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परख : नरेन्द्र पुण्डरीक : लोकचेतना और इतिहासबोध : सुशील कुमार
















समकालीन महत्वपूर्ण कवि नरेन्द्र पुण्डरीक के चार कविता संग्रह – ‘नगें पाँव का रास्ता’ (१९९२), ‘सातों आकाशों की लाडली’ (२०००), ‘इन्हें देखने दो इतनी ही दुनिया’ (२०१४) तथा ‘इस पृथ्वी की विराटता में’ (२०१४) प्रकाशित हैं. नरेन्द्र पुण्डरीक ने केदारनाथ अग्रवाल के साहित्य पर आधारित नौ पुस्तकों का संपादन भी किया है.

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में लोकचेतना और उनके इतिहास बोध पर सुशील कुमार का यह आलेख हिंदी कविता की प्रचलित प्रगतिवादी सौन्दर्य चेतना से मार्क्सवादी सौन्दर्य-दृष्टि के बहस का परिणाम है.     





नरेन्द्र पुण्डरीक : लोकचेतना और इतिहासबोध   
सुशील कुमार



रेन्द्र पुण्डरीक नब्बे के दशक और इक्कीसवीं सदी के एक ऐसे ही वरिष्ठ लोकधर्मी कवि हैं जिनकी कविताओं के लोक का द्वन्द्व और संघर्ष उनके सच्चे "इतिहास-बोध"से पैदा हुआ है. वे केदारबाबू की धरती बांदा (ऊ.प्र.) के रहने वाले हैं. उन्होंने न केवल केदारबाबू की काव्य परम्परा को एक नई शक्ल और शिल्प दिया है, बल्कि उसका बहुत प्रसन्न विकास भी किया है.

यह देखने वाली बात है कि कविता में बिना इतिहास-बोध के लोकचेतना आ नहीं सकती. तब वह लोक के बजाए फोक (folk) की चेतना हो जाती है. इतिहास-बोध ही कवि के अंदर वर्तमान परिवेश के प्रति द्वन्द्व को जन्म देता है. वर्तमान और भूत के इन्हीं अनुभवों का संस्कार नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में पाया जाता है. आइए, नरेन्द्र जी की कविताओं के इतिहास बोध को समझने के लिए इनकी एक कविता 'घर मर जाते हैं'देखते हैं -

"कितना सच है
महमूद दरवेश का यह कहना
जब रहने वाले कहीं और चले जाते हैं तो
घर मर जाते हैं.

मैं सोच रहा हूँ
ऐसे ही बिना किसी युध्द के
एक भी कतरा खूंन का गिराये
हमने छोड़ दिया
मरने के लिए घर को.

मुझे लगता है जीवित नहीं बचे हम
उसी दिन से शुरु हो गया था
टुकड़ों-टुकड़ों में हमारा मरना,

न यहां बेरुत है
न इज़़राइल
न ताशकन्द
न तेहरान
न बगदाद
पर चालू है घरों का मरना
बिना टूटे दीवारें उसांसें लेती हैं
बंद ताले लगें दरवाजों को देख
बिल्लियां देती हैं बद दुआयें
कुत्ते नाम को लेकर रोतें हैं
जब घर मरते हैं.

युध्द से लड़े जूझे घरों में
लोग लौट आते हैं
हाथों से पोछते हुये
बन्द खुले किवाड़ों के आंसू,

जिन घरों को दीवालें
मानकर छोड़ दिया जाता है
उन घरों में कभी नहीं लौटते लोग
कितनी भयानक होती है घर की मौत
छूटते घर की गोहार सुन
सबसे पहले उसकी दीवारें हदसियाती हैं
जिनसे कभी तनी थी छाती."

इस कविता में घर केवल घर नहीं, यह जितनी संज्ञा है उतना ही विशेषण. जितना अर्थगर्भी प्रतीकों का समुच्चय  है, उतना ही सघन बिम्बों का सपुंजन. घर के मरने की समाजशास्त्रीय विवेचना हमें  विकसित होती मानव सभ्यता के उन जायज सवालों से जोड़ती है जो उसके छीजते सुख-संस्कार, सौम्यता, आदि के साथ विघटित होती मानवीयता को व्यापकता से प्रदर्शित करती है और हमारा मुठभेड़ कराती है. बिना युद्ध किए , बिना एक कतरा खून बहाए हम घर को मरने के लिए छोड़ कर कहीं चले जाते हैं. यह कितनी बड़ी सामाजिक त्रासदी है! विस्थापन की यह प्रक्रिया निरन्तर हमारे जीवन में चलता रहता है. हम कथित विकास के अगले  पायदान पर कदम रखते जाते हैं. घर को छोड़ने का विकास फल  यह होता है कि टुकड़ों-टुकड़ों में हमारे मरने का सिलसिला चालू हो जाता है .

