Quantcast
Channel: समालोचन
Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

रंग-राग : राज़ी के अंतर्द्वंद्व : रवीन्द्र त्रिपाठी

$
0
0

























बहुत दिनों बाद ऐसी फ़िल्म प्रदर्शित हुई है जिसके प्रशंसकों में बुद्धिजीवी भी शामिल हैं. युद्ध, और त्याग-बलिदान पर आधारित फिल्मे ख़ासकर हिंदी फिल्में अपने इकहरे नरैटिव के कारण कभी भी गम्भीर बहस के केंद्र में नहीं रही हैं अमूमन.

इस फ़िल्म ने युद्ध में शामिल (हुईं/ की गयीं/ शिकार हुईं) स्त्रियों के अन्तर्द्वन्द्व/यातना और उनके प्रति सत्ता और समाज की उपेक्षा/अन्तर्विरोधों को समाने ला दिया है. संस्कृतिकर्मी और लेखक रवीन्द्र त्रिपाठी का यह आलेख इस फ़िल्म की समीक्षा नहीं है.  यह ‘सहमत (तों)’ के अन्तर्द्वन्द्व और यातना की पहचान करता है.




ओ सहमत! तुम्हारे अंतर्दद्वद्व क्या थे           
रवीन्द्र त्रिपाठी



मेघना गुलजार की फिल्म `राज़ीसहमत नाम की एक ऐसी कश्मीरी लड़की के केंद्र में है जो भारतीय खुफिया एजेंसी की जासूस बनकर सन् 1971 में पाकिस्तान जाती है. फिल्म हरिंदर सिक्का की पुस्तक `कॉलिंग सहमतके  एक अंश से प्रेरित है. सिक्का के जो बयान आए हैं उनसे पता चलता है कि असल में एक ऐसी लड़की थी जो जिसने भारत के लिए जासूसी का काम किया था. सिक्का ने अपनी रचना में लड़की का नाम बदल दिया है. यानी सहमत उसका वास्तविक नाम नहीं था. सहमत को संबोधित कर यहां जो लिखा जा रहा है वह मुख्य रूप से फिल्मी चरित्र को लेकर है. फिर भी जो लिखा जा रहा है वह फिल्मी सहमत के साथ साथ वास्तविक `सहमतको भी संबोधित है.


अक्सर हम कल्पित चरित्रों के, चाहे वो साहित्य की हों या फिल्मों की, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष ही देखते हैं. उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष को अनदेखा- सा कर देते हैं.  हालांकि  `राज़ीमें मेघना गुलजारने आलिया भट्टके माध्यम से पाकिस्तान में जासूस की भूमिका निभानेवाली सहमत के  भय और संकोचों को भी भरपूर दिखाया है. पर मेरा मानना ये है कि सहमत का एक बड़ा मनोवैज्ञानिक आत्म-संघर्ष पाकिस्तान में जासूसी करने के दौरान भी उसके अंतर में चल रहा था और ये फिल्म में उभरता नहीं है. वास्तविक सहमत का ये मनोवैज्ञानिक आत्म-संघर्ष  भारत आने के बाद चलता रहा होगा.


अक्सर हम कल्पित चरित्रों के, चाहे वो साहित्य की हों या फिल्मों की, सामाजिक और सांस्कृतिक पक्ष ही देखते हैं. उनके मनोवैज्ञानिक पक्ष को अनदेखा- सा कर देते हैं.  हालांकि  `राज़ीमें मेघना गुलजारने आलिया भट्टके माध्यम से पाकिस्तान में जासूस की भूमिका निभानेवाली सहमत के  भय और संकोचों को भी भरपूर दिखाया है. पर मेरा मानना ये है कि सहमत का एक बड़ा मनोवैज्ञानिक आत्म-संघर्ष पाकिस्तान में जासूसी करने के दौरान भी उसके अंतर में चल रहा था और ये फिल्म में उभरता नहीं है. वास्तविक सहमत का ये मनोवैज्ञानिक आत्म-संघर्ष  भारत आने के बाद चलता रहा होगा.




तना तो फिल्म में बताया गया है राज़ खुलने के बाद पाकिस्तानियों के  हाथों में पड़ने से सहमत को बचाने की कोशिश लगभग असफल हो चुकी थी, फिर भी किसी तरह बचकर वह जब भारत लौटती है तो वह गर्भवती होती है. वो गर्भपात करवाने का फैसला करती है. क्या  वह फैसला आसान रहा होगाऔर क्या पाकिस्तान में अपने पति इकबालसे लंबे समय तक शारीरिक रिश्ता बनाए  रखना भी एक किस्म की आंतरिक लड़ाई नहीं रही होगी? ये ठीक है कि सहमत की इकबालसे (फिल्म में) शादी हुई थी और पति के साथ शारीरिक रिश्ता बनाने में कैसा संकोच? पर, याद रहे, सहमत एक मिशन पर थी  और उसके लिए शादी एक पेशेगत मजबूरी थी. क्या पेशेगत दबाव में जो  लड़की  अपने `पतिया किसी पुरुष  से लगातार शारीरिक रिश्ता बनाए रखती है तो वो अपने  भीतर के हलचलों से परे रही होगी?

