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मंगलाचार : महाभूत चन्दन राय






















पेंटिंग : Mahesh Balasubramanian


महाभूत चन्दन राय (1981, वैशाली, बिहार) पेशे से केमिकल इंजीनियर हैं और कविताएँ लिखते हैं. किसी युवा में जिस तरह के ‘एंटी – स्टेबलिसमेंट’ की हम उम्मीद करते हैं, वह यहाँ है. धर्म-सत्ता और राज्य-सत्ता इस परिवर्तनकामी – चेतना के निशाने पर हैं. ‘यह पानी का आपातकाल है’ कविता में बेहतर रचाव है. तीव्रता और तेवर के साथ अगर तैयारी भी हो तो कवितायेँ असर छोडती हैं. इस युवा के लिए आपका मन्तव्य मायने रखता है.

महाभूत चन्दन राय की कविताएँ                 



हमारे बगैर तुम ईश्वर

क्या खुदा..?
क्या खुदा..??
हमने खोदा
तो खुदा !
हमने  रमाया
तो  राम...राम...राम 
नहीं तो  मरा...मरा...मरा !
हमने तुम्हारी चर्चा की
तो तू चर्चों में
चर्चाओं में रहा
हमारे झुके सर ने ही
गुरु के द्वार को भी
बना दिया एक तीर्थ गुरुद्वारा

तुम्हारे लिए ही ईश्वर
हमने बेझिझक त्यागा मोह
हम सुख से निर्वासित बुद्ध हुए
हाँ तुम्हारे लिए ही
हमने भिक्षुकता को अपनाया
हम तुम्हारी खोज में
भटके है हजारो साल
और तुम लाट साहब की तरह रहे
अपने घर में नजरबन्द

हमारी श्रद्धा ही
तुम्हारा स्वाभिमान है
जब तक हम तुम्हारे भक्त
तभी तक तुम हमारे देव
हमारे होने में ही
तुम्हारा अस्तित्व है प्रभु
और तुम्हारे होने में
समाहित हम  !

हमने तुम्हे आसरा दिया
अपने देवालयों में
और दिया आध्यात्मिक सुख
तुम जो हमे
भौतिक सुख का एक चिथड़ा भी 
दे न पाए

हमने मठों में तुम्हारी अनवरत उपासना की है
हमने लामा होकर तुम्हे चुकाया
अपने इस जन्म का कर्ज
हाँ हमने श्लोकों में तुम्हे जपा है
सहस्त्रो बार !

हम तथागत हैं
तुम्हारे बोध और अभ्यास के बीच
गर इस ज्ञान की धुरी तुम
तो ये भी जान लो परमेश्वर
इस धुरी का भी निर्माण हम ! 

हमारी बंदगी के बगैर
तुम्हारा प्रभुत्व भी कंगाल
एक वीरान उजड़ पार्थक्य अज्ञातवास 
हमारी साधना
तुम्हारे भीतर का प्रकाश है प्रभु
और ये भी गूढ़ सत्य
हमारे भीतर का यथार्थ तुम !

हमारे बगैर तुम ईश्वर
निसंतान !
और तुम्हारे बगैर हम
एक बताह (मूर्ख)
एक दूजे के बगैर
भटकेंगे दोनों भक्त और भगवान्
तुम अपने ब्रह्म लोक में उदास
मै इस मृत्युलोक में कुंठित



अंतिम-इच्छा

मैं  किसी नए जन्म की कामना नहीं करता
मैं चाहता हूँ इसी जीवन में एक वृक्ष की भांति जन्मना
मैं वृक्ष का वेश और वृक्ष की वृति चाहता हूँ
मैं वृक्ष सी उदार विराटता और उसका सहिष्णु धैर्य चाहता हूँ
मैं वृक्ष-चित्त होकर इन शांति-दूतों सा विश्व में  शांति-सन्देश फैलाना चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ वृक्षों सा हरित आचरण !