आप महसूस करेंगे कि नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में सघन ऐन्द्रिक बोध है जिसमें उनकी दैनंदिन मुहावरे का भी बड़ा महत्व है. यह मुहावरे कविता में आकर समकालीन युगबोध और सामाजिक चेतना को बड़े सलीके से प्रकट करते हैं-

'बिना टूटे दीवारें उसांसें लेती हैं
बंद ताले लगे दरवाजों को देख
बिल्लियां देती हैं बददुआयें
कुत्ते नाम को लेकर रोतें हैं
जब घर मरते हैं'

देखने वाली बात है कि इन पंक्तियों में घर का मानवीयकरण कवि ने बड़े ही काव्यकौशल से किया है. दीवारों के उसाँसे भरना,  बिल्लियों की बद दुआएँ और नाम लेकर कुत्तों का रोना - इन मुहावरों ने घर के मृत्युशोक की सम्वेदना को न केवल आंखों के सामने साक्षात किया है, बल्कि वह  स्थानिकता के रंग-ढंग में ढलकर इतनी सजीव हो उठी है कि परिवार नामक संस्था के टूटने की व्यथा को अपनी पूरी सामाजिक भंगिमा और दारुणता में कवि व्यक्त करता है.  महानगरीय सुख-सुविधाओं की मृग-मरीचिका में हम अपने गांव-घर से पलायन को मजबूर हैं. यह सामाजिकार्थिक करुण दृश्य आज हर सभ्यता का सच बन गया है जो कविता में कवि की अनुभूति को वैश्विक बनाता है.

कह सकते हैं कि नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं का इतिहास बोध उसकी इतिवृत्तात्मकता से मिलकर एक अपूर्व नाटकीय संवेग (मोमेंटम) पैदा करता है. यह लोकचेतना का नवीन आयाम है जिसे उनकी प्रायः हर कविता में शिद्दत से महसूस किया जा सकता है.

कवि जब कविता में कोई कथाक्रम रचता है तो वहां इतिहास-बोध की बहुत जरूरत होती है. यही इतिहास-बोध उसे युगबोध में बदलता है वरना कविता केवल समय का बयान भर बनकर रह जाती है. इस फन में नरेन्द्र का कवि बहुत माहिर हैं. वह कविता में कथाक्रम रचते हुए उसे विष्णु खरे की कविताओं जैसी बोझिल, लद्धड़ गद्य कविता की सीमा तक नहीं जाते. उनमें लय और कला-सौष्ठव का पूरा ध्यान रखते हैं.

नरेन्द्र जी की एक कविता है - 'पढ़ानें वाले मास्टर गद्दार थे'.शीर्षक जैसा है, वैसा उसका भाव नहीं. यह शीर्षक की आकर्षक अभिव्यंजना है,  समय की विद्रूपता पर प्रहार है.  मास्टर गद्दार थे, मतलब समय की पहचान की शिक्षा उसने विद्यार्थियों नहीं दी थी, बल्कि आने वाले समय की विद्रूपता की समझ सभ्यता के निर्मित मनुष्यों में गौण-क्षीण हो गई थी जो इस कविता का मुख्य प्रेय है. इसे बिगड़ते समय पर एक  करारा चोट के तौर पर देखा जा सकता है. इसकी कुछ पंक्तियों से कवि की इतिवृत्तात्मक बुद्धि  को कवि की शैली में समझा जाना चाहिए -

"यह वह समय था
जो हम देखते थे वह हमें बनाता भी था"

_

"कालेज से निकल कर जब हम
बाहर आये तो देखा कि
बेराजगारों की यह लाइन और लम्बी हो चुकी थी
जहां मैं अपने साथियों सहित
निचाट लपलपाती धूप में खड़ा था
निचाट धूप में खडे़ हुये
मुझे पहली बार लगा कि
जो किताबों में पढ़कर आये थे
वह एक धोखा था और
पढ़ाने वाले मास्टर गद्दार थे
जो लिखे को उल्था करते हुये
हमें कभी समय की इस धूप के बारे में नहीं बताया था
जो हमारें सपनों के रंगों को सुखाने के लिए
बाहर तैयार हो रही थी."

