Quantcast
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

सबद भेद : असहमति का रूपक : आशुतोष भारद्वाज






वर्चस्व की सभी सत्ताओं के समानांतर प्रतिरोध और असहमति का प्रति संसार भी है.  लम्बे अंतराल में उनके रूप बदल गए, वे अब रूपकों के रूप में सुरक्षित हैं. परिवार,समाज,धर्म, राज्य की इन सत्ताओं के प्रतिरोध की आदिकथाओं को विखंडित कर समझने की जरूरत अभी भी बची और बनी हुई है.

लेखक और प्रतिष्ठा प्राप्त ‘रामनाथ गोयनका पुरस्कार से चार बार सम्मानित पत्रकार आशुतोष भारद्वाज के आदिवासियों में असहमति के रूपकों पर यह आलेख ख़ास आपके लिए.
  

आदि कथा : असहमति का रूपक                                     
आशुतोष भारद्वाज


था असहमति और विरोध का रूपक भी होती है. मानव समुदाय अक्सर अपनी कथाओं के जरिये अपनी अस्मिता और अस्तित्व का उद्घोष करते हैं, अपनी चेतना पर आरोपित की जा रही नैतिक संहिता और भौतिक कानूनों का विरोध करते हैं. अगर किसी समाज में यह प्रक्रिया अत्यंत सजग और सुविचारित ढंग से घटित होती है जहाँ उस संस्कृति के आख्यायक अपनी अस्मिता को कागज पर दर्ज करते हैं (मसलन मिलान कुंदेरा द्वारा अपनी कथाओं के जरिये चेकोस्लोवाकिया में सोवियत हस्तक्षेप का विरोध), तो किन्हीं समाजों में यह प्रतिरोध मौखिक आख्यान के स्वरुप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुँचता है.

मध्य भारत के जंगलों में भटकने और वहाँ रहते निवासियों से मुलाकात से पहले यह तो मालूम था कि यह समुदाय हिन्दू देवी-देवताओं को अक्सर लोहे के चिमटे से पकड़ते हैं, उन्हें महुए की लकड़ियों की आंच पर भून कर उनका अचार बनाते हैं, इस तरह संस्कृत की कथाओं में गजब की सेंध मारते हैं, इन देवताओं  का पवित्र चेहरा और स्वभाव पलट कर रख देते हैं. लेकिन यह एहसास यहीं आकर हुआ कि शायद इसके पीछे असहमति का स्वर भी रहा होगा, संस्कृत की सांस्कृतिक शक्ति का रचनात्मक प्रतिरोध करने की आकांक्षा भी रही होगी.

हालाँकि यह भी सही है कि भले ही एक कथित बहुसंख्यक प्रवृत्ति इन देवी-देवताओं का एकायामी और मानकीकृत स्वरुप प्रस्तावित करती हो लेकिन इनका कोई एक निर्धारित चेहरा नहीं है. भारत के तमाम इलाकों में अनेक समुदाय इन देवी देवताओं का स्वरुप अपनी कथानुसार बदल लेते हैं. लेकिन इसके बावजूद क्या यह कहा जा सकता है कि प्रचलित हिन्दू मिथकों को उलट कर रख देने की, उनके चरित्र को लगभग विलोम बना देने की यह प्रवृत्ति उन समुदायों में अधिक है जो किसी राजसत्ता का प्रश्रय प्राप्त किसी व्याकरणीकृत भाषा (मसलन अतीत में संस्कृत, इन दिनों हिंदी, तमिल इत्यादि) और लिखित आख्यान से परे अपनी कथा मौखिक आख्यानों के जरिये कहते हैं, जिन पर किसी शक्तिशाली राज्य के डैने और पंजे हमेशा मंडराते रहते हैं, और जो अमूमन जंगल या इस तरह के अपेक्षाकृत अलक्षित इलाकों में पाए जाते हैं, जिन्हें नगरीय समाज अमूमन अपने से निचले पायदान पर रखता है, और जिनके पास सर्जनात्मक प्रत्युत्तर ही अक्सर एकमात्र रास्ता होता है?

इसका एक विलक्षण उदाहरण छत्तीसगढ़ के रामनामी या रामरामीसमाज में मिलता है. महानदी के दोनों तरफ, रायगढ़, बलौदा बाज़ार और जांजगीर चांपा जिलों में इस अति पिछड़े दलित समाज के सदस्य रहते हैं. इस समुदाय का गठन लगभग सवा सौ साल पहले हुआ था जब उन्होंने रामकथा में एक विलक्षण हस्तक्षेप के जरिये अपनी विशिष्ट अस्मिता को रच दिया था.