जासूस भी कोई मशीन नहीं कि उसकी प्रोग्रामिंग कर दी जाए और सबकुछ ठीक ठाक चलता रहे. सहमत तो मनुष्य थी. कोई बवंडर उसके अंदर नहीं पैदा होता होगा कि ये मैं क्या कर रही हूं? मेघना गुलजार ने फिल्म में सहमत के जो डर और आशंकाएं दिखाई हैं वो इस बात को लेकर हैं कि कहीं जासूसी वाला राज़ फाश न हो जाए. लेकिन सहमत नाम की औरत के मन के भीतर झांकने की जरूरत निर्देशक के मन में उपजी या नहीं? फिल्म में भीतर का ये आंतरित मन लगभग नहीं के बराबर दिखाई देता है. शायद जासूसी या एक्शन फिल्मों का व्याकरण इसकी इजाजत नहीं देता है. या ये कि एक्शन फिल्मों की बनावट पुरुष-सोच से निर्मित हुई है और उसमें ऐसी चीजों को लिए जगह नहीं है? या इन सबके बारे में सोचा ही नहीं गया है?

फिर भी सजग और सचेत दर्शक के मन में तो ये प्रश्न उठेगा कि उन लम्हों में जब सहमत और इकबाल एक दूसरे से प्रेम कर रहे होंगे तो इस  महिला जासूस क्या अंतरंग किस तरह आलोड़ित होता होगा. क्या वो ये सोचती होगी कि  मैं तो एकांत के इन लम्हों में भी नाटक कर रही हूं और  इसमें मुझे अपनी भूमिका इस तरह निभानी है कि मेरे मिंयां के दिमाग में कोई शक न हो.  क्या ये  नाटक भर था? उस तरह का जिसे हम मंच पर देखते हैं  और जिसमें अभिनेता किसी चरित्र की भूमिका को डेढ़-दो घंटे तक निभाता है कि और उसके बाद अपने हकीकत में वापस लौट आता है.  लेकिन यहां तो नाटक सहमत के भीतर प्रवेश कर गया था. इस दौरान कोई मनोवैज्ञानिक टूटफूट सहमत के अंदर हुई या नहीं?

ये भी सोचने की बात है कि भारत आने के बाद और इकबाल के साथ संबंध के दौरान गर्भस्थ हुए बच्चे के मुक्त होने के बाद  सहमत की बाकी जिंदगी कैसी गुजरी?  जो खबरें आई हैं उनके मुताबिक  सहमत (या उसका जो भी वास्तविक नाम हो) ने फिर से शादी की और उसका पुत्र भारतीय सेना में अधिकारी भी रहा. हालांकि दूसरी शादी करने में किसी तरह का अनौचित्य नहीं है. फिर भी जिन परिस्थितियों में सहमत ने दूसरी शादी की वह सामान्य  नहीं थी. क्या पहली शादी को नाटक समझना और दूसरी शादी को असल- एक सहज अनुभव रहा होगा? और फिर भारत- पाकिस्तान युद्ध के बाद इतने दिनों तक अनाम बने रहना भी मन के भीतर कुछ खालीपन नहीं पैदा करता होगा? 

देश के लिए अपने को खतरे में डालना और अपनी भावनाओं को पाकिस्तान में रहने के दौरान लगातार दबाए रखना निश्चय ही सहमत के लिए भीषण भीतरी  लड़ाई रही होगी. दोनो लड़ाइयों को लड़ने के बाद और उनमें जीतने (?) के बाद भी, गुमनामी का जीवन जीना मन के भीतर कुछ खलल नहीं पैदा करता होगा? सहमत के इस अस्तित्वगत संघर्ष में उन तनाम लोगों का दर्द शामिल है जो दुनिया भर की लड़ाइयों में गुमनाम रहे. आखिर युद्ध सिर्फ सीमा पर तैनात सैनिक या अपने कक्षों में बैठे जनरल नहीं लड़ते. वे भी लड़ते और झेलते  हैं जो इसमें दूसरी तरह से सहभागी होते हैं और जिनका बाद में कोई उल्लेख नहीं होता. लड़ाई में  मारे गए सैनिकों की भी अपनी पीड़ा होती है. पर उनकी बहादुरी को तो दर्ज कर लिया जाता है और उनको मेडल या सम्मान मिलते हैं. इस प्रक्रिया में उनकी एक मुकम्मल पहचान बन जाती है. पर सहमत जैसे लोगों का, जो जिस्मानी तौर पर ही नहीं बल्कि रूहानी तौर पर युद्ध में हताहत होते हैं, की कोई पहचान नहीं बनती. उनके योगदान को किसी भी स्तर पर दर्ज भी नहीं किया जाता.