पूरी कविता इतिहास बोध से युगीन तत्वों का सत्व ग्रहण करती है और उसे काव्यात्मक कलेवर में रचती हुई उस इतिवृत्ति में खुलती है जिसका प्रसार लोक के उन नवयुवकों की बेरोजगारी के सामयिक चेतना से होता है जो आज का कटु सत्य है, जिसकी थाह कवि ने चेतस ऐन्द्रिक राह से गुजरकर ली है. बड़ी बात यह है कि आज की गद्य कविता की तरह यह प्रयोजनहीन और नीरस नहीं. साथ ही कथानकों में न तो शब्दों की वाचालता है, न भावों का फूहड़पन. कविता की इतिवृत्तात्मक शैली बोलचाल की भाषा का वरन करती हुई कवि की ऐन्द्रिक सजगता के साथ उसके लोकमन को समय की गहनता में व्यक्त करती है.

इसलिए नरेन्द्र पुण्डरीक के कवि का इतिहास-बोध जिन युगीन समस्याओं से कविता में टकराता और रचनाव्यूह की उत्पत्ति करता है,वह उनकी प्रखर इंद्रियबोधात्मक काव्य-मेधा के कारण सम्भव हुआ जान पड़ता है. इनका लोक द्वन्द्व जीवन का लोकद्वंद्व है जिसमें युगीन चेतना का संस्कार बहुत सलीके से फलित हुआ देखा जा सकता है.

हमने प्रायः उनकी सभी कविताओं में देखा है कि उनकी कविताओं में इतिहास-बोध का जो तत्व है, वह युग-बोध का प्रतिनिधित्व करता है. इसी इतिवृत्तात्मकता और गहन जीवनानुभव के गुण के कारण समकालीन लोकधर्मी कविताओं की दुनिया में ये कविताएँ अपनी एक अलग पहचान बनाती हैं.

अब मैं उनकी कविताओं की जनपक्षधरता की बात करूंगा कि जन का पक्ष लेते हुए वह कलावादी कविताओं से कैसे अलग है. जब तक कवि का ध्यान कविता के ‘कंटेन्ट’ पर न होकर उसकी कला पर होता है, तब तक उसकी कविताएं जन का पक्ष  नहीं ले सकती क्योंकि उसमें कवि का श्रम कविताओं के कंटेन्ट पर जाने के बजाए उसकी कला पर जाता है. कवि के अंदर यह धारणा और पसीना कहीं न कहीं उसके भीतर गुप्त पूंजी की धारणाओं और उसके स्वार्थगत सुख-स्वप्न से फलित होता है. इसी कारण कलावादी कवि की आत्मा अपने कविता-कर्म को निरपेक्ष सामाजिक धर्म मानने से चूक जाती है, गोया कि वह व्यक्तिगत यशोगान के लिए कला की ओर मुड़ती है. उसकी इस लिप्सा में बाजार उसका पूर्ण सहयोग करता है. बाजार का सम्पूर्ण अस्तित्व ही संप्रति जीवन-जगत के उन क्रिया-व्यापारों से साबका रखता है जो मनुष्य की हर कला, चिंतन और अंतरंगता को बेच सके. इनमें प्रेम सहित वे सारी चीजें शामिल हैं जो बाजार की वस्तु बन और बिक सके. पर यह भी उतना ही सच है कि सच्ची कला और कविता सदैव बाजार के विरोध में अभिव्यक्त होती रही है. उसका जुड़ाव मनुष्य के हृदय से हैं, उसके खालिस मन से नहीं. वह मनुष्य की भावनाओं पर कभी बलाघात नहीं करता, बल्कि उसे रचता और समृद्ध करता है. इसलिए बाजार उन भावनाओं का तिरस्कार करता है.

नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताएँ अपने समय का जो लोक रच रही हैं , वह बाजार के विरुद्ध खड़ी है और जन के पक्ष में वकालत करती है, उसमें कला या फैटेसी का कोई आग्रह नहीं. कवि से कला का जो क्षण अनजाने में छूट जाता है, वह ही उनकी कविता में कला के रूप में प्रकट होता है. इसे ही हम कला हीन कला (artless art) कहते हैं जो जनवादी कविता को द्युति प्रदान करती है. 