इस गठन की पूर्व-पीठिका यह थी कि चूँकि नगरीय समाज इन्हें मंदिर जाने, राम का नाम लेने से रोकता था (यह स्थिति अभी भी कई जगहों पर बनी हुई है) कि अपनी जुबान से राम का नाम लेकर ये लोग राम को अपवित्र कर देंगे तो इन्होंने जिद में आकर अपने समूचे शरीर पर राम नाम के असंख्य गोदने गुदवाने शुरू कर दिए, यहाँ तक कि अपनी जीभ और गुप्तांगों पर भी. राम के नाम को अपने गुप्तांग पर गुदवा कर वे मर्यादा पुरुषोत्तम को उन जगहों पर, उन लम्हों में ले गए जिसकी कल्पना से ही कई राम भक्त सिहर जायेंगे.

ऐसी ही अद्भुत है इस समाज द्वारा की गयी रामचरितमानस की व्याख्या.

मानस की एक चर्चित चौपाई है ---
पूजिअ बिप्र सील गुन हीना। सूद्र न गुन गन ज्ञान प्रबीना।।
यानि ब्राह्मण चाहे कितना भी ज्ञान गुण से रहित हो,उसकी पूजा करनी ही चाहिए, जबकि शूद्र गुण ज्ञान से रहित होता है.

रामनामी समाज इसकी व्याख्या एकदम उलट देता है-
ब्राह्मण अगर शील और गुण से रहित हो, तो उसे पूज देना (हत्या कर देनी) चाहिए, शूद्र गुण ज्ञान में हमेशा प्रवीण होते हैं.

दिलचस्प यह है कि पूज देनाक्रिया की यह व्याख्या अनिवार्यतः दोषयुक्त नहीं है क्योंकि बोलचाल की भाषा में पूज देना, ‘पूज दियाका यह अर्थ ( मार दिया) भी अक्सर होता है.

ऐसी ही एक धनकुल की कथा  है. धनकुल जगार या तीजा जगार (जगार यानि रात भर जाग कर किया गया अनुष्ठान) बस्तर का एक लोक महाकाव्य है (बस्तर के अपूर्व विद्वान हरिहर वैष्णव ने बस्तर के चार लोक महाकाव्यों को चिन्हित किया है, यह उनमें से एक है.) जिसे आदिवासी स्त्रियाँ हल्बी बोली में गाती है, इन लोक गायिकाओं को गुरुमाय (गुरुमाता) कहते हैं. पुरुष इस जगार में यानि इस महाकाव्य के अनुष्ठान में सिर्फ सहभागी गायक होते हैं.

इस महाकाव्य की संक्षिप्त कथा यह है कि एक बार महादेव शिव बाली गवरा नाम की एक लड़की पर मोहित हो जाते हैं, जो उनके भांजे की बेटी यानि रिश्ते में पोती है और पार्वती की रिश्ते में बहन भी. महादेव अपने प्रेम का प्रस्ताव लेकर बाली के पास कई बार जाते हैं लेकिन वह हर बार उन्हें मना कर देती हैं. यहाँ तक कि जब बाली गवरा तपस्यारत हैं, तब भी शिव उनकी तपस्या भंग करने पहुँच जाते हैं. जब बाली का ध्यान फिर भी उनकी तरफ नहीं जाता तब शिव अपनी डोंगी तालाब में डुबोने का अभिनय करते हैं, और तब बाली डूबते हुए इंसान को बचाने के लिए तालाब में कूद जाती हैं, शिव उन्हें पकड़ गहरे पानी के अन्दर ले जाते हैं, फिर से विवाह का प्रस्ताव रखते हैं. इस बार बाली हामी भर देती हैं, दोनों पानी के अंदर ही शादी कर लेते हैं.

