राजेश जोशी के दूसरे कविता संग्रह‘एक दिन बोलेंगे पेड़’(१९८०) में एक कविता संकलित है ‘बिजली सुधारने वाले’.सदाशिव श्रोत्रिय ने इस कविता पर यह टिप्पणी भेजी है जो कविता के अर्थ और आलोक का विस्तार करती है.
‘बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत’शीर्षक से उनकी एक और कविता है जो उनके पांचवें कविता संग्रह ‘दो पंक्तियों के बीच’ शामिल है उसे भी यहाँ दिया जा रहा है.
यह देखना त्रासद है कि बीस वर्षों के अन्तराल में जो बिजली अंधरे के बरक्स एक उम्मीद थी वह अब हमें अँधेरे का अभ्यस्त बनाने की कोई एक हिकमत बन गयी है.
बिजली सुधारने वाले
राजेश जोशी
अक्सर झड़ी के दिनों में
जब सन्नाट पड़ती है बौछाट
और अंधड़ चलते हैं
आपस में गुत्थम-गुत्था हो जाते हैं
कई तार
या
बिजली के खम्बे पर
कोई नंगा तार
पानी में भीगता
चिंगारियों में चटकता है.
एक फूल आग का
बड़े तारे –सा
झरता है
अचानक
उमड़ आई
अँधेरे की नदी में.
मोहल्ले के मोहल्ले
घुप्प अँधेरे में
डूब जाते हैं
वे आते हैं
बिजली सुधारने वाले.
पानी से तर-ब-तर टोप लगाए
पुरानी बरसातियों की दरारों
और कालर से रिसता पानी
अन्दर तक
भिगो चुका
होता है उन्हें.
भीगते -भागते
वे आते हैं
अँधेरे की दीवार को
अपनी छोटी-सी टार्च से
छेद हुए.
वे आते हैं
हाथों में
रबर के दस्ताने चढ़ाए
साइकिल पर लटकाए
एल्युमीनियम की फोल्डिंग नसेनी
लकड़ी की लम्बी छड़
और एक पुराने झोले में
तार,पेंचकस,टेस्टर
और जाने क्या-क्या
भरे हुए.
वे आते हैं
खम्बे पर टिकाते हैं
अपनी नसेनी को लंबा करते हुए
और चीनी मिट्टी के कानों को उमेठते
एक-एक कर खींचते हैं
देखते हैं
परखते हैं
और फिर कस देते हैं किसी में
एक पतला-सा तार.
एक बार फिर
जग-मग हो जाती है
हर एक घर की आँख.
वे अपनी नसेनी उतारकर
बढ़ जाते हैं
अगले मोहल्ले की तरफ़
अगले अंधेरे की ओर
अपनी सूची में दर्ज
शिकायतों पर
निशान लगाते हुए.
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किसी भी अच्छी कविता की एक विशेषता यह होती है कि उसे बार-बार पढ़ने या सुनने पर भी उससे पाठक या श्रोता का मन नहीं अघाता. एक ऐसी ही बिरली कविता राजेश जोशी की ‘बिजली सुधारने वाले’भी है.
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किसी भी अच्छी कविता की एक विशेषता यह होती है कि उसे बार-बार पढ़ने या सुनने पर भी उससे पाठक या श्रोता का मन नहीं अघाता. एक ऐसी ही बिरली कविता राजेश जोशी की ‘बिजली सुधारने वाले’भी है.
इस तरह की कविताएं तभी जन्म ले पाती हैं जब कोई विचारधारा किसी कवि को संवेदना के स्तर पर प्रभावित करने में समर्थ होती है. तब उस कवि की कल्पना अपने दैनंदिन जीवन से कुछ ऐसे सार्थक बिम्ब खोज लेती है जो उस विचारधारा को सहज ही अभिव्यक्त कर देते हैं.
श्रम और श्रमिको के बग़ैर यह समूची दुनिया अंधेरे में डूब जायेगी और यदि श्रम के प्रति हमने अपना सहज अनुराग खो दिया तो इस धरती पर जीवन दुश्वार हो जायेगा इस बात को चाहे गांधी कहे या टाॅल्सटाॅय, थोरो कहे या मार्क्स, वह हमारी संवेदना को कभी भी उस तरह नहीं प्रभावित कर पाती जिस तरह वह बात राजेश जोशी जैसे एक जन्मजात कवि के उसकी एक कविता के माध्यम से कहने पर हमें प्रभावित करती है, ‘बिजली सुधारने वाले’को इस अर्थ में हम एक सफल कविता कहेंगे.