कविता में जनपक्ष से उसके कलापक्ष की तुलना करने के लिए हम यहाँ एक कलावादी कवि उदय प्रकाश की कविता ‘राजधानी में बैल’ सीरीज से लिखी छः कविताओं का तुलनात्मक अध्ययन नरेन्द्र पुण्डरीक की “लाली” की कविताओं से करना चाहते हैं. लाली नरेन्द्र जी के बैल का नाम है.  उदय प्रकाश जी का बैल गाँव से शहर  पहुँच चुका है. दोनों की कविताओं का पाठ करें तो आप पाएंगे कि उदय प्रकाश जी के चौथे संकलन ‘भाषा जो हुआ करती है’ में ‘राजधानी में बैल’ सीरीज की छह कविता हैं.          

ख्यात आलोचक स्व. परमानंद श्रीवास्तव इसे उदय प्रकाश जी की काव्य-क्षमता और वस्तुगत नवीनता के विस्तार का साक्ष्य मानते हैं और कहते हैं कि -
“गहरी ऐंद्रिकता के कारण उदय प्रकाश के लिए राजधानी में बैल की उपस्थिति एक बड़ी दुर्घटना है.
'बादलों को सींग पर उठाए /खड़ा है आकाश की पुलक के नीचे / एक बूंद के अचानक गिरने से / देर तक सिहरती है उसकी त्वचा / देखता हुआ उसे / भीगता हूं मैं / देर तक!' आगे-
'उसकी स्मृतियों में अभी तक हैं खेत /  अपनी स्मृतियों की घास को चबाते हुए / उसके जबड़े से बाहर कभी-कभी टपकता है समय/झाग की तरह / . . .
यह संकेत है कि उदय प्रकाश की विश्वदृष्टि से 'चारागाह''‘ढेला’  ‘पितर-पुरखे'ओझल नहीं हैं. कविता हमारे समय में एक साथ वैश्विक और स्थानीय है.”

परमानंद श्रीवास्तव ने कविता के नए (पाश्चात्य) प्रतिमानों को प्रमोट करने की दिशा में इन कलावादी कवियों की संवेदना की नवीनता पर जो आलोचना की है, उसके पुनर्पाठ के साथ-साथ इन कविताओं के भी पुनर्पाठ की गहरी जरूरत महसूस होती है. बैल-शृंखला की इन कविताओं को खुद ध्यान दें तो आपको पता चल जाएगा कि नामवर आलोचकों ने कविता को देखने की कितनी स्थूल और अवैज्ञानिक प्रविधि अपनाई है. यह भारतीय चित्त को बिना समझे पाश्चात्य काव्य-कला का अंधानुकरण ही कहा जाएगा, जिसमें हर वस्तु या उपागम मनोरंजन-सिक्त है यानि कि,बारिश की अचानक एक बूंद के गिरने से बैल की मोटी त्वचा देर तक सिहरती है. यह पुलक कहाँ है ? उदय प्रकाश  ने ‘आकाश की पुलक’ के नीचे बैल को लाकर खड़ा कर दिया है. बैल पहली कविता में बादलों को सींग पर उठाए हुए है तो दूसरी कविता में आकाश को, तीसरे में सूर्य बैल के सिंग पर उतरता है. शब्दों की बातुनीगिरी यहाँ तक है कि कवि बैल, आकाश और पृथ्वी को अपने छोटे से एक छाते से ही भींगने से बचाना चाहता है. राजधानी में बैल की उपस्थिति को डॉ. परमानंद श्रीवास्तव एक दुर्घटना मानते हैं (क्योंकि उसे गाँव और खेत में होना चाहिए, जबकि वह शहर में पड़ा है). पर कविता में यह कितना विरोधाभास है कि खेत की ओर लौटने के अभिप्सु बैल को कवि बारिश से बचाना चाहता है जहाँ उसकी लौटने की अदम्य चाह होगी!
कवि के ही शब्दों मे, ‘पितरों – पुरखों के गाँव की ओर / जहाँ नहीं बचे हैं अब चारागाह / या फिर कनॉटप्लेस या पालम हवाई अड्डे की दिशा में / जहाँ निषिद्ध है सदा के लिए / उसका प्रवेश. (बैल-6)
‘उसके कानों में गूँजती रहती है / पुरखों के रँभाने की आवाज़ें / स्मृतियों से बार-बार उसे पुकारती हुई उनकी व्याकुल टेर’ तो फिर कवि क्यों यह कहता है कि ‘मेरा छाता / धरती को पानी में घुल जाने से / बचाने के लिए हवा में फड़फड़ाता है’.
एक ओर, बैल की त्वचा पर गिरी एक बूंद देखता हुआ कवि स्वयं देर तक भींगता है तो दूसरी ओर वह धरती को भी जल-सिक्त होने से बचाना चाहता है. प्रत्युत्पन्न विरोधाभास कविता के संवेदन-सृजन में कवि की भारी भूल की ओर संकेत करता है जो डॉ. परमानंद श्रीवास्तव जी को दृष्टिगत नहीं हुई. अब तक उदय प्रकाश ने कविताओं में यही किया है. संवेदना की आधुनिकी की सृष्टि में वे इतना खो जाते हैं कि उनकी संवेदना ज्ञानात्मक और विवेकी होने से चूक जाती है. ऐसा क्यों होता है ? उत्तर स्पष्ट है - कवि की आभिजात्य प्रवृत्ति कविता पर भारी पड़ती है जो उनकी संवेदना को तहस-नहस कर देती है. इस कारण कला के अंतिम (तीसरे) क्षण तक आते-आते कविता दम तोड़ देती है.