पार्वती से छुपाने के उद्देश्य से शिव बाली को अपनी जटाओं में छुपा घर लेकर आते हैं। जब पार्वती शिव की देह पर पुती हुई हल्दी देख उनसे इस बारे में पूछती हैं तो वे झूठ बोल देते हैं कि वे किसी की शादी में गए थे वहाँ किसी ने हल्दी पोत दी। जल्दी ही लेकिन पार्वती को शिव की नयी पत्नी के बारे में पता चल जाता है. वे सौतिया डाह में सुलग जाती हैं, नववधू को कई तरह की यातनाएं देती हैं. हार कर बाली आत्महत्या कर लेती हैं. अपने प्रेम के विछोह में शिव बाली की अस्थियों को गले में लटका कर तपस्या करने बैठ जाते हैं. कई बरस बीत जाते हैं. इस दरमियाँ बाली किसी दूसरे घर में फिर से लड़की के रूप में पुनर्जन्म लेती हैं, इस बार उनका नाम डिली गवरारखा जाता है.

शिव के दुःख को न सह पाने के कारण पार्वती तय करती हैं कि वे उनकी शादी डिली से करवा देंगी. वे डिली का हाथ अपने पति के लिए मांगने डिली के माता-पिता के पास जाती हैं, लेकिन वे यह कह कर मना कर देते हैं कि उस घर में पिछली बार बाली को घनघोर यातना झेलनी पड़ी थी.

जब पार्वती वायदा करती हैं कि इस बार ऐसा नहीं होगा, डिली की शादी महादेव से हो जाती है. पार्वती दोनों को सुखमय जीवन की शुभकामनायें देकर, डिली को कैलाश पर्वत का घर सौंप चली जाती हैं.


यह विलक्षण कथा है. शिव की छवि एक घनघोर पत्नी-भक्त देवता की है. समूचे हिन्दू देवताओं के समूह में शायद सिर्फ राम और शिव ही हैं जो अपनी पत्नी के अलावा किसी दूसरी औरत की तरफ कभी आसक्त होते दिखाई नहीं देते. हालाँकि कुछ अवसरों पर विष्णु ने मोहिनी रूप धर शिव को अपनी तरफ आसक्त कर लिया था, लेकिन यह लगभग अपवाद ही है. शिव की प्रचलित छवि इंद्र जैसे अन्य देवताओं की नहीं है. राम भले ही किसी दूसरी स्त्री के लिए कभी भी विचलित नहीं होते, लेकिन राम का सीता के प्रति नाजुक लम्हों पर व्यवहार हमेशा ही प्रश्नांकित रहा है, उन्हें आदर्श राजा भले माना गया हो, आम अवधारणा में आदर्श पति तो वे नहीं हैं. लड़कियां व्रत, पूजा इत्यादि भी शिव जैसा पति ही पाने के लिए करती हैं, राम नहीं.

शिव का यह चित्रण, जब वे अपने शिवत्व को पूरी तरह भस्म कर अपनी पोती के लिए बौराए जा रहे हैं, और आखिर में पार्वती ही उन्हें छोड़ कर चली जाती हैं, क्या बस्तर के आदिवासी समुदाय का, उनकी मातृभूमि जंगल का नगरीय संस्कृति को एक रचनात्मक प्रत्युत्तर है?

यहाँ यह उल्लेख भी ज़रूरी है कि बस्तर के आदिवासी ख़ुद अपने स्थानीय देवताओं के साथ भी पुरज़ोर ठिठोली करते हैं. चूँकि उनकी नैतिकता की अवधारणा भी नगरीय संस्कृति से भिन्न है इसलिए शिव को इस रूप में बरतना उनके लिए सहज कर्म रहा होगा। लेकिन महत्वपूर्ण यह है कि नगरीय संस्कृति शिव को अमूमन पार्वती के समर्पित पति और मृत्यु के विराट देवता बतौर ही बरतती है. उनके इस रूप को बस्तर ने नहीं स्वीकारा, क्या यह नगरीय कथा का, उसके मूल्यों का नकार है?


एक हालिया उदाहरण महिषासुर उत्सवका भी है जो पिछले कुछ वर्षों से बंगाल, झारखण्ड के कई आदिवासी इलाकों में मनाया जा रहा है. असुर नामक एक आदिवासी समुदाय जिसे भारत सरकार ने विशेष रूप से कमजोर जनजाति समूह (Particularly Vulnerable Tribal Group)” घोषित किया हुआ है, खुद को महिषासुर का वंशज मानता है और दुर्गा, जिन्होंने महिषासुर वध किया था, का तीखे शब्दों में तिरस्कार करता है. दुर्गा पूजा का विराट त्यौहार महिषासुर मर्दन का उत्सव मनाता है, लेकिन असुर समुदाय उन दिनों उसकी मृत्यु का शोक करता है.

