते हुए ज़ोया हसनकहती हैं कि “मुसलमान और मुस्लिम औरत के बारे में हिंदुस्तान में और दुनिया में जो नज़रिया है, वह बंधा-बंधाया है. मुस्लिम औरत की स्थिति पर बात हमेशा इस्लाम के नज़रिए से की जाती है. यह नज़रिया ही गलत है. कुरआन में औरतों के बारे में क्या लिखा है, इस नज़रिए से मुस्लिम औरत की स्थिति पर बात करना गलत दृष्टिकोण है. दूसरे धर्म की औरतों पर बात करते समय धर्म केंद्र में नहीं होता, बल्कि उनकी स्थिति को सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक आधारों पर परखते हैं.”[i]
असगर अली कठमुल्लापन और जड़ता को इसके मूल में देखते हैं. तीन तलाक जैसी कुरीति को वह गैर इस्लामिक मानते हुए कुरआन का ही तर्क देते हैं, “अगर तुम दोनों के बीच बिगाड़ का डर हो तो एक न्यायकर्ता उसके (पति) पक्ष और दूसरा न्यायकर्ता स्त्री के लोगों में से नियुक्त करो. अगर वे दोनों आपस में सुलह का मन रखेंगे तो अल्लाह उनके बीच अनुकूलता पैदा कर देगा.” (सूरा 4:35) लेकिन कुरआन की इस हिदायत के बाद भी तीन तलाक को समाज में लोग अनुमोदित करते हैं जबकि एक ही झटके और एक ही सांस में वह वैवाहिक जीवन उजाड़ देता है. ऐसे कृत्य को इस्लामिक कैसे कहा जा सकता है? यह स्त्री पर सबसे बड़ा कहर है और घोर अन्याय. जबकि न्याय कुरआन की मुख्य तालीम है.[ii]अतः कुरआन तलाक को निम्न मानता है और पूर्व तलाक के पश्चात केवल अत्यावश्यक दशाओं में अनुज्ञा देता है, इसलिए मुस्लिम पति अपनी पत्नी को उमंग तथा शौक से तलाक नहीं दे सकता. (जीनत फ़ातिमा राशिद बनाम मु. इकबाल अनवर, 1 (1993) डी.एम्.सी. 49 गुवहाटी)[iii]
नासिरा शर्मा औरत की बदनसीबी का कारण उसके मज़हब के आधे-अधूरे ज्ञान को मानती हैं. शौहर उसका मजाज़ी खुदा है और उसकी बात मानना जन्नत की कुंजी है. “हिन्दुस्तानी औरत धर्म और शरीयत क़ानून की बारीकी को नहीं समझती, इस कारण वह साऊदी अरब की नई नस्ल की तरह निकाहना में में बयान शर्तों में कुछ और शर्तों का इज़ाफ़ा नहीं करवा पाती है..जो शर्तें बढ़ाई हैं वे बेहद दिलचस्प हैं कि पति तनख्वाह पत्नी के हाथ में लाकर दे, सास-बहू में पट न रही हो या कोई अन्य कारण, जैसे मकान छोटा हो, तो पत्नी को इसका अधिकार है कि वह अलग घर में पति के साथ जाकर रहे. पति को हफ्ते में एक बार चाहे जुमा या जुमेरात को घर- गृहस्थी का बोझ उठाना है, क्योंकि वह भी इस घर में रहता है. ईराक में बिना कारण के दूसरी शादी करना ज़ुर्म है. यदि तलाक होता है, तो घर पति छोड़ के जाएगा. बच्चे हैं तो लालन-पालन का तब तक खर्च देगा, जब तक वे बालिग़ नहीं हो जाते हैं.”[iv]
शरीयत कानूनों को समझकर दुनियाभर में मुस्लिम स्त्रियाँ अपनी उन्नति के लिए इस्लाम की नवीन व्याख्याएँ कर रही हैं, फ़ातिमा मेरिनिस्सी, रिफ़अत हसन, लीला अहमद, अमीना वदूद, असमा बरलसआदि कुछ उल्लेखनीय नाम हैं जो शरीयत लॉ को समझने के लिए न केवल यत्न करती रहीं बल्कि धर्म में सालों से घुस आई कुरीतियों, प्रथाओं, परम्पराओं के जाले भी साफ़ करती रही हैं, फलतः विश्व स्तर पर आंदोलन चल पड़े हैं और कई देशों ने प्रगतिशील रुख अपनाते हुए जरूरी सुधार किये हैं, जो इस्लाम में तकलीद की जगह इज्तिहाद के फलसफे को तरजीह देने का सकारात्मक प्रयास है. 1943 में मिस्र ने अपने उत्तराधिकार क़ानून में संशोधन किया. 1953 में सीरिया ने निकाह और तलाक कानूनों को दुरुस्त किया. मोरक्को और ईराक ने इस दिशा में कई बेहतर प्रयास किये. मोरक्कोमें मोडावना नई परिवार-संहिता लेकर आया. सन् 2000 में इसका ड्राफ्ट बना और सन् 2003 में यह लागू हुआ. क़ानून बनने के बाद भी उन्हें लागू करना आसान नहीं होता. परम्पराओं, प्रथाओं और क़ानून के बीच तालमेल बैठाने में सालों लग जाते हैं.