इस प्रसंग में आप इसी बैल पर 'लाली'-  सीरीज से लिखी नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं को देखें. ये भारतीय चित्त की अनुपम कविताएँ हैं. लाली -1 कविता में कवि कहता है –

“लाली !
लाल था उगते सूरज की तरह
वैसे ही ताजा दम
धुले हुए मुख की तरह
उसके सींग धरती के
राजा के मुकुट की तरह थे
सिर पर वैसे ही दीप्त हो रहे थे,

उसके कंधे दुनिया के
बेमिशाल कंधे थे
इस धरती का हर राजा
उसके कंधों पर मुग्ध
और सींगों से भयभीत था

उसके चलने से
खुरों की रगड़ से
धरती रज बनती थी,
जब वह अपनी चाल से
होता था सूरज के घोड़े
उसे रास्ता देकर
उसके कंधों को हिकारत से देखते थे
देर तक लाली की
उठी हुई पूंछ.”


‘लाली’ सीरीज की यह पहली कविता ही गौर करने से पाठक इस बात को समझ सकते हैं कि नरेन्द्र पुण्डरीक का बैल गाँव में है, खेत में है. वह उदय प्रकाश के बैल की तरह राजधानी में नहीं है. किसी शहरी वस्तु का देहात में होना या देहाती चीज का शहर में होना महज संयोग होता है जो प्रकृति में विरल होता है, पर जब कवि का उद्देश्य ही चमत्कार और फैंटेसी के माध्यम से पाठक को विस्मित करना हो तो वह कविता का कंटेन्ट उसी घटनाक्रम या कथाक्रम को बनाता है जिसकी अंतर्वस्तु पाठक में कोई स्थायी भावबोध के सृजन के बजाए उसे केवल चौंकाए. ऐसा वह इसलिए करता है क्योंकि इन कृत्रिम संवेदनाओं का खरीदार पूरा बाजार है जो कवि से न केवल ऐसी कविताएँ लिखवाता है, बल्कि उसे खरीदवाता भी है.

नरेन्द्र की लाली सीरीज की कविताओं में एकनिष्ठ भारतीय चित्त है जहां न कोई रोमांच है न पुलक. उदय प्रकाश का बैल पहली कविता में बादलों को सींग पर उठाए हुए है तो दूसरी कविता में आकाश को, तीसरे में सूर्य बैल के सिंग पर उतरता है. पर नरेन्द्र के बैल का सींग धरती के राजा के मुकुट की तरह हैं जिनसे राजा भी भय खाता है. यह बड़ी बात है क्योंकि राजा भी उस स्वाभिमान से डरता है. उसके चलने और उसके खुरों की रगड़ से धरती का जुतना श्रम-सौंदर्य की अनुपम अभिव्यक्ति है. यहाँ सूर्य के लिए लाली बैल न होकर उस घोड़े की तरह हैं जो दिन के उठान पर दीप्त हो जाते हैं. यही है कविता का जनवादी सौंदर्य.