महिषासुर पर यह आख्यान संभवतः सदियों से चला आ रहा होगा लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इस पर विमर्श गहराया है, यहाँ तक कि असुर समुदाय के साथ अनुसूचित जातियों और अन्य जनजातियों ने भी महिषासुर शहादत दिवस मनाया है यह कहते हुए कि वे बहुसंख्यक हिन्दू संस्कृति का विरोध करते हैं जो दमित समुदायों के शोषण पर केंद्रित है. उनके तर्क की प्रमाणिकता को परखना यहाँ उद्देश्य नहीं है, प्रयोजन उनके तर्क यानि प्रतिरोध की वजह को टटोलना है, साथ ही यह रेखांकित करना भी कि शाक्त संप्रदाय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रन्थ दुर्गा सप्तशती में दर्ज महिषासुर कथा की व्याख्या को उलट देना दुर्गा से जुड़े मूल्य और मिथक का रचनात्मक नकार ही है.




इस प्रतिरोध की वजहों पर आने से पहले इन समुदायों की मातृभूमि यानि जंगल और नगर के संबंध को टटोलना जरुरी है. यह सम्बन्ध जंगल की कथा पर अपनी गहरी परछाईं छोड़ता है.



संस्कृत साहित्य में जंगल की एक द्विविधात्मक छवि उभरती है. यह ऋषि-मुनियों का निवास है, एक पवित्र भूमि जहाँ मनुष्य एकांत में ज्ञान और आत्म-बोध हासिल करने जाता है; युवा राजकुमार इन ऋषियों के आश्रमों में उनसे शिक्षा और आशीर्वाद लेने जाते हैं; यह वन वनवास और अज्ञातवास पर भेजे गए राजाओं को आश्रय भी देता है, रामायण और महाभारत इसी अज्ञातवास के रूपक के इर्द-गिर्द बुने गए हैं (आशीस नंदी: एन अम्बिगुअस जर्नी टू द सिटी); वानप्रस्थ आश्रम का निर्वाह यहीं होता है; जंगल नगरीय सभ्यता से परे जी रहे कई मानव समुदायों और गैर-मनुष्य प्राणियों का घर भी है, ये सभी राजाओं और राजकुमारों की मदद करते हैं; वन में यक्ष और गन्धर्व जैसे कई मिथकीय प्राणी भी विचरण करते हैं, और साथ ही राक्षस और दैत्य जैसे प्राणियों का का निवास भी यही है. राजशाही वन और इसके कई किस्म के निवासियों को कई वजहों से बचाए रखना चाहती है, लेकिन दैत्य और राक्षसों को ख़त्म करना भी राजा का धर्म है इसलिए राजा अक्सर वन पर हमला करते हैं, जिसके फलस्वरूप वन के कई निर्दोष निवासी और वनस्पति-वृक्ष भी नष्ट हो जाते हैं. महाभारत में पांडव एक नए शहर इन्द्रप्रस्थ को बसाने के लिए खांडवप्रस्थ नामक वन और उसमें रहते आये तमाम प्राणियों, जीव-जंतुओं को पूरी तरह भस्म कर देते हैं. 

दो लगभग विरोधी गुणों से निर्मित होता जंगल का यह द्विविधात्मक स्वभाव नगर की सांस्कृतिक और साहित्यिक कल्पना में जंगल को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान करता है. यह श्रेष्ठतम ऋषियों की भूमि है जो धर्म को परिभाषित करते हैं लेकिन वे समुदाय भी यहाँ रहते हैं जो धर्म या वैदिक संहिता को नहीं मानते (रोमिला थापर: पर्सीविंग द फोरेस्ट). इस दृष्टि से शहर या सत्ता की दृष्टि में जंगल एक ऐसी भौगोलिक इकाई है जिसकी स्वायत्तता बचाए रखना जरुरी है, लेकिन जिसके विरुद्ध कई अवसरों पर युद्ध भी लड़ा जाना है, जिसे दुष्ट शक्तियों से बचाना भी है, और उन दुष्ट शक्तियों का वध करने के लिए अगर जंगल भी नष्ट होता हो तो उसकी परवाह नहीं करनी है.

यानि जंगल के लिए नगर अगर एक आक्रान्ता भी है, तो नगर के लिए जंगल एक शासित और अनुशासित कर रखने की इकाई भी. यह शासन सिर्फ हथियार और हमलों की नींव पर ही नहीं केंद्रित नहीं था, है, बल्कि सांस्कृतिक प्रभुत्व भी उद्देश्य था, है.