मैं इन उज्जवल हिमशिखाओं से उतरती करुणामयी नदियों की काया चाहता हूँ !
मैं चाहता हूँ इन अविरल बेपरवाह बहती जलधाराओं का स्पंदन
जो किसी सरहद और दायरे को नहीं मानती
मैं नदी सी मानवीय समन्वयता की पोषक प्रवृति चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ नदियों सा संघर्षशील प्रवाहमय जीवन

मैं तपस्यारत पहाड़ों से वैराग्य का इच्छुक हूँ
मैं इन वज्रशिलाओं सी अडिग स्थिरता के सौंदर्य का अभिलाषी हूँ
मैं उन पहाड़ों सी निर्भयता और शौर्य चाहता हूँ !

मैं दरअसल पानी का स्वरूप चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ पानी सी अनाकार सहृदयता
मैं पानी सा साधारण जीवन-स्थिति चाहता हूँ
मैं चाहता हूँ पानी सी विरक्ति

मैं दरअसल कर्तव्यों, अधिकारों, उत्तरदायित्वों, उपेक्षाओं, असफलताओं, झूठी क्षमाप्राथनाओं, और क्षमाओं की क्षतिपूरक खानपूर्तियों से भरे इस बोझिल जीवन से ऊब चूका हूँ !
मैं लगातार मशीनी होती इस आधुनिक सभ्यता शैली से छुटकारा चाहता हूँ !
मैं मिटटी का यह तन ढोते हुए महज मिटटी नहीं होना चाहता और मरते हुए महज मृत्यु को पाना नहीं चाहता
मैं उस अलक्षित योनि में जन्मना चाहता हूँ….
जिसकी कोई प्रजाति-वर्ण-वर्ग-धर्म न हो
मैं चाहता भोर की मधुरम बेला में छत की मुंडेर पर चहचहाती गौरेया सा उन्मुक्त सा जीवन !
मैं चाहता हूँ किसी अपरिचित कविता के शब्दों में तृप्ति सा जन्म सकूँ !




यह पानी का आपातकाल है

यह पानी का आपातकाल है
जेठ  की एक तपती दुपहरी अपने घर में
बेरोजगार पड़ा है मरियल आकाश
और पानी की कमाई पर निकले मेघ
आज फिर से मायूस खाली हाथ ही लौट आये हैं
पृथ्वी का पानीदार कोठार सूना पड़ा है
प्रकृति बीमार पड़ी है विकास के कोपभवन में

पानी के तलघरों में छिन्न-भिन्न पड़े हैं
पानी के स्वप्नावशेष
पानी की आँखों से विलाप बन कर
झर-झर चू रहा है पानी का दुःख
महज खत्म नहीं हो रही झीलों जलप्रपातों
तालाबों बावड़ियों की जलराशियां
टूट रहे है हिमखंड और पिघल रहे है ग्लेशियर भी
पाताल का नीला सोना विलुप्त हो रहा है
विकास का जलभक्षी दैत्य लील रहा है पानी की दुनिया


समुंद्र के कमजोर पाँव उखड़ रहे है धरती से
नीले जलघरों के बाशिंदे
घुट-घुट कर पी रहे है काला धुँआ
नदियां अपने जलचरों को बाँट रही है झूठी सन्तावना 
चिंताग्रस्त पहाड़ अपनी ठुड्ढी पर हाथ टिकाये
दुःख में उकडू पड़े है !
पानी को प्यासे खग विहग सबकुल जन कर रहे हैं
त्राहिमाम..! त्राहिमाम..!

महज गिर नहीं रहा धरती का  ही  भू-जलस्तर
यह हमारे निर्लज्ज आँखों और ऊसर होते ह्रदयों से भी
रिक्त होते पानी का आपातकाल है !
हर तरफ पसरा हुआ है
पानी का गला सड़ा मांस
पानी की अकाल-मृत्यु पर
शोकमग्न है सम्पूर्ण धरती

यही समय पृथ्वी- वासी दण्डित करे उसे
जिस अघोरी ने पानी का रक्त पीया
आओ पोंछे पानी के आंसू
अन्यथा एक दिन दुनिया में सिर्फ बचेगी प्यास !