कवि का इतिहास-बोध केवल उसके अध्ययन से नहीं बनता. इसमें उसके जीवन के वे अनुभव व अनुभूतियाँ भी शामिल होती हैं जिसे वह अपने कठिन परिश्रम और सजगता से उपार्जित करता है. किन्तु जिस कवि में वर्ग-चेतना का विकास नहीं होता, उसका इतिहास-बोध छिछला या सतही होता है.

गौर करें तो आप पाएंगे कि कवि के स्वयं के जीवन के संघर्ष से ही कविता के रूपकों और बिम्बों की निर्मिति होती है. कवि ने जीवन के यथार्थ को जिस रूप में भोगा-जिया है, उसी का रचना में प्रतिबिंबन होगा. मसलन, उदय प्रकाश की कविताओं में अगर रूपक और बिम्ब पात्र-जीवन की भावदशाओं को वास्तविक रूप में व्यक्त नहीं करते तो इसका क्या मतलब है ? वह केदारनाथ सिंह की तरह कहन में दार्शनिक अधिक हो उठते हैं. उसी प्रकार एकांत श्रीवास्तव और अरुण कमल लोकजीवन को कविता में लाते तो जरूर हैं , पर बिम्बों की लड़ियाँ रचकर उसे लोक के नए रूपवाद की ओर धकेल देते हैं.  विजेंद्र भी कहीं न कहीं श्रम-सौंदर्य का एक आभासी संसार ही बनाते हैं. वह  कवि के रूप में इतने 'पोएटिक'होते हैं कि जीवन की सच्चाई से कट जाते हैं, उससे श्रम के बिम्बों का जाल बुन देते हैं. उसी प्रकार आलोक धन्वा कविता के 'पोस्टर ब्यॉय'बनकर रह जाते हैं. उनके यहाँ कविता केवल कथन बनकर रह जाती है. आखिर ऐसा क्यों होता है ?, इस सवाल पर गम्भीरता पूर्वक मनन करने की जरूरत है. उत्तर यही है कि इनकी कविताओं में वर्गचेतना या तो एक सिरे से गायब है या बनावटी है. इन्होंने जो जीवन जिया है , उसका एक 'क्लोज्डसिंड्रोम'ही इनकी कविताओं में दृष्टिगत होता है. वह अवचेतन मन की आँख से लोकचेतना को देखते हैं. फलतः इनके बिम्ब और रूपक लोकधर्मी होने के बजाय लोकरंजक हो जाते हैं. यही इनकी और उन कवियों की काव्यात्मक संरचना में सूक्ष्म अंतर है  जिनका अपना जीवन उनके काव्य-जीवन अलग  है. इसलिए इनमें वर्गसंघर्ष बहुधा गायब होता है.   

लेकिन नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं की वर्गचेतना उपयुक्त कवियों से भिन्न और जनसंघर्ष से लबरेज है. ऊपर'लाली'सीरीज की पहली कविता से हम रूबरू हुए थे. 'लाली'कवि नरेन्द्र जी के उस बैल का नाम है जिसे उनके पिता ने अपने घर लाया था. इस सीरीज में सात कविताएं हैं. इन कविताओं में मनुष्य का पशु-प्रेम बहुत मार्मिक ढंग से प्रकट होता है -

‘बीस साल कम नहीं होते
इतने साल में तो एक लड़की
किसी से भी प्रेम करने को
स्वतंत्र हो जाती है,
लाली बीस साल तक
कातता रहा
हमारे सपनों के धागे, ' (अंश-कविता लाली-3)
           
पशु के प्रति इस मानवीय प्रेम में उसके श्रम का आदर उसके घनत्व को और भी बढ़ा देता है-
‘लाली! पूरा बैल था
पूरे तीस मन लादकर
अपने जोड़ीदार से
दो फुट आगे चलता था,
लाली जैसा था
वैसा पूरी पसगैयत का
अकेला बैल था'(अंश-कविता लाली 4)

फिर, पशु में प्रत्यारोपित मानवीय गुणों के बखान को स्वयं में ढालकर कवि कविता के अभीष्ट को सिद्ध कर देता है-