भले ही जंगल की कथाएं नगर तक कम पहुँचती थीं क्योंकि जंगल के पास साधन, संसाधन और शायद आकांक्षा और जरूरत भी नहीं थी अपनी कथाओं का प्रसार करने की, लेकिन नगर की विस्तारवादी हसरत के परिणामस्वरूप नगरीय साहित्य और उसके मिथक और महाकाव्य और इस तरह उनके जरिये नगरीय सत्ता की नैतिक और धार्मिक आचार संहिता भी जंगल पहुँचती थी, यानि जंगल और नगर का संघर्ष सिर्फ युद्धभूमि पर ही नहीं, बल्कि कथा की अपूर्व उर्वर जमीन पर भी घटित होता था.

जंगल के निवासी के पास निश्चित ही नगर की राजसत्ता को परास्त करने के लिए पर्याप्त हथियार और भौतिक संसाधन नहीं थे, नगर की सत्ता को देवताओं इत्यादि का समर्थन भी हासिल था, लेकिन जंगल के पास कहीं बड़ा हथियार था --- कथा. जंगल युद्धभूमि में नगर को परास्त नहीं कर सकता था लेकिन कथा-भूमि अभी शेष थी.

शायद इसलिए जब नगरीय संस्कृति के मिथक जंगल पहुँचते थे, जंगल के कथाकार उन कथाओं को उलट कर रख देते थे मसलन नगर और उसकी कथाओं और उसकी वासना के प्रति यही उनके विरोध का, अपनी विशिष्ट अस्मिता  को बचाए रखने का तरीका हो.

इसका मेरे पास कोई ऐतिहासिक दस्तावेज या प्रमाण नहीं है कि संस्कृत और नगरीय कथाओं में जंगल के निवासियों द्वारा इस कदर हस्तक्षेप एक सुविचारित प्रयास था, क्योंकि जंगल के इस कथाकार ने लिखित संहिता या टीकाएँ या जंगल-स्मृति जैसे ग्रन्थ अपने पीछे नहीं छोड़े हैं, लेकिन महिषासुर विवाद पर जिस तरह असुर समुदाय ने अपनी अस्मिता का प्रश्न उठाया और अन्य दमित जातियां उनके साथ आ खड़ी हुईं, उससे यह निष्कर्ष संभव दिखता है कि शिव और दुर्गा जैसे भव्य हिन्दू प्रतीकों से उनका दैवत्व छीन, उन्हें विलोम बना देना एक विराट रचनात्मक प्रक्रिया है.

इस प्रस्तावना के पीछे यह विश्वास भी है कि कथा कोई मुर्दा सम्भावना नहीं होती, यह एक जीवंत सत्ता है, जो कथावाचक के समुदाय और सरोकारों को आगामी पीढ़ियों तक पहुंचाती है.



(तीन)
इस दृष्टि से जब हम वर्तमान में आते हैं तो पाते हैं कि पिछले दशकों में नगर और सत्ता की वासना कहीं अधिक क्रूर और निरंकुश हो गयी है, डेढ़ सौ साल पहले तक जंगल के साथ नगर का एक बहुलार्थी सम्बन्ध था, जंगल नगर का अनिवार्य विलोम नहीं था, उसके लिए शरणगाह भी था, अरण्य भी. लेकिन जबसे सत्ता और व्यापार को इस जंगल में सोये तमाम खनिजों मसलन लोहा, कोयला के बारे में मालूम हुआ, उसका जंगल और उसके निवासियों के प्रति रवैया ही बदल गया. अब जंगल विलक्षण खनिजों और धातुओं से भरी एक ऐसी इकाई है जिन्हें जल्द से जल्द धरती के भीतर से निकाल लेना है. इस जंगल में अनपढ़, जाहिल लोग रहते हैं जिनकी कतई परवाह नहीं करनी है.

नेहरु युग तक, जब केंद्र सरकार ने वेरियर एल्विनको उत्तर पूर्व के लिए आदिवासी मसलों का सलाहकार बनाया था, जंगल के निवासियों की स्थिति पर, इन इलाकों के प्रति सरकार की क्या नीति हो, इस पर कम अस कम एक विमर्श हुआ करता था, राजनीति इस मसले पर विभाजित थी कि जंगल को जंगल ही रहने दिया जाये या यहाँ कारखाने इत्यादि लगा दिए जाएँ. इस विमर्श में जंगल की आवाज को भी जगह मिलती थी.