गणतंत्र-बोध

हमारे युगनायकों ने अपने क्रान्तिबोध से
पालपोषकर अपने पैरों पर खड़ा किया था जिस गणतंत्र को
वो गणतंत्र किसी अस्वस्थ चौपाये की तरह पछाड़ खा कर गिर पड़ा है
जिसे अब महज नारों आंदोलनों अनशनों और धरना प्रदर्शनों से
खड़ा नहीं किया जा सकता
इस गणतंत्र की रीढ़ टूट चुकी है
पस्त हो चुका है इसका स्वावलंबन

हम जिस लोकधर्मी सर्वहारा गणतंत्र को जानते थे
उस जन-वादी  गणतंत्र को एक वर्गीय निष्ठां का हैजा हो चुका है
विकृत हो चुकी है इस गणतंत्र की परिभाषा
इस गणतंत्र में व्याप्त गण-बोध लगभग मृत हो चुका है
जिसे अब झूठे आदर्शों  अंधे दृष्टिकोणों और खोखली तसल्लियों की
बैसाखियों के सहारे और हांका नहीं जा सकता !

वह गणतंत्र जिसकी सम्मोहक परिभाषा हमारे अंत:करणों को
अपने  नशीले गणतंत्र-बोध से सम्मोहित रखती थी
उसमे स्वभावगत विद्यमान लोक-भाव का नैतिक हास हो  चुका है
यह गणतंत्र अब मुट्ठी भर अभिजात्य और कुलीन समुदायों का
बोझारु खच्चर भर बन कर रहा गया है
गड़बड़ा गए इसमें निहित  सामाजिक  निर्माण के रचनात्मक सूत्र
जिसकी पीठ पर इस बीमार समय को लादकर 
और ढोया नहीं जा सकता !
इस गणतंत्र को जरुरत है
नए सैद्धांतिक पक्षों विरोधाभाषों प्रतिरोधों और नयी  परिभाषाओं की !

बस वही नहीं है गणतंत्र की
संविधान-निर्माण की एक पुण्य-तिथि पर
हमारा गणतांत्रिक दायित्व-बोध सांस्कृतिक जुलूसों और झांकियों से दिग्भ्रमित
बरसाती मेंढकों की तरह कुलांचे भरता है
और लालकिले की प्राचीर से तिरंगा फहराते हुए हमारे अभिभाषणों में
जिसका गौरवान्वित जिक्र होता है  
वह भी गणतंत्र है  छूटी हुई अनुगूंजों का कटोरादान
जिसे अपने नन्हे कोमल हाथों में लिए राजपथ पर एक बच्चा भीख मांगता है
वह भी गणतंत्र है संविधान की साख पर झूलती वीभत्स  स्त्री-दशा का  मांस-पिंड
जिसके शोक का मर्सिया हमारे गणतंत्र से अनुपस्थित है
वह भी गणतंत्र है लूट हत्या भूख बेरोजगारी के अर्धसत्यों का संदिग्ध प्रायश्चित बोध
सेकुलरिज्म के तमाम दावों और प्रतिदावों के बीच दंगों को कुरूप यथार्थ  !
वह भी गणतंत्र है हमारे दायित्वों का चोर दरवाजा
जिसकी आड़ में क्रान्ति का मुखौटा पहने  रोज कोई न कोई बहरूपिया
आंदोलनों का स्वांग रच हमे कठपुतलियों की तरह इस्तेमाल करता है 

दरअसल हमारे युग का सारा  गणतंत्र-बोध झूठा है
इस गणतंत्र को नए अधिनायकों की आवश्यकता नहीं है
इस गणतंत्र को जरुरत है नयी पुनर्व्याख्याओं नयी समीक्षाओं नए तथ्यपरक बुनियादों की
इस गणतंत्र के नए खतरे है

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इस  गणतंत्र की नयी चुनौतियां हैं !
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