'मैं लाली होना चाहता हूँ
मैं दिखना चाहता हूँ
वैसा ही सुन्दर औ सुडौल
धरती को
वैसे ही जोत कर
पाना चाहता हूँ खुशी
मैं लाली होना चाहता हूँ.' ( अंश: कविता लाली 7)

आप महसूस कर सकते हैं कि कवि की श्रम के प्रति आस्था का यह स्वर धरती को धन-धान्य बनाने की दिशा में कितनी लोचदार, संवेगात्मकसम्वेदना से युक्त है!  कवि का बैल उसके परिवार का सदस्य हो गया है. बैल के गुजर जाने पर उसकी यादें कवि के जीवन में उसी तरह विद्यमान रहती हैं, जैसे कोई अपना चिर-परिचित या घर के सदस्य के चले जाने पर होता है. यह सम्वेदना जितनी भावात्मक है, उतनी ही समकालीन परिप्रेक्ष्य में जरूरी, जब पशुओं के प्रति मानवीय अत्याचार बढ़ गए हो! सभ्यता जब बनैले पशुओं की असभ्यता से भी ज्यादा हिंस्र हो गई हो तो इन कविताओं का महत्व बढ़ जाता है-
"लाली नहीं है
उसकी याद है,
हमारे सपनों में
रंग है हमारे सपनों में
उसके भरे हार-पतार में
अब भी उसकी
मेघ-ध्वनि हैं
जो सुनी जा सकती है,"( लाली 5 का कवितांश)

इस तरह की कविताएं कवि अपनी “भ्रांत चेतना”  से नहीं लिख सकता . "मार्क्सवादी विचारधारा के अंतर्गत “भ्रांत चेतना” (False consciousness) को ऐसी अवस्था माना जाता है जिसमें सर्वहारा वर्ग को स्वयं यह ज्ञात नहीं होता कि उसके हित वास्तव में किस राजनीतिक दल-समूह, विचारधारा से जुड़े हुए हैं और इतिहास में उसकी वास्तविक भूमिका क्या है. वे ऐसी विचारधारा के प्रभाव में रहते हैं जो उनके हितों के विरुद्ध होती है. 'भ्रांत चेतना'पैदा करके शासक वर्ग सर्वहारा के उत्पीड़न और शोषण की स्थितियाँ बनाये रखता है और सर्वहारा स्वयं उस शोषण को सही मानने लगता है. किसी भी दौर के शासक वर्ग के विचार ही शासक-विचार होते हैं यानी सत्तारूढ़ वर्ग के विचार ही सर्वाधिक प्रभावशाली विचार बन जाते हैं. इस सामाजिक चेतना तथा प्रभावशाली विचारों का संबंध भी भ्रांत चेतना से है क्योंकि सर्वहारा निजी चेतना के विकास के स्थान पर शासक वर्ग द्वारा विकसित चेतना को अपना लेता है. मार्क्स के अनुसार यह थोपी हुई अर्थात् झूठी चेतना होती है. कालांतर में सर्वहारा यह समझने लगता है कि सत्तारूढ़ वर्ग ने वास्तविकता के प्रति जो चेतना पैदा की है, वह उनके वर्ग हितों के अनुरूप नहीं है और फिर भ्रांत चेतना के स्थान पर वास्तविक वर्ग-चेतना पैदा हो जाती है." (विकिपीडिया से)

उदय प्रकाश की बैल सीरीज की कविताएं इसी भ्रांत चेतना का प्रतिफलन है. उसमें शासक वर्ग द्वारा विकसित चेतना को अपनाकर बैल सीरीज की कविताएं लिखी गई हैं जबकि नरेन्द्र जी की लाली सीरीज की बैल पर कविताएं वर्गचेतना का अनूठा उदाहरण है.

अब नरेन्द्र पुण्डरीक की कविताओं में प्रयुक्त  बिम्बों और रूपकों पर भी थोड़ा विचार कर लें. इनके रूपक के द्वारा रचित बिंब की एक महत्वपूर्ण कविता साँड़ सीरीज की है. यह पांच खण्डों में है. 

साँड़ रूपक दो असमान तथा स्वतंत्र इकाइयों में अंतर्मूत साम्य को प्रत्यक्षीकृत करता है.  एक प्रकार की गद्यात्मक या नीरस समानता या तुलना से आगे बढ़कर साँड़ रूपक पूँजीवादी-फासीवादी ताकतों के साथ एक ऐसा तादात्म्य उपस्थित करता है, जिसमें कवि के द्वारा अमरीकी/ पूंजीवादी कार्य-व्यापारों का देसी साँड़ से समेकन (फ्यूज़न) कराकर एक नयी छवि उभारने की कोशिश की गई है, जिसमें दोनों ही पदार्थों या कार्य-व्यापारों की विशिष्टताएँ समाहित होती हैं. दोनों के बीच की यह तुलना तर्कपूर्ण हैं जिसमें बौद्धिकता से उठाये गये प्रश्र उसके सौंदर्य को समाप्त कर देंगे. 

साँड़ का एक सुंदर बिम्ब सृजित कर कवि का अभिप्रेत पाठक तक पहुँचता है. इस प्रकार 'साँड़'रूपक अपने चतुर्दिक एक पूँजी पोषित सत्ता के पूंजीभूत प्रकाश-वृत्त उत्पन्न करता है, जिसके प्रकाश में कवि की वर्गचेतना और वर्गसंघर्षपूर्णत: भाषित हो उठता है. काव्य की यह प्रवृत्ति असमतामूलक समाज का दृश्य उपस्थित करने में अपनी व्यापकता के साथ सक्षम साबित होती है. इसलिए 'रूपकत्व (अलंकार रूप में मात्र 'रूपक नहीं) नरेन्द्र के कवि कर्म का मूलाधार कहा जा सकता है. यह कवि की 'रूपक चेतना ('मेटाफिरिकलकांशयसनेस) ही है, जो अभिव्यक्ति के विभिन्न रूपों में, विभिन्न अलंकारों के द्वारा, प्रकाशित हो उठती है. लोक का ऐसा रूपक आपको बहुत कम कवियों में मिलेगा. उपमान चयन के आधार पर उपमा का औपम्य का प्रयोग तो कोई साधारण कवि भी कर सकता है, किंतु 'रूपकत्व का सुंदर और प्रभावी प्रयोग नरेन्द्र पुण्डरीक जैसा कोई निष्णात कवि ही कर सकता है. तुलसीदास की लोकप्रियता और महानता का बहुत बड़ा रहस्य उनकी अभिव्यक्ति में इसी श्रेष्ठ रूपक-चेतना का है. देखिए नरेन्द्र पुण्डरीक की यह कविता जिसमें साँड़ के रूपक कितना जीवन्त और सफल प्रयोग हुआ है-

साँड़-5
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"सांड ने नहीं ढ़ोया कभी
अपने कंधों से ,
इस पृथ्वी का रत्ती भर भार ,
न जोती कभी इंच भर जमीन
सिर्फ अपने कंधों के गुमान से भरा
डोलता रहता है अवढर दानी बना
पीठ पर लादे प्रलयंकर
दहशत फैलता घूमता रहता है
मुल्क दर मुल्क,

इतिहास के पन्नो में
काली छायाओ  की तरह पसरी पड़ी है
साँड़ की शौर्य गाथाएँ,
साँड़ के सामने दुनियां के सारे बुद्धिजीवी
कम अक्ल होते है ,

तर्क से दूर भागता सांड
जो कुछ हो रहा है
उसे ईश्वर की रजा बतलाता है
ईश्वर की रजा में
मौज उठाता है साँड़

साँड़ के सामने सब कुछ फिजूल है
फिजूल है दुनियां के सारे रंग
सबसे उम्दा है साँड़ का सनातनी रंग
जो दुनियां के सारे पूजा घरों में फहरा रहा है
साँड़ के सामने सब बकवास है
सिवा उन महान  परम्पराओ के
जो उसके सुडौल कंधों में उकेरी जाती है
महा विनाश की भव्यता से भरपूर.’’


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नरेन्द्र पुण्डरीक की काव्य संवेदना में इतिहासबोध और इतिवृत्तात्मकता का यह संयोग समकालीन लोक धर्मी कविता में विरल ही दिखता है जो उनके कवि को जनकवि का एक मजबूत आधार प्रदान करता है.
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सुशील कुमार
सहायक निदेशक,
प्राथमिक शिक्षा निदेशालय
स्कूली शिक्षा एवं साक्षरता विभाग
एमडी आई भवन (प्रथम तल) / पोस्ट : धुर्वा , रांची-834004

मोबाईल न : 9006740311/ और7004353450

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