मसलन एल्विन की १९५८ की किताब अ फिलोसोफी फॉर नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एजेंसीकी भूमिका में नेहरु ने लिखा था कि हमें इन इलाकों में प्रशासन को बहुत अधिक हावी नहीं होने देना है, न ही ढेर सारी (सरकारी) योजनायें झोंक देनी हैं. हमें उनकी सामाजिक और सांस्कृतिक संस्थाओं के जरिये ही काम करना है, उनके विरोध में नहीं.

इस सन्दर्भ में एक दिलचस्प किस्सा है कि जब एल्विन नेहरु के संज्ञान में यह लाये कि आदिवासी अपना जीवन वर्तुलाकार ढंग से जीते हैं, जबकि असम में जो नए घर और सरकारी कार्यालय बने हैं वे सीधी रेखा में हैं, नेहरु ने असम के मुख्य मंत्री बिमला प्रसाद चलिहाको टोका कि अगर किसी आदिवासी गाँव में बने स्कूल या दवाखाने गाँव की (भवन) शैली से एकदम विपरीत हैं, तो यह पूरे गाँव में किसी बाहरी तत्व की तरह एकदम अलग नजर आयेंगे...अगर हमें आदिवासियों का हमारे अधिकारियों के साथ सहज सम्बंध बनाना है तो अधिकारियों को ऐसी इमारतों में नहीं रहना चाहिए जो उनके परिवेश से जरा भी मेल नहीं खाती हों. (नेहरु का चलिहा को १ अगस्त, १९५८ का ख़त). 

नेहरु और एल्विन की इस विचारधारा के कई विरोधी भी थे, जो मानते थे कि इस तरह जंगल अजायबघर में तब्दील हो जायेंगे, लेकिन यह संवाद एक समृद्ध जंगल की सम्भावना बनाता था.

पिछले कुछ दशकों से यह विमर्श लगभग ख़त्म हो गया है, अब कुछेक कार्यकर्ता, लेखक, पत्रकार, विश्विद्यालय के प्रोफेसर इत्यादि के सिवाय जंगल की फ़िक्र शायद किसी को नहीं है, और उन्हें भी सत्ता विकास-विरोधी, ‘नक्सली-समर्थककहकर बदनाम करती है.

जाहिर है ऐसे में जंगल की कथा का स्वरुप बदल जायेगा, बदल गया है. एक समय शिव के मिथक में हस्तक्षेप से ही जंगल की कथा पूर्ण हो जाती थी, लेकिन अब जब लड़ाई सीधी है, जल, जंगल और जमीन को बचाने की है, तो जंगल की कथा मृत्यु-कथा में तब्दील होती है. जंगल के कथावाचक लुप्त हो रहे हैं, वे सत्ता और जंगल के बीच छिड़ी जंग के सिपाही बन गए हैं --- कुछ खाकी वर्दी पहन सत्ता की तरफ चले गए हैं, कई अन्य माओवादियों की छापामार गुरिल्ला सेना में भर्ती हो गए हैं. विकल्प दोनों में से किसी के पास नहीं. महाभारत का युद्ध यह. बस्तर के एक ही घर में जन्मे दो भाई, दोनों सेनाओं में बंट-खप गए हैं.

अंत में कोई भी बचा रहे, विनाश महाभारत के युद्ध की तरह ही होगा, हो भी रहा है. जीत किसी की भी नहीं होगी, यह युद्ध शायद एक अनिवार्य और विराट हार में परिणत होने को अभिशप्त है. बस्तर नष्ट हो चुका होगा. सैकड़ों भीष्म शर शैया पर लेटे अपने अंत का इंतजार करते होंगे. अनेक गुरु द्रोण का शीश उनके ही प्रिय शिष्य धोखे से काट चुके होंगे, क्योंकि कथाकार का अंगूठा और जुबान पहले ही छीने जा चुके होंगे.

जो सभ्यतायें कथा के लिए जगह छीनती जातीं हैं, वे इसी तरह विनाश की ओर चलती जाती हैं. कथा मनुष्य को अपनी रूह को झिंझोड़ती हसरतें, वासना, ईर्ष्या, कुंठा, घुटन इत्यादि व्यक्त करने का, उनसे मुक्त हो जाने का स्पेस देती है. जब किसी सभ्यता में कथा के लिए जगह नहीं बची रह जाती, मृत्यु उसकी काया में चुपके से प्रवेश कर जाती है. नक्सल कथा इसी विध्वंस की कथा है.

