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अम्बर रंजना पाण्डेय की कविताएँ

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Vita, orrenda cosa che mi piaco tanto
-Aldo Palazzeschi

1.
ट्रैफ़िक
कोलाहल भी शब्द है क्योंकि इसमें अनेक अर्थों की अनुगूँज है ऐल्यूमिनीयम के रंगवाले धुँए से भरी. रात चकाचौंध है. असंख्य इंजनों के शोर में कुछ तो है जो फ़िल्टर होकर गूँजता है अंदर- शब्द का भी कोई सूक्ष्म तत्त्व, अर्थ बहुत स्थूल लगता है उसके आगे. ट्रैफ़िक का शोरगुल, ध्वनि के क्यूब कोई जमा देता है प्रत्येक दिन, रात को डेढ़ बजते बजते दिखाई नहीं पड़ते होते वहीं है जैसे दोपहर के सवा दो बजते बजते, बहुत ज़्यादा ट्रैफ़िकवाली सड़क की तरफ़ बने मकान में, जिसकी दीवारें काग़ज़ से भी पतली हो गई है- फ़िल्म के किसी दृश्य में एक किशोरी किसी बयालीस साल के पुरुष से प्यार करने आती है- वही दृश्य है मेरी अंतिम आशा- वयस्क सिनेमाओं के आँखों में  चलते ट्रैफ़िक में- एकमात्र. इतनी भीड़ है कि भीड़ में इच्छाएँ  साफ़ साफ़ दिखती हैं- बिना फ़िल्टर के फ़ोटोग्राफ़ की तरह.



2.
ध्वनि स्थगन
ध्वनि स्थगन ही संगीत था- विशुद्ध, अद्वय किंतु युवा. अंदर १७ डिग्री सेल्सियस तापमान की वायु इतनी स्थिर कि वह और मैं उसे मेरे दाढ़ी बनाने के आवर्धक दर्पण में देख सकते है स्नानगृह में. बाहर प्रचंड धूप और दिगंत में स्थिर हवाईयान. प्राणायाम से श्वासनली साफ़ और खुली हुई है कोई आवाज़ नहीं. चुम्बन भी ध्वनिहीन. इतना निस्संग हूँ. अब इतनी नीरवता कि कोई नहीं आता इस तरफ़. तीव्र कामावेग जो दो होने पर ही था अब जब कोई दूसरा नहीं तब शान्त है सब; फ्रिज में काँच की बोतल में रखे उबले हुए पानी की तरह.


3. 
ह्रदय के सड़े हुए भाग का विवरण
सेबफल पर लगे घाव की तरह बहुत जल्दी लाल होता है. सेबफल तो फल भी नहीं- वनस्पति के डिंबाशय का पूर्णपक्व भाग. ह्रदय डिंबाशय का सबसे कच्चा, कठोर और संकुचित भाग है. पुरुषों में ह्रदय अदृश्य डिंबाशय का भाग है. किसी भी प्रकार के कीटाणु, विषमय रसायन, पारद से भरी वायु, प्रेम, आलोक के आने की जगह नहीं है जहाँ पर ह्रदय है. तब भी ह्रदय का भाग किसी रात्रि अख़बार पढ़ते या दिन की रसीदें देखते हुए सड़ने लगता है. निर्वात में इसकी कोशिकाएँ मटमैले तरल पदार्थ से भरकर फूल जाती हैं. देर तक देखने पर वह कोशिकाएँ कीटों की तरह दिखती है कीट होती नहीं है.



4.
पण्डितराज जगन्नाथ ने रसगंगाधर पूर्ण करने के पश्चात
यहीं पंचमंदाकिनी घाट पर
दिलआरा बेगम के पीछे प्राण दे दिए थे
जब मथुरा के किसी भटकते चौबे ने उन्हें स्मरण कराया था कि विप्रलब्ध में वह कितने कृशकाय हो गए है
वह तेज़ी से घाट का जीना उतरते
गंगा जहाँ सबसे गहरी थी
जहाँ जल सबसे अधिक श्याम
और सबसे अधिक शीतल था- वहाँ डूब मरें
उस समय जहांगीर को कहाँ ज्ञात था
कि उसकी सभा के पण्डितराज ने
रक़ीबपसंद दिलआरा बेगम के पीछे प्राण दे दिए
तब उसे यह भी ज्ञात नहीं था
कि जिस दीवार पर गुलदावदी का हार पहने
अपनी छाँह को देखकर
पण्डित जगन्नाथ को दिलआरा बेगम का भ्रम हुआ था
बेनीमाधौ का वह मंदिर उसका पोता एक दिन गिरवा देगा
प्रेम में और राजा बनकर
तब अंधे होने का चलन था
आज भी है.