कविता के प्रारंभिक हिस्से में बरसात के उन आंधी-अंधड़ और बौछार भरे दिनों का वर्णन है जो हमारी बिजली से जगमगाती और सुव्यवस्थित रूप से चलती दुनिया को अचानक अस्त-व्यस्त कर देते हैं. रूपक के तौर पर इस वर्णन को किसी के भी सामान्य रूप से चल रहे जीवन में अचानक आ जाने वाले उस संकट काल की भांति देखा जा सकता है जिसका शिकार कोई भी और कभी भी हो सकता है. ऐसा ही काल हमारे वास्तविक हितैषियों और मित्रों से भी हमारा परिचय करवाता है. कविता के तीसरे, चौथे और पांचवें बंद में कवि अंधेरे-उजाले के सशक्त काव्यात्मक बिम्बों की सृष्टि करता है जो पाठकीय चेतना को गहराई तक प्रभावित करती है:
एक फूल आग का
बड़े तारे-सा
झरता है
अचानक
उमड़ आयी
अंधेरे की नदी में
मोहल्ले के मोहल्ले
घुप्प अंधेरे में
डूब जाते हैं
उमड़ आते अंधेरे की तुलना किसी नदी की बाढ़ से करना कविता के प्रारंभिक बिम्ब-विधान से भी सीधे-सीधे मेल खाता है और की अब तक की कल्पनात्मक प्रगति में कोई व्यतिक्रम नहीं उत्पन्न करता,
इसके बाद बिजली सुधारने वालों का जो वर्णन आता है वह सहज ही उन्हें उन निस्वार्थ फ़रिश्तों की श्रेणी में ला देता है जो स्वयं कष्ट पाकर भी दूसरों का दुख-दर्द मिटाने के लिए रात-दिन कार्यरत रहते हैं. ये वे देवदूत हैं जो अंधकार में डूबे लोगों को फ़िर से रोशनी की दुनिया में लाने की सामर्थ्य रखते हैं और जो अपना काम बग़ैर कोई ढोल पीटे, लगभग गुमनामी में करते रहते हैं. बरसात के कारण उन्हें हो रही असुविधा या कष्ट का कोई ख्याल न करके वे चुपचाप अपना काम करते रहते हैं:
पानी से तर-ब-तर टोप लगाए
पुरानी बरसातियों की दरारों
और कॉलर से रिसता पानी
अंदर तक
भिगो चुका
होता है उन्हें.
कविता के सातवें, आठवें और नवें बंद में इन फ़रिश्तों के उन क्रिया-कलापों का वर्णन है जो लोगों को उनके चारों ओर अचानक घिर आए अंधेरे से निजात दिलाता है. नवें बंद के इनके क्रिया-कलापों को कवि की कल्पना हमारे सामने एक अनूठी जीवन्तता के साथ पेश करती है:
वे आते हैं
...................
और चीनी मिट्टी के कानों को उमेठते
एक-एक करके खींचते हैं
देखते हैं
परखते हैं
फिर कस देते हैं किसी में
एक पतला-सा तार
कविता की ये पंक्तियां अलग-अलग पाठकों/श्रोताओं की कल्पना को अलग-अलग तरह से प्रभावित कर सकती है और यही इनकी विशेषता भी है. उदाहरणार्थ मेरे जैसे किसी पाठक के मन में यह किसी सुंदर बालिका के कानों को छेद कर उसके उस सौंदर्य को निखारने के बिम्ब को भी ला सकती है जो उसे निहारने वाली हर आंख को जगमग कर देता है.
अपने अथक श्रम में लगे हुए और उसके द्वारा एक के बाद दूसरों को राहत पहुंचाने को ही अपना जीवन धर्म मानने वाले इन निरहंकारी श्रमिकों का एक सीधा सादा किन्तु फिर भी एक विशिष्ट गरिमायुक्त वर्णन हमें इस कविता की अंतिम पंक्तियों में मिलता है जो उन्हें सहज ही उन तमाम लोगों से अलग कर देता है जो एक पूंजीवादी व्यवस्था में बग़ैर दूसरों के लिए कुछ किये ऐशोआराम भरा, अहंकारपूर्ण किन्तु फिर भी एक सर्वथा निरर्थक जीवन जीते रहते हैं:
वे अपनी नसेनी उतार कर
बढ़ जाते हैं
अगले मोहल्ले की तरफ़
अगले अंधेरे की ओर
अपनी सूची में दर्ज़
शिकायतों पर
निशान लगाते हुए.
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बिजली का मीटर पढ़ने वाले से बातचीत
राजेश जोशी
बाहर का दरवाज़ा खोल कर दाखिल होता है
बिजली का मीटर पढ़ने वाला
टार्च की रोशनी डाल कर पढ़ता है मीटर
एक हाथ में उसके बिल बनाने की मशीन है
जिसमें दाखिल करता है वह एक संख्या
जो बताती है कि
कितनी यूनिट बिजली खर्च की मैंने
अपने घर की रोशनी के लिए
क्या तुम्हारी प्रौद्योगिकी में कोई ऐसी हिक़मत है
अपनी आवाज़ को थोड़ा -सा मज़ाकिया बनाते हुए
मैं पूछता हूँ
कि जिससे जाना जा सके कि इस अवधि में
कितना अँधेरा पैदा किया गया हमारे घरों में?
हम लोग एक ऐसे समय के नागरिक हैं
जिसमें हर दिन महँगी होती जाती है रोशनी
और बढ़ता जाता है अँधेरे का आयतन लगातार
चेहरा घुमा कर घूरता है वह मुझे
चिढ़ कर कहता है
मैं एक सरकारी मुलाजिम हूँ
और तुम राजनीतिक बक़वास कर रहे हो मुझसे!
अरे नहीं नहीं....समझाने की कोशिश करता हूँ मैं उसे
मैं तो एक साधारण आदमी हूँ अदना-सा मुलाजिम
और मैं अँधेरा शब्द का इस्तेमाल अँधेरे के लिए ही कर रहा हूँ
दूसरे किसी अर्थ में नहीं
हमारे समय की यह भी एक अजीब दिक्क़त है
एक सीधे-सादे वाक्य को भी लोग सीधे-सादे वाक्य की तरह नहीं लेते
हमेशा ढूँढने लगते हैं उसमें एक दूसरा अर्थ
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