मानव सभ्यता ने जीवन को सुगम बनाने के लिए भाषाओं का निर्माण किया. भाषा ने कविता लिखी. प्रेम, मृत्यु, भय, सूर्य, नदी, पहाड़, प्रकृति, ईश्वर ये सब कविता में आकर संस्कृति बन गए. मनुष्य अभी भी कविताएँ लिख रहा है, वह भाषा और मनुष्यता बचा रहा है.
प्रेम आरम्भ है जीवन का और सृजन का भी. यह पूरी धरती से और उसके सबकुछ से लगाव का सबसे रचनात्मक और सशक्त प्रगटीकरण है. स्त्री- पुरुष का प्रेम किसी निर्वात में घटित नहीं होता है. इस प्रेम में इस सृष्टि का अधिकांश शामिल है.
प्रेमशंकर शुक्ल प्रेम के इस अधिकांश के कवि हैं. वह प्रेम को स्वाभाविक ऊंचाई देते हैं. एक उदात्तता जो मनुष्य होने की गरिमा का बोध कराती है. यह प्रेम घटित और पुष्पित तो देह के बीच होता है पर इसकी सुगंध की व्याप्ति दिगंत तक है. वह अनूठे और अनछुए बिम्ब लाते हैं, ये घर, जंगल और गुफा से उठाये गए हैं जो प्रेम की ही तरह मुलायम और मादक हैं.
प्रेमशंकर शुक्ल के शीघ्र प्रकाश्य प्रेम कविताओं के संचयन ‘राग-अनुराग’ से १४ कविताएँ आपके लिए.
प्रेमशंकर शुक्ल की प्रेम कविताएँ
अनावरण
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तुम मुझे चूमती हो
और मेरी प्रतिमा का अनावरण हो जाता है
देह में आत्मा झूलती है
और आत्मा में देह
चढ़ता-उतरता पालना
सुख है. नाभि के अँधेरे में
आनन्द का अतिरेक छलकता है.
तुम मुझे बरजती हो लाज से
लालित्य से मोह लेती हो
देह के जल से आत्मा भीज जाती है
आत्मा की आँच से देह
प्यार और पानी साथ ही आए हैं
पृथ्वी पर
आलोड़न, उमंग, तरंग तभी है दोनों में समतुल्य
हम भीगकर आए हैं जिससे थोड़ी देर पहले
पता नहीं धरती पर यह किस पीढ़ी की बारिश है
प्यार की भी पीढ़ियाँ होती हैं
हो सकता है किसी जन्म का छूटा हमारा प्यार
पूरे आवेग में उमड़ आया है अभी
और अपनी युगीन प्रतीक्षा को कर रहा है फलीभूत
प्रेम देह में
प्राण-प्रतिष्ठा है
प्यार की आवाजाही में हम
परस्पर का पुल रच रहे हैं
आत्मा और देह का कोरस
सुख के गीत में
नये रस
भरता चला जा रहा है!!