5.
काशी की मेरी एक पूर्व प्रेयसी का  पत्र

गंगा तक भी पहुँच नहीं पाओगे
कवि तुम मरोगे काशी की किसी कीचभरीअँधेरी, खुलते है जिस ओर पुरानी चाल के शौचालय मंदभाग्य गली में
इसी गली के दाएँ से दूसरा
जो गृह है भारतेंदु की गुप्त रखेली का
इस भवन के सरिए हिल चुके है
बारियाँ खोलो तो छत हिलती है
हिण्डोलों की तरह
यहीं पर कितनी रात्रियाँ
छुपकर अपने पति से, सास-ननदों से,
जेठ-बहनोई से, मोदी के भक्तों से
कॉग्रेसियों से जो ख़ुद को वामपंथी बताते थे
मैं आई तुमसे मिलने- कोई बूढ़ा
इसी गली में ठीक उसी समय जब मैं आती थी
न जाने क्यों बजाया करता था राग श्री
सुनकर ही ह्रदय उचट जाता था
एमए हिंदी में पढ़े अभिसारिकाओं के सब
प्रसंगों से
कान ऐसे लाल हो जाते जैसे किसी पूर्व प्रेमी ने
उमेठे हो; जान मैं तुमसे मिलने आती हूँ
और कानों को छूते मेरे कज्जलपेटिका से नयन
कभी इधर देखे कभी उधर
शुकदेव पंडित की चेली की तरह
दूर, पान खाता कोई शराबी समझता
हाव-भाव दिखा रही हूँ उसे
कहता, 'ताल ऊँची नीची आगे पीछे है बिटिया'
जो अपने-पराए वाक्य में भेद नहीं करता
जो आभरनों को जल्दी से जल्दी
उतार देना चाहता हो
जो इतना लठैत हो कि वस्त्र खोलने में
तनिक भी देर न करता हो
जिसे उल्लुओं और चमगादड़ों से भरे भग्न भवन में
एक दोपहरी नये ख़रीदे वेनिस के दर्पण के ऊपर
अपने मोबाइल से आलोक कर
चुम्बन लेने और अपनी स्त्री के नितम्बों को
रामलीलावालों से चुराए गए लीलाकमलों से
प्रताड़ित करने में
कोई लज्जा न हो, वह हो नहीं सकता कवि
जिसके लिए मेरा अपने देवताओं जैसे पति से
छल करना, जिसके लिए अपनी संतति को
सोता छोड़ आना, उससे मिलना
केवल कविता का विषय हो
और वह ढीठ, मेरा नाम- पति सहित मेरा नाम
'कविता केशव शुक्ल'लिखकर कविता बनाए
और उसे प्रेमचंद की पत्रिका में प्रकाशित करें
वह हो ही नहीं सकता कवि
और इस प्रेमचंद की ऐसी की तैसी.

दामोदर गुप्त   तुम्हारे प्रेम में
नहीं घुघरुओं के विकट कोलाहल के कारण
सो नहीं सका कभी

लौटकर बम्बई में बाबुलनाथ शिवालय के निकट
अपने घर में भी नींद नहीं आई
लेमिंगटन रोड पर भटकता रहा पूरी पूरी रात
एक बोहरों की धर्मशाला से आता था
घुँघरुओं का ताल दीपक में मढ़ा शोर, थोड़ी थोड़ी आँख लगती

तब नींद में बड़बड़ाता, बनारस की सबसे बदनाम सबसे
बेवफ़ा नारी से क्यों किया प्रेम
तुम इस ज़माने में भी तीन छत्ता, वाराणसी पोस्ट ऑफ़िस से
लम्बे लम्बे पत्र लिखती

'अम्बर, प्रेम में नारी बदनाम होती है
मर्द मशहूर होता है.'
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