क्यावीरता को जिस अर्थ में  हम अभी तक समझते आए हैं वह समस्य़ामूलक है? यहां `हमसे तात्पर्य सिर्फ भारतीय भर नही है. पूरी दुनिया में वीरता की अवधारणा का आरोपण उन पर ही होता रहा है जो युद्ध के मैदान में अस्त्रशस्त्र के साथ लड़ते हैं. भले ही वे लड़ाई में भरपूर क्रूरता क्यों न दिखाएं. दुनिया के बड़े साहित्य में भी वीरता ऐसे ही चित्रित हुई है. पर उनका क्या जो किसी लड़ाई में भाग लेते हैं, या उसके शिकार तो होते हैं, मगर इतिहास में कहीं कोई जगह नहीं बना पाते. वैसे तो युद्ध ही अपने में मानवविरोधी उपक्रम है लेकिन जो उनमें अनाम रह जाते हैं उनके होने को ही भुला दिया जाता है. ये दोहरी त्रासदी है. ऐसे लोगों के एहसास, उनकी पीड़ाएं और उनके दर्द को कौन सुनेगा? है. इस मसले का एक और अध्याय है जिसे हर देश और समाज को याद करना चाहिए.

वह अध्याय लिखा गया बांग्लादेश में. ये अध्याय अन्य युद्धों की तरह ये भी बताता है कि युद्ध एक पुरुषोचित कर्म है और औरतों को उनका शिकार ही होना पड़ता है. 1971 में भारत-पाकिस्तान युद्ध उस पूर्व पाकिस्तान की आजादी के लिए हुआ था जिसे अब बांग्ला देश कहा जाता है. उस युद्ध में (पश्चिमी) पाकिस्तानी सेना ने पूर्व पाकिस्तानी  महिलाओं के साथ बड़े पैमाने पर बलात्कार किए थे. बांग्ला देश की आजादी की लड़ाई के अगुआ और वहां के पूर्व-राष्ट्रपति और पूर्व-प्रधानमंत्री शेख मुजीबुर्ररहमान (जिनकी 1975 में हत्या कर दी गई) ने युद्ध के बाद बलात्कृत महिलाओं को वीरांगना कहा. वीरांगना यानी वीर महिलाएं. आगे चलकर वहां की सरकार ने भी ऐसी कुछ महिलाओं को आधिकारिक तौर पर वीरांगना माना. हालांकि ये सबकुछ बहुत पेचीदा रहा और कहानी लंबी है. इन `वीरांगनामहिलाओं  को सामाजिक लांछन भी झेलने  पड़े. पर फिलहाल यहां इस मुद्दे का प्रासंगिक  पहलू ये है कि बांग्लादेश ने वीरता की एक नई परिभाषा पेश की.


पहले भी दुनिया के कई देशों और इलाकों में महिलाओं के साथ इस तरह के वाकये हुए थे और आज भी हो रहे हैं. जापानी सेना ने कोरियाई  महिलाओं का `कंफर्ट गर्लके रूप में इस्तेमाल किया इसे भी आज तक भूला नहीं गया है. ऐसी तमाम महिलाओं को भी  वीरांगना क्यों न माना जाए? ऐसी महिलाएं भी क्या योद्धा नहीं होतींये प्रश्न `राज़ी’  और सहमत  से सीधे सीधे भले न जुड़े पर दूर से तो जुड़ता है. 

हम भी  सहमत (या जो भी उसका वास्तविक नाम हो) और उस जैसे तमाम गुमनामों को वीर या वीरांगना के रूप में प्रतिष्ठित न क्यों करें? सरकार भले न करे या देर से करे, समाज तो जल्द कर सकता है. आइए, चलाएं एक अभियान इस `सहमतऔर दूसरी `सहमतों’  के लिए.
_______
tripathi.ravindra@gmail.com

Viewing all articles
Browse latest Browse all 1573

Trending Articles



<script src="https://jsc.adskeeper.com/r/s/rssing.com.1596347.js" async> </script>