संस्कृत काव्यों में जंगल में तपस्या करने ऋषि आते थे, वनवास के लिए राजकुमार और उनके जरिये नगर की हवाएं और खुशबुएँ भी आती थीं, अब केवल सत्ता के नुमाइंदे आते हैं नाप-तोल करने, जमीन का सौदा करने.

दंतेवाडा भारत के सबसे बेहतरीन लोहे को अपने भीतर लिए जी रहा है. सत्ता और व्यापार को यह लोहा किसी भी कीमत पर चाहिए. राष्ट्रीय खनिज विकास निगम का यहाँ विराट उद्योग है, एस्सार का भी. कांग्रेस विधायक कवासी लखमा, साम्यवादी नेता मनीष कुंजाम समेत लगभग सभी दलों के स्थानीय आदिवासी नेता अरसे से मांग कर रहे हैं कि उनकी जमीन, उनका खनिज. माइनिंग के अधिकार उन्हें मिलने चाहिए.

एक बार एक स्थानीय युवक ने एस्सार के विशाल प्लांट पर इशारा करते हुए मुझसे कहा था ---- शहर से आये जींस-कमीज पहने लोग आपकी जमीन आपसे छीन उस पर बड़ी इमारत बना लेते हैं, आपकी मिट्टी से मुनाफा कमा आपके सामने मुर्गा और बकरा खाते हैं, और आप फटा अंडरवियर पहने पत्ते पर भात और इमली की चटनी लिए उस महाकाय इमारत और उससे निकलती गाड़ियों को देखते रहते हो. क्या करोगे आप ऐसे में?”

इस इंसान की कथा जाहिर है किसी विध्वंसक रूप में व्यक्त होगी.
संस्कृत कवि योग वशिष्ठ में लिख गया है: यह सृष्टि किसी कथा के बचे रह गए प्रभाव की तरह है.शायद यह कोई अतृप्त कथा रही होगी, जो अपनी अधूरी हसरतें आगामी पीढ़ियों के जरिये पूरी करना चाहती होगी.

क्या दंडकारण्य भी किसी अतृप्त कथा की वासना है जो मृत्यु के जरिये खुद को व्यक्त कर रही है? एक ऐसी कथा जिससे सुनने, समझने की इच्छा और इच्छा-शक्ति भारतीय समाज में शायद नहीं है, इसलिए किसी रचनात्मक प्रतिरोध की अनुपस्थिति में मृत्यु अपना बीहड़ उत्सव मना रही है.

जब नगर के महाकाव्य जंगल पहुंचा करते थे, जंगल उनका प्रतिकार अपनी विशिष्ट कथा रच कर किया करता था, अब जंगल अपना मृत्यु-काव्य नगर को सुना रहा है, लेकिन नगर अभी भी इस भ्रम में जी रहा है कि वह अपने गांडीव की टंकार और पाञ्चजन्य के नाद से जंगल की कथा को डुबो देगा. वह भूल रहा है कि इसके बाद भी कथा अपनी बची रह गयी अनुपस्थिति की तरह, और इस तरह कहीं अधिक दुर्निवार होकर, बची रह जाएगी.

(यह साहित्य अकादेमी की दिल्ली में हुई आदिवासी साहित्य पर राष्ट्रीय सेमिनार में पढ़े गए अंग्रेजी आलेख ‘Tribal Tales: A Metaphor of Protest’ का हिंदी प्रारूप है.)
______________________
सभी चित्र  indianexpress.com से साभार.


पत्रकारकथाकार. आशुतोष भारद्वाज का एक कहानी संग्रहकुछ अनुवाद,आलोचनात्मक आलेख आदि प्रकाशित हैं. कथादेश के विशेषांक कल्प कल्प का गल्प” का  संपादन किया है. नक्सल प्रभावित इलाक़ों में फ़र्ज़ी मुठभेड़, आदिवासी संघर्ष, माओवादी विद्रोह पर नियमित लिखते रहते हैं.
अख़बार 'इंडियन एक्सप्रेसमें कार्यरत हैं
ई पता : abharwdaj@gmail
---
आशुतोष के आलेख यहाँ पढ़ें
१. अज्ञेय और मैं 
२. उत्तर - अशोक

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>