भारत में बदलाव की गति बहुत धीमी रही है. ऐसा कोई ठोस आन्दोलन दिखाई नहीं देता जो किसी विचारधारा और प्रारूप को लेकर चल पड़ा हो. कहीं क्रमिकता दिखाई नहीं देती. तात्कालिकता की आग में सपने जलकर राख हो जाते हैं, लेकिन कोई हल नहीं निकलता.
समकालीन परिदृश्य में जब तक एक मिलाजुला संवाद स्थापित नहीं होगा, तब तक किसी भी तरह का विमर्श मुकाम पर नहीं पहुँच सकेगा. अंतः संवाद साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों, विधिवेत्ताओं और समाज सुधारकों के बीच स्थापित होने पर ही नए मोर्चे बनेंगे और नया मिजाज़ बनेगा –जहाँ बेहतर तब्दीलियों की संभावनाएं होंगी.
भारत के सर्वोच्च न्यायालय की पांच सदस्यीय संविधान पीठ के 22 अगस्त 2017 के ऐतिहासिक फैसले ने संवाद और उम्मीदों का रास्ता खोला है. 365 पेज का यह फैसला भारतीय मुस्लिम स्त्री को राहत देते हुए कहता है कि ‘3:2 के बहुमत से दर्ज की गयी अलग-अलग राय के मद्देनज़र ‘तलाक-ए-बिद्दत’ तीन तलाक को निरस्त किया जाता है.’
सर्वोच्च न्यायालय के इस फैसले का तहे दिल से स्वागत. इस फैसले का अनुमोदन करते हुए मुझे दो किताबें याद आ रही हैं – एक तोनासिरा शर्माकी ‘ख़ुदा की वापसी’और दूसरी नूर ज़हीरकी ‘डिनाइड बाय अल्लाह’.
नासिरा शर्मा के बहुआयामी लेखन ने इधर कई खिड़कियाँ स्त्रियों के लिए खोली हैं. मधुरेश उनकी कहानियों को महिला लेखन में अंतर्वस्तु के विस्तार का उल्लेखनीय उदाहरण कहते हैं.[v]औरत उनकी कहानियों में अपने समग्र वज़ूद और क़ुव्वत के साथ पैबस्त है. कामगार औरतें, मजदूर औरतें, खुद मुख्तार औरतें अपनी लड़ाई बीच में ही मुल्तवी नहीं करतीं; परिवेश के दबाबों से वे खुद को बरख़ास्त नहीं करतीं, बल्कि कफ़न और दफ़न के बाद भी वे अपना संघर्ष छोड़ जाती हैं. नासिरा शर्मा के केंद्र में औरतें हैं क्योंकि, “कोई भी कहानी औरत के बिना अधूरी है. ख़ुदा के बाद अगर किसी को रचना और सृष्टि की ताकत मिली है, तो वह औरत है. सवाल यह है कि जब अपने आसपास के वातावरण को कहानी में लाते हैं तो उसमें जो प्रगतिशील और गतिशील चीज़ें ही लाते हैं. मर्द का जो व्यक्तित्व है वह पिछले पांच हज़ार साल से उतना बदला नहीं है जितना औरत का और यह बदलाव ही सामाजिक चेतना को प्रेरित करता है.”[vi]
‘शामी कागज़’, ‘पत्थर गली’, ‘संगसार’, इब्ने मरियम’, ‘सबीना के चालीस चोर’, ‘ख़ुदा की वापसी’, ‘बुतखाना’, ‘दूसरा ताजमहल’, ‘इंसानी नस्ल’ उनके प्रसिद्ध कहानी संग्रह हैं.
‘ख़ुदा की वापसी’सन् 2001 में भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित हुआ. इसमें कुल नौ कहानियां हैं. इन कहानियों के केंद्र में शरीयत क़ानून है और बहुत बारीकी से लेखिका स्त्रियों की उन पीड़ाओं की दरयाफ्त करते चलती हैं, जिनकी वजहें या तो शरीयत का कुपाठ है या फिर अंधी तक्लीदें, जिन्होनें सदियों से औरत की दुर्गबंदी की है. कहानियां एक तरह से शरीयत का उत्तर बुनियादी पाठ भी रचती हैं. यानी बुनियाद में रहकर बुनियाद के बाहर निकलती हैं. बुनियाद को डीकंस्ट्रक्ट करके रचनात्मक परिवेश बनाती है ताकि स्त्री अपने अधिकारों का उपयोग करना सीख सके.
नासिरा शर्मा अपनी कहानियों के प्राक्कथन में संग्रह को लेकर अपने डर भी बयां करती हैं, कि जब हर तरफ धर्म का प्रचार किया जा रहा हो, उस समय ये कहानियां कहीं उसी का पाठ न समझ ली जाएँ.[vii]कहानियों को पढ़ते वक्त एक तल्ख़ अहसास होता है कि लेखिका मजहब के पास नहीं गईं बल्कि उस आहत सायकी या चित्त से रू-ब-रू हुईं जिसने दोहरी मार खायी – समाज की मार और शरिये की आड़ में पितृसत्ता और धर्म की मार. जिस शरिये ने उसे गढ़ा है, यह वह शरिया नहीं है जिसने 1400 साल पहले उसे कई अधिकार दिए थे, बल्कि यह वह शरिया है जिसे आदतन अपनी सहूलियत से पुरुष पढ़ता रहा और लोक में ये सहूलियतें स्त्री के लिए चारदीवारी बन गईं. इन कहानियों से नासिरा शर्मा वे ताले खोलती हैं जो मजहब का ज़िक्र करके पुरुष ने उसकी चेतना पर डाल दिए हैं. नासिरा इन कहानियों के संदर्भ में कहती हैं कि, “पिछले कई वर्षों में शरीयत क़ानून का मैंने अध्ययन किया और जो औरत के लाभ में जाने वाले क़ानून –जैसे औरत भी मर्द को तलाक दे सकती है यदि वह विवाह धर्म नहीं निभा पा रहा हो या फिर मेहर क्या है? विवाह के लिए किन चीज़ों का होना अतिआवश्यक है? विवाह में औरत की मर्ज़ी के बिना निकाह स्वीकार नहीं हो सकता है. वह विवाह अवैध माना जाएगा. इन सारे कानूनों को लेकर मैंने कहानियां भी लिखीं, ताकि वह पात्रों की व्यथा द्वारा पाठकों के दिमाग में घर कर जाएँ. सारी कहानियों को एक संग्रह का रूप दिया. इस संग्रह का नाम ख़ुदा की वापसी रखा.”[viii]
मेहर की इस्लामिक विवाह संस्था में महत्त्वपूर्ण स्थिति है. यह मात्र प्रतिफल नहीं है जो विवाह की संविदा के समय सुनिश्चित हो जाता है. यह पति द्वारा पत्नी के प्रति दायित्व एवं सम्मान का प्रतीक है. मेहर मुस्लिम विवाह का अभिन्न अंग है और इसके बिना विवाह शून्य हो जाता है. मुस्लिम विधि के अनुसार, “मेहर वह धनराशि या संपत्ति है जिसका कुछ मौद्रिक मूल्य होता है और इसे प्राप्त करने के लिए पत्नी अधिकृत है. इसे वह विवाह के प्रतिफल स्वरुप प्राप्त करती है.”[ix]मेहर दो तरह से दिया जाता है – तुरंत मेहर (इसका भुगतान विवाह के तुरंत बाद होता है) और स्थगित मेहर( इसका भुगतान पत्नी को विनिर्दिष्ट अवधि के बीतने के पश्चात किया जाता है. विवाह विच्छेद या पक्षकार की मृत्यु होने पर इसका तुरंत भुगतान होता है)
कहानी ‘ख़ुदा की वापसी’ इसी मेहर के इर्द-गिर्द घूमती है. नायिका फरज़ाना पढ़ी-लिखी लड़की है. उसका विवाह जुबैर से होता है और निकाहनामे के साथ पचास हज़ार का मेहर बंधता है. पहली रात है. दूल्हा-दुलहन साथ हैं. जुबैर मज़हब और कानूनी किताबों के हवाले से कहता है कि “वह औरत शौहर के लिए बहुत मुबारक होती है जो पहली रात अपने शौहर का मेहर माफ़ कर देती है. वह बड़ी पाकदामन समझी जाती है.”[x]यही वह पैराडाइम है जहाँ से फरज़ाना की जद्दो-जहद शुरू होती है. बात मेहर अदायगी की नहीं है, बात उस रिश्ते की शुरुआत से है जो एक छद्म बुनियाद पर खड़ा है. फरज़ाना शरीयत क़ानून की छान-बीन करती है और अंत में उसका द्वंद्व उस ज़मीन पर खत्म होता है जब इमाम अली उससे कहते हैं, “किरदार का हथियार दौलत, ताकत, शोहरत के हथियारों से कहीं तेज़ और चमकदार होता है, क्योंकि वह इंसानी वज़ूद को कायम रखता है.”
फरज़ाना जुबैर से अपना हक़ मांगती है. फरज़ाना जुबैर को छोड़कर पीहर चली जाती है. जुबैर हालात से फरार होना चाहता है. वह पांच साल के अनुबंध पर सऊदी चला जाता है. फरज़ाना अकेली है और बार-बार एक सवाल खुद से पूछती है कि “जो बसेरा छोड़ आई उसकी आस क्या? वहां तुझे समझने वाला कौन बैठा था?”लेकिन फरज़ाना की लड़ाई उन स्त्रियों जैसी लड़ाई नहीं है जो मुक्ति की तलाश में युद्ध की भंगिमाओं को अपनाकर खुद को अमानवीकृत पौरुष की उस आखिरी विकृति को निभाने की सज़ा सुना देती हैं जिसका एकमात्र परिणाम आत्महत्या जैसा विशिष्ट मर्दाना अंत है.[xi]फरज़ाना तनहा पर ईमान की जिंदगी का चुनाव करती है और सपना देखती है कि जुबैर बदल रहा है, जैसे आधी दुनिया बदल रही है.
कहानी ‘दिलआरा’ का कथानक विवाह संस्था के कई पहलुओं को लेकर चलती है, यथा इस्लाम में स्त्री को अपनी पसंद से शादी और मर्ज़ी से तलाक (खुला) का अधिकार है. बेवा साजदा बेगमअपना मदरसा चलाती हैं जो वहां के मौलवी के लिए खुली चुनौती है, पर साजदा अटल है. साजदा के पास दिलआरा अक्सर आती है और शरीयत के उसूलों को ध्यान से सुनती है. वह जमाल से विवाह करना चाहती किन्तु जमाल गरीब परिवार से है. दिलआरा का निकाह उसके माँ –पिता कहीं और करना चाहते हैं, लेकिन वह अपनी पसंद पर कायम है और शादी से इनकार कर देती है. जमाल की अपनी मजबूरियां हैं. वह दिलआरा से निकाह नहीं कर सकता और दिलआरा – जिसको वह पसंद नहीं करती, उससे शादी क्यों करे? कहानी इस टोन पर खत्म होती है कि किरदार अपनी कहानी खुद लिखेगा. कहानी का इथॉस एकदम घुटन के बरअक्स खुले आकाश में विचरण करना चाहता है और इस आज़ादी को वह वहीँ से हासिल करता है जब साजदा कहती है कि “जैसी रिवायत है कि हज़रत ख़दीज़ा ने खुद अपनी पसंद का इज़हार करते हुए पैगंबर से शादी की बात कही थी.”[xii]रिवायत यह भी है कि “पैगंबर साहब की एक बीबी असमा थीं. निकाह के बाद हुज़ूर अकरम उनके पास जाते, इससे पहले उन्होंने तलाक की ख्वाहिश ज़ाहिर की और उनकी मर्ज़ी का लिहाज़ कर हुज़ूर ने उन्हें खूलाह की आज़ादी दी.”[xiii]कहानी परम्परा के बहाने समकाल में पैर रखती है और मध्यवर्गीय परिवार की स्त्रियों के लिए स्पेस क्रिएट करती है. कहानी की सीमा है कि वह बागी होकर शरीयत के फ्रेम से बाहर नहीं आ पाती और उसी में प्रतिगामी ताकतों से लड़ने को मजबूर है. वह अपने इतिहास और स्मृतियों में ही जन्म लेती है और वहीँ चुक जाती है.
‘पुराना क़ानून’ कहानी मुस्लिम विधि के स्रोत और निर्वचन ‘इज्मा’ का अप्रत्त्यक्ष रूप से प्रवर्तन करती है, यथा “जब अनेक व्यक्ति जो मुस्लिम विधि में विद्वान हों तथा किसी प्रकार की विधि शास्त्रियों की श्रेणी को प्राप्त किये हों, किसी विशेष प्रश्न पर सहमत हों, उनकी राय बाध्यकारी होती है तथा विधि का बल रखती है. वास्तव में इस सम्बन्ध में पैगंबर मुहम्मद साहब की सुज्ञात परम्परा है कि, मेरे लोग गलती पर सहमत नहीं होंगे.”[xiv]
कहानी में नन्हे माली की बेटी अफसाना का फ़साना है. माली बिरादरी के एक लड़के शमीम से अफ़साना का निकाह होता है. शमीम छोटा-मोटा फ्लोरिस्ट है. उसका सपना है कि उसका अपना फूल कॉर्नर हो. अफ़साना फैशनेबल लड़कियों की तरह रहना सीखे पर अफ़साना की विडंबना है कि यदि वह ऐसा करती है तो उसे मोहल्ला, घर और माहौल तीनों को बदलना पड़ेगा और फिर मालिनों की बिरादरी में उसकी गुज़र कैसे होती? वह बदल नहीं सकती और शमीम उसके साथ निभा नहीं सकता. उसके फूल कॉर्नर पर रुबीना आया करती है. दोनों की मुलाकातें होने लगती हैं पर रुबीना से उसकी शादी असंभव है और अफ़साना के साथ बसर नामुमकिन. शमीम तिहरे तलाक का नोटिस अफ़साना के पास भिजवा देता है और खुद लापता हो जाता है. सारी बिरादरी इस शोक में शामिल है. अफ़साना अब तलाकशुदा है और बिना हलाला के वह शमीम के पास लौट नहीं सकती, यानी अफ़साना किसी और मर्द से निकाह कर उसके साथ रात गुज़ारे. फिर सुबह उसे तलाक लेकर शमीम से दोबारा निकाह पढ़वाया जाए.[xv]
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नासिरा शर्मा |
उधर शमीम इरफ़ान दर्जी शमीम को घर दमादू के रूप में स्वीकार चुके थे. बिरादरी के कहने पर शमीम की फोटो अखबार में छपवा दी गयी थी. अखबार में शमीम की तस्वीर देखकर इरफ़ान दर्जी सकते में आ जाता है. वह किसी तरह के कानूनी दाँव-पेच में नहीं पड़ना चाहता. मजबूरन शमीम घर लौट आता है. “बैठक शमीम के पिता लुबान के घर के सामने वाले चबूतरे पर बैठी. चाय पानी का खर्चा भी उन्हीं के मत्थे रखा गया. दोनों तरफ के लोग जमा हुए...लम्बे सवाल-जवाब के बाद फैसला सुना दिया गया, जो पहले से तय था कि शमीम अपनी लुगाई साथ रखेगा. यदि उसे पत्नी से शिकायत है तो जांच-पड़ताल की जायेगी. तब उसे शरी तौर पर तलाक लेने की मंजूरी मिलेगी वरना नहीं. चूँकि उसने न केवल शरीयत बल्कि माली रिवायत के विरुद्ध कदम उठाया है. इस जुर्म की सज़ा के तौर पर उसे पांच सौ रुपये बतौर जुर्माना अफ़साना को देना है और सारी बिरादरी से माफ़ी मांगनी है.”[xvi]
लब्बोलुबाब है कि शमीम के मिजाज़ की कमान टूटते टूटते टूट गयी और अब वह बाप की तरह तहमत पहन उसी की तरह सफ़ेद किरोशिया की जालीदार टोपी लगाए, साइकिल के पीछे बड़ा टोकरा बांधे गुलाबबाड़ी की तरफ़ जाता है और अफ़साना का दिल कई दिनों में जाकर मोम हुआ.
कहानी बिरादरी की पंचायत जो विभिन्न मुस्लिम स्थानीय उपसांस्कृतिक समूहों की विशेषता है, उसे भी साथ लेकर चलती है. इसे गंगा-जमुनी प्रभाव के चलते भी देखा जा सकता है, लेकिन पैगंबर साहब के द्वारा की गयी इज्मा की व्यवस्था अधिक अनुकूल जान पड़ती है.
लेकिन इस कहानी की सीमा है कि इसकी ‘अफ़साना’ शायरा बानो, इशरत जहाँ, गुलशन परवीन, आतिया साबरी और आफरीन रहमान की तरह जुझारू नहीं है, बल्कि पीड़िता पूरी तरह बिरादरी की रवायतों और उसूलों के सुरक्षा कवच में कमज़ोर साँसें लेती है. अफ़सानाओं की त्रासदी के कई डिसजॉइंट्स हैं. मैं इम्तियाज़ अहमदद्वारा सम्पादित पुस्तक ‘डाइवोर्स एंड रिमैरिज अमंग मुस्लिम्स इन इंडिया’में आनंदिता दासगुप्ताके लेख ‘बिटवीन टू वर्ल्डस: डाइवोर्स अमंग असमिया मुस्लिम्स ऑफ़ गोहाटी’का उल्लेख करना चाहती हूँ जो असमिया सन्दर्भ में इस्लामिक विवाह को कॉन्ट्रैक्ट की तरह स्वीकार नहीं करता. वह किसी भी तरह के निकाहनामे, मेहर की परम्परा के साथ अपने को जोड़कर नहीं देख पाता. विवाह को वह जीवनभर का रिश्ता मानता है. तलाक यहाँ इतना सामान्य नहीं जितना अन्य प्रान्तों में है. आसाम की ब्रह्मपुत्रा घाटी में तलाक-ए-बिद्दत प्रचलन में नहीं है, जबकि बराक घाटी के ना-असमिया मुसलमानों में तिहरा तलाक सामान्य है. बहु-विवाह भी इसलिए यहाँ प्रचलित है जबकि ब्रह्मपुत्रा घाटी में यह बुरी नज़र से देखा जाता है और इसे हतोत्साहित किया जाता है. घाटी में निकाहनामे पर दस्तख़त और मेहर बाँधने की रस्म तभी की जाती है जब लड़कियों का विवाह गैर-असमिया मुसलमानों के साथ संपन्न होता है.
बाहर विवाह होने की स्थिति में पढ़ी-लिखी लड़कियों की हालत भी ‘अफ़साना’ जैसी हो जाती है, यथा शमा सुल्तानगोलाघाट की रहने वाली हैं. मुंबई विश्वविद्यालय से उसने पोस्टग्रेजुएट किया. राहिल अली जो बिहारी मुस्लिम है, से उसका प्रेम विवाह हुआ. राहिल के तबादले होते रहते थे इसलिए उसने कोशिश करके किसी भी तरह अपनी पोस्टिंग पटना करवा ली. शमा संयुक्त परिवार में आ गयी. वह यहाँ के रस्मों-रिवाज़ से अनभिज्ञ थी. फिर उनके कोई संतान भी नहीं थी. धीरे-धीरे वह पारिवारिक हिंसा का शिकार होती गयी. उसका पति दूसरी शादी करना चाहता था. सौतन असमिया मुस्लिम स्त्रियों के लिए टेबू है. फिर तलाकनामे पर दस्तख़त लेकर और मेहर अदा करके पक्के मुसलमान की तरह राहिल उससे अलग हो गया. शमा अपने घर लौट आई.[xvii]स्ट्रेटीफिकेशन और पितृसत्ता में शमा और अफ़साना अपनी-अपनी तरह से अन्तः स्थापित हैं. क्या नए कानून, विधेयक पूरी तरह से इस देश की लड़कियों को न्याय दिलवाने में सक्षम होंगे?
इस संग्रह की लगभग सभी कहानियां शरीयत के इर्द-गिर्द घूमती हैं और स्थापित करती हैं कि, “जो औरतें पिछड़ी हैं, जिन्हें अपने अधिकारों का पता नहीं है, वे दुखी हैं. मर्द को बेलगाम अधिकार इस्लाम ने नहीं दिए. उसने औरत की कमजोरी के कारण धर्म के नाम पर बेलगाम अधिकार प्राप्त कर लिए हैं.[xviii]”
इस तरह इस संग्रह की सभी कहानियां परम्परा को संजोते हुए आधुनिक कलेवर में पाठक तक आती हैं और यही इस संग्रह की ताकत है.
सन